पिघलती दीवारें
कथा साहित्य | कहानी प्रदीप श्रीवास्तव15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
आधी रात होने वाली थी हमने फिर वही कहानी दोहराई जो बीते क़रीब बीस-बाईस वर्षों से आए दिन लिखते आ रहे थे। यह इन कहानियों से संतुष्ट होते हैं या नहीं मैंने कभी भी ज़्यादा गहराई से यह जानने की कोशिश ही नहीं की। सनातन क्रीड़ा की हर कहानी के बाद मेरे मन में बस इतना ही आता कि मैं जो कुछ जैसा चाहती हूँ, मेरा यह तन-मन जैसा चाहता है, वैसा कुछ था क्या इस कहानी में? और क्या मैं वह सब-कुछ कर पाई जैसा इनका तन-मन चाहता है।
मैं इस बारे में जब भी सोचती मुझे हर बार यही लगता कि हाँ, मैं सफल हुई हूँ, और हर बार होती हूँ, तभी तो यह हर बार खेल के बाद इतनी शानदार नींद सोते हैं, जैसे सारे घोड़े बेचकर सो रहे हों। और मेरा मन कहीं अधूरा-अधूरा सा महसूस करता रहता है, इसीलिए न नींद आती है, न चैन पड़ता है, पूरी-पूरी रात आँखों में बस यूँ ही इधर-उधर उठते-बैठते, या मोबाइल में रील्स देखते-देखते बीत जाती है।
अगर यह कहूँ कि वह सनातनी क्रीड़ा से पहले व्हिस्की का एक और फिर बाद में दूसरा पैग लेने के चलते गहरी नींद में चले जाते हैं, तो दोनों बार मैं भी तो लेती हूँ। इनके, विजेता योद्धा की तरह सोते ही, अक्सर विजयी सेना की वीरांगना की तरह तीसरा, चौथा पैग भी ले लेती हूँ जैसे मेरा विजयोत्सव तो अभी शेष है। लेकिन नींद उत्सव में मेरा साथ देती ही नहीं, मैं इनकी तरह न घोड़ा बेचकर सो पाती हूँ, न ही सिरहाने बाँध कर। बीते कुछ सालों से तो यही हो रहा है।
मेरे इस ख़ालीपन के आगे व्हिस्की भी हारी हुई, सिसकी लेती लगती है, सनातन क्रीड़ा की सारी थकान भी हाथ जोड़ती हुई सी दिखती है। यह ख़ालीपन शादी के बाद पहले दिन से ही प्रारम्भ हुआ, बढ़ता रहा, बढ़ता ही रहा, लगता है इस जीवन तो क्या ऐसे और कई जीवन में भी नहीं भर पाएगा। न जाने कितना चिंतन-मनन करती आ रही हूँ, कारण क्या है, कैसे भी जान लूँ इसी धुन में अक्सर लगी रहती हूँ, फिर भी क्या चाहता है मेरा तन-मन, मेरा मस्तिष्क यह समझ ही नहीं सकी। मेरी इस उलझन की इबारत अक्सर यह भी पढ़ते रहते हैं, आशय न समझ कर पूछते भी हैं क्या हुआ? लेकिन क्या बताऊँ ख़ुद भी तो नहीं पता।
सनातन क्रीड़ा में पूरी गहराई तक डूबना इनकी आदत है। यह उतनी ही गहराई में लेकर मुझे भी उतरना चाहते हैं और एक ज़बरदस्त डाइवर (गोताखोर) की तरह साथ लेकर नीचे तक उतर भी जाते हैं, फिर एक महान विजेता की तरह विजयोत्सव मनाते हुए ऊपर आते हैं। संतुष्टि की चमक चेहरे पर लिए हुए फिर व्हिस्की का एक पैग और गहरी नींद में डूब जाते हैं। मगर मेरा तन-मन दिमाग़ ऐसे रहता है जैसे मेरे पास कुछ बचा ही नहीं, सब-कुछ मेरा लुट गया है, हर बार लुटता ही जा रहा है।
हर दृष्टिकोण से अक्सर सोचती हूँ, समझने की हर कोशिश करती हूँ, रिज़ल्ट हर बार यही पाती हूँ, कि मेरी तरह क्षणभर को यह कोई ख़ालीपन महसूस नहीं करते, यदि ऐसा कुछ होता तो इतने वर्षों में ज़रूर कहते, लेकिन आज तक ऐसा कभी कुछ कहने को भी नहीं कहा।
लेकिन क्या इनके दिमाग़ में कभी यह बात नहीं आती, एक बार भी क्या नहीं आई कि मेरे तन-मन दिमाग़ में क्या चलता है, क्या हुआ, सब उतना ही सही है, जितना वह समझ रहे हैं। क्या इनमें यह सब सोचने-समझने की क्षमता नहीं है या अपने अलावा और भी कोई है साथ, इसका इन्हें कोई अहसास नहीं है। या इनमें ऐसा कुछ सोचने की क्षमता ही नहीं है, इनकी आदत में ही यह सब-कुछ नहीं है।
क्या इनके नेचर ने पहले दिन से ही मन में जो ख़ालीपन की खाई खोदी, वह गहरी होती चली जा रही है और इन्हें यह सब-कुछ दिखाई ही नहीं देता। पहले कई साल यह कोशिश रही कि बच्चे होने ही नहीं है, फिर जब होने चाहिए यह सोचा गया तो तीन साल में ही दो हो गए। जो सुनेगा वह हँस भी सकता है कि मैं दोनों बार लड़कियाँ चाहती थी और यह लड़का, दोनों ही बार इनके ही मन का हुआ तो तीसरी बार के लिए मैंने सख़्ती से मना कर दिया।
इस मनाही पर एक-दो दिन नहीं कई सालों तक मनमुटाव बना रहा। जब-तब यह मुझे ताना मारने से चूकते नहीं थे। रिश्तेदारों के सामने कई बार यहाँ तक कह दिया कि, “मैं एक आदमी होकर भी बच्चों से बहुत प्यार करता हूँ और यह औरत होकर भी बच्चों से इतनी घृणा करती है कि इनका वश चलता तो यह बच्चे होने ही नहीं देतीं।”
रिश्तेदार जब हँसते हुए पूछते, “यह बच्चों से घृणा करती थीं तो दो बेटे कैसे हो गए?” तो एकदम सफ़ेद झूठ बोलते, “यह दोनों तो एक्सीडेंटल हैं, हम डिसाइड करने के लिए संघर्षरत थे, मौक़े का फ़ायदा उठा कर यह दोनों आ टपके।” हँसी का तब एक बड़ा सा गुब्बारा फूटता था, रिश्तेदार फिर पूछते थे, “जब टपके ही थे तो दो ही क्यों? कई और क्यों नहीं?”
रिश्तेदारों के इस मज़ाक़ पर भी मुझे कटघरे में खड़ा करना नहीं भूलते, सीधे-सीधे कह देते, “ये एलर्ट हो गईं, ऐसी नाकेबंदी की, कि न मुझे कुछ पता चला, न फिर कोई और टपक सका . . .” इसके साथ ही हर तरफ़ ठहाके गूँजते, सब मुझे छेड़ते, “भाभी जी नाकेबंदी का कुछ तो ख़ुलासा कीजिये . . .”
इनके यह झूठे आरोप, सबके सामने बार-बार की गई इंसल्ट दिलोदिमाग़ से निकलती ही नहीं। लगता है कि बस अभी-अभी की ही तो बात है। बीतते समय के साथ ख़ुद से बार-बार कहती कि छोड़ो भी, यह भी कोई बात है जो मैं पकड़े बैठी हुई हूँ, पति-पत्नी के बीच तो यह चलता ही रहता है, लेकिन छूट नहीं पाईं मुझसे कभी भी यह बातें और खाई गहरी ही करती चली गईं। ऐसी अनोखी खाई जिसकी इन्हें ख़बर ही नहीं, आज भी नहीं . . . यह पहले भी निश्चिंत थे, आज भी हैं और हमेशा ही रहेंगे यह भी तय है।
क्योंकि यह पूरी तरह निश्चिन्त, ख़ुश, मस्त पहले भी थे, आज भी हैं बल्कि अब पहले से भी कहीं बहुत ज़्यादा हैं क्योंकि शुरू से ही सब-कुछ इनके ही मन का होता चला आ रहा है। मैंने सोचा चलो बच्चे हैं, सब-कुछ तो अपने मन का नहीं मिलता, इनसे ही सारा ख़ालीपन भर जाएगा लेकिन यह भी मेरे मन का नहीं हुआ। सब-कुछ इनके ही मन का होता चला आ रहा है।
दसवीं की पढ़ाई के बाद से ही दोनों आगे पढ़ने के लिए बाहर निकले और ऐसी स्थिति बनती चली जा रही है कि दो-चार साल में पढ़ाई पूरी करते-करते नौकरियाँ भी शुरू कर देंगे, उसके बाद फिर कभी-कभी मेहमानों की तरह चले आया करेंगे।
ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे मन का हुआ हो। कहने वाले कह सकते हैं कि पति-पत्नी के बीच में कुछ बँटा है क्या, सब-कुछ तो तुम्हारा भी है, यह मकान भी, बच्चे, सारा रुपया पैसा भी, तो किस बात का ख़ालीपन? सही कहूँ तो मुझे कोई जवाब समझ ही नहीं आता। मन में यह प्रतिप्रश्न भी होता है बार-बार कि क्या तुम्हारा आदमी ऐसा नहीं है कि वह सनातन क्रीड़ा में तुम्हें सम्पूर्ण सुख संतुष्टि दे सके तो इसका भी क्या उत्तर दूँ समझ ही नहीं पाती।
मन में इतना ही आता है कि एक आदमी से चाहे वह पति या फिर जो भी हो उससे एक औरत सनातन क्रीड़ा में जैसी संतुष्टि चाहती है, उस आदमी में जो कुछ होना चाहिए। मेरे पति के पास वह सब है, इस मामले में वह बहुत धनवान है, इतना कि दुनिया में नंबर एक पर रह सकता है। मगर क्या करूँ अपने तन-मन दिमाग़ का।
जिस दिन भी इस सनातन क्रीड़ा का मैच पूरा करके ये सो जाते हैं, उस दिन मेरी पूरी रात, ऐसे ही प्रश्न, प्रतिप्रश्न, बार-बार उनके सही उत्तर ढूँढ़ने में ही निकल जाती है। और ऊपर से अब यह नया मकान, यह नई कॉलोनी, कहने को यहाँ बसे हुए कई साल हो गए हैं, मगर लगता है कि जैसे आज ही आए हैं, जबकि सारे पड़ोसी बहुत मिलनसार, हँसमुख हैं।
कई बार मन में आता है कि पहले वाला मकान और कॉलोनी यहाँ से कहीं ज़्यादा अच्छे थे, बेवजह वहाँ मकान बेचकर यहाँ आ गये कि शहर के बीचों-बीच घनी बस्ती में वातावरण साफ़-सुथरा नहीं है, हर तरफ़ एक घुटन सी होती है। इस घुटन से नई जगह खुले वातावरण में, सच में पहले दिन से ही मुक्ति मिल गई। इनका मन तो पहले दिन से ही ऐसे रम गया है, जैसे यहीं जन्मे पले-बढ़े हैं। आस-पास का शायद ही ऐसा कोई घर हो जिसके यहाँ से पक्की दोस्ती न बना ली हो।
साथ निकले नहीं कि भाई साहब नमस्कार, भाई साहब नमस्कार, अरे कल कहाँ थे दिखाई नहीं दिए। आइये बैठिये एक कप चाय पीते हैं . . . सुनते-सुनते दिमाग़ ख़राब हो जाता है, दस मिनट का रास्ता आधा घंटे का हो जाता है। पता नहीं लोग कैसे कहते हैं कि आजकल लोग किसी को पहचानते नहीं, पड़ोसी भी पड़ोसी को पूछता नहीं, मगर यहाँ तो पूरी कॉलोनी ही भाई साहब को चाय पिलाए बिना आगे जाने ही नहीं देना चाहती, और भाई साहब हैं कि जैसे ठीक से इंकार करना जानते ही नहीं, ज़रा सा किसी ने कहा नहीं कि बैठ गए चाय पीते हुए गप्पें मारने जैसे घर पर इन्हें चाय-पानी कुछ मिलता ही नहीं।
इस गपबाज़ी को देख कर मन करता कि जो लोग कहते हैं कि पड़ोसी एकदूसरे को नहीं पहचानते उन सबको पकड़ कर इन गपबाज़ों को दिखाते हुए कहूँ, लो देखो, पड़ोसी ऐसे होते हैं। ऐसे पड़ोसी बनो तो पहले। कमी पड़ोसी में नहीं ख़ुद तुममें है, उसे दूर करो। ऐसी बातें ही सोचते-सोचते उस दिन फिर खिड़की के पास बैठे-बैठे ही तीसरा पैग भी पी गई। आँखें बार-बार सामने वाले मकान पर ही जा टिकतीं।
ऐसे समय में कई बार मन में यह आता कि इन्होंने जानबूझकर बच्चों को घर से दूर कर दिया कि यह जब चाहें तब अपनी मदमस्ती में डूब सकें, पूरी आज़ादी के साथ एक पैग लेकर सनातनी क्रीड़ा का भरपूर आनंद ले सकें, फिर एक और पैग लेकर आराम से सो जाएँ, किसी तरह की कोई भी रोक-टोक ना रहे। ऐसे में क्या इन्हें शीर्ष श्रेणी का स्वार्थी न कहूँ?
मैं कई बार महसूस करती कि इनके साथ रहते-रहते मैं ऐसी कई आदतों का शिकार हो गई हूँ, जिनके बारे में पहले सोच भी नहीं सकती थी। पहली सिगरेट, दूसरी शराब। मैं इनके बिना जैसे बिना डेटा का मोबाइल बन जाती हूँ। इन्हें लेते ही जैसे चार्ज हो जाती हूँ। दूसरा पैग मेरे एनर्जी लेवल को मानों डबल कर देता है, तब मेरे दिमाग़ में ऐसी-ऐसी बातें आने लगती हैं जो इस एनर्जी लेवल तक पहुँचने से पहले कहीं दूर-दूर तक नहीं आतीं।
खिड़की के पास बैठे-बैठे दो बज गए, नींद नहीं आई तो सोचा एक और पैग बना लूँ। चौथा पैग लेकर फिर खिड़की के पास बैठ गयी। स्ट्रीट लाइट में सामने वाला घर तब बड़ा ख़ूबसूरत लग रहा था। सफ़ेद रंग से पुता हुआ, एकदम सादगी का प्रतीक। बाउंड्री की दीवार पर छोटे-छोटे गमलों में लगे हुए फूल, दीवारों पर टँगे हुए टेराकोटा के कई मुखौटे घर के लोगों की सोच को प्रतिबिम्बित करते हुए घर की ख़ूबसूरती बढ़ा रहे थे, और बाउंड्री से ही लगे हुए कमरे की लाइट भी जल रही थी।
यह हमारे प्रिय पड़ोसी का ड्राइंग रूम है, जिसकी लाइट हमेशा बहुत देर रात को ही बंद होती है। इसलिए नहीं कि इस घर में रहने वाले पति-पत्नी हमारी तरह सब-कुछ होने के बावजूद वह चीज़ अभी तक नहीं ढूँढ़ पाए हैं जिससे सारी दुनिया की तरह रात आराम से सोते हुए बिता सकें, क्योंकि रात तो इसीलिए बनी है।
दरअसल लाइट इसलिए जलती रहती है क्योंकि पता नहीं यह हमारी पड़ोसन का दुर्भाग्य है या कि सौभाग्य कि उसका पति सरकारी नौकर के साथ-साथ एक बड़ा लेखक भी है। बड़ी-बड़ी किताबें लिखता रहता है, आए दिन उसका लिखा हुआ कभी अख़बारों में तो कभी साहित्यिक पत्रिकाओं में छपता रहता है। बीते दो साल में ही कई बड़े-बड़े पुरस्कार मिल चुके हैं। कोई छुट्टी ऐसी नहीं बीतती जिसमें वह किसी साहित्यिक कार्यक्रम में न जाते हों या फिर उनके घर पर ही आए साहित्यकारों की गोष्ठी न हो रही हो।
यहाँ आने के दूसरे दिन स्वयं ही सवेरे-सवेरे गेट पर आ गए अपना परिचय दिया और कहा, “अब तो हम हमेशा के पड़ोसी हो गए हैं और सुख-दुख के साथी भी तो इस रिश्ते के नाते मैं आप लोगों को सादर आमंत्रित करता हूँ, आज शाम को चाय मेरे साथ पीजिये।” आमंत्रित कर के वह ऑफ़िस चले गए। शाम को लौटे तो गाड़ी खड़ी करके सबसे पहले बुलाने आए, “भाई साहब मैं आप लोगों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।”
हमारा जाने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन उनका आमंत्रण ऐसा प्यार भरा था कि हमें जाना ही पड़ा। औसत क़द काठी, साँवले से रूप स्वरूप वाले यह लेखक इनके सामने बेहद साधारण से ही दिखे, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों पहली मुलाक़ात के बाद से ही उनमें एक अनजाना अनचाहा सा आकर्षण मुझे महसूस होने लगा।
