अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नुसरत

नुसरत मिठाई का डिब्बा लिए हुए के.पी. साहब के चैंबर के सामने पहुँची। अर्दली कुर्सी पर बैठा मोबाईल में व्यस्त था। नुसरत ने उससे पूछा, “साहब बैठे हैं क्या?” 

अर्दली ने एक दृष्टि मिठाई के डिब्बे और फिर उसके चेहरे पर डाल कर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछा, “हाँ बैठे हैं। मिलना है क्या?” 

नुसरत ने कहा, “हाँ, मुझे मिलना है।”

अर्दली उठते हुए बोला, “एक मिनट रुकिए, पूछ कर बताता हूँ।”

वह मिनट भर में अंदर से लौट कर बोला, “जाइए, साहब अच्छे मूड में हैं। देखिये सारी मिठाई उन्हीं को न खिला दीजियेगा।” फिर एक अर्थ-भरी मुस्कान उछाल कर दरवाज़ा खोल दिया। के.पी. साहब विभाग में बाबा-साहब के नाम से जाने जाते हैं। 

दरवाज़े से अंदर पहुँचते ही नुसरत ने देखा वह एक बड़ी सी मेज़ की उस तरफ़ बैठे हैं। माथे पर आज भी पहले की ही तरह बड़ा सा हल्दी और चंदन का तिलक लगा हुआ था। रेशमी खादी की बादामी शर्ट पहने हुए थे। दाहिनी तरफ़ एक कंप्यूटर रखा था, तो ठीक उनके सामने उनका लैपटॉप खुला हुआ रखा था। 

नुसरत कुछ कहती कि उसके पहले ही उन्होंने उसकी ओर देखे बिना ही पूछा, “हाँ नुसरत जी, बताइए कैसे आना हुआ? आज तो आपको अपनी नौकरी ज्वाइन करनी है। आपकी नौकरी का पहला दिन है आज।”

नुसरत ने बहुत ही संकुचाते हुए कहा, “जी सर, मैंने ज्वाइन कर लिया है। मैं आपके लिए मिठाई ले आई हूँ।”

यह सुनते ही लैपटॉप पर तेज़ी से थिरकती बाबा-साहब की उँगलियाँ एकदम ठहर गईं। मूर्तिवत कुछ देर न जाने क्या सोचने के बाद, सिर उठाकर नुसरत को देखा। और देखते ही रहे कुछ सेकेण्ड तक। उसके बाद बड़ी गंभीर आवाज़ में पूछा, “नुसरत जी यह बताइये, जिन परिस्थितियों में आपको यह नौकरी मिली है, उसे देखते हुए क्या इसे आप अपने लिए ख़ुशी का अवसर मानती हैं?” 

नुसरत ने ऐसे प्रश्न की कल्पना तक नहीं की थी, इसलिए वह एकदम सकपका गई। वह दोनों हाथों से लड्डुओं से भरा डिब्बा पकड़े खड़ी रही। उसका नर्वस लेवल अचानक ही बिलकुल चरम स्तर पर पहुँच गया था। वह सहमती हुई इतना ही बोल सकी कि, “जी, जी मैं . . .”

उसकी मनःस्थिति को समझते हुए बाबा-साहब ने कहा, “देखिये, मेरी बात बहुत सीधी और साफ़ है कि आपको यह नौकरी आपके पति की बेहद दुर्भाग्य-पूर्ण ढंग से असामयिक मृत्यु के कारण मिली। उनकी उम्र भी कोई ज़्यादा नहीं थी। चालीस के भीतर ही थे। 

“यह बड़ी ही कष्ट-पूर्ण, दुखदाई बात है कि पति की मृत्यु के कारण विवशतावश आपको नौकरी करनी पड़ रही है। जिससे आप अपना, अपने बच्चों का जीवन-यापन कर सकें। आजीविका की समस्या नहीं होती तो मुझे नहीं लगता कि आप यहाँ नौकरी करतीं।

“शुरू से ही एक घरेलू महिला, गृहिणी का जीवन जीने वाली महिला को जीवन की अच्छी-ख़ासी यात्रा पूरी करने के बाद, अचानक ही नौकरी करनी पड़े, मुझे नहीं लगता कि यह उस महिला के लिए ख़ुशी का कारण है। इसलिए आप इसे अन्यथा नहीं लीजिएगा, मैं यह मिठाई नहीं खा सकता। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए न यह उचित है और न ही सम्भव। 

“हाँ, मैं इस अवसर पर आपको शुभकामनाएँ देता हूँ कि, आप सफलतापूर्वक अपनी नौकरी करती हुई अपना, अपने बच्चों का भविष्य सुंदर, सुरक्षित बना सकें। वैसे यह बताइए कि यह मिठाई आप अपनी इच्छा से लेकर आई हैं या कि आप से ऑफ़िस में किसी ने कहा।”

नर्वस लेवल के अब भी हाई बने रहने के कारण नुसरत काँप रही थी। मारे डर के जो कुछ सच था वह वही बताने लगी। उसने थोड़ा अटकते हुए कहा कि, “जी . . . जी सब लोग कहने लगे कि, नौकरी लगी है। पार्टी-शार्टी ना सही। मिठाई तो बनती ही है। बार-बार कहने लगे तो मैंने सोचा कि . . .”

नुसरत ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। तभी बाबा-साहब बोले, “जिन लोगों ने यह कहा, मैं उनका नाम पूछ कर आपको धर्म-संकट में नहीं डालूँगा। क्योंकि मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि कौन लोग हैं जो यह कर सकते हैं। 

“यह पियक्कड़ों की मंडली क्या-क्या कर सकती है, करवा सकती है पीने-खाने के लिए, इसकी कोई सीमा नहीं है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि मद्य-निषेध विभाग में पियक्कड़ों की मंडली नहीं, मंडलियाँ हैं। 

“ख़ैर, बड़ा होने के नाते आपको एक सलाह देता हूँ, आपके पति से भी बार-बार कहता था कि, पियक्कड़ों की इस मंडली से बचें। दूर रहें इनसे। बाक़ी जैसी आपकी इच्छा।”

इतना कह कर बाबा-साहब ने उसे मिठाई लाने के लिए धन्यवाद देते हुए बाहर जाने का संकेत दे दिया। नुसरत में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि, एक बार फिर मिठाई के लिए बोलती। वह दो क़दम पीछे हट कर मुड़ी और चैंबर से बाहर आ गई। 

चैंबर को एसी ने ख़ूब ठंडा किया हुआ था, फिर भी जब वह बाहर निकली तो उसके माथे पर चमकता पसीना आसानी से देखा जा सकता था। 

उसके बाहर आते ही अर्दली ने दरवाज़ा बंद कर दिया और झट से दो लड्डू उठाते हुए हाथ से इशारा किया कि, बाबा-साहब सिरफिरा आदमी है। और मुँह में पूरा एक लड्डू भर लिया। फिर दोनों आँखें मटका कर इशारा किया कि अब जाओ। 

नुसरत भी उसे देखकर मुस्कुराई और सेक्शन में चली गई। वहाँ सच में मंडलियाँ लड्डुओं की प्रतीक्षा कर रही थीं। 

वह सब के पास पहुँच रही थी, लेकिन कुछ इतनी जल्दी में थे कि, ख़ुद को रोक नहीं पाए। उठकर सीधे उसी के पास पहुँच गए। इनमें से कई लड्डू उठाने से पहले उसे बधाई देते हुए हाथ ज़रूर मिला रहे थे। यह देखने के बावजूद कि उसके हाथों में मिठाई का डिब्बा है। उसे एक हाथ से डिब्बा पकड़ कर हाथ मिलाना बहुत मुश्किल हो रहा है। 

आधे घंटे में लड्डू वितरण करने के बाद वह अपनी सीट पर बैठी। कुछ लोगों का ज़ोर हाथ मिलाने, देर तक उसे पकड़े रहने पर ही नहीं होता, तो उसे लड्डू वितरण में इतना समय नहीं लगता। नुसरत का काम लेटर डिस्पैच देखना था। लेकिन फ़िलहाल उसके पास कोई काम नहीं था। 

बाबा-साहब ने एक शुभ-चिंतक की तरह उसे मंडलियों से बचकर रहने की सलाह दी थी। लेकिन उन्हीं मंडलियों में से सबसे शातिर मंडली ने लंच टाइम में उसे एकदम से घेर लिया। मानो उनमें होड़ लगी हो कि कहीं पिछड़ न जाएँ। सब ने उसे अपने साथ बैठा कर लंच कराया। उनके साथ ही नुसरत के भी हाव-भाव देखकर कोई नहीं कह सकता था कि, यह मंडली और वह पहली बार साथ लंच कर रहे हैं। 

वास्तव में यह सही भी था। उस मंडली के चार में से तीन सदस्य ऐसे थे जो पिछले कई वर्षों से नुसरत के यहाँ महीने में पाँच-छह बार सजने वाली महफ़िल में शरीक़ होते ही थे। शाम को ऑफ़िस से निकलने के बाद उसके शौहर नज़्मुद्दीन के साथ-साथ पहुँच जाते थे। फिर देर रात तक खाना-पीना, हँसी-ठिठोली ख़ूब चलती थी। 

जिस दिन महफ़िल सजनी होती थी, उस दिन नुसरत तीनों बच्चों को खिला-पिलाकर जल्दी सुला दिया करती थी। जिससे पति के साथ वह भी महफ़िल का रस और लुत्फ़ ले सके। 

उसे बहुत अच्छा लगता था जब मंडली का कोई सदस्य उसके हाथ के बने मटन, चिकन को खाते हुए, उसकी तारीफ़ करता हुआ कहता कि, 'इतना उम्दा मटन तो किसी होटल में भी नहीं मिलेगा। मन करता है आपके हाथों को चूम लूँ, आपकी उँगलियाँ भी चूस लूँ।'

कई बार यह भी होता कि, यह कहते हुए वह सदस्य साथ खा-पी रही नुसरत की शोरबे में डूबी उँगलियों को सच में, मुँह में लेकर चूस लेता। इसके साथ ही महफ़िल में सभी की हँसी का एक छौंका सा लग जाता। और तब साथ ही बैठा उसका शौहर बड़ी नाज़ुक अदा के साथ एक हाथ से उसे अपने से सटाते हुए कहता, “आख़िर बेग़म किसकी है।”

जब रात ग्यारह-बारह बजते-बजते महफ़िल मुक़ाम पर पहुँच जाती और रुख़सती का वक़्त आता तो सब एक दूसरे को गले मिलकर शानदार महफ़िल के लिए बधाई देते। हर कोई जाते-जाते नुसरत से ज़ोरदार ढंग से गले मिलकर, उसकी शान में क़सीदे पढ़ना, उसे शुक्रिया, कहना न भूलता। 

साथ ही नज़्मुद्दीन की तारीफ़ के पुल बाँधते हुए कहता कि, “यार जो भी हो, जैसा इंतज़ाम तुम करते हो, वैसा हम-लोग कुछ कर ही नहीं पाते। बहुत ही शानदार है तुम्हारा मुक़द्दर जो ऐसी ख़ूबसूरत, जानदार, शानदार, बेग़म मिली है।”

वास्तव में सभी इस महफ़िल के आयोजक-प्रायोजक होते थे। सभी कुछ ना कुछ लेकर आते थे। 

इसी मंडली के साथ नुसरत ऑफ़िस में पहले ही दिन लंच कर रही थी। उसके चेहरे, उसकी शारीरिक भाषा में कोई संकोच, या सकपकाहट जैसा कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। 

लंच के दौरान चर्चा का मुख्य विषय था कि बाबा-साहब ने उससे क्या-क्या कहा। वह उन्हें सारी बातें बता रही थी, जो नमक-मिर्च कोटेड थीं। 

उसने कहा कि, “मैं तो उनकी आँखें ही देखकर सहम गई थी। हमने तो सोचा ही नहीं था कि कोई इस तरह से मिठाई खाने से मना कर देगा। उससे ज़्यादा यह कि इतनी बड़ी-बड़ी नसीहत दे डालेगा। यह तो अच्छा हुआ कि आप लोगों ने उनकी सारी हिस्ट्री पहले ही बता दी थी। नहीं तो मैं उल्टे पाँव ही भाग आती।”

ऑफ़िस में उसके इस पहले लंच के दौरान ही, दो दिन बाद पड़ने वाले रविवार को नौकरी ज्वॉइन करने की ख़ुशी में जश्न मनाना तय हो गया। 

पहली बार शौहर के बिना ही नुसरत ने घर में महफ़िल सजाई थी। महफ़िल के मिज़ाज से कहीं एक बार को भी यह नहीं लगा कि, किसी ने फ़ॉर्मेलिटी के लिए भी नज़्मुद्दीन को क्षण-भर को भी याद किया हो। 

हाँ, महफ़िल के जोश-ख़रोश ने पिछली सारी महफ़िलों को पीछे छोड़ दिया था। सारी रात चली इस महफ़िल का जोश कुछ ऐसा था कि, अगले दिन मंडली लंच के बाद ही ऑफ़िस पहुँची। 

सबके चेहरे, आँखें चीख-चीख कर बीती-रात की महफ़िल का पूरा अफ़साना बता रही थीं। नुसरत ने जिस दूसरी मंडली को ठुकरा दिया था, उसने अपनी ख़ुन्नस अपने तरीक़े से महफ़िल की सारी रिपोर्ट बाबा-साहब तक पहुँचा कर निकाली थी। 

लेकिन लहसुन प्याज़ तक ना खाने वाले, नित्य प्रातः, संध्या, पूजा-पाठ करने वाले, पौराणिक आख्यानों के अध्येता, वेद पाठी ब्राह्मणों पर भी भारी पड़ने वाले यदुवंशी बाबा-साहब को विश्वास नहीं हो रहा था कि, नुसरत शौहर के न रहने पर ऐसी महफ़िल न सिर्फ़ अपने घर में ही सजाएगी, उसमें शामिल होगी, बल्कि स्वयं ही उसकी केंद्र बिंदु भी बनेगी। 

सारी बातें जानने के बाद ही वो एक काम के बहाने नुसरत को अर्दली भेजकर बुला चुके थे। तभी अर्दली ने उन्हें सूचना दे दी थी कि पूरी मंडली बिना किसी सूचना के ग़ायब है। सभी के फ़ोन स्विच ऑफ़ मिल रहे हैं। 

यह सब जान-सुन कर बाबा-साहब बहुत ग़ुस्से, तनाव में आ गए। ज़रा सी बात को भी लेकर फुल तनाव में आ जाना उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। 

इस समय भी उनके लिए कोई बात नहीं थी, लेकिन वह इतने तनाव, उलझन में आ गए कि एक गिलास पानी पी कर उठे और मंडली के सेक्शन में जाकर, अकाउंटेंट साहब को अपने साथ, अपने चैंबर में ले आए। उन्हें बुलाने के लिए अर्दली को नहीं भेजा। उनकी एक ख़ास बात यह है कि जब वह किसी उलझन में उलझ जाते हैं, तो उससे निकलने के लिए अकाउंटेंट श्रीवास्तव जी का सहारा लेते हैं। 

उनको बुलाने स्वयं जाते हैं। और हर बार चैंबर में, उन्हें बैठने को कहकर, अपनी सीट पर बैठते हुए पूछते हैं, “श्रीवास्तव जी जानते हैं, मेरे जीवन में एक बड़ी ख़ास बात क्या है?” 

यह पूछ कर वह सामने बैठे श्रीवास्तव जी को प्रश्न-वाचक दृष्टि से तब-तक देखते रहते हैं, जब-तक श्रीवास्तव जी यह पूछ नहीं लेते हैं, “क्या सर?” 
 
तब वह बड़े अंदाज़ से अपनी बड़ी सी रिवॉल्विंग चेयर पर आराम से बैठ कर कहते हैं कि, “बताता हूँ।” 

फिर घंटी बजा कर अर्दली को बुलाते हैं, और दो चाय लाने के लिए कह कर आगे बोलते हैं, “क्या है कि द्वापर युग में यदुवंशी, कौरव, पाण्डव का पारिवारिक मामला सुलझाते-सुलझाते अब-तक के सबसे बड़े महायुद्ध का हिस्सा बन गए थे। और मात्र यही नहीं हुआ था, कौरव, पाण्डव के बँटने से पहले ख़ुद ही बँट गए थे। भगवान कृष्ण पाण्डव की तरफ़़ होकर अर्जुन के सारथी बन गए। और उनकी नारायणी सेना कौरवों की तरफ़ से लड़ने चली गई। और युद्ध में लड़कर अस्त-व्यस्त हो गई। 

“मैं कहता हूँ कि, भाई दूसरे के मामले में पड़ कर स्वयं को समाप्त कर लेने का क्या औचित्य था। आख़िर ऐसा कौन सा रणनीतिक, दैविक कारण था। जानते हैं ऐसा क्यों हुआ?” 

श्रीवास्तव जी हर बार बड़ी मासूमियत से पूछते हैं, “क्यों हुआ सर?” 

तब वह बड़ी गंभीरता से कहते, “देखिए जितना मैं जानता हूँ उस उस हिसाब से उनके साथ कोई चित्रगुप्तवंशी नहीं था। जो उन्हें सही-सटीक सलाह देता। साफ़-साफ़ कहता, कि यह करिए, यह न करिए। 

“भगवान कृष्ण अवतार रूप में कौरव, पांडव को सलाह देते रहे। मामले में गहरे उतरते चले गए। लेकिन कोई उन्हें सलाह देने वाला नहीं था कि, आप मध्यस्थता करिए अच्छी बात है। आप सर्व-शक्तिशाली हैं। लेकिन अपनी ही नारायणी सेना को किसी और के लिए लड़ने हेतु भेज कर, उसका समूल नाश कराने की क्या आवश्यकता है। 

“हाँ यह सब यदि विधि का रचा था, यह होना ही था तो बात किसी भी तर्क़ से परे है। इसलिए अब मैं सिर्फ़ अपनी बात करूँगा। 

“जानते हैं, बचपन से ही ऐसा संयोग रहा है कि, मेरे साथ कोई न कोई चित्रगुप्तवंशी या चित्रांशी अवश्य ही जुड़ा रहा। स्कूल, कॉलेज के बाद अब नौकरी में आप हैं। इससे क्या होता है कि, मुझे किसी भी टॉपिक पर डिसक्स करने के लिए सोचना नहीं पड़ता। आवश्यकता ही नहीं पड़ती।”

बाबा-साहब ऐसी ही कुछ और बातें करने के बाद सीधे मंडली प्रकरण पर उतर आए। वह पूरी मंडली को कड़ी चेतावनी देना चाहते थे कि महफ़िल, जश्न के कारण सभी एक साथ ग़ायब हैं। अब-तक चाय आ गई थी। 

श्रीवास्तव जी समझ गए थे कि अब घंटे-भर से पहले फ़ुर्सत मिलने वाली नहीं। वह यह भी जानते थे कि इनकी क्रोधाग्नि अगर शांत ना की गई तो नियम-क़ानून ऐसे हैं, विभाग का माहौल ऐसा है कि यह इस अग्नि में स्वयं को ही झुलसा लेंगे। 

उन्होंने उनको शांत करने की कोशिश की तो बाबा-साहब थोड़ा और बहकते हुए बोले, “यह बिल्कुल ग़लत है। यह क्या तरीक़ा है कि, आप अपने घर को शराब-खाना बना दें और उसके साइड इफ़ेक्ट के रूप में ऑफ़िस में आपके काम, उत्तरदायित्व मज़ाक बन कर रह जाएँ। 

“आप महफ़िलनोशी के चलते जब मन हो ऑफ़िस आएँ, नहीं तो घर बैठ जाएँ। चलिए ये मान लेता हूँ कि मय-नोशी, तन-नोसीशी, महफ़िलनोशी, आदि आपका पर्सनल मैटर है। मुझे उसमें नहीं पड़ना चाहिए, मैं पड़ना भी नहीं चाहता। लेकिन आप ऑफ़िस में अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन ठीक से कर रहे हैं या नहीं, यह सुनिश्चित करना मेरा उत्तरदायित्व है। और अपने उत्तरदायित्व के निर्वहन में मैं पिन-पॉइंट के बराबर भी पीछे रहूँ यह मेरे लिए सम्भव नहीं है।”

बाबा-साहब पूरे फ़ायरी अन्दाज में बोले चले जा रहे थे। श्रीवास्तव जी ने उन्हें पूरी तरह फ़ायर हो जाने देने के उद्देश्य से कहा, “देखिए सर, इसके लिए मैं गवर्नमेंट की पॉलिसी को भी ज़िम्मेदार मानता हूँ। यह हास्यास्पद, कुटिलतापूर्ण, छद्मपूर्ण बात है कि नहीं, कि एक तरफ़ आप मद्य-निषेध विभाग खोलते हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन देते हैं कि, पिता जी मेरे भविष्य के लिए न पीजिए, आदि आदि। न जाने कैसे-कैसे स्लोगन की होर्डिंग्स लगाते हैं। दूसरी तरफ़ ज़्यादा राजस्व कमाने का लोभ भी नहीं त्याग पाते। 

“आबकारी विभाग भी खोले हुए हैं। ख़रबों रुपए का राजस्व कमा रहे हैं। तो जब शराब बिना न आपका, न जनता का काम चल पा रहा है, तो मद्य-निषेध विभाग बंद करिए न। टैक्स-पेयर के पैसों से सफ़ेद हाथी पाल कर, देश को, टैक्स-पेयर को क्यों धोखा दिया जा रहा है। 

 “लोग पी-पी कर मर रहे हैं। घर के घर तबाह हो रहे हैं। नशे में एक्सीडेंट हो रहे हैं। क्राइम बढ़ रहा है। रिश्तों की सीमाएँ ध्वस्त हो रही हैं। क्या सही, क्या ग़लत नशे में किसे क्या ख़बर। इन सारी बातों की परवाह कौन कर रहा है। 

 “अपने यहाँ यह जो मंडलियाँ कर रही हैं, उसके लिए मैं उनको और गवर्नमेंट, दोनों को बराबर का ज़िम्मेदार मानता हूँ। बल्कि गवर्नमेंट को ज़्यादा। क्योंकि उसकी पॉलिसी पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित रहती है कि, शराब की खपत कैसे ज़्यादा से ज़्यादा हो। सर यदि मैं ग़लत हूँ, तो आप ही बताइए कि सही क्या है?” 

बाबा-साहब चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। इस बीच मोबाईल पर दोबारा किसी की कॉल आई, लेकिन उन्होंने फिर पहले की तरह कॉल रिसीव नहीं की। श्रीवास्तव जी की बात पूरी होने के बाद कुछ देर सोचते रहे। फिर उनकी आँखों में आँखें डाल कर बोले, “आपकी बातों से मुझे दो अर्थ मिल रहे हैं। पहला यह कि आप एक लॉयर की तरह इन मंडलियों को डिफ़ेंड कर रहे हैं। 

“दूसरा आप यह चाहते हैं कि, विभाग में जो कुछ भी, जैसा भी चल रहा है, वह सब यथावत चलता रहे। आप क्या चाहते हैं कि, जैसे नज़्मुद्दीन शराब पी-पी कर मर गया सात-आठ वर्षों में, क्या उसी तरह उसकी पत्नी, मंडलियों के बाक़ी सदस्यों को भी मरने के लिए छोड़ दिया जाए। 

“नज़्मुद्दीन की पत्नी के भी शराब की भेंट चढ़ जाने के बाद, अनाथ हुए उसके बच्चों को कौन देखेगा? एक सभ्य समाज के सभ्य, ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते क्या हमें उसे ग़लत रास्ते पर जाने से नहीं रोकना चाहिए? 

“क्या बाक़ी बचे पियक्कड़ों को यह नहीं समझाना चाहिए कि नज़्मुद्दीन का क्या हाल हुआ। क्या तुम लोगों को यह सब नहीं दिखता। तुम्हारे बाद तुम्हारे परिवार का क्या होगा, तुम लोग यह क्यों नहीं सोचते।” 

उन्हें ध्यान से सुन रहे श्रीवास्तव जी ने चाय का एक और घूँट पीने के बाद कहा, “सर, मैं आपकी मानवतावादी बातों, सारी सदाशयता के बावजूद यही कहूँगा कि, आपको मंडलियों की तरफ़ से मुँह मोड़ लेना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मैं मानवतावादी नहीं हूँ, या मुझ में अपने साथियों के प्रति कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। 

“जिस दिन नज़्मुद्दीन की डेथ हुई, क़ब्रिस्तान में उसके अंतिम संस्कार के बाद घर जाकर चाय के अलावा मैं कुछ भी खा-पी नहीं सका था। मैंने खाना नहीं खाया तो पत्नी ने भी नहीं खाया। क्योंकि मेरे खाए बिना वो खाती नहीं। 

“आपकी बातों से स्थितियाँ मुझे ऐसी बनती दिख रही हैं कि, विवशतः मुझे यह कहना पड़ रहा है, इस निवेदन के साथ कि, मेरी इस बात को कहीं शेयर नहीं कीजिएगा। नज़्मुद्दीन की डेथ के बाद मैं जानता था कि परिवार निश्चित ही गंभीर आर्थिक संकट में होगा। एक तो पीने-खाने वाला आदमी, ऊपर से जिस घर में औरत पीने-खाने वाली ही नहीं, बल्कि मर्दों के साथ महफ़िल में भी भाग लेने लगे, वहाँ सैलरी बचती ही कहाँ होगी। 

“यह सोचकर मैं चुपचाप उनके घर जाकर तीन महीने तक इतना पैसा देता रहा कि कम से कम खाना-पीना चल सके। यह सारा पैसा मैंने कभी वापस पाने की भावना के साथ नहीं दिया। सर देखिए आप जानते हैं कि, मैं बहुत यथार्थवादी और स्पष्ट बोल देने वाला आदमी हूँ। 

“आप से इसलिए इस मंडली की तरफ़ से आँखें मूँद लेने के लिए कह रहा हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि हमें वहीं कुछ कहना-सुनना, करना चाहिए, जहाँ लोग हमारे काम के मूल्य को समझें, उसे गंभीरता से लें, ना कि जहाँ-तहाँ जाकर उसकी खिल्ली उड़ाएँ।” 

श्रीवास्तव जी की बहुत ज़ोर देकर कही गई इस बात से बाबा-साहब बहुत गंभीर हो उठे। उन्होंने पूछा, “आख़िर आप कहना क्या चाहते हैं?” 

“सर, मैं कहना यह चाहता हूँ कि, आपने एक शुभ-चिंतक की तरह, मानवता के नाते ही नुसरत के भले के लिए उसको सलाह दी कि, वह इन मंडलियों से दूर रहे। लेकिन उसके इस चैंबर से निकलते ही, आपकी सलाह की खिल्ली उड़नी शुरू हो गई थी। 

“आपने उससे जिन लोगों से बचने के लिए कहा था, उसने उन्हीं लोगों से सबसे पहले आपकी बात शेयर की। उन्हीं लोगों के साथ लंच किया। और उसी समय आपकी बातों की उन्हीं लोगों के साथ खिल्ली उड़ाई। ठहाके लगाए। 

“सर आप किन लोगों को सही रास्ते पर लाने, बात समझाने का प्रयास कर रहे हैं? क्या आप भूल गए? ज़्यादा नहीं यही कोई ढाई साल पहले की बात है, जब आपने इन सबके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने की कोशिश की थी, कि सब बिना सूचना के बैठ जाते हैं। 

“कोई काम नहीं करते हैं। सीनियर्स के साथ मिस-बिहेव करते हैं। ड्रिंक करके ऑफ़िस भी आ जाते हैं। तो इन सब ने खिल्ली उड़ाते हुए सुना-सुना कर कहा था, ’लगता है बबवा का इलाज करना ही पड़ेगा। 

’साला हम लोगों का उत्पीड़न करता रहता है। थाने में सीधे रिपोर्ट लिखवाऊँगा कि अल्पसंख्यक हूँ, मुसलमान हूँ तो यह कम्युनल तिलकधारी हमसे नफ़रत करता है। हमारे मज़हब का अपमान करता है। 

' कहीं बीवी से भी लिखवा दिया कि, उसे धोखे से फँसा कर, उसका यौन शोषण किया तो साले की नौकरी तो जाएगी ही, जेल अलग जाएगा। हमें सुधारने चला है। जानता नहीं है हमें, कि हम चीज़ क्या हैं।’

"ज़रा सोचिए सर, इस हद तक गिर चुके लोगों को आप या कोई भी समझा-बुझा सकता है क्या? यह समझाने-बुझाने की सीमा से परे जा चुके लोग हैं।” 

यह सुनते ही बाबा-साहब एकदम उत्तेजित हो उठे। उन्होंने श्रीवास्तव जी को ध्यान से देखते हुए कहा, “यह बातें आपने पहले कभी क्यों नहीं बताईं। मैं तो आप पर पूरा विश्वास करता हूँ।” 

“क्योंकि सर उस समय आप बहुत ग़ुस्से में थे। तब यह बातें आग में घी की तरह काम करतीं। आप और भी ज़्यादा सख़्त क़दम उठाते। और उस स्थिति में यह सब किसी भी हद तक चले जाते। आप विकट मुश्किल में पड़ जाते। मंडली ने अपनी पुख़्ता तैयारी कर रखी थी। 

“आप ऐसी किसी भी समस्या में न पड़ें, यही विचार करके मैंने उस समय आपसे रिक्वेस्ट करके कोई भी कार्रवाई करने से मना किया था। और आपने मेरी बात का सम्मान करते हुए कार्यवाही के लिए बढ़े अपने क़दम वापस खींच लिए थे। 

“वो सब कितने ढीठ और मनबढ़ हैं, इसका अनुमान आप इसी एक बात से लगा लीजिए कि वो महीनों तक मज़ाक उड़ाते रहे कि, ’ये इंतज़ार कब तक चलेगा? बबवा कार्यवाई कब करेगा भाई?’

“वर्तमान स्थिति यह है कि, नज़्मुद्दीन की मृत्यु के बाद नुसरत के आने से उत्साहित इस मंडली ने आप के ख़िलाफ़ एक नया चैप्टर खोल दिया है। नुसरत के रूप में उनके हाथ आप के ख़िलाफ़ एक अचूक हथियार लग गया है। 

“जिसका वह आप पर घातक प्रयोग करेंगे ही करेंगे। क्योंकि उनके दिमाग़ में यह भरा हुआ है कि, आप उन सब को प्रमोशन नहीं दे रहे हैं। इंक्रीमेंट भी न्यूनतम ही देते हैं। इस मंडली के कहने पर नुसरत किस हद जा सकती है इसका विश्लेषण इन बातों से करिए . . .” 

यह कहते हुए श्रीवास्तव जी ने अपनी चाय का आख़िरी घूँट पिया। बाबा-साहब उन्हें ध्यान से सुन रहे थे। वह आश्चर्य में थे कि, उनके ऑफ़िस में यह सब होता चला आ रहा है। और उन्हें पूरी जानकारी ही नहीं। 

श्रीवास्तव जी ने उनकी मनोदशा को समझते हुए आगे बताना शुरू किया, “सर बात जब शराब, कबाब से आगे शबाब तक पहुँच जाती है, तो स्थिति कितनी गंभीर हो सकती है, इसकी कोई सीमा तय नहीं की जा सकती।” 

श्रीवास्तव जी की यह बात सुनते ही बाबा-साहब आश्चर्य से बोले, “शबाब!” 

“जी हाँ, शबाब। उसके यहाँ जो महफ़िल सजी संडे को उसे आप आज की भाषा में रेव पार्टी कह सकते हैं।” 

बाबा साहब फिर चौंके, “क्या, रेव पार्टी!” 

“जी सर, इस रेव पार्टी में मंडली के तीन पुरुष सदस्यों के अलावा एक ही महिला सदस्य थी, ख़ुद नुसरत।” 

“नुसरत!” बाबा-साहब की आँखें आश्चर्य से फैली की फैली ही रह गईं। कुछ पल चुप रहने के बाद वह बोले, “ये क्या हो रहा है? क्या हो गया है उसे? नज़्मुद्दीन के मरते ही इस स्तर पर आ गई है। उसको मरे हुए अभी एक वर्ष भी नहीं बीता है।” 

यह सुनते ही श्रीवास्तव जी बोले, “सर उसके मरते ही नहीं, उसके रहते ही यह रेव पार्टी होती थी। इसके सूत्र-धार कोई एक नहीं, सभी संयुक्त रूप से हैं।” 

बाबा-साहब एक बार फिर आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोले, “ये क्या कह रहे हैं, उसके रहते ही यह सब हो रहा था।” 

“हाँ सर, कई साल से यह सब चल रहा है।” 

“मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि यह सब इस हद तक गिर सकते हैं। लेकिन आप तो इन सब से दूर रहते हैं, फिर आपको यह सारी बातें कैसे मालूम हैं?” 

“जी उन्हीं मंडलियों से। यह तीनों मंडलियाँ एक-दूसरे को डैमेज करने के लिए, दूसरे के, घर के, किचन के बर्तन तक की, गिनती किए रहती हैं। और यह गिनती सबको सर्कुलेट करती रहती हैं। 

“मैंने जब पहली बार सुना था तो स्वयं मुझे भी यक़ीन नहीं हुआ था। सोचा यह भी इन सबका एक-दूसरे के चरित्र-हनन का ही एक हथकंडा, षड्यंत्र मात्र है। लेकिन जब अकाट्य प्रमाण सामने हों तो विश्वास करने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचता। 

“वास्तव में यह बात खुली ऐसे कि, एक बार ऐसी ही एक पार्टी में झगड़ा हो गया। सब के सब नशे में तो थे ही। उनकी गाली-गलौज, हुड़दंग से पड़ोसी जाग भी सकते हैं, उन सब ने ऐसा सोचा ही नहीं। 

“मंडली की हरकतों से परेशान पड़ोसियों ने उस दिन पहले इन सबको मारा, फिर पुलिस बुलाने जा रहे थे। लेकिन इन सब के बहुत हाथ-पैर जोड़ने पर पुलिस तो नहीं बुलाई, लेकिन स्वयं जितना टाइट कर सकते थे, उतना कर दिया। उन्हीं पड़ोसियों में से एक का दोस्त विरोधी मंडली में है। वहीं से सारी बातें आगे ट्रेवल करती रहती हैं।” 

“ओह, और यह ट्रेवल करती आप तक भी पहुँचती रहती हैं। विश्वास नहीं हो रहा है कि, इन सबके मन में रिश्तों की मर्यादा, स्वाभिमान जैसा कुछ बचा ही नहीं है। पहले जब अन्य लोगों के बारे में ऐसा सुनता-पढ़ता था तो विश्वास ही नहीं होता था। 

“सोचता था यह सब बकवास ही है। लेकिन अब तो अविश्वास का कोई कारण ही नहीं बचा है। सच में रिश्तों की पवित्रता, मर्यादा, स्वभिमान, यह सब इस युग में समाप्त हो गए हैं। न्यूज़ में पढ़ता-सुनता रहता हूँ कि, अंधा-धुंध कमाई करने वालों का शगल है ड्रिंक, ड्रग्स, रेव पार्टियाँ। लेकिन यहाँ मेरे ऑफ़िस में ही यह सब हो रहा है। वह भी उन लोगों द्वारा जिनकी आय इतनी भी नहीं कि, उन्हें अपर मिडिल क्लास कैटेगरी में भी रखा जा सके। मुझे इस शगल से ही नहीं, शब्द से भी घृणा है।” 

उन्हें बहुत तनाव में देख कर श्रीवास्तव जी ने कहा, “सर कहाँ तक और किससे-किससे घृणा करेंगे। आप रिश्तों की पवित्रता, मर्यादा, स्वाभिमान के समाप्त होने की बात कर रहे हैं। लेकिन मैं मानता हूँ कि यह समाप्त नहीं हुआ है। यह आज भी है। 

“आप, हम जैसे लोगों का एक बड़ा वर्ग है, जिनके लिए जीवन में यही सब, सब-कुछ है। यह उनके आचरण में है। लेकिन पश्चिमी सभ्यता, फ़िल्मों, सीरियलों में स्वच्छंदतावाद दिखा-दिखा कर एक ऐसा समानांतर वर्ल्ड खड़ा कर दिया गया है, जिनके लिए वह सब एक स्फूर्तिमयी जीवन-शैली है, जिसे हम आप जैसे लोग अनैतिक आचरण कहते हैं। 

“एक बात और बता दूँ, अब यह और तेज़ी से बढ़ेगा। क्योंकि फ़िल्म, सीरियल्स के साथ-साथ इस समानांतर संस्कृति को और रफ़्तार देने वाला अब एक और माध्यम ओ.टी.टी. के नाम से सबसे ऊपर आ गया है। जिस पर किसी भी प्रकार की कोई रोक-टोक नहीं है। 

“जो जैसा चाहे, जो चाहे, वह दिखाए। ऐसे-ऐसे कन्टेन्ट, दृश्य दिखाए जा रहे हैं, जिन्हें पोर्न कहना ग़लत नहीं होगा। यह प्लेट-फॉर्म कितना स्वच्छन्द है, इसका अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि, जिस छद्म नाम 'मस्तराम' के नाम से पोर्न लिटरेचर हम-लोगों की स्टुडेंट लाइफ़ में आता था, हम-लोगों के हाथों में देखते ही हमारे पेरेंट्स, टीचर हमें डंडों से पीटते थे, मैच्योर लोग भी छुप कर पढ़ते थे कि, कोई देख न ले, नहीं तो बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। 

“अब उसी लिटरेचर 'मस्तराम' पर वेब-सीरीज़ धड़ल्ले से चल रही है। बल्कि उससे भी आगे ऐसी-ऐसी सीरीज़ हैं जो ‘मस्तराम’ को भी मीलों पीछे छोड़ रही हैं। पूरे भारतीय कल्चर, समाज, इतिहास को तोड़-मरोड़ कर, झूठ, मक्कारी और सिर्फ़ कामुकता ओ.टी.टी. पर परोसी जा रही है। पता नहीं क्यों अब-तक सरकार भी चुप है। इसे रोकने के लिए कोई निर्णायक कार्यवाही करने में सक्षम बोर्ड नहीं बना रही है।” 

श्रीवास्तव जी की वेब-सीरीज़ वाली बात पर बाबा-साहब बड़ी अर्थ-भरी दृष्टि से उन्हें देखने लगे। इस पर श्रीवास्तव जी ने पूछा, “क्या हुआ सर, क्या आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा है।” 

बाबा-साहब ने उन्हें पूर्ववत ही देखते हुए कहा, “क्या आप ऐसी सारी वेब-सीरीज़ देखते रहते हैं, जो आपको यह सब मालूम है।” 

बाबा-साहब ऐसा कुछ पूछ सकते हैं, श्रीवास्तव जी को ऐसी आशंका बिलकुल नहीं थी। इसलिए वह कुछ क्षण एकदम शांत रहने के बाद बोले, 
 “दृष्टि तो हर तरफ़ डालनी ही पड़ती है सर। सीधी सी बात यह है कि, जानकारी तो रखनी ही पड़ेगी ना कि, कौन-कौन, कहाँ-कहाँ, किस-किस तरह से, किस तरह का ज़हर, ग़न्दगी समाज में घोल रहा है, फैला रहा है। तभी तो उससे बचाओ का रास्ता हम ढूँढ़ सकेंगे।” 

यह सुनकर बाबा-साहब कुछ सोच कर बोले, “ऑफ़िस में जब सभी लोग इस समानांतर वर्ग के बारे में जानते हैं, तो कोई इन सब को धिक्कारता नहीं। इन्हें टोकता नहीं। इससे बड़ी बात यह कि यह सब अपना जो भी थोड़ा बहुत काम करते हैं, वह कैसे कर डालते हैं।” 

“देखिए सर, एक तो कोई इनके विवाद में पड़ना नहीं चाहता। ऐसी कोई भी बात आने पर परस्पर एक दूसरे को डैमेज करने में लगीं ये मंडलियाँ अटूट एकता के साथ, प्रश्न खड़ा करने वाले पर टूट पड़ती हैं। 

“इसलिए उन्हें देखकर ही लोग अपना रास्ता बदल देते हैं। बाक़ी रही बात काम की, तो इन मंडलियों ने उसका भी रास्ता निकाल रखा है। यह कुछ भी काम नहीं करते। कई लोग जो इनका काम पूरा करते हैं, बदले में इन लोगों से एक निश्चित रक़म हर महीने लेते हैं।” 

“क्या?” 

“जी हाँ सर, यही सच है।” 

यह सुनते ही बाबा-साहब क्रोधित होते हुए बोले, “यह ऑफ़िस है या शराबियों, कबाबियों, अय्याशों, जरायम पेशे वालों का अड्डा।” 

“सर जो भी है। स्थितियाँ बहुत ही बदतर हैं। इसे सुधारना बहुत ही मुश्किल है। मद्य-निषेध विभाग ही पूरी तरह से मद्य के कुँए में इतना गहरे डूबा हुआ है कि, उसे निकालना सम्भव नहीं दिखता। इसलिए इस विषय में कुछ सोचने-विचारने, किसी तरह का प्रयास करने में हमें अपनी ऊर्जा, समय व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए।” 

इसी के साथ श्रीवास्तव जी ने सोचा कि, कुछ और गंभीर बातों को छोड़कर, वह सब-कुछ बता चुके हैं। और जो कुछ अभी तक नहीं बताया है, उनको बताकर अपनी जान ख़तरे में नहीं डालेंगे। अब चलूँ कुछ काम करूँ, काफ़ी पेंडिंग पड़ा हुआ है। 

यह सोचते हुए वह उठे और कहा, “सर अब मुझे अनुमति दीजिए, जो कुछ, जितना मालूम था वह सब बता चुका हूँ। एक बार फिर कहूँगा कि, जो भी क़दम उठाईयेगा उसके पहले स्वयं की सुरक्षा के बारे में ज़रूर सोच लीजिएगा। 

“ऐसे कई समाचार तो आप ने भी पढ़े होंगे कि, शातिर लोग महिलाओं को आगे कर देते हैं। वो बहुत बड़ी-बड़ी हस्तियों पर भी यौन-शोषण का आरोप लगाकर उन्हें चुटकियों में जेल भिजवा देती हैं। 

“क़ानून का फ़ायदा उठाती हुई ये महिलाएँ बहुत आसानी से आरोप लगा देती हैं कि, फलां व्यक्ति ने दस वर्ष पूर्व मेरा यौन-शोषण किया था। आरोपित व्यक्ति को गिरफ़्तार करने से पहले, क़ानून ऐसा आरोप लगाने वाली महिला से यह नहीं पूछता कि, जब दस वर्ष पहले आपका शोषण किया जा रहा था, तब आपको पता नहीं चला, और अब इतने वर्षों बाद किन उद्देश्यों के चलते आरोप लगा रही हैं।” 

श्रीवास्तव जी ने मीडिया में आए ऐसे कुछ केसों का उल्लेख किया और चल दिए। यह भी नहीं देखा कि, उन्हें जाने की अनुमति मिली है कि नहीं। बाबा-साहब उन्हें चैंबर से बाहर निकलने तक देखते रहे। 

श्रीवास्तव जी की बातों ने उन्हें बुरी तरह झकझोर कर रख दिया था। उनके मन में यह उथल-पुथल बहुत तेज़ हो रही थी कि, इन मंडलियों को उनकी सीमा में रखने के लिए क्या करें, क्या न करें। 

उन्होंने मन ही मन कहा, 'हे चित्रगुप्त तुमने इसी तरह से पहले ही यह बातें क्यों नहीं बताईं। मैं समय रहते शुरूआत में ही इन्हें सीमा में रखने के लिए क़दम उठाता तो यह इतना आगे निकलने की हिम्मत ही नहीं कर पाते। 
 ’विभाग शराबियों, ब्लैक-मेलर्स का अड्डा नहीं बनता। इनका इतना साहस नहीं होता कि, मुझ पर यौन शोषण का आरोप लगवा कर जेल भिजवाने की धमकी देते। लेकिन जो भी हो इन षड्यंत्रकारी मंडलियों के डर से हाथ पर हाथ धरे तो बैठा नहीं रहूँगा। 

’ऐसा करना तो इनकी धमकियों के सामने नत-मस्तक होना है। इन्हें अनैतिक कार्यों को निर्द्वन्द्व हो कर करते रहने के लिए भरपूर ऊर्जा का अक्षय स्रोत देने जैसा है। 

’ऐसा करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। माना कि, महिलाओं को एक्सट्रा प्रोटेक्शन देने के लिए बने क़ानून में पेचोख़म बहुत हैं। लेकिन अब इतना भी आसान नहीं है कि, चुटकियों में मुझे जेल भिजवा दिया जाए। झूठे आरोपों के डर से मेरे क़दम नहीं रुक सकते। मैं अपने विभाग से यह ग़न्दगी साफ़ करके ही रहूँगा। 

’जिस क़ानून का ये डर दिखा रहे हैं, उसके पेचोख़म में से ही रास्ता निकलवाऊँगा। चित्रांशी महोदय तुम्हीं निकालोगे रास्ता। क्यों कि तुम ऐसे रास्ते निकालने में इतने प्रवीण हो कि, सारा विभाग मिल कर भी तुम्हारे रास्ते की काट नहीं निकाल सकता। 

’तुम्हारी यही विशेषता तो मुझे तुम्हारा प्रशंसक बनाए हुए है। इतना कि, आप सदैव मुझसे कटु वचन ही बोलते हैं, फिर भी मेरे मन में विशिष्ट स्थान बनाए रखते हैं। 

’महोदय आख़िर गीता में कहा गया है न कि, निष्ठा-पूर्वक कर्म करते रहो। मैं यही करूँगा। और तुम्हारे निर्देशन में ही करूँगा। तुम ही मेरे सारथी बनोगे। तुम भी देखना मैं कैसे करता हूँ। इसका शुभारम्भ भी, आज ही, इसी समय होगा।’ 

यह सोचते-सोचते बाबा-साहब ने अर्दली को भेजकर श्रीवास्तव जी को फिर बुलवा लिया। वह जब-तक आए नहीं तब-तक बुदबुदाते रहे, “विभाग को ठीक करके ही रहूँगा . . . अगर कुँए में ही घुली मिली भाँग तो पूरा कुआँ ही छानूँगा श्रीवास्तव जी, पूरा कुआँ।” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

shaily 2022/02/18 08:41 PM

समाज की और कानून की ज़मीनी सच्चाई बतायी है. सुन्दर प्रस्तुति

पाण्डेय सरिता 2022/02/18 05:12 PM

बहुत ही संवेदनशील विषय पर बढ़िया कहानी

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

बात-चीत

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब2
  2. बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब
  3. बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख़्वाब
  4. मन्नू की वह एक रात