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निरिजा का शोक

 

 . . . मोपला के हाथों मालाबार के हिन्दुओं का भयानक अंजाम हुआ। नर-संहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों को ध्वस्त करना, महिलाओं के साथ अपराध, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना, ये सब हुआ। हिन्दुओं के साथ सारी क्रूर और असंयमित बर्बरता हुई। मोपला ने हिन्दुओं के साथ यह सब खुलेआम किया, जब-तक वहाँ सेना नहीं पहुँच गई। 

मेरे प्यारे देशवासियों, धरा के सर्वश्रेष्ठ सनातन धर्म, संस्कृति के संवाहक श्रेष्ठ प्राणी सनातनियों, मैं निरिजा टिक्कू की आत्मा हूँ। वही निरिजा जिसे धर्मांध नर-पिशाचों ने आरा-मशीन से कई टुकड़ों में जीवित ही काटा था। जो आप ही की तरह इस सनातन भारत देश, सनातन संस्कृति की हिस्सा थी। नागरिक थी। बेटी थी। सशरीर न सही, आत्मा रूप में ही सही, आज भी हूँ। 

आप सही सोच रहे हैं, मैं आज भी अपने प्यारे सनातन भारत देश में भटक रही हूँ। हो सकता है आप भूल गए हों। लेकिन मेरा परिवार और मेरी तरह और लाखों कश्मीरी सनातनियों के परिवार आज भी हमारे लिए आँसू बहाते हैं। 

मुझे विश्वास है कि यह आँसू आप लोग भी यदि मुझ जैसे अपने अन्य कश्मीरी भाई-बहनों को याद करेंगे, उनके साथ जो भयावह अत्याचार हुए, नर-संहार हुआ, उससे कोई पाठ सीख कर आगे बढ़ेंगे तो हमारे आँसू व्यर्थ नहीं जाएँगे। 

आपके वही प्यारे कश्मीरी भाई-बहन जो आपके, हमारे प्यारे पवित्र कश्मीर में जनवरी उन्नीस सौ नब्बे तक रहते थे। जो हमारे देश का मुकुट है। जहाँ आप आज भी माता-रानी वैष्णों देवी के मंदिर में पूजा-अर्चना करने, अपनी मनोकामनाएँ पूरी होने के लिए प्रार्थना करने पहुँचते हैं। 

वहाँ हर तरफ़ आपको आपकी सुरक्षा के लिए हर क्षण तत्पर्य, सतर्क सुरक्षा-बल दिखाई देते हैं। हृदय पर हाथ रख कर सच बोलियेगा कि, उन्हें देख कर क्या आपके मन-मष्तिष्क में एक बार भी यह प्रश्न उठता है, कि अपने ही देश में, अपने ही तीर्थ स्थलों, देव स्थानों, श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था क्यों करनी पड़ रही है? नहीं उठता न? मैं आपको बताती हूँ ऐसा क्यों है। 

पहले हम कश्मीरी पंडित भी यानी सभी सनातनी लोग आप सब की ही तरह निश्चिन्त अपना जीवन जी रहे थे। सभी अपना व्यवसाय, नौकरी करके पैसे कमा रहे थे। भविष्य के लिए, बच्चों के लिए बहुत सी सुन्दर-सुन्दर योजनाएँ बनाते हुए, उन्हें पूरा करने के प्रयासों में लगे हुए थे, और अक्षम्य मूर्खतापूर्ण लापरवाही करते हुए द्वार पर खड़ी निर्लज्ज घिनौनी आपदा की अनदेखी करते रहे। 

हमारी शुतुरमुर्गी सोच, हमारे दिमाग़, हमारी आँखों पर पट्टी बाँधे रही। जिसके चलते हम यथार्थ से अनजान, भ्रम में जीते चले आ रहे थे, बरसों बरस से। आज़ादी के नाम पर उन्नीस सौ सैंतालीस में धोखा मिलने के कुछ नहीं, सदियों पहले से। 

चौंकिए नहीं, सदियों पहले से कैसे यह आगे बताऊँगी। अभी तो तथा-कथित स्वतंत्रता के समय देश की एकमात्र प्रमुख राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जो वास्तव में अँग्रेज़ों का आनुषंगिक संगठन है, क्योंकि यह अँग्रेज़ों द्वारा, अँग्रेज़ों के लिए बनाई गई थी, के द्वारा इस सनातन देश, सनातनियों के साथ इसके छल-छद्म, कुकर्म की बात विस्तार से करूँगी, जिसे सुनकर आप या हर राष्ट्रवादी का रक्त पतीले नहीं, धधकती आग पर चढ़ी बटोई में दूध की तरह उबल पड़ेगा। 

अभी तो यह कि तब के शीर्ष कांग्रेसी नेताओं ने जम्मू-कश्मीर को लेकर किस तरह देश के, जम्मू-कश्मीर के हिन्दुओं यानी की सनातनियों की पीठ में छूरा घोंपा, जिसके परिणाम-स्वरूप वहाँ अब-तक लाखों सनातनी, दरिंदे नर-पिशाचों के हाथों मारे जा चुके हैं, हम जैसी लाखों निरिजाएँ तन लूट-लूट कर, बोटी-बोटी काट कर सड़कों पर, नदी-नालों, जंगलों में जानवरों के सामने फेंकी जा चुकी हैं, हमारी सम्पत्तियाँ कैसे लूटी, जलाई गईं, सनातनियों का समूल नाश करने के लिए नेहरू द्वारा जम्मू-कश्मीर पर थोपी गई धारा तीन सौ सत्तर, और पैंतीस ए मोदी द्वारा हटाए जाने, सुरक्षा-व्यवस्था कठोर किये जाने, राज्य को विभाजित किये जाने के बाद भी, अब भी अक्सर टारगेट किलिंग किस तरह जारी है, यह सब जान लीजिए। 

साथ-साथ उन बातों को भी जो प्रत्येक सनातनी, राष्ट्रवादी को हर हाल में जाननी ही चाहिये थी, लेकिन उन्हें नहीं पता, वो नहीं जान पाए, क्योंकि कांग्रेसियों, वामपंथियों ने छल छद्म से उन सारी बातों को छिपा दिया, भ्रमित किया ताकि उन्होंने सनातनियों के साथ जो छल छद्म किया, उनकी पीठ में जो बार-बार छूरा घोंपा उसकी वास्तविकता को सनातनी न समझ पाएँ और उनके पिछलग्गू बने रहें, और जो कांग्रेसी उनका, उनकी संस्कृति का सर्वनाश करते आ रहे हैं, उन्हें ही अपना सच्चा हितैषी मानते रहें। 

हाँ! आप लोगों के पास तो समय नहीं होगा या कम होगा, इसलिए मेरे रक्त-सम्बन्धियों, मेरे प्रिय सनातनियों, मैं विस्तार से फिर कभी आपके सम्मुख होऊँगी, अभी तो घिनौने नर-पिशाचों ने मेरे साथ जो दरिंदगी की, उसे ही संक्षेप में बताती हूँ। 

उसी से आप जान जाएँगे कि कितना भयावह ख़तरा आपके दरवाज़े पर भी खड़ा हो चुका, आपके सिर पर भी नाच रहा है। और आप लोग भी, पारसियो, हम-लोगों की तरह जीवन की सबसे बड़ी भूल करते हुए, यथार्थ से मुँह मोड़े हुए, निश्चिन्त हो जिए चले जा रहे हैं। 

इस पृथ्वी की सर्व-श्रेष्ठ संस्कृति के संवाहक सनातनियों, मैं वह दुर्भाग्यशाली सनातनी बेटी हूँ जिसके साथ जेहादी नर-पिशाचों ने ऐसा क्रूरतम वीभत्स अत्याचार किया, जिसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता। दुनिया में यह दुर्लभतम से भी दुर्लभ कुकृत्य मेरे साथ हुआ, लेकिन चोर-उचक्कों, डकैतों, कसाईयों, बलात्कारियों के मारे जाने पर भी मानवाधिकार के नाम पर हफ़्तों चीखने-चिल्लाने वाले दुनिया के सेलेक्टिव मानवाधिकारवादी, मीडिया, तथा-कथित बौद्धिक वर्ग, लेखक, कलाकार तब भी चुप थे, आज भी चुप हैं। ऐसे जैसे कि कोई घटना हुई ही नहीं। सब ऐसे मुँह सिले हुए हैं, कायरों की तरह छुपे हुए हैं कि, मानो मेरा उल्लेख करते ही उनकी दुकानें बंद हो जाएँगी। 

हे मेरे प्यारे सनातनियों आप ज़रा कल्पना कीजिए, एहसास कीजिए कि, किसी जीवित मनुष्य को लकड़ी काटने वाली बिजली की आरा मशीन से क्रूरता-पूर्वक काटा जाए, उसके शरीर के टुकड़े किए जाएँ। आप सिहर उठे ना, रोंगटे खड़े हो गए ना, आत्मा काँप उठी ना, लेकिन मेरे साथ यह सब हुआ। 

हिंसक जंगली जानवर जैसे गँवार जेहादी नर-पिशाचों ने मुझे आरे के नीचे रखकर काटा। मुझे ज़्यादा से ज़्यादा तड़पा सकें, इसलिए आरे को ख़ूब धीरे-धीरे चलाया। उस आरे के दाँते मेरी चमड़ी में चुभे, उन्हें किसी कपड़े की तरह फाड़ते गए। फिर मेरे मांस में घुसे, उन्हें चीरने लगे। 

ख़ून के फव्वारे छूट रहे थे। मैं भयानक पीड़ा से चीख रही थी। और वो दरिंदे अट्टहास लगा रहे थे। ऐसों को नर-पिशाच कहना ग़लत है क्या? 

कभी रेगिस्तानों, क़बीलों में ऊँटों, भेंड़-बकरियों के साथ भटकने वाले, ऊँटों के मूत्र पीने वाले, आज भी पीते ही आ रहे हैं, परिवार की क़रीब-क़रीब हर महिलाओं से शारीरिक रिश्ते रखने वाले, असभ्य क़बीलाई जीवन जीने वाले, संस्कृति-विहीन समुदाय के दो लुटेरे डकैत मेरे हाथ पकड़ कर और दो मेरे पैर पकड़ कर खींच भी रहे थे, जिससे मुझे ज़्यादा से ज़्यादा हृदय-विदारक पीड़ा पहुँचा सकें। 

मेरे चीखने चिल्लाने पर वो नारकीय कीड़े अट्टहास लगाते हुए मेरे मुँह पर थूक रहे थे। मुझे काफ़िर कह-कह कर गन्दी-गन्दी गालियाँ दे रहे थे। एक काफ़िर को ज़्यादा से ज़्यादा तड़पा-तड़पा कर, मार कर ढेर सारा सवाब कमा रहे थे, जिससे उन्हें जन्नत में अय्याशी करने के लिए बहत्तर हूरें मिल सकें। ऐसा सपना पाले वह जंगली ख़ूनी दरिन्दे हमारी सनातन संस्कृति सभ्यता को गन्दी-गन्दी गालियाँ भी दे रहे थे। 

इन नर-पिशाचों द्वारा मुझे दी जा रही बर्बर यातना आपकी कल्पना से भी परे है। जब आरे के दाँते मेरे मांस को चीर रहे थे तो खर्र-खर्र की आवाज़ आ रही थी। मांस को चीरने के बाद दाँते हड्डियों को चीरने लगे तो कर्र-कर्र की भी भयानक आवाज़ होने लगी। 

मेरी नसें कट रही थीं, खिंच रही थीं, फट रही थीं। मेरी आँखों, कान, नाक, मुँह से ख़ून निकल रहा था। मुझे बीचों-बीच से काटा जा रहा था, लेकिन मैं तब भी उन नर-पिशाचों के समक्ष किसी भी सूरत में गिड़गिड़ायी नहीं। 

क्योंकि मैं स्वयं को कभी भी कमज़ोर अबला मानती ही नहीं थी। मैं अपने ईश्वर को याद कर रही थी। मुझे स्वयं की इस ग़लती पर भी पछतावा हो रहा था कि, मैंने एक धोखेबाज़ आस्तीन की नागिन जेहादन पर विश्वास क्यों किया। जिसने धोखे से मुझे नर-पिशाचों के सामने डाल दिया। 

मैं एक मज़बूत हृदय की महिला थी। मुझे बहुत धीरे-धीरे काटा जा रहा था। आख़िर एक वह सीमा आई जब आरे के दाँते मेरी हड्डियों को काटते हुए मज्जा तक पहुँचे, मेरी पीड़ा को और भयावह बनाया और फिर नीचे तक चले गए। मेरा शरीर दो टुकड़ों में बँट गया, लेकिन मेरी साँसें तब भी चल रही थीं। मैं घनघोर पीड़ा झेल रही थी। ऐसी पीड़ा कि अहसास कर शिला-खंड भी कण-कण हो बिखर जाए। 

पूरी आरा मशीन, आस-पास की ज़मीन मेरे ख़ून से नहा उठी थी। आरे के दाँतों के साथ खिंच आईं मेरी नसें, मेरी आँतें, मांस के टुकड़े बिखर गए थे। जो बहुत ही वीभत्स लग रहे थे। इतना कुछ करके भी वह सारे नर-पिशाच हमारी संस्कृति, धर्म के बारे में अपने गंदे शब्द मेरी जिह्वा से नहीं बुलवा सके। वह मुझे धोखे से पकड़ने के बाद से ही यह कहते चले आ रहे थे कि, मैं यदि इस्लाम क़ुबूल कर लूँ, अपने परिवार से भी करवा लूँ, और पति को छोड़ कर उन नर-पिशाचों में से किसी के साथ निकाह कर लूँ, तो वह मुझे नहीं मारेंगे। 

लेकिन मेरी संस्कृति, धमनियों में बह रहे सनातनी रक्त ने ऐसे जंगली, वहशी, गँवारों के सामने समर्पण करने के लिए तैयार नहीं होने दिया। मैं अपनी माँ, पति, अपने दो बच्चों को याद करती रही। ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि, वह उनकी रक्षा करें। हमारी सनातनी संस्कृति, राष्ट्र की रक्षा करें। 

जब वे ख़ूनी नर-पिशाच अपनी बात मुझसे नहीं मनवा सके, तो हार कर मुझे और ज़्यादा पीड़ा देने की कोशिश करने लगे। नुकीली लकड़ियाँ लेकर मेरे शरीर के कटे हुए हिस्सों के अंदर घुसा कर, उसे इधर-उधर घुमाने लगे। लकड़ियों में फँसा-फँसा कर नसों, अँतड़ियों को बाहर खींच लिया। मेरे शरीर के टुकड़े, मांस के लोथड़े मृत नहीं हुए थे इसलिए वो अब भी थरथरा थे। 

अब मैं पूरी तरह बेहोश हो गई थी। मगर उन पागल, विकृति सोच, निर्बुद्धि पिशाचों की दरिंदगी बंद नहीं हुई। उन्होंने मेरे और टुकड़े किए। शरीर के कई टुकड़े होने के बाद मैंने शरीर को स्वयं से मुक्त कर दिया। उससे अलग हो कर देखती रही उन दरिंदों को, और इधर उधर थरथराते पड़े हुए अपने ही शरीर के टुकड़ों को। 

वो एक काफ़िर को मारने के बाद काफ़ी देर तक इस बात का उत्सव मना रहे थे कि, अब तो जन्नत में अय्याशी के लिए बहत्तर हूरें पक्की हो गई हैं। मेरे शरीर के टुकड़े काफ़ी देर तक वहीं पड़े रहे, फिर उन सब ने अपने अब्बाओं की शिक्षा के अनुसार टुकड़ों को ले जा कर शहर के मुख्य चौराहे पर फेंक दिया। 

यह पैशाचिक कुकृत्य दुनिया की उस पवित्रतम भूमि पर हुआ जहाँ द्वापर युग के महा-भारत कालीन ‘खीर भवानी’, ‘गणपति यार’ और ‘माता वैष्णों देवी’ मंदिर हैं। संस्कृत के महाकवि कल्हण ने भी अपने ऐतिहासिक ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ के प्रारंभ में ही कहा है, कश्मीर में सबसे पहले राज्य की स्थापना पांडवों में सबसे छोटे भाई सहदेव ने की थी। 

कल्हण की ही दिव्य वाणी कहती है कि, यह पूरा क्षेत्र जो आज जम्मू-कश्मीर कहा जाता है, जिसके क़रीब आधे भाग पर धूर्त अँग्रेज़ों, गाँधी, नेहरू के चलते इस सनातन देश को ही खंडित कर बनाये गए आतंकियों के देश पाकिस्तान ने, इन्हीं लोगों की कृपा से क़ब्ज़ा कर लिया था, का पौराणिक नाम, आदि नाम कश्यप मेरु था। 

भगवान ब्रह्मा के पौत्र थे ऋषि कश्यप। यह किसी मक्कार, झूठे वामपंथी, रंगे हुए सेक्युलर या ऐसे-वैसे इतिहासकार ने नहीं, उस महानतम निष्पक्ष इतिहासकार की बात है, जिसकी निष्पक्षता दुनिया के इतिहासकारों के लिए एक अनुपम उदाहरण है। जो स्वयं अपने ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में कहते हैं कि, “एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वेष विनिर्मुक्त होना चाहिए तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है।”

यह जघन्यतम कुकृत्य उस पौराणिक भूमि पर हुआ, जहाँ की दिव्य संस्कृति, आदर्श समाज में मानव ही नहीं, प्राणी मात्र के बीच समरसता, भावनात्मक लगाव था। शेर, बकरी एक साथ सरोवर में पानी पीते थे। एक बार यह दृश्य देख कर ही राजा जम्बू लोचन के भाई बाहु लोचन ने तवी नदी के तट पर बाहु क़िला बनवाया था। जो आज भी लोगों को अचंभित करता है कि, चौदहवीं सदी ईसा पूर्व में इतना विशाल क़िला बनवाया गया। 

इन्हीं जंबू लोचन ने जम्बुपुरा नगर बसाया था। जिसे हम आज भी जम्बुपुरा, या जम्मू कहते हैं। ऐसे दिव्य सज्जनों की भूमि पर यह दरिंदगी करने वाले भी कभी सनातनी हुआ करते थे। जो कालांतर में भटक कर अपनी दिव्य संस्कृति, धर्म छोड़ कर क़बीलाई संस्कृति के संवाहक बन बर्बर जंगली हत्यारे बन गए। जिन्हें केवल अज्ञानता का अंधकार, बेसिर-पैर की तथ्य-हीन अनर्गल बातें, मारकाट ही पसंद हैं। जिनके मज़हबी ग्रन्थ के पारा दस, सूरा 9 अत्-तौबा की आयत पाँच में इन्हें आदेश दिया गया है कि, “जब हराम के महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों (हिन्दुओं) को क़त्ल करो जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो और हर घात में उनकी ख़बर लेने के लिए बैठो। फिर अगर . . . 

मुझे आश्चर्य होता है कि क्या इन दरिंदों को अपने महानतम सनातनी पुरखों, सनातनी संस्कृति की जानकारी नहीं है? क्या उनके मन में यह प्रश्न नहीं खड़ा होता कि, आख़िर सनातनी संस्कृति की ऐसी कौन सी प्रकृति, विशेषता है कि शेर, बकरी के साथ पानी पीने, साथ रहने वाली करुणामयी संस्कृति बनी, दुनिया को सर्वप्रथम ग्रंथों से परिचित कराने वाला, वेद-पुराण, जैसे अतुलनीय ग्रन्थ देने वाला दिव्य सनातनी समाज बना? वो आख़िर किस बहकावे, लोभ, तलवार की डर से ऐसे दिव्य समाज का परित्याग कर, क़्बीलाई ख़ूनी भेड़िए बन गए? पशु बन गए? 

जिस किसी भी वजह से पहले बन गए थे तो अब सचाई सामने आने के बाद वो अपनी पूर्व, धरा की सर्वश्रेष्ठ सनातन संस्कृति में लौट क्यों नहीं आते? लेकिन इन बातों की अब कोई अर्थवत्ता नहीं है, इसलिए बात आगे बढ़ाती हूँ कि इन रक्त-पिपासु ख़ूनी नर-पिशाचों ने जब सड़क पर मेरे शरीर के टुकड़े फेंके, तो वहाँ के लोगों को धमकाया भी कि कोई भी काफ़िर को छुएगा नहीं। वैसे उन्हें वहाँ पर यह धमकी देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि सनातनियों का तो सामूहिक नर-संहार करके उन्हें पहले ही वहाँ से भगाया जा चुका था। 

जो वहाँ थे, वह सब क़बीलाई संस्कृति वाले ही थे। जिनकी नसों में काफ़िरों से घृणा का लहू, उनकी हत्या करने का मज़हबी हुक्म दौड़ता है। जिन्हें जन्म से ही नहीं बल्कि जब वह गर्भस्थ होते हैं, तभी से उनके मन-मस्तिष्क में काफ़िरों, हर गैर-मुस्लिमों से घृणा के गुण-सूत्र प्रविष्ट कराए जाते हैं। 

अन्यथा ये चौदह सौ वर्षों से दरिंदगी के ख़ून में नहाते न चले आ रहे होते। ये प्रकृति से ही दरिंदे नहीं होते तो आख़िर ऐसे कौन से कारण हैं कि, ये दुनिया में जिस भी जगह में रहते हैं, वहीं दरिंदगी फैलाते रहते हैं। मार-काट हिंसा, बेहिसाब बच्चे पैदा करते रहना इनका स्वभाव, निज़ामे मुस्तफ़ा के लिए इनकी रणनीति है। 

तो मेरे शरीर के टुकड़े देखकर, वहाँ जो भी थे वह जश्न मनाने लगे। उनके लिए यह ख़ुशी का अवसर था। वो सपनों में भी काफ़िरों का ख़ून ही देखना चाहते हैं। जश्न मनाते लोगों के यह झुंड मेरे टुकड़ों पर थूक रहे थे। पैरों से ठोकरें मार रहे थे। 

ऐसा करके वो भी अपने लिए बहत्तर हूरों की व्यवस्था कर रहे थे। लेकिन औरतें ऐसा करके क्या अपने लिए जन्नत में बहत्तर मर्दों की व्यवस्था कर रही थीं, यह जानने के प्रयास में मैं अब भी हूँ। क्योंकि मैंने कहीं यह सुना-पढ़ा नहीं कि उन्हें जन्नत में क्या मिलेगा। 

मेरे टुकड़े सड़क पर पड़े रहे। चील, कौवे, कुत्ते अपनी भूख मिटाते रहे। वह सब देख कर मुझे संतोष की अनुभूति हुई कि, मेरा पार्थिव शरीर भी कम से कम इतना महत्त्व रखता है कि, कई प्राणियों की भूख शांत कर सकता है।

उस पूरे क्षेत्र के लोग तमाशा देख रहे थे। इतना ही नहीं आस-पास से अपने और लोगों को भी बुला-बुला कर दिखा रहे थे। पुलिस प्रशासन की तो बात ही न करिए। ऐसे हर अवसरों पर वो गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब रहकर इन दरिंदों को पूरी मदद करती थी। उनके इशारे पर भी ऐसे काम होते रहते थे, तो वह भला मेरे लिए कैसे कुछ करती। यदि वह कुछ करती ही होती तो मेरे टुकड़े होते ही क्यों? 

तत्कालीन राज्य-सरकार का ही तो पूरा षड्यंत्र था कि, पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य को सनातनियों, जैन, बौद्ध, सिख विहीन कर दिया जाए। जब राज्य में सारे जेहादी ही बचेंगे तो जेहादियों के देश और अपने आक़ा, अपने अब्बा पाकिस्तान के साथ आसानी से मिल जाएँगे। ये गँवार यह भी नहीं सोचते कि उनके उसी अब्बा ने तो उन्हें कभी मुसलमान ही नहीं माना। उन्हें मुहाजिर कहते हैं। उन्हें एक नई क़ौम में परिवर्तित कर दिया है। 

जिस आतंकी पाकिस्तान से मिलने के लिए वो बिलबिला रहे हैं, उसी ने तथाकथित स्वतन्त्रता के बाद भारत भूमि छोड़ कर गए, इस देश के टुकड़े करने वाले जेहादियों को मुहाजिर कह कर उन पर बर्बर अत्याचार किये, उनकी सम्पति लूटी, उनकी महिलाओं के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार किये, उन्हें उठा ले गए, उनको उनके घर के मर्दों, बच्चों को क्रूरतापूर्वक मार डाला, काट डाला। 

तब ख़ुद को ठगा सा महसूस करते ये देश भंजक गद्दार धोबी के कुत्ते बन गए, न इधर के रहे, न उधर के रहे। इस बेतरह कूटे गए थे कि वापस इधर आने की स्थिति में भी नहीं रह गए थे, तो वहीं मान सम्मान बेचकर, लात-जूते खाते पड़े रहे, अपनी महिलाओं का बलात्कार होते देखते रहे। बर्बर अत्याचारों से ख़ुद को कुछ तो बचा लें यह सोच कर शातिर मोहाज़िरों ने अपनी क़ौम का वही पुराना तरीक़ा अपनाया, झुण्ड बड़ा करो। फिर यह सभी वहाँ कराची शहर में इकट्ठा हो गए। आज लगभग सभी मुहाजिर वहीं रहते हैं। 

झुण्ड बड़ा करने पर भी इन मुहाजिरों पर हमले बंद नहीं हुए तो इन सबने अपने अब्बा के ही टुकड़े करने की ठान ली, अलग मुहाज़िरिस्तान देश बनाने को संघर्षरत हो गए, अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली, दशकों से लड़ते चले आ रहे हैं। नाकेबंदी होने पर इनका नेता अल्ताफ भाग खड़ा हुआ, इंग्लैण्ड में बैठा वहीं से लड़ाई जारी रखे हुए है। लेकिन यहाँ के जेहादी उसी आतंकी पाकिस्तान के लिए पाकिस्तान पाकिस्तान, दिल में है पाकिस्तान कहकर छाती पीटते, देश के फिर से टुकड़े करने के लिए जीजान से लगे हुए हैं। गज़वा ए हिन्द का ख़्वाब लिए नित नए देश विरोधी षड्यंत्र में जुटे रहते हैं। 

मेरे प्यारे सनातनियों इसे आप उन जेहादियों का दिवा-स्वप्न समझने की भयावह भूल करने की ग़लती दुबारा न करना। यह भूल करने से पहले ज़रा अँग्रेज़ों द्वारा खड़ी की गई कांग्रेस पार्टी, कांग्रेसियों द्वारा दिलाई गई छद्म स्वतंत्रता का समय याद कर लेना। किस तरह कांग्रेस की सत्ता-लोलुपता के चलते ये जेहादी देश की पीठ में छूरा घोंपने, विश्वासघात करने में सफल हुए। लाखों सनातनियों की नृशंस्तापूर्वक हत्या की गई, बलात्कार किया गया। आदि काल से अक्षुण्ण बना रहा अपना सनातन राष्ट्र खंडित हो गया। 

क्या आप-लोग भूल गए तब गिरगिट चाल-चलन वाला दुनिया का यह सबसे मक्कार देश पाकिस्तान बन गया? और फिर इसी गिरगिट ने स्वतन्त्रता के समय ही क़बाईलियों के वेश में अपने सैनिकों को भेज कर आक्रमण किया। 

उस समय जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने जिन जेहादियों पर विश्वास करके उन्हें अपनी सेना में रखा था, ऊँचे पद दिए थे, वे सब गद्दार निकले। सारे आस्तीन के साँप राजा को धोखा देकर गिरगिटों से जा मिले। और आधे से ज़्यादा कश्मीर पर मक्कार देश पाकिस्तान का क़ब्ज़ा करवा दिया। 

विवश होकर राजा ने भारत में शामिल हो सहायता माँगी, भारत की सेना गिरगिटों को कुचलती हुई तेज़ी से उनके क़ब्ज़े से शेष कश्मीर छीनने लगी कि, तभी नेहरू ने शीर्ष सैन्य अधिकारियों, सभी विपक्षी नेताओं के बार-बार मना करने पर भी उचित समय से पहले ही युद्ध-विराम घोषित कर दिया, फिर सारे देश के मना करने पर भी मामले को संयुक्त राष्ट्र में लेते गए। 

पूरे मामले को ऐसा उलझाया कि राष्ट्र को सदैव के लिए एक रिश्ता घाव दे गए। ऐसा घाव कि सात दशक बीत जाने के बाद भी नर-पिशाचों के हाथों रोज़ ही निर्दोष राष्ट्रवादी सनातनी मारे जा रहे हैं। इस घाव को ठीक करने के प्रयासों में देश का प्रतिवर्ष खरबों रुपया बर्बाद हो रहा है। सैकड़ों सुरक्षा-कर्मी वीर-गति को प्राप्त हो रहे हैं। 

लेकिन यथार्थ तो यह भी है न कि अपना ख़ून, अपने लोग आख़िर अपने ही होते हैं। वह बड़े से बड़े षड्यंत्रों, नर-पिशाचों, ख़ूनी भेड़ियों की धमकी से भी नहीं डरते, उसके सामने नहीं झुकते। तो जब मेरे परिवार, मेरे पति को पता चला तो वो सारी धमकियों को दरकिनार कर प्राणों को हथेलियों पर लिए हुए दौड़े चले आए। 

उनकी आँखों में क्रोध की ज्वाला धधक रही थी। उनमें ख़ून के आँसू भी थे, जो पत्नी के क्षत-विक्षत शव के टुकड़े देख कर पत्थर बन गए। उन्होंने कलेजा पत्थर का करके मेरे पार्थिव शरीर के एक-एक टुकड़े इकट्ठा किए। कुत्तों ने खींच-खींच कर उन्हें काफ़ी बड़े एरिया में फैला दिया था। 

मेरे निडर बहादुर पति मेरे टुकड़े लेकर अंतिम संस्कार करने के लिए श्मशान घाट पहुँचे। लेकिन जंगली, गँवार लुटेरे, हत्यारे नर-पिशाच वहाँ भी पहुँच गए। वह अंतिम संस्कार भी नहीं करने देना चाहते थे। बड़ी बातचीत के बाद दरिंदे धमकी देकर चले गए। 

आप ज़रा कल्पना कीजिए, सोचिए मेरे पति ने उस भयानक ख़तरनाक स्थिति में किस प्रकार मेरा अंतिम संस्कार किया होगा। धमकी के कारण अंतिम संस्कार के लिए आवश्यक एक भी सामान किसी ने नहीं दिया। अंतिम वस्त्र भी नहीं मिला। 

मेरे पति अपने जिन कपड़ों को उतार कर, उसमें भरकर मेरे टुकड़े श्मशान तक ले आए थे, वही मेरे अंतिम वस्त्र थे। जब मेरा ऐसा महान पति आँखों में अंगारे लिए मेरा अंतिम संस्कार कर रहा था, तो मैं गर्व के साथ उनके आस-पास बनी रही और अपने प्रभु को धन्यवाद देती रही कि, ऐसा महान पति मुझे दिया। मैंने ईश्वर से यह भी प्रार्थना की, कि मेरा पति, परिवार के सभी सदस्य सुरक्षित और सुखी रहें। मुझे हर जन्म में पति रूप में यही पुण्यात्मा मिले। 

मेरे अंतिम संस्कार के बाद मेरे पति, मेरी सास, बच्चों को लेकर रातों-रात सुरक्षित स्थान को निकल गए। क्योंकि ख़ूनी नर-पिशाच भेड़ियों ने अगले दिन मेरे पूरे परिवार का अपहरण कर, उन्हें उसी चौराहे पर लाकर, ज़िन्दा जला देने की योजना बनाई थी, जहाँ मेरे शव के टुकड़े फेंके गए थे। 

पुलिस प्रशासन से किसी सनातनी को किसी प्रकार की सुरक्षा का कोई प्रश्न ही नहीं था। क्योंकि सारे जिहादी ख़ूनी भेड़िये तो उनके सम्माननीय दामाद थे। 

जब मेरे टुकड़े किए गए थे, तब मैं मात्र तेईस चौबीस वर्ष की थी। और मेरी बेटी चार साल और बेटा दो साल का था। फूल से प्यारे मेरे ये दो बच्चे थे। और मेरी ही तरह बड़े जीवट वाले मेरे पति छब्बीस वर्ष के। और मेरे बच्चों को ऊँगली पकड़ कर चलना, बोलना सिखाने वाली मेरी बुज़ुर्ग माँ, जिनका आशीर्वाद सदैव हम पर बरसता रहता था। अपने इस छोटे से परिवार का भरण-पोषण हम-दोनों पति-पत्नी मिलकर कर रहे थे। 

तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकार के षड्यंत्र, मूर्खताओं और उससे ज़्यादा सनातनियों के प्रति घृणा, उपेक्षा के चलते निर्द्वन्द्व पागल जानवरों की तरह विचरते इन जिहादियों के कारण महर्षि कश्यप का यह कश्मीर राज्य पिछले तीस बरसों से बर्बादी के रास्ते पर पहले से और ज़्यादा तेज़ी से चलता चला जा रहा था। आर्थिक गतिविधियाँ, नौकरियाँ सब चौपट हो रही थीं। धारा तीन सौ सत्तर, पैंतीस ए हटने, स्थितियाँ सच में सुधारने के ईमानदार प्रयासों के बाद अब परिवर्तन होता ज़रूर दिख रहा है, लेकिन पहले बेरोज़गारी, भुखमरी इन जिहादियों की ही तरह हर तरफ़ थी। 

जो नौकरियाँ थीं वो ढूँढ़-ढूँढ़ कर जिहादियों को ही दी जाती थीं। काफ़िर कितना भी पढ़ा-लिखा हो, कितनी भी बड़ी डिग्री उसके पास हो, उसके लिए राज्य में कोई भी नौकरी नहीं थी। किसी भी सरकारी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिल सकता था। अति तो यह थी कि नेहरू और कांग्रेसियों के प्रिय वहाँ के जेहादी शासकों ने जो दलित भाई वहाँ पहले से थे, उनके आलावा देश के अन्य हिस्सों से वहाँ की सफ़ाई व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए उन्हें बड़े-बड़े प्रलोभन देकर पहले बुलाया, जब वो आ गए तो कही गई सारी बातों से मुकर गए। 

उन्हें धोखा दिया। वापस जाने भी नहीं दिया। सारी गंदगी की सफ़ाई के बदले उन्हें सिर्फ़ इतना ही दिया जाता कि वो ज़िंदा भर रहें, और सफ़ाई व्यवस्था चलती रहे। इतना ही नहीं, इससे ज़्यादा क्रूर अमानवीय व्यवहार यह किया गया कि वो या उनके बच्चे कितना भी पढ़-लिख लें, चाहे पीएच.डी. कर लें, फिर भी वे सफ़ाईकर्मीं ही बनेंगे, उन्हें सफ़ाई ही करनी है। और वो राज्य में कहीं भी न ज़मीन ख़रीद सकते थे, न मकान ले सकते थे, झुग्गी-झोपड़ी ही में कहीं इधर-उधर सड़क किनारे रह सकते थे, किसी भी स्तर का चुनाव न वो लड़ सकते थे, न ही मतदान कर सकते थे। 

वो इन्हें जन्म-जन्मांतर तक सफ़ाईकर्मी ही बनाए रखने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। अपने दलित भाइयों के साथ यह क्रूरतम घिनौना अत्याचार बंद तब हुआ जब पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को तथा-कथित स्वतन्त्रता के बाद प्रधान-मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक झटके में पाँच अगस्त दो हज़ार उन्नीस को कश्मीर को रिश्ता घाव बनाने वाले नेहरू, उनके सर्वप्रिय शेख़ अब्दुल्ला की देन, मानवता को रक्त-रंजित करने, शेष बचे कश्मीर को भी देश से अलग करने वाले टूल धारा तीन सौ सत्तर को समाप्त कर कचरे के ढेर में डाल दिया। 

आप लोगों ने देखा ही कि गृहमंत्री अमित शाह और मोदी ने जेहादियों, उनके आक़ा कांग्रेसियों की ऐसी नाकेबंदी की, कि घरों से इनकी रूह भी बाहर निकलने को कौन कहे खिड़कियों की झिरी से बाहर देख भी नहीं सकीं। 

ऐसी क़बीलाई व्यवस्था के बावजूद मैं पति और अपनी अथक मेहनत से कुपवाड़ा के त्राहगाम में संयोगवश ही एक कन्या विद्यालय में प्रयोगशाला सहायिका के रूप में नौकरी कर रही थी। मेरा या मेरी ही तरह किसी भी सनातनी का किसी भी पद पर नौकरी करना इन जिहादियों को फूटी आँखों नहीं सुहाता था। 

यह बात इन नर-पिशाचों को भटकटैया या सेही के काँटों की तरह पूरे बदन में चुभती है कि वो कश्मीर में बहुसंख्यक हैं, लेकिन नौकरी में कोई काफ़िर बैठा है। इन नर-पिशाचों से कोई यह नहीं पूछता कि पढ़ाई-लिखाई तो तुम लोगों के लिए गुनाह है। घृणा का विषय है। क़्बीलाई सोच के इन लोगों का तो आदि-काल से ही शिक्षण संस्थानों, किताबों को जलाने, नष्ट करने का इतिहास रहा है। सदियों पहले तक्षशिला, नालंदा विश्व-विद्यालयों को जलाने से लेकर आज तक ये लोग यही तो करते आ रहे हैं। 

अवसर पाते ही कभी ज्ञान-शिक्षा का भी केंद्र रहे, पृथ्वी के स्वर्ग इस राज्य के छोटे-छोटे विद्यालयों को भी धारा तीन सौ सत्तर हटाए जाने से पहले जला रहे थे, नष्ट कर रहे थे, प्राकृतिक सौंदर्य के इस अनुपम क्षेत्र को नर्क ही बनाते जा रहे थे। 

अपनी औरतों, बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर घरों में जानवरों की तरह आज भी क़ैद रखते हैं। ऐसे में नौकरी इन जैसे गँवारों, हत्यारों को कैसे मिल सकती है। शासन में बैठे इनके सारे ससुर लोग सभी नियम क़ायदे तोड़कर नौकरी दे भी दें तो इन्हें क़लम तक तो पकड़ने का शऊर नहीं है। कार्यालय में करेंगे क्या? 

