एबॉन्डेण्ड - 2
कथा साहित्य | कहानी प्रदीप श्रीवास्तव1 Mar 2020 (अंक: 151, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
दोनों अपनी पूरी ताक़त से बड़ी तेज़ चाल से चल रहे हैं। लग रहा है कि बस दौड़ ही पड़ेंगे। उधर क्षितिज रेखा पर कुछ देर पहले तक दिख रहा केसरिया बड़े थाल सा अर्ध घेरा भी कहीं ग़ायब हो गया है। बस धुँधली लालिमा भर रह गई है। आपने यह ध्यान दिया ही होगा कि दोनों कितने तेज़, होशियार हैं। कितने दूरदर्शी हैं कि यदि कहीं पुलिस पकड़ ले तो वह अपने सर्टिफ़िकेट्स दिखा सकें कि वह बालिग हैं और जो चाहें वह कर सकते हैं। क्या आप यह मानते हैं कि आज की पीढ़ी का आई.क्यू. लेविल आपकी पीढ़ी से बहुत आगे है। इस बारे में आप सोचते-समझते रहिए। फ़िलहाल वह दोनों तेज़ी से, सावधानी से आगे बढ़े जा रहे हैं। युवक ने बातें ना करने की चेतावनी दी थी, लेकिन बातें फिर भी हो रही हैं... सुनिए। युवती बिदकती हुई कह रही है।
"ठीक है, ठीक है, तुम चलो आगे-आगे।" कुछ ही मिनट चलने के बाद फिर कह रही है, "डिब्बा कितना ज़्यादा दूर है। पहले लगता था जैसे सामने खड़ा है। अब चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं और डिब्बा है कि पास आ ही नहीं रहा। लग रहा है जैसे वह भी हमारी ही चाल से और आगे चला जा रहा है।"
"तुमसे कहा ना। चुपचाप चलती रहो। बोलो नहीं। अगल-बगल कोई हो भी सकता है। सुन सकता है।"
"ठीक है।" दरअसल चलने में युवक को तो कम युवती को ज़्यादा तकलीफ़ हो रही है। दोनों एबॉन्डेण्ड बोगी की तरफ़ जिस रास्ते से आगे बढ़ रहे हैं। वह एक बड़ा मैदान है। झाड़-झंखाड़, घास से भरा उबड़-खाबड़। इसीलिए युवती फिर परेशान होकर कह रही है, "पंद्रह-बीस मिनट हुए चलते-चलते। अब जाकर डिब्बा दिखना शुरू हुआ।"
"हाँ, लेकिन सामने की तरफ़ से नहीं चलेंगे, उधर लाइट है। रेलवे ने भी इधर ही सबसे बड़ी लाइट लगवाई है।"
युवक ने लाइट से बचने के लिए थोड़ा लम्बा वाला रास्ता पकड़ा हुआ है। जो झाड़-झंखाड़ से ज़्यादा भरा हुआ है। युवती बड़ी डरी-सहमी हुई उससे एकदम सटकर चलना चाह रही है, तो युवक कह रहा है। "तुम एकदम मेरे साथ नहीं रहो। थोड़ा पीछे रहो।"
"लेकिन मुझे डर लग रहा है। पता नहीं कौन-कौन से कीड़े-मकोड़ों की अजीब सी आवाज़ें आ रहीं है। कहीं साँप-बिच्छू ना हों।"
"मैं हूँ तो साथ में। बिल्कुल डरो मत, फुल लाइट में रहे तो बे-मौत मारे जाएँगे। इसलिए इधर से ही जल्दी-जल्दी चल। बहस मत कर।"
"ठीक है।"