सुबह शाम दोनों टाइम गेट पर आमना-सामना होने पर रामजोहार (नमस्कार) ज़रूर होती। छुट्टियों में जब वह कोई साहित्यिक गोष्ठी रखते तो मुझे ज़रूर बुलाते। पहली मुलाक़ात में ही उन्होंने यह जान लिया था कि मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. ज़रूर किया है लेकिन रुचि हिंदी साहित्य में ही है, वही पढ़ती हूँ, क्योंकि अंग्रेज़ी साहित्य मुझे हमेशा ग़ैरों-सा ही लगा, वह कभी अपने साथ मुझे जोड़ नहीं सका और हिंदी साहित्य अपने ही घर का लगता है। एक छोटी सी कविता भी अपनी सी ही लगती है।
इन्होंने तो साफ़-साफ़ कह दिया कि, “भाई-साहब साहित्य वग़ैरह से अपना कोई नाता अभी तक नहीं बन पाया है, हम विज्ञान के आदमी रहे, नौकरी भी टीचर की मिली, वह भी फिजिक्स टीचर की और इन सबसे पहले यह कि मैं लग्ज़री-लविंग (भोगप्रिय, विलासी) आदमी हूँ, छोटी-सी इतनी ही बात समझता हूँ कि जब-तक जीवन है, जिसमें सुख मिल सके, उसे करते चलो, किसी चीज़ में कुछ रखा नहीं है।”
इनके इस स्वभाव के चलते मैं अकेली ही इन गोष्ठियों में पहुँचती रही, मेरी साहित्यिक रुचि भी मुझे भेजती रही। पड़ोसी की प्रसिद्धि, उसकी विद्वत्ता, मुझे हर बार और ज़्यादा खींचती, किसी सम्मोहक की तरह आकर्षित करती। मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न आता कि यह इतना प्रसिद्ध होकर, इतना बड़ा व्यक्ति होकर भी कितना मिलनसार, सरल व्यक्ति है, कितनी सादगी से रहता है, और जैसा ख़ुद है, पत्नी भी वैसी ही है। मगर ईश्वर भी क्या खेल खेलता रहता है कि इतने बड़े विख्यात साहित्यकार की पत्नी का साहित्य से कोई सरोकार ही नहीं है। वह पति की इतनी ही मदद करती हैं कि अलमारियों में रखी उनकी किताबों पर कभी धूल नहीं जमने देतीं और जब उनकी मित्र मंडली आती है तो उनके स्वागत, चाय-नाश्ता में कोई कमी नहीं छोड़तीं।
जल्दी ही मुझे इस साधारण से दिखने वाले असाधारण आदमी से बात करना बहुत अच्छा लगने लगा, बहुत ख़ुशी होती। बात करके ऐसा महसूस होता जैसे कि मुझ पर जो सारी दुनिया का बोझ था वह एकदम से ख़त्म हो गया। मैं बात करने का अवसर मिले यही सोचती, और अवसर मिलते ही बात करने लगती। छह-सात महीने में ही मैं उनके बहुत क़रीब होती चली गई। उनके हाव-भाव भी एकदम साफ़ बताते कि वह भी मुझसे बात करने में बड़ा आनंद महसूस करने लगे हैं।
मोबाइल नंबरों का आदान-प्रदान तो महीने भर के अंदर ही हो गया था। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए एक-एक करके कई किताबें, बहुत सी पत्रिकाएँ भी दीं। उनको पढ़कर यह बात एकदम स्पष्ट हो गई कि वह लिखते वही हैं जो बात उनको सही लगती है, किसी को ख़ुश करने के लिए लिखना है, ऐसा कुछ उनकी लेखनी में नहीं दिखा।
जैसे-जैसे उनसे बात होती गई लेखन के बारे में उनके विचार स्पष्ट होते गए। मैंने उनके फ़ेसबुक अकाउंट पर जब नज़र डालनी शुरू की तो वहाँ पर जो कुछ लिखते हुए वह मुझे मिले, वह बड़ा ही विस्फोटक था, उनकी हर पोस्ट पर उनके विपरीत विचारधारा के लेखक, पाठक सब मधुमक्खियों के झुंड की तरह टूटे हुए थे।
एक जगह उन्होंने लिखा, हिंदी साहित्य जगत में वामपंथी विचारों के मठाधीशों के आतंक के कारण गिने-चुने लेखकों को छोड़कर बाक़ी सब वही लिखते हैं, वैसा ही लिखते हैं, जैसा यह मठाधीश चाहते हैं। विभिन्न अवसरों पर यह भी लिखा कि पुरस्कार पाने के लिए लेखकों ने अपनी क़लम ही बेच रखी है तो सच्चा साहित्य कहाँ से सामने आएगा और जब सच्चा नहीं झूठ, बनावटी, नक़ली साहित्य है तो वह कहाँ से पाठकों को प्रभावित कर पाएगा, इसलिए यह रोना बेकार है कि आजकल लोगों ने पढ़ना छोड़ दिया है, साहित्य को पाठक नहीं मिलते हैं।
अपनी इन पोस्टों में उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं, लेखिकाओं किसी को भी नहीं छोड़ा था। लोगों ने भी इन्हें घर के आख़िरी कोने तक पहुँचाए बिना नहीं छोड़ा था। इनको मिले पुरस्कारों का उल्लेख करते हुए लिखा कि जब आप पुरस्कारों के लिए लिखते ही नहीं तो इन पुरस्कारों को क्यों ले लिया, मना क्यों नहीं कर देते? आप तो उन्हीं लोगों में से हैं जो गुड़ खाएँगे गुलगुले से परहेज़ करेंगे। आप दूसरों को पाखंडी कहते हैं ज़रा कभी अपने इस पाखंड की तरफ़ भी देख लिया करिए।
लेकिन इन सबके बीच इनकी कई पोस्ट ऐसी भी रहीं जिन पर बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था, इनके पक्षधर तो वाह-वाह करते नहीं थके थे, मगर विरोधी एकदम ग़ायब थे। इनकी हर वह पोस्ट मुझे बड़े गहरे प्रभावित करती रही जिनमें इन्होंने साहित्यिक मठाधीशों की खिंचाई करते हुए लिखा कि यह सब इसलिए नक़ली पाखंडी लेखक हैं क्योंकि जब कश्मीरी पंडितों का नरसंहार होता है, गिरिजा टिक्कू जैसी महिला को जिहादी आतंकी सामूहिक दुष्कर्म के बाद जीवित ही उसके शरीर के आरा मशीन से टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, पश्चिम बंगाल, केरल आदि राज्यों में सनातनियों पर जेहादियों के बर्बर अत्याचार पर इनकी क़लम चुप रहती है। ये चयनित लेखन करते हैं।
इनकी क़लम लव जिहाद, लैंड जिहाद, धर्मान्तरण जिहाद पर चुप ही नहीं रहती वरन् उनके पक्ष में तलवारें भांजती रहती है, सीरिया, फिलिस्तीन जैसे दुनिया के सारे देशों के लोगों के लिए ख़ूब मुखर हो उठती है, जो नहीं होता है वह भी लिखती है, सच को उल्टा करके दिखाती है।
लेखक को तो चाहे जो हो यदि वह पीड़ित है तो उसके साथ निष्पक्ष होकर खड़ा होना चाहिए, उसे किसी भी धर्म को न देख कर केवल पीड़ित और पीड़क इन दो पर ही ध्यान देना चाहिए, मगर यह खोखले लेखक धर्म देखते हैं। ऐसे ही सरकार अच्छा करे तो भी विरोध ही करते हैं, ईमानदार लेखक सच के साथ होता है, चाहे वह सरकार हो यह विपक्ष।
मुझे उनकी यह सारी बातें शुद्ध सोने-सी खरी लगतीं। उनकी यह बातें मुझे हर बार उनके और क़रीब करती गईं। तमाम लोगों से असहमतियों के बावजूद दूर-दूर तक उनकी चर्चा सुनकर मेरा मन होता कि मैं इस व्यक्ति के पास बैठूँ, इसके साथ समय बिताऊँ, इसको स्पर्श करूँ, भीतर तक महसूस करूँ। यह भी मुझे छुए, हमारे स्पर्शों का क्रम शुरू हो तो उसमें समय का कोई बँधन ना हो।
सच यह है कि मैं उनके साथ स्वप्नलोक में सनातन क्रीड़ा के आनंद में डूबती चली जाती। स्थिति यह आ गई कि यथार्थ लोक में सनातन क्रीड़ा में मेरे साथी खिलाड़ी मेरे जीवनसाथी होते लेकिन मुझे लगता जैसे मेरा उसका तन एक दूसरे में डूबते जा रहे हैं। मेरे हाथ जीवनसाथी के नहीं उसके शरीर को जकड़ते जा रहे हैं। मुझमें यह नहीं बल्कि वह परास्त होकर निढाल हो गए हैं, एक किनारे लुढ़क कर गहरी नींद में समाते चले जा रहे हैं।
रात में रोज़ उनके कमरे की खिड़की की रोशनी मुझे उनके पास खींच ले जाती। मैं वहीं काफ़ी देर तक किताबों से भरे उनके कमरे में, उनकी खुली पड़ी किताब को एक किनारे कर, उनके साथ एक मैच सनातन क्रीड़ा का खेल कर वापस खिड़की के रास्ते ही लौट आती, और फिर इन्हीं की बग़ल में इन्हीं की तरह गहरी नींद में सो जाती।
एक दिन खिड़की की इस रोशनी का जादू कुछ इस तरह हुआ कि स्वप्नलोक से निकल मैंने सच में उन्हें फोन कर दिया। उन्होंने कॉल रिसीव कर जैसे ही, ‘हेलो'’ कहा, मैंने तुरंत ही पूछा, “आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?”
वह बहुत ही पोलाइटली बोले, “नहीं, बिल्कुल नहीं, लेकिन इतनी देर रात कॉल किया, कोई ख़ास बात है क्या?”
एकदम से कुछ कह नहीं पाई, लेकिन ख़ुद को ज़्यादा देर रोक भी नहीं पाई, कुछ इधर-उधर की बातों के साथ ही मुँह से निकल ही गया, “क्या आप कल बाहर कहीं कुछ समय मेरे साथ बिता सकते हैं?” उनसे यह कहने में चार पैग व्हिस्की का कितना रोल था यह मैं अब भी नहीं समझ पाई हूँ।
मेरे यह कहते ही उधर जो प्रतिक्रिया हुई उससे मैं बिलकुल भी आश्चर्य में नहीं पड़ी क्योंकि अनगिनत अन्य औरतों की तरह मेरी भी धारणा यही है कि हिमालय से ऊँचे, कठोर चरित्र वाला होने का दम्भ भरने वाले महान पुरुष भी औरत की एक मनुहार की आहट भर से वैसे ही पिघलने लगते हैं जैसे ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर पिघलते जा रहे हैं।
हिमालय से ऊँचे, कठोर चरित्र वाले यह बड़े लेखक महोदय भी मेरी यह बात सुनते ही एकदम से पिघलते ही चले गए। पलक झपकते ही जगह और टाइम भी फ़िक्स कर दिया।
इसके बाद भी बातें ख़ूब चलती रहीं, एक तार की चासनी में डूबी जलेबी की तरह ख़ूब मीठी-मीठी। लेखक महोदय इतनी जल्दी परत-दर-परत खुलते चले जाएँगे इसका मुझे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था। वैसे उनके पहले तो मैं ही खुल गई थी, अधीर व्याकुल हुई तो मैं ही बैठी थी।
एक बड़ी ख़ूबसूरत, बड़ी नशीली सी बात पूरी ही हुई थी कि ठीक उसी समय मेरे दिमाग़ में दिवाली के बहुत से बम फूट गए कि यह तीन साढ़े तीन बजते-बजते एक बार वॉशरूम जाने के लिए ज़रूर उठते हैं, मोबाइल में साढ़े तीन बजा देख कर मैं सहम उठी। जल्दी से उन्हें गुड नाईट बोला, उनके चुंबन का जवाब दिया और इनके बग़ल में आकर लेट गई।
मुझे नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी, दिमाग़ में एक बवंडर सा चल रहा था। अगले दिन मिलने का समय, स्थान, मिलने पर उनके साथ होने वाली बातें, सनातन क्रीड़ा का रोमांच बस यही सब घूम रहा था। थोड़ा ही समय बीता होगा कि यह उठे। मुझे लगा कि जैसे मुझ पर एक दृष्टि डाली और वॉशरूम से आकर लेट गए। मैं गहरी निद्रा में सोने का ड्रामा करती हुई लेटी रही।
अगले दिन मिलने के लिए जब घर से बारह बजे निकली तो रोमांच, व्यग्रता इतनी थी कि लगा शरीर उड़ता ही जा रहा है, मन तो रात से ही वहीं जाकर ठहरा हुआ था। घर से कुछ दूर रोड पर जाकर मैंने जब कैब बुलाई तो मेरा बदन बुरी तरह थरथरा रहा था, हथेलियों, पैरों के तलवों में पसीना सा महसूस हो रहा था। कार के अंदर पैर रखते हुए लगा जैसे उठ ही नहीं रहे हैं, उनमें ढेर सारी ईंटें बँधी हुई हैं, किसी तरह बैठ गई तो दरवाज़ा ही नहीं बंद कर पा रही थी।
अचानक ही मन में यह बात बार-बार घूमने लगी कि लौट चलूँ क्या? लौट चलूँ क्या? कहीं किसी को पता चल गया तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के सिवा मेरे पास कोई और रास्ता नहीं होगा। पति, बच्चों, सबका जीवन नष्ट हो जाएगा, क्या करूँ . . . लौट चलूँ . . . पति, बच्चे कैसे फ़ेस करेंगे दुनिया में उपहास उड़ाती सबकी बातें, नज़रें . . . बड़ी ग़लती कर दी, क्या हो गया है मुझे जो यह मूर्खता कर बैठी, लौट ही चलती हूँ . . .
मैंने ड्राइवर को लौटने के लिए जैसे ही कहा, उसने गाड़ी एकदम से रोक दी और पीछे मुड़कर मुझे घूरते हुए बोला, “आप जब पहुँच गईं तो वापस लौटने के लिए कह रही हैं।” घनघोर असमंजस में पड़ी मैं उससे कुछ कह पाती कि उसके पहले ही निगाहें सामने से मेरी ही तरफ़ चले आ रहे लेखक महोदय पर पड़ गई। एकदम प्रसन्न मुद्रा में मेरी तरफ़ लपके चले आ रहे थे। बाँछें एकदम खिली हुई थीं। मैं कुछ निर्णय ले पाती उसके पहले ही वह दरवाज़ा खोलते हुए बोले, “आइये, मैं आप ही की प्रतीक्षा कर रहा था।”
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी नीचे उतरी और उन्होंने दरवाज़ा बंद करते हुए कैब वाले को पेमेंट कर दिया। मुझे फ़ॉर्मेल्टी के लिए भी टाइम नहीं मिला कि कह सकती अरे मैं पेमेंट कर रही हूँ।
मुझे यह समझने में क्षण भर का भी समय नहीं लगा कि जितनी उतावली अफ़नाई भुखाई हुई मैं हूँ यह लेखक महोदय उससे कहीं कम नहीं हैं। दुनिया को कानों-कान ख़बर न हो इसका ख़्याल उन्हें मुझसे कहीं ज़्यादा था। मगर उन्हें मेरे पहुँचने को लेकर संदेह ज़रूर था। अपना यह संदेह उन्होंने पहुँचते ही व्यक्त भी दी कर दिया, बड़ी गहरी साँस लेकर कहा, “आपको सच बताऊँ मैं अभी तक आश्चर्य में हूँ, यह सब क्या हो रहा है समझने की कोशिश में हूँ। विश्वास नहीं हो रहा था कि आप आएँगी।”
एक बड़े से ख़ाली मकान की दूसरी मंज़िल पर उन्होंने स्वप्नलोक को यथार्थलोक में परिवर्तित करने की सारी व्यवस्था पहले से कर रखी थी। खाने-पीने की हर चीज़ का इंतज़ाम था। वह फोन पर बातों में जितने बोल्ड जितने बिंदास लग रहे थे, सामने ठीक वैसे बिलकुल नहीं थे। लेखक आदमी इधर-उधर की बातें, इस किताब तो उस किताब की बात शुरू कर दी। मेरा मन इसमें बिल्कुल नहीं लग रहा था।
मैं व्याकुल हुई जा रही थी। ख़ुद को रोक पाना मुझे बहुत मुश्किल लग रहा था। मन में आया कि ख़ुद को मानव मन का पारखी कहने वाला यह लेखक प्राणी क्या मेरी आँखों, मेरे चेहरे के इन भावों को पढ़ नहीं पा रहा है कि हम इस जगह ऐसी बातें करने तो नहीं आए हैं। मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह क़लमबहादुर पहल करने की कला या तो जानते ही नहीं या बहुत कमज़ोर हैं।
फोन पर इनकी बड़ी-बड़ी बातों का मैंने ग़लत आकलन करके कहीं जीवन का सबसे ग़लत डिसीज़न तो नहीं ले लिया, कहीं अपने ही हाथों अपने पोस्टर पर कालिख तो नहीं पोत दी है। मेरा मन बड़ी तेज़ी से उचटने लगा, मुझे लगा जैसे कालिख वाली बात ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया है। एक-एक क्षण मुझे घंटों सा लगने लगा।
चलते समय जहाँ मन में यह चल रहा था कि मिलते ही यह क़लमबहादुर एक एकदम नई तरह की कहानी लिखने के लिए अपनी क़लम के साथ राइटिंग पैड पर टूट पड़ेंगे, कहानी पूरी किये बिना, क़लम की स्याही की आख़िरी बूँद तक उड़ेले बिना ठहरेंगे ही नहीं, कई बातों को लेकर गहरा रोमांच, उत्तेजना, एक अनजाना सा भय भी था, वहीं एकदम उलटी ही तस्वीर देखकर . . . हअ . . . मन हुआ सिर पीटती हुई भाग चलूँ घर।
मगर जैसे ही नज़र क़लमबहादुर पर पड़ती मन फिर उसी ओर मुड़ जाता। उस बड़े से बेडरूम में एक किंग साईज़ बेड, उसके बग़ल में एक सेंटर टेबल, उसके दोनों तरफ़ इज़ी चेयर पड़ी हुई थीं। उनके कहने पर एक पर बैठ गई। टेबल पर अच्छे ब्रांड की व्हिस्की, ख़ूबसूरत से गिलास, खाने-पीने की बहुत सी चीज़ें थीं। दूसरी चेयर मेरे बग़ल ही में करके क़लमबहादुर जी बैठ गए।
थरथराते, सकुचाते हुए पहला पैग मेरे होंठों से लगाया, फिर अपना भी लेकर ख़त्म करने लगे, अपने ही हाथों से प्लेटों में से ड्राई फ्रूट्स, नमकीन मुझे खिलाते रहे, जल्दी ही बीच-बीच में मेरे हाथों, कभी गालों को स्पर्श करने और चूमने भी लगे। मुझे ऐसा लगने लगा जैसे कोई बहुत तेज़ ख़ुश्बू वाला रूम फ्रेशनर महकने लगा है। पहला पैग ख़त्म होते-होते वहाँ सब-कुछ बड़ी तेज़ी बदलने घटने लगा, मैं उसमें खोती चली जा रही थी।
वह ख़ूबसूरत शयनकक्ष, महाराजा आकार की शैया, मेरी अजीब सी मनःस्थिति के चलते वहाँ जो कुछ बहुत आक्रामक रूप में घट रहा था उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म पल के साक्षी बन रहे थे। छोटे से समय में ही क़लमबहादुर ने मेरी नज़रों में अपनी थोड़ी देर पहले वाली छवि एकदम से बदल कर रख दी। एक मज़बूत आक्रामक व्यक्तित्व वाली छवि बना दी। हर तरह के राइटिंग पैड पर, हर तरह का ज़बरदस्त लेखन करने वाले की। अंततः मुझे विश्वास करना पड़ा कि क़लमबहादुर जी के लिए मेरा आकलन मिथ्या नहीं था। मगर यह संतुष्टि ज़्यादा देर नहीं टिकी . . .
अगले दिन फिर मिलने के वादे के साथ हम वहाँ से अलग-अलग वापस चल दिए। कैब में बैठते ही मेरा मन फिर शेयर मार्केट की तरह फ़्लक्चुएट करने लगा। मन पश्चात्ताप के संजाल में उलझने लगा। ये क्या कर डाला मैंने? मुझे यह करने की क्या ज़रूरत थी? किस चीज़ की कमी है मेरे पास जो मैं भटकी, यहाँ चली आई। आख़िर यहाँ क़लमबहादुर के साथ ऐसा क्या मिला जो घर पर पति से मुझे नहीं मिल रहा . . .
उनके साथ जिए एक-एक क्षण की तुलना करते हुए मैं घर पहुँची, नहा-धोकर सोफ़े पर बैठी, टीवी ऑन किया, रिमोट लिए चैनल बदलती रही, सोचती रही लेकिन मुझे एक भी ऐसा पॉइंट नहीं मिला, जहाँ क़लमबहादुर मेरे शेर बहादुर से बीस पड़े हों। हर एंगिल से हर तुलना में वह मुझे हर जगह उन्नीस नहीं, अठारह नहीं सत्रह ही दिखाई दिए। अन्ततः मन में आया कि शायद मैं ठीक से आकलन नहीं कर पा रही हूँ। क़लमबहादुर को ख़ुद को प्रूव करने के लिए और समय देना चाहिए।
अगले दिन फिर समय दिया, लेकिन आकलन में फिर क्लियर नहीं हो पाई। उसे बार-बार समय देती रही, देते-देते जब दो-ढाई महीने के सारे आकलन में भी कोई क्लियरटी नहीं आई तो मुझे लगा क़लमबहादुर को और समय देना क्लियरली अपने शेर बहादुर के साथ बेईमानी होगी। यह अब भी सही ही है कि दूर के ढोल सुहावने ही होते हैं। यह बुदबुदाती हुई मैंने अपना माथा पीट लिया। उसे एक क्षण भी समय देना बंद कर दिया, फोन पर ब्लॉक कर दिया, सामने पड़ते ही मुँह फेर लेती। दो-तीन बार ज़बरदस्ती बोलने की कोशिश की तो स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया। इसके बाद उन्होंने भी रास्ता बदल लिया।
मेरे मन में यह बात भी पहले दिन से बार-बार आती रही कि क़लमबहादुर के साथ मेरा कोई इमोशनल अटैचमेंट तो कभी रहा ही नहीं, कोई इश्क़ जैसी भावना, लगाव कुछ भी तो कभी नहीं रहा, तो इनके साथ सनातन क्रीड़ा के लिए मेरे मन में बार-बार ज्वार क्यों उठता रहा? वह मेरे पति से सिर्फ़ एक ही फ़ील्ड में आगे हैं कि साहित्य की दुनिया में उनका नाम बहुत है, और जब-तक दुनिया में साहित्य रहेगा तब-तक उनका भी नाम रहेगा।
भले ही मेरे पति अपनी फ़ील्ड के विशेषज्ञ हैं, अच्छे कार्यों के लिए कई बार सम्मानित भी किये गए हैं, लेकिन वह विज्ञान के आदमी हैं, और उनके पास क़लमबहादुर जैसी कोई प्रसिद्धि नहीं है। लेकिन क़लमबहादुर की प्रसिद्धि में ऐसा क्या है कि उन्होंने एक चुम्बक की तरह मुझे खींच लिया। मैं किसी आयरन पीस की तरह उनकी तरफ़ खिंचती, चिपकती चली गई।
इस उम्र में दो-दो बड़े बच्चों के होते हुए भी वह क़दम उठाया जिसके बारे में सोचना भी किसी बड़े पाप से कम तो नहीं है। किसी को धोखा देना, अपने पत्निनिष्ठ पति को धोखा देना तो पाप ही होगा। मयनोशी के खिलाड़ी क़लमबहादुर मदहोशी में ही कहीं, कभी भूलकर भी बहक गए, किसी से मेरे ज्वार की कथा कह बैठे तो मेरे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने के सिवा और कोई रास्ता है ही नहीं।
जल्दी ही मैंने महसूस किया कि मैं दो हिस्सों में बँट गई हूँ, अंतर्द्वंद्व शीर्ष पर है, एक पक्ष जो कुछ हुआ उसे अनुचित, पाप कह रहा है, शर्मिंदगी महसूस कर रहा है, पश्चात्ताप में घुट रहा है। तो दूसरा पक्ष तर्क पर तर्क दे रहा है कि हमें भी अपनी ख़ुशी अपने हिसाब से पाने का अधिकार है, स्त्री हैं तो क्या हम भी स्वतंत्र हैं, हमें भी अपने रास्ते चुनने का अधिकार है। तन-मन आत्मा से तो आज भी पति ही में समाहित हूँ, तो उनके साथ विश्वासघात कैसे हुआ? क़लमबहादुर के तन से कुछ क्षण को तन जुड़ गया तो पति के अधिकारों, उनके महत्त्व में कोई क्षरण कहाँ से हो गया? हो तो यह भी सकता है कि मेरी ही तरह पति का तन भी बाहर किसी महिला के तन के संग जुगलबंदी कर रहा हो, क्या आश्चर्य कि मन, आत्मा भी . . .
इस अंतर्द्वंद्व ने जल्दी ही मेरी पूरी की पूरी नींद ही चुरा ली, नींद की गोली, कई पैग व्हिस्की भी जब फ़ेल होने लगी, आँखों के नीचे स्याह घेरा बड़ा होने लगा, सूजन के कारण आँखें लेखक नेत्र-सी दिखनी लगीं, पतिदेव चेकअप कराने के लिए कहने लगे तो मैं सहमने लगी। मन में आया कि अकेली ही किसी मनोचिकित्सक से मिलूँ, लेकिन बात खुल जाने का डर फिर मुझे कमरे में बंद कर देता।
पति का बार-बार आई स्पेश्लिष्ट के यहाँ चलने का आग्रह हर बार मेरे प्राण सुखाने लगा। मुझे यह बात एकदम साफ़ दिखने लगी कि जल्दी ही इस अंतर्द्वंद्व से बाहर नहीं आई तो मेरे साथ बहुत बुरा होना सुनिश्चित है। वह बुरा क्या होगा यह भी मैं अच्छी तरह समझ रही थी। मैं पागल होकर किसी पागलख़ाने या फिर मैले-कुचैले कपड़ों या बिना कपड़ों के सड़कों पर भटकने की कल्पना मात्र से ही काँप उठती। पसीने-पसीने हो जाती।
एक रात इसी पसीने में भीगी हुई थी कि दिमाग़ में आया कि आज कल हर प्रश्न का उत्तर आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस से माँगा जा रहा है, मैं भी अपनी सिचुएशन बता कर सॉल्यूशन पूछती हूँ। पूछने पर जो उत्तर मिला उससे मैं अचंभित हो उठी। एआई ने बड़ा सीधा-सादा सा उत्तर दिया, “आपका प्रकरण पूरी तरह से सैपियोसेक्शुअलिटी के प्रभाव का है।” जो डिटेल्स बताई वह सारे लक्षण मुझ में थे। यह शब्द, और ऐसी कोई प्रॉब्लम या मनःस्थिति होती है जीवन में पहली बार जान रही थी।
मैंने फिर प्रश्न किया कि मैं इसके प्रभाव से हमेशा के लिए मुक्त कैसे हो सकती हूँ। उसने उत्तर दिया, “अपने लाइफ़ पार्टनर के साथ को एंजॉय करें।” मैं बार-बार उससे पूछती उसने बार-बार यही उत्तर दिया अपने लाइफ़ पार्टनर के साथ को और ज़्यादा एन्जॉय करिये।
मेरे साथ कुछ भी बुरा न हो इसलिए मैं लाइफ़ पार्टनर के साथ को ज़्यादा से ज़्यादा एन्जॉय करने की कोशिश में लग गई। क़लमबहादुर की खिड़की की रोशनी बिलकुल नहीं देखती, खिड़की के दरवाज़े हमेशा बंद रखती हूँ। दिन भर में कई बार मन ही मन बोल उठती हूँ वाह रे “सैपियोसेक्शुअलिटी”!
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