ये जाहिल जिन हथियारों के दम पर निर्दोष लोगों का ख़ून बहाते हैं, वह सारे हथियार भी तो काफ़िरों के बनाए हुए होते हैं। अपने झुंड की ताक़त बढ़ाने के लिए राइफ़ल की गोली तक तो बना नहीं सकते। इनकी ऐसी हैसियत ही नहीं है। यहाँ ख़ासतौर से कश्मीर घाटी में नर-पिशाचों के झुंड के झुंड घूमते थे। यह अपने समुदाय में देव-दूतों की तरह सराहे, पूजे जाते थे। पूजे आज भी जाते हैं। इन जेहादियों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाता है। झुण्ड के सारे लोग उनका माथा, हाथ चूमते हैं। 

जन्म-जन्म के क्रूर हैवान इन दरिंदों का एकमात्र उद्देश्य है सनातन संस्कृति, सनातनियों का पूर्ण-रूपेण सर्व-नाश। पूरे सनातन राष्ट्र भारत को जेहादियों का राष्ट्र बनाना। जिसमें जेहादियों के झुण्ड के अलावा कोई और नहीं रहेगा। इन गँवार, कृतघ्न, पीठ में छूरा भोंकने वालों से मैं यह पूछना चाहती हूँ कि, जब तुम्हें दुनिया में कहीं भी खड़े होने की भी जगह नहीं मिल रही थी, मक्का मदीने में भी मस्जिद नहीं बना पा रहे थे तो इसी पवित्र सनातन भूमि ने तुम्हें गिड़गिड़ाते देख तुम पर दया की, तुम्हें शरण दी, तुम्हें जीवन दिया। 

इसी सनातन भूमि, सनातन राष्ट्र के सनातनी राजा चेरामन पेरूमल ने केरल के कोडुनगल्लूर में पहली मस्जिद बनाने के लिए न सिर्फ़ जगह दी, बल्कि उसे पूरा बनवाया भी। क्योंकि तुम तो ख़ाली हाथ भिखारियों की तरह भीख माँगते हुए आए थे। तुम पर उनकी दया के कारण ही मस्जिद का नाम उनके नाम पर चेरामन जुमा मस्जिद रखा गया। 

इनके पास वास्तु-कला नाम की कोई विद्या तो थी नहीं, तो वहीं स्थित अराथली मंदिर जैसी ही मस्जिद है। इनके पास मस्जिद के लिए कोई निश्चित तौर-तरीक़ा नहीं था, इसलिए मंदिर की ही नक़ल कर ज्योति जलाई। यह ज्योति आज भी वहाँ जलती रहती है। इस पवित्र सनातन देश के हम सनातनियों ने इन्हें बैठने, जीवन जीने की सुविधाएँ दीं, तो भी इन सबने अपनी प्रकृति के चलते ही इस सनातन देश की पीठ में छूरा ही घोंपा। 

देश को बड़े कूटनीतिक, रणनीतिक ढंग से मस्जिदों, मदरसों, मज़ारों, क़ब्रिस्तानों से पाट दिया है। देश के ही कुछ गद्दारों के साथ मिलकर देश को बाँट दिया। मस्जिद, मज़ार, मदरसे, क़ब्रिस्तान इनके लिए एक हथियार हैं, ज़मीन क़ब्ज़ाने और देश को बाँटने के। 

ये दुनिया के हर देश में इसी हथियार का प्रयोग कर आगे बढ़ते जा रहे हैं। ये मस्जिद नहीं रणनीतिक रूप से एक क़िला तैयार करते हैं। इन्हीं मज़ारों, मस्जिदों के सहारे रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण चौराहों, रेलवे, बस स्टेशनों, सरकारी बिल्डिंगों के पास अपनी मज़बूत पैठ बनाते चले आ रहे हैं। 

हे मेरे प्रिय परिजन हमें लगता है कि हमारी तरह आप लोग भी अब भी गहरी नींद सो रहे हैं। ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अब भी आप लोग अँग्रेज़ों की जिस कांग्रेस पार्टी को सिर-आँखों पर बिठाए हुए हैं, उसे वोट दे-दे कर ज़िंदा किये हुए हैं, उसे शुरू में ही जब लगा कि इस सनातनी देश के इस्लामीकरण की गति बहुत धीमी है, ऐसे तो हम लोगों के सर्वनाश में बहुत लम्बा समय लगेगा, तो कांग्रेसी प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्नीस सौ चौवन में ही जेहादियों के हाथों में वक्फ़-बोर्ड नाम का एक ऐसा हथियार पकड़ा दिया कि देश के इस्लामीकरण की गति सौ गुनी से भी ज़्यादा तेज़ हो गई। 

देश, सनातनियों के साथ किस तरह गद्दारी हुई यह देखिये कि कांग्रेस ने पहले तो धर्म के नाम पर देश के टुकड़े किये, पड़ोस में एक आतंकी देश बना दिया। उस आतंकी देश का जेहादी जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाक़त अली अपने देश, अपनी क़ौम के प्रति इतने वफ़ादार थे कि उनके हितों की रक्षा के लिए हर साँस में सोचते ही नहीं बल्कि कोशिश भी करते रहते थे। उन्होंने देखा कि जो जेहादी भारत की पीठ में छूरा घोंप-घोंप कर पाकिस्तान आ रहे हैं, उनकी सम्पत्ति तो वहीं छूटी जा रही है। 

भारत के इन गद्दारों की सम्पत्ति बचाने के लिए वो तुरंत सक्रिय हो गए। बात शुरू होते ही नेहरू ने उन्नीस सौ पचास में लियाक़त से ‘लियाक़त-नेहरू’ संधि कर ली। यह तय हुआ कि दोनों देशों में विस्थापितों का अपनी सम्पत्ति पर अधिकार बना रहेगा। वे जब चाहें अपनी सम्पत्ति बेच सकेंगे। समझौता करते ही नेहरू ने देशवासियों को कठोर सन्देश दिया कि कोई भी देश छोड़ कर गए मुसलमानों की सम्पत्ति को हाथ नहीं लगाएगा अन्यथा कठोर कार्यवाई की जाएगी। 

देश में तो नेहरू ने जेहादियों की एक-एक सम्पत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित कर दी, लेकिन पाकिस्तान में देखते-देखते सनातनियों की सारी सपत्तियाँ जेहादियों ने लूट ली, जो बची वो सरकार ने क़ब्ज़ा लीं, अपनी योजना सफल होने पर जेहादी लियाक़त अट्टहास लगाता रहा। सनातनियों की सम्पत्ति लूट पर नेहरू को संधि याद दिलाई जाती तो वो अचकन की तीसरी बटन होल में गुलाब लगा कर पाइप पीते रहे। और सोचते भी रहे कि ऐसी कौन सी व्यवस्था की जाए कि जेहादियों की सम्पत्तियों की न सिर्फ़ स्थायी रूप से सुरक्षा सुनिश्चित हो सके बल्कि वो दिन दूना रात चौगुना फूले फलें भी। 

फिर उन्नीस सौ चौवन में दुनिया का सबसे शातिर, कुटिल, अन्यायपूर्ण काला क़ानून वक्फ़ बोर्ड का छूरा नेहरू ने हम सनातनियों की पीठ में घोंप दिया। यह एक ऐसा क़ानून है कि जेहादियों ने सपत्तियों की लूट खसोट मचा दी और हम सनातनी लुटते रहे लेकिन क़ानूनी रूप से भी कुछ नहीं कर सके क्यों कि हमें अधिकार ही नहीं है, और जेहादी, नेहरू की मनसा के अनुरूप दिन दूना रात चौगुना बढ़ते रहे। फिर भी हम मूर्ख सनातनी हमारा सर्वनाश करने को प्राणप्रण से जुटे नेहरू, उसकी कांग्रेस को आजीवन चुन-चुन कर गद्दी पर बिठाते रहे। वो जब चले गए तो भी उनकी पार्टी और वंशजों को ढोते आ रहे हैं, और वो हमारी ही ताक़त पर हमें मिटाने में जुटे हुए हैं। 

हम फिर भी सोए हुए हैं, समझ ही नहीं रहे हैं और नेहरू वंशजों, कांग्रेसियों ने इधर जब देखा कि समय बीतते-बीतते चालीस वर्ष हो गए, लेकिन उनकी अपेक्षा के अनुरूप देश का पूर्ण इस्लामीकरण नहीं हो पाया है तो राष्ट्र-घाती वक्फ़ बोर्ड क़ानून को उन्नीस सौ पिचानवे में संशोधित कर और विषैला, और पैना बना दिया। अब बोर्ड जिस भी ज़मीन, प्रॉपर्टी को अपना कह देती है वह उसी की हो जाती है। 

स्थानीय प्रशासन की अनिवार्य ज़िम्मेदारी होती है कि वह प्रॉपर्टी का क़ब्ज़ा लेकर उसे बोर्ड को सौंप दे। जिसकी प्रॉपर्टी पर बोर्ड दावा कर देता है, अब उसकी ज़िम्मेदारी है कि वो प्रमाणित करे कि प्रॉपर्टी उसी की है। और प्रमाणित उसी बोर्ड के ट्रिब्यूनल में ही करना है। यानी जो लुटेरा, डकैत आपकी प्रॉपर्टी लूट कर क़ब्ज़ा किये बैठा है, उसी से चिरौरी करनी है, प्रमाण देना है कि वह आपकी है। डकैत कब मानेगा कि उसने डकैती डाली है। यानी आपकी प्रॉपर्टी आपको कभी नहीं मिल सकती। 

अंधेरगर्दी इतनी ही नहीं है, हम लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में अपील भी नहीं कर सकते। अब-तक जो भी ऐसे लोग कोर्ट पहुँचे उन्हें कोर्ट ने क़ानूनी विवशता का हवाला देकर डकैत के पास ही भेज दिया, हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक ने। 

बोर्ड के ट्रिब्यूनल को कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर रखा है क्योंकि वक्फ़ बोर्ड क़ानून के सेक्शन पिचासी में यह सख़्त व्यस्था है कि ट्रिब्यूनल के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकती, यानी वक्फ़ के सामने कोर्ट भी बौनी है। दुनिया के किसी मुस्लिम देश में भी ऐसा घिनौना, निर्लज़्ज़ता भरा नीच दानवतावादी क़ानून नहीं है। 

लेकिन मेरे प्यारे सनातनी परिजन सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि आप संख्या में सवा अरब से भी ज़्यादा है, पढ़े-लिखे हैं, सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर, या सूचना का अधिकार नियम 2005 के तहत उनसे पूछ सकते हैं कि, हे देश के न्यायमूर्तियो यह बताइये कि, किसान क़ानून, जलीकट्टू और अभी हाल ही में मेवात नूंह में भगवान शिव की पूजा-आराधना करने गए सनातनियों पर, जब जेहादियों ने हमला कर उनकी हत्याएँ कीं, बलात्कार किया, मारा-काटा, थाना सहित सैकड़ों गाड़ियाँ फूँक दीं, पूरे क्षेत्र की ऐसी नाकेबंदी की, कि सुरक्षा-बलों को एयर-लिफ़्ट कर पहुँचाया गया, और जब सो कर जागी उस प्रदेश की सरकार ने हत्यारे जेहादियों के विरुद्ध कार्यवाई शुरू की, तो आपने स्वतः संज्ञान ले, घर पर ही आधी रात को कोर्ट लगा कर, कार्रवाई रोक दी। 

लेकिन इस काले लुटेरे डकैत क़ानून जिसे कांग्रेस ने आपके भी सिर पर बैठा दिया है, उसके सामने आपकी भी हैसियत एक दीन हीन याचक की ही बना दी है, पर स्वतः संज्ञान लेकर इस अमानवीय क़ानून को समाप्त करने के लिए सरकार को निर्देशित क्यों नहीं करते। इसे सवा अरब से ज़्यादा सनातनियों के अलावा ईसाईयों अन्य सभी और ख़ुद आपके साथ भी न्याय की अवहेलना नहीं तो और क्या कहेंगे? 

हे सनातनियों अभी तक नहीं किया तो अब तो जाग जाईये, अब तो करिये, क्योंकि इतना ही नहीं और भी ज़्यादा ऐसे घिनौने कुकर्म इस काले क़ानून की आड़ में हो रहे हैं जिसके शिकार कई मुस्लिम भी हो रहे हैं। नहीं जानते तो थोड़े में वह भी जान लीजिये। आँखें खुली की खुली रह जाएँगी। देश में जो एक सेन्ट्रल और बत्तीस स्टेट वक्फ़ बोर्ड हैं ये क़ब्रिस्तान या उसकी बाऊंड्री, मस्जिद, मज़ारों आदि को बनाते हैं, फिर आस-पास की अन्य ज़मीनों, मकानों आदि को भी वक्फ़ की बता कर लूट लेते हैं। 

जो सनातनी, ईसाई आदि कभी बड़ी-बड़ी प्रॉपर्टी के मालिक रहे, वो अपनी प्रॉपर्टी के वक्फ़ घोषित होते ही क्षण में भिखारी बन जाते हैं। इस क़ानून के सहारे लैंड जिहाद ही नहीं, पूरे देश में धर्मान्तरण जिहाद भी व्यापक पैमाने पर चल रहा है, और आप लोग न सिर्फ़ सो रहे हैं, बल्कि जब आपका कोई भी भाई इस नेहरुवियन कांग्रेसी ब्रेन चाइल्ड डकैत का शिकार बनता है, तो बजाय सब मिलकर उसकी मदद करने के अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। स्वयं को घरों में बंद कर अपनी दुनिया में खो जाते हैं। अरे जागिये, सब एकजुट हो सामने आइये, क्योंकि अगर नहीं जागे तो एक दिन यह सब आपके साथ भी होना तय है। 

होता क्या है कि ये किसी भी की प्रॉपर्टी को वक्फ़ प्रॉपर्टी घोषित कर देते हैं, विवश वह आदमी जब डकैत के पास पहुँचता है तो उससे कहा जाता है मुस्लिम बन जाओ तो छोड़ देंगे, यहाँ तक कि औरतों का शारीरिक शोषण, पैसों की वसूली भी करते हैं। कहते हैं की इस्लाम क़ुबूल कर लो। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर आदि के राज्यों में यह सबसे ज़्यादा हो रहा है। देखते-देखते देश मस्जिदों, मदरसों, मज़ारों से पट गया है। 

प्रिय सनातनियों हमारी आँखें यह देख-सुन कर भी नहीं खुल रही हैं कि संशोधन के बाद मात्र तेरह वर्षों में ही वक्फ़-बोर्ड की ज़मीन क़रीब तीन गुना से ज़्यादा हो गई। हम सनातनियों की ही लूटी यह ज़मीन इतनी ज़्यादा है कि आज देश में रेलवे, सेना के बाद सबसे ज़्यादा ज़मीन डकैत बोर्ड के पास है। हज़ार दो हज़ार एकड़ नहीं क़रीब नौ लाख एकड़, इतनी ही सम्पत्तियाँ हैं। 

जबकि दो हज़ार नौ में केवल चार लाख एकड़ थी। दूसरी तरफ़ सेना के पास अठारह लाख और रेलवे के पास केवल बारह लाख एकड़ है। यह लूट ऐसे ही चलती रही तो ज़्यादा नहीं तीन चार साल में इनसे भी ज़्यादा ज़मीन बोर्ड के पास होगी। और एक दिन यह पूरा देश और आप सब सनातनी लोग भी वक्फ़ बोर्ड की प्रॉपर्टी होंगे। उसके ग़ुलाम होंगे। 

मुझे आश्चर्य हो रहा है कि पूरा का पूरा गाँव, क़स्बा ही वक्फ़ की प्रॉपर्टी कह-कह कर लूटा जा रहा है, और हम लुटते जाने के बावजूद सो रहे हैं। वो पूरा गाँव अपने रजिस्टर में दर्ज़ कर जश्न मनाते हैं कि मूर्ख काफ़िरों को ऐसे लूटा कि उन्हें ख़बर तक नहीं। सच है भी यही। 

आज भी सौ, हज़ार नहीं, दसियों लाख सनातनियों में से किसी एक को ही तिरुचि ज़िला, तमिलनाडु के तिरुचेंथुरई गाँव की लूट का पता होगा कि वक्फ़ बोर्ड ने इस पूरे गाँव को ही वक्फ़ प्रॉपर्टी दर्ज कर रातों-रात सारे सनातनियों को अवैध क़्ब्ज़ेदार बना दिया, ख़ुद मालिक बन बैठा। 

उसकी अंधेरगर्दी निर्लज्जता और प्रशासन की नपुंसकता देखिये कि गाँव स्थित डेढ़ हज़ार साल पुराने “मानेदियावल्ली चंद्रशेखर मंदिर“और उसकी छह सौ उनहत्तर एकड़ ज़मीन को भी वक्फ़ प्रॉपर्टी दर्ज़ कर दिया, सरकार भी जाहिलों से नहीं बोली कि मूर्खों तुम्हारा इस्लाम तो मात्र चौदह सौ साल पहले आया, मंदिर तो पंद्रह सौ साल पुराना है, फिर वह कहाँ से तुम्हारा हो गया। 

गाँव वालों, देश को इस निर्लज्जतापूर्ण लूट का पता तब चला जब वहाँ का एक सनातनी राजगोपाल अपनी ज़मीन बेचने रजिस्ट्रार ऑफ़िस गया तो उससे कहा गया कि पूरा गाँव ही वक्फ़ का है, इसलिए नहीं बेच सकते। जबकि गाँव की एक-एक इंच ज़मीन गाँव के लोगों के नाम दर्ज है। देखा प्रशासन की नपुंसकता कि पूरा गाँव ही लूट लिया गया लेकिन उसने गाँव को भनक तक नहीं लगने दी। 

अपने साथ हो रहे भयानक भेद-भाव अन्याय की एक बानगी और देखिये कि हम सनातनियों को तो हमारे धार्मिक कार्यों के लिए सरकारी ख़जाने से एक पैसा नहीं मिलता, लेकिन वक्फ़ बोर्ड द्वारा देश में व्यापक स्तर पर लूट के बावजूद उसको केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा एक विशाल धनराशि हर साल अनुदान के रूप में प्रदान की जाती है। 

जैसे इतना ही काफ़ी नहीं था। अभी चंद बरस पहले ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक जेहादी को ईमानदार, न्यायप्रिय समझते हुए मंत्री बनाया गया, उसने अपनी क़ौम के प्रति वफ़ादारी और अपनी फ़ितरत प्रदर्शित करते हुए बड़ी होशियारी चालाकी से नियम बना दिया कि वक्फ़ बोर्ड अपनी ज़मीन पर मस्जिद, हॉस्पिटल, स्कूल आदि जिसका भी निर्माण करेगा उसका सारा ख़र्च सरकार देगी। 

उसकी इस धूर्तता, गद्दारी का पता चलते ही उसे मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया। लेकिन वह अपना काम कर चुका था। सनातनियों के सर्वनाश के लिए जेहादियों के हथियार को और सुदृढ़ कर चुका था। अब सही तो तब होगा जब यह नियम समाप्त कर, दी गई सारी धनराशि वापस ली जाए। 

लेकिन यह सम्भव दिखता नहीं। क्योंकि गाँधी, नेहरू उनकी कांग्रेस ने वोट की राजनीति के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण की जो राष्ट्रघाती विषबेल बोई थी, उसने काफ़ी पहले ही पूरे राष्ट्र को ढँक रखा है। कोई भी राजनीतिक पार्टी वोट की क़ीमत पर कोई भी निर्णय लेने से कतराती है। 

आपके साथ हो रहे घोर अन्याय, भेदभाव की यह आख़िरी इबारत नहीं, इसलिए इसी से जुड़ी एक और घातक बात बताती हुई आगे बढूँगी। वक्फ़ बोर्ड में सारे सदस्य मुस्लिम ही होंगे। एक मामूली सी फ़र्ज़ी मज़ार भी सरकार के नियंत्रण में नहीं है, न ही कहने को भी इनसे एक पैसा सरकार ले सकती है, लेकिन हम सनातनियों के मंदिर सरकार के नियंत्रण में हैं, सारी आय सरकार लेती है, जो कर्ता-धर्ता होते हैं, उनमें मुस्लिम भी होते हैं। 

दुनिया में ऐसा नीचतापूर्ण अन्याय केवल सनातनियों के साथ हुआ, और एक सनातनी ही हैं, जिन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, इसलिए वो चुप थे, चुप ही हैं। कमज़ोर और समाप्त होते जा रहे हैं। अब आप अगर यह समझते हैं कि बस इतना ही हो रहा तो फिर भ्रम में जी नहीं सो रहे हैं। ये देश, समाज विरोधी गतिविधियाँ यहाँ से भी बराबर चलाते रहते हैं। 

मज़ारों, मस्जिदों, क़ब्रिस्तानों की बात तब-तक अधूरी है, जब-तक दुनिया-भर में ख़ून-ख़राबा करने के लिए जेहादियों के झुण्ड तैयार करने वाले इनके मदरसों का उल्लेख न हो। ये मदरसे जेहादियों की उत्पादन फ़ैक्ट्री हैं। ये लोग वो हैं जो दुनिया में न किसी व्यक्ति, न किसी देश के हो सकते हैं। पीठ में छूरा घोंपना इनके गुण-सूत्र में है। वक्फ़बोर्ड जैसी व्यवस्थाएँ इनकी ऊर्जा का अक्षय स्रोत हैं। 

हम सनातनियों की पीठ में जब विश्वासघाती कांग्रेस ने एक और विषबुझा छूरा “उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, १९९१” घोंपा तब भी हम सनातनियों ने उफ़ तक नहीं की। जबकि हम सनातनियों के लिए यह क़ानून भी वक्फ़ बोर्ड क़ानून की तरह विभेदकारी, घातक, हमारी संस्कृति, हमें नष्ट करने का रास्ता साफ़ करता है। 

हुआ क्या कि जब कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्री राम मंदिर तोड़कर बनाए गए विवादित ढाँचे को हटा कर, राम मंदिर की पुनर्स्थापना के लिए सनातनी समाज को जागृत होते, क़ानूनी रूप से संघर्ष करते देखा, तो उसने सारे हथकंडे अपनाए कि सनातनी सफल न हों। सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर कहा कि राम काल्पनिक थे। यह स्थापित करने के लिए न्यायालय में कट्टर सनातनी शत्रु अपने अधिवक्ताओं की फ़ौज उतार दी। राम काल्पनिक हैं अपना यह कुटिल झूठ समाज में स्थापित करने के लिए अपनी प्रचारक टीम को लगा दिया। 

संतोष उसे इससे भी नहीं हुआ तब वह ऐसी व्यवस्था करने के लिए प्राण-प्रण से जुट गई, जिससे सनातनी राम मंदिर तो क्या, अपने उन किसी भी मंदिर को वापस पाने की सोच भी न सकें जिन्हें बाहरी बर्बर जंगली आतताइयों ने तोड़े, भ्रष्ट किये, उनका स्वरूप परिवर्तित कर मस्जिद बना दिया। अनगिनत मंदिरों पर क़ब्ज़ा किया हुआ है। 

अपनी इसी कुत्सित योजना के तहत उसने “उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, १९९१” बनाया, इसके लागू होने बाद सनातनी लोग अपने ऐसे किसी भी मंदिर को वापस पाने का प्रयास क़ानूनी रास्ते से भी नहीं कर सकते। उलटे किसी भी रूप से उल्लंघन करने पर तीन वर्ष की सजा, जुर्माना भी हो सकता है। कांग्रेस ने यह क़ानून लागू कर दिया लेकिन इसका विरोध करने को कौन कहे हम अब भी सो रहे हैं। इस अन्यायी क़ानून का विरोध तक नहीं करते। 

हम सनातनियों के चुप रहने, प्रतिक्रिया न करने से हमारा सर्वनाश करने को तुली कांग्रेस इतनी उत्साहित हो उठी कि हमारे एकतरफ़ा दमन के लिए एक ऐसा क़ानून बनाने लगी, जैसा क्रूर अमानवीय दमनात्मक क़ानून अँग्रेज़ों ने भारत सहित दुनिया के अपने किसी भी औपनिवेशिक देश में, अपने शत्रुओं के दमन के लिए भी नहीं बनाया था। भारत में १८५७ स्वतन्त्रता संग्राम के बाद भी नहीं। ऐसा दमनात्मक क्रूर क़ानून दुनिया के ज्ञात इतिहास में किसी भी देश में आज तक बना ही नहीं। 

दरअसल कांग्रेस ने हम समस्त सनातनियों को हमेशा के लिए जेहादियों का दास बनाने की सोची। कैसे बनाये इसके लिए अँग्रेज़ों की पार्टी कांग्रेस की इटैलियन मूल की अध्यक्षा एडविग एंटोनियो अल्बीना माइनो उर्फ़ सोनिया गाँधी ने अपनी ही अध्यक्षता में एक समिति बनाई। इसमें एक से बढ़कर एक सनातन राष्ट्र, संस्कृति, सनातनियों के कट्टर विरोधियों, शत्रुओं को शामिल किया। इसमें से एक तो बाद में राष्ट्रघाती कार्यों के कारण जेल भी गई। 

इन सब ने एक ऐसा प्रारूप तैयार किया, जिसमें यह व्यवस्था थी कि कोई भी दंगा फ़साद होता है तो ज़िम्मेदार सनातनी ही होंगे। उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाई होगी, जेहादियों से कुछ भी नहीं पूछा जाएगा। 

यदि सनातनी महिला से जेहादी बलात्कार करेंगे तो उसे बलात्कार ही नहीं माना जाएगा, अर्थार्त जेहादियों के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं की जाएगी। इसके अनुसार सनातनी स्वभावतः ही हिंसक, दंगाई होते हैं, इसलिए सदैव जेहादियों को मासूम मानते हुए एकतरफ़ा कार्यवाई केवल सनातनियों के विरुद्ध ही होगी। 

यह निर्लज्ज समिति २००५ में सनातनियों का सर्वनाश करने के लिए कोई कोर कसर न रह जाए इसके लिए नौ अध्यायों, १३८ धाराओं वाला विस्तृत “सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम” लेकर सामने आती है। संसद में यह क़ानून बन जाए इसके लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाती है। 

लेकिन भारतीय जनता पार्टी के प्रबल विरोध के चलते सनातन विरोधी कांग्रेस यह कुकर्म करने में सफल नहीं हो सकी, मगर जेहादियों को ख़ुश करने के लिए कांग्रेस ने हार नहीं मानी, २०११ में फिर कोशिश की, एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी ने उसे सफल नहीं होने दिया, हम सब सनातनियों को जेहादियों का दास बनाने का कांग्रेस का षड्यंत्र विफल हो गया। 

आप लोग इस बात को अतिश्योक्ति न समझें कि सनातनियों के विरुद्ध कांग्रेसियों, जेहादियों के विश्वासघातों से इतिहास भरा पड़ा है। तथा-कथित स्वतंत्रता से कुछ बरस पहले का एक घटना-क्रम स्मरण कराती हूँ। 

कांग्रेसी, वामपंथी, मैकाले पुत्रों, इन दरिंदों से ही कुटिल और विश्वासघाती अँग्रेज़ों ने बड़ी कुटिलता-पूर्वक ऐसा झूठ लिखा, पढ़ाया, फैलाया कि हम सच की जाँच-पड़ताल किए बिना अपने देश को विभाजित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने वाले गद्दार के गीत आज भी गाते चले आ रहे हैं। 

यह लापरवाही नहीं इस सनातन राष्ट्र, सनातन संस्कृति के समूल नाश करने के प्रयासों का ही प्रतीक है कि, जिस निकृष्ट कृतघ्न आदमी ने तत्कालीन इलाहाबाद (प्रयागराज) में उन्तीस दिसंबर उन्नीस सौ तीस को मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए सबसे पहले भारत को विभाजित करने की माँग की थी, तत्कालीन भारत के बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब क्षेत्र को मिला कर पाकिस्तान बनाने की योजना प्रस्तुत की थी, और सीधी कार्यवाही के ज़रिये लाखों सनातनियों के हत्यारे नर-पिशाच जिन्ना को लीग में शामिल होने के लिए तैयार किया था, उसी मक्कार के गीत सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां . . . हम अपने राष्ट्रीय पर्वों, कार्यक्रमों में गाते रहे। 

हमारी स्मरण-शक्ति, हम, दुर्बल नहीं हैं कि, हम कांग्रेसी, वामपंथी, मैकाले पुत्रों, विश्वासघाती अँग्रेज़ों द्वारा निर्मित छद्मावरण को नष्ट-भ्रष्ट करके उस विश्वासघाती इक़बाल का वास्तविक रूप जान-समझ कर, उसके विश्वासघात के प्रतीक गीत से मुक्ति नहीं पा सकते, पवित्र वन्देमातरम गीत को जन-जन की साँसों में बसा नहीं सकते। बस एक बार जागने भर की देरी है। 

ज़रा सोचिये न जिसके पूर्वज, वो स्वयं निहित स्वार्थों के लिए अपने सनातन धर्म को ठुकरा कर क़बीलाईयों के मज़हब को स्वीकार कर सकता है, वो हमारा-आपका, देश का कैसे हो सकता था। 

सनातन कश्मीरी पंडित सहज सप्रू का पोता मुहम्मद इक़बाल जब-तक स्थितियों को अपने अनुकूल नहीं पाया, तब-तक तो तराना-ए-हिन्द ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां . . .” लिखता रहा लेकिन जैसे ही महसूस किया कि अब-तो वह मज़बूत स्थिति में आ गया है तो गिरगिट से भी तेज़ रंग बदला और तराना-ए-मिल्ली “चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा; मुस्लिम है वतन है, सारा जहाँ हमारा . . .” लिखने लगा। 

आप लोग इस भ्रम में न रहिये कि अब तो वह जन्नत में हूरों को शायरी सुना रहा है। मेरे परिजन सनातनियों इस गिरगिट से भी ज़्यादा विषैले अनगिनत गिरगिट आज भी आपके बीच बैठे हैं। पहचानिए गिरगिटों की बातों में भरे विष को। इन्हें शेरो-शायरी समझ कर वाह-वाह न करिए, तालियाँ बजा कर दरवाज़े पर खड़े ख़तरे को अनदेखा करने की आत्म-घाती भूल फिर न करिए। क्योंकि शत्रु एक बार फिर तुम्हारे देश को बाँटने के लिए कोई भी कोर-कसर छोड़ नहीं रहा है। देश में आग लगाना ही इनकी प्रकृति है। 

मेरे प्यारे सनातनियों यह सब तो तुम भी जानते देखते चले आ रहे हो, लेकिन मैं तुम्हें जगाना चाहती हूँ। बताना चाहती हूँ कि मैं कोई अकेली निरिजा टिक्कू नहीं हूँ। इस कश्मीर भूमि में अनगिनत निरिजा टिक्कू हैं। 

नहीं . . . सिर्फ़ कश्मीर ही क्यों, पूरे देश में ही देखिये न, कहीं लव-जेहादी बनकर तो कहीं साधु-संतों का वेश बना कर, चोर-उचक्के, डकैत, दंगाई बनकर ये तरह-तरह से हमले कर रहे हैं। रोज़ ही न जाने कितनी निरिजाओं को धोखे से निर्दयता-पूर्वक केवल इसलिए मार रहे हैं क्यों कि निजाम-ए-मुस्तफा लाना है। पुण्य कमा कर बहत्तर हूरों के साथ अय्याशी की व्यवस्था पक्की करनी है। 

किसी हीरो-हीरोइन के हँसने, छींकने, किसी जोकर, मंदबुद्धि नेता का अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाने, संसद में सदन की कार्यवाई के दौरान ही आँख मारने, महिला सांसदों को फ़्लाइंग किस करने जैसी मूर्खतापूर्ण बातों को मुख्य समाचार के रूप में चौबीसों घंटे चलाने वाले मीडिया, अख़बारों ने शायद ही आपको बताया हो कि कितनी निरिजा टिक्कू काटी गई हैं। 

आप लोग बबली कुमारी, सरला भट्ट को जानते हैं? नहीं ना? आप इसलिए नहीं जानते क्यों कि हमारी सुध लेने वाला अपने ही देश में कोई नहीं है। हो सकता है आपने जज नीलकंठ गंजू की क्रूरता-पूर्वक की गई हत्या के बारे में सुना हो। यह वही बहादुर देश-भक्त जज थे जिन्होंने एक देश-द्रोही गद्दार गिरगिट जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मक़बूल बँट को मौत की सजा सुनाई थी। 

नर-पिशाचों द्वारा उन पर प्राण-घातक हमला हो सकता है, यह जानते हुए भी तुष्टिकरण की मसीहा तत्कालीन केंद्र सरकार और नर-पिशाचों की ससुर राज्य सरकार गहरे षड्यंत्र के चलते आँखें मूँदे रहीं। उनकी, उनके परिवार की सुरक्षा की षड्यंत्रपूर्वक कोई व्यवस्था नहीं की। परिणामस्वरूप उनकी पत्नी की भी अपहरण करके क्रूरता-पूर्वक हत्या कर दी गई। 

लेकिन मीडिया तो मीडिया न्याय-पालिका भी मुँह सिले रही। वही न्याय-पालिका जो जलीकट्टू से लेकर, रंगोत्सव होली पर रंग खेलने, ज्योति-पर्व दीवाली पर पटाखे दगाने तक पर स्वतः संज्ञान ले लेती है। आतंकवादियों की सजा पर सुनवाई के लिए रात दो बजे भी अदालत लगा देती है। जिससे गद्दार आतंकियों के साथ कहने को भी अन्याय न हो सके। देशद्रोही आतंकियों की इतनी चिंता लेकिन हमारी . . .