दोनों उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते, लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते क़रीब आधे घंटे में डिब्बे तक पहुँच ही गए हैं। दोनों के हाथ, पैर, चेहरे कई जगह छिले हुए हैं। अँधेरा घना हो चुका है और कोई समय होता तो लड़की इतने अँधेरे में बड़े-बड़े झाड़-झंखाड़ों, कीड़ों-मकोड़ों, झींगुरों की आवाज़ से सहम जाती, डर कर बेहोश हो जाती। लेकिन पकड़े जाने के डर, युवक के साथ ने इतना हौसला बढ़ा रखा है कि अब वह पूरी हिम्मत के साथ बरसों से खड़ी, कबाड़ बन चुकी बोगी में चढ़ रही है। बेहिचक। युवक जल्दी चढ़ने को कह रहा है तो सुनिए वह क्या बोल रही है।
"चढ़ तो रही हूँ। इतनी तो ऊँची सीढ़ी है।"
"अरे, तो क्या तुम समझती हो कि तुम्हारे घर के दरवाज़े की सीढ़ी है।"
युवक उसे नीचे से सहारा देते हुए कह रहा है तो वह बोल रही है, "छोड़ो मुझे, मैं चढ़ गई। आओ, तुम भी जल्दी आओ।"
"तू आगे बढ़ तब तो मैं अन्दर आऊँ। और मुँह भी थोड़ा बंद रख ना। ज़्यादा बोल नहीं।"
युवक डिब्बे में आने के बाद आगे हो गया, युवती पीछे। कूड़ा-करकट, धूल-गंदगी से भरी बोगी में आगे बढ़ते हुए युवक कह रहा है। "सबसे पहले इधर बीच में आओ, इस तरफ़। हमने जगह इधर ही बनाई है।"
युवती मोबाइल की बेहद धीमी लाइट में बहुत सँभलते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही है। रास्ते में शराब की ख़ाली पड़ी बोतलों से उसका पैर कई बार टकराया तो बोतलें घर्रर्र करती हुईं दूर तक लुढ़कती चल गईं। युवक ने उसे सँभलने को कहा। माँस खाकर फेंकी गई कई हड्डियों से भी युवती मुश्किल से बच पाई है। वह जब युवक द्वारा बोगी के बीचों-बीच बनाई गई जगह पर पहुँची तो वहाँ देखकर बोली, "अरे, यहाँ तो तुमने चटाई-वटाई सब डाल रखी है। बिल्कुल साफ़-सुथरा बना दिया है।"
"वाह! पानी भी रखा है।"
"हाँ थोड़ा सा पानी पी लो। हाँफ रही हो।"
"तुम भी पी लो, तुम भी बहुत हाँफ रहे हो और सुनो सारे दरवाज़े बंद कर दो।"
"नहीं, दरवाज़ा जैसे सालों से है वैसा ही पड़ा रहने दो। नहीं तो किसी की नज़र पड़ी तो ऐसे भले ध्यान ना जाए, लेकिन बदली हुई स्थिति उसका ध्यान खींच लेगी। फिर वह चेक भी कर सकता है। इसलिए चुपचाप बैठी रहो। बोलो नहीं।"
दोनों चटाई पर बैठ गए हैं। वहीं पानी की बोतलें, खाने की चीज़ों के कई पैकेट भी रखे हैं। बोगी की सीटें बेहद जर्जर हालत में हैं। इसलिए युवक ने नीचे ज़मीन पर ही बैठने का इंतज़ाम किया है। युवक के मोबाइल ऑफ़ करते ही युवती उसे टटोलते हुए कह रही है, "लेकिन मोबाइल क्यों ऑफ़ कर दिया, ऑन कर लो थोड़ी सी लाइट हो जाएगी। इतना अँधेरा है कि पता ही नहीं चल रहा कि तुम किधर हो।"
"नहीं। एकदम नहीं। ज़रा सी भी लाइट बाहर अँधेरे में दूर से ही चमकेगी। किसी की नज़र में आ जाएगी। बेवज़ह ख़तरा क्यों मोल लें। शांति से बैठे रहना ही अच्छा है।"
"ठीक है। लेकिन पूरी रात ही बैठना है। बस अपने आसपास ही लाइट रहती तो भी अच्छा था। ख़ैर अभी कितना टाइम हो गया है?"
"अभी तो साढ़े सात ही हुआ है।"
"बाप रे! अभी तो पूरे आठ-नौ घंटे यहाँ बैठना पड़ेगा। इतने घने अँधेरे में कैसे बैठेंगे? डर लग रहा है।"
"हम हैं ना। तो काहे को डर लग रहा है।"
"इतना अँधेरा है इसलिए। कितनी तो शराब की बोतलें, हड्डियाँ पड़ी हैं। सब पैर से टकरा रहीं थीं। यहाँ के सारे शराबी यहीं अड्डा जमाए रहते हैं क्या? बदबू भी कितनी ज़्यादा हो रही है।"
"पहले जमाए ही रहते थे, लेकिन पिछले महीने एक चोर को पुलिस ने यहीं से पकड़ कर निकाला था। उसको बहुत मारा था। उसके बाद से सारे चोर-उचक्के पीने-पाने वाले इधर का रुख़ नहीं करते। मैंने इन सारी चीज़ों का ध्यान पहले ही रखा था। लेकिन तुम मुझे इतना कसकर क्यों पकड़े हुए हो?"
"नहीं मुझे अपने से अलग मत करो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। इतना अँधेरा, ऊपर से साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े, झींगुर सब कितना शोर कर रहे हैं।"
"क्या बार-बार एक ही बात बोल रही हो। मैं छोड़ने नहीं थोड़ा आसानी से रहने को कह रहा हूँ। तुम तो इतना कसकर पकड़े हुए हो जैसे अखाड़े में दंगल कर रही हो। ये आवाज़ें डिब्बे के अंदर से नहीं, बाहर झाड़ियों से आ रही हैं। साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े जो भी हैं, सब बाहर हैं। इसलिए डरो नहीं। तुम तो इतना काँप रही हो जैसे बर्फ़ीले पानी से नहाकर पंखे के सामने बैठ गई हो।"
"मुझे बहकाओ नहीं। इतनी ही जगह तो साफ़ की है ना। बाक़ी पूरी बोगी तो वैसे ही है। सारे कीड़े-मकोड़े जहाँ थे अब भी वहीं हैं। आवाज़ें अन्दर से भी आ रही हैं। कहीं सारे कीड़े-मकोड़े सूँघते-सूँघते यहीं हमारे पास ना चले आएँ। सबसे बचने के लिए इन साँप-बिच्छूओं के बीच में तो हम आ गए हैं। अब यहाँ से निकलेंगे कैसे?"
युवती बहुत ही ज़्यादा घबराई हुई है। युवक को इतना कसकर पकड़े हुए है जैसे कि उसी में समा जाना चाहती हो। उसकी बात शत-प्रतिशत सही थी कि बाहर की तरह तमाम जीव-जंतु बोगी में भी भरे पड़े हैं। जो उन तक पहुँच सकते हैं। लेकिन युवक उसे हिम्मत बँधाए रखने के उद्देश्य से झूठ बोलता जा रहा है, कह रहा है कि, "जैसे घर से यहाँ तक आ गए हैं, वैसे ही यहाँ से निकलेंगे भी। शांति से, आराम से, सब ठीक हो जाएगा। इसलिए डरो नहीं। कीड़े-मकोड़े छोटे-मोटे हैं। आएँगे भी तो भगा देंगे या मार देंगे।" मगर युवती का डर, उसकी शंकाएँ कम नहीं हो रही हैं। वह पूछ रही है, "मान लो थोड़ी देर को कि मुझे यहाँ कुछ काट लेता है और मुझे कुछ हो गया तो तुम क्या करोगे?"
युवती के इस प्रश्न से युवक घबरा गया है। इस अँधेरे में भी युवती को बाँहों में कसकर जकड़ लिया है और कह रहा है, "मत बोल ऐसे। तुझे कुछ नहीं होगा। मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। मुझे पूरी बोगी साफ़ करनी चाहिए थी। मेरे रहते तुझे कुछ नहीं होगा। ऐसा कर तू मेरी गोद में बैठ जा। कीड़े-मकोड़े तुझ तक मुझसे पहले पहुँच ही नहीं पाएँगे। मेरे पास जैसे ही आएँगे मैं वैसे ही मार डालूँगा।"
युवक की बात सुनकर युवती ने उसे और कस लिया है। बहुत भावुक होकर कह रही है, "तुम मुझसे इतना प्यार करते हो। मुझे कोई कीड़ा-मकोड़ा काट ही नहीं सकता। लेकिन एक चीज़ बताओ, तुम्हें डर नहीं लगता क्या?"
"साँप-बिच्छुओं से बिल्कुल नहीं। लेकिन हमारे परिवार, गाँव वालों, पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर जो हाल होगा उससे डर लग रहा है। हम इंसान हैं और इंसानों से ही बच रहे हैं। क्योंकि जब ये पकड़ेंगे हमें, तो जीते जी ही हमारी खाल उतार लेंगे। जिंदा नहीं छोड़ेंगे, उससे डर लगता है। इज़्ज़त के नाम पर ये इंसान इतने क्रूर हो जाते हैं कि इनकी क्रूरता से क्रूरता भी थर्रा उठती है। ऑनर किलिंग की कितनी ही तो घटनाएँ पढ़ता रहता हूँ।
“एक में तो लड़के-लड़की को धोखे से वापस बुलाकर शरीर के कुछ हिस्सों को जलाया और तड़पाया। फिर खेत में कंडों व भूंसों के ढेर में ज़िंदा जला दिया। मुझे इसी से अपने से ज़्यादा तुम्हारी चिंता है कि पकड़े जाने पर तुम पर तुम्हारे घर वाले कितना अत्याचार करेंगे। तुम्हें कितना मारेंगे और मैं, तुम पर अत्याचार करने वाले को मार डालूँगा या फिर ख़ुद ही मर जाऊँगा। इसलिए शांति से रहो। एकदम डरो नहीं। मैं तेरे साथ में हूँ। मेरे पास इसी तरह चुपचाप बैठी रहो।"
"ठीक है, मुझे ऐसे ही पकड़े रहना, छोड़ना नहीं। मैं एकदम चुप रहूँगी।"
"ठीक है, लेकिन पहले यह बिस्कुट खाकर पानी पी लो। तुम्हारी हालत ठीक हो जाएगी। तुम अब भी काँप रही हो।"
युवक ने युवती को बिस्कुट-पानी दिया तो वह उसे भी देते हुए कह रही है, "लो तुम भी खा लो, तुम भी बहुत परेशान हो। मेरी वज़ह से तुम्हें बहुत कष्ट हो रहा है ना।"
"नहीं, तुम्हारी वज़ह से नहीं। इस दुनिया के लोगों के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। हम यहाँ इन्हीं लोगों के कारण तो हैं। आख़िर यह लोग हम लोगों को अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने क्यों नहीं देते। हर काम में यह इज़्ज़त का सवाल है। आख़िर यह सवाल कब तक बना रहेगा?
“अरे लड़का-लड़की बड़े हो गए हैं। तुमको जो करना था वह तुम कर चुके। अब उन्हें जहाँ जाना है, जिसके साथ जाना है, उनके साथ जाने दो, ना कि यह हमारे धर्म का नहीं है, दूसरे धर्म का है, वह हमारी जाति का नहीं है, ऊँची जाति वाला है, नीची जाति वाला है। आख़िर धर्म-जाति, रीति-रिवाज़, परम्परा के नाम पर यह सब नौटंकी काहे को पाले हुए हैं।"
"अरे चुप रहो, तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो, वह भी इतना तेज़ और हमसे कह रहो कि चुप रहो, चुप रहो।"
"क्या करूँ। इतनी ग़ुस्सा आ रहा है कि मन करता है इन सबको जंगल में ले जाकर छोड़ दूँ। कह दूँ कि जब हर इंसान को उसके हिसाब से जीने देने का अधिकार देने की आदत डाल सको तो इंसानों के बीच में आ जाना। अच्छा सुनो, आवाज़ बाहर तक जा रही होगी। हम दोनों अब चुप ही रहेंगे।"
"ठीक है, नहीं बोलूँगी, लेकिन सुनो किसी ट्रेन की आवाज़ आ रही है।"
"कोई मालगाड़ी होगी। पैसेंजर गाड़ी तो साढ़े तीन बजे है, जो हम दोनों को यहाँ से दूर, बहुत दूर तक ले जाएगी।"
"पैसेंजर है तो हर जगह रुकते-रुकते जाएगी।"
"नहीं अब पहले की तरह पैसेंजर ट्रेन्स भी नहीं चलतीं कि रुकते-रुकते रेंगती हुई बढ़ें। समझ लो कि पहले वाली एक्सप्रेस गाड़ी हैं जो पैसेंजर के नाम पर चल रही हैं। यहाँ से चलेगी तो तीन स्टेशन के बाद ही इसका पहला स्टॉपेज है।"
"सुनो, तुम सही कह रहे थे। देखो मालगाड़ी ही जा रही है।"
"हाँ।"
"लेकिन तुम इतना दूर क्यों खिसक गए हो। मेरे और पास आओ ना। मुझे पकड़ कर बैठो।"
"पकड़े तो हूँ। और कितने पास आ जाऊँ? अब तो बीच में से हवा भी नहीं निकल सकती।"
"नहीं। हम दोनों के मुँह के बीच से हवा निकल रही है। इसलिए और पास आ जाओ। इतना पास आ जाओ कि मुँह के बीच में से भी हवा ना निकल पाए।"
"लो, आ गया। अब कहने को भी बीच से हवा नहीं निकल पाएगी।"
"बस ऐसे ही ज़िंदगी भर साथ रहना।"
"ये भी कोई कहने की बात है।"
"पता नहीं कहने की बात है या नहीं लेकिन टाइम क्या हो रहा है?"
"अरे, कितनी बार टाइम पूछोगी?"
"टाइम ही तो पूछा है, इतना ग़ुस्सा क्यों हो रहे हो।"
"ग़ुस्सा नहीं हो रहा हूँ। जानती हो एक घंटे में तुम यह आठवीं बार टाइम पूछ रही हो।"
"पता नहीं। मैं तुम्हारी तरह गिनतीबाज़ नहीं हूँ। मुझे डर लग रहा है, इसलिए बार-बार सोच रही हूँ कि कितनी जल्दी ट्रेन आ जाए और हम लोग यहाँ से निकल चलें।"
"ट्रेन अपने टाइम से ही आएगी। हमारे टाइम या सोचने से नहीं।"
"फिर भी बताओ ना।"
"अभी साढ़े आठ बजे हैं, ठीक है। अब टाइम पूछ-पूछ कर शोर न करो। कोई आसपास सुन भी सकता है। समझती क्यों नहीं।"
"इतना धीरे बोल रही हूँ बाहर कोई नहीं सुन पाएगा।"
"फिर भी क्या ठिकाना?"
"लो, इतनी बात कह डाली मगर टाइम नहीं बताया।"
"हद कर दी, अभी बताया तो कि साढ़े आठ बजे हैं। सुनना भी भूल गई हो क्या?"
"इतना अँधेरा है, ऊपर से जब गाड़ी का टाइम कम ही नहीं हो रहा है तो क्या करूँ?"
"तुम चुपचाप बैठी रहो बस और कुछ ना करो। सब ठीक हो जाएगा। मैं हूँ ना, मुझ पर भरोसा रखो। तुमको परेशान होने, डरने की ज़रूरत नहीं है।"
"परेशान नहीं हूँ। तुम पर भरोसा करती हूँ, तभी तो सब छोड़-छाड़ कर तुम्हारे साथ हूँ।"
युवक युवती की व्याकुलता, तकलीफ़ों से परेशान हो उठा है। उसे उस पर बड़ी दया आ रही है कि कैसे उसे आराम दे। यह सोचते हुए उसने कहा, "ऐसा करो तुम सो जाओ, अभी बहुत टाइम बाक़ी है।"
"कहाँ सो जाऊँ? यहाँ क्या बिस्तर लगा है जो मैं सो जाऊँ।"
"बिस्तर तो नहीं है लेकिन इस पर लेट कर आराम कर सकती हो। इसलिए इसी पर लेट जाओ। टाइम होने पर मैं तुम्हें उठा दूँगा।"
युवक की बातों से युवती बहुत भावुक हो रही है। कुछ देर चुप रहने के बाद कह रही है। "मैं सो जाऊँ, आराम करूँ और तुम जागते रहो।"
"और क्या, एक आदमी को तो जागना ही पड़ेगा। नहीं तो गाड़ी आकर निकल जाएगी और पता भी नहीं चलेगा।"
"ठीक है तो दोनों जागेंगे।"
यह लीजिए। यह कहते हुए युवती युवक से लिपट गई है। उसे बाँहों में भर लिया है। दोनों अब अँधेरे में अभ्यस्त हो गए हैं। एक मोबाइल बहुत कम ब्राइटनेस के साथ ऑन करके युवक ने ज़मीन पर उल्टा करके रखा हुआ है। उसके एक सिरे पर नीचे कागज़ मोड़कर रख दिया है जिससे मोबाइल एक तरफ़ हल्का सा उठा हुआ है और आसपास कहने को कुछ लाइट हो रही है। युवक बड़े प्यार से युवती की पीठ सहलाते हुए कह रहा है, "ज़िद क्यों कर रही हो? अभी बहुत टाइम है। तुम्हारा साढ़े तीन बजे तक बैठे रहना अच्छा नहीं है। थक जाओगी फिर आगे चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।"
"ऐसा करते हैं ना, पहले मैं सो लेती हूँ, उसके बाद तुम सो लेना। थोड़ी-थोड़ी देर दोनों सो लेते हैं।"
"तुम्हें ये क्या हो गया है कि सोने के ही पीछे पड़ी हो?"
"तुम अकेले बहुत ज़्यादा थक जाओगे इसीलिए कह रही हूँ।"
"ऐसा है तुम लेट जाओ। चलो इधर आओ। अपने पैर सीधे करो और सिर मेरे पैर पर रख लो। ऐसे ही लेटी रहो।"
युवती की ज़िद से खीझे युवक ने एक तरह से उसे खींचते हुए ज़बरदस्ती लिटा लिया है। वह लेटती हुई कह रही है, "देखो जागते रहना, तुम भी सो मत जाना।"
"मेरी चिंता मत करो। मैं तभी सोऊँगा जब यहाँ से सही-सलामत निकलकर दिल्ली पहुँच जाऊँगा।"
"ये बताओ दिल्ली ही क्यों चल रहे हो?"
"क्योंकि वहाँ पर बहुत सारे लोग हैं। इसलिए वहाँ हमें कोई ढूँढ़ नहीं पाएगा।"
"पहले कभी गए हो वहाँ, जानते हो वहाँ के बारे में?"
"पहले कभी नहीं गया। थोड़ा बहुत जो जानता हूँ वह यू-ट्यूब, गूगल, पेपर वगैरह में जो भी पढ़ा-लिखा, देखा, बस वही जानता हूँ।"
"कहाँ रुकेंगे और क्या करेंगे?"
"पहले यहाँ से निकलने की चिंता करो। वहाँ पहुँचकर देख लेंगे।"
"हाँ, सही कह रहे हो।"
यह दोनों भी ग़ज़ब के हैं। एक-दूसरे को बार-बार चुप रहने को कहते हैं, लेकिन बातें अनवरत करते जा रहे हैं। इसी समय फिर बोगी के आसपास कुछ आहट हुई है। सजग युवक उसे चुप कराते हुए कह रहा है "एकदम शांत रहना, लगता है कोई इधर से निकल रहा है।"
"तुम्हें कैसे पता चला, हमें तो कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही," युवती फुसफुसाती हुई कह रही है।
"झाड़ियों की सरसराहट नहीं सुन रही हो। अभी तुम चुप रहो, बाद में बताएँगे।"
इस समय दोनों एकदम साँस रोके हुए पड़े हैं। हिल-डुल भी नहीं रहे हैं। सच में भयभीत कर देने वाला दृश्य है। झाड़ियों से सरसराहट की ऐसी आवाज़ आ रही है मानो कोई बड़ा जानवर उनके बीच से निकल रहा है। बोगी के एकदम क़रीब आकर सरसराहट की आवाज़ रुक गई है। मगर किसी जानवर की बहुत हल्की गुर्राहट, साथ ही नथुने से तेज़ सूँघने जैसी आवाज़ आ रही है। जैसे वह सूँघ कर आसपास क्या है यह जानना चाह रहा है।
भय से संज्ञा-शून्य कर देने वाला माहौल बना हुआ है। क़रीब तीन-चार मिनट बाद सरसराहट फिर शुरू हुई है और अब दूर जाती हुई ग़ायब हो गई है। अब तक दोनों साँस रोके हुए बैठे हैं। युवती डर के मारे पसीने से तर हो रही है। उसकी साँसें इतनी तेज़ चल रही हैं कि जैसे वह कई किलोमीटर लगातार दौड़कर आई है। उसकी धड़कन की धुक-धुक साफ़ सुनाई दे रही है। झाड़ियों में हलचल ख़त्म होने के बाद वह कह रही है।
"तुम सही कह रहे थे, झाड़ियों में से कुछ लोग निकले तो ज़रूर हैं।"
"जिस तरह से तेज़ आवाज़ हो रही थी झाड़ियों में उससे एक बात तो पक्की है कि कोई जानवर था। बड़ा जानवर। कुछ आदमियों के निकलने से ऐसी आवाज़ नहीं आती।"
"तो हम लोग यहाँ पर सुरक्षित हैं ना?"
"हाँ, हम सुरक्षित हैं। लेकिन ख़तरा तो बना ही हुआ है।"
"ख़तरा ना होता तो हम यहाँ...।"
इसी समय बाहर फिर आवाज़ होने पर युवक बड़ी फुर्ती से युवती को चुप करा रहा है, "चुप चुप, सुन, मेरा मन कह रहा है की झाड़ियों में अब जो आवाज़ हुई है वह किसी जानवर की नहीं है। मुझे लगता है कि कई लोग हमें एक साथ ढूँढ रहे हैं। नौ बज गया है। हमारे घर वाले ही होंगे। कई लोग एक साथ निकले होंगे।" यह सुनकर युवती हड़बड़ा कर उठ बैठी है। थोड़ा झुँझलाया हुआ युवक कह रहा है, "इस तरफ़ से ज़्यादा आवाज़ आई है। इसलिए चुपचाप लेटी रहो। बैठ क्यों गई?"
"क्योंकि अब मुझसे और नहीं लेटा जाता।"
"ठीक है, बैठी रहो, लेकिन इतना डर क्यों रही हो? मुझे इतना जकड़े जा रही हो, लगता है जैसे मेरी हड्डी-पसली तोड़ने की कोशिश कर रही हो।"
"मुझे ऐसे ही पकड़े रहने दो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। छोड़ दूँगी तो मेरी तो साँस ही रुक जाएगी।"
"इतना डरने से काम नहीं चलेगा। इतना ही डरना था तो घर से निकलती ही ना। मैंने तुम्हें पहले ही कितनी बार बताया था कि हिम्मत से काम लेना पड़ेगा, तभी निकल पाएँगे। डरने से कुछ नहीं होगा, समझी। इस तरह डरोगी तो ऐन टाइम पर सब गड़बड़ कर दोगी। सबसे अच्छा है कि इस समय कुछ भी बोलो ही नहीं। रात गहराती जा रही है, ढूँढ़ने वाले पूरी ताक़त से चारों तरफ़ लगे होंगे। सब इधर-उधर घूम रहे होंगे। इसलिए एकदम साँस रोक के लेटी रहो या बैठी रहो। जैसे भी रहो, आवाज़ बिल्कुल भी नहीं करो, जिससे मुझे कुछ बोलने के लिए मजबूर ना होना पड़े।"
"लेकिन सुनो।"
"हाँ बोलो।"
"मतलब यह कि मुझे, मुझे जाना है.. मतलब कि...। तुमने वहाँ भी तो देख लिया था ना सब कुछ। सब ठीक है ना। दरवाजा बंद तो नहीं है।"
"पता नहीं, इसका तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि इतने घंटों तक रहेंगे तो बाथरूम भी जाना पड़ेगा। अच्छा तुम यहीं पर लेटी रहो, मैं देखकर आता हूँ किधर ठीक-ठाक है। फिर ले चलता हूँ।"
"नहीं। मैं भी साथ चलूँगी। यहाँ मैं अकेले नहीं रुकूँगी।"
"ठीक है आओ।"
युवक युवती का हाथ पकड़कर एकदम झुके-झुके बाथरूम के पास पहुँच गया है। लाइट के लिए बीच-बीच में मोबाइल को ऑन कर रहा है। बाथरूम में नज़र डाल कर कह रहा है, "देखो बाथरूम तो गंदा पड़ा है। दरवाज़ा भी एकदम ख़राब है। आधा खुला है, जाम है, बंद भी नहीं होगा।"
घबराई युवती और परेशान हो उठी है। वह बड़ी जल्दी में है। कह रही है, "बंद नहीं होगा, तो मैं जाऊँगी कैसे?"
"देखो दरवाज़ा बहुत समय से जाम है। बंद करने के चक्कर में आवाज़ हो सकती है समझी। मैं नहीं चाहता कि इस तरह का कोई ख़तरा उठाऊँ। मैं इधर ही खड़ा हूँ तुम जाओ अंदर।"
लग रहा है कि युवती के पास समय नहीं है। वह कह रही है, "मोबाइल की टॉर्च तो जला दो।"
"पगली हो क्या? बार-बार कह रहा हूँ कि लाइट इस अँधेरे में बहुत दूर से ही लोग देख लेंगे। स्क्रीन लाइट ही बहुत है। समझ लो दीये की रोशनी में हो। ठीक है। जल्दी से जाओ।"
"अच्छा तुम यहीं खड़े रहना, कहीं जाना नहीं।"
"ठीक है, मैं यहीं बगल में खड़ा हूँ।"
"नहीं, और इधर आओ। मुझसे दूर नहीं जाओ।" डर के मारे युवती रुआँसी हो रही है। लेकिन युवक हिम्मत बढ़ा रहा है।
"तुम तो एकदम छोटी बच्ची जैसी हरकत कर रही हो।"
"डाँटो नहीं। नहीं तो मेरी जान ही निकल जाएगी।"
"डाँट नहीं रहा हूँ। तुम्हें समझा रहा हूँ, रिस्क लेना अच्छा नहीं है। अब जाओ जल्दी से।"
हड़बड़ाती, लड़खड़ाती, सहमी सी युवती अब बाथरूम से होकर लौट रही है। उसकी आँखों में आँसू चमक रहे हैं। सुनिए अब क्या कह रही है, "चलो, अब उधर चलो। एक मिनट रुकने को कहा तो दुनिया भर की बातें सुना डाली। तुम्हें भी करना हो तो कर लो। नहीं तो बाद में मुझे अकेला छोड़कर आओगे। लेकिन मैं आने नहीं दूँगी।"
"हाँ, लगी तो मुझे भी है।"
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- वो गुम हुई बारिश में
- वो भूल गई
- वो मस्ताना बादल
- शकबू की गुस्ताख़ियाँ
- शेनेल लौट आएगी
- सत्या के लिए
- सदफ़िया मंज़िल
- सन्नाटे में शनाख़्त
- समायरा की स्टुडेंट
- साँसत में काँटे
- सुनहरी तितलियों का वाटरलू
- सुमन खंडेलवाल
- सेकेंड वाइफ़ – 2
- सेकेंड वाइफ़ – 3
- सेकेण्ड वाइफ़ – 1
- स्याह उजाले के धवल प्रेत
- स्याह शर्त
- हनुवा की पत्नी
- हार गया फौजी बेटा
- फ़ाइनल डिसीज़न
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
पुस्तक समीक्षा
- अपने समय का चित्र उकेरतीं कविताएँ
- अर्थचक्र: सच का आईना
- अवाम की आवाज़
- आधी दुनिया की पीड़ा
- जहाँ साँसों में बसता है सिनेमा
- नई रोसनी: न्याय के लिए लामबंदी
- नक्सलबाड़ी की चिंगारी
- प्रतिबद्धताओं से मुक्त कहानियों का स्पेस
- प्रेमचंद की कथा परंपरा में पगी कहानियाँ
- भारत में विकेंद्रीयकरण के मायने
- महापुरुष की महागाथा
- यथार्थ बुनती कहानियाँ
- यार जुलाहे संवेदना और जीवन आनंद
- रात का रिपोर्टर और आज का रिपोर्टर
- वक़्त की शिला पर वह लिखता एक जुदा इतिहास
- वर्तमान के सच में भविष्य का अक्स - विजय प्रकाश मिश्रा (समीक्षक)
- सदियों से अनसुनी आवाज़ - दस द्वारे का पींजरा
- सपने लंपटतंत्र के
- साझी उड़ान- उग्रनारीवाद नहीं समन्वयकारी सह-अस्तित्व की बात
- हमारे परिवेश का यथार्थ
पुस्तक चर्चा
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