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करोगे कितने और टुकड़े

जिस विकट अंतर्द्वंद्व से आज गुज़र रहा हूँ, अपनी अब-तक की पचहत्तर साल की उम्र में पहले कभी नहीं गुज़रा था। तब भी नहीं जब देश में आपातकाल लगाया गया। और तब भी नहीं जब उन्नीस सौ चौरासी के सिख दंगों के बाद एक एकेडेमी का अध्यक्ष होने के नाते एक लेखिका को पुरस्कार देने से मना किया। क्योंकि, वह उस पुरस्कार के योग्य नहीं थी। और कई प्रभावशाली नेताओं से बराबर दबाव डलवा रही थी। मैं उन सबसे बेहिचक एक पल गँवाए बिना कहता था कि, उसकी किताब इस योग्य भी नहीं कि किसी छोटी-मोटी एकेडेमी का उसे सांत्वना पुरस्कार भी दिया जाए।

उस लेखिका को यह ग़ुरूर था कि सबसे पुरानी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का, रूलिंग पार्टी के नेताओं का फ़ोन मुझे झुका देगा। कितने तो बड़े-बड़े स्वयंभू लेखकों के फोन आए थे। एक महोदय तो बिल्कुल भिड़ ही गए थे। तब मैंने ग़ुस्से में आकर कह दिया था कि, "महोदय आप उनकी पैरवी क्यों कर रहे हैं यह मैं ख़ूब समझ रहा हूँ। आप उनकी अयोग्यता के बावजूद उन्हें स्थापित करने की जिस तरह जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं वह भी समझ में आता है। वह जिस तरह आप को कंपनी देती हैं, जिस तरह आपके साथ ना जाने कहाँ-कहाँ समय बिताती हैं, जाती हैं उसके बाद तो आपके पास उनके लिए यह सब करने, उन्हें स्थापित करने के अलावा कुछ रह भी नहीं जाता।

“यह पूरा साहित्य जगत जानता है कि, आप किस तरह उनकी रद्दी में फेंकी जाने लायक ऊल-जलूल कहानियों को झाड़-पोंछ कर छापते आ रहे हैं। जो महिला अधिकारों के नाम पर अश्लीलता, फूहड़ता से भरी होती हैं। लेकिन आप पत्रिका का सर्वे-सर्वा होने, संपादक होने का पूरा फ़ायदा उठाते हैं। आपने पत्रिका को न जाने कितनी अयोग्य लेखिकाओं को स्थापित करने का हथियार बना लिया है। उन सबसे आपके संबंध भी जगज़ाहिर हैं।

“आपकी इस मठाधीशी के कारण कितनी ही अच्छी लेखिकाएँ समय से अपना स्थान नहीं बना पा रही हैं। कहीं अँधेरे में चली जा रही हैं। इन सक्षम उत्कृष्ट लेखिकाओं के साथ जो अन्याय आप कर रहे हैं, आने वाला समय आपको माफ़ नहीं करेगा। आपके कुकृत्य सामने आएँगे। आप एक ऐतिहासिक पत्रिका को भ्रष्ट अनैतिक आचरण का अड्डा बना चुके हैं।"

खीझ के कारण मैं उन्हें एक साँस में ही यह सब बोल गया था। और तब उस पत्रिका के संपादक बिफर पड़े थे। फ़ोन का रिसीवर पूरी ताक़त से पटका था। लेकिन मैं तब भी ज़रा भी असहज नहीं हुआ था। बल्कि मुझे संतोष हुआ, मैं ख़ुश हुआ कि मैं एक बहुत बड़े मठाधीश, जो बड़ा साहित्यकार भी है, उसके प्रभाव में भी नहीं आया। कोई ग़लत निर्णय नहीं लिया।

आपातकाल के समय तो मैंने और भी सहजता के साथ निर्णय लिया था। सरकार की तानाशाही के विरुद्ध तत्काल विरोध दर्ज कराने के उद्देश्य से पुरस्कार वापस कर दिया था। कहने को पुरस्कार राज्य सरकार का छोटा सा ही था। तब मेरा क़द साहित्य जगत में कुछ ख़ास नहीं था। तब एक लेखिका ने भी यह किया था। लेकिन उन लेखिका और बाक़ी के विरोध में बड़ा फ़र्क़ था।

वह शासक परिवार की सदस्या थीं। जब कि बाक़ियों के साथ ऐसा कुछ नहीं था। यह वह समय था जब कुछ भी बोलने वाला सीखचों के पीछे होता था। यातनाओं का दौर था। हत्याओं का दौर था। सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वाला कहाँ ग़ायब हो जाएगा, किस नदी नाले में मिलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता था।

भय से आक्रांत सभी लोगों के मुँह में से जैसे ज़बान ही खींच ली गई थी। इसी लिए तब साहित्य की दुनिया से पुरस्कार वापसी की कतिपय घटनाओं के अलावा कहीं, कोई बड़ी हलचल नहीं हुई थी। ऐसे दौर में भी मेरा विरोध बिना समय गँवाए दर्ज हुआ था। भय नाम की कोई बात ही नहीं थी।

मन में बस एक ही बात थी कि, यदि जान जाती है तो जाए। कम से कम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का प्रयास तो सुदृढ़ होगा। क्योंकि मेरा तब भी और आज भी यही मानना है, दृढ़ मत है कि कोई देश, समाज तभी तक सुरक्षित सुदृढ़ रहता है, विकास करता है, जब-तक वहाँ के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली रहती है।

अनुभा तब बहुत घबराई थी। बोली थी कि, "तुम यह ठीक नहीं कर रहे हो। स्वनामधन्य सारे लेखक चुप हैं। तुम तो अभी नए-नए सिपाही हो, क्यों देश की ख़ूंखार, निर्लज्ज तानाशाही से लोहा लेने में लगे हो। तुम्हें कुछ हो गया तो इन बच्चों का क्या होगा, मेरा क्या होगा, इन बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँगी, हर तरफ़ डर इतना है कि, कोई साथ नहीं देता। परिवार भी नहीं। देखते नहीं बाबू जी, जेठ जी, मेरे भाई भी मना करने के लिए चल कर यहाँ तक आए। पत्र लिख कर या फ़ोन करने की भी हिम्मत नहीं कर पाए। वह सब डरे हुए थे कि, कहीं बीच में कोई देख, सुन न ले।

“तुम्हारे कितने मित्र भी तो आ आकर कह चुके हैं कि, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के काले दिन चल रहे हैं। समझदारी इसी में है कि अभी शांत रहो। उचित समय की प्रतीक्षा करो। एक दिन यह अंधेरा छँटेगा ही। सही समय आ जाए तब जो कहना हो कहना।"

तब मैंने अनुभा से कहा था कि, "यह प्राण जाने के डर से घर के कोने में दुबक कर बैठने का समय नहीं है। सही समय तो तभी आएगा अनुभा जब इस ग़लत समय का चहुँ ओर विरोध किया जाएगा। हो सकता है कई जानें चली जाएँ। लेकिन कोई भी तानाशाही कितनी भी क्रूर हो, धूर्त, मक्कार, चालाक हो, वह जनाक्रोश को दबा नहीं सकती। रूस, फ्रांस में जनता ने ही क्रूर शासकों को नेस्तनाबूद किया है।"

यह कहते हुए मैं यह भूल गया था कि मेरी पत्नी इतिहास की ही लेक्चरर है। उसने झट कहा, "लेकिन अभी तो यहाँ जनाक्रोश जैसा कुछ दिख नहीं रहा है। तुम अकेले क्या करोगे? फिर तुम लेखक हो, जननेता नहीं, कि सड़क पर उतरो। फ्रांस के रूसो, वाल्तेयर की तरह पहले ऐसा लिखो कि जनाक्रोश पैदा हो। और जब जनाक्रोश पैदा हो जाएगा तो तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। जनता अपना काम स्वयं कर लेगी।

“तुम्हारी लेखनी से उसके भीतर उपजा आक्रोश उससे सब करा लेगा। और उससे पहले तुम अपना काम कर चुके होगे। देखो मैं तो यह कहती हूँ कि लेखक को अपनी क़लम, लेखन छोड़कर सड़क पर तभी आना चाहिए जब वह चुक गया हो। उसके लेखन में प्राण बचे ही ना हों । और अपना उत्तरदायित्व, अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उसके पास कोई विकल्प ही ना हो। मैं तो ऐसा नहीं समझती कि तुम्हारा लेखन चुक गया है।

“बर्तोल्त ब्रेख्त की तरह ऐसा कुछ क्यों नहीं लिखते कि, हिटलर की तरह यहाँ की तानाशाह भी हिल जाए। उसके पाँव उखड़ जाएँ। वह सही रास्ते पर आ जाए। तुम ये क्यों भूल रहे हो कि, नेपोलियन बोनापार्ट जैसा सेना नायक, शासक भी लेखन, अख़बार से घबराता था। यह सब जानते हुए तुम एक चुके हुए लेखक वाली हरकत क्यों कर रहे हो? कल को तुम्हारा लेखक समूह ही तुम्हें धिक्कारेगा, तुम्हारी खिल्ली उड़ाएगा। कोई तुम्हारे साथ खड़ा नहीं होगा।"

तब मुझे पत्नी की बातें बड़ी तीखी लगी थीं। मुझे लगा कि, बाहर कोई आलोचना करे या ना करे, घर में पत्नी ने पहले ही कर दी है। कहते हैं "निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाए।" मैं तो इस मामले में बहुत आगे निकल गया हूँ। मैंने तो "निंदक नियरे राखिए आँगन पत्नी बनाए।" जैसी नई धारा शुरू की है। अपने इस आलोचक की आलोचना से तब मैं काफ़ी विचलित हो गया था। मेरा निर्णय हिल उठा था। लेकिन किसी तरह मैंने अपने को सँभाला था।

अपने निर्णय का बचाव करते हुए तर्क दिया था कि, "देखो अनुभा मुझे लगता है कि, तुम अपनी जगह सही हो। मेरी और बच्चों को लेकर तुम्हारी चिंता उचित हो सकती है। लेकिन मेरी बात, मेरी स्थिति को भी समझने का प्रयास करो। मैं अभी चुका नहीं हूँ। मेरे लेखन की आग तो अभी धधकनी शुरू ही हुई है। लेकिन कई निर्णय परिस्थितियों को देख कर लिए जाते हैं।

“आपातकाल का यह अँधियारा देश में देखते ही देखते आ गया है। लेखन के ज़रिए जनाक्रोश पैदा करना, उसे दिशा देने के लिए अभी पर्याप्त समय नहीं है। तात्कालिक ज़रूरत यह है कि, तुरंत ऐसा कुछ किया जाए कि इस तानाशाही के अत्याचार के ख़िलाफ़ तुरंत आग भड़क उठे।

“वह इतना तेज़ी से धधके कि, तानाशाह की काली दुनिया उसमें भस्म हो जाए। जनता को उसका अधिकार मिले। वह खुली हवा में साँस ले सके। देखती नहीं हो संविधान में प्रदत्त सारे मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया है। अब प्रतीक्षा का कोई कारण दिखता ही नहीं।

“इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि मेरा क़दम उचित है। वह मेरे चुकने का प्रतीक नहीं है। हो सकता है मेरा यह क़दम बेहद छोटा हो, सूक्ष्म हो, लेकिन शुरूआत तो होगी। दावानल की शुरूआत भी तो चिंगारी से ही होती है। मेरा क़दम शोला भले ही न साबित हो। लेकिन चिंगारी तो निश्चित ही साबित होगा। जन को जगाने के लिए पहले चिंगारी ही की ज़रूरत है।"

मेरी बातों या यह कहें कि मेरी ज़िद के आगे पत्नी शांत हो गई। और मैं बिना किसी संशय, बिना किसी अनिर्णय की स्थिति का सामना किए बेधड़क पुरस्कार वापस कर आया था।

यह अलग बात है कि, तब चिंगारी, चिंगारी ही बन कर रह गई थी। आपातकाल जैसी काली दुनिया में भी तरह-तरह के पुरस्कार प्राप्त लेखक, रंगकर्मीं, चिंतक, फ़िल्मकार, समाज सुधारक या तथाकथित समाज-सेवी नहीं जगा। विरोधस्वरूप पुरस्कार वापस करने वालों की वैसी भीड़ नहीं जुटी जैसी आज जुटी है।

मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बड़ा अचंभा हो रहा है कि आज देश में ना तो आपातकाल है। वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ख़तरे जैसी कोई बात ही नहीं है, बल्कि आज तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का जैसा प्रयोग हो रहा है, वह इस अधिकार के दुरुपयोग का जीता जागता उदाहरण है। स्वच्छंदता है। सत्ता अपनी पसंद की नहीं है तो उसे उखाड़ फेंकने के लिए एक ऐसा छद्म वातावरण तैयार करने की कोशिश हो रही है, मानो स्थिति आपातकाल से ज़्यादा भयावह हो।

अभी तुरंत कुछ न किया गया तो देश नष्ट हो जाएगा। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे हर तरफ़ कत्लेआम मचा हुआ है। लेखकों, कलाकारों, चिंतकों, समाज सुधारकों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। जिन एक दो घटनाओं को आधार बनाया गया वह भी ग़लत निकलीं। षड्यंत्र निकलीं।

यदि कोई लेखक, समाज सुधारक वर्ग विशेष को अपमानित करने, अपनी प्रसिद्धि और बहुत बड़े सुधारकों की श्रेणी में शामिल हो जाने के शार्ट-कट के रूप में सिर्फ़ एक समुदाय विशेष को बराबर अपमानित करता रहेगा, हद यह कर दे कि, खुलेआम मंचों से बार-बार समुदाय विशेष के आस्था के केंद्र, उसके भगवान की मूर्ति पर पेशाब करने की बात कहेगा तो क्या कठोर प्रतिक्रिया नहीं होगी? क्या यह मानवीय स्वभाव नहीं है कि जिसकी आस्था, जिसके भगवान की मूर्ति पर पेशाब करने की बात बार-बार जो करेगा उसके ख़िलाफ़ कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी? आख़िर किसी मूर्ति पर पेशाब करने की बात करके कौन सा समाज सुधार किया जा सकता है? यह कैसी प्रगतिशीलता है? यह कैसी सभ्यता है?

इसे जाहिलियत से बढ़ कर किसी बर्बर, उजड्ड, जंगली आतताइयों सरीखा कार्य नहीं कहा जाएगा क्या? जैसे अतीत में तमाम बर्बर जातियाँ आती थीं और छल-छद्म से हमला कर मूर्तियाँ तोड़तीं थीं। पैरों तले कुचलती थीं। लेकिन यहाँ तो जाहिलियत उससे आगे निकल गई है। सीधे पेशाब करने की बात की जा रही है।

हंगामा करने वाला समूह बजाय इसकी आलोचना करने के इसे और बढ़ावा दे रहा है। और मीडिया के लिए तो ख़ैर यह हॉट केक है ही। ऐसा हॉट केक जिससे उनकी टी.आर.पी. आसमान छूने लगे। कोई अभी तक इस बिंदु पर बात ही नहीं कर रहा कि, मूर्तियों पर पेशाब करने की बात करने वाले जिन लेखक की मृत्यु हुई, उन्हें किसने मारा इसका पता ही नहीं है।

बस आँख मूद कर मूर्ति पूजक समूह पर बिना किसी प्रयास के आरोप लगा कर बखेड़ा खड़ा कर दिया गया। इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि, जिस राज्य में लेखक दिवंगत हुए उस राज्य में सबसे पुरानी पार्टी की सत्ता है। जिससे लेखक सुरक्षा देने की याचना करता रहा लेकिन सत्ता सोती रही। इस मनसा के साथ कि कुछ घटे तो फ़ायदा उठाया जाए। करेगा कोई भी नाम उसी मूर्ति पूजक समूह पर ही लगेगा। सत्ता की इस असफलता, धूर्तता पर एक शब्द नहीं बोला जा रहा।

हवा में तैरती इन बातों की तरफ़ भी कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि, एक समूह यह कह रहा है, कि हालात का फ़ायदा उठाने के लिए ही पार्टी विशेष ने ही लेखक की जान ली है। कि लेखक ऐसी बातें कर रहा है, ऐसे में शक सीधा मूर्ति पूजकों पर ही जाएगा। इससे बने माहौल से केंद्र की सत्ता उखाड़ी जा सकेगी।

इस बात का भी कोई जवाब नहीं कि, राज्य सत्ता जानबूझ कर हत्यारे या हत्यारों को गिरफ़्तार नहीं कर रही जिससे कि ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाया जा सके।

ऐसे बनावटी धोखा-धड़ी से खड़ी की गई समस्या के पक्ष में, बल्कि यह कहें कि, उसे और बड़ी और विराट रूप देने के लिए योगदान करने हेतु मुझ पर यह वर्ग दबाव डाल रहा है।

महीने भर से रात-दिन यही कहा जा रहा है कि यही सही समय है तानाशाह को उखाड़ फेंकने का। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि, जिसे तानाशाह के नाम पर शैतान कहा जा रहा है, उसे तो दुनिया में लोकतंत्र के बड़े-बड़े अलंबरदार शासक देश भी हाथों-हाथ ले रहे हैं। उसके स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछा रहे हैं। उसे अपने यहाँ आमंत्रित कर रहे हैं। उसे उदारमना सशक्त शासक कह रहे हैं।

मुझसे कहा जा रहा है कि, आप इस समय एक बड़ी प्रभावशाली एकेडेमी के अध्यक्ष हैं, उस पद से इस्तीफ़ा दे दें। अपने सारे अवॉर्ड वापस कर दें।

अब आपको इनकी ज़रूरत भी क्या है? इन्हें अलमारी में रखे रहने का कोई मतलब है क्या? अरे फ़ायदा तो यह है, इनकी अर्थवत्ता तो यह है कि इन्हें विरोध प्रदर्शित करते हुए वापस कर दें। इससे एक बार आप फिर चर्चा में आ जाएँगे। मीडिया में छा जाएँगे। वैसे भी अब ना आपकी कोई रचना आनी है, न कोई अवॉर्ड मिलना है। दो महीने बाद ही इस एकेडेमी से भी रिटायर हो जाएँगे। यह सत्ता आपको कहीं कुछ बनाने वाली नहीं।

इन लोगों से मैं कैसे कहता कि, धूर्तता पाखंड मेरी फ़ितरत में नहीं है। मेरे आचरण में नहीं है। जीवन के पचहत्तर साल सिद्धांतों पर चलकर ही बिताए हैं। हालात जैसे बताए जा रहे हैं, उसकी छाया भी होती तो भी मैं चुप नहीं बैठता।

मेरा लेखक मन, मेरा अंतर्मन इस षड़्यंत्री लेखक, कलाकार, चिंतक समूह को लेकर बहुत व्यथित है। बहुत चिंतित है कि जब इनकी धूर्तता का मुखौटा समय उतार देगा, तब ये समय, समाज, देश-दुनिया को क्या मुँह दिखाएँगे, किस मुँह से सामना करेंगे ये इन सबका।

ये मुझे जिस तरह ख़त्म हुआ कह रहे हैं, सच तो यह है कि यह सब ख़ुद चुके हुए हैं। ना जाने कितने वर्षों से इन सबकी न तो कोई रचना आई है, न कोई काम आया है। ना कोई विचार।

एक विचारधारा के कट्टर अनुयायी, इन लोगों को यह पता है कि, सत्ता की विचारधारा दूसरी है तो इन्हें मलाईदार कोई पद भी नहीं मिलने वाला। यह सब करने पर ग़ैर ज़िम्मेदार शक्तियाँ, विरोधी शक्तियाँ हाथों-हाथ लेंगी। पूरी संभावना है कि, इस समूह पर विदेशी शक्तियाँ कुछ थैलियाँ उछालने लगें । और इन्हें मलाई चाटने को मिल जाए।
जैसे तमाम विदेशी ताक़तें यहाँ के तमाम तथाकथित समाज सेवकों, समाजसेवी संस्थाओं को पैसा देती हैं, कि हर सरकारी योजनाओं को पर्यावरण, मानवाधिकार के नाम पर रोक सकें। इसमें वे बड़े स्तर पर सफल भी हो रही हैं।
मुझे चुका हुआ या अपनी तरह पलिहर वानर समझने वाला यह समूह यह बताने तक का समय नहीं दे रहा है कि, मेरा पाँच खंडों में क़रीब डेढ़ हज़ार पृष्ठों का उपन्यास, "करोगे कितने और टुकड़े" बस पूरा ही हो चुका है। जिसे मैं डेढ़-दो महीने में छपने के लिए देने जा रहा हूँ। जिसे लिखने में मैंने आठ वर्ष से ज़्यादा समय लगाया है।

पता नहीं इन पलिहर वानरों को क्यों यह समझ में नहीं आता कि ख़ुशवंत सिंह पिचानवे वर्ष से ज़्यादा की उम्र तक लिखते रहे हैं, आख़िरी उपन्यास इस उम्र में लिखा। मैं तो अभी पचहत्तर का हुआ हूँ। और पूर्णतः सक्रिय हूँ। सक्षम हूँ। अभी बहुत सा लेखन मुझमें बाक़ी है। इसी लिए मेरे पास षड़्यंत्र, अवसरवादिता के लिए समय क्या, सोचने का भी समय नहीं है। यदि ऐसी स्थिति बनेगी तो मैंने आपातकाल में जैसा क़दम उठाया था वैसा क़दम उठाने से नहीं हिचकूँगा। मगर हालात कुछ ऐसे हों तब ना।

मुझे अपने लेखक होने के कर्तव्यों का सरोकारों का पूरा ज्ञान है। भटके हुए तो तुम लोग हो, चुके हुए तो तुम लोग हो। तुम्हारे कृत्य कुकृत्य हैं। देश, देशवासियों के साथ घात है। तुम सब के कारण मैं महिने भर से कैसे अंतर्द्वंद्व से गुज़र रहा हूँ वो तुम्हें क्या बताऊँ, अनुभा से भी यह सब अब मैं नहीं कहता क्योंकि अब वह हृदय रोगी है, तनाव में ना आए। तनाव उसके लिए जानलेवा है। अकेले ही तुम्हारे षड़्यंत्रों के चलते परेशान हूँ। चिंता के कारण सो नहीं पा रहा हूँ।

सोता हूँ तो बार-बार एक ही सपना दिखाई देता है। कि एक विशाल श्वेत रथ पर, धवल श्वेत वस्त्रों को धारण किए भारत माता चली आ रही हैं। क्रोध के कारण उनके नयनों से अंगारे बरस रहे हैं। वह मुझ से प्रश्न पर प्रश्न पूछ रही हैं। मेरे दायित्वों के निर्वहन के बारे में पूछ रही हैं।

उनके रथ में जुते सातों शेर केसरिया रंग के हैं, क्रोध से वे भी गुर्रा रहे हैं। रथ के शिखर पर रक्तवर्ण की विशाल पताका भयानक रूप से फड़-फड़ करती हुई ऐसे लहरा रही है, मानो भयंकर तूफ़ानी हवाएँ चल रही हों। वे रोज़ मेरे सपने में आकर पूछती हैं कि, जब यह हुआ तब तुम लेखक-गण कहाँ मटरगश्ती कर रहे थे, जब यह हुआ तब क्यों सो रहे थे, जब यह हुआ तब क्या लिखा, जब यह हुआ तब क्या वापस किया, उनके एक भी प्रश्न का मेरे पास कोई संतोष जनक उत्तर नहीं होता है।

जब उत्तर नहीं दे पाता तो भारत माता बहुत नाराज़ होती हैं। अपना क्रोध प्रदर्शित करती हुई अंतर्धान हो जाती हैं, अगले दिन आने के लिए। मेरा अगला चौबीस घंटा यह अनुमान लगाने में निकलता है कि, भारत माता का अगला ज्वलंत प्रश्न क्या होगा? उसका मैं क्या उत्तर दूँगा? इसके दूसरी तरफ़ तुम सबके फ़ोन, तुम्हारे संदेश, तुम्हारे हरकारे आकर मुझे परेशान करते हैं कि मेरा निर्णय क्या है? मैं अपने अवॉर्ड कब वापस कर रहा हूँ। मैं उन उजड्ड हरकारों को क्या बताऊँ कि, मैं भेड़-चाल में चलने वाला नहीं हूँ। कुँए में गिरी एक भेड़ के पीछे-पीछे आँख मूँद कर उसमें गिरने वाली भेड़ों की तरह नहीं हूँ।

एक-एक तथ्य आँकड़ों का विश्लेषण करता हूँ, फिर निर्णय लेता हूँ कि क्या करना चाहिए। इस समय भी तुम सब द्वारा की जा रही हरकतों, बातों का निरंतर विश्लेषण कर रहा हूँ और निर्णय लेने के क़रीब हूँ कि तुम सबके साथ रहूँ, या उस वर्ग के साथ जो तुम्हारे काम को देश के साथ किया जाने वाला घात कह रहें हैं। रैलियाँ निकाल रहे हैं। जैसे ही यह निर्णय ले लूँगा। वैसे ही जो क़दम उठाना होगा वह उठाऊँगा। पल भर का भी समय नहीं लगाऊँगा। मेरा ज़्यादा समय तो अभी भारत माता के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने में लगता है। वास्तव में उन प्रश्नों के मैं जो उत्तर दे पाऊँगा उन्हीं के आधार पर ही मेरा निर्णय आएगा। मैं तय कर पाऊँगा कि मुझे क्या करना है।

भारत माता का पहला प्रश्न वास्तव जितना मेरे लिए है उतना ही तुम सबके लिए भी है। बल्कि मैं यह कहूँगा कि, मुझसे ज़्यादा तुम सबके लिए, क्योंकि अवॉर्ड को हथियार बनाकर अपने निहित स्वार्थों के लिए छद्म वातावरण तुम सबने बनाया है। मैंने नहीं। तुम सबने पलभर को यह नहीं सोचा कि तुम्हारा यह छल-कपट, स्वार्थ देश को गर्त में ले जाने का काम करेगा। करेगा क्या बल्कि कर रहा है।

पड़ोसी देश यह सब देखकर कैसे ख़ुशी से झूम रहा है कि, जिस काम को अरबों रुपए ख़र्च कर, चार युद्ध कर के, दशकों आतंकी कारवाई में लाखों को मौत के मुँह में धकेल कर वह ना कर सका, अपने षड़्यंत्र से वह कुकृत्य करने में तुम सब ने कुछ दिन में ही सफलता पा ली। जो काम वह आधी सदी से नहीं कर पा रहा था उसे तुमने चंद दिनों में थाल में सजा कर उसे दे दिया। घर के चोर को कौन रखा सका है। आस्तीन के साँप, भितरघाती गद्दार कुछ समय के लिए तो सफल हो ही जाते हैं।

भारत माता का पहला प्रश्न ही यही है कि, "तुम सब की अंतर्रात्मा तब कहाँ थी, सक्रियता तब कहाँ थी जब तुम्हारे ही देश के तुम्हारे ही भाई-बंधु कश्मीरी पंडितों का बरसों कश्मीर में क़त्लेआम होता रहा। समूह के समूह काट डाले गए। गोलियों से भून दिए गए। ज़िंदा जला दिए गए। धर्म बदल दिया गया। जो ना माना उसके परिवार सहित टुकड़े कर दिए। स्त्रियों की इज़्ज़त तार-तार होती रही। सरकार की ज़िम्मेदारी उठाने वाले डुगडुगी बजाते रहे।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए जो सख़्ती, सक्रियता दिखाई गई यदि उसकी आधी भी बर्बर आतंकियों, भाड़े के गुर्गों के ख़िलाफ़ दिखाई जाती तो कश्मीरी पंडितों से पूरा कश्मीर ख़ाली ना हो जाता। लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित अपने ही देश में दशकों से शरणार्थी का नारकीय जीवन ना जी रहे होते। पूरी कश्मीरी अर्थव्यवस्था का कभी सर्वेसर्वा रहा यह समुदाय शरणार्थी कैंपों में कुछ किलो अनाज के लिए लाइन में खड़ा ना दिखता, धक्के ना खा रहा होता।

सही तो यह है कि इनके साथ पूरी कश्मीरी सभ्यता धक्के खा रही है। क्योंकि इनके बिना तो कश्मीरी सभ्यता है ही नहीं। उसका अस्तित्व ही नहीं है। कोई सभ्यता अपनी जड़ से कटकर कहाँ पूर्ण रह पाई है। कश्मीरी पंडित कश्मीरियत की जड़ हैं। तना हैं, कली हैं, फूल हैं, पत्ती हैं। इनके बिना इस सभ्यता की कल्पना भी मूर्खता है। इस सभ्यता को बचाने के लिए, इनके साथ हो रही इस अमानवीय, बर्बर ज़्यादती के ख़िलाफ़ तब से लेकर अब तक तुम सब ने क्या किया? तुम सबने कितनी बार यह कहा कि इनके अधिकार इन्हें मिलें। इनका घर-बार इन्हें वापस मिले। क्या ये भारतीय नहीं हैं? क्या संविधान में इनके लिए कोई मौलिक अधिकार नहीं है? तुम सब ने कितनी बार इन सबके लिए कुछ बोला, किया, लिखा।"

भारत माता की इन बातों के सामने मैं निरुत्तर था। सच तो यही था कि कभी कुछ किया ही नहीं। कश्मीरी पंडित समूहों में मारे जाते रहे और मैं भी शांत रहा। कोई जुंबिश तक ना हुई। आज-तक भी कुछ नहीं किया।

डेढ़ हज़ार पृष्ठों का उपन्यास लिख डाला। ना जाने कितनी कहानियाँ लिख डालीं। कितने व्याख्यान दे डाले। लेकिन अपने इन देशवासियों के लिए कुछ ना बोला, डेढ़ पन्ने भी न लिखा। आज तक सोचा भी नहीं। दिमाग़ में बात तक नहीं आई। एक लेखक होते हुए भी अपनी ज़िम्मेदारी से, समाज, देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मैं विमुख रहा। सही मायने में मेरा यह एक ग़ैरज़िम्मेदाराना, लापरवाही भरा कृत्य नहीं, अक्षम्य कुकृत्य है।

मैंने भारत माता के समक्ष नतमस्तक हो अपनी अक्षम्य ग़लती के लिए क्षमा माँगी। और माँ ने माफ़ कर दिया। आख़िर वह माँ है। भारत माँ है। जिसने अपने टुकड़े करने वाले सत्तालोलुप स्वार्थियों को भी माफ़ कर दिया था। मेरे पश्चाताप के आँसू निकलने लगे थे। तभी माँ का हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा और वह अंतर्धान हो गईं। मेरी नींद खुल गई। उठकर बैठ गया। सामने दीवार पर लगी घड़ी में देखा एक बज रहे थे। अनुभा सो रही थी। तभी मेरा ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया, साथ ही हाथ भी। वह वाक़ई आँसुओं से भरी थीं। पल-भर में पूरा सपना आँखों के सामने चलचित्र सा चल गया।

बेचैनी बढ़ी तो उठकर घर में ही टहलने लगा। घर बहुत बड़ा लग रहा था। यही घर तब छोटा लगता था जब सारे बच्चे यहीं थे। मगर पढ़ाई-लिखाई फिर कॅरियर जिसको जहाँ ले गया सब वहीं चले गए। लड़कियाँ ससुराल में ख़ुश हैं। लड़के अपनी नौकरी, अपने परिवार के साथ अपने घरों में। और यह घर एकदम से बड़ा हो गया। इस बड़े घर में हम पति-पत्नी एकदम अकेले हैं। बहुत याद आती है बच्चों की।

इस समय सब यहाँ होते तो अपनी यह व्यथा उनसे साझा करता। अपनी बेचैनी दूर करता। यूँ व्यर्थ टहलता नहीं। काफ़ी देर मैं यूँ ही टहलता रहा और दोबारा पानी पी कर फिर बेड पर लेट गया। मगर नींद ना आई। बार-बार भारत माता के प्रश्नों का जवाब ढूँढ़ता रहा। मुझसे बतौर लेखक कब-कब समाज देश के प्रति कहाँ ग़लतियाँ हुईं यही सोचता रहा। जब भोर होने को हुई तभी नींद लग गई।

मैं अगले पूरे दिन भीतर ही भीतर बहुत अशांत रहा। कई लेखकों के फोन आते रहे, कि आपकी क्या राय बन रही है। लोगों के बीच सोशल मीडिया पर भी चर्चा है कि आप पद से इस्तीफ़ा दे रहे हैं। अवॉर्ड वापस कर रहे हैं। इन सब को मैं एक ही जवाब देता रहा। जो भी होगा समय पर सामने आ जाएगा। चिंता ना करें, मैं अन्याय के साथ कभी नहीं रहूँगा। अपना कर्तव्य निभाना अच्छी तरह जानता हूँ।

घर पर भी अनुभा के साथ खाने पर अन्य बातें होती रहीं। रोज़ की तरह बच्चों से फ़ोन पर बातें भी कीं। नाती-पोतों, बच्चों की बातों में अपने को उलझाए रखने की कोशिश की। मगर सारी कोशिशों के बावजूद मन का एक छोर भारत माता के साथ जुड़ा रहा। वह रात भी पिछली रात सी बीती।

भारत माता अपने भव्य रूप में सामने आईं। पहले ही की तरह पूरे क्रोध में थीं। उनके एक हाथ में देश का संविधान था। उसे मुझे दिखाते हुए कहा, "जब यह पवित्र संविधान बना तब भी कई स्वार्थी लोगों ने अपना हित साधने का प्रयास किया था। संविधान के लागू होने के बाद भी यह प्रयास बंद नहीं हुए। बल्कि और तेज़ हुए।" भारत माता ने पूछा, "क्या तुम्हें इस बात की जानकारी है कि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मैंने संविधान में सभी को एक समान दी थी। लेकिन इसका गला बाद में घोंटा गया। वह भी लागू होने के एक वर्ष बाद ही। 1951 में ही।"

मेरे लिए यह अबूझ पहेली सा था। मैं पहली बार सुन रहा था कि अभिव्यक्ति की जो आज़ादी मिली थी उसे साल भर बाद ही कुतर दिया गया था। मेरे जैसे लेखक को यह जानकारी तो होनी ही चाहिए थी। दर्ज़नों किताबें लिखीं। विराट उपन्यास लिख डाला। और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कितना कुछ लिखा। आज इसी मुद्दे को ही तो लेकर सब बखेड़ा खड़ा किए हुए हैं। मैं भी उसके एक पक्ष में हूँ। उसे पक्ष कहूँ या विपक्ष लेकिन हूँ तो सही एक पक्ष में । और मुझे जानकारी ही नहीं।

आख़िर मैं कैसे तय कर पाऊँगा कि किस आधार पर मुझे अपना पक्ष तय करना है। अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते हुए मैंने भारत माता से कहा, "पूजनीय माँ मुझे इस बात की जानकारी नहीं कि किसने कब ऐसा किया। क्यों किया, कृपया मार्गदर्शन दें।" मैं नतमस्तक हाथ जोड़े खड़ा रहा। अपनी नादानी, मूर्खता का अहसास कर मैं थर-थर काँप रहा था।

मेरी बात सुनकर माँ का क्रोध और बढ़ गया। कुछ पल मुझे आग्नेय दृष्टि से देखती रहीं। मानो कह रही हों कि वस्तु-स्थिति को जाने बिना ही भेड़ों की तरह कुएँ में गिर रहे हो। फिर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 1951 में ही लाए गए पहले संविधान संशोधन का उल्लेख किया। मामला अभिव्यक्ति का ही था। एक पत्रिका की बिक्री किसी भी सूरत में प्रधान मंत्री नहीं चाहते थे। मामला कोर्ट में गया।

सरकार सर्वोच्च न्यायलय में भी हार गई। इससे सत्ता तड़प उठी। क्रोध से बिफर पड़ी। यह सहन नहीं हो पा रहा था कि वह मद्रास सरकार बनाम रोमेश थापर मामले में हार गई। लोकतंत्र की सत्ता बिफर उठी। वह तानाशाह बन बैठी। फिर एक नहीं तीन-तीन संशोधन ले आई। और आईपीसी की धारा 153 ए बनाई गई। जिसके ज़रिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को डस लिया गया।

भारत माता ने प्रश्न किया कि, "जिस स्वतंत्रता के लिए इतना भीषण रक्तपात हुआ। इतना समय लगा। उसे आज़ादी मिलते ही कुतर दिया गया। तब आख़िर यह समूह क्यों सो रहा था, क्या आज़ादी की लड़ाई की थकान उतार रहा था, और यदि थकान उतर गई हो तो इस धारा को समाप्त करने के लिए बात क्यों नहीं होती, क्यों अभी तक आज़ादी के बड़े-बड़े पैरोकार मुँह सिले हुए हैं।"

एक बार मैं फिर निरुत्तर था। मेरे पास सिवाय सिर झुकाए खड़े रहने के और रास्ता नहीं था। मैं क्या कहता उनसे, किस मुँह से कहता। मेरी चुप्पी पर भारत माता ने सख़्त नाराज़गी प्रकट की। कहा, "यह तुम्हें याद नहीं है मान लेती हूँ। लेकिन महिलाओं की आज़ादी उनके अधिकारों के लिए चिल्लाने वाले तुम लोग क्या कर रहे हो? अब तक कितनी सुरक्षित हैं महिलाएँ यहाँ पर, और मुस्लिम महिलाओं की आज़ादी, उनके मौलिक अधिकारों के बारे में तुम्हारे समूह के मुँह पर पड़े ताले आख़िर क्या कहते हैं? उनको संविधान से मिले अधिकारों को भी वोट की घिनौनी राजनीति करने वालों ने कुतर दिया। इसका विरोध तुम सबने क्यों नहीं किया? क्या तब भी तुम्हारी आँखों पर पट्टी बँधी थी? क्या तुम्हारे कानों में रूई ठुँसी हुई थी? क्या मुस्लिम महिलाएँ इंसान नहीं हैं? क्या उनके लिए तुम सबकी संवेदनाएँ मर गई हैं?

बाक़ी वर्ग की महिलाओं के लिए बड़ी-बड़ी पोथी लिख डालने वाले, गला फाड़-फाड़ कर भाषण देने वाले, तुम सबकी नज़र में क्या इनके लिए कोई जगह नहीं है, इनके अधिकारों को कुचलने के लिए संविधान संशोधन के वक़्त की तुम सबकी चुप्पी कब टूटेगी? तुम्हारी अंतर्रात्मा कब जागेगी?"

भारत माता के क्रोध के आगे मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं कुछ बोलूँ। उनसे कहूँ कि, मैंने आवाज़ उठाई थी। मैंने कहा था यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। संविधान के साथ खिलवाड़ है। देश के साथ धोखा-धड़ी है। मुस्लिम महिलाओं के साथ धोखा-धड़ी है। उनकी तकलीफ़ को और बढ़ाना है। मैं उनसे बोलना चाहता था कि, तब तमाम मुस्लिम विद्वानों, संगठनों ने भी मेरी तरह शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया था। कि तलाक़शुदा मुस्लिम महिलाओं को भारतीय अपराध दंड विधान की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता पाने का अधिकार है। सन् 1985 में मुस्लिम सांसदों ने भी स्वागत किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री भी ख़ुश थे।

लेकिन तभी कट्टरपंथी, वामपंथी वोट के कारण अचानक ही पिल पड़े। हम जैसे सारे लोगों को इन सबने चीख़-चीख़ कर दक्षिणपंथी, कम्यूनल कह-कह कर सच को झूठ कर दिया।

वोट के लोभ में प्रधानमंत्री ने भी घुटने टेक दिए। रेंग गए बिल्कुल ज़मीन पर। इतना अफना उठे कि साल भर में ही 1985 में ही संविधान संशोधन कर डाला। तलाक़ पर रक्षा का अधिकार अधिनियम बना डाला। मुस्लिम महिलाएँ, संविधान, न्याय व्यवस्था ठगी की ठगी रह गईं। मुस्लिम महिलाएँ फिर से भाग्य भरोसे छोड़ दी गईं। मीडिया भी चुप था, चुप है। हमें कम्यूनल कह कर मुँह बंद करने को कहा गया। अंततः हम भी तटस्थ हो गए।

यह हमारा अपराध है। मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए भी हमें बराबर सक्रिय रहना चाहिए था। हम यह कर्तव्य पूरी तरह नहीं निभा सके, यह जघन्य अपराध भी हमसे हुआ है। ऐसे ही इसी श्रेणी में एक अपराध और हुआ जा रहा है।

न्यायालय ने अभी तलाक़, पति के दूसरे निक़ाह पर विचार करने की ज़रूरत भर बताई और धर्मांध फिर बिफर पड़े कि हमारे मामलों में हस्तक्षेप है। हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। न्यायालय हद से बाहर जा रहा है। मगर सुधारवादी चुप हैं। चौबीस घंटा हाय-तौबा मचाए रखने वाला मीडिया तौबा किए बैठा हुआ है। इसकी प्रतिक्रिया में जब दूसरा समुदाय कहता है कि संविधान में हिंदू विवाह अधिनियम की जगह भारतीय विवाह अधिनियम की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? तब नहीं की गई तो अब क्यों नहीं की जा रही है?

यह बहुसंख्यक समुदाय को ठगने के प्रयास का एक छल-कपट पूर्ण तर्क है कि, बहुसंख्यक समुदाय को पहले उदाहरण पेश करना चाहिए। लेकिन कब-तक? वह तो सत्तर सालों से करता आ रहा है। बाक़ी कब करेंगे? सबके लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं होती? इस पक्ष द्वारा यह बात रखते ही मीडिया, तथाकथित सुधारवादी फिर हाय-तौबा मचाने लगते हैं। मेरे मन में यह सारी बातें क्षण भर में आ गईं। लेकिन भारत माता के रौद्र रूप के सामने मेरी घिघ्घी बँधी रही।

मैं वट-वृक्ष के पत्तों सा काँपता, हाथ जोड़े खड़ा रहा। मेरी ज़ुबान ने यह कहने के लिए मेरा साथ नहीं दिया कि मैं उनसे कहता कि, हे हर पल स्मरणीय भारत माँ मैं बराबर यह प्रश्न खड़ा करता हूँ कि, इस तरह की हर कार्रवाई तुष्टिकरण की नीचतापूर्ण हरकत है। देश-देशवासियों के साथ विश्वासघात है। इसके कारण देश के टुकड़े हुए। मगर स्वार्थ को साधने के लिए यह गंदा घिनौना कार्य अब भी चल रहा है।

सही मायने में यह आज़ादी से पहले जब धर्मांधता के वशी-भूत कुछ लोगों ने ख़िलाफ़त के लिए आंदोलन शुरू किया तो तब की सर्वे-सर्वा बड़ी पार्टी, इससे देश को होने वाले नुक।क़सान को लेकर आँखें मूँदे रही। उसे अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने, सर्वे-सर्वा बने रहने का जुनून था। लेकिन तब तक के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति जो धर्मांधता, साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे, पता नहीं किस कारण से शांत रहने की बात छोड़िए बराबर इस आंदोलन की शुरूआत करने वाले अली बंधुओं को समर्थन देते रहे। इसे गौ-रक्षा से जोड़ दिया।

मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि महात्मा सरीखे महान व्यक्ति के सामने लोगों ने ऐसी कौन सी विवशता खड़ी कर दी थी कि, वह देश के लिए नासूर बन जाने वाली तुष्टिकरण की नीति की शुरूआत कर बैठे। तब से यह बढ़ती रही। इसने देश के टुकड़े कर दिए। मगर स्वार्थी तत्व फिर भी इसको चिपकाए हुए हैं। छः सात दशक में इससे हो रहे नुक़सान को अनदेखा किए हम आगे बढ़ रहे हैं। वोट के लिए तुष्टिकरण को हथियार की तरह प्रयोग करने की इन सब में होड़ लगी हुई है।

लेकिन मैं, मेरे जैसे अन्य वास्तविक धर्म-निरपेक्ष चाहे जिस वर्ग के हों अपनी बात रखते ज़रूर हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम है, इस लिए वो बराबर नुक़सान भी उठाते हैं। मैं ऐसे लोगों में केरल के मौलवी चेकन्नूर को कैसे भूल सकता हूँ, वहीं के प्रोफेसर टी.एस. जोजेफ, गौ रक्षक प्रशांत पुजारी को कैसे भूल सकता हूँ? जो सच कहने के कारण निर्ममता पूर्वक मार दिए गए। लेकिन मीडिया से लेकर ये असहिष्णुता का हाय तौबा मचाने वाला समूह कुछ बोला ही नहीं। चूँ तक न की। मानो मारे गए लोगों के जीवन का कोई मोल ही नहीं है। वो इस देश के नागरिक ही नहीं।

मैंने अपने कुछ साथियों के साथ इस बात को सामने रखा लेकिन संचार माध्यमों ने हमारी बात अनसुनी कर दी। हर तरफ़ से कोशिश यही हुई कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मैं इन बातों पर अपनी निष्पक्षता भारत माता के सामने रखना चाहता था। लेकिन मैं ख़ुद को कमज़ोर महसूस कर रहा था कि नहीं हमारा प्रयास उतना नहीं था। जितना हम कर सकते थे।

हमें दादरी प्रकरण पर अपनी पहल याद आई कि, सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक ने इस घटना की कितनी निंदा की थी, अभी भी कर रहा हूँ। कि किस तरह वोट के लिए सच को छिपा कर झूठ को सच बना दिया गया। सरकारी ख़ज़ाना मदद के नाम पर ग़लती करने वाले पर लुटा दिया गया।

इसी को मुद्दा बना कर इतना बखेड़ा पैदा किया गया कि हलचल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो गई। लेकिन फ़ोरेंसिक रिपोर्ट में सच सामने आ गया तो सब चुप हैं।। मीडिया भी। इस तरह का कुकृत्य करने वाला किसी भी रूप में देश-समाज का भला नहीं कर रहा है। मैंने यह भी कहा था कि हर वर्ग के पूजा स्थलों से लाउड-स्पीकर तत्काल प्रभाव से हमेशा के लिए हटा दिए जाएँ। इनके कारण अपराधी तत्व अप्रिय घटनाओं को आसानी से अंजाम देने में सफल हो जाते हैं।

यह ध्वनि विस्तारक यंत्र अराजक तत्वों की अराजकता का अक़्सर एक सर्पोर्टिंग टूल बन जाते हैं। इस मुद्दे पर किसी भी वर्ग का यह तर्क पूरी तरह एक सिरे से नकार दिया जाए, खारिज कर दिया जाए कि उनका इसके बिना काम नहीं चल सकता। क्योंकि यह तर्क पूरी तरह से झूठ, मक्कारी छल-फरेब कुटिलता से भरा है। आख़िर सारे वर्गों की पूजा तो तब भी ख़ूब अच्छे से होती थी, जब इस यंत्र का आविष्कार भी नहीं हुआ था। लेकिन इस बात पर मुझे फोन पर गालियाँ, धमकियाँ ज़रूर मिलीं। दादरी घटना पर हो-हल्ला मचाने वालों ने चूँ तक ना की।

जान से मारने की धमकियाँ मुझे इस बात के लिए अब भी मिल रही हैं, जब मैंने यह कह दिया कि सीमांत क्षेत्रों सहित पूरे देश में जिस तरह से भारी संख्या में पूजा स्थल बेतहाशा बनाए जा रहे हैं, और क़िलेनुमा बनाए जा रहे हैं, वह निकट भविष्य में देश के लिए गंभीर समस्या बनेंगे। इनको देख कर लगता ही नहीं कि ये पूजा के लिए बनाए जा रहे हैं। इन के पीछे छिपी कुटिलता, छल-कपट साफ़ नज़र आता है। जाँच एजेंसियाँ भी बार-बार इससे आगाह करती आ रही हैं। मैंने स्पष्ट मत रखा था कि, ऐसा क़ानून बने कि एक निश्चित जनसंख्या पर उस जगह एक निश्चित आकार का ही पूजा स्थल बन सकेगा। ऐसा कर के ही संभावित ख़तरे से निपटा जा सकता है।

मैं उनसे यह भी कहना चाह रहा था कि मैं तब भी हतप्रभ था। जब हापुड़ में एक मुस्लिम महिला और उसके हिंदू पति की हत्या कर दी गई। हिंदू से महिला ने शादी क्यों कर ली? छोटी सी छोटी घटना को तूल देने को तैयार रहने वाले तथाकथित बहुरूपिए सेकुलर समूह के कानों पर जूँ तक ना रेंगी। हालाँकि खाप पंचायतों के लिए ये बहुरूपिए हर दम लठ्ठ भाँजते दिखते हैं, मगर सिर्फ़ भाँजते ही हैं। वहाँ भी ये अपना नफ़ा-नुक़सान देखकर ही हाथ डालते हैं।

मैं माँ को यह बताना चाह रहा था कि, हे माँ मैं हर उचित अवसर पर कहता हूँ कि, हे महान सेकुलरों, हे महान समाज सुधारकों, हे महान जागरूक लेखकों, कलाकारों, समाज सेवियों, खंडित देश को बार-बार अखंड भारत कहने वाले हे महान ढपोरशंखियों, देश की अखंडता की रक्षा करने का दंभ भरने वाले दंभियों, हमेशा न्याय हो सबके साथ जैसे जुमले भाखते रहने वाले भांडों, ज़रा यह तो बताओ कि जब इस आज़ाद देश में सबको सामान अधिकार दिए गए हैं, तो एक राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देकर देश की नींव खोखली करने वाली धारा 370 (५ अगस्त,२०१९ को बी.जे.पी. सरकार ने यह धारा समाप्त कर दी) को समाप्त करने के लिए तुम सब क्यों नहीं बोलते? मैं यह सब बोलने के लिए हिम्मत जुटा ही रहा था कि, माँ क्रोधित हो बोलीं, "जब तुम बोलने की भी हिम्मत नहीं रखते हो तो लेखक बनने की ज़रूरत ही क्या थी? जब तुम साफ़ कहने में हिचकते हो तो तुम्हें कोई अधिकार नहीं था लेखक बनने का।

“लेखक की ज़िम्मेदारियाँ बहुत होती हैं। तरह-तरह की होती हैं। बहुत पवित्र होती हैं। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि लेखक एक पथ-प्रदर्शक होता है। समाज को देश को वह दिशा देता है। वह इन्हें सभ्य बनाता है। सुसंस्कृत बनाता है। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि जो समाज श्रेष्ठ बना है। मज़बूत बना है। सुसंस्कृत बना है। उसका साहित्य बहुत उच्चकोटि का रहा है। उससे समाज को जीवन मिला है। समाज जीवंत बना है। दुनिया में वह समाज अपनी श्रेष्ठता साबित कर सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा है।

तुम सब उस देश को जो कभी विश्वगुरु की पदवी पर था। जिसके पास ज्ञान का भंडार था। जिसे झुठलाने में, उसका अपमान कराने में ही तुम लोग अपनी विद्वतता समझते हो। दुनिया के आदि ग्रंथ वेदों का मख़ौल उड़ाते हो। उसके आगे क्या उनकी छाया के बराबर भी कुछ लिखा गया? तुम्हारा यह आचरण क्या ऊपर मुँह कर थूकने जैसा नहीं है।

“इस वैदिक साहित्य का अपमान करने वाले तथाकथित विद्वानों, ज़रा विचार करो, इस वैदिक साहित्य ने तो अपने समय के समाज, देश को सुसंस्कृत किया। सभ्य बनाया। दिशा दी, विश्वगुरु बनाया। तुम सबने क्या किया? क्या है तुम्हारा साहित्य? यही कि लोग उनसे दूर भागते हैं। उन्हें कोई पढ़ने वाला नहीं है। तुम्हें पाठकों को ज़बरदस्ती पकड़ कर उन्हें अपना लिखा,पढ़ने के लिए विवश करना पड़ता।

“वह वैदिक साहित्य जो आज भी पढ़ा जा रहा है बिना विवश किए। जिसे तुम्हारी सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्था इसरो श्रेष्ठ ज्ञान कह रही है। धरोहर कह रही है। उसे अपमानित करते तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आती। तुम लेखकों ने जैसी निर्लज्जता के साथ अकारण ही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए देश को भ्रमित किया हुआ है, उसकी नींव हिला रहे हो, क्या यह तुम्हारी अयोग्यता का प्रमाण नहीं है। और अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए तुम सब ऐसी उजड्डता, ऐसा ग़ैर ज़िम्मेदारी भरा आचरण कर रहे हो।

“मुझे कभी आज़ादी ना मिली होती, यदि तब के साहित्यकार तुम जैसे होते। उन्होंने वह साहित्य रचा जिसने तब देश को दिशा दी। और मैं आज़ाद हो सकी। मगर मुझे अब दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम सबकी हरकतों के कारण मैं अपनी आज़ादी ख़तरे में महसूस कर रही हूँ। तुम सब इस योग्य भी नहीं निकले कि, आज़ादी से पहले के साहित्यकारों की परंपरा को आगे बढ़ा पाओ। उससे ज़्यादा उत्कृष्ट लिखने की योग्यता तो मुझे तुम सब में दूर-दूर तक नहीं दिखती। मैं चिंतित हूँ यह सब देखकर।

“मुझे यह कहना पड़ रहा है कि, वो साहित्यकार युग दृष्टा ज़रूर रहे। मगर युग सृष्टा शायद नहीं थे। या उन्हें समय नहीं मिल पाया कि, वो आगे आने वाले युग की रूप-रेखा सुनिश्चित कर जाते। मगर समस्या तो तब भी होती। क्योंकि तुम सब जिस विचार के हो उसी के अनुसार कार्य करते। उसे भी नकारते। उसे भी भ्रष्ट करते।

“आख़िर तुम सब चाहते क्या हो? यह देश जनता को जनार्दन कहता है। यदि तुम यह समझते हो कि वह कभी तुम्हारे दुराचरण को समझ नहीं सकता तो यह तुम्हारी मूर्खता है। तुम्हारा मानसिक दिवालियापन है। जनता-जनार्दन एक दिन सब समझ जाएगी। फिर तुम्हारी हालत बहुत दयनीय होगी। वह तुम्हें देश के आख़िरी छोर तक नहीं, बल्कि दुनिया के ही आख़िरी छोर के बाहर खदेड़ कर दम लेगी।

“मुझे अभी से इस बात को लेकर बड़ा भय महसूस हो रहा है। तब की तुम्हारी दयनीय स्थिति का अंदाज़ा लगाकर ही मैं उलझन में पड़ जाती हूँ। क्योंकि आख़िर तुम सब भी तो मेरे ही हो। मेरे ही अंग हो। मेरा कोई भी अंग कटेगा, कष्ट में होगा, तो मुझे दर्द होगा ही। इस लिए मैं तुम्हें जनता-जनार्दन के क्रोध से बचने के लिए आगाह कर रही हूँ, समय रहते सब कुछ सही कर लेने के लिए। सच के रास्ते पर ही चलने के लिए। अपना दायित्व ठीक से निभाओ, अन्यथा जनता-जनार्दन लेखक वर्ग को साज़िशकर्ता, जटिल, कुटिल, ईर्ष्यालु, अवसरवादी, लालची, स्वार्थी, स्वार्थ के लिए नैतिकता को बेच देने वाला कहेगी, उससे नफ़रत करेगी।"

भारत माता बोलती जा रही थीं और मैं हिम्मत जुटाने में लगा रहा कि, मैं उन्हें उनकी बातों का जवाब दूँ। उन्हें बताऊँ कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैं उन्हें बताना चाह रहा था कि, हे माँ मैंने इस असहिष्णुता की कुटिल तुच्छतापूर्ण मुहिम के सूत्रधार लेखक को बहुत लताड़ा था। मैंने साफ़ कहा था कि, जब तथाकथित एक कम्यूनल योगी से सम्मान लेते हुए शरणागत हुए जा रहे थे। मानो लेट ही जाओगे। उस समय भी यही हालात थे जो अब हैं, तो क्यों विरोध स्वरूप सम्मान लेने से मना नहीं किया, बाद में भी सम्मान लेने चले गए, अब भी सारे हालात वैसे ही हैं तो, यह वापसी का पाखंड क्यों?

मेरे विरोध पर उसने बात काट दी। इसके तुरंत बाद ही जिस लेखिका ने ऐसा किया, मैंने उनसे भी भरपूर विरोध जताया था। मैंने साफ़ कहा कि, आप प्रधानमंत्री रहे किसी व्यक्ति की भाँजी हैं, यह ऊँगली पर गिन लिए जाने भर के बराबर ही लोग जानते थे। आप लेखिका हैं इस बारे में भी यही हाल था। लेकिन पुरस्कार वापसी के पाखंड ने आपको रातों-रात मीडिया के ज़रिए तमाम लोगों तक पहुँचा दिया। आप तो प्रसिद्ध हो गईं। क्या आप पुरस्कारों में मिली धनराशि और उससे जो प्रसिद्धि मिली थी वह भी लौटा सकेंगी । आपने तो एक पार्टी की राजनीतिक मौत को इस पाखंड से स्थगित कर दिया है। मगर इससे देश के साथ जो घात हुआ है उसका क्या जवाब देंगी?

मैं भारत माता से अपनी बात पर उस लेखिका की कुटिल रहस्यमयी मुस्कुराहट के बारे में भी कहना चाह रहा था। साथ ही यह भी कहना चाह रहा था कि, हे माँ मैंने लेखक होने का कर्तव्य तब भी पूरा किया, और बराबर करता आ रहा हूँ, जब ये बहुरुपिए सेकुलरिस्ट, विदेशी टुकड़ों पर पलने वाले तथाकथित एन.जी.ओ. समाजसेवी, निर्दोषों का क़त्ल करने वाले, विकास के हर रास्ते को बंद करने वाले नक्सलियों की मुठभेड़ में मौत होने, आतंकवादियों की मौत होने पर हाय-तौबा मचाते हैं। घडियाली आँसू बहाते हैं। मोमबत्तियाँ जलाते हैं। लेकिन देश के फ़ौजियों के शहीद होने पर आश्चर्यजनक ढंग से चुप रहते हैं। कमरों में व्हिस्की के जाम के साथ जश्न मनाते हैं। हे माँ मैं तब भी चुप नहीं बैठा था, जब दक्षिण में राजनीतिक लाभ के लिए वर्ग विशेष की बहुलता वाले क्षेत्रों को मिलाकर मलप्पपुरम नगर बना दिया गया।

मैं बराबर इस बात का विरोध करता आ रहा हूँ कि, वीरभूमि, दुर्गापुर साहित ऐसी हर उस जगह पर देश के बहुसंख्यक समुदाय के अल्पसंख्यक हो जाने पर वहाँ बहुसंख्यक बने वर्ग के लोग दूसरे वर्ग की दुर्गापूजा, तांडव नृत्य, महा-आरती वग़ैरह त्यौहारों को मनाने नहीं दे रहे हैं। असम सहित कई राज्यों में घुसपैठियों के कारण देशवासियों के अल्पसंख्यक हो जाने, जाँच आयोगों की रिपोर्टों कि, यदि घुसपैठ रोकी नहीं गई तो राष्ट्र रक्षा ख़तरे में है, के बावजूद कोई कार्यवाई न होने पर भी एतराज़ करता रहा हूँ।

मैं ज़ोरदार शब्दों में यह कहना चाह रहा था कि, हे माँ एक नेता जो कभी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में था। बुरी तरह परास्त हो गया। फिर प्रदेश के चुनाव में जुगाड़ कर जीता। उसकी उस हरकत का भी कड़ा विरोध किया जब आज़ादी से पहले अपने स्वार्थों के लिए जिन्ना ने धर्म के आधार पर जो क़दम उठाए थे वही वह भी करने लगा।

मैं यह साफ़-साफ़ कहना चाह रहा था कि, इन्हीं क़दमों के कारण मुझे दक्षिणपंथी कम्यूनल कह-कह कर अपमानित किया जाता है। अलग-थलग रखने की कोशिश की जाती है। लेकिन मैं पलभर को भी विचलित नहीं होता। अपना उत्तरदायित्व निभाता आ रहा हूँ। कई बार ऐसा हुआ कि मैं सारी बातें कहना शुरू ही करने वाला होता कि माँ फिर कुछ कहने लगतीं। और मैं जितना आगे बढ़ता वहाँ से वापस फिर प्रारंभ बिंदु पर पहुँच जाता।

लेकिन कहते हैं न कि बार-बार के प्रयास अंततः सफलता दिला ही देते हैं तो अंततः मैं भी सफल हो गया। अवसर मिलते ही मैंने अपनी यह सारी बातें कह दीं। इनमें मैंने देश के राष्ट्रपति की बात पर भी अपने स्टैंड को बताया जिसमें उन्होंने असहिष्णुता का ढोल पीटने वालों को लताड़ा था। और यह भी बताया कि फ़िल्म इंडस्ट्री के उस बीमार मानसिकता के एक अभिनेता नाचने गाने वाले के इस बयान पर भी उसे लताड़ा था, जिसमें वह पाखंडी बोल रहा था कि उसकी पत्नी डर गई है। देश छोड़ने की बात कर रही है।

मैंने कहा ज़रा यह भी तो बताओ कि किस देश में जाने का निर्णय लिया है, और कि क्या वहाँ इसी देश की तरह ख़ाली नाच गा के, स्वांग भर के अरबों कमा लोगे, वहाँ कि जनता तुम्हें ऐसे ही सिर-आँखों पर बैठाएगी, और तुम इसी तरह आराम से अव्वल दर्जे का कुटिलता भरा, झूठा, देश-द्रोह से भरा बयान देकर मुस्कुराते हुए चलते रहोगे, अरे तुम यहाँ सिर आँखों पर बैठाए जाते हो, देशद्रोही बयान देकर भी मुस्कराते रहते हो, सहिष्णुता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए?

आने वाली अपनी फ़िल्म के प्रचार के लिए यह गद्दारी, यह जाहिलियत, यह ज़लील हरकत की है। मगर मैं तुमसे इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं करता, क्योंकि तुम तो वह स्वार्थी इंसान हो जो अपनी पत्नी का नहीं हुआ। कुछ पैसा पाते ही अपनी पहली पत्नी को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया।

एक विदेशी महिला को फँसाया, गर्भवती बनाया फिर ठोकर मार कर उसे भी भगा दिया। वह अपने बिना बाप के बच्चे को लिए जीवन गुज़ार रही है। मगर तुम्हारी धोखेबाजी रुकी नहीं। ढूँढ़ कर एक ऐसी दूसरी महिला को फँसा लिया जिसके सहारे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ सको। तुम तो इतने लिजलिजे इंसान हो कि अपनी षड्यंत्र से भरी इस बात को कहने के लिए भी पत्नी के कंधे का सहारा लिया। 

संसद में इसी मुद्दे पर वोट के सौदागरों की हठ पर भी मैंने अपनी प्रतिक्रिया बता दी। मैं संतोष महसूस कर रहा था कि माँ मेरी सारी बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थीं । मुझे बोलने का पूरा समय दे रही थीं। और मेरी सारी बातों को सुनने के बाद मेरे कार्यों पर संतुष्टि व्यक्त की। मगर साथ ही यह भी कहा कि, "नकारात्मक शक्तियाँ तो अपनी ग़लत बातों का ढोल इतना पीटती हैं, झूठ को इतना तेज़ कहती हैं कि, सच छिप जाता है। झूठ सच लगने लगता है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए होता है कि तुम लोग एक बार प्रतिक्रिया देकर अपने कर्तव्यों की इति-श्री समझ लेते हो।

सकारात्मक वर्ग का यह परम कर्तव्य है कि, वह अपना प्रयास तब तक जारी रखे जब तक कि नकारात्मक शक्तियों का मुखौटा उतर न जाए। सब के सामने उनका असली चेहरा उजागर ना हो जाए। इस दृष्टि से तुम सफल नहीं हो। मैंने जो कहा यदि तुम सब वैसा कर रहे होते तो असहिष्णुता के नाम पर जैसा विषैला माहौल यह सब बनाने में सफल हुए यह हो ही ना पाता। वह सफल रहे तुम सब असफल। अब तक जो किया ठीक है। मगर वातावरण में असहिष्णुता का जो छद्म विष फैला हुआ, जिससे देशवासी आतंकित हैं। उस विष को दूरकर देशवासियों को स्वच्छ, सुखकारी निर्मल वातावरण देने के लिए क्या कर रहे हो? ऐसा क्या है जिसे सुनकर मैं निश्चिंत हो जाऊँ कि, हाँ भितरघातियों के भितरघात से मेरी सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था है। मुझे नुक़सान पहुँचाने का प्रयास करने वाले असफल रहेंगे।"

मैं भारत माँ के इन प्रश्नों का तत्काल कोई उत्तर नहीं दे सका। क्योंकि इस स्तर पर मैंने कोई विचार नहीं किया था। और जब विचार ही नहीं किया था तो किसी उत्तर का कोई प्रश्न ही नहीं था। मैं निरुत्तर था। शर्मिंदगी से सिर स्वतः ही झुक गया। माँ कुछ क्षण मुझे ऐसी स्थिति में देखने के बाद बोलीं, "क्या किसी लेखक को इतना लापरवाह इतना ग़ैरज़िम्मेदार होना चाहिए, तुम जैसे सारे लेखकों के कारण मैं निराश हूँ। मैं व्याकुल हूँ। मैं अपने भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हूँ। सोचती हूँ कि, क्या मैंने तुम लोगों से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा कर ली है। इतनी ज़्यादा कि तुम लोग उस पर खरे उतरने के योग्य ही नहीं हो। पूर्ण रूपेण अक्षम हो। संभवतः मुझे और विकल्पों पर पहले ही ज़्यादा भरोसा करना चाहिए था।"

माँ अपनी बातें कहते हुए बहुत क्रोधित होती जा रही थीं। उनके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आते जा रहे थे। पीड़ा का भाव गाढ़ा होता जा रहा था। उनकी इस पीड़ा से मैं तड़प उठा। मैं उन्हें पल भर को भी कष्ट में बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। मैंने तुरंत तय किया कि माँ से कहूँ कि, हे माँ मैं अपनी ग़लती के लिए शर्मिंदा हूँ। क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझे बस एक दिन का समय दे-दें। मैं अपने अगले क़दमों के बारे में एक विस्तृत योजना आपके सामने रख दूँगा कि मैं ऐसा क्या करूँगा। जिससे आप भितरघातियों की तरफ़ से निश्चिंत हो सकें। वातावरण में फैला छद्म असहिष्णुता का विष समाप्त हो जाएगा। लेकिन माँ इतनी निराश, इतनी क्रोध में थीं कि पलक झपकने भर में विराट रूप धारण कर अंतर्धान हो गईं।

उनके अंतर्धान होते ही मेरी नींद टूट गई। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। पूरा घर अकेला था। साँय-साँय कर रहा था। अनुभा सो रही थी। पिछले कई दिनों से उसकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी। बीपी, कोलेस्ट्रॉल बढ़े हुए थे। उसकी एक आँख की रोशनी तेज़ी से कम होती जा रही थी। वह पहले ग्लॉकोमा से पीड़ित थी। किसी तरह डॉक्टरों ने छः साल पहले ऑपरेशन करके आँख बचा ली थी। लेकिन अब रोशनी के तेज़ी से कम होते जाने को डॉक्टर रोक नहीं पा रहे थे।

उसका तेज़ी से गिरता स्वास्थ्य मेरी बड़ी चिंता थी। किसी एक को तो पहले जाना ही होता है। लेकिन मैं इस कल्पना से ही व्याकुल हो उठता हूँ, तड़प उठता हूँ कि कहीं अनुभा मुझसे पहले न चली जाए। क्योंकि मैं उसके बिना अपने एक दिन के जीवन की भी कल्पना नहीं कर पाता। सिहर उठता हूँ यह सोचकर ही कि वह पहले चली जाएगी।

पचास साल का साथ पल में टूट जाएगा। आख़िर जीवन में यह पल आता ही क्यों है? मैं अनुभा को बड़ी देर तक देखता रहा। लेकिन दिमाग़ में भारत माँ की बातें बार-बार कौंध रही थीं कि हम अक्षम हैं। उन्होंने हमसे ज़्यादा अपेक्षा कर ली। वह विवश हैं किसी दूसरे विकल्प के बारे में सोचने के लिए।

यह बातें मुझे बहुत विचलित करने लगीं। और अनुभा के बारे में सोचना कहीं दूर-दूर होता गया। मैं उसके कमरे से ड्रॉइंगरूम में चला आया। लाइट ऑन की और सोफ़े पर बैठ गया। सामने दिवार पर मेरी बड़ी लड़की की बनाई दो पेंटिंग लगी हैं। बाईं तरफ़ महाराणा प्रताप की, जो अपने इतिहास प्रसिद्ध घोड़े चेतक पर सवार हैं। हाथ में भाला लिए। ऊपर घूमी हुई मूँछे, तेज़ से चमकता चेहरा। बेटी ने दूसरी पेंटिंग अँग्रेज़ी साम्राज्य की चूलें हिला देने वाले सुभाष चंद्र बोस की बनाई थी। उन्हें भी घोड़े पर सवार दिखाया था।

पेंटिंग्स ऐसी बनी हैं, ऐसे लगी हैं, मानो भारत माँ के दोनों लाल, दोनों महान सेनानी जंग के मैदान में खड़े भारत माँ के दुश्मनों पर हमला करने से पहले कुछ सलाह-मशविरा कर रहे हैं। पेंटिंग्स पर से बड़ी देर तक मेरी नज़र नहीं हटी। मैं खोता गया उन्हीं में कि, इन सपूतों ने किस प्रकार अपने राष्ट्र अपनी भारत माँ के लिए अपना घर परिवार जीवन सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इतिहास में अमर हो गए हैं। और चेतक! एक जानवर होकर। बल्कि उसे जानवर कहना उसका अपमान है। कहने के लिए वह घोड़ा था लेकिन जिस धरती पर जन्म लिया उसके लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। शायद ही दुनिया के किसी भी देश के इतिहास में इंसान के बाद किसी अन्य जीव को वह स्थान प्राप्त हो जो चेतक को है!

उन दो पेंटिंग में खोया मैं अचानक ख़ुद से पूछ बैठा इन्होंने तो इतना कुछ किया अपनी भारत माँ के लिए। अमर कर गए अपने-अपने माँ-बाप परिवार सबको। और मैं! मैंने क्या किया? रँगने को हज़ारों पन्ने रँग डाले लेकिन किस काम के? वो भारत माता के किस काम आ रहे हैं? मेरे अब-तक के लिखे की अर्थवत्ता क्या है? बीते इतने दशकों में इतनी बातें होती रहीं, जब मुझे अपने लेखक होने का धर्म निभाना चाहिए था तब मैं पन्ने रँगने में ही लगा रहा।

मन में महान लेखक बनने का सपना लिए पन्नों पर स्याही उडे़लता रहा कि एक दिन दुनिया में मेरे लेखन पर चर्चा होगी। मुझे युगदृष्टा लेखक कहा जाएगा। हर किताब पूरी करते ही मूर्खों की तरह कैसे ख़्यालों में खोने लगता हूँ कि यह नोबेल दिला सकती है। नोबेल न सही कम से कम बुकर या ज्ञानपीठ तो निश्चित ही।

अपने विराट उपन्यास को पूरा करने के क़रीब पहुँचते ही कैसे दिवास्वप्न देख रहा हूँ कि, मेरा यह विराट उपन्यास नोबेल निश्चित दिलाएगा। अमूमन सारे लेखकों को यह बड़ी उम्र में ही मिला है। अब तो मेरी भी उम्र हो चुकी है। निश्चित ही मेरी लालसा ने मुझे अपने कर्तव्यों को समझने उसका निर्वहन करने से विमुख कर दिया। मैं वाक़ई अपना कर्तव्य निभा नहीं सका। भारत माँ का मुझ पर ग़ुस्सा होना उचित ही है।

सच तो यही है कि लेखक पुरस्कारों से बड़ा नहीं होता। बड़े से बड़ा पुरस्कार उसे बड़ा नहीं बना सकता। मैं तो अब यह दृढ़ता से कहना चाहूँगा कि पुरस्कार लेखक की आत्मा को ही नष्ट कर देता है। अजर-अमर अविनाशी कही जाने वाली आत्मा को। पुरस्कार ग्रहण कर लेखक अपनी क़लम गिरवी रख देता है। वह अपने सरोकारों के साथ न्याय नहीं कर पाता। उस की क़लम बंधक हो जाती है। सच नहीं लिख पाती।

ज्यांपाल सार्त्र ने यही कारण बताते हुए ही तो पलक झपकते ही नोबेल ठुकरा दिया था। मगर जो क़द उनका है क्या वह जॉर्ज बर्नाड शॉ का भी है। जिन्होंने पहले नोबेल लेने से मना किया लेकिन अंततः लालसा उन पर भारी पड़ी और उन्होंने स्वीकर कर लिया। सही मायने में ये पुरस्कार मृगमरीचिका से हैं। अपनी ओर खींच ही लेते हैं। इनकी धनराशि ललचाती है। पूर्व सोवियत संघ के बोरिस पास्तरनाक कम्यूनिस्ट शासकों की सख़्त मनाही के कारण नोबेल ठुकरा देते हैं। मगर जैसे ही हालात बदले उनके उत्तराधिकारियों ने स्वीकार कर लिया।

मुझे लगा कि जैसे ड्रॉइंगरूम में हर तरफ़ से चीख़ती हुई यह आवाज़ें आ रही हैं कि तुम भी लालची हो। ऐसे ही लालच ने तुम्हें अपने सरोकारों से विमुख कर दिया। तुम्हारी क़लम पूर्णतः आज़ाद कहाँ रही। यदि ऐसा ना होता तो तुम अपने कर्तव्यों को निभाने में असफल नहीं होते। तुम भी वाल्तेयर, रूसो, ब्रूनो बन सकते थे। लेकिन तुम भी भीड़ में शामिल एक चेहरा बन कर रह गए। निरर्थक ही जीवन गँवा दिया। तुम असफल हो, कुछ नहीं कर सकते। कुछ नहीं कर सकते।

इन चीख़ती आवाज़ों ने मुझे हिला कर रख दिया। झकझोर दिया। मैं सोफ़े पर उठ खड़ा हुआ यह बुदबुदाते हुए कि नहीं मैं असफल नहीं हूँ। मैं असफल नहीं हूँ। मैं असफल नहीं हूँ। मैं बेटी की बनाई दोनों पेंटिंग के सामने खड़ा हो गया। बुदबुदाहट अब भी चल रही थी। कि मैं असफल नहीं हूँ।

जीवन बीत गया तो क्या इतिहास तो पल भर लिखे जाते है। पल में बदल जाती है दुनिया। एक निर्णय से बदल जाता है इतिहास। जैसे गाँधी जी ने अपने इस निर्णय से कि देश का बँटवारा उनकी लाश पर होगा, से पीछे हटने का निर्णय लिया वैसे ही भारत के बँटने का रास्ता साफ़ हो गया। बदल गया इतिहास। बँट गया देश। तो मैं भी ऐसा कुछ कर सकता हूँ। कुछ ऐसा कि भारत माँ निश्चिंत हो सके। असहिष्णुता के छद्म विष से विषाक्त माहौल स्वच्छ हो सके। देश के साथ छल-कपट करने वाले बेनक़ाब हो सकें। हर नागरिक इन बहुरूपियों को पहचान सके। इनके बरगलाने में ना आए। देश के लिए जिए-मरे।

मेरी नज़र बार-बार दोनों पेंटिंग पर जाती रही। कि इन दोनों ने भी तो आततायी ताक़तों की दिशा मोड़ दी थी। अकेले ही चले थे। मुझे भी अकेले चलना है। अकेले ही। मैं बड़ी देर तक दोनों पेंटिंग देखता खड़ा रहा, मुझे लगा कि जैसे दोनों पेंटिंग से मुझे आगे क्या करना है, इस बात का संदेश दिया जा रहा है। यह संदेश कुछ ही देर में पूरा भी हो गया। ऐसा महसूस होते ही मैं फिर सोफ़े पर आकर बैठ गया। और तय कर लिया कि क्या करना है।

ब्रूनो को अपनी बात कहने के ही कारण उसके देश के धर्मांधों ने उसे ज़िंदा जला दिया था। लेकिन मैं अपनी बात कहने के लिए। बहुरूपियों को बेनक़ाब करने के लिए ख़ुद को स्वयं अग्निदेवता के हवाले कर दूँगा। कल ही कर दूँगा। यही एक रास्ता बचता है जो तत्काल पूरी दुनिया तक मेरी बात पहुँचा देगा।

देखते-देखते छद्म असहिष्णुता समाप्त हो जाएगी। देश की जनता बहुरूपियों को पहचान लेगी। उन्हें उनके अंजाम तक पहुँचा देगी। इसमें यही मीडिया ही काम आएगा। जब इसे कल सुबह यह ख़बर मिलेगी कि बहुरूपियों को बेनक़ाब करने के लिए, बहुत सी किताबें लिखने वाला, बहुत से महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित एक पचहत्तर वर्षीय लेखक ने शहर में सुभाष मूर्ति के नीचे आत्मदाह कर लिया।

इन सारे चैनल्स को, मित्रों, बहुरूपियों को बेनक़ाब करने वाली सारी डिटेल्स वहीं चलकर मेल कर दूँगा। पहले कर दिया तो भीड़ इक्ट्ठा हो जाएगी। मैं फिर असफल हो जाऊँगा। मैंने इसके लिए अपना लैपटॉप ऑन किया। तमाम ज़रूरी चीज़ें तैयार कीं, जो तब मेल करनी थीं। फिर निश्चिन्त हो कर सोफ़े पर बैठ गया।

मैं ख़ुद में युवावस्था से ज़्यादा जोश उत्साह महसूस कर रहा था। मगर मन में तभी एक बात आई कि इसी बहाने अनुभा के पहले जाने के दर्द को बर्दाश्त करने की पीड़ा से बच जाऊँगा। और मेरा विराट उपन्यास वह भी इससे जबरदस्त प्रसिद्धि पा जाएगा। इस बाज़ारवाद के युग में ऐसी बातें रातों-रात कुछ का कुछ कर देती हैं।

यह सोचते हुए मैंने सोचा थोड़ा सो लूँ। कल सुबह दस बजे तक निकलना है। बेड पर मैं जब फिर लेटा तो मेरे दिमाग़ में कल मेल की जाने वाली मेल की हैडिंग घूम रही थी। "हमारा भारत है, हमारा संविधान, हमारा संविधान है हमारा भारत।"

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