वकील प्रेमनाथ भट्ट का भी क़त्ल कर दिया गया इसके अलावा वहाँ के टीवी केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या की गई। हो सकता है इनमें से किसी के बारे में आप लोगों में से कुछ ने सुना हो, क्योंकि यह महत्त्वपूर्ण लोग थे। देश के लिए अपना कर्त्तव्य निभाते हुए वीर-गति को प्राप्त हुए थे। सरकार इनके हत्यारे अपराधियों को ढूँढ़ नहीं पाई, क्योंकि वह तो उन्हें ढूँढ़ने नहीं, बचाये रखने को कृतसंकल्पित थी। 

ज़रा ढूँढ़िये कोई समाचार, कोई सूत्र ऐसा, जिससे आपको लगे कि सरकार ने कोशिश की थी। मैं कहती हूँ कि कभी नहीं ढूँढ़ पाएँगे। क्योंकि वास्तव में यह सब सरकार की मनसा, उसकी मिलीभगत से ही हो रहा था। देखिये न प्रमाण, उन्नीस सौ उन्न्यासी को तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने एक-दो नहीं सतहत्तर दरिंदे नर-पिशाचों को जेल से छोड़ दिया था कि, जाओ निजाम-ए-मुस्तफा के लिए और क़त्ले-आम करो। सनातनियों के रक्त से पूरे राज्य को सुर्ख़ कर दो। 

सरकार यदि सनातन संस्कृति, सनातनियों की हत्या, उनका सामूहिक नर-संहार रोकना चाहती तो उसी समय क़दम उठाती, जब एक राष्ट्र-वादी नेता टीका लाल टपलू की दर्जनों लोगों के सामने चौदह सितंबर उन्नीस सौ नवासी को निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई थी। यह सनातन कश्मीरियों के नर-संहार के उस दौर का प्रस्थान बिंदु था, जिसमें समयबद्ध सुनियोजित तरीक़े से हमारे संहार का नया दौर प्रारम्भ हुआ था। 

इस तरफ़ भी ध्यान दीजिये कि, बीती कुछ सदियों में कश्मीर में दिव्य सनातन संस्कृति को हर तरह से नष्ट करने के क्रम में सनातन संस्कृति को कश्मीरी संस्कृति या कश्मीरियत कहने लगे, जिससे शेष सनातन संस्कृति से हर स्तर पर इसे पृथक किया जा सके। 

हम भी इतने भोले, इतने लापरवाह कि, विश्वास-घातियों के छल-कपट पर ध्यान दिए बिना, उन दोगलों की भाषा बोलने लगे कि, हमारी कश्मीरी संस्कृति, हमारी कश्मीरियत। हमारी लापरवाही का भयावह परिणाम देखिये इन घृणित नारों के रूप में सामने आया। 

आप सब लोग तो इन नारों को ही पूरा नहीं सुन, जान पाए होंगे। इन नारों से इन नर-पिशाचों की घिनौनी मानसिकता, जानवरों से बदतर इनकी प्रवृत्ति, क्रूरता जानिए। इनसे ही आप यह जान जाएँगे कि इन घिनौने दरिंदों ने हमारे साथ कैसा-कैसा बर्बर अत्याचार किया होगा। 

इनका पहला नारा था, ‘असि गछि पाकिस्तान बटवरोअस्त बटनेव सान’ यानी कि हमें पाकिस्तान चाहिए पंडितों के बग़ैर पर उनकी औरतों के साथ। ये नर-पिशाच मस्जिदों से लाउड-स्पीकर पर सियारों की तरह चिल्लाते थे, पंडितों यहाँ से भाग जाओ पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ। 

आप लोग पूरी पृथ्वी पर इनको छोड़कर बाक़ी सभी सभ्यताओं के इतिहास में ढूँढ़ लीजिए, ऐसी घिनौनी सोच, नर-पिशाची हरकत नहीं मिलेगी। कल्पना कीजिए ज़रा उस समय की हमारी मनःस्थितियों की, समझिए जब यह दरिंदे नारा लगाते थे, 'यहाँ क्या चलेगा? निजाम-ए-मुस्तफा। ‘रालिब ग़ालिब या चालिब।’ अर्थात्‌ हमारे साथ मिल जाओ यानी इनके जैसे नर-पिशाच बन जाओ नहीं तो मरो या भागो। 

कभी हमारी सनातन भारत-भूमि पर शरण के लिए भीख माँगने वाले, गिड़गिड़ाने वाले कहते हैं, अगर कश्मीर में रहना है तो अल्लाह हू अकबर कहना होगा। ख़ुद दरिंदगी करने वाले दुनिया के सबसे घिनौने दरिंदे कहते थे, ए ज़ालिमों, ए काफ़िरों कश्मीर हमारा है।

ज़रा इन मक्कारों की धूर्तता, मक्कारी की गहराई को समझिये कि दुनिया-भर में क्रूरतम हमलों, आतंकी गतिविधियों, दूसरे धर्मावलम्बियों की जघन्यतम हत्याओं से इतिहास इनका भरा पड़ा है, लेकिन ये मक्कार हमेशा यही शोर मचाते हैं कि दुनिया के सारे दूसरे लोग ज़ालिम हैं, उन पर ज़ुल्म करते आ रहे हैं। ये पीड़ित हैं, यही स्थापित करने का प्रयास ये हर साँस में करते हैं, जिससे इनके कुकर्मों पर पर्दा पड़ा रहे। 

इन लुटेरे, मक्कारों की दरिंदगी तो आज़ादी के पहले से ही चली आ रही है, लेकिन आज़ादी के बाद जो भी सरकारें बनीं, वह इन भेड़ियों के सामने चुप रहीं, इनको शह देती रहीं, इनके दाँतों, नाखूनों को और विषैला और बड़ा होते न सिर्फ़ देखती रहीं, बल्कि इन्हें ख़ूब खिलाती-पिलाती, पालती-पोषती रहीं, वो जो, जैसा नियम-क़ानून अपनी जड़ें मज़बूत करने के लिए बनाने को कहते, उसे सारे-नियम क़ानून किनारे रख बनाते, उन्हें सिर पर बिठाते आ रहे थे। इस स्थिति पर काफ़ी हद तक विराम तब लगा जब दो हज़ार चौदह में एक सच में राष्ट्रवादी सरकार बनी, मोदी के हाथों में इस सनातनी देश की बागडोर आई। 

इतिहास से कुछ न सीखने, लापरवाह होने के चलते हम सोचते रहे कि, अरे दरिंदे अब इतने भी दरिंदे नहीं हो जाएँगे। सदियों से हमारे साथ रहते आए हैं, यह भी तो अपना घर, अपना सनातन धर्म छोड़ने से पहले इसी पवित्र भूमि की सनातनी संतान हुआ करते थे। अपने पूर्वजों की कुछ तो लाज रखेंगे ही। ‘एक्स’ सनातनी तो हैं ही, लेकिन हम ग़लत थे। 

हमें तो तभी सतर्क हो जाना चाहिए था, आँखें हमारी तभी खुल जानी चाहिए थीं, जब इन दरिंदों ने अफ़ग़ानिस्तान से उन्नीस सौ नवासी में तत्कालीन सोवियत संघ के जाने के बाद नारा दिया था, “जागो-जागो सुबह हुई, रूस ने बाज़ी हारी है, हिन्द पर लर्जन तारे हैं, अब कश्मीर की बारी है।” 

सरकारें तब भी किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रहीं, जब यह नारे लगने शुरू हुए, ‘आज़ादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्ललाह . . .’ सरकारें तब भी सोती रहीं, अनदेखी करती रहीं, जब नर-पिशाचों के संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन ने ‘आफताब’ फिर ‘अल सफा’ में आठ जनवरी उन्नीस सौ नब्बे को विज्ञापन दिया कि, सारे पंडित कश्मीर घाटी छोड़ दें। (प्यारे सनातनियों कश्मीरी पंडित का आशय केवल पंडित नहीं बल्कि समस्त सनातनी हैं) 

मस्जिदों से लाउड-स्पीकर से चिल्ला-चिल्ला कर धमकियाँ दी जाने लगीं। तब यह सोचकर आश्वस्त हुए कि, चलो अपने जम्मू-कश्मीर प्रदेश की सरकार एक तरह से नर-पिशाचों की ही सरकार है। 

लेकिन अगर ये नर-पिशाच क़त्ले-आम करेंगे तो केंद्र सरकार तो चुप नहीं बैठेगी न। हम भी इसी देश के नागरिक हैं। अपना देश, अपने नागरिकों की सुरक्षा हर हाल में करेगा। लेकिन हम फिर ग़लत साबित हुए। हमारे दिमाग़ में यह बात आनी चाहिए थी कि, ऐसे नर-पिशाचों द्वारा लगातार दी जा रही धमकियों, अख़बारों में दिए जा रहे विज्ञापनों के बाद भी जब केंद्र चुप बैठा हुआ है, तो यह स्पष्ट है कि केंद्र, राज्य दोनों ही मिलकर एक साथ यह साज़िश रच रहे हैं। दोनों की मनसा एक ही है कि जम्मू-कश्मीर से सनातनियों सहित सिख, ईसाई, पारसी आदि सहित सभी ग़ैर मुस्लिमों को ख़त्म करना है, भगाना है। 

वास्तव में हमें उसी समय अपनी रक्षा के लिए स्वयं हथियार उठा लेने चाहिए थे, जब जेहादियों द्वारा हमारे घर क़ब्ज़ाए जा रहे थे, हमारे लोगों की हत्याएँ हो रही थीं, खुले-आम कह-कह कर, सनातनी बच्चियों, महिलाओं को घरों, रास्तों, स्कूलों, ऑफ़िसों से खींच-खींच कर सामूहिक बलात्कार, अपहरण किये जा रहे थे। 

हमारे व्यवसाय को लूटा जा रहा था। हमारे मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, आग के हवाले किया जा रहा था। लेकिन वो हमारे मकान या किसी भी प्रॉपर्टी को ज़रा सा भी नुक़्सान नहीं पहुँचाते थे, क्योंकि उनका षड्यंत्र तो यह भी था कि, सभी सनातनियों को मारने, भगाने के बाद उनकी प्रॉपर्टी भी हथियानी है। 

एक-दो नहीं सरकारी आँकड़ों के अनुसार पचास हज़ार मंदिर तोड़े गए। लेकिन प्यारे सनातनियों यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि यह संख्या सत्तर हज़ार से कम नहीं ज़्यादा ही है। आप लोग जानते हैं कि, दुनिया के अन्य धर्मावलम्बी हम-पर तरस खाते हैं, हमारा उपहास उड़ाते हैं कि, हम बहुसंख्यक हो कर भी अपने ही देश में अपने पवित्र मंदिरों, देव-स्थानों, स्वयं अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते। सरकार को सिक्योरिटी फ़ोर्सेस लगानी पड़ती है। जबकि यदि ये सब एकसाथ निकल ही पड़ें तो वो क़दमों तले ही कुचल जाएँ . . .

हम भूल गए कि हमारे पूर्वज हरि सिंह नलवा ने इनको अफ़ग़ानिस्तान में इस बुरी तरह रौंदा कि ये थर-थर काँपते, अपनी महिलाओं के वस्त्र सलवार कुर्ता पहन कर, अपनी जान की भीख माँगते हुए हरि सिंह नलवा के चरणों में गिर पड़े थे। तभी से ये पठानी शूट के नाम पर महिलाओं के कपड़े सलवार कुर्ता पहनते चले आ रहे हैं। और झूठे मक्कार इतिहासकारों, जेहादी फिल्मकारों ने यह झूठ स्थापित किया कि पठान बहादुर क़ौम है। 

दुनिया हमारी इस आत्म-घाती मूर्खता पर हँसती है कि दुनिया के अन्य देशों में यदि अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने की आवश्यकता महसूस होती है तो उन्हें बहुसंख्यकों के अधिकारों के बराबर अधिकार देने का प्रयास होता है। बस प्रयास। 

लेकिन अपने यहाँ तो अंधेरगर्दी यह हुई कि, कांग्रेस ने देश खंडित करने के तुरंत बाद से ही बहुसंख्यकों से हज़ारों गुना ज़्यादा अधिकार दिए अल्पसंख्यकों को। ऐसी आत्म-घाती अंधेरगर्दी भी इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं देख पाएँगे कि, उस समूह को अल्पसंख्यक मान लिया गया जो आज़ादी के समय कुल आबादी का ग्यारह प्रतिशत था। 

जिनकी संख्या तब आज के यूक्रेन जैसे देश के बराबर थी, और आज बीस करोड़ से ऊपर हो चुकी है। फिर भी वो अल्पसंख्यक हैं। उनके पास विशेषाधिकार हैं। वो अपने मज़हब, परम्पराओं के अनुसार जो चाहें वो मनमानी कर सकते हैं। 

कांग्रेस ने न सिर्फ़ उन्हें देश के क़ानून के समानांतर अपना क़ानून, अपनी व्यवस्था बनाने दी, बल्कि उन्हें ऐसा करने को कहा, और बनवाया भी। इसी का परिणाम है कि उनके पर्सनल लॉ बोर्ड, उनकी अपनी व्यवस्थाएँ हैं। वो जितनी चाहें उतनी बीवियाँ उठा लाएँ। झुण्ड के झुण्ड बच्चे पैदा करें। देश, दुनिया, समाज पर बोझ बढ़ाते जाएँ, लेकिन फिर भी उन्हें खोपड़ी पर बिठाया गया, आज भी बिठा कर रखा जा रहा है। 

इन सबका परिणाम यह निकल रहा है कि ये जेहादी, तथाकथित अल्पसंख्यक, देश के जिस भी हिस्से में कुल आबादी का दस-पंद्रह प्रतिशत हो जाते हैं, वहीं अलगाववाद, देश को तोड़ने की आग जलाने लगते हैं। वहीं देश को तोड़ने, जलाने वाले जिन्ना, इक़बाल जैसे गद्दार बिलबिलाते हुए अपने वास्तविक रूप में सामने आ खड़े होते हैं। मगर फिर भी हमारी आँखें नहीं खुल रही हैं। 

हम सनातनियों के साथ भेद-भाव की पराकाष्ठा देखिए कि, नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम-१९५५ बना कर विवाह संबंधी हमारी सारी परम्पराओं, मूल्य-मान्यताओं को क़ानूनी ज़ंजीरों से जकड़ दिया। हमारे सारे अधिकार छीन लिए। 

हम सनातनियों के साथ भेद-भाव, अन्याय, छल-कपट इतना ही नहीं किया गया बल्कि अगले ही साल १९५६ में हिन्दू अडॉप्शन और भरण-पोषण, हिन्दू उत्तराधिकार और हिन्दू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक क़ानून बनाकर हमारे शेष अधिकारों को भी पूरी धूर्तता, निर्लज्जता से ख़त्म कर दिया गया। 

प्यारे सनातनियों केवल हम-लोगों के साथ ही यह निर्लज्जता, अन्याय सम्भव हो पाता है क्योंकि हम अपने साथ अन्याय होने पर भी प्रतिक्रिया करना ही भूल गए हैं। हमारे मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है, मंदिरों का सारा धन मंदिर, सनातनियों के हितार्थ प्रयोग करने के बजाय अन्य कार्यों या अन्य मज़हबियों के हितार्थ प्रयोग होता है। जो और मज़बूत होकर इस सनातन राष्ट्र, संस्कृति और सनातनियों पर ही हमला करते चले आ रहें। 
 यह धनराशि कोई करोड़ दो करोड़ नहीं, प्रतिवर्ष क़रीब तीन लाख करोड़ रुपए होती है। किसी छोटे-मोटे देश की कुल अर्थ-व्यवस्था के बराबर। यह कितनी लज्जा की बात है कि हमारे पूजा स्थान, हमें ही बरसों-बरस से लूटा जा रहा है, और हमें पता ही नहीं। हम कितनी गहरी नींद सो रहे हैं कि पिचहत्तर साल से हमारे ही मंदिर हमारे नहीं हैं लेकिन हमारे कानों पे जूँ तक नहीं रेंगती। 

हम स्वयं में इतने मगन हैं कि यह भी नहीं सोचते कि ऐसे भेदभाव के सूत्रधार, और इसे गहराई प्रदान करने वाली कोई और नहीं वही काँग्रेस है जो अपने कठपुतली प्रधानमंत्री से सार्वजनिक रूप से घोषित करवाती है कि देश के सभी संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है। 

इस निर्लजतापूर्ण, नीचता भरे बयान पर भी हममें जुम्बिश तक नहीं हुई। हम सारे सनातनी चुप रहे। स्वतः संज्ञान ले लेकर समानांतर सरकार चलाने को सदैव उत्सुक दिखने वाली न्यायपालिका भी मौन रही। प्रतिक्रिया करने को कौन कहे हमने यह तक नहीं सोचा कि हमें सीधे-सीधे दास बना दिया गया कि जो बचा-खुचा होगा वो ही हमें मिलेगा। इसी बात को यदि उलटा कहा गया होता तो उन लोगों ने आग लगा दी होती। 

हम अपनी संस्कृति पर हो रहे हमलों को नहीं रोक पाते। क्योंकि हम इतने आलसी, प्रतिरोध, प्रतिक्रिया विहीन हो गए हैं कि, हमले होने पर भगवान को तो याद करते हैं, लेकिन स्वयं की सुरक्षा के लिए उसी भगवान ने जो दिमाग़, हाथ-पैर दिए हैं, उनका प्रयोग नहीं करते। 

क्योंकि हम भूल गए हैं, भुलवा दी गई है अपनी सर्वश्रेष्ठ सनातन संस्कृति की यह शिक्षा कि “अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च:” तात्पर्य कि, अहिंसा परम धर्म है, लेकिन यदि धर्म पर ख़तरा हो तो धर्म-रक्षार्थ की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म है। 

सनातनियों हम दुनिया के अपने महानतम धर्म-ग्रन्थ “महाभारत” की इस शिक्षा, सिद्धांत को विस्मृत या उपेक्षित करने का ही परिणाम भोग रहे हैं। द्वापर युग की इस सनातन शिक्षा को यदि हम आंशिक भी आचरण में ला रहे होते तो आज भी दुनिया में हम सनातनियों के सामने खड़े होने की किसी की हैसियत नहीं होती। 

भाइयों दुर्भाग्य हम सनातनियों का यह रहा है कि, हमें जितना नुक़्सान विधर्मियों, म्लेक्षों, शत्रुओं ने पहुँचाया है, उससे कहीं ज़्यादा विनाशकारी क्षति स्वयं अपने तथा-कथित सनातनियों ने पहुँचाया है। 

हम ठोकर लगने पर कुछ ज़्यादा सीखते हैं। जैसे मैं जब लूटी, मारी, काटी, जलाई गई तो यथार्थ समझ पाई। जो ज़्यादा विलम्ब होने के कारण अब मेरे तो नहीं, हाँ आप लोगों के बहुत काम आ सकता है। 

विधर्मियों, शत्रुओं के साथ-साथ छद्म सनातनियों को अनिवार्य रूप से पहचानें और उनसे उतना ही सतर्क और उन पर आक्रामक रहिये जितना की विधर्मियों, शत्रुओं पर। ऐसा कहने का कारण क्या है? उदाहरण के लिए मैं आपको फिर अहिंसा परमो धर्मः . . . की ओर ले चलती हूँ। 

और उस व्यक्ति का कच्चा चिट्ठा सामने रखती हूँ जिसने इस श्लोक का दुरुपयोग किया, जिसको स्वयं उसके पुत्र ने चिट्ठी लिख कर कहा था कि, “आप हिन्दुओं के लिए अभिशाप बन चुके हैं।” यह व्यक्ति कोई और नहीं गाँधी ही थे, और पत्र उनके बेटे रामदास गाँधी ने लिखा था। 

इन बातों से खिन्न गाँधी ने एक बार अपने प्रिय अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के बड़े नेताओं में से एक, पाकिस्तान बनवाने वाले प्रमुख गद्दारों में सम्मिलित खलीकुज्जमा चौधरी को मिलने के लिए बुलाया कि वे उनका सन्देश जिन्ना को पहुँचाए। जब चौधरी उनसे मिलने गए तो कड़ुवी सच्चाई से आहत गाँधी ने वह पत्र उन्हें देते हुए कहा यह देखिये मेरी हालत क्या हो गई है। यह बात चौधरी ने अपनी किताब ‘Pathway to Pakistaan’ में लिखी है। 

आगे जो बताने जा रही हूँ उसे जानने के बाद यह विचार ज़रूर कीजिएगा कि क्या रामदास गाँधी ग़लत थे। दरअसल गाँधी ने अपने राजनीतिक, व्यक्तिगत हित साधने के लिए इस श्लोक का छल-पूर्वक मुख्य आख़िरी हिस्सा विलुप्त कर, सनातनियों को धोखा दिया। हमें, हमारी जड़ों से काटा, हमें अपूर्णीय क्षति पहुँचाई। वो यहीं नहीं रुकते हैं, अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत हो कर आगे और बहुत कुछ करते रहते हैं। 

उनका साहित्यिक चोरी, उसे तोड़ने-मरोड़ने, घातक हथियार की तरह प्रयोग करने का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। सनातनियों की आँखों पर छल-कपट का पर्दा डाल कर उन्हें निरीह प्राणी या नपुंसक बनाने के लिए कोई कोर-कसर वो नहीं छोड़ते हैं। 

उनके इस कुप्रयास, कुकृत्य को कितनी सफलता मिली, इसका सहज अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि, आम जनमानस को श्लोक का पहला आधा हिस्सा सुना-सुना कर, गवा-गवा कर इतना रटा दिया गया कि, जनमानस के सामने से श्लोक का शेष आधा मूल हिस्सा ही ग़ायब हो गया। 

वो बस आधा हिस्सा ही जानता है। इस आधे हिस्से के साथ कई पीढ़ियाँ निकल गईं। यही झूठ लिए कि, हमें हाथ नहीं उठाना है। भले ही सर्वस्व लुट जाए, मार-काट दिए जाएँ, क्योंकि हमारे धर्म-ग्रन्थ में कहा गया है— अहिंसा परमो धर्मः। 

छल-कपट कैसे इसे और स्पष्ट समझ लिया जाए कि, एक तरफ़ तो गाँधी हम सनातनियों को अहिंसा की घुट्टी पिला रहे थे, तो दूसरी ओर अँग्रेज़ों का कृपा-पात्र बने रहने, पत्र में उन्हें Your Obedient Servant लिख कर गर्व महसूस करते हैं, ऐसा प्रदर्शित करने, अपनी विशिष्ट छवि बनाने के उद्देश्य से, सम्पूर्ण राष्ट्र के विरोध के बावजूद, प्रथम विश्व-युद्ध में अँग्रेज़ों को जिताने के लिए, देशवासियों से उनकी फ़ौज में शामिल होकर पूरी दुनिया में लड़ने के लिए कह रहे थे, तरह-तरह की बातें कह कर उन पर नैतिक दबाव डाल रहे थे। 

यानी कि देश को ग़ुलाम बनाने वाले शत्रुओं को विश्व-विजेता बनाने के लिए युद्ध में भयानक, वीभत्स रक्त-पात करने, भीषण हिंसा करने के लिए। इसके लिए उन्होंने देश-भर में घूम-घूम कर, व्यापक अभियान चला कर, दुनिया-भर में हिंसा मार-काट करने हेतु लाखों देशवासियों को भेजा भी। 

उनकी इस कुटिलता, छल-कपट का शिकार लाखों देशवासी, अनजान विदेशी भूमि पर, अपने ही देश पर छल-कपट से क़ब्ज़ा किए शत्रु के लिए भयानक रक्त-पात, हिंसा करते हुए, वहीं मर-खप गए, लौट कर कभी अपनों के बीच, अपने घर नहीं आए। 

इसे दोहरा चरित्र, छल-कपट नहीं तो क्या कहेंगे आप? एक तरफ़ ढपली बजाएँ कि “अहिंसा परमो धर्म:” दूसरी तरफ़ देशवासियों को दुश्मन के लिए रक्त-पात करने के लिए कहें, भेजें। यह जानते ही आपके मुँह से अनायास ही यह निकल गया हो कि वाह रे महात्मा ग़ज़ब रहा तेरा राग-द्वेष तो आश्चर्य नहीं। उनकी इस कुटिल ढपली, राग का मुसलमानों ने कोई संज्ञान ही नहीं लिया। सनातनी ही फँसे और मरे। 

लगे हाथ उनके द्वारा हम सनातनियों के साथ किये गए छल-छद्म का एक और उदाहरण भी देख लीजिए। आश्चर्य में पड़ जाएँगे आप . . . गाँधी ने अपनी राजनीति को पुष्पित-पल्लवित करने, अपनी एक विशिष्ट छवि बनाने के लिए सनातनियों के इस भजन, ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम। ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, भज प्यारे सीताराम।’ को पूरे जीवन में सफलता-पूर्वक ज़बरदस्त हथियार के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने यह इतनी चालाकी के साथ किया कि, हम जानते ही नहीं कि मूल भजन क्या है। 

मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि करोड़ों में से कोई एक ही यह जानता होगा कि यह कुकृत्य श्री लक्ष्मणाचार्य रचित भजन, ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम। सुन्दर विग्रह मेघाश्याम, गंगा तुलसी शालिग्राम। भद्रगिरीश्वर सीताराम। भगत-जनप्रिय सीताराम। जानकीरमणा सीताराम, जय जय राघव सीताराम।’ के साथ किया गया है। 

इसे भी दोहरा चरित्र, सनातनियों के साथ धोखा नहीं तो और क्या कहा जाए? इस धोखे में हम सनातनी ही फँसे। क्यों कि उदारता, सहिष्णुता की घुट्टी हमें ही पिलाई गई और हिमालयी भूल करते हुए केवल हमने ही पी भी। किसी अन्य धर्मावलम्बी ने यह भूल नहीं की, और न ही गाँधी या अन्य कोई उन्हें यह घुट्टी पिलाने का दुस्साहस कर पाया। 

सनातनियों गाँधी की बात इसलिए कह रही हूँ, याद दिला रही हूँ, क्योंकि आज हम सनातनी जो अपने ही देश में दर-दर भटक रहे हैं, हमारी सामूहिक हत्याएँ हो रही हैं, हमारे धर्म, मंदिरों, संस्कृति पर हमले हो रहे हैं, उसके लिए ये, इनके प्रिय नेहरू और अँग्रेज़ों की बनाई इनकी कांग्रेस पार्टी ही ज़िम्मेदार है। 

इन्हीं गाँधी ने मंदिरों में नमाज़ पढ़ाए जाने पर तो जीवन भर ज़ोर दिया, पढ़ी भी, लेकिन भूल कर भी एक बार भी मस्जिद में आरती पूजा की बात नहीं की, साहस ही नहीं कर सके, करने की तो बात ही छोड़ दीजिये। 

हमारे धर्म ग्रंथों पर तो ख़ूब टीका-टिप्पणी करते रहे लेकिन कभी मुसलमानों की क़ुरान, हदीस और ईसाईयों की बाइबिल पर जीवन भर भूलकर भी कोई टीका-टिप्पणी नहीं की। ऐसा वो क्यों करते थे आप लोगों को यह हर हाल में समझना ही चाहिए, क्योंकि कांग्रेसी हम सनातनियों के साथ आज भी यही छल-कपट कर रहे हैं। 
 दुनिया में हर धर्मावलम्बियों के देश हैं। छोटे से समूह यहूदियों का भी अपना देश इज़राइल है। उन्होंने अपना यह देश जेहादियों के देश फिलिस्तीन को छीन कर जबरन बनाया। वास्तव में हज़ारों वर्ष पूर्व फिलिस्तीन यहूदियों का ही देश था, जिस पर बाद में मुस्लिम क़ाबिज़ हो गए थे। जिसे यहूदियों ने उन्नीस सौ अड़तालीस में वापस छीन लिया। जो थोड़ा बहुत बचा रह गया था अब उस पर भी हमलावर है। 

उसकी कार्यवाई देख कर लग रहा है वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के नक़्शे से फिलिस्तीन उसी तरह ग़ायब हो जाएगा जैसे १९७९ में जेहादियों ने फ़ारस नामक देश को निगल लिया, शिया जेहादियों का देश ईरान बन गया। और एक हम लोग हैं कि अपने सनातन देश को ही अपना देश नहीं कह सकते। जो चोर-उचक्के, डकैत, भिखारी, शरणार्थी आए वो स्वामी बने बैठे हैं, तो इन्हीं अँग्रेज़ों की पार्टी कांग्रेस, गाँधी, नेहरू के कारण। 

हमारी संख्या एक अरब से ज़्यादा है, लेकिन हमारा कोई देश नहीं है। सोचिये, विचार कीजिये, छल-छद्म की घनी धुँध से बाहर आकर क़दम बढ़ाइए। बचे-खुचे अपने देश को बचाइए। जी हाँ, बचे-खुचे। एक समय अपने इस सनातन देश का क्षेत्रफल क़रीब बहत्तर लाख वर्ग किलोमीटर था जो घटते-घटते आज बत्तीस लाख वर्ग-किलोमीटर भी नहीं रह गया है। इन कांग्रेसियों ने देश को धर्म-शाला बना कर बचे-खुचे के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। 

कुटिलतापूर्वक छाती ठोक-ठोक कर कहते हैं कि यह सनातन देश केवल सनातनियों का नहीं, सभी का है। अपने इस कुटिल धूर्ततापूर्ण झूठ को स्थापित करने के लिए यह कुतर्क गढ़ा और स्थापित कर दिया कि यह देश गंगा-जमुनी सभ्यताओं का है। 

सनातनियों के जन्मजात शत्रु इन कांग्रेसियों, वामपंथियों के इस झूठ के लिए कभी आप में से किसी ने यह पूछा कि हे कुटिल स्याह हृदय प्राणियों, ये बताओ आदि काल से सारे सनातनी पौराणिक आख्यान गंगा, यमुना की महिमा बखान से भरे पड़े हैं, गंगा भी सनातनियों की, जमुना भी सनातनियों की तो ये बाहरी लुटेरे कैसे हो गए इसके अधिकारी? 

नहीं पूछा है तो पूछिए इनकी छाती पर चढ़ कर कि जो आपका है उसे छीनकर वो बाहरी को कैसे दे रहे हैं। अब भी चुप रहे तो एक दिन तुम्हारा कुछ भी नहीं बचेगा, तुम्हीं बाहरी बन जाओगे, भगा नहीं दिए जाओगे, हमारी तरह ही काट दिए जाओगे। 

मेरी बातों को यूँ ही हवा में उड़ा कर सोए न रहिये, ज़रा अपने प्रिय कश्मीर का और भी भयावह चित्र देखिये। ज़रा ऐसा उदाहरण ढूँढ़िये कि आज आधुनिक युग में किसी राज्य का मुख्यमंत्री एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का आदेश दे, और केंद्र से लेकर पूरा देश चुप रहे। नहीं ढूँढ़ पाए न . . . 

लेकिन ऐसा कश्मीर में हुआ। उन्नीस सौ छियासी में अपने सगे बहनोई फारूक अब्दुल्ला की पीठ में छूरा घोंप कर ग़ुलाम मोहम्मद शाह मुख्यमंत्री बन बैठा। पीठ में छूरा घोंपना तो ख़ैर इनकी संस्कृति का अभिन्न अंग है। बाप बेटे को, बेटे बाप को मारते रहते हैं, तो बाक़ी की तो बात ही छोड़ दीजिए। 

इसी जेहादी ग़ुलाम मोहम्मद ने अपनी मूल पैशाचिक प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हुए आदेश दिया, कि जम्मू सेक्रेटेरिएट एरिया स्थित प्राचीन मंदिर को गिरा कर, उस जेहादी के नाम की शाह मस्जिद बनवाई जाए। उस समय हज़ारों ख़तरों के बावजूद वहाँ हम सनातनियों ने ज़बरदस्त विरोध किया। 

जब हम सनातनियों ने दरिंदों की दाल नहीं गलने दी, तो दरिंदों ने छाती पीटनी शुरू कर दी कि इस्लाम ख़तरे में है। ये अपने मज़हब को अपने प्रारम्भ से ऐसे ही हथियार की तरह प्रयोग करते आए हैं। इस हथियार के साथ ही दंगे शुरू हो गए। हम पर चौतरफ़ा भयानक हमले हुए। 

जब वो पिशाच अपने मन की कर चुके, केंद्र के मन की बात पूरी हो गई, और बात हाथ से निकलने लगी, तब केंद्र ने राज्य सरकार बरख़ास्त कर दी। लेकिन हम-लोगों को पूरे देश से कोई सहायता, कोई सहयोग, कोई नैतिक समर्थन तक नहीं मिला। ऐसा लगा जैसे कश्मीर, हम कश्मीरी सनातनी, देश का हिस्सा ही नहीं हैं। 

वह एकजुट हो, इस्लाम ख़तरे में है, बोलकर इकट्ठे होने लगे। उन नरपिशाचों के हमले और व्यापक, और तेज़ हो गए। हमारी हत्याएँ होतीं रहीं, एक के बाद एक पवित्र मंदिर तोड़े-फोड़े, जलाए, नष्ट-भ्रष्ट किए जाते रहे। नरपिशाच पूरी घाटी में बर्बर नंगा नाच, नाचते रहे, मगर हम अकेले तो अकेले ही पड़े रहे। 

यदि उस समय देश-भर के हम सनातनी भी एकजुट हो जाते, तो आगे जो सबसे दुर्भाग्यपूर्ण, दुखद, राष्ट्र-घाती घटना उन्नीस जनवरी उन्नीस सौ नब्बे को हुई वह निश्चित ही न होती। जब हज़ारों वर्षों से पवित्रतम कश्मीरी सनातन भूमि, सनातन संस्कृति के संवाहक, क़रीब पाँच लाख कश्मीरी सनातनियों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया गया। 

हम विवश इसलिए हुए, और वो इसलिए कर पाए, क्योंकि राज्य और केंद्र सरकारें यही चाहती थीं और हम अकेले थे, अकेले ही रहे। देश-भर के एक पर्सेंट यानी क़रीब एक करोड़ सनातनियों का भी साथ हमें मिला होता तो बात एकदम उलट होती, तस्वीर कुछ और होती। 

हम सनातनियों के ऊपर उसी तरह पैशाचिक बर्बर हमला हुआ जैसे स्वतंत्रता के समय नरपिशाच जिन्ना के आह्वान पर हम सनातनियों के ऊपर हुआ था। जैसे तब के तमाम ज़िम्मेदार नेता, यह कहें कि भारत का जल्दी-से जल्दी प्रधानमंत्री बनने के लिए लालायित, व्याकुल सारे कांग्रेसी नेता, बाद की सरकारें, तमाशाई ही बनी रहीं, उससे भी हज़ारों गुना ज़्यादा निर्लज्जता, बेहयाई, बेशर्मी के साथ षड्यंत्र-पूर्वक, तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकार तमाशाई बनी रहीं। 

नरपिशाचों के झुण्ड के झुण्ड दिनदहाड़े हम पर हमला कर, हमारी संपत्तियाँ लूटते रहे, घरों पर क़ब्ज़ा करते रहे, क़त्ले-आम करते रहे, नरपिशाच बलात्कार कर, बच्चों, महिलाओं, बड़ों को क़त्ल करते रहे, कश्मीर घाटी हम सनातनियों के रक्त से रक्त-रंजित होती रही, मगर सरकारें सोती रहीं, मीडिया शांत रहा, तथा-कथित मानवाधिकार वादी भी कमरे में जश्न मनाते रहे, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ भी ऐसे चुप रहीं, जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं। 

नरपिशाचों ने बलात्कार करने के बाद कई युवतियों, महिलाओं के शील अंगों के भीतर राइफ़लों की नलियों को प्रविष्ट करा कर फ़ायर झोंक दिए, एके ४७, ५६ राइफ़लों की पूरी की पूरी मैग्ज़ीन ख़ाली कर शरीर के चीथड़े उड़ा दिए, लेकिन उनके ऐसे अनगिनत घिनौने कुकर्मों पर पर्दा डाल दिया गया, जो आज भी पड़ा है। इसी लिए कहती हूँ आपसे, हटाइये इस पर्दे को, पहचानिये अपने सिर पर सवार होते जा रहे ख़तरे को। 

चलिए बात को और गहराई से समझते हैं कि हम उनसे आशा करने की ग़लती ही कर रहे थे, जब अपने ही सुधि नहीं ले रहे थे तो भला ग़ैरों को ज़रूरत क्या पड़ी थी। दूसरी तरफ़ नरपिशाचों को देश-विदेश हर जगह से पहले की ही तरह पैसों से लेकर हथियार, नैतिक समर्थन सब-कुछ मिल रहा था। सारे मुस्लिम देश, समुदाय उन्हें हर क्षण मदद पहुँचा रहे थे। धारा तीन सौ सत्तर हटने के बाद यह कुछ ही कम हुआ है, क्योंकि अलग-अलग रूपों में जारी यह आज भी है। 

 . . . तो हर तरफ़ से हमारे अकेले पड़ने, और हम ख़ुद हथियार उठा लें, इस ओर ध्यान न देने का परिणाम यह हुआ कि, देखते-देखते पाँच लाख कश्मीरी सनातनी अपने देश में ही शरणार्थी बनकर, एक-एक किलो चावल के लिए लाइन में खड़े हो गए। जो कभी पूरी कश्मीरी अर्थ-व्यवस्था के मालिक थे, वह भिखारियों की तरह दिल्ली, पंजाब की सड़कों पर टेंटों में रहने लगे। नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो गए। 

लेकिन सरकारों के लिए हम-सब कश्मीरी सनातनी कीड़े-मकोड़ों से भी बदतर थे तो वो अपनी सत्ता को सँभालते रहे, अपना वोट बैंक मज़बूत करते रहे, हम वोट बैंक नहीं थे, या कभी नरपिशाचों की तरह एकजुट होकर बन ही नहीं सके, इसलिए हमारी कोई भी अहमियत नहीं थी। 

ऐसा नहीं है कि नरपिशाच इतने ताक़तवर थे कि, कुछ किया ही नहीं जा सकता था। उन्हें कुचला नहीं जा सकता था। सब आसान था, सब सम्भव था। ठीक वैसे ही जैसे वर्तमान सरकार ने अलगाव-वादियों, देश-द्रोहियों, नरपिशाचों को मज़बूत करने के लिए नेहरू की बनाई गई व्यवस्था, धारा तीन सौ सत्तर, और पैंतीस स्माल ए को एक झटके में ख़त्म कर दिया। और जम्मू-कश्मीर प्रदेश को दो हिस्सों में बाँट कर, उन्हें केंद्र शासित राज्य बना कर नरपिशाचों की कमर ही तोड़ दी। 

यह सब करते हुए ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था की, कि सच में परिंदा भी पर नहीं मार सका। सारे नरपिशाच काँपते, थरथराते अपनी औरतों के बुर्कों में छिपते फिरे। तो जो हमें बर्बाद करना चाहते थे, हमारा सामूहिक नर-संहार करवाना चाहते थे, हमारी सनातन संस्कृति, हमारा अस्तित्व मिटाना चाहते थे, वह तथा-कथित स्वतंत्रता के बाद सन्‌ दो हज़ार चौदह यानी जब-तक सत्ता में रहे, तब-तक प्रयास करते, करवाते रहे। 

जिन्होंने हमारे, राष्ट्र के हित की सोची उन्होंने चुटकी बजाते ही क़दम बढ़ाया। जिस तरह यह सरकार आगे बढ़ रही है, हम कश्मीरी सनातनियों, सारे राष्ट्रवादी देशवासियों को पूरा विश्वास है कि एक दिन दर-दर भटक रहे सारे कश्मीरी सनातनी अपनी पवित्र भूमि कश्मीर वापस आएँगे। अपने घर-द्वार, सम्पत्तियों को फिर से पाएँगे, जिन पर आज नरपिशाचों ने क़ब्ज़ा कर रखा है। 

हे सनातनी आर्यो, नरपिशाचों द्वारा छल-कपट से मारे गए हम सभी सनातनियों की आत्माएँ आज भी कश्मीर की वादियों में, पूरे देश, दुनिया में इसी विश्वास में विचरण कर रही हैं कि, एक दिन हम फिर अपनी भूमि पर, अपनों को सुख-समृद्धि के साथ रहते देखेंगी। 

हे मेरे प्यारे सनातनी भाई-बहनों हम आत्माओं को कहीं भी जाने-आने में पलक झपकने भर का भी समय नहीं लगता, इसलिए हम घाटी से निकल कर देश-भर का भ्रमण करते रहते हैं। अपने पूर्वजों की ग़लती से खोई अपनी सारी प्राचीन भूमि देखने के लिए हम दुनिया-भर का विचरण करते रहते हैं। इसलिए पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान, इंडोनेशिया, ईरान, ईराक़, आदि पूरा खाड़ी क्षेत्र घूम आते हैं। 

मेरे प्यारे सनातनी भाइयों-बहनों जब हम तुम्हारे घरों में पहुँच जाते हैं यह देखने कि, आप सब कैसे हैं, और तुम्हें अच्छे से बोलते, खेलते, अपने परिवार के साथ जीवन जीते, रात को चैन की नींद सोते देखते हैं, तो हमें अपार ख़ुशी होती है, कि चलो हम न सही, हमारे सनातनी भाई-बहन तो ख़ुश हैं। 

मगर हे मेरे प्यारे परिजन, मैं आप सबको चेतावनी देती हूँ, कि चैन की नींद अवश्य सोइए, मगर निद्रा वाली ही नींद सोइए। अचैतन्यता वाली नींद नहीं। जागृत रहिए जिससे आप ही नहीं आप की आने वाली पीढ़ियाँ भी सुरक्षित और सुखी, समृद्धि-पूर्ण जीवन जिएँ। 

मैं आगाह कर रही हूँ कि जागिये, दरवाज़े पर खड़े ख़तरे को देखिये, अपनी प्राचीन सनातन संस्कृति को जीवन का आधार बनाइये। सनातन संस्कृति, शास्त्र और शस्त्र-धारी बनिए। यह मत भूलिए कि अपनी सनातन संस्कृति, शास्त्र और शस्त्र को आधार बना कर ही हम हज़ारों हज़ार बरस तक विश्व-गुरु बने रहे, दुनिया पर राज करते रहे। 

प्रमाण चाहिए तो ढूँढ़िये दुनिया का कोई ऐसा देश जहाँ हमारी सनातन संस्कृति के चिह्न देव मूर्तियों, देव स्थानों के रूप में उपस्थित न हों। आप मेरी बात को आसानी से मान सकें इसके लिए अभी जल्दी ही एक घटना हुई, हो सकता है आप लोगों को भी पता हो। 

एक भारतीय जो फिलीपींस में ख़ुदाई का काम करता था, उसे वहीं दो हज़ार पंद्रह में ख़ुदाई में त्रिशूल और इंद्रदेव का शस्त्र वज्र मिला जो क़रीब चार हज़ार वर्ष पुराने हैं, उस पर ॐ ख़ुदा हुआ है, और यह कॉपर, लेड का बना हुआ है। जिस व्यक्ति को मिला वह फ़ेसबुक पर भी बता रहा है। 

तो भाइयों जहाँ कहीं भी उत्खनन कार्य होता है वहीं चिह्न मिलते हैं। जब से हम सनातन संस्कृति, शास्त्र, शस्त्र से विमुख हुए, अत्यधिक सहज, सरल, सहिष्णु बन गए, हर किसी को शरण देते गए यह विचार किए बिना कि वह सुपात्र व्यक्ति है या कि कोई चोर-डकैत, विश्वासघाती कमीना है, तभी से हम नष्ट होते जा रहे हैं। 

सनातनी राजा चेरामन पेरूमल ने यही हिमालय सी भूल की थी। बिना यह विचार किए जेहादियों को शरण, हर सम्भव सहायता देकर कि वह सुपात्र पर दया कर शरण दे रहे हैं या कि कुपात्र को। 

कुपात्रों, विश्वासघातिओं के कारण हमारा सनातन देश बँट गया। ख़तरा फिर मँडरा रहा है। कुपात्र हमारी सनातन संस्कृति का अस्तित्व समाप्त करने के लिए हर क्षण हमला कर रहे हैं। लेकिन हम आपसी झगड़ों में व्यस्त होकर पेरूमल सी भूल करने में जुटे हुए हैं। 

शत्रु हम पर हावी होते जा रहे हैं। ढेरों आस्तीन के साँप इन हमलावरों के पोषक हैं। जो अलीगढ़, जवाहरलाल, जादवपुर जैसे विश्वविद्यालयों में भी हैं। जहाँ खुलेआम भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह के नारे लगते हैं। कांग्रेसी, वामपंथी इनके साथ होते हैं, इन्हें अपनी पार्टी में महत्त्वपूर्ण पदों पर बिठाए हुए हैं। 

यह हम-सब की आसन्न ख़तरे के प्रति आत्म-घाती लापरवाही, उदासीनता का चीखता-चिल्लाता प्रमाण है कि, जिस अलीगढ़ विश्व-विद्यालय में सनातन संस्कृति, सनातन राष्ट्र को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा गया, क्रियान्यवित किया गया, वह घृणास्पद विश्व-विद्यालय तथा-कथित आज़ादी के सात दशक बाद भी, न सिर्फ़ हमारे देश में अति सुरक्षित स्थिति में बना हुआ है बल्कि पहले से कहीं और ज़्यादा घातक बनता जा रहा है। 

इस बात का प्रमाण यह है कि, आज भी इस विश्व-विद्यालय में नरपिशाच जिन्ना, इक़बाल आदि सभी गद्दारों को अति सम्मान के साथ स्थापित किया हुआ है। उनके बड़े-बड़े चित्र लगे हुए हैं। जबकि किसी भी राष्ट्रवादी के विषय में वहाँ बात करने वाले का जीवित बच पाना भी सम्भव नहीं है। 

देश के किसी भी राष्ट्रवादी सोच के नेता, व्यक्ति की तो बात ही छोड़िये प्रदेश का मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री भी वहाँ जा कर कोई कार्यक्रम नहीं कर सकता। क्योंकि वहाँ बैठे राष्ट्रद्रोही किसी राष्ट्रवादी को एक क्षण भी बरदाश्त नहीं कर पाते, उन्हें वो अपने अस्तित्व के लिए ख़तरा मानते हैं। 

आप लोगों को यह तो कम से कम याद ही होगा कि, अभी कुछ बरस पहले ही वहाँ जिन्ना के चित्र, उसके महिमा-मंडन को लेकर कुछ राष्ट्रवादी लोगों ने विरोध किया। विरोध होना था कि गद्दारों का पूरा का पूरा झुण्ड वहाँ इकट्ठा हो गया। 

ऐसे हालात पैदा कर दिए कि, जैसे पूरे शहर क्या प्रदेश में ही आग लग जाएगी। पूरे विश्वविद्यालय का माहौल ऐसा था कि उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि, यह भारत में ही है। लगता जैसे कि आतंकियों का देश पाकिस्तान हो। 

छद्म स्वतंत्रता के नाम पर सत्तालोभ में देश के टुकड़े कर चुकी कांग्रेस के चिर युवराज दिग्भ्रमित नेता अपने गुट के साथ इन गद्दारों के प्रदर्शनों में शामिल हो-हो कर इनको और ऊर्जावान बनाते हैं। 

अब देश में एक नहीं छोटे बड़े हज़ारों ऐसे स्थान हैं, जहाँ हम सनातनी अल्पसंख्यक हो गए हैं। जहाँ-जहाँ अल्पसंख्यक हुए हैं, वहाँ-वहाँ हम सनातनियों पर बर्बर अत्याचार हो रहे हैं। सनातनियों के घरों, त्योहारों और उनके धार्मिक जुलूसों पर हमले हो रहे हैं। 

लव-जिहादियों के यथार्थ को भी पहचानिए। पूरी दुनिया त्रस्त है। ब्रिटेन की संसद में चर्चा हो रही है। नियंत्रण के लिए वो सख़्त क़ानून बनाने की बात कर रहे हैं। अपने सनातन देश में तो यह प्रचंड रूप से चला आ रहा है। स्वतंत्रता के पहले से ही। 

बीते पंद्रह बीस वर्षों से हाई-कोर्ट से लेकर सुप्रीम-कोर्ट तक चिंतित है, सिख, बौद्ध से लेकर ईसाई, यहूदी, पारसी तक परेशान हैं। स्वतन्त्रता से पहले का उदाहरण देती हूँ। ध्यान से समझियेगा तो साफ़ देखेंगे कि बिलकुल उसी शैली में देश में आज यह हज़ारों गुना ज़्यादा गति से चल रहा है। 

नरपिशाच विश्वासघाती जिन्ना से ही प्रारम्भ कर लीजिए। जिसने अविभाजित भारत में अपने समय के बहुत बड़े टेक्सटाइल व्यवसायी दिनशा मानिकशॉ पेटिट की पीठ में छूरा घोंपा। उनकी ही नाबालिग लड़की ले भागा। जे.आर.डी. टाटा के बहनोई दिनशा, जिन्ना को घनिष्ठ मित्र मानते थे। 

सरल हृदय दिनशा ने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा था कि, जिसे वो पढ़ा-लिखा सभ्य व्यक्ति समझ कर घर आमंत्रित कर आदर सत्कार करते हैं, उस घिनौने विश्वासघाती की पैशाचिक दृष्टि उनकी सोलह वर्षीय किशोर बेटी रतनबाई जिसे वह प्यार स्नेह से रुट्टी कहते हैं, उस पर लगी हुई है। 

वह मित्रता निभाते रहे, और विश्वासघाती ने अपने से चौबीस वर्ष छोटी रुट्टी को अपने छद्म प्रेम जाल में फँसा लिया। मासूम किशोरी पूरी तरह उसके झाँसे में आ चुकी है, यह विश्वास होते ही ढीठ विश्वासघाती ने रुट्टी से विवाह करने की बात दिनशा से कह दी। जिसे सुनते ही क्रोध से बिफरते हुए उन्होंने विश्वासघाती को घर से धक्के देकर बाहर कर दिया। 

मगर गिद्ध लगा रहा और दो साल बाद ही रुट्टी को ले भागा। उसके इस कुकर्म से पूरा पारसी समाज हिल उठा। पूरा देश सन्नाटे में आ गया कि, चालीस साल का अय्याश लफ़ंगा प्रौढ़, सोलह साल की किशोरी को ले भागा। मगर उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। 

और लव-जिहाद का जो परिणाम आज निकलता है कि अंततः नरपिशाच लड़की को यातना दे-दे कर मार डालते हैं। उनके पचास साठ टुकड़े करके फेंक देते हैं। लड़की की अत्यंत भयावह दर्दनाक मौत होती है। रुट्टी के साथ भी यही हुआ। वह जिन्ना के क्रूर व्यवहार से तिल-तिल कर अल्पावस्था में ही स्वर्गवासी हो गई। 

इनकी मानसिकता, सनातनियों, सभी ग़ैर मुस्लिमों से घृणा को इस बात से भी पहचानिए कि, ये हम सनातनियों तक पहुँचने वाले हर खाद्य पदार्थ पर थूकते हैं, पसीना, मल-मूत्र से दूषित कर देते हैं। पैर सहित अन्य घिनौने अंगों को स्पर्श कराते हैं। 

कुछ दिन पहले ही इंग्लैण्ड में नरपिशाचों के एक बड़े रेस्त्रां को ग़ैर मुस्लिमों को मल-मूत्र से दूषित कर खाद्य पदार्थ परोसने के अपराध में पकड़ा गया था। दुनिया में ऐसा नीच कर्म शायद ही किसी और मज़हब का कोई व्यक्ति करता हो। इनके मौलाना टीवी चैनल पर डिबेट में खुलेआम कहते हैं कि खाने में थूक कर देना हमारे यहाँ रिवाज़ है। थूकने से ही खाना हलाल बनता है 

यह हर तरह से अपना झुंड बढ़ाते जा रहे हैं। अपने बड़े-बड़े झुंड के सहारे यह क्षेत्र के क्षेत्र, देश के देश निगलते जा रहे हैं। उन्नीस सौ उन्न्यासी से पहले दुनिया के नक़्शे पर फ़ारस नाम का देश हुआ करता था। 

ये जेहादी वहाँ एक याचक, शरणार्थी के तौर पर छोटे से झुण्ड के रूप में पहुँचे थे। भोले-भाले पारसियों ने इनकी दयनीय हालत, विपन्नता देख कर तरस खाते हुए शरण दे दी। किसी की मदद की, यह सोच कर वह ख़ुश हुए और पहले की तरह निश्चिन्त अपना जीवन जीते रहे। 

इधर अपनी प्रकृति के अनुरूप शातिर झुण्ड बड़ी कुटिलता के साथ छल-बल से अपना झुंड बढ़ाता रहा और फिर उन्नीस सौ उन्न्यासी में इस्लामिक क्रांति के नाम पर इस्लामिक देश बना दिया। इस तरह फ़ारस नाम का देश विश्व के नक़्शे से सदैव के लिए विलुप्त हो गया। पारसी अपनी ही भूमि से हाथ धोकर विस्थापित हो गए। दुनिया-भर में दर-दर भटकते फिर रहे हैं हमेशा के लिए . . . 

तो आप सबको जागना होगा, हमें अब यह विचार दृढ़ करना होगा कि हम अपनी जगह छोड़ कर कहीं नहीं जाएँगे। बल्कि डटकर सामना करने की अपनी सनातन संस्कृति, आदत पुनर्जीवित करनी होगी। 

आपको बताऊँ कि हम सनातनी कश्मीरियों ने अपनी मातृ-भूमि छोड़कर अक्षम्य भूल की थी। जम्मू-कश्मीर के कुल क्षेत्रफल के मात्र बीस प्रतिशत घाटी वाले हिस्से में ही यह नरपिशाच बहुसंख्यक हैं। 

हम पाँच लाख लोग, वहाँ जब यह नरपिशाच मस्जिदों से, समाचार पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से धमकी दे रहे थे, यदि तभी सब एक-साथ सड़कों पर उतर आते तो हम एक विशाल जन-सेना से कम नहीं होते। और सच यह भी है कि जन-सेना के सामने कोई सेना नहीं टिकती। अर्थात्‌ हम सनातनी ही विजयी होते। 

उनके पास हथियार तो काफ़िरों के ही बनाए थे। हमारे पास तो जन-सेना के हथियार होते। जिसके सामने दुनिया का बड़ा से बड़ा हथियार भी ध्वस्त हो जाता। वह कितनी गोलियाँ चलाते? 

एक हज़ार, दो हज़ार, इतने लोग ही तो मरते न। उसके बाद तो वह भी हथियार के स्तर पर हमारे ही बराबर होते। उनके झुंड आते तो जमकर संघर्ष होता। ख़ूब होता। नरपिशाचों के कारण हमारी कश्मीर घाटी रक्त-घाटी बन जाती। लेकिन ऐसे हम नरपिशाचों से अपनी घाटी ख़ाली करा लेते यह तो तय था। 

इन सबको यहूदियों के देश इज़राइल में, दुनिया की सूक्ष्म आबादी यहूदियों के सामने हम रोते-गिड़गिड़ाते, उनके पैरों पर नाक रगड़ते देखते रहते हैं। उसके सामने एक-दो नहीं दुनिया के सारे जेहादी छप्पन देश पानी ही भरते रहते हैं। अपने देश में ही हम सनातनी भी जब भी एकजुट हो खड़े हो जाते हैं तो ये पैरों पर ही गिरे दीखते हैं। संयुक्त राष्ट्र में गिड़गिड़ाते हैं। ज़्यादा दूर नहीं बस दो हज़ार दो याद कर लीजिये। 

इसी लिए मैं कहती हूँ कि यदि हम एकजुट हो खड़े होते तो भले ही कश्मीर घाटी, रक्त-घाटी बनती, लेकिन तब रक्त केवल हम सनातनियों का ही न होता, बल्कि उन नरपिशाचों के रक्त से उस पवित्र भूमि पर पड़ी उनकी घिनौनी पातकी छाया को समाप्त कर देते। 

हम नहीं चाहते कि जिस तरह का धोखा हमने खाया और नष्ट हुए, वैसा अब फिर अपने किसी सनातनी भाई के साथ हो। नरपिशाचों ने जब धमकी देनी शुरू की, हमले शुरू किए तो हमारे जेहादी पड़ोसी पहले हमसे षड्यंत्र-पूर्वक कहते रहे कि हम लोग तो हैं न, मदद करेंगे। कुछ नहीं होने देंगे। 

वह भी अपने ही बच्चे हैं, उन्हें समझाएँगे कि अल्लाह त‘आला के लिए इन्हें मारो नहीं। मगर उनकी नज़र तो हमारे मकानों, संपत्तियों, महिलाओं पर थी। उनके लिए तो हम सनातनियों की महिलाएँ माल ए ग़नीमत (युद्ध में जीती संपत्ति) होती हैं। उनकी मज़हबी किताबें उनको यही बताती हैं। मुल्ले मौलवी अपनी दुकानें और चमकाने के लिए और नमक-मिर्च लगाते हैं। 

तो विश्वासघाती हमें आश्वासन देकर धोखे में रख रहे थे, कि हम अपनी सुरक्षा की कोई तैयारी न करें। सोचे ही न उस बारे में। हम मक्कारों, विश्वासघातियों के षड्यंत्र में फँस गए। उन पिशाचों ने जब देखा कि अब हमारे पास बचाव के लिए कुछ भी करने का समय नहीं रहा, तो गिरगिटों ने रंग बदलते हुए पूरा ज़ोर देकर कहना शुरू किया कि, अब आप लोग चले जाइए, यहाँ आप सुरक्षित नहीं हैं। 

हमारी सहजता-सरलता के कारण घिनौने गिरगिट पूर्णतः कामयाब हुए। हम पर उनका हमला कामयाब रहा। हम सनातनी लोग, नरपिशाचों, तत्कालीन राज्य, केंद्र सरकार की साज़िश का शिकार हो गए। तथा-कथित स्वतंत्रता के बाद सनातनियों का सबसे बड़ा सामूहिक नर-संहार, विस्थापन शुरू हो गया। 

मैं बिना संकोच कहती हूँ कि उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद सनातनियों के इस सबसे बड़े जन-संहार, विस्थापन के लिए बीज गाँधी, नेहरू उनकी कांग्रेस ने ही बोए थे। जब सत्ता सुख पाने की हड़बड़ी में विशुद्ध रूप से धर्म के आधार पर इस पवित्र सनातन देश के टुकड़े कर दिए। 

जब देश को खंडित करने के बावजूद लाखों सनातनियों की निर्मम हत्याएँ की गईं, तो देश को सनातन देश घोषित करने की जगह धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करके इस सनातन देश, सनातनियों की पीठ में छूरा घोंपने, उनकी जड़ में मट्ठा डालने का अतिशय कुटिलतापूर्ण, नीचता-भरा कुकर्म क्यों किया गया। इसे एक धर्मशाला क्यों बनाया गया। 

इस कुकर्म द्वारा देश को ऐसा रिश्ता घाव दिया गया है, जिसका पूर्ण उपचार करने के लिए सनातनियों को एक बार रक्त-स्नान करते हुए रक्त सागर पार करना ही होगा। अन्यथा हर उपचार निरर्थक है, उसका कोई परिणाम निकलेगा तो केवल इतना कि सनातनियों की स्थिति और ख़राब होगी। 

आप लोग स्थिति की गंभीरता को उसकी गहराई में उतर कर समझ सकें, इसके लिए मैं तब का वह दृश्य सामने रखती हूँ, जब हम पर नरपिशाचों ने धोखे से हमले कर दिए। जो सनातनी किसी तरह बच कर वहाँ से निकल पाए, उनके पीछे मारे गए सनातनियों के ख़ून से, उनके कटे-फटे अंगों, लोथड़ों से सड़क, रंगी, पटी पड़ी थी। 

जिस पर नरपिशाच जश्न मना रहे थे। उनकी महिलाएँ, बच्चे सब शामिल थे। जो पहले हमारे हितैषी, पड़ोसी बने रहे, पीढ़ियों से साथ रहे, वह हमारे मकानों, दुकानों पर क़ब्ज़ा करके ख़ुशी से पागल हो रहे थे। 

हमारी विवशता, हमारे दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिए कि जानवरों की तरह नरपिशाच कई दिनों तक सनातनी महिलाओं, बच्चियों का बलात्कार करते रहे, हमें मारते-काटते, जलाते, लूटते रहे लेकिन केंद्र, राज्य दोनों सरकारें ऐसे ऑंखें मूंदें रहीं, जैसे कहीं कुछ भी अनुचित नहीं हो रहा। हर तरफ़ सुख-शांति है। 

मगर ऐसी भयावह स्थिति के बावजूद सूक्ष्म संख्या में हम जैसे जीवट वाले कुछ जुनूनी इस आशा में वहीं डटे रहे कि दुनिया की मीडिया, मानवाधिकार वाले, अपने देश के लोग शायद जागेंगे, सरकार पर दबाव डालेंगे तो कोई तो कार्रवाई होगी, हम जल्दी ही अपने घर लौट जाएँगे, लेकिन देखते-देखते क़रीब ढाई दशक निकल गए। 

इस बीच नरपिशाच ढूँढ़-ढूँढ़ कर बचे-खुचे सनातनियों को मार-काट रहे थे। आख़िर मैं भी एक दिन नरपिशाचन अपनी विश्वासघाती जेहादन सहेली की विश्वासघात के चलते नरपिशाचों के हाथों टुकड़े-टुकड़े कर दी गई। 

मेरे बाद उँगलियों पर गिने जाने भर के सनातनी कश्मीर घाटी में मृत्यु की छाया में एक-एक साँसें लेते छिपते-छिपाते फिर रहे थे। जम्मू, दिल्ली, पंजाब में अपने ही देश में शरणार्थी बने शेष कश्मीरी सनातनियों की तरह एक-एक दिन इसी आशा में जीते जा रहे थे कि कभी तो दिन बहुरेंगे, कभी तो हम सनातनियों की भी सुनने वाला कोई इस देश-दुनिया में आएगा। 

अपने नश्वर शरीर को त्याग चुकी हम सारी सनातनी आत्माएँ भी इसी आशा में मृत्यु-लोक में बनी हुई हैं, कि देखें शायद मानवतावादी हमारे सनातनियों की नींद खुल जाए। वह हमारी सुधि लें। 

हे मेरे प्रिय परिजन हम कश्मीरी सनातनियों की आशाएँ पूरी हुईं कि नहीं यह बस कुछ ही देर में बताऊँगी, उसके पहले यह हर हाल में जान लीजिये कि ये गिरगिट नरपिशाच सभ्य-सुसंस्कृत हम सनातनियों या अन्य को कैसे अपने छल-कपट के जाल में फँसाते हैं। यह बताना इसलिए ज़रूरी समझती हूँ क्योंकि मैं नहीं चाहती कि, हम कश्मीरी सनातनियों की तरह अब आप लोग या अन्य कोई इन गिरगिटों के जाल में फँसे। 

इन नरपिशाचों ने मुझे कैसे फँसाया वह बताती हूँ। आर्थिक रूप से मेरी स्थिति बड़ी कमज़ोर थी। मेरा बचपन, किशोरावस्था कोई बहुत ज़्यादा सुख-समृद्धि में नहीं बीता था। 

बस गृहस्थी की गाड़ी माँ-बाप खींचे जा रहे थे। ऐसे ही मेरी पढ़ाई भी। अपने गाँव टिक्कर में गाँव वालों के साथ मेरा परिवार मिल-जुल कर रहने का पूरा प्रयास करता रहा। आर्थिक विपन्नता के चलते जब किसी बड़े शहर में जा कर आगे पढ़ना सम्भव न बन सका तो मैंने सोचा जो थोड़ा-बहुत पढ़ पाई थी उसी के सहारे कोई छोटी-मोटी नौकरी करके अपने माँ-बाप के जीवन को न बहुत तो कम से कम थोड़ा-बहुत तो अच्छा करूँ ही। उन्हें दो जून अच्छा खाना, कपड़ा तो दूँ ही। 

अपने माँ-बाप को उस आघात की छाया से बाहर ले आऊँ जो उन्हें उनके साझेदार ने तब दिया था, जब मैं केवल दो साल की थी। उस धोखेबाज़ नरपिशाच ने बड़ी चालाकी से सेब के पूरे व्यवसाय पर क़ब्ज़ा कर लिया। जब पिता ने विरोध किया तो वह अपने जैसे ढेरों नरपिशाचों के साथ उन्हें परिवार सहित मारने के लिए एक जुमे को मस्जिद में नमाज़ के बाद आ धमका। 

उसने अपनी क़ौम द्वारा सदियों से प्रयोग किए जा रहे हथियार कि इस काफ़िर ने इस्लाम की तौहीन की है, का बड़ी आसानी से प्रयोग किया। सब पागल जानवरों की तरह वहाँ केवल हमारे ही नहीं, जो अन्य सनातनी थे, सबके घर जलाने, उनको काट डालने को आमादा थे। बड़ी मुश्किल से मामला सम्भला। इस सारे कुकृत्य के सहारे उसने व्यवसाय वाली बात ही गुम कर दी। 

सच जानते हुए भी मेरे पिता, गिने-चुने बाक़ी सनातनी भी चुप रहे। सच तो नरपिशाचों का वह झुण्ड भी जानता था, लेकिन वो तो अपने मज़हब की किताबों के उपदेशों, आदेशों का पालन कर रहे थे कि काफ़िरों को डराओ, मारो, लूटो। 

पिता इस घटना के बाद पूरा जीवन गुमसुम ही रहते थे। जब मैं बड़ी हुई तब अम्मा ने एक दिन यह सब बताया था। यह जानने के बाद मेरे मन में इन नरपिशाचों के लिए घृणा भर गई। मगर हम सनातनियों की सबसे बड़ी कमज़ोरी, हमारी अतिशय सहिष्णुता है। हम अपने शत्रुओं के कुकर्म को भूल जाते हैं, उन्हें क्षमा कर देते हैं। 

हम आज भी इतिहास से नहीं सीखते। हम नहीं सीखते अपनी सनातन रणनीति, चाणक्य नीति से कि शत्रु को कभी छोड़े नहीं। महान सनातनी योद्धा महाराजा पृथ्वी राज चौहान नरपिशाच गोरी को बार-बार परास्त कर उसके गिड़गिड़ाने पर क्षमादान दे देते थे। आख़िर उस कपटी नरपिशाच ने जयचंद जैसे को गद्दार बना कर धोखे से एक बार बाज़ी पलट दी। वहीं से अपने सनातन देश भारत का इतिहास भी पलट गया। 

तो मैंने भी मूर्खता की। इतिहास से नहीं सीखा। नरपिशाचों ने पिता के साथ जो अत्याचार किया उसे भूल गई। क्षमा कर दिया उन्हें। उनसे फिर बोलने बतियाने लगी। मैंने सोचा इससे नरपिशाचों के विश्वासघातों के कारण जो मानसिक आघात माता-पिता परिवार को मिला है, उससे उन्हें बाहर निकाल लाऊँ। 

मैं सबके चेहरे पर हँसी-ख़ुशी देखना चाहती थी। विश्वासघात के कारण कभी सम्पन्न रहा मेरा जो परिवार विपन्न हो गया था उसे फिर से मज़बूत करना चाहती थी। यही सोचकर मैंने नौकरी करने की सोची। मेरा परिवार नहीं चाहता था कि, जेहादी सोच की हवाओं के बीच मैं नौकरी करूँ। 

लेकिन मैंने सोचा कि निराश होकर बैठने से तो स्थितियाँ नहीं बदलेंगी। मैं माता रानी वैष्णो देवी का नाम लेकर प्रयास करती रही। माता रानी की कृपा से बड़गाम, कुपवाड़ा के एक स्कूल में प्रयोगशाला सहायिका बन गई। 

मुझे यह नौकरी इसलिए नहीं मिल गई कि मैं बहुत असाधारण योग्यता रखती थी, यह भी बताऊँ कि यदि मैं असाधारण योग्यता रखती तो भी नहीं मिलती। वहाँ असाधारण से असाधारण योग्यता वाले किसी भी सनातनी की सबसे बड़ी अयोग्यता उसका सनातनी होना है। 

लेकिन नरपिशाचों की सबसे बड़ी विवशता यह है कि क्योंकि पढ़े-लिखे सनातनी होते हैं, तो जब उन्हें ढूँढ़े भी कोई जेहादी नहीं मिलता तो, उन्हें सिर पीट कर सनातनियों को ही नौकरी देनी होती थी। 

मैं भी नौकरी पाकर बहुत ज़्यादा ख़ुश थी कि अब परिवार को थोड़ी ख़ुशी दे पाऊँगी। मगर ज़हरीली जेहादी हवाएँ यह बरदाश्त नहीं कर पा रही थीं, वह भीतर ही भीतर मुझे, मेरे परिवार को डसने में लगी हुई थीं। 

जल्दी ही मेरी शादी एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति से हो गई तो मेरा मनोबल और बढ़ गया। साल भर बाद ही फूल सी बिटिया ने जन्म लेकर घर को और ज़्यादा ख़ुशियों से भर दिया। मुझे लगा मानो माता रानी स्वयं अवतरित हुई हैं। 

मुझे अपना जीवन, अपना घर, स्वर्ग सा लगने लगा। बिटिया के दो साल की होते-होते ज़हरीली जेहादी हवाओं के कई घातक झोंके आए। मेरी, परिवार की जान जाते-जाते बची। फिर भी हम डटे रहे तो हवाएँ और ज़हरीली होने लगीं। इन ज़हरीली हवाओं, हमलों के बीच ही बेटे ने जन्म लिया। लेकिन नरपिशाचों के कारण जैसे हम बिटिया के जन्म की ख़ुशी का उत्सव नहीं मना पाए थे, वैसे ही बेटे के जन्म पर भी सारी ख़ुशी को भीतर ही समेटे घुटते रहे। 

ईश्वर को धन्यवाद देने मंदिर तक नहीं जा सके। क्योंकि जेहादियों ने आस-पास के सारे मंदिरों को पहले ही तोड़-फोड़ कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। किसी भी दुकान पर हमारे पूजा-पाठ से सम्बन्धित कोई भी सामग्री नहीं बेची जा सकती थी। हमारी कठिनाइयों, हमारी मनःस्थिति का अनुमान इसी बात से लगा लीजिये कि हम घर के अंदर भी पूजा-पाठ नहीं कर सकते थे। 

अपने आराध्य-देव की कोई मूर्ति या चित्र नहीं लगा सकते थे। यहाँ तक कि पूजा संबंधी कोई सामग्री भी नहीं रख सकते थे। क्योंकि नरपिशाच आए-दिन घरों के भीतर घुस आते थे। नरपिशाचिनें तो पड़ोसी का धर्म निभाने के बहाने आतीं और पूरे घर की जाँच करके पूरी स्थिति पिशाचों को बताती थीं। 

इसलिए हमने अपने कुलदेवता और भगवान शिव की अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित मूर्ति घर की रसोई में ज़मीन के अंदर स्थापित कर दी थी। जिससे घिनौने नरपिशाचों के नारकीय हाथ उन्हें स्पर्श न कर सकें। उसी स्थान पर छिप कर अपनी पूजा अर्पित करते थे। 

प्यारे सनातनी भाइयों हमारी हालत मध्यकाल या उससे पहले जो थी उससे भी बद्दतर थी। जब बाहरी, जंगली जानवरों से असभ्य बर्बर डकैतों के समय हम सनातनियों पर बर्बर अत्याचार होते थे। हमारे पूजा स्थान तोड़े-फोड़े जाते थे, मूर्तियाँ तोड़कर सीढ़ियों या गंदे स्थानों पर डाली जाती थीं। महिलाएँ लूटी जाती थीं। चीर-हरण होता था। 

बच्चों के जन्म के समय ही हमें जेहादियों द्वारा मार देने की पूरी कोशिश हुई। मगर ईश्वर की कृपा, माँ, पति की अत्यधिक सतर्कता के कारण हम बचते रहे। यहाँ तक कि गर्भावस्था के दौरान और प्रसवोपरांत जो दवाएँ, बच्चे को टीके आदि लगते हैं वो भी नहीं देने देते थे। आख़िर हम घाटी से बाहर जम्मू जाकर यह सब करवाते। 

जान हमारी इसलिए भी बची नरपिशाचों से, क्योंकि डॉक्टर्स और नर्सेस सनातनी थे। उन्होंने ही हमें जम्मू जाने की सलाह दी थी। वो बहुत छिप-छिपा कर हमें दवाएँ आदि देते थे। एक डॉक्टर ने छिप कर ही हमें इतने पैसे दिए कि, हम जम्मू जाकर उपचार करवा सकें। क्योंकि उन डॉक्टर मट्टू को यह मालूम हो गया था कि नरपिशाचों ने उस महीने हम पति-पत्नी दोनों ही के सारे पैसे छीन लिए थे। 

अपने स्वाभिमान के चलते हमने मना किया तो उन्होंने कहा, “एक भाई अपना कर्त्तव्य निभा रहा है, यह कोई मदद नहीं है। हमें किसी भी तरह स्वयं को बचाए रखना है। आशा बनाए रखिए, एक दिन स्थितियाँ बदलेंगी ही। परिवर्तन प्रकृति का नियम है।” उनकी भावनाओं ने हमें बहुत भावुक कर दिया था। आगे वो जैसा कहते, हम वैसा ही करते रहे। 

प्रिय सनातनियों आपके मन में यह आ सकता है कि, भाई जब समस्या इतनी भयावाह थी, प्राणों को हर क्षण इतना ख़तरा था तो अन्य लोगों की तरह वह जगह छोड़ कर किसी और सुरक्षित जगह चली जाती। तो भाइयों ऐसे में मेरा आप सब से प्रश्न यह है कि, कब-तक भागोगे, कहाँ-कहाँ से भागोगे, कहाँ तक भागोगे। जब भागने के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी तब कहाँ भागोगे? सदियों से भागते ही तो आ रहे हो। 

हे सनातनियों, हे आर्य-वंशियों ज़रा खंगालो अपना इतिहास, ज़रा एक बार अपने प्राचीन गौरव पर दृष्टि डालो। क़रीब पाँच हज़ार वर्ष पहले आज के ईरान तब के फ़ारस में हम आर्यों का प्रभुत्व था, हम इसके स्वामी और भाग्य-विधाता थे। लेकिन कालांतर में हम कुछ ज़्यादा ही सहिष्णु हो गए, अपने शास्त्र, संस्कृति, शस्त्र से विमुख हो गए, परिणाम-स्वरूप फ़ारस से हम बाहर हो गए। 

चलिए एक और देश याद करते हैं, जिसे हम अति सहिष्णुता के चलते गवाँ बैठे। जहाँ अभी हाल में ही नरपिशाचों ने बस सैकड़ों की ही संख्या में शेष बचे सनातनियों को मारा, काटा, जलाया। हमारे पूजा स्थानों को नष्ट कर दिया। हमारी अपनी नई सरकार ने हर सम्भव प्रयास कर उनमें से बहुतों को बचाया, उन्हें सुरक्षित अपने देश लेते आए। इनमें ज़्यादातर अपने सिख भाई-बंधु थे। 

देखिये हम कितने लापरवाह हैं। अभी उँगलियों पर ही दिन बीते हैं और कुछ भी याद नहीं आ रहा है। वही पड़ोसी देश जहाँ कुछ समय पहले तक ‘आर्याना‘ नाम से सबसे बड़ी होटलों की शृंखला थी, एयरलाइन थी। 

देश का नाम आर्यानुम्र वीजू। आर्याना हुआ करता था। आर्य-वंशियों के इस पूरे क्षेत्र को खुरासान, पश्तूनख्वाह, पख्तिया और रोह भी कहते थे। इसमें वर्णु, कुम्भा, सुवास्तु, कम्बोज और गांधार क्षेत्र शामिल थे। 
 वही गांधार, जहाँ की राजकुमारी गांधारी थीं। जो द्वापर-युग में कौरव वंश की महारानी थीं। महाराज धृतराष्ट्र की धर्म-पत्नी। अब याद आ गया न, सबसे गंदे दुर्व्यसनों में से एक, द्यूत क्रीड़ा के पटु खिलाड़ी गांधार नरेश शकुनि। 

जिसने अपने इसी दुर्व्यसन के सहारे कौरव राज-परिवार में राजगद्दी के लिए परस्पर प्रतिद्वंद्विता को ऐसी आग दिखाई कि इस पृथ्वी के ज्ञात इतिहास का अब-तक का सबसे बड़ा महायुद्ध हुआ। ‘महाभारत’। जिससे महा-विनाश हुआ। राज-परिवार का विनाश हो गया। पांडव जीत कर भी हार गए। 

मगर प्रकृति या विधि का खेल भी देखिये एक तरफ़ जहाँ गांधार में शकुनि जैसा कुटिल खलु-कामी हुआ, वहीं हम सनातनियों की, दुनिया की आदि भाषा, दुनिया की महानतम संस्कृत भाषा के वैयाकरणाचार्य पाणिनी भी हुए थे। जिन्होंने “अष्टाध्यायी” जैसा अनुपम ग्रन्थ लिखा था। 

इसी क्षेत्र में ‘कल्लर’ नाम के सनातनी राजा ने सन आठ सौ तैंतालीस ईसवी में हिन्दू शाही वंश की स्थापना की थी। इस वंश ने तीन सौ पचास से भी अधिक वर्षों तक शासन किया। इनकी शासन-व्यवस्था इतने उच्च स्तर की थी कि, उसका वर्णन कल्हण की राजतरंगिणी में तो मिलता ही है, विवश होकर अल-बरूनी, अल-उतबी जैसे मज़हबी इतिहासकारों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 

ये मज़हबी भी यह लिखने को विवश हो गए कि इस हिंदू राज्य में हिन्दू, बौद्ध, यहूदी, मुस्लिम सभी बहुत ही सद्भाव के साथ, बिना किसी भेद-भाव के रहते थे। राज्य इतना सुखी, समृद्ध था कि सोने के सिक्के चलते थे। 
 ये सिक्के इतने सुंदर, उच्चकोटि के थे कि, सन नौ सौ आठ में बगदाद का ख़लीफ़ा अल-मुक्तदीर उन पर ऐसा मुग्ध हुआ कि बिल्कुल वैसा ही सिक्का अरबी में अपना नाम ख़ुदवा कर जारी कर दिया। 

इस पूरे क्षेत्र में जो नदियाँ बहा करती हैं, उनके प्राचीन नाम गोमती, सर्यू, रसा, वक्षु, कुभा, कुरम हुआ करते थे। आज इन नदियों को दुनिया गोमल, हरिरुद, आमू, कुर्रम, काबुल, रँगा नाम से जानती है। 

यहाँ का सनातनी राजा ‘महाराज धर्मपति’ कहलाता था। प्रमुख सनातनी राजा हुए हैं कल्लार, अष्टपाल, सामंतदेव, भीम, जयपाल, आनंदपाल, भीमपाल, त्रिलोचनपाल आदि। हे मेरे प्यारे परिजनों, अब तो सब-कुछ याद आ गया होगा न। मैं अपने सनातनी क्षेत्र आर्याना की ही बात कर रही हूँ, जो दुनिया के नक़्शे पर सत्रह सौ पचास के क़रीब अफ़ग़ानिस्तान के नाम से उभरा। 

हमारी एकजुटता, जागरूकता में कमी का लाभ नरपिशाचों ने उठाया और पूरा सनातनी क्षेत्र नरपिशाचों के अधिकार में होता चल गया। इन पिशाचों ने वही किया जो इनकी संस्कृति है, हर भवन, शिक्षा केंद्रों, व्यवसाय केन्द्रों को नष्ट करते गए। पूरे क्षेत्र को अपनी मध्ययुगीन, बर्बर जंगली, उजड्ड संस्कृति में बदलते गए। सनातनियों का सामूहिक संहार या धर्मांतरित करते गए। 

यह ख़ुद इनके मज़हबी इतिहासकारों अल-उतबी, अल-मकदीसी, अल-बरूनी और अल-मसूदी ने एकमत से लिखा है कि, अफगानी हिन्दू अब मुसलमान हैं। इन्हें बलात मुस्लिम बनाया गया। 

हे अति सहिष्णु सनातनियों आज भी यदि अपनी सनातन भूमि के इस हिस्से आर्याना (दुर्भाग्य से आज अफ़ग़ानिस्तान) जाओगे तो सदियों से नरपिशाचों द्वारा हमारी संस्कृति के निशानों को नष्ट करते रहने के बावजूद हेरात, काबुल, जलालाबाद, बगराम, बल्ख और आसामाई पहाड़ पर अपनी संस्कृति के असंख्य अवशेषों को देखोगे। मज़हबी, वामपंथी, पश्चमी सहित सभी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि आसामाई मंदिर दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना है। 

ज़रा सोचिये जब नरपिशाचों के तथा-कथित मज़हब का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं था, उससे भी सैकड़ों, हज़ारों वर्ष पूर्व हमारी समग्र रूप से पूर्णता को प्राप्त श्रेष्ठतम संस्कृति थी। गिने-चुने स्थानों में नहीं पूरे आर्याना के कोने-कोने में आप उनके दर्शन कर सकते हैं। 

बामियान की विश्व-प्रसिद्ध बुद्ध प्रतिमा को नरपिशाच नष्ट करते-करते थक गए लेकिन आज भी पूरा नष्ट नहीं कर पाए हैं। आप सब के मन में अपनी संस्कृति को लेकर संशय का एक अणु भी न रह जाए, इसलिए कहूँगी कि अपने सनातन पूर्वजों द्वारा इस पृथ्वी को दिए गए आदि ग्रंथों वेदों को एक बार ध्यान से पढ़ लीजिए। 

ऋग्वेद में एक नहीं अनेक ऐसी ऋचाएँ हैं, जिनमें आर्यना का वर्णन मिलता है। एक ऋचा में जहाँ वर्तमान आफरीदी क़बीले का वर्णन ‘आपर्यतय’ नाम से है तो एक ऋचा में वर्तमान पख्तूनों का वर्णन ‘पक्त्याकय’ नाम से है। क़रीब सत्रह सौ सैंतालीस तक यह आर्यना ही बना रहा। 

इस क्षेत्र की पीठ में सत्रह सौ उन्तालीस में दिल्ली पर अवैध क़ब्ज़ा किए बैठे आतताई अय्याश नरपिशाच मुहम्मद शाह अकबर ने छूरा घोंपा। उसने आर्यना को ईरान के अपने सहोदर नरपिशाच नादिर शाह के हवाले कर दिया कि ले काफ़िरों का ख़ून बहा कर जन्नत में अय्याशी के लिए तू भी बहत्तर हूरें पक्की कर ले। ये पिशाच हूरों के सपने पाले, काफ़िरों का ख़ून बहाते हैं, लेकिन इनकी पिशाचिनें जन्नत में अय्याशी के लिए क्या पाती हैं, इस पर मुँह नहीं खोलते। 

यह सारी बातें हो जाने के बाद, मैं ऐसा विश्वास करती हूँ कि, आर्याना कब से और कितना अपना है इसको लेकर अब आपके मन में अणु विखंडित करने पर उसके जो सूक्ष्तम तीन टुकड़े होते हैं, उनमें से एक टुकड़े के बराबर भी संशय नहीं रह गया होगा। यह तो आप जानते ही हैं कि अणु के इससे ज़्यादा टुकड़े नहीं हो सकते। 

देखिये कितनी सदियों से अपने सनातन देश का अस्तित्व समाप्त करने का प्रयास कैसे-कैसे कुटिल लोग करते आ रहे हैं। कुटिल अँग्रेज़ों का कुकृत्य देखिये कि उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ से भारत के अपने उपनिवेश को बचाने के लिए, भारत के इस हिस्से आर्यना को बफर-स्टेट बनाकर उसे अपने मूल से ही काट दिया। इसके लिए उसने सोवियत संघ से गंडमाक संधि कर ली। 

उनकी कुटिलता की यह एक ऊपरी धुँधली तस्वीर है। वास्तविक तस्वीर यह है कि इसके ज़रिए सबसे पहले उन्होंने भारत को उन्नीस सौ सैंतालीस में खंडित करने से पहले ही विभाजित कर दिया। यह टुकड़ा कभी फिर न मिल सके इसके लिए बड़ी धूर्तता के साथ तथा-कथित देश अफ़ग़ानिस्तान को अठारह अगस्त, उन्नीस सौ उन्नीस को अपने शासन से स्वतंत्र कर दिया। 

इससे उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन को बुरी तरह कमज़ोर कर दिया। मगर आश्चर्य देखिये कि भारत के इस दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन की आज भी कभी कोई चर्चा नहीं होती। तथा-कथित स्वतंत्रता संग्राम के, तथा-कथित स्वतंत्रता सेनानी किसी कांग्रेसी ने कुटिल अँग्रेज़ों की इस कुटिल चाल के विरुद्ध कहने को भी एक शब्द नहीं बोला। केवल अपनी छाती पर सीधे अँग्रेज़ों की गोली खाने वाले सच्चे क्रन्तिकारी ही पुरज़ोर विरोध कर रहे थे। और उनकी गोलियाँ खा-खा कर वीर-गति को प्राप्त होते रहे थे। 

प्रिय सनातनियों क्या हमें अब भी यह कहने में संकोच करना चाहिए कि सत्रह सौ उन्तालीस में नरपिशाच मुहम्मद शाह अकबर ने हमारे देश को खंडित करने की जो चाल चली, अँग्रेज़ों ने उसे और पुष्ट किया, और अँग्रेज़ों के ही आनुषांगिक संगठन कांग्रेस ने देशवासियों के मन-मष्तिष्क में यह बात सफलतापूर्वक बैठाई कि आर्यना तो कभी अपना क्षेत्र था ही नहीं। 

कांग्रेस को बार-बार अँग्रेज़ों का आनुषांगिक संगठन कहने पर चौंकिए नहीं। केवल इस तथ्य पर ध्यान दीजिये कि, इस संगठन को बनाने वाला कोई और नहीं कट्टर ईसाई, दूरदर्शी, अँगरेज़ एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम था। यह संगठन बनाने के पीछे अँग्रेज़ों का एकमात्र उद्देश्य था भारतीय जनमानस के मन में उसके अत्याचारों, दासता के विरुद्ध जो ग़ुस्सा, उबाल पैदा हो उसको निष्प्रभावी करना। 

उन्होंने बड़ी कुटिलता के साथ पुरज़ोर तरीक़े से यह दिखावा किया कि कांग्रेस संगठन तो भारतीयों के हित के लिए बनाया गया है। और वह भारतीयों की स्वतंत्रता की बात को ब्रिटिश सरकार के सामने रखेगा। 

देशवासियों को भ्रम में रखने के लिए बड़ी धूर्तता के साथ तमाम भारतीयों को इस संगठन में भर लिया। बहुत लोग धूर्तों के छल-कपट को समझ नहीं पाए। वो उनके साथ होते चले गए। और जब जन-मानस में अँग्रेज़ों से मुक्ति, स्वतंत्रता के लिए ग़ुस्सा बढ़ती, तो संगठन में शामिल भारतीय ही आगे कर दिए जाते। वो कहते आज़ादी का संघर्ष हम आगे बढ़ाएँगे। आपकी बात कंपनी बहादुर यानी सत्ता के सामने रखेंगे। भारतीय जनगण इनकी बातों पर विश्वास कर लेता था। 

और ये भारतीय जनमानस के प्रतिनिधि बनकर अँग्रेज़ों के पास बतौर उनके विशिष्ट अतिथि पहुँचते। वहाँ कुटिलता-पूर्वक जनमानस की भावनाओं को कुचलने, समाप्त करने के नए षड्यंत्र रचे जाते। ख़ूब जमकर विशेष प्रकार के विभिन्न रसों का रसास्वादन लिया जाता। उसके बाद लौट कर जन-मानस को धोखा दिया जाता कि, हमने आपकी बातों को पूरी प्रबलता के साथ रखा। 

उन्होंने हमारी बातों को ध्यान से सुना, बहुत महत्त्व दिया। हमारे दबाव के कारण वो आपकी माँगों पर गंभीरता-पूर्वक विचार करने को तैयार हो गए हैं। जल्दी ही आपके पक्ष में कोई निर्णय लेने का पूरा आश्वासन दिया है। अब आप लोग निश्चिंत होकर अपने काम-धाम में लग जाएँ। 

इस तरह जनमानस में अपनी स्वतन्त्रता के लिए अँग्रेज़ों के विरुद्ध उपजे क्रोध, उबाल को ठीक वैसे ही ठंडा कर दिया जाता था जैसे भगोने में उबाल खाते दूध में आप पानी की छीटें मार कर उबाल ख़त्म कर देते हैं। दूध फिर से भगोने की गहराई में चला जाता है। 

आप तथा-कथित स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास उठा कर देख लीजिये, हर आंदोलन को इसी तरह रसातल में पहुँचाया गया। 

मेरे प्रिय सनातन परिजन यह सब इसलिए बताना चाह रही हूँ, जिससे हमारी सनातन संस्कृति, राष्ट्र के वास्तविक शत्रुओं का असली चेहरा आप एकदम साफ़ देख सकें। 

उदाहरण के लिए आप ‘असहयोग आंदोलन’ को ही ले लीजिये। इस आंदोलन से पहले जन-मानस में अँग्रेज़ों के भीषण अत्याचार के विरुद्ध ग़ुस्सा चरम पर था। 

यह ग़ुस्सा किसी भी समय भयानक जन-विद्रोह के रूप में फूट सकता था। उबलता दूध भगोने से बाहर गिरे, उसके पहले ही अँग्रेज़ उसमें पानी के छीटें मारने के लिए सक्रिय हो उठे। 

सबसे पहले चार सितम्बर, उन्नीस सौ बीस को ह्यूम और उनकी ही तरह कट्टर अँग्रेज़ों के प्रिय दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा के सर्वेसर्वा वाली कांग्रेस ने कलकत्ता के अधिवेशन (अब कोलकाता) में भारत से उपनिवेशवाद को समाप्त करने के लिए असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा। (उपनिवेशवाद शब्द को ध्यान में रखियेगा, पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं उपनिवेशवाद से मुक्ति की बात रखी गई) तब-तक दक्षिण अफ़्रीका में अँग्रेज़ों की ख़ूब सेवा करके उनके कृपापात्र बनकर वापस लौटे गाँधी, भारतीय राजनीति में अपनी गहरी पैठ बना चुके थे। 

वहाँ उन्होंने उन्नीस सौ छह में जब अँग्रेज़ों के अत्याचार के विरुद्ध ज़ुलू विद्रोह हुआ तो बजाय पीड़ितों का साथ देने के पीड़क अत्याचारी अँग्रेज़ों का साथ दिया। हालाँकि वह अपनी न्यायप्रिय, सत्यवादी, अहिंसावादी की छवि गढ़ने में हमेशा जुटे रहते थे। 

लेकिन अन्याय का ही साथ देने के लिए, विशुद्ध रूप से हिंसा करने को उतारू अँग्रेज़ों से कहा कि भारतीयों को अपनी सेना में शामिल कर लीजिये। लेकिन अँग्रेज़ों को उन सहित किसी भी भारतीय पर विश्वास नहीं था तो उन्होंने सख़्ती से मना कर दिया। 

लेकिन जब गाँधी गले ही पड़ गए तो उन्हें घायल अँग्रेज़ सैनिकों को स्ट्रेचर पर लाद कर शिविर तक पहुँचाने का काम दे दिया गया। गाँधी ने अपने नेतृत्व में भारतीयों की टीम बना कर जी-जान से काम किया। पुरस्कृत भी हुए। भारत में भी अँग्रेज़ों से उनके गहरे मधुर रिश्ते बन चुके थे। 

इस रिश्ते का ही प्रभाव था कि, कुछ ही बरसों में वह तत्कालीन एक से बढ़ कर एक बड़े नेताओं को आश्चर्यजनक ढंग से पीछे छोड़ कर सबसे बड़ा क़द बनाने में सफल हो गए। उन्होंने ही असहयोग आंदोलन प्रस्ताव के लिए कहा था कि, “यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा।”

प्यारे सनातनियों यह बात सही थी। जनमानस ने एक अगस्त उन्नीस सौ बीस से आंदोलन को जिस तरह से आगे बढ़ाया उसकी अँग्रेज़ों ने कल्पना तक नहीं की थी। उनके विरुद्ध देश के कोने-कोने में ज़बरदस्त आक्रोश भर उठा था। अँग्रेज़ों के हाथ-पाँव फूल गए थे। उन्हें भारत से अपना पलायन तय दिखने लगा था। अँग्रेज़ों के पिट्ठुओं को छोड़ कर शेष पूरा जन-मानस अपनी नौकरी, व्यवसाय, काम-धाम, पढ़ाई-लिखाई, सब का बलिदान कर आंदोलन को प्रचंड रूप दिए हुए था। 

घबराए अँग्रेज़ों को जब लगा कि बाज़ी उनके हाथ से निकल रही है, तो उन्होंने अपने ब्रह्मास्त्र, अपने आनुषंगिक संगठन कांग्रेस का एक बार फिर प्रयोग किया। और वही हुआ जो हमेशा होता था। बिलकुल निर्णायक क्षणों में गाँधी ने अहिंसा के नाम पर ‘चौरी-चौरा कांड’ का बहाना लेकर आंदोलन को समाप्त कर दिया। 

चौरी-चौरा में बात सिर्फ़ इतनी थी कि, जब शांति-पूर्वक प्रदर्शन कर रहे देशवासियों पर पुलिस ने अनावश्यकरूप से बर्बर बल-प्रयोग किया तो क्रोध में प्रतिक्रिया-स्वरूप प्रदर्शनकारिओं ने थाने में आग लगा दी। जिससे थानेदार सहित इक्कीस पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई। 

पूरा देश हतप्रभ रह गया कि, यह क्या अनर्थ किया जा रहा। जब अँग्रेज़ों के पैर क़रीब-क़रीब उखड़ ही चुके हैं तो आख़िर किस उद्देश्य से उनके पैर पुनः जमाए जा रहे हैं। क्या छोटा, क्या बड़ा, क्या आम, क्या ख़ास, सभी एक दूसरे को देखते रह गए। पिट्ठू कांग्रेसियों को छोड़ कर सारा देश स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा था। 

गाँधी को तत्कालीन बहुत से वरिष्ठ नेताओं, प्रतिष्ठित लोगों ने बहुत कुछ समझाया कि, यह अनर्थ न कीजिये। देश बहुत आगे बढ़ चुका है। अँग्रेज़ पस्त हो चुके हैं। आज़ादी अब हमसे कुछ ही दूर रह गई है। मगर बाल-हठ सा हठ किए गाँधी नहीं माने। आख़िर वो उन अँग्रेज़ों को कुपित कैसे कर सकते थे, जिनकी कृपापात्रता प्राप्त करने लिए अफ़्रीका में जीजान से उनकी मदद की थी, इसके लिए उनके गले ही पड़ गए थे। कैसे पड़े थे यह बता ही चुकी हूँ . . . 

आंदोलनकारियों की जिस चौरी-चौरा घटना को हिंसा कह कर वह अपनी ज़िद पूरी करने का हथियार बनाए हुए थे, उनसे लोगों को पूछना चाहिए था कि आप अफ़्रीका में ज़ूलू विद्रोह में अन्यायी अँग्रेज़ों के साथ सैनिक बनकर युद्ध-भूमि में कौन सी अहिंसा का झंडा बुलंद करने का हठ किए हुए थे, वहाँ अँग्रेज़ों से भी अहिंसा के रास्ते पर ही चलने के लिए कहते। 

विश्व युद्ध में अँग्रेज़ों को जिताने के लिए भारतीयों को उनका सहयोग करने, उनकी फ़ौज में शामिल होने के लिए आख़िर क्यों एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए हुए थे। आगे चलकर आपका ‘करो या मरो’ नारा यह सब आपकी कौन सी विशिष्ट अहिंसा के सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। 

देश के साथ हुए इस विश्वासघात से आहत नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कड़े शब्दों में कहा था, “ठीक इस समय जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं।”

इसी बात का समर्थन करते हुए मोती लाल नेहरू ने कहा था, “यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।”

मगर बड़े अजब-ग़ज़ब थे वो। किसी की भी बात का, देश का उनकी ज़िद के आगे कोई अर्थ ही नहीं था। तो अपना सनातन देश, सनातन संस्कृति एक ऐसे व्यक्ति, पार्टी की ज़िद की भेंट चढ़, ऐसी बड़ी बर्बादी की ओर बढ़ चला जिसका परिणाम उन्नीस सौ उन्नीस के बाद एक और विभाजन के रूप में पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को सामने आया। 

मैं तो यह भी कहती हूँ कि ग़लती जनमानस की भी थी कि किसी की ज़िद को उन्होंने देश से ऊपर महत्त्व दिया ही क्यों? देश, देशवासियों का था किसी की व्यक्तिगत प्रॉपर्टी नहीं कि वो जो चाहे वो करे। यह एक देश था कोई खिलौना नहीं कि कोई इससे खेलता, मन बहलाता . . .। 

मैं तो नेता जी सुभाष चंद्र बोस के लिए भी कहूँगी कि आपको इस जन आंदोलन के ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से समाप्त हो जाने की स्थिति को देखते ही तुरंत आगे आकर, आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेना चाहिए था। उस समय आपकी भी लोकप्रियता शीर्ष पर थी। आपमें अद्भुत नेतृत्व क्षमता थी। लोगों का आप पर अटूट विश्वास था। 

आपके आगे आते ही पूरा देश आपके पीछे चल देता, और उसी वर्ष देश वास्तविक रूप से स्वतंत्र हो जाता, देश के टुकड़े होने की नौबत ही नहीं आती। लेकिन न जाने आपके सामने ऐसी कौन सी स्थिति आ गई थी कि आप १२ फरवरी, १९२२ को बारदोली में कांग्रेस की बैठक में गाँधी द्वारा इस आंदोलन की निर्मम हत्या होते देखते रहे। निःसंदेह आज की युवा पीढ़ी आपको राष्ट्रनायक मानती समझती है लेकिन जब भी यह प्रसंग आएगा तो साथ ही उसका यह प्रश्न भी नत्थी रहेगा कि आप आगे क्यों नहीं आये, किसने आपके क़दम रोक रखे थे? 

सभी तथ्य एकमात्र यही बात कहते हैं कि यदि गाँधी की मूर्खतापूर्ण अनर्गल ज़िद को अकारण ही महत्त्व देकर, उनकी बात न सुनी जाती, आंदोलन समाप्त न किया जाता, उन्नीस सौ बाइस में ही सामने दिख रही स्वतंत्रता अँग्रेज़ों से छीन ली जाती, जो कि तब बहुत आसान हो गई थी, तो भारत के और टुकड़े नहीं होते। जिन्ना जैसे एक नहीं कई नरपिशाच भी कोई टुकड़े नहीं कर पाते। 

सारे तथ्य चीख-चीख कर यही कहते हैं कि गाँधी, कांग्रेस अँग्रेज़ों के हाथों में पानी की वह बूँदें थीं, जिनका प्रयोग वो बहुत शातिर ढंग से करके जनमानस में स्वतन्त्रता के लिए उठे हर उफ़ान को रसातल में पहुँचा देते थे। इसे समझने के लिए बस एक तथ्य ही पर्याप्त है कि १२ फरवरी, १९२२ को असहयोग आंदोलन की निर्मम हत्या के बाद भारत की स्वाधीनता आंदोलन की दुनिया में छुटपुट हलचल को छोड़ गहन सन्नाटा पसरा रहा। 

आख़िर क्यों? क्या जनमानस हताश-निराश हो गया था कि उनकी मेहनत, त्याग बलिदान का कोई मोल नहीं है, क्योंकि जैसे ही बात मंज़िल तक पहुँचेगी वैसे ही गाँधी, उनकी कांग्रेस की कोई सनक भरी ज़िद उन्हें पुनः ले जाकर प्रस्थान बिंदु पर पहुँचा देगी, वो फिर ठगे से एक दूसरे का मुँह देखते रहेंगे, अपनी बर्बाद दुनिया को विवश देखते रहने के सिवा उनके पास कुछ भी नहीं बचेगा। 

विशेष ध्यान दीजिये इस तथ्य पर कि असहयोग आंदोलन की हत्या के बाद आश्चर्यजनक ढंग से लम्बे समय तक घनघोर सन्नाटा छाया रहा, पूरी गंभीरता से इतिहास खंगाल डालिये, देखिये आज़ादी के उद्देश्य से कोई बड़ा आंदोलन हुआ आपको दीखता है क्या? मेरा अटल विश्वास है कि आपको कहीं कुछ नहीं दिखेगा। इसलिए सीधे द्वितीय विश्व युद्ध पर आ जाइये। 

जब द्वितीय विश्व युद्ध १९३९ में प्रारम्भ हुआ तभी नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने ज़ोर देकर कहा कि आज़ादी प्राप्त करने का यह एक अच्छा अवसर है। हमें ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालना चाहिए, लेकिन गाँधी, कांग्रेस ने उनकी बात नहीं मानी। 

नेता जी को स्पष्ट महसूस हुआ कि प्रथम विश्व युद्ध की तरह गाँधी, कांग्रेस इसबार भी सीधे न आकर, शांत रहकर अँग्रेज़ों का सहयोग ही करेंगे, ऐसे तो आज़ादी की अपेक्षा करना व्यर्थ है। और फिर उन्होंने अपनी पृथक राह पकड़ी, सीधे सैन्य कार्रवाई करने का रास्ता चुना। यह अत्यंत कठिन रास्ता था लेकिन अँग्रेज़ों को भगाने का इससे ज़्यादा विश्वसनीय कोई दूसरा रास्ता उन्हें नहीं दिखा। क्योंकि था ही नहीं। 

अपनी विश्वसनीय नई राह पर चलने के लिए उन्होंने प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी रास बिहारी बोस द्वारा उन्तीस अक्तूबर उन्नीस सौ पंद्रह को बनाई गई आज़ाद हिन्द फ़ौज का १९४३ में पुनर्गठन किया। जापान के सहयोग से हथियारों आदि से सुसज्जित साठ हज़ार सैनिकों की फ़ौज के वह सर्वोच्च कमांडर बने। यह भी ध्यान रखियेगा कि भारत में ब्रिटिश फ़ौज में कुल अँग्रेज़ सैनिक भी लगभग इतने ही थे, शेष भारतीय लोग ही थे। 

ज़रा सोचिये कि हमारे आपस में लड़ते रहने के कारण, हमारी ही शक्ति के सहारे हज़ारों किलोमीटर दूर से ब्रिटेन उस समय भारत जैसे विशाल भूभाग शासन करता रहा। मतलब हमारी ही शक्ति का प्रयोग कर शत्रु हमें ग़ुलाम बनाये हुए था। ठीक वैसे ही जैसे अँग्रेज़ों से पहले क़बीलाई संस्कृति के चोर लुटेरे डकैत आये, आपसी दुश्मनी के चलते हमने ही उन्हें मदद की, हमारे ही बहादुर सेनापति, सैनिक अपनों को नीचा दिखाने के लिए उन बर्बर डकैतों की ओर से लड़ते रहे, उन्हें जिताते रहे, ख़ुद अपने हाथों ही अपनों को मारते काटते, अपना ही सर्वनाश करते उनके दास बनते गए। 

नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने इस स्थिति को समझा, इसे अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया, अपनी आज़ाद हिन्द फ़ौज के सहारे ब्रिटिश राज्य पर हमला कर उसकी चूलें हिलाने लगे। उनके आह्वान पर ब्रिटिश फ़ौज में भारतीय सैनिकों में विद्रोह की सुगबुगाहट की चिंगारी प्रज़्वलित हो उठी। दिन पर दिन बढ़ने लगी। इस स्थिति से पूरा साम्राज्य काँप उठा। 

इस तथ्य को पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने उन्नीस सौ छपन्न की अपनी भारत यात्रा पर स्वीकार किया। वह बंगाल के तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर पीबी चक्रवर्ती के अतिथि बनकर आये थे। बातचीत के दौरान चक्रवर्ती ने एटली से भारत को आज़ाद करने का मुख्य कारण पूछा तो एटली ने कहा कि, “भारतीय सैनिकों के विद्रोह और सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के भारत में घुस जाने के डर ने अँग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया।”

चक्रवर्ती ने जब पूछा कि, “गाँधी का कितना प्रभाव था उनके भारत से जाने के पीछे?” तो एटली ने साँस भरकर कहा, “बे . .ह . .द कम।” 

तो हे मेरे प्रियजन, नेता जी ने जब अपना पृथक रास्ता चुना तभी गाँधी, कांग्रेस को लगा कि बात तो उनके हाथ से निकल जाएगी। वह उनकी काट ढूँढ़ने लगे, जो उन्हें ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के रूप में मिला। यह आंदोलन भी तब प्रारम्भ किया गया जब द्वितीय विश्व युद्ध में अँग्रेज़ों की हालत एकतरफ़ा उनके पक्ष में न रहकर उनकी स्थिति भी अनिश्चितता के भँवर में जाती दिखी। अधूरे मन से प्रारम्भ किया गया यह आंदोलन भी लम्बा नहीं चला। 

असहयोग आंदोलन के बाद रहस्यमयी चुप्पी के दौरान ही, देश, देश के वास्तविक, सच्चे स्वतन्त्रता सेनानियों की पीठ में जो छूरा घोंपा गया, जिससे पूरा देश स्तब्ध रह गया, आक्रोश से भर उठा, इसे भी थोड़ा सा जान लीजिये। हुआ क्या कि इसी चुप्पी के बीच बड़े शान्ति, सौहार्द, मित्रतापूर्ण माहौल में पाँच मार्च उन्नीस इकतीस को गाँधी उनकी कांग्रेस ने अँग्रेज़ों के साथ गाँधी-इरविन नामक समझौता किया। 

इस समझौते पर आप एक सरसरी दृष्टि भी डालेंगे तो आपको एकदम साफ़ दिखेगा कि यह पैक्ट सफलता पूर्वक हो जाए इसके लिए गाँधी, नेहरू इनकी कांग्रेस ने उन तीन महान क्रांतिकारियों की बलि ले ली जिनकी लोकप्रियता, जिनकी शक्ति से उस समय पूरा अंग्रेज़ी शासन थर्राया हुआ था, उन्हें अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा था। और कांग्रेस भी। 

आपको यह भी दिखेगा कि अँग्रेज़ों ने अपने आनुषंगिक संगठन कांग्रेस उसके नेताओं के सहयोग से देश के महान क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की निर्मम हत्या की। इस पैक्ट में गाँधी ने इरविन की यह बात बिना कोई प्रश्न खड़ा किये आसानी से मान ली कि अहिंसावादी राजनीतिक क़ैदियों को मुक्त कर दिया जाएगा, मतलब गाँधी के पीछे चलने वाले सभी छोड़ दिए जाएँगे लेकिन उग्रपंथी यानी क्रांतिकारी नहीं। क्रांतिकारियों को भी छोड़ने के विषय में एक शब्द नहीं बोला गया, इसे आप गाँधी की मौन स्वीकृति नहीं तो और क्या कहेंगे? 

पैक्ट में गाँधी द्वारा इस शर्त को मान लेने से अँग्रेज़ों को इन तीनों महान क्रांतिकारियों को फाँसी देना आसान हो गया क्योंकि अब कांग्रेस लिखित रूप में उनके साथ हो गई थी। अब अँग्रेज़ निश्चिन्त थे कि गाँधी, कांग्रेस उनके साथ हैं, अब क्रांतिकारियों को फाँसी देने पर जो भी जनविद्रोह होगा, उसे उनसे पहले ये ही असफल कर देंगे। 

पैक्ट के लिए इरविन से वार्ता का खण्ड-खण्ड पाखण्ड पूरा करने के लिए जब गाँधी इरविन के पास जा रहे थे तो महत्त्वपूर्ण लोगों, परिवार, देशभर ने उनसे अनुनय-विनय किया कि क्रांतिकारियों की फाँसी रुकवाइये, भले ही उम्र क़ैद में बदल जाए, लेकिन उन्होंने क्रांतिकारियों के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा। 

जबकि उस समय स्थिति यह थी कि, यदि गाँधी, कांग्रेस इस बात पर ज़ोर देते, तो इरविन मानने के लिए विवश हो जाते। क्योंकि लन्दन में द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन से पहले उन्हें गाँधी, कांग्रेस को इस बात के लिए तैयार करना था कि वो सम्मेलन में अवश्य ही हिस्सा लें। 

मगर सच तो यह था कि गाँधी, कांग्रेस क्रांतिकारियों की लोकप्रियता से बहुत ही ज़्यादा भयभीत रहते थे। कोई भी क्रांतिकारी उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाते थे, इसलिए उन्हें रास्ते से हटाने के अवसर सिर्फ़ ढूँढ़ते ही नहीं थे बल्कि पैदा भी करते थे। 

इसी प्रसंग में साफ़ दिखता है कि पहले तो फाँसी रुकवाने के विषय में साँस तक नहीं ली गई, और उस समय की स्थितियों को ग़ौर से समझने की कोशिश करिये तो फाँसी जल्दी दे दी जाए इसका भी कोई गुप्त समझौता सा हुआ दिखता है। तथ्य तो इसी ओर साफ़-साफ़ संकेत कर रहे हैं। 

क्योंकि इरविन-गाँधी पैक्ट को पार्टी में स्वीकृति दिलाने का पाखंड पूरा करने के लिए २९ मार्च, १९३१ को सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में कराची में कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया। अधिवेशन में महान क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी की सज़ा को लेकर गाँधी की मौन स्वीकृति के कारण उनके विरुद्ध कोई बात, कोई बग़ावती सुर शुरू हो सकते हैं इस बात की प्रबल सम्भावना थी। 

क्योंकि देश में ही नहीं, पार्टी में भी क्रांतिकारियों के साथ गहरी सहानुभूति रखने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। और यह समूह उनपर फाँसी रुकवाने के लिए दबाव डाल सकता था। इस समूह को ऐसा कुछ भी करने का अवसर ही न मिले इसके लिये गंभीर प्रयास किये गए दीखते हैं। 

तथ्य यह कि जनमानस को भ्रमित करने के लिए बुलाया गया यह कराची अधिवेशन होता कि अचानक ही देश हतप्रभ रह जाता है। क्योंकि अधिवेशन से छह दिन पहले ही महान क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दे दी जाती है। निश्चित समय से पहले ही। यह पड़ताल की ही जानी चाहिए कि इस घिनौने षड्यंत्र का मास्टर माइंड कौन था? क्या आप की भी दृष्टि उसी पर जाकर ठहर रही है जिस पर मेरी ठहरी हुई है . . . इस षड्यंत्र से जनमानस का क्रोध उबल पड़ा। 

लोग गाँधी से बेतहाशा नाराज़ हो गए। इतना कि उनका जनता के सामने आ कर सुरक्षित रह पाना मुश्किल हो गया। पूरी कराची यात्रा के दौरान उन्हें व्यापक जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। इतना कि उन्हें बचाने के लिए तय स्थान से पहले ही उतार कर सुरक्षित निकाला गया। आख़िर वह छिप कर, बच कर निकल ही गए। 

जनाक्रोश का सामना करने का उनमें साहस ही नहीं था। आख़िर किस मुँह से करते? मुँह छिपाने के सिवा उनके पास कोई दूसरा रास्ता बचा था क्या? हालाँकि वह जीवनभर आत्मबल, साहस की बातें ख़ूब करते रहे। 
 मैं यह भी कहती हूँ कि पिशाच जिन्ना, और पिशाचों के झुण्ड मुस्लिम लीग इतने सक्षम नहीं थे कि महज़ कुछ ही बरसों में ही देश के टुकड़े कर लेते। आप इतिहास में इस बात के एक तथ्य ढूढ़ेंगे तो अनेक मिल जाएँगे कि अँग्रेज़ों और उनके आनुषंगिक संगठन कांग्रेस ने ही इन पिशाचों को बहुत आसान सा रास्ता दिया देश को विभाजित करने के लिए। 

क्या यह ग़लत है कि आनुषांगिक संगठन के लोग स्वाधीनता, स्वाधीनता खेलते हुए जब यह महसूस करने लगे कि अरे काफ़ी आयु निकल गई तो उनमें सत्ता-सुख पाने का लोभ एकदम से प्रबल हो उठा। इस बात का अंदाज़ा पिशाचों को हो गया था। और वो इस कमज़ोरी का लाभ उठाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। 

तो आनन-फ़ानन में पिशाचों के झुण्ड मुस्लिम लीग और उसके कर्ता-धर्ता घिनौने जिन्ना ने मार-काट की धमकी देनी शुरू कर दी। ये पिशाच शुरू में रोज़ धमकी दे-दे कर पहले यह जाँचते रहे कि क्या आनुषंगिक संगठन सच में उसकी माँग का प्रतिरोध करेगा या असहयोग आंदोलनों जैसा ही खेल फिर होगा। इस जाँच में बार-बार उन्हें निष्कर्ष यही मिलता कि इतिहास ही दोहराया जाएगा। नया कुछ नहीं होगा। 

इस निष्कर्ष ने उनका दिमाग़ सातवें आसमान पर पहुँचा दिया। इसी के साथ वो धूर्त, मक्कार, दोगले, दिन पर दिन नहीं, क्षण प्रति-क्षण दबाव बढ़ाने लगे। सत्ता सुख की चमक जहाँ घिनौने जिन्ना को पागल बनाए जा रही थी, वहीं नेहरू का उतावलापन हर तरफ़ छलका ही जा रहा था, सम्हाले नहीं सम्हल रहा था। और देश को अनगिनत टुकड़ों में बाँटने को तत्तपर्य कुटिल अँग्रेज़ों के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता था। 

उन्होंने आनुषंगिक संगठन को जिस उद्देश्य से बनाया था कि वो उनके साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने में या फिर इस सनातन देश का अस्तित्व ही समाप्त कर देने में सहयोगी बने, रास्ता प्रशस्त करे, उन्हें अपना लक्ष्य चाँदी नहीं सोने की थाली में सजा हुआ, अपने इस प्यारे संगठन द्वारा अपनी तरफ़ आता दिखाई दे रहा था। यह सब देख कर वो सत्ता सुख की चमक इतनी बढ़ाये जा रहे थे कि उतावले लोगों की आँखें चुँधियाए जा रही थीं। 

और जनमानस इस विश्वास के साथ आगे बढ़ रहा था कि आनुषंगिक संगठन देश, देश की स्वाधीनता के लिए सब-कुछ करने में सक्षम है। उनके नेतृत्व में देश अटूट है, स्वाधीनता अब बस कुछ ही दिनों में मिल कर रहेगी। 

उसका विश्वास उस समय और भी दृढ़ हो गया जब उन्हें उस व्यक्ति ने ऐसा अटल विश्वास दिलाया जिसे वो दिव्य पुरुष, महात्मा, देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाला मानते थे। क्योंकि इस व्यक्ति ने इरविन से पैक्ट के चलते उसकी जो छवि धूलधूसरित हुई थी, उसे बहुत ही होशियारी से नए ढंग से गढ़ ली थी। एक महात्मा एक दिव्य पुरुष की। उस व्यक्ति ने अतिशय दृढ़ता के साथ विश्वास दिलाया कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। जब दिव्य पुरुष ऐसा विश्वास दिलाए तो संदेह का कोई प्रश्न नहीं रह जाता। 

लेकिन एक बार फिर देश, देशवासियों के साथ धोखा हुआ। जिस दिव्य पुरुष, महात्मा यानी गाँधी की बातों पर वो अटूट विश्वास किए हुए थे कि, उनके जीते जी देश बँट ही नहीं सकता, वही दिव्य पुरुष देखता रहा, नारकीय नरपिशाच जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन होता रहा, देशवासियों के रक्त से यह सनातन भूमि रक्त सागर बनती रही, क़रीब बीस लाख लोग मारे काटे जलाए जाते रहे, कुटिल दोगले अँग्रेज़ मनमाने तरीक़े से देश के कहाँ-कहाँ से टुकड़े करें, इसे अंतिम रूप देते रहे, लेकिन दिव्य पुरुष स्वयं में मग्न रहा। ब्रह्मचर्य के प्रयोग के नाम पर निर्वस्त्र किशोरियों, महिलाओं के साथ नग्न होकर स्नान, सोने से लेकर साठ-पैंसठ की आयु में भी हो रहे अपने स्वप्नदोष की बातें करता रहा। 

निःसंदेह आप में से बहुत से लोग चौंक गए होंगे। क्योंकि बातें हैं ही इतनी गंभीर, इतनी सनसनीखेज़। इसीलिए कांग्रेस ने निहित स्वार्थों के लिए इन्हें छिपाए रखने का हर सम्भव प्रयास किया। लेकिन बहुत से देशवासियों से यह बातें छिपी नहीं रह सकीं। सच जान कर उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। बहुत क्रोध आया उन्हें कि देश के साथ कैसा तमाशा होता रहा। 

कितना बड़ा दुर्भाग्य रहा इस देश का कि नरसंहार होता रह, देश बँटता रहा, जिन पर जनमानस ने भरोसा किया, वह ऐसी-ऐसी विचित्र हरकतें करने में व्यस्त थे, जिन्हें देश-दुनिया पहली बार देख सुन रही थी, स्तब्ध थी। 

पहले उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर कुछ बातें कर लूँ, फिर आगे बढ़ती हूँ। गाँधी का अपनी पत्नी कस्तूरबा से कितना बुरा सम्बन्ध था यह उन दोनों के बीच होने वाले कटु संवादों में से इन दो संवादों से ही स्पष्ट है। वह कस्तूरबा के लिए कहते थे कि, “वह ऐसी ज़हर उगलने वाली महिला है जैसी मैंने अपने पूरे जीवन में नहीं देखी। वह कभी नहीं भूलती, मुझे कभी माफ़ नहीं करती।” इतना ही नहीं कहते यह भी हैं कि, “उसमें अत्यंत सूक्ष्म रूप में राक्षस और देवता की भावनाएँ निवास करती हैं।” उनके कठोर अपमानजनक वचनों के उत्तर में कस्तूरबा उन्हें, “फुंफकारता हुआ साँप” कहतीं थीं। 

अब उन कुछ प्रमुख महिलाओं के नाम भी जान लीजिये जो उनके बेहद क़रीब रहीं या जिनसे अंतरंग सम्बन्ध रहे, इनमें एक प्रमुख नाम सरलादेवी चौधरानी है, सरला के लिए गाँधी ब्रह्मचर्य व्रत छोड़ने का भी मन बना चुके थे। सरला नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्र नाथ टैगोर की भाँजी, बांग्ला भाषा की पहली उपन्यास लेखिका स्वर्णकुमारी देवी की बेटी थीं। 

उनके पिता जानकी नाथ घोषाल बंगाल कांग्रेस के सचिव थे। पति रामभज दत्त चौधरी लाहौर में एक देशभक्त वकील थे। उनके यहाँ एक बार गाँधी पहुँचे और सरला से इस दूसरी मुलाक़ात में ही उनके इतना क़रीब पहुँच गए कि उन्हें, अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहने लगे। आप क्या कहेंगे उस व्यक्ति को जो किसी के घर पहुँचे अतिथि बनकर फिर उसी की पत्नी को शब्दों के छद्मावरण में ढंककर अपनी पत्नी कहने लगे। आप विचार करिये तब तक मैं बात आगे बढ़ाती हूँ। 

वह सरला के प्रति कितना आसक्त थे, उन्हें लिखे एक पत्र में उनकी इस इबारत से समझ लीजिये, “अब यह बिछड़ना और अधिक कठिन लगने लगा है। जिस जगह तुम बैठती थी, उस ओर देखता हूँ और ख़ाली देख कर अत्यंत उदास हो जाता हूँ।”

सरला देवी एक विद्वान महिला थीं, उन्हें भारत के पहले महिला संगठन ‘भारत स्त्री महामण्डल’ की स्थापना का भी श्रेय जाता है, वह एक सक्षम लेखिका, स्वतन्त्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ थीं, रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्रिका ‘भारती’ की सम्पादक थीं, उनके बारह वर्षीय बेटे का नाम दीपक था। 

सरला जब गाँधी के प्यार जाल में उलझीं तो गाँधी पचास के और वह स्वयं सैंतालीस की हो चुकी थीं। गाँधी की इस हरकत के चलते सरला देवी का दाम्पत्य जीवन समाप्त होते-होते बचा था। आपके मन में स्वाभाविक ही यह बात आ जाएगी कि यह उनके लिए शोभाजनक नहीं हो सकता कि जिसके यहाँ मेहमान बनकर पहुँचे, उसी की पत्नी पर ही ऐसी दृष्टि गड़ाई कि उसका दाम्पत्य जीवन विषाक्त हो गया, समाज में अपमान हुआ, थू-थू हुआ, उसके किशोर बेटे पर उनके अनैतिक आचरण का कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ा होगा। आप यह सोच रहे हैं लेकिन बात तो इससे आगे यह थी कि सरला बेटे के साथ उनके आश्रम में ही रहने चली गई थीं। 

गाँधी की क़रीबी महिलाओं की सूची में कुछ और नाम भी देखिये, स्लेड जिसे वह मीरा कहते थे। ऐसे ही प्रेमा, नीला नागिनी, मार्गरेट स्पीगल इन्हें वह अमला कहते थे, डॉ. सुशीला नैय्यर, अम्तुस्सलाम, प्रभावती, आभा, कंचन, मनु बेन। 

लोग कहते हैं, बल्कि कटु सत्य यही है कि गाँधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग (यह गाँधी का बड़ा ही अजब-ग़ज़ब प्रयोग था जिसमें वह एक साथ एक या कई महिलाओं के साथ निर्वस्त्र होकर नहाते, नहलाते थे, एक-दूसरे को साबुन लगाते थे, और इससे आगे यह भी कि इसी प्रयोग के नाम पर कई-कई निर्वस्त्र महिलाओं के साथ निर्वस्त्र ही सोते थे) में सबसे ज़्यादा सनसनीखेज़़ प्रयोग मनु बेन के साथ ही रहा। 

एक क़रीब अठहत्तर उन्न्यासी वर्षीय वृद्ध का उन्नीस वर्षीय नवयुवती के साथ निर्वस्त्र सोने का प्रयोग अत्यंत सनसनीखेज ही नहीं, निंदनीय भी कहा जाएगा। मैं तो इसे अत्यंत शर्मनाक, घृणास्पद और विकृत मनोवृति का परिचायक भी कहूँगी, पूर्ण विश्वास से यह भी कहती हूँ कि जिस किसी में भी ज़रा भी नैतिकता होगी वह भी यही कहेगा। 

इसलिए भी कि तथाकथित आज़ादी एकदम क़रीब आ चुकी थी, पिशाच जिन्ना की सीधी कार्यवाई के आह्वान के साथ ही देश भर में भयानक दंगे हो रहे थे। नोआखली में सबसे ज़्यादा भयानक स्थिति थी। सनातनियों का बलात्कार, नरसंहार, चल रहा था और इस भयानक स्थिति में भी चल रहा था मनु के साथ गाँधी का ब्रह्मचर्य प्रयोग भी। 

किस क्रूरता के साथ नरसंहार हो रहा था, यह आप एक अँगरेज़ इतिहासकार के ही शब्दों जानिए, उसने लिखा, “चौरंगी की नालियों में औरतों, मर्द और बच्चों की लाशें तब-तक सड़ती रहीं जब तक सफ़ाई करने वालों में सबसे वफ़ादार चीलों ने उनका सफ़ाया नहीं कर दिया।” ऐसे खून-ख़राबे लाशों से पटी पड़ी दुनिया में गाँधी का रिश्ते में अपनी ही पोती के साथ निर्वस्त्र सो-सो कर कौन सा प्रयोग हो रहा था भाई? इससे देश की आज़ादी, और देशवासियों का कोई सरोकार था क्या? आप लोग समझने का प्रयास कीजिये, मैं समझती हूँ इसी लिए तो यह प्रसंग उठाया। 

सोचिये यह भी कि ऐसी पार्टी, उसके ऐसे नेताओं ने देश, देशवासियों का कितना भला किया, और अब कर रहे होंगे। आप लोग यह भी जान लीजिये कि सात नवम्बर, उन्नीस सौ पचीस को जन्मी मनु, गाँधी के भतीजे जयसुख लाल की पुत्री थीं, और उनके सिर से माँ का साया बचपन में ही उठ गया था। जयसुख लाल के पिता अमृत लाल, गाँधी के चाचा थे। 

आप लोगों का मन बड़ा कसैला हो गया होगा कि पुत्री समान अपनी युवा पोती के साथ ही बार-बार निर्वस्त्र सोना! रिश्तों की पवित्रतता, मर्यादा भी कोई महत्त्व रखता है, ऐसा विचित्र प्रयोग तो कभी और किसी ने किया ही नहीं। यह एक तथ्य है कि ज्ञात इतिहास का यह एकमात्र उदहारण है, जिसमें गाँधी पोती ही नहीं रिश्ते में अपनी बहू वह भी सोलह वर्षीय किशोरी आभा के साथ भी नग्न सोते थे। 

बड़े ही विचित्र, समझ से परे उनके इस प्रयोग को लेकर पार्टी में बहुत से लोगों को कड़ी आपत्ति थी कि इससे पार्टी की छवि ख़राब हो रही है। सरदार वल्लभ भाई पटेल उन्हें बार-बार धिक्कारते हुए पत्र लिखते कि अपना यह प्रयोग बंद कीजिए। लेकिन अपने इस प्रयोग से मिलने वाले सुख के मोहपाश में वह इस तरह जकड़े हुए थे कि किसी की परवाह ही नहीं करते थे, और करते भी क्यों? वह तो सबसे परे, सबसे विशिष्ट थे, सभी मूल्य-मान्यताओं, नियम-क़ानून से ऊपर सर्वोपरि थे . . .। 

इसके चलते उनके बहुत ही क़रीबी लोगों ने भी उनका साथ छोड़ दिया लेकिन फिर भी वह टस से मस नहीं हुए थे। साथ छोड़ने वालों में विश्व-प्रसिद्ध मानव शास्त्री प्रोफ़ेसर निर्मल कुमार बोस भी थे जो एक समय गाँधी के बहुत ही क़रीबियों में से एक थे, जिन्होंने उनके प्रयोगों से नाराज़ होकर उनसे हमेशा के लिए दूरी बना ली। 

उन्होंने अपनी पुस्तक “माय डेज़ विथ गाँधी” में मनु के साथ प्रयोग के नाम पर जो कुछ गाँधी ने किया उसका बेबाक वर्णन करते हुए साफ़ लिखा कि, “इन प्रयोगों के कारण मनु के मन-मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है।” किताब के पृष्ठ संख्या १७२ पर लिखा कि, “मुझे ऐसा महसूस हुआ कि एक मानवप्राणी (मनुबेन) को एक ऐसे काम के लिए बलि चढ़ाया गया जिसका फ़ैसला उस प्राणी ने स्वतंत्र होकर नहीं किया था।” 

गाँधी के एक और बहुत क़रीबी और क़द में उनसे कहीं ज़्यादा बड़े, सच में महात्मा, आचार्य विनोवा भावे ने भी उनसे कड़ा प्रतिवाद किया, जब गाँधी ने दस फरवरी उन्नीस सौ सैंतालीस को उन्हें पत्र लिख कर, अपने इस विचित्र प्रयोग के बारे में बताया कि वो मनु बेन के साथ ब्रह्मचर्य के प्रयोग कर रहे हैं, तो उन्होंने नाराज़गी व्यक्त की, उनके प्रयोग को ग़लत अनुचित बताते हुए पचीस फरवरी उन्नीस सौ सैंतालीस को लिखा, “मैं ब्रह्मचर्य के आपके सिद्धांतों से सहमत नहीं हूँ। स्त्री-पुरुष का कोई भेद आदर्श ब्रह्मचर्य के विरुद्ध है। मैं इस विषय को लेकर किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता।” 

इतना ही नहीं उनके इस विचित्र प्रयोग, आचरण के कारण कई लोगों का दाम्पत्य जीवन नष्ट हो गया, कई महिलाएँ अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं। अज्ञात बिमारियों का शिकार भी हुईं, स्वयं मनु भी . . .। 

उदाहरण के लिए तथा-कथित स्वाधीनता के बाद देश में कांग्रेस पार्टी उनकी नेता इंदिरा के कुशासन, अत्याचारों, सामाजिक बुराइयों से देश को मुक्ति दिलाने के लिए, पाँच जून उन्नीस सौ चौहत्तर को देश में सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल बजा कर इंदिरा, कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने वाले, लोक नायक जे.पी. यानी जय प्रकाश नारायण को ही ले लीजिये। 

जे.पी. सोलह मई उन्नीस सौ बाइस को आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका चले गए और उनकी पंद्रह वर्षीय धर्मपत्नी प्रभावती गाँधी के आश्रम साबरमती आ गईं। और इसी समय जे.पी. के दाम्पत्य जीवन के नष्ट होने की नींव पड़ गई। नवम्बर उन्नीस सौ उन्तीस को जे.पी. जब लौटे तो वह यह देख कर सकते में आ गए कि उनकी धर्मपत्नी प्रभावती गाँधी के ब्रह्मचर्य व्रत, प्रयोग आदि के प्रभाव में पूरी तरह बदल चुकी हैं। 

प्रभावती पति के साथ रहने के बजाय गाँधी के साथ आश्रम में रहने की हठ कर बैठीं, जे.पी. ने गाँधी से कहा तो उन्होंने उनसे कहा कि तुम ब्रह्मचर्य का पालन करो, अपनी कामेच्छा पर नियंत्रण नहीं रख सकते तो दूसरा विवाह कर लो। आप सोचेंगे कि यह क्या ग़ज़ब है, यह तो अंधेर है। 

लेकिन प्यारे सनातनियों जे.पी. के साथ यह अंधेर हुआ, उनका दाम्पत्य जीवन नष्ट हुआ, यहाँ तक कि उनकी पत्नी प्रभावती हिस्टीरिया जैसी गंभीर बीमारी का भी शिकार हो गईं। बच्चों को बेहद प्यार करने वाले जय प्रकाश आजीवन संतान सुख से वंचित रहे, और गाँधी द्वारा अपने साथ किये गए इस क्रूर अमानवीय धोखाधड़ी के लिए उन्हें कभी क्षमा नहीं किया। 

गाँधी ने अपनी पोती के आलावा रिश्ते में अपनी बहू जिस आभा को नहीं छोड़ा था, वह उनके ही भतीजे के बेटे कनुलाल गाँधी की पत्नी थी, जो कि उस समय मात्र सोलह वर्ष की एक मासूम किशोरी थी, उसको भी उन्होंने अपने साथ सुलाया। 

आभा ने अपनी आपबीती बाद में भारतीय मूल के विख्यात अमेरिकी लेखक वेद मेहता को बताया कि बापू के साथ उन्हें नग्न सोने के लिए कहा गया, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था इसलिए आगे चलकर उन्होंने साथ नग्न सोने से मना कर दिया था। 

ऐसे ही डॉ. सुशीला नय्यर जो गाँधी के पर्सनल सेक्रेटरी प्यारेलाल की छोटी बहन थीं, उनकी निजी चिकित्सक भी थीं और बाद में उन्नीस सौ बावन में देश की स्वास्थ्य मंत्री भी बनी थीं, गाँधी ने उन्हें भी नहीं छोड़ा था। 

गाँधी के महिलाओं के साथ नग्न सोने, नहाने, उनसे मालिश कराने, उनके साथ तथाकथित प्रयोग को लेकर बहुत विस्तार से जानना चाहते हों तो वेद मेहता की ही किताब “Mahtma Gandhi and his apostles” पढ़ लीजिये जिसमें उन्होंने साफ़-साफ़ लिखा है कि गाँधी चौबीस वर्षीय नव-युवती सुशीला नय्यर के साथ नग्न होकर स्नान करते थे। 

इनकी किताब पर भी आपको विश्वास न हो क्योंकि बातें हैं ही इतनी सनसनीखेज़ तो सीधे मनु गाँधी की वह डायरी पढ़ लीजिये जो वह रोज़ लिखतीं थीं और फिर उन्हें गाँधी को पढ़ा कर उस पर उनके हस्ताक्षर भी करवा लेती थीं, जिससे कोई भी संदेह न कर सके, किसी के मुकरने की कोई सम्भावना न रहे। उनकी यह डायरियाँ भारत सरकार के राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखी हैं। 

गाँधी की मृत्यु के तुरंत बाद ही इन डायरियों को भी लेकर मनु को बहुत ही तनावपूर्ण स्थितियों से गुज़रना पड़ा था। गाँधी के बेटे देवदास जो की हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक भी थे, वह इन डायरियों में लिखी बातों को लेकर बहुत चिंतित थे। इसलिए वह डायरियों को किसी भी तरह से मनु से तुरंत ही ले लेना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मनु को डराया, धमकाया, डाँटा भी। वह भी रेलवे प्लैटफ़ॉर्म पर। 

गाँधी की मृत्यु के बाद मनु को वह उनके घर गुजरात छोड़ने जा रहे थे। दुर्भाग्य से ट्रेन दो घंटा लेट हो गई तो इस दौरान वह मनु को लेकर कभी बैठते, कभी टहलते हुए बराबर समझाते, बहलाते-फुसलाते रहे कि डायरी में तुमने बहुत संवेदनशील बातें लिखी हैं। यह लोगों तक नहीं पहुँचनी चाहिए। बात मन की नहीं हुई तो उन्हें डराया धमकाया भी लेकिन मनु शांत रही, विचलित नहीं हुईं, डरी नहीं, आँसुओं से भरी-भरी आँखें लिए सब सुनती रही। 

आप ज़रा उस नवयुवती की वेदना का अहसास करें तो आपका दिल दहल उठेगा, कि एक व्यक्ति अपने सनक-भरे प्रयोग या न जाने उसके मन में क्या चलता था जिसके चलते उन्हें अपने संग निर्वस्त्र सुलाता रहा, नोआखली में ही एक प्रार्थना सभा के बाद यह सारी बातें सार्वजानिक रूप से कह भी दीं। एक तरह से उसे दुनिया के सामने भी निर्वस्त्र कर दिया, उसके मासूम मन पर क्या बीतेगी यह भी नहीं सोचा। 

क्या उसने यह नहीं सोचा होगा कि दुनिया में कितनी थू-थू होती रही, कैसी-कैसी बातें होती रही, कितने ही उनके क़रीबी लोग इसे अनैतिक कहते हुए साथ छोड़ गए, लेकिन वो अपने हठ पर क़ायम रहे। और अब जब कि वह नहीं रहे तो उनका बेटा डायरी के लिए धमका रहा है। 

वह डायरियाँ जो उसकी नितांत व्यक्तिगत चीज़ हैं, जिसे किसी को माँगने क्या देखने की इच्छा व्यक्त करने का भी अधिकार नहीं। और यह सब वह लोग कर रहे हैं जो दुनिया को धर्म नैतिकता का पाठ पढ़ाते रहते हैं। क्या इन्हें मेरी वेदना कष्ट, हताशा-निराशा का अहसास नहीं कि उन्हें तो प्रयोग के लिए मेरा तन, जीवन का बहुमूल्य समय मिल गया, मगर मुझे क्या मिला? एक अंधकारमय, दिशाहीन बचा जीवन, पेड़ से टूट कर धूल में पड़े पत्ते सा अर्थहीन अस्तित्व। 

मनु को पूरी दुनिया अर्थहीन, अँधियारी भरी, ख़ाली ख़ाली सी दिखने लगी। फिर भी जीने के लिए अपने छोटे से गाँव में पहुँच कर मनु ने एक स्कूल खोला, महिला कल्याण के काम में जुट गईं, लेकिन अकेलापन, ख़ाली-ख़ाली सा जीवन उन्हें भीतर-भीतर कुतरता रहा और वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गईं। उपचार के लिए बंबई (अब मुंबई) भेजा गया लेकिन बीमारी कौन सी है यह रहस्य बना ही रहा। 

मगर जब मोरार जी देसाई उन्हें देखने गए तो उन्होंने रहस्य से पर्दा हटाते हुए नेहरू को उन्नीस अगस्त उन्नीस सौ पचपन को लिखे अपने पत्र में कहा, “मनु की समस्या शरीर से अधिक मन की है। लगता है, वे जीवन से हार गईं हैं और सभी प्रकार की दवाओं से उन्हें एलर्जी हो गई है।” 

मोरार जी की यह बात ही बहुत कुछ कह रही है, कि गाँधी ने अपने प्रयोग के लिए एक मासूम भोली-भाली युवती को अपना साधन बना लिया लेकिन उसके मनमष्तिष्क पर कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा, वह मानसिक संतुलन भी खो सकती है, उसका जीवन भी ख़तरे में पड़ सकता है, इन सारी बातों की तरफ़ से अच्छी तरह सब जानते बूझते हुए भी पूरी ताक़त से अपनी आँखें बंद किए रहे। 

मनु अपने अकेलेपन से अकेले आख़िर कब तक लड़तीं? मात्र इकतालीस वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी इस कष्टमय ज़िन्दगी, असमय मृत्यु का ज़िम्मेदार आप किसे ठहराएँगे? आज इस आधुनिक युग में भी किसी भी तरह के प्रयोग के लिए किसी जीवित व्यक्ति के शरीर का प्रयोग नहीं किया जा सकता, लेकिन गाँधी एक नहीं अनेक स्त्रियों और किशोरियों का भी शरीर अपने अजीब से सनक भरे प्रयोग के लिए, प्रयोग करते रहे। 

यह संदेह ग़लत नहीं कि पता नहीं ब्रह्मचर्य का प्रयोग था या कुछ और जिसे सार्वजानिक रूप से नहीं कहा जा सकता था तो बहुत चालाकी के साथ ब्रह्मचर्य के प्रयोग नाम देकर सच परदे के पीछे कर दिया गया। मगर सच यह भी तो है न कि सच एक दिन सामने आता ही है। 

जो बहुत ढेर सा सच मनु की डायरी में अंकित था, जिसका एक-एक शब्द इस अजूबे प्रयोग की सच्चाई कह रहा है, आज वह सबके सामने आ रहा है। मनु की मृत्यु के बाद डायरियाँ उनकी बहन की बेटी मीना के पास आ गईं, जिसे उन्होंने ने दो हज़ार दस में राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा करवा दिया था। 

इन बातों से आप क्या सभी के मन में यह बात आ सकती है कि, इन डायरियों में ऐसा क्या लिखा था मनु ने जो गाँधी की मृत्यु के बाद स्वयं मनु से लेकर, गाँधी पुत्र देवदास तक, और यहाँ तक प्रधानमंत्री नेहरू, कई अन्य बड़े कांग्रेसी नेता भी चिंतित थे। 

यह स्वाभाविक भी है, इसलिए उसमें लिखी एक बात बताती हूँ। जो मनु बेन ने इक्कीस दिसंबर उन्नीस सौ छियालीस को डायरी में लिखा कि, “आज रात जब बापू, सुशीलाबेन और मैं एक ही पलंग पर सो रहे थे तो उन्होंने मुझे गले से लगाया और प्यार से थपथपाया। उन्होंने लम्बे समय बाद मेरा आलिंगन किया था फिर बापू ने अपने साथ सोने के बावजूद मासूम (यौन इच्छाओं के मामले में) बनी रहने के लिए मेरी प्रशंसा की।”

मेरी बात पर ज़रा भी संदेह हो तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में डायरियाँ देख लीजिये या फिर सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय पढ़ लीजिये जिसके खंड ९४ के पेज ३६७ पर गाँधी का वह पत्र भी है जिसे उन्होंने अपने पर्सनल सेक्रेटरी प्यारेलाल नय्यर को ३० दिसंबर १९४६ को लिखा था, जिसमें वह स्पष्ट लिखते हैं कि “मैं उसे (मनु) अपने पास सोने दे रहा हूँ। वो बिना कोई कपड़े पहने सोती है, लेकिन गहरी नींद सोती है।” 

मनु की लिखी यह एक बात ही इतना कुछ कह दे रही है कि कुछ छिपा नहीं रह जाता। इसके बाद भी संदेह सिर्फ़ अंध गाँधी भक्तों को ही होगा। जानते बूझते हुए वो लोग ही आपत्ति भी करेंगे जो उनके नाम को एक ब्रैंड की तरह प्रयोग कर अपनी दूकान चला रहे हैं, और भयभीत हैं कि ऐसे तथ्य आम होने से कही वो बंद न हो जाए। 

कह यह भी सकते हैं कि अब भी संदेह उसी को होगा जो गाँधी को लेकर अपना भ्रम टूटने का सामना करने से भयभीत होगा। ऐसे सभी लोगों के लिए अच्छा होगा कि वह सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय अवश्य ही पढ़ें जिसे कांग्रेसी सरकार ने ही प्रकाशित किया है। 

जितनी भी महिलाओं के नाम बताई हूँ, उन सबका इतिहास आप ढूँढेंगे तो आपको बहुत सी ऐसी और बातें भी पता चलेंगी कि आँखें आपकी आश्चर्य से फटी की फटी रह जाएँगी। क्योंकि जब आप गाँधी के साथ निर्वस्त्र सोने के लिए महिलाओं में होड़, विवाद, तनाव के साथ-साथ गर्भधारण, स्वप्नदोष आदि अनेक चकित कर देने वाली बातें पाएँगे तो अचरज में पड़े बिना नहीं रह पाएँगे। 

मन में यह बात भी ज़रूर आएगी कि गाँधी का साबरमती आश्रम स्वाधीनता आंदोलन का वह केंद्र था जहाँ स्वाधीनता की बातें होती थीं या ब्रह्मचर्य के प्रयोग के नाम पर नग्न सोने, परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, षड्यंत्र आदि का ऐसा केंद्र जहाँ, कुछ परिवर्तन के लिए स्वाधीनता आदि की बातें भी हो जाया करती थीं। 

हाँ, जब तथ्यों की खोजबीन शुरू कीजिये तो उसी समय लगे हाथ दक्षिण अफ़्रीका में यहूदी आर्किटेक्ट हरमन कालेनबाख के साथ गाँधी के बेहद ख़ास तरह के रिश्ते की भी पड़ताल कर लीजियेगा। गाँधी की एक और बहुत ही अलग, अचंभित कर देने वाली तस्वीर भी सामने आ जाएगी जो उनकी ब्रह्मचर्य वाली तस्वीर से कहीं बहुत ज़्यादा आपको भीतर तक झकझोर कर रख देगी, आप दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ कर बैठ जायेंगे कि क्या समझता आ रहा था, और सच क्या निकला। बहुत कम मेहनत कर विस्तार से जानने के इच्छुक हों तो जोसेफ़ लेलीवेल्ड की किताब ‘ग्रेट सोल: महात्मा गाँधी एंड हिज़ स्ट्रगल विथ इंडिया’ पढ़ लीजियेगा। गाँधी कालेनबाख के साथ दो वर्ष रहे थे। 

किसी की व्यक्तिगत बातों की चर्चा करना मैं घृणित और किसी का चरित्र हनन मानती हूँ, लेकिन यहाँ मैं इसलिए इन बातों को सामने लाना चाहती हूँ मेरे परिजन, जिससे आप गहराई से जान-समझ सकें कि जिनसे देश बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाये हुए था वो किस तरह के कैसे-कैसे लोग थे, क्या कर सकते थे और क्या करते थे, वो कितने महान थे। राष्ट्र के पिता के साथ ही सूक्ष्म रूप में ही कुछ बातें याद कर लीजिये राष्ट्र के कथित निर्माता के बारे में भी। 

गाँधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग पर आपत्ति वल्लभ भाई पटेल, आचार्य कृपलानी, विनोवा भावे आदि सभी खुलकर करते थे लेकिन नेहरू एक ऐसे बड़े नेता थे जो कभी एक शब्द नहीं बोलते थे। आख़िर क्यों? क्या वो उनके सबसे चहेते थे इसलिए, या वो भी उसी नाव पर सवार थे जिस पर गाँधी। 

उनके साथ मृदुला साराभाई के रिश्तों की बात आप नहीं जानते हैं तो सूक्ष्म में इतना जान लीजिये कि वह गुजरात के एक बड़े उद्योगपति साराभाई परिवार की बेटी और कांग्रेस की प्रभावशाली सदस्या थीं। नेहरू से आत्मीय निकटता के बाद यह स्वाभाविक ही था। 

लेकिन यह निकटता आज़ादी जैसे-जैसे क़रीब आई वैसे-वैसे दूरी में परिवर्तित हो गई। क्योंकि अन्य महिलाएँ क़रीब हो गई थीं और नेहरू उनसे ऊबने लगे थे। कारण बहुत से हो सकते हैं। मृदुला को नेहरू के निजी सचिव एम.ओ. मथाई ने अपनी किताब “रिमिनिसेंस ऑफ़ द नेहरू एज” में विचित्र महिला कहा। 

यह विचित्र महिला आगे चल कर कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला के देश विरोधी कार्यों में उसके संग हो ली, सच्चाई सामने आने पर जेल भेज दी गई। मृदुला के अलावा अन्य कई नाम जो उनके साथ जुड़े उनमें मुख्य हैं लेडी एडविना बेटेन, श्रद्धा माता और सरोजनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू। वह पद्मजा से शादी करना चाहते थे, लेकिन पुत्री इंदिरा के कारण नहीं की। 

पद्मजा–नेहरू के रिश्तों के सम्बन्ध में एम.ओ. मथाई ने अपनी पुस्तक में लिखा कि, “1946 जब मैं उनसे इलाहाबाद में मिला, तब वह नेहरू के घर को सँभालने में लगी हुईं थीं। फिर दिल्ली में उन्होंने यही किया। वह हमेशा नेहरू के बग़ल के कमरे में रहने पर ज़ोर देती थीं। नवंबर के पहले हफ़्ते में वह हमेशा हैदराबाद से नेहरू के आवास पर आ जाती थीं। ताकि नेहरू (14नवंबर), इंदिरा (19 नवंबर) और अपना (17 नवंबर) बर्थ-डे साथ मना सकें। इंदिरा को उनका आना अच्छा नहीं लगता था। न ही उनका वहाँ लंबा ठहरना।”

नेहरू से रिश्तों के चलते पहले वह हैदराबाद से सांसद और आगे चल कर पश्चिम बंगाल की राज्यपाल भी बनीं। और स्पष्ट करने के लिए नेहरू की पारिवारिक मित्र पुपुल जयकर की कही बात भी बताती हूँ, वह अपनी एक किताब में लिखती हैं, “आधी सदी बाद मैंने विजयलक्ष्मी पंडित से नेहरू और पद्मजा के संबंधों के बारे में पूछा। उनका जवाब था, ‘तुम्हें क्या पता नहीं पुपुल कि वे वर्षों तक साथ रहे?’” 

मथाई ने तो अपनी पुस्तक, “रिमिनिसेंस ऑफ़ नेहरू एज” में एक पूरा अध्याय ही नेहरू की महिला मित्रों पर लिखा था, लेकिन आख़िर समय में उसे प्रकाशन से रोक दिया। इस सम्बन्ध में प्रकाशक ने टिप्पणी भी लिखी कि लेखक ने अत्यंत निजी बातों के कारण इसे रोक दिया। 

अपने राष्ट्र निर्माता के बारे में एक राय १९६२ में भारत में अमेरिकी राजदूत रहे जॉन कैनेथ गालब्रेथ की भी जान लीजिये तो तस्वीर और साफ़ हो जाएगी। भारत पर चीन के हमले की प्रबल सम्भावना साफ़ दिख रही थी, पूरी दुनिया को दिख रहा था, लेकिन नेहरू स्वप्नजीवी बने हिंदी चीनी भाई-भाई राग अलापने में लगे हुए थे। 

उसी समय जॉन ने इस गंभीर लापरवाही को इंगित करते हुए १३ नवंबर, १९६२ को अपने राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनेडी को प्रेषित अपने पत्र में लिखा, “यहाँ नेहरू को छोड़कर कोई ऐसा नेता नहीं है, जो बहुत लोकप्रिय हो। लेकिन उनके लचीले चरित्र और नेतृत्व को लेकर ढेर सारी बातें प्रचारित हैं।” 

इससे ज़्यादा साफ़ और क्या कहा जा सकता है। आपके राष्ट्रनिर्माता ऐसे न होते तो शत्रु चीन हमारे खंडित भारत पर हमला करके उसकी भूमि हथिया न पाता। जब बात अक्षम नेतृत्व के कारण सनातन भूमि के शत्रुओं के हाथों में जाने की आई है तो इसी समय अपने तथाकथित राष्ट्रनिर्माता की पुत्री इंदिरा का भी एक कुकर्म देख लीजिये, मैं कुकर्म ही कहूँगी। कोई भी राष्ट्रवादी राष्ट्रभूमि को किसी भी देश को रेवड़ी की तरह बाँटने को कुकर्म ही कहेगा। 

प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए इंदिरा ने यही कुकर्म किया था। उन्होंने भारत का “कच्चाथीवू” द्वीप जो भारत लंका के बीच स्थित है, जिसका सामरिक रूप से बहुत महत्त्व है, उसे उन्नीस सौ चौहत्तर में लंका को ठीक वैसे ही सोने के थाल में सजा के दे दिया जैसे उनके पिता ने उन्नीस सौ चौवन में तिब्बत चीन को दे दिया था। जिससे सामरिक दृष्टि से चीन हमेशा के लिए भारत के सिर पर सवार हो गया। 

इन बातों को विस्तार से आप जानेंगे तो पूरे विश्वास से कहती हूँ कि आपका रक्त खौल उठेगा, लेकिन अभी मैं फिर से स्वतन्त्रता वाले प्रकरण पर चलती हूँ और ज़ोर देकर कहती हूँ कि आप अँग्रेज़ों के आनुषंगिक संघटन कांग्रेस, वामपंथियों, कुटिल पश्चिमीं विचारकों के इस छद्म तर्क से निकल कर बाहर आइए कि यदि गाँधी देशवासियों को दिए अपने आश्वासन पर कि देश का बँटवारा उनकी लाश पर होगा, पर अडिग रहते तो भयानक रक्तपात होता। 

मेरे प्यारे सनातनियों आप ज़रा इन दोगलों के ही लिखे इतिहास को एक विश्लेषक की तरह पढ़ लीजिए। उसी से आपको एकदम स्पष्ट पता चल जाएगा कि, गाँधी देश को दिए गए अपने आश्वासन पर अडिग रहते तो देश के टुकड़े नहीं होते। क्योंकि एक बड़ा जनमानस उनके साथ था। अडिग नहीं रहे भयानक रक्तपात तो तब भी हुआ न। बीस लाख लोग मारे गए, लाखों बेघर हुए, देश बँट गया, चौदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को नरपिशाचों का नारकीय स्वतंत्र देश पाकिस्तान बना ही न। 

मगर सनातनियों की पीठ में यहाँ भी छूरा भोंका गया। हमें स्वतंत्र नहीं किया गया। बल्कि सत्ता सुख के लिए व्याकुल नेहरू ने माउन्ट बेटन के साथ ट्रांसफ़र ऑफ़ पॉवर के समझौते पर हस्ताक्षर किए। यदि आपको ब्रह्माण्ड में विचरण करती इस आत्मा की वाणी पर विश्वास नहीं है तो एक काम करिए, जितने रुपए आप एक बार पान खा कर थूकने में ख़र्च करते हैं न, बस उतना ही ख़र्च कर के आर.टी.आई. यानी सूचना का अधिकार क़ानून के तहत केंद्र सरकार से ब्योरा माँग लीजिये। यथार्थ आपके सामने आ जाएगा। 

इस तथ्य को मैं जानती हूँ, इसिलए पूरी दृढ़ता से कहती हूँ कि देशवासियों को धोखा दिया गया कि हमें स्वराज मिल गया। जबकि सच यह है कि हमारा यह सनातन देश आज भी अँग्रेज़ों के अधीन एक डोमिनियन स्टेट ही है। 

आख़िर हम इकहत्तर देशों के उस समूह राष्ट्र-मण्डल, जिसकी सर्वे-सर्वा ब्रिटेन की महारानी या राजा होते हैं, के सदस्य क्यों बने हुए हैं। उसके आने पर उसे देश के राष्ट्र-पति से भी ज़्यादा महत्त्व क्यों दिया जाता है। 

मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि आप सभी और दुनिया का हर वह व्यक्ति जो देश के विभाजन और तथा-कथित स्वतंत्रतता के बारे में समग्र अध्ययन कर लेगा, वह इन बातों से शत-प्रतिशत सहमत होगा कि नरपिशाच जिन्ना के लिए देश का विभाजन करवा पाना सम्भव ही नहीं होता, यदि गाँधी मन से अपने उसी अमोघ हथियार अनशन का प्रयोग करते जिसे वह अपनी तमाम उचित-अनुचित इच्छाओं की पूर्ति के लिए करते थे। 

उदाहरणार्थ उस घटना को देखिये जिसमें वह भीम राव आम्बेडकर के ख़िलाफ़ बीस सितम्बर उन्नीस सौ बत्तीस को अनशन शुरू कर अंततः चौबीस सितम्बर को अपनी बात मनवा लेते हैं। विवश होकर आम्बेडकर उनके साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कर देते हैं। 

तो ऐसा ही प्रयास, अपने इसी हथियार का प्रयोग उन्होंने नरपिशाच जिन्ना के देश के विभाजन की माँग के विरुद्ध, सामूहिक नर-संहार की उसकी डायरेक्ट एक्शन की कार्यवाही के विरुद्ध क्यों नहीं किया? 

उस पिशाच के हर, मानवता-विरोधी कुकृत्यों को लेकर वो एक विशेष तरह की चुप्पी क्यों बनाए रखते थे। उनकी इस रहस्य्मयी चुप्पी को यदि मौनं स्वीकृतः लक्षणम् के रूप में लिया जाए तो क्या ग़लत होगा? मेरी दृष्टि में तो बिलकुल नहीं। 

ऐसा कहने के पीछे मेरा तर्क यह है कि, मैं जब दक्षिण अफ़्रीका से उन्नीस सौ पंद्रह में उनकी भारत वापसी से लेकर तथा-कथित आज़ादी के बाद उनके द्वारा तेरह जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को अपने अनशन हथियार को आख़िरी बार प्रयोग करने तक पर दृष्टि डालती हूँ, तो यह साफ़-साफ़ देखती हूँ कि वह बुरी तरह नरपिशाच जिन्ना, नरपिशाचों के झुण्ड मुस्लिम लीग की तरफ़ झुके हुए थे। 

उनके कुछ कतिपय कामों को छोड़ कर, शेष सारे काम मुझे इस सनातन राष्ट्र, सनातन धर्म, सनातनियों की जड़ में मठ्ठा डालने वाले ही दीखते हैं। सबसे पहले यही देख लीजिये कि उन्होंने आख़िरी बार भी अपना हथियार किसके विरुद्ध प्रयोग किया। 

देश के टुकड़े करने के बाद भी नरपिशाचों ने सनातनियों का नर-संहार बंद नहीं किया था। पिशाचिस्तान में सनातनियों के समूह के समूह काटे, जलाए जा रहे थे। सड़कें, गलियाँ, नाले, कुँए उनके ख़ून, मांस, हड्डिओं से पटे हुए थे, और आसमान आज विलुप्त प्रायः हो रहे गिद्ध, चीलों से भरा स्याह हो रहा था। वहाँ से देश में आने वाली हर ट्रेन सनातनियों के शवों से भरी होती थी। 

ऐसी भयावह स्थिति में सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की यात्रा पैदल, बैलगाड़ी, घोड़ा, खच्चर, मोटर आदि से कर अपने जो सनातनी भाई खंडित, रक्त-रंजित, आहत शेष बचे देश के टुकड़े में इस आशा में आए कि चलो किसी तरह जीवन को फिर से जीवंत बनाएँगे, आगे बढ़ाएँगे, अपनों के बीच आ गए हैं, उन्हें अब कोई डर नहीं है। जीवन को आगे बढ़ाने, नए सिरे से घर-गृहस्थी बसाने में अपनों से मदद मिलेगी। 

मगर उन बेचारों का यह दुर्भाग्य था कि, वो यह सारी अपेक्षा अँग्रेज़ों के ही आनुषंगिक संगठन कांग्रेस की ही सरकार से कर रहे थे। ज़रा देश का दुर्भाग्य देखिए, उसके साथ किए गए खिलवाड़ को देखिए, कि देशवासियों से एक तरफ़ कहा जा रहा था कि हमें स्वराज मिल गया, दूसरी तरफ़ जिससे तथा-कथित स्वराज मिला, उसी अँगरेज़ माउंटबेटेन से स्वराज लेने वाले नेहरू गिड़गिड़ाए कि आप भारत छोड़ कर न जाइए, देश की बागडोर आप ही सम्भाले रहिए। 

उसने तुरंत सँभाल भी लिया। इस तरह तथा-कथित स्वतंत्र भारत का जो पहला राष्ट्राध्यक्ष बना वह कोई भारतीय नागरिक नहीं, बल्कि जिसने देश को दास बना रखा था वही पूरी धूर्तता के साथ फिर बन बैठा। दूसरी तरफ़ पिशाचिस्तान में मक्कार, चालाक नरपिशाच जिन्ना स्वयं राष्ट्राध्यक्ष बना। किसी धूर्त क्रूर अँगरेज़ से गिड़गिड़ाया नहीं कि हम अयोग्य हैं, देश आप ही सम्भालिए। 

अब आप ही सोचिये जब देश के दुश्मन को ही देश का भाग्य-विधाता बना कर बैठा दिया जाएगा, उसकी आरती उतारी जाएगी, चरणोंदक लिया जाएगा, कुछ भी करने से पहले उससे आज्ञा और आशीर्वाद माँगा जाएगा तो देश की जड़ में मठ्ठा नहीं तो क्या उर्वरक पड़ता। 

सनातनियों को दुत्कार नहीं तो क्या सहयोग, सत्कार मिलता। जैसा कि यहाँ से पिशाचिस्तान गए आस्तीन के साँपों को नरपिशाच जिन्ना, पूरे पिशाचिस्तान ने हाथों-हाथ लिया। पूरा सहयोग दिया। यह अलग बात है कि काफ़ी बाद में मुहाजिर कहकर मुस्लिम ही नहीं माना, ख़ूब मारा, काटा, लूटा, बलात्कार किया, यह आज भी जारी है। 

 . . . तो यहाँ आये सनातनियों को तिरस्कार अपमान असहयोग ही मिला। गाँधी पिशाचिस्तान से बच कर आए सनातनियों के विरुद्ध घृणा से इतना दहक रहे थे कि उनके ही विरुद्ध अनशन पर बैठ गए। वह इस बात से इतना अधिक कुपित थे कि सनातनी उन घरों, स्थानों में क्यों शरण ले रहे हैं, जो मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा अपने प्रिय पिशाचिस्तान चले जाने के कारण ख़ाली पड़े थे। 

यह विशुद्ध रूप से देश के गद्दारों के जाने के बाद उनकी प्रॉपर्टी की जी-जान से रक्षा करने जैसा दुष्कर्म, और अपने ही देशवासियों के साथ दुश्मनों जैसा अमानवीय कुकृत्य करने जैसा था। आख़िर वह भूखे-प्यासे घायल बीमार सनातनियों को सड़कों पर फिंकवा कर ही माने। 

इतना ही नहीं हाड़तोड़ सर्दी में देश में सनातनियों को सड़कों पर फिंकवाने वाले गाँधी दुश्मन देश पिशाचिस्तान के नरपिशाचों की कठिनाइयों, उनकी सुख-सुविधाओं को लेकर इतना चिंतित थे कि, उनको उस जमाने में पचपन करोड़ रुपये देने की हठ कर ली। उस समय के हिसाब से यह बहुत भारी-भरक़म धनराशि थी। इतना ही नहीं यह भीमकाय धनराशि उस रक्त-रंजित, खंडित आहत देश भारत से देने की हठ की जा रही थी, जो स्वयं उस समय हर तरफ़ मार-काट, भयानक अव्यवस्था, भुखमरी, ग़रीबी, अकाल से पीड़ित था। 

लेकिन गाँधी को चिंता थी तो सिर्फ़ देश को खंडित करने वाले नमक-हराम, आस्तीन के साँप, गद्दार नरपिशाचों की। पिशाचिस्तान की। उनसे बार-बार कहा जा रहा था, समझाया जा रहा था कि दरिंदा विश्वासघाती जिन्ना इस धन का प्रयोग भारत पर हमला करने के लिए ही करेगा। 

नेता जी सुभाष चंद्र बोस की तरह सदैव गाँधी के कठोर अन्याय-पूर्ण कार्यों का शिकार रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल भी इतनी बड़ी रक़म दिए जाने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। वो बार-बार कहते रहे कि जिन्ना इस धन का प्रयोग भारत के विरुद्ध युद्ध करने, उसे नुक़्सान पहुँचाने के लिए ही करेगा। उसको पैसा देना बड़ा राष्ट्र-घाती क़दम होगा। 

लेकिन जिन्ना को सदैव दुलारने वाले गाँधी अपनी रणनीति से कहाँ पीछे हटने वाले थे। वह अपनी हठधर्मिता, अपने अनशन नामक हथियार से अपनी सारी माँगें पूरी करवा कर ही माने। और यह बात सच निकली, नरपिशाच जिन्ना ने हमला कर दिया। परिणामस्वरूप आज भी देश की क़रीब नब्बे हज़ार वर्ग किलोमीटर भूमि उन पिशाचों के क़ब्ज़े में है। 

मेरे प्यारे सनातनियों मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ, मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह सब धूर्त राष्ट्राध्यक्ष माउंटबेटन, उसके आनुषांगिक संगठन कांग्रेस, उसकी सरकार के गाँधी के ही कारण सर्वे-सर्वा बने नेहरू और गाँधी की अपने प्रिय पिशाचिस्तानियों को सहायता करने, उनको मज़बूत करने की सोची-समझी रणनीति थी। 

यदि भारत में भी कांग्रेसियों, दुश्मन माउंटबेटन की जगह कोई देश-भक्त, कोई सच में देश, देशवासियों को चाहने वाला देश की बागडोर सँभालता तो निश्चित ही पिशाचों को एक पैसा न दिया जाता, न वह देश पर हमला कर पाता, न ही देश की इतनी विशाल भूमि हँसते हुए क़ब्ज़ा कर पाता। 

और वह धन भयानक क़त्ले-आम से आहत देश, देशवाशियों के काम आता। जिस पर सिर्फ़ और सिर्फ़ देश-वासियों का अधिकार था न कि किसी गाँधी, नेहरू का, कि जैसा चाहा वैसा किया, साँपों को उससे दूध पिलाया। 

गाँधी का हृदय अपने प्रिय मुस्लिम भाइयों की मदद के लिए कितना तड़पता रहता था, इसका अनुमान आप तथाकथित स्वतन्त्रता से पहले की इस घटना से आसानी लगा सकते हैं कि, जब गाँधी दक्षिण अफ़्रीका में अँग्रेज़ों का कृपा-पात्र बनने के रास्ते पर बढ़े चले जा रहे थे, बड़ी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे थे, तब देश के महान समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, स्वामी श्रद्धानन्द ने उनके यथार्थ को भली-भाँति न समझने के कारण, अपने गुरु-कुल के छात्रों से पंद्रह सौ रुपए एकत्र कर गाँधी के पास भेजे, जिससे उनकी मदद हो सके। उस समय यह एक बड़ी धनराशि थी। इस मदद से वह वहाँ अपना पैर मज़बूती से ज़माने में कामयाब रहे। 

पहले ही बता चुकी हूँ कि इस कामयाबी के साथ जब वह भारत लौटे तो अपनी परम चालाकी से भारतीय राजनीति की दुनिया में देखते-देखते मज़बूती से क़दम जमा लिए। अँग्रेज़ों ने दक्षिण अफ़्रीका में ही उनकी पहचान अपने लिए एक मज़बूत मोहरे या तुरुप के इक्के के रूप में कर ली थी। इसलिए भारत आते ही उन्हें ऐसा आगे बढ़ाया, हर मामले में इतना महत्त्व देना प्रारम्भ किया कि पूर्व के सभी वास्तविक राष्ट्रवादी नेता पीछे हो गए। 

अँग्रेज़ों के इन्हीं तुरुप के इक्के गाँधी तब बहुत नाराज़ हो गए, जब परम देश-भक्त, महान सनातनी स्वतंत्रता सेनानी स्वामी श्रद्धानन्द की, तेईस दिसंबर उन्नीस सौ छब्बीस को एक घिनौने जेहादी नरपिशाच अब्दुल रशीद ने, जिसने आध्यत्मिक बातचीत के बहाने धोखे से उनके आवास पर ही उनकी हत्या कर दी, तो उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। 

इससे गाँधी बहुत आहत हो गए कि उसे बच निकलने का रास्ता क्यों नहीं दिया गया। हत्या नरपिशाच ने की थी लेकिन वो इसके लिए दोषी स्वामी श्रद्धानन्द को ही मान रहे थे। ऐसा घोर निर्लज्जतापूर्ण अन्याय, अंधेरगर्दी आपको शायद ही कहीं और देखने को मिले। 

वो कितना ज़्यादा आहत और दुखी थे, इसका अंदाज़ा आप-लोग उनकी इन बातों से सहज ही लगा सकते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द उस समय भारतीय समाज के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों में से एक थे, इसलिए पूरे राष्ट्र में क्षोभ क्रोध व्याप्त था। राष्ट्र का यह क्रोध कहीं ब्रिटिश सरकार के लिए बड़ी समस्या न पैदा कर दे, इसलिए उनका आनुषंगिक संगठन कांग्रेस सामने आया। 

उसने पचीस दिसम्बर, उन्नीस सौ छब्बीस को गुवाहाटी के अधिवेशन में स्वामी श्रद्धानन्द को श्रद्धांजलि देने के लिए शोक प्रस्ताव रखा। उसमें गाँधी नरपिशाच के लिए भाव-विह्वल होते हुए बोले, “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है। 

“मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ। समाज सुधारक को तो ऐसी क़ीमत चुकानी ही पड़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। 

“ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका ख़ून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली समूहों के विभाजन को मज़बूत कर सकेगा।”

अब आप-लोग ज़रा सोचिए कि उनके इस कृत्य को कृतघ्नता, सनातनियों के साथ किया गया एक और कुकृत्य, महापाप नहीं तो और क्या कहा जाए? 

मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि आप पूरी शक्ति लगा कर भी, दुनिया में किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा किए गए, ऐसे क्रूरतम अमानवीय दुष्कर्म का दूसरा उदाहरण नहीं ढूँढ़ पाएँगे, जो कठिन समय में अपनी मदद करने वाले, उसको महात्मा की पवित्र उपाधि देने वाले व्यक्ति को ही दोषी ठहराते हुए, उसके हत्यारे को निर्दोष कहे, उसका मुक़द्दमा लड़ने को कहे, उसे बचाने का भरपूर प्रयास करे। 

वह अधिवेशन में अपनी पूरी शक्ति से पूरे जेहादी, धर्मांध समुदाय को पाक-साफ़, पवित्र निर्मल और सम्पूर्ण सनातन समुदाय को स्वभावतः धर्मांध, अपराधी प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। वहाँ उपस्थित पूरा समूह उनके इस अनर्थकारी झूठ, मक्कारी भरे दुष्कर्म से हतप्रभ रह जाता है। 

आपके मन में यदि इन बातों को लेकर रंच-मात्र का भी संशय हो तो सरकारी अभिलेखों में संगृहीत साप्ताहिक पत्रिका ‘यंग इण्डिया’ उन्नीस सौ छब्बीस देख लीजिए। अक्षरशः यह सारी बातें आपको उसमें मिल जाएँगी। 

आप यह भी नहीं सोच सकते कि, पत्रिका में यह रिपोर्ट लिखने वाले ने पक्षपात-पूर्ण ढंग से लिखते हुए घाल-मेल की होगी, क्योंकि यह पत्रिका स्वयं गाँधी ही प्रकाशित करते, उसमें लिखते थे। 

‘यंग इंडिया’ में ही सनातनियों, सनातन संस्कृति के विरुद्ध उनके और दुष्कर्म भी देख सकते हैं। उदाहरण के लिए आपको अब महान सनातनी, हिंदी भाषा के प्रकांड पंडित लेखक, सम्पादक, प्रकाशक महाशय राजपाल के बारे में बताती हूँ। जिनकी हत्या के लिए गाँधी ने बाक़ायदा ‘यंग इंडिया’ में लेख लिख कर जेहादियों को उकसाया। 

वही राजपाल जी जिनके वर्तमान में दिल्ली स्थित प्रकाशन केंद्र ‘राजपाल’ और ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’ की एक से बढ़ कर एक पुस्तकें आप आज भी पढ़ते चले आ रहे हैं। जिन्हें मरणोपरांत उन्नीस सौ अठानबे में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने प्रथम ‘फ़्रीडम टू पब्लिश’ पुरस्कार से सम्मानित किया था। दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में यह पुरस्कार उनके पुत्र विश्वनाथ जी ने ग्रहण किया था। अखंड भारत के समय महाशय राजपाल लाहौर में रहते थे। 

वहीं उन्होंने अपने ‘राजपाल एन्ड संस’ प्रकाशन की उन्नीस सौ बारह में स्थापना की और हिंदी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, उर्दू भाषा की श्रेष्ठ पुस्तकों का प्रकाशन करने लगे। उनके कार्य की चहुँ ओर प्रशंसा हो रही थी। 

इसी बीच सदैव से सनातनियों पर हमलावर जेहादियों ने भगवान श्री कृष्ण और महर्षि दयानन्द सरस्वती पर केंद्रित दो किताबें प्रकाशित कीं। पहली ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ और दूसरी ‘उन्नीसवीं सदी का लम्पट महर्षि’ दोनों ही में नीचता की पराकाष्ठा को भी लाँघते हुए भगवान और महर्षि को गन्दी से गन्दी, अश्लीलतम बातें कही गई थीं। 

 उन तथ्यहीन अनर्गल बातों से दुनिया भर का सनातनी क्षुब्ध हो उठा। क्रोध से भर गया, लेकिन पवित्र ‘गीता’ को भी हथियार की तरह प्रयोग करते रहने वाले गाँधी के मुँह से आपत्ति का एक शब्द नहीं निकला कुछ लिखने की तो बात ही छोड़ दीजिए। 

वह ऐसे निर्लिप्त रहे जैसे कि भगवत वाणी ‘गीता’, महर्षि दयानन्द पर गन्दा से भी गंदा कीचड़ फेंक देना भी ऐसी कोई बात ही नहीं है कि उसका संज्ञान भी लिया जाए। लेकिन यही गाँधी तब आग-बबूला हो उठते हैं, जब किताब के नाम पर कलंक इन दो घिनौनी किताबों का जवाब अत्यधिक शालीनता, बहुत ही तथ्य-पूर्ण ढंग से प्रसिद्ध आर्य-समाजी विद्वान पंडित चामूपति एम.ए. ने एक किताब लिख कर दिया। 

चामूपति जी किशन प्रसाद प्रताब नाम से भी जाने जाते थे। जेहादियों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए चामूपति जी ने राजपाल जी से आग्रह किया था कि पुस्तक में लेखक का नाम नहीं छापें। उन्होंने ऐसा ही किया। नाम की जगह बस ‘दूध का दूध पानी का पानी’ लिख दिया। क्योंकि पुस्तक अत्यंत तथ्य-पूर्ण, तर्क-पूर्ण थी, इसलिए जेहादी निरुत्तर तो ज़रूर थे, लेकिन बिलबिलाए हुए भी बहुत थे। 

सन्‌ उन्नीस सौ चौबीस में प्रकाशित यह किताब बराबर बिकती रही। लेकिन कोई विवाद जैसी बात पैदा नहीं हुई। धीरे-धीरे बात ठंडे बस्ते में जाती दिखी। गाँधी के लिए यह असह्य था। वह व्याकुल हो उठे कि जेहादी हमलावर क्यों नहीं हो रहे। उन्होंने अत्यंत क्रोधित होते हुए ‘यंग इंडिया’ में राजपाल जी को अपमानजनक शब्द कहते हुए उनके, सनातनियों के विरुद्ध अपना समस्त विष उड़ेल दिया। 

विष कितना भयानक था यह उनके लिखे में स्वयं देखिए, उन्होंने लिखा, “एक तुच्छ पुस्तक विक्रेता ने कुछ पैसे बनाने के लिए इस्लाम के पैग़म्बर की निन्दा की है, इस का प्रतिकार होना ही चाहिए।” क्या यह सीधा-सीधा जेहादियों को हमला करने का आदेश देने जैसा नहीं है। 

वो यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने एक-पक्षीय, जेहादिओं को चरम सीमा तक उकसाने के उद्देश्य से राजपाल जी के लिए हद से नीचे गिरते हुए भरसक गंदे से गंदे शब्दों का प्रयोग किया। इसके लिए उनकी चहुँ-ओर कटु निंदा होने लगी। क्योंकि राजपाल जी एक सज्जन प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। 

वीर सावरकर, डॉ. आंबेडकर, सहित तमाम महत्व-पूर्ण लोगों ने उनके इस कुकृत्य को अन्ययायपूर्ण, निंदनीय, हिंसात्मक आचरण तक कहा। लेकिन स्वयंभू अहिंसा के पुजारी राजपाल जी के ख़ून से धरती को रक्त-रंजित किए बिना, उनके प्राणों की आहुति से कम पर मानो तैयार ही नहीं थे। उनके लेखों, अनवरत भड़काऊ बातों से अंततः जेहादी एकदम भड़क उठे। 

सभी मुस्लिम पार्टियों, संगठनों ने पुरज़ोर तरीक़े से किताब के वितरण को बंद करने, लेखक का नाम बताने की माँग शुरू कर दी। राजपाल जी का समाज कितना सम्मान करता था, कितना ऊँचा क़द था उनका, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि, जेहादी भी उनसे शालीनतापूर्वक कहते कि आप लेखक का नाम बता दीजिए, हमें आप से कोई शिकायत नहीं होगी। 

उस समय जेहादियों का एक अख़बार ‘ज़मीदार’ नाम से प्रकाशित होता था। बड़े अख़बारों में इसकी गिनती होती थी। इसमें भी बार-बार यही कहा जाता कि किताब का प्रकाशन, वितरण बंद करके नाम बता दीजिये, माफ़ी माँग लीजिए, आपसे कुछ नहीं कहा जायेगा। 

लेकिन निर्भीक, सदैव अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले राजपाल जी का हर जेहादी को एक ही जवाब होता कि, ‘मैं विचार-स्वातंत्र्य और प्रकाशन की स्वतन्त्रता में विश्वास रखता हूँ और अपनी इस मान्यता के लिए बड़े से बड़ा दण्ड भुगतने के लिए तैयार हूँ।’

लगातार भड़काऊ बातों के चलते विवाद बढ़ता चला गया। जेहादियों, गाँधी की लगातार शह के चलते ब्रिटिश सरकार ने राजपाल जी पर अभियोग चला कर एक हज़ार रुपए जुर्माने के साथ ही डेढ़ वर्ष क़ैद की सजा दी, लेकिन हाई-कोर्ट ने उन्हें दोष-मुक्त कर दिया। 

जेहादी इस बीच राजपाल जी पर लेखक का नाम बताने के लिए बराबर दबाव बनाए हुए थे। लाख दबाव के बावजूद अपनी जान की परवाह किये बिना उन्होंने पंडित चामूपति जी को दिया वचन निभाते हुए लेखक का नाम भूल कर भी नहीं बताया। जेहादी ढूँढ़ते रहे लेखक को। लेकिन गाँधी को यह सहन नहीं हो रहा था कि जेहादी कोई हमला क्यों नहीं कर रहे। अंततः उनकी हिंसक दूषित मनोकामना सन्‌ उन्नीस सौ छब्बीस को पूरी हो गई। 

जब राजपाल जी को धमकियों से भी विचलित न होते देख बिलबिलाए एक नरपिशाच खुदाबख्श ने धोखे से उनकी दुकान पर ही, उनपर छूरे से भयानक हमला कर दिया। लेकिन दैव-योग से उसी समय आर्य-समाज के प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी स्वतंत्रता नन्द और स्वामी वेदानन्द ने वहाँ पहुँच कर उन्हें बचा लिया। फिर भी गंभीर रूप से घायल हो जाने के कारण उन्हें तीन महीने अस्पताल में रहना पड़ा। 

जेहादियों को निरंतर भड़काते रहने का परिणाम यह हुआ कि, आठ अक्टूबर उन्नीस सौ सत्ताईस को अब्दुल अज़ीज़ नामक एक दूसरे नरपिशाच ने दूकान पर ही मारने का पुनः प्रयास किया। मगर वह निर्बुद्धि राजपाल जी को पहचानने में ग़लती कर वहाँ बैठे स्वामी सत्यानंद पर हमला कर बैठा। वह बुरी तरह घायल हो गए। अस्पताल में क़रीब तीन महीने तक उपचार के बाद वह ठीक हो सके। 

यह बिना खड्ग ढाल के तथा-कथित आज़ादी दिलाने वाले स्वयंभू संत, महात्मा, ब्रह्मचर्य के प्रयोग के नाम पर विवाहित, अविवाहित, किशोरी, नव-युवती से लेकर प्रौढ़ महिला तक के साथ चहुँ ओर घोर आलोचना के बावजूद नग्न सोने, नहाने वाले, अहिंसा के साधक के लिए और भी ज़्यादा पीड़ादायी रहा। उनकी निरंतर भड़काने वाली बातों के चलते जेहादी उग्र होते चले गए, उनका जोश सातवें आसमान को छू रहा था क्योंकि गाँधी जैसा व्यक्ति जी-जान से उनके साथ लग गया था। 

एक के बाद एक फ़तवे राजपाल जी के विरुद्ध आने लगे। सबसे ज़्यादा घातक निर्णायक फ़तवा रहा गाँधी के परम मित्र मौलाना मुहम्मद अली का। जो दिल्ली की जामा मस्जिद का था। उसका भाषण इतना ज़हरीला, इतना भड़काऊ था कि बिलबिलाया हुआ एक नरपिशाच इल्मुद्दीन छह अप्रैल उन्नीस सौ उन्तीस को सीधा राजपाल जी की दुकान पर पहुँच कर उन-पर ताबड़-तोड़ हमला कर दिया। और अहिंसा के छद्म पुतले ने विश्राम की गहरी ठंडी साँस ली। 

अत्यंत सम्मानित, सचमुच महात्मा सरीखा स्वतंत्रता सेनानी, सनातनी राष्ट्र-भक्त ब्रह्मलीन हो गया। पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया। क्या सम्मानित प्रतिष्ठित व्यक्ति, क्या आमजन सभी ने उन्हें भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। 
 सोचिए उस समय लाहौर में उनके लिए निकले शांति-जुलूस में एक लाख से अधिक लोग सम्मलित हुए। और अहिंसा के पुजारी! कहने को भी उसके मुँह से एक शब्द नहीं निकला। फ़ॉर्मेलिटी के लिए भी नहीं। 

जबकि उस नरपिशाच हत्यारे के लिए उसके समुदाय का ऐसा कौन था जो उसे अपने फ़रिश्ते की तरह सम्मान देते हुए, उसके लिए जी-जान से नहीं खड़ा था, जाहिल चोर-उचक्कों से लेकर उनका तथा-कथित बौद्धिक, राजनीतिक, व्यावसायी, जेहादी आदि तक। 

देश के आस्तीन के साँप मुहम्मद इक़बाल से लेकर ये सारे के सारे न सिर्फ़ उसे फाँसी दिए जाने पर छाती पीट रहे थे, बल्कि उसके जनाज़े को लाहौर ले गए। जहाँ उसके लिए उमड़े झुण्ड को देख कर ऐसा प्रतीत होता मानो दुनिया भर के जेहादियों के सारे झुण्ड वहीं आ गए हैं। 

मेरे प्यारे सनातनियों आगे जो हुआ उस पर ज़रा विशेष ध्यान दीजिए। उनकी अटूट एकता और रणनीति देखिए। धोखे से हमला करने वाले उस कायर हत्यारे को शहीद बताते हुए जेहादियों ने गाज़ी की उपाधि से नवाज़ा, उसे गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद कहा। उसके सम्मान में मियाँ वाली जेल में गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद मस्जिद बना दी, जो आज भी है। 

और महाशय राजपाल! किस सनातनी को याद है वह महान सनातनी राष्ट्रवादी योद्धा। है क्या उनका कोई स्मारक? उनकी ऐसी उपेक्षा से उनकी अगली पीढ़ियाँ कितनी आहत हैं ज़रा उनसे जाकर पूछिए। जो आज भी राजपाल और हिन्द पॉकेट बुक्स के नाम से अपने पूर्वज महाशय राजपाल के स्थापित व्यवसाय को आगे बढ़ा रहे हैं। 

उनके घावों पर शीतल लेप लगाने का कार्य तो उन्नीस सौ अठानवे में किया गया, उन्हें मरणोपरांत फ़्रीडम टु पब्लिश पुरस्कार से सम्मानित करके लेकिन उनका स्मारक? 

ख़ैर बात आगे बढ़ाती हुई यह कहती हूँ कि, अगर आप यह सोचते हैं कि प्रयोग के नाम पर नग्न औरतों के साथ सोने, नहाने, दूसरे की पत्नी को अपनी आध्यात्मिक पत्नी आदि कहने के लती व्यक्ति ने बस इतना कुछ ही किया तो लीजिए यह भी जान लीजिए। 

ज़्यादा नहीं मात्र सौ साल पहले हुए ‘मोपला नर-संहार’ संभवतः यह भी आपने न सुना हो, न पढ़ा हो। क्योंकि वामपंथियों, कांग्रेसियों, अँग्रेज़ों ने इस नर-संहार को इतिहास पन्नों से ही विलुप्त कर दिया। बड़ी चालाकी, कमीनगी के साथ इसे देश की आज़ादी के लिए किसानों का विद्रोह कहकर महिमामंडित किया। जिसमें जेहादी नरपिशाचों ने क़रीब बीस हज़ार सनातनियों का पैशाचिक तरीक़े से संहार किया था। 

जिसमें बड़ी क्रूरता से सनातनियों के सिर काट-काट कर उनसे कुओं को पाट दिया गया था। उन्हें तलवारों, छूरों से बर्बरता-पूर्वक काट-काट कर कुओं में डाल दिया। समूहों में ज़िन्दा जला दिया। बच्चों औरतों को काटा, जलाया, चीरा गया। यह सोच कर ही ख़ून खौल उठता है कि भेड़ियों ने गर्भवती स्त्रिओं के पेट फाड़-फाड़ कर गर्भस्थ शिशुओं को काटा मारा कुचला। 

इसे आप एक बार फिर डॉक्टर भीम राव आंबेडकर के शब्दों में भी जानिए, जिससे आपको मेरी बातों पर कोई संशय न हो। उन्होंने कहा था, “मोपला मुसलमानों ने मालाबार के हिन्दुओं के साथ जो किया वो विस्मित कर देने वाला है। मोपला के हाथों मालाबार के हिन्दुओं का भयानक अंजाम हुआ। नर-संहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों को ध्वस्त करना, महिलाओं के साथ अपराध, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना, ये सब हुआ। हिन्दुओं के साथ सारी क्रूर और असंयमित बर्बरता हुई। मोपला ने हिन्दुओं के साथ यह सब खुलेआम किया, जब-तक वहाँ सेना नहीं पहुँच गई।”

भाइयों नरपिशाचों का यह पैशाचिक कुकृत्य छह महीने तक चलता रहा लेकिन स्वामी श्रद्धानन्द के जेहादी हत्यारे अब्दुल रशीद को बचाने के लिए व्याकुल होने वाले न गाँधी, नेहरू उनकी कांग्रेस पहुँची न ही कोई और, छह महीने बाद जब सेना पहुँची तब करने के लिए कुछ शेष बचा ही नहीं था। यह सब षड्यंत्र का हिस्सा था। और इसमें नरपिशाचों के साथ शामिल थे तथाकथित स्वतंत्रता सेनानी अबुल कलाम आज़ाद, जफर अली खां और मोहम्मद अली और इन सबसे ऊपर गाँधी। 

ये सब अपनी-अपनी राजनीतिक दुकान और ज़्यादा बड़ी, और ज़्यादा चमकदार बनाने के लिए तुष्टिकरण का राष्ट्रघाती खेल, खेल रहे थे। जून, उन्नीस सौ बीस में गाँधी ने ही अपने अथक प्रयासों से “ख़िलाफ़त कमेटी” बनवाई थी। इस कमेटी ने नरपिशाच मोपलाओं का नरसंहार के लिए एक तरह से मार्गदर्शन किया, ऊर्जा प्रदान की। इसके निर्माण के बाद ही नरपिशाचों के काम में अचानक ही बहुत तेज़ी आ गई थी। 

आमजन से लेकर विशिष्टजन तक की घनघोर आपत्तियों के बावजूद हमेशा दो औरतों के कन्धों पर ही हाथ रख कर चलने वाले आपके राष्ट्रपिता ही मुख्यतः सनातनियों के इस नर-संहार के लिए ज़िम्मेदार हैं, इसके अकाट्य प्रमाण आगे दे रही हूँ, फ़िलहाल क्रम से बात को आगे बढ़ाती हुई कहती हूँ कि, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटनाएँ जम्मू-कश्मीर में भी ख़ूब हुईं, हिन्दुओं को ज़िन्दा ही तेज़ाब के ड्रमों में डुबो-डुबो कर मारा गया। 

लेकिन अभी आप मालाबार पर ही ठहरिए। इस नर-संहार की बर्बरता को और गहराई से आप जान सकें इसलिए वहाँ के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर सी. गोपालन नायर की पुस्तक ‘द मोपला रिबेलियन १९२१’ को पढ़ लीजिए। इस सामूहिक नर-संहार की यह सबसे प्रामाणिक किताब या दस्तावेज़ है। 

सी. गोपालन नायर ने बहुत ही आहत मन से लिखा कि गर्भवती महिलाओं के टुकड़े कर-कर के उन्हें सड़कों पर फेंक दिया गया। मंदिरों में गोमांस फेंक दिए गए थे। अमीर हिन्दू भी भीख माँगने को मजबूर हो गए थे। जिन हिन्दू परिवारों ने अपनी बहन-बेटियों को पाल-पोस कर बड़ा किया था, उनके सामने ही उनका जबरन धर्मांतरण कर मुस्लिमों से निकाह करा दिया गया। 

सी. गोपालन नायर ने क़रीब पचास से ऊपर ऐसे-ऐसे हृदय-विदारक दृश्यों का उल्लेख किया है कि उन्हें पढ़ कर रक्त उबलकर रक्त-शिराओं को फाड़ने ही नहीं लगता है, बल्कि मन करता है कि काश कोई ऐसी शक्ति मिल जाती कि . . .

जैसे एक दृश्य यह है कि पचीस सितम्बर उन्नीस सौ इक्कीस को अड़तीस सनातनियों के सिर काट कर एक कुँए में फेंक दिए गए। उन्हें जगह-जगह ऐसे दृश्य मिल रहे थे। कई जगह कुओं में घायल पड़े लोग मदद माँगते मिले। 

यह सब उसी केरल की पवित्र सनातन भूमि पर हुआ, जहाँ ख़ाना-बदोश नरपिशाचों को राजा चेरामन ने शरण दे कर सभ्य बनाया था। अब उन तथ्यों को जानिए जो चीख-चीख कर यह प्रमाणित कर रहे हैं कि ज़िम्मेदार गाँधी ही थे। 

यह कहते हुए बात को आगे बढ़ाती हूँ कि अँगरेज़ यहाँ से सुभाष चंद्र बोस, उनकी सेना आज़ाद हिन्द फ़ौज और अँग्रेज़ों को यमलोक पहुँचाने और उनकी गोलियों, पैशाचिक काले पानी की सज़ा, अत्याचारों से वीर-गति पाने वाले सच में चरित्रवान, सिद्धांतप्रिय, सत्यवादी महान क्रांतिकारिओं के कारण भागे न कि विषयवासना में आकंठ डूबे रहने, डायटिंग करनेवालों, क़ैद के नाम पर अँग्रेज़ों के विशिष्ट अतिथि बनने वालों, गोरी मेमों से इश्क़ लड़ाने वालों, अपनी आकांक्षाओं, मूर्खता-पूर्ण सनक को पूरा करने के लिए सनातनियों को भ्रमित कर जेहादियों के हाथों क़त्ल होने के रास्ते पर भेजने वालों के कारण। 

इन बातों के कारण अगर आप यह सोचने लगे कि मैं प्रसंग से भटक गई हूँ, तो ऐसा बिलकुल नहीं है। यह बातें इसलिए कहती हुई आगे बढ़ रही हूँ, जिससे आगे की बातें आपको और ज़्यादा स्पष्ट समझ में आएँ। 

सनातनियों को भ्रमित करने वाली बात को ध्यान में रखते हुए, हृदय को झकझोर कर रख देने वाला यह सच जानिए कि नरपिशाच मोपला, सनातनियों को लगातार मार-काट रहे थे और गाँधी उन्हें भ्रमित करते हुए, सनातनियों पर पूरा दबाव डाल रहे थे कि वो कोई प्रतिकार या विरोध न करें। 

जेहादियों की तलवारों के आगे सनातनियों को अपनी गर्दन रख देने, हिन्दू-मुस्लिम की एकता को बनाए रखने, उसे सुदृढ़ बनाने के लिए कह रहे थे। दुर्भाग्य तो यह कि उस समय या किसी भी समय यह एकता थी भी जो सनातनियों को यह झुनझुना पकड़ा-पकड़ा कर वो उन्हें सदैव मौत के मुँह में धकेलते रहे। 

यह कड़वा सच भली-भाँति जानते-समझते हुए भी कि जो भी शख़्स, समुदाय धर्मांध जेहादी सोच-विचार का होगा वह दूसरी सोच-विचार के शख़्स के साथ तभी तक एकता भाई-चारा बनाए रखने का छलकपट भरा, विश्वासघाती खेल खेलता रहता है, जब-तक वह यह समझता है कि अभी उसकी शक्ति इतनी नहीं है कि दूसरे पक्ष का क़त्ले-आम कर सके। 

उन्होंने एकता के नाम पर सनातनियों को सदैव भ्रमित करने का काम क्यों किया? अब वो विशेष प्रकार के महात्मा जी तो स्वर्गवासी हो गए हैं, लेकिन आज भी जो लोग उनके नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, उनसे इस बात का उत्तर अवश्य ही लिया जाना चाहिए। 

आप-लोग गंभीरता-पूर्वक यह सोचिए न कि अपनी बात मनवाने के लिए आम्बेडकर के सामने भी अनशन का हथियार भाँजने वाले गाँधी नरपिशाचों के सामने भी यह हथियार भाँजने के बजाय सनातनियों से कहते हैं कि, “भले ही मुसलमान जबरन हिंदुओं का धर्मांतरण करवा रहे हों लेकिन हिंदुओं को इसे हिंदू मुस्लिम एकता पर दाग लगाकर तोड़ने नहीं देना चाहिए।”

अजब पागलपन तो यह था कि देशवासी देश की स्वाधीनता के लिए अपना स्वर्स्व त्याग रहे थे, अँग्रेज़ों की गोलियाँ, लाठियाँ खा रहे थे, वीर सावरकर उनके भाई जैसे महान क्रांतिकारी अँग्रेज़ों की क्रूरतम अमानवीय काले-पानी की सज़ा भुगत रहे थे और गाँधी अपनी पूरी कांग्रेस के साथ इसके उलट दूर देश तुर्की में ख़लीफ़ा या ख़िलाफ़त को पुनर्स्थापित करने के लिए जी-जान से लगे हुए थे। दुनिया चाहे कुछ भी कहे मैं इसे सच्चे स्वाधीनता सेनानियों, देश के साथ क्रूरतम विश्वासघात ही कहूँगी, और तुष्टीकरण की पराकाष्ठा भी। 

ख़िलाफ़त के लिए वो सनातनियों पर पूरा दबाव डालते हुए कहते हैं, “यदि भारत के मुसलमान ख़िलाफ़त पर न्याय सुरक्षित करने के लिए सरकार को असहयोग की पेशकश करते हैं, तो यह हर हिंदू का कर्त्तव्य है कि वह अपने मुस्लिम भाइयों के साथ सहयोग करे।” 

गाँधी के छल-छद्म के जाल में उलझ सनातनियों ने जेहादियों के कंधे से कंधा मिला कर उनके ख़िलाफ़त आंदोलन को ख़ूब आगे बढ़ाया। और कपटी जेहादियों को जब लगा कि उनका आंदोलन सनातनियों की शक्ति, सहयोग से पर्याप्त मज़बूत हो गया है, अब उन्हें उनकी आवश्यकता नहीं है, तो उन्होंने सनातनियों का ही नर-संहार प्रारम्भ कर दिया। 

गँवार जेहादियों को पागलपन की सीमा तक उन्मादी बनाने के लिए उन्हें हमेशा की तरह कठमुल्लों ने नए मुलम्मों के साथ जन्नत में बहत्तर हूरों के संग ख़ूब अय्याशी करने का फिर लालच दिया। 

कहा इस जंग में इस्लाम के जो बंदे शहीद होंगे वो क़ीमती पत्थरों से सुसज्जित घोड़ों पर जन्नत में सैर करेंगे। वहाँ उनका इस्तिक़बाल हूरें करेंगी। कठमुल्लों ने यह कहने के लिए इस्लाम में शहादत की परिभाषा ही तोड़-मरोड़ कर फिर से लिखी थी। परिणाम-स्वरूप नरपिशाचों ने सनातनियों का बर्बरतापूर्वक क़त्ल, बलात्कार, जश्न मनाने की तरह किया। 

ध्यान देनेवाली वाली बात यह है कि गाँधी ने उपर्युक्त भाषण 1920 में उस स्थिति में भी दिया जब नरपिशाच अनवरत क़त्लेआम, बलात्कार कर रहे थे। इसके बावजूद वह सनातनियों को प्रतिकार करने से हर तरह से न सिर्फ़ रोकते रहे, बल्कि हत्यारे, बलात्कारी नरपिशाचों को पूर्णतः निर्दोष, स्वच्छ निर्मल प्रमाणित करने की जी-जान से कोशिश करते रहे। 

बतौर प्रमाण उनका यह बयान देखिए, “उन्होंने ‘ख़िलाफ़त आंदोलन‘ के ख़िलाफ़ गुनाह किया है, न कि हिंदुओं के ख़िलाफ़। हिंदुओं को ‘अहिंसक‘ रहना चाहिए चाहे कितने ही उकसावे का सामना करना पड़े।”

आप ज़रा गहनता से विचार कीजिए कि एक वह सनातन धर्म-परायण समाज जो उनके कामों, आचरण के वास्तविक स्वरूप की सही-सही पहचान न कर पाने के कारण सम्माननीय महात्मा मानता था, उस पर उनकी ऐसी बातों से कितना अमानवीय दबाव पड़ता रहा होगा। 

सच यह है कि वह जेहादियों के तुष्टिकरण में जीवनभर लगे रहे। इसके लिए वह अनुचित से भी अनुचित कार्य ख़ुशी-ख़ुशी करते रहे। उदाहरणार्थ यहूदियों का ही मामला लीजिए। जेहादी यहूदियों से भी उतनी ही घृणा करते हैं जितना कि सनातनियों से, यह वो अच्छी तरह समझते थे। 

हिटलर द्वारा यहूदियों के व्यापक नर-संहार से पूरी दुनिया दुखी, हतप्रभ थी, जेहादियों को छोड़कर। लेकिन गाँधी! यहूदियों के लिए भी उनकी छल-प्रपंच से भरी कुटिलता-पूर्ण भावना देखिए, उन्नीस सौ छियालीस में वो एक साक्षात्कार में कहते हैं, “यहूदियों को अपने लिए स्वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था। उन्हें अपने आप को समुद्री चट्टानों से समुद्र के अंदर फेंक देना चाहिए था।” 

उनके इस बयान से दुनियाभर के जेहादिओं के मन में लड्डू फूटते रहे। यहूदियों ने इसके लिए गाँधी की कटु निंदा की। लेकिन ऐसी किसी बात की वह परवाह कहाँ करते थे। उन्हें अपनी विशेष प्रकार की सामाजिक, राजनीतिक छवि के अलावा किसी भी की परवाह नहीं थी। वह यह तथ्य भली भाँति समझते हुए भी यहूदियों को समुद्र में कूद कर आत्महत्या करने के लिए कह रहे थे कि यह भी अपनी तरह की एक जघन्य क्रूर हिंसा है। 

लेकिन वह हर बार मुस्लिम तुष्टिकरण की पराकाष्ठा की हर पिछली परिभाषा को ठुकराते हुए एक नई परिभाषा गढ़ते थे। प्रमाण यहूदियों के प्रसंग से ही ले लीजिए। फ़लस्तीन और यहूदी प्रकरण पर वह मुस्लिमों का एकतरफ़ा पक्ष लेते हुए यहूदियों पर दबाव डालते हुए कहते हैं कि, “मुझे इसमें कोई शक ही नहीं है कि फ़लस्तीनी इलाक़े में रहने वाले यहूदी ग़लत रास्ते जा रहे हैं। बाइबिल में जिस फ़लस्तीन की बात है, उसका तो आज कोई भौगोलिक आकार नहीं है। अरबियों की सदाशयता से ही वे यहाँ बस सकते हैं। उन्हें अरबियों का दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए। अरबियों के दिल में भी वही ईश्वर बसता है जो यहूदियों के दिल में बसता है। वे अरबियों के सामने सत्याग्रह करें और उनके ख़िलाफ़ एक अंगुली भी उठाए बिना ख़ुद को समर्पित कर दें कि वे चाहें तो उन्हें गोलियों से भून डालें या समुद्र में फेंक दें।”

उनकी इसी बात को मैं बड़े परिप्रेक्ष्य में रखती हुई पूछती हूँ कि, ऐसे तो क़ुरान या जेहादियों की किसी भी पुस्तक में भारत से ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं बताया गया है, जिसके आधार पर वो सनातनियों के इस सनातन राष्ट्र की अणु बराबर भूमि पर भी अधिकार की बात भी कर सकें। ये जेहादी भी तो इस पवित्र सनातन भूमि पर सनातनियों की दया या उनकी सदाशयता से रह सकते हैं। 

गाँधी ने इन जेहादियों को कभी यह क्यों नहीं समझाया कि वो यदि यहाँ रहना चाहते हैं तो उन्हें सनातनियों की कृपा प्राप्त करनी होगी। इसके लिए वो चाहें तो सनातनियों के सामने सत्याग्रह करें, उनके ख़िलाफ़ एक अंगुली भी उठाए बिना ख़ुद को समर्पित कर दें कि वे चाहें तो उन्हें गोलियों से भून डालें या बंगाल की खाड़ी में फेंक दें। 

लेकिन वे यह कैसे कह सकते थे? न्यायप्रिय महात्मा जी से उनके प्रिय जेहादी भाई असंतुष्ट हो जाते, नाराज़ हो जाते तो वे इस सनातन राष्ट्र के सर्वमान्य नेता कैसे बन पाते? राजा नहीं, राजा बनाने वाले सर्व-शक्तिशाली व्यक्तित्व कैसे बन पाते? आगे चलकर राष्ट्र-हित (खंडित राष्ट्र) के हर पक्ष से आँखें मूँद कर, चुनाव में देशभर की पंद्रह कांग्रेस कमेटियों द्वारा सरदार वल्लभ भाई पटेल को देश का प्रधानमन्त्री बनाने, नेहरू को अस्वीकार करने के निर्णय को, एक निरंकुश हृदयहीन तानाशाह की तरह ठुकराते हुए, अन्यायपूर्ण ढंग से, देश भर से नकारे गए व्यक्ति अपने प्रिय नेहरू को, योग्यतम व्यक्ति को दरकिनार करते हुए देश पर बतौर प्रधानमन्त्री कैसे थोप पाते। 
और यह थोपा हुआ व्यक्ति ही मनमानी करते हुए जम्मू-कश्मीर को देश के रिश्ते घाव में कैसे परिवर्तित कर पाता? यह नेहरू ने कैसे किया आगे बताऊँगी अभी तो गाँधी पर ही बात पूरी करती हुई कहती हूँ कि वह अच्छी तरह समझ रहे होते थे कि वह पूर्णतः अन्याय-पूर्ण कुकृत्य कर रहे हैं, इसलिए स्पष्टीकरण भी देते रहते थे। जैसे इसी प्रकरण में वह यहूदियों पर अरबों के अत्याचार को सही भी मान रहे हैं, साथ ही धृष्टतापूर्वक यह भी कहते हैं कि मैं उनका बचाव नहीं कर रहा हूँ। 

अतिशय चतुराई से वह कहते हैं कि, “मैं अरबों द्वारा की गई ज़्यादतियों का बचाव नहीं कर रहा हूँ लेकिन मैं ज़रूर मानता हूँ कि वे सही ही अपने देश पर की जा रही अनुचित दख़लंदाज़ी का विरोध कर रहे हैं। मैं यह भी चाहता हूँ कि वे अहिंसक तरीक़े से इसका मुक़ाबला करते। लेकिन सही और ग़लत की जो सर्वमान्य व्याख्या बना दी गई है, उस दृष्टि से देखें तो बड़ी प्रतिकूलताओं के समक्ष अरबों ने जिस रास्ते प्रतिकार किया है, उसकी आलोचना कैसे करेंगे आप . . . इसलिए अब यहूदियों पर ही है कि वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का जैसा दावा करते हैं, उसे अहिंसक तरीक़े अपना कर संसार के सामने प्रमाणित करें।”

उनकी इस “अनुचित दख़लंदाज़ी” वाली बात पर मुझमें फिर यह प्रश्न खड़ा हो रहा है कि यही बात वे अपने प्रिय जेहादियों को क्यों नहीं समझाते थे कि वे यहूदियों की तरह सनातनियों की पवित्र भूमि पर “अनुचित दख़लंदाज़ी” कर रहे हैं। 

वास्तव में वह सदैव हर मामले में जेहादियों को निर्दोष बताने के लिए ऐसे ही ऊलजुलूल बातें करते एक-से-बढ़ कर एक कुतर्क गढ़ते थे। उदाहरणार्थ मोपला नरपिशाचों को भी निर्दोष बताने के लिए उनके गढ़े कुतर्कों की पराकाष्ठा आप पहले ही जान चुके हैं। जिसमें उनका बचाव करते हुए वह कहते हैं कि उन्होंने हिन्दुओं के ख़िलाफ़ कोई गुनाह नहीं किया। 

देखा आपने . . . कितनी कुटिलता, धूर्तता से नरपिशाचों को वो निर्दोष बता दिया करते थे। उनके ऐसे आचरण से व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद अँगरेज़ उनसे कितनी घृणा करते थे इसका सहज ही अनुमान आप उस समय के एक वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन द्वारा अपनी बहन को लिखे गए एक पत्र में गाँधी के लिए कही गई इस बात से लगा सकते हैं। उन्होंने लिखा, “अगर गाँधी न होता तो यह दुनिया वाक़ई बहुत ख़ूबसूरत होती। वह जो भी क़दम उठाता है उसे ईश्वर की प्रेरणा का परिणाम कहता है लेकिन असल में उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गज़ब का आदमी बताती है। लेकिन सच यह है कि हम निहायत अव्यावहारिक, रहस्यवादी और अंधविश्वासी जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान बैठी है।” 

बात कितनी साफ़ है कि उस समय सनातनी ऐसे को अपना भगवान माने बैठे थे जो उन्हें फूटी आँखों भी देखना पसंद नहीं करता था। 

हे प्रियजनो! इतना ही नहीं नरपिशाचों की ही तरह सदैव देश की पीठ में छूरा घोंपने वाले वामपंथी भी मालाबार नरसंहार से उतना ही प्रसन्न थे जितना की नरपिशाच। उन्होंने भी इन्हें निर्दोष बताते हुए कुतर्कों की बाढ़ लगा दी थी। उनका नेता सौमेंद्र नाथ पूरी कमीनगी से बोलता है कि, “यह ज़मींदारों के ख़िलाफ़ विद्रोह था।” वामपंथियों और कांग्रेसियों ने पूरी कमीनगी के साथ सनातनियों के इस सामूहिक नरसंहार को इतिहास में ज़मींदारों के ख़िलाफ़ विद्रोह ही लिखा है। 

आप लोग यह सोच कर आराम वाली साँस न लीजिये कि सनातनियों का बस इतना ही नर-संहार हुआ, गाँधी उनकी पूरी कांग्रेस ने यही अन्याय किया। 

मालाबार में तो बीस-पचीस हज़ार सनातनियों का संहार कुछ महीनों में हुआ था। लेकिन मीरपुर में तो पैंतीस हज़ार सनातनियों का संहार तीन दिन में ही नरपिशाचों ने किया। यह तथाकथित बिना खड्ग ढाल वाली स्वतंत्रता के ऐन-वक़्त पर हुआ। 

हर तरफ़ से घिरे सनातनी गाँधी, नेहरू से हथियार, मदद माँगते रहे लेकिन इन दोनों ने क्या किया यह जान कर आपकी रक्त वाहिकाओं में बूँद भर भी रक्त होगा, तो आप क्रोध से भगोने में नहीं सँकरे मुँह वाली बटोई में खौलते दूध की तरह ही उबल पड़ेंगे। 

सोचिए पैंतीस हज़ार सनातनी अपने मान-सम्मान, प्राण की रक्षा के लिए देश के स्वयंभू राष्ट्र-पिता और सेलेक्टेड प्रधानमंत्री से सुरक्षा माँग रहे थे, हथियार माँग रहे थे और उनके साथ परिहास किया जा रहा था। स्वयंभू राष्ट्र-पिता का यह जवाब आपको परिहास ही लगेगा कि, “मीरपुर तो बर्फ़ से ढका हुआ है।” जबकि तथ्य यह है कि वहाँ बर्फ़ पड़ती ही नहीं। 

वास्तव में नरपिशाच यहाँ मात्र कुछ घंटों में पैंतीस हज़ार से अधिक हिंदुओं का नरसंहार, महिलाओं का बलात्कार, क़रीब छह हज़ार युवतियों, महिलाओं का अपहरण कर बलात्कार के बाद उन्हें पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान सहित कई जेहादी अरब देशों में, दस-बीस रुपए में, बेचने में, बहुत आसानी से केवल दो व्यक्तियों के कारण आसानी से सफल हुए। 

तथ्य इसके लिए फिर से दो व्यक्तियों गाँधी, नेहरू को ही सामने ला खड़ा करते हैं। एक बार फिर यहाँ भी सनातनियों के विरुद्ध इनकी घृणा, जेहादियों के प्रति छलकता प्रेम, तुष्टिकरण की पराकाष्ठा तो सामने आती ही है, इन सबसे ज़्यादा घृणास्पद जो बात उभरती है, वह जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह के प्रति नेहरू की व्यक्तिगत शत्रुता, प्रतिशोध। 

जिसके लिए उन्होंने न सिर्फ़ जेहादी शेख़ अब्दुल्ला को सनातनियों के सिर पर बैठाया, उसे आगे कर महाराजा हरिसिंह को अपमानजनक ढंग से अपदस्थ किया, उसको जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रमुख बनाया बल्कि पैंतीस हज़ार सनातनियों की बलि भी ले ली। 

सनातनी बाहुल्य मीरपुर ही नहीं, जम्मू-कश्मीर राज्य का आधा से अधिक हिस्सा आस्तीन के साँपों के देश पाकिस्तान को मख़मल से सजे थाल में सजा कर हार्दिक प्रसन्नता के साथ दे दिया। इतना ही नहीं भविष्य में वापसी की भी कोई सम्भावना न रहे, इसकी भी पक्की व्यवस्था की। 

पूरे राष्ट्र के लाख मना करने के बावजूद बिना मामले के ही जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में निर्विवाद विलय को स्वयं ही विवादित मान कर तथा-कथित मामले को संयुक्त राष्ट्र में पेश कर देश को कटघरे में खड़ा कर दिया। 

वास्तव में गाँधी की भी यही मनसा थी। जिसके लिए वह अपने तरीक़े से भरपूर समर्थन, शक्ति सदैव की भाँति नेहरू को देते रहे। मेरी इन सारी बातों को आप तथ्यों-प्रमाणों के बिना क़तई स्वीकार न कीजिए। मैं एक-एक तथ्य सामने रख रही हूँ, उन्हें कसौटी पर ख़ूब कसिए तब मानिए। 

हे मेरे प्रिय सनातनियों! कश्मीर की दुर्दशा, पैंतीस हज़ार सनातनियों के संहार का बीज तो 1932 में लंदन के गोलमेज़ सम्मेलन में पड़ चुका था। जिसकी फ़सल नेहरू ने उन्नीस सौ सैंतालीस में काटी। 

मेरे प्यारे परिजन मैं कहना यह चाहती हूँ कि यदि अपनी राजनीति की दूकान चमकाने, सत्ता सुख के लोभ में इस पवित्र सनातन भूमि, सनातनियों के साथ छल-छद्म, धोखाधड़ी, विश्वासघात न किया जाता तो न देश के टुकड़े होते, न यह देश धर्म-शाला बनता, न ही कश्मीर में नरपिशाचों के झुण्ड पैर जमा पाते। और न ही जो लाखों सनातनी मारे काटे गए, पूरे क्षेत्र से सनातनी संस्कृति को जड़-मूल से समाप्त करने का जो षड्यंत्र नरपिशाचों ने रचा और गाँधी नेहरू के नेतृत्व में सफलीभूत हुआ, वह भी न हो पाता। और मेरी जैसी निरजाएं काटी नहीं जातीं। 

जानते हैं जब मेरे एक बेटा भी हो गया तो मैं बहुत बड़े-बड़े सपने देखने लगी कि नौकरी परिवार को देखने के साथ-साथ और पढ़ाई करूँगी, ख़ुद को, अपने परिवार को बहुत ऊँचाई पर ले जाऊँगी, लोगों के बीच उदाहरण बनूँगी। मेरी बुज़ुर्ग माँ, मेरा मानवता का पुजारी मेरा पति, मेरी ऊर्जा बनकर मुझे प्रोत्साहित कर रहे थे। बेटे की किलकारियाँ हमारे जीवन, घर को मह-मह महकाए हुए थीं। घर बाहर सोलह-सत्रह घंटे काम की सारी थकान इस महक से उड़न छू हो जाती थी। 

जानते हैं ज़हरीली हवाओं को मेरी यह कोशिशें, हमारी ख़ुशी बरदाश्त नहीं हो पा रही थी। स्कूल में मुझे तरह-तरह से परेशान, अपमानित किया जाता था, यहाँ तक कि छात्र-छात्राओं से भी अपमानित कराया जाता था। मैं इन सारी अनैतिक बातों, अत्याचारों का सामना करती अपना सपना पूरा करने की धुन में लगी रही कि एक दिन तो बड़ा स्थान पा ही लूँगी। अगर इस ज़हरीली हवा के सामने हार मान ली तो इनकी हिम्मत और बढ़ेगी। 
 जानते हैं हर सनातनी की तरह मैं भी सोचती थी कि आख़िर हमारा अपराध क्या है कि देश से लेकर दुनिया तक में कोई हमारी पीड़ा, हमारी बर्बादी, हमारे साथ हो रहे अन्याय पर एक शब्द नहीं बोल रहा है, क्या लेखकों के क़लम की स्याही सूख गई है, उनका दिमाग़ सो गया है, या वो कायर, डरपोक हैं। यह सब सोच कर पीड़ा से हृदय फट जाता, आँखों से बहते आँसू सूखते ही फिर से यह आशा लिए बढ़ती कि एक दिन तो लोगों की सोई आत्मा जागेगी। जब कुंभकरण जैसे प्राणी को जगाया जा सकता है तो हम तो इक्कीसवीं सदी के इंसान हैं। 

मैं अकेली ही बनी रही, डरी नहीं। तब भी नहीं जब क़त्लेआम कर पाँच लाख लोगों को भगा दिया गया, मार दिया गया। मैंने सोचा लड़ाई में रहकर ही लड़ाई जीती जा सकती है। कोई तो होना चाहिए लड़ाई के मैदान में अलख जगाने वाला। बात तभी तो आगे बढ़ती रहेगी। मैं बड़गाम छोड़कर नहीं भागी। मेरी माँ मेरी ऊर्जा, मेरा सहारा मेरा पति मेरे साथ डटे रहे। हम एक-एक पल जान हथेली पर लेकर अलख जगाने में लगे हुए थे। अपना घर बाँदी पूरा छोड़कर नहीं गए। 

इससे नरपिशाच डर गए, खिसियाकर बिलबिला उठे कि पाँच लाख चले गए, यह क्यों नहीं गई। इसके जैसे और भी कुछ क्यों नहीं जा रहे हैं। पहले तो साज़िशन मेरी तनख़्वाह रुकवा दी गई। कई महीने हो गए तो खाना-पीना मुश्किल हो गया। किसी तरह हम पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी खींचते रहे। बूढ़ी माँ की आँखों, पति की आवाज़ में भुखमरी की एहसास का सोचकर मन व्याकुल हो उठता, मगर फिर भी हमारे क़दम डटे रहे तो बिलबिलाए नरपिशाचों ने एक नई साज़िश रची। 

एक दिन मेरे पास स्कूल से संदेशा भिजवाया कि मैं अपना रुका हुआ चार महीने का वेतन ले जाऊँ। मेरे मन में संदेह पैदा हुआ कि अचानक मुझ पर इतनी कृपा क्यों? मैं और पति षड्यंत्र की गंध महसूस कर रहे थे। लेकिन जाने के सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं दिख रहा था। पति ने साथ चलने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया। उन्होंने बहुत ज़िद की लेकिन मैं नहीं मानी। मैं एक साथ पूरे परिवार की जान ख़तरे में नहीं डालना चाहती थी। 

मैं वेतन लेने पहुँची तो जानबूझकर देर कर दी गई। घर वापसी के लिए मेरे पास कोई साधन नहीं बचा। विवश होकर मैं पास ही अपने गाँव टिक्कर में सहेली के यहाँ चली गई। मैं जब स्कूल पहुँची थी तो वह सहेली मिली थी। उसने बहुत ज़ोर देकर कहा था कि जाने से पहले मिलने ज़रूर आना। 

मैंने सोचा चलो रात भी निकाल लूँगी और उसके यहाँ सभी से मिल भी लूँगी। उस दिन वह इतने प्यार अपनत्व से मिली, बतियाई थी कि मैं यह सोच ही नहीं पाई थी कि जिसे मैं अपनी सहेली समझ रही हूँ वह नरपिशाचों से मिली हुई है, उनकी स्लीपर सेल का हिस्सा एक आतंकी ही है। एक महिला से सारे नरपिशाच इतना डर गए कि षड्यंत्र में पूरा का पूरा गाँव शामिल हो गया। 

मेरे पहुँचने तक शाम हो चुकी थी। नरपिशाचों को सूचना अपने स्लीपर सेल से मिल चुकी थी, सब देखते-देखते आ पहुँचे। मैं ठगी की ठगी देखती रह गई। सहेली, सभ्य नागरिक, मानवता के नाम पर घिनौना धब्बा वह जेहादन और पूरे अपने उन गाँव वालों को जो पीढ़ियों से साथ रहते आए थे, को मैं ख़ुशी से झूमते देख रही थी कि आख़िर सनातनियों में अलख जगाने वाली भी चंगुल में आ ही गई। 

सबके सामने मेरी यातनाओं का दौर शुरू हो गया, मगर सब चुप, बल्कि सहयोगियों की भूमिका में आतंकियों के साथ खड़े रहे। अपहरण करने वाले भी गाँव के ही थे, कोई एक शब्द नहीं बोला। वो मुझे जितना ज़्यादा तड़पाएँगे, जितनी ज़्यादा क्रूरता से मारेंगे उन्हें उतना ही ज़्यादा सवाब मिलेगा इस क़बीलाई, जंगली सोच के वे जानवरों की तरह मुझे पीड़ा देने लगे। 

आगे क्या हुआ वह सब तो बता ही चुकी हूँ। मेरा बहादुर पति कायरों की तरह भागा नहीं। उसने हर कोशिश की मगर अकेला रहा। माँ मेरी यातनाओं, टुकड़े-टुकड़े किए जाने की बात सुनकर पछाड़ खाकर रोती, गिरती बेहोश होती रही। बेटी, दो साल का बेटा भी अपनी माँ की प्रतीक्षा करते-करते बीमार हो गए थे। बिना माँ के आँचल की छाँव के बड़े होने लगे। समय मुट्ठी से रेत नहीं जल की तरह तेज़ी से निकलता रहा और वो भी उसी के साथ चलते हुए बड़े होते गए। 

पति उनके लिए माँ और पिता दोनों की छाँव बने रहे। उनको माँ के आँचल की शीतलता भी देते रहे। उन्हें अच्छे संस्कार देते हुए पढ़ा-लिखा कर सभ्य सुसंकृत नागरिक बनाया। अपना कर्त्तव्य निर्वहन करते हुए उनके विवाह किए, और हर श्वास में प्रतीक्षा करते रहे, बच्चे भी, कि एक दिन तो न्याय मिलेगा ही, देश का न्याय तंत्र जागेगा ही। 

वही न्यायतंत्र जो रंग खेलने, पटाखा छुड़ाने जैसे विषयों पर भी स्वतः संज्ञान ले लेता है, नूंह में भगवान शिव पर जलाभिषेक कर रहे हज़ारों सनातनियों पर जन्म-जात धोखेबाज़ जेहादियों ने हर तरफ़ से गोलियों, बमों, पत्थरों से हमला कर कई भक्तों की हत्या की, महिलाओं बच्चियों से रेप किया तब तो कोई संज्ञान नहीं लिया कि इन वहशी दरिंदों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई की जाए, लेकिन जब शासन ने कार्रवाई शुरू की तो उस पर बिना देर किए स्वतः संज्ञान लेकर रोक लगा दी। 

दरअसल एक समय बाद हमने न्याय मिलने की आशा छोड़ दी। कई बार हम ख़ुद को ही पीट लेते हैं कि वह हमारे लिए संज्ञान लेगा, हमने यह आशा करने की मूर्खता क्यों की। हम पूरी तरह निराश हैं देश की न्याय व्यवस्था से भी। 

हाँ, सच कहूँ तो मुझे, मेरे, सरला, बबली, नीलकंठ गंजू, कौल, सहित सभी के परिवारों को न्याय मिलने की आशा की किरण तब दिखी, जब नरपिशाचों को सनातनियों का ख़ून पिला-पिला कर मोटा करने वाली सारी व्यवस्था तीन सौ सत्तर हटाने के साथ क़रीब-क़रीब समाप्त कर दी गई। 

हम बड़ी आशाओं से इस सरकार की ओर देख रहे हैं कि यह हमारी लूटी गई सम्पत्ति, हमें हमारे अधिकार वापस दिलाएगी, कश्मीर को नरपिशाचों से मुक्त करवा कर वहाँ पुनः सनातन संस्कृति कश्मीरियत को स्थापित करेगी, जिसकी दिव्यता से जम्मू कश्मीर पुनः दमकेगा, महकेगा। फूलों की घाटी फिर से फूलों के रंग, ख़ुश्बू से धरती का स्वर्ग बनेगी। 

यह हम सब को अच्छी तरह समझना ही होगा कि जब तक सनातनी वहाँ पर बहुसंख्यक नहीं होंगे, तब-तक जम्मू-कश्मीर सुरक्षित नहीं हो पाएगा। जम्मू-कश्मीर ही क्यों देश का हर वह हिस्सा असुरक्षित है जहाँ सनातनी अल्पसंख्यक हो गए हैं। 

मेरे प्यारे सनातनी भाइयों ज़रा गंभीरता से सोचो, जब पुरस्कार वापसी, टुकड़े-टुकड़े, सहिष्णुता, लेटर, कैंडिल, मानवाधिकारवादी, पर्यावरणवादी गैंग बिना बात के ही झूठ मक्कारी की बातों से देश में बवंडर ला देते हैं तो आप सच के लिए, हमें न्याय दिलाने के लिए, स्वयं, अपने देश को सुरक्षित करने के लिए आंदोलन क्यों नहीं करते, आंदोलनरत होंगे तो हमें न्याय ज़रूर मिलेगा, आप, आपके बच्चे, आपका देश अवश्य ही सुरक्षित होंगे। 

यह कैसे होगा यह सोच-सोच कर निराश होने से काम नहीं चलेगा, अरे सोचिए न जब कभी अपने ही देश का टुकड़ा रहे बांग्लादेश में 1971 के विद्रोहियों को अभी तक ढूँढ़-ढूँढ़ कर फाँसी दी जा रही है, दूसरे विश्व युद्ध के युद्ध अपराधियों, नाजियों को अभी तक तलाश कर सज़ा दी जा रही है तो, हमारे हत्यारे, बाक़ी सनातनियों के हत्यारे, कुकर्मियों को सज़ा क्यों नहीं दी जा सकती। 

आज भी टिक्कर गाँव, सारे जम्मू-कश्मीर में वो हत्यारे, कुकर्मीं गद्दार नरपिशाच घूम रहे हैं, एक अकेली मेरे लिए ही नहीं देशभर में अपने अनगिनत सनातनी भाई-बहनों की भटकती, विचरण करती आत्माओं, उनके परिजन की अंतहीन पीड़ा का एक बार एहसास करिए और क़दम बढ़ाइए, न्यायपालिका में भी याचिका डालिए कि आपने स्वतः संज्ञान नहीं लिया कोई बात नहीं, हमारी याचिका पर तो संज्ञान लीजिये, सरकार से कहिये कि वो विशेष न्यायालय, कार्यबल गठित कर एक निश्चित समय में हत्यारे, कुकर्मियों को सज़ा देना सुनिश्चित करे। 

आपके यह सारे क़दम एक तरह से हम भटकती आत्माओं को तर्पण पिंडदान होगा, हमारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। साथ ही हम सनातनियों की आने वाली पीढ़ियों के लिए यह सनातन संस्कृति, राष्ट्र सुरक्षित बना रहेगा। 

जागिए, सजग होइए, वो अपना झुंड बड़ी तेज़ी से बड़ा करते जा रहे हैं, आपके देश के कोने-कोने में एक पाकिस्तान बो रहे हैं, इससे पहले कि ये देशघाती ज़हरीले पौधे ज़हरीले वृक्ष बने, इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकिए, भविष्य सुरक्षित करिए, यह एक नहीं हर निरिजा टिक्कू, सनातनी कश्मीरियों की आत्माओं की आवाज़ है। मैं आप ही का ख़ून हूँ, सनातनी हूँ, दुखी आत्मा हूँ। 

जब-तक आप सब दरवाज़े पर खड़ी इस भयावह समस्या को लेकर चैतन्य, गंभीर, सक्रिय हो अपनी सनातन संस्कृति, शास्त्र, शस्त्र से स्वयं को सुसज्जित नहीं कर लेते हैं, तब-तक मैं आप सबको स्वामी विवेकानंद की तरह जगाती रहूँगी, “उत्तिष्ठ भारत जागृति भारत।”

 

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टिप्पणियाँ

राजनन्दन सिंह 2024/04/27 09:25 AM

एक मत विशेष को संबोधित इस घोषित कहानी का संपूर्ण आशय मेरी समझ से और बहुत कुछ संभव है, परंतु साहित्यिक नहीं है। यह लंबी दास्तान सामान्य पाठकों के पठन धैर्य को चुनौती देता है। लेखक के पूर्वाग्रहपूर्ण एवं स्वपक्षीय धैर्य व साहस को (ऐसा मुझे लगता है, जरुरी नहीं सभी को लगे) मानना पड़ेगा। आशा है लेखक महोदय की तरफ से कभी भी यह सुनने को न मिले कि यह उनकी रचना नहीं है। ऐसी आशंका इसलिए कि अपने देश में विचारकों की आत्मा कब झंकृत होकर बदल जाए। कोई नहीं जानता।

Pradeep Shrivastav 2024/04/21 11:44 PM

धन्यवाद डॉ. पद्मावती जी.

प्रदीप श्रीवास्तव 2024/04/21 11:44 PM

धन्यवाद शैली जी.

डॉ पदमावती 2024/04/20 03:04 PM

वृहत ऐतिहासिक लेख/ कहानी लिखने के लिये लेखक और छापने के लिए संपादक महोदय विशेष प्रशंसा के अधिकारी हैं । सत्य का दिग्दर्शन कराती कहानी । मनन करने को पाठक विवश । बधाई आपके भृगु प्रयास के आगे छोटा शब्द है । दिल दहलाने वाले तथ्य । वितृष्णा से मन भर उठा । अनंत साधुवाद ।

शैली 2024/04/19 11:57 PM

यह एक कहानी नहीं, भारत को मिली छद्म स्वतंत्रता का विस्तृत लेखा जोखा है। गांधी, नेहरू ने जो विश्वासघात देश और देशवासियों के साथ किया उसका प्रमाण पत्र है। कश्मीर में पंडितों के संघार और पलायन से आरम्भ हुई यह विस्तृत कथा, नेहरू, गांधी के चरित्र के ऐसे पहलुओं को सप्रमाण बताती हैं कि हैरानी से अधिक जुगुप्सा जागती है। हिंदुओं के साथ चल रही क्रमबद्ध साजिश का पर्दाफाश करती इस कहानी को पढ़ने में धैर्य की जरूरत है। लेकिन इतने परिश्रम से पाठक स्वतंत्रता से पहले से लेकर आज तक के कांग्रेसी चरित्र को समझ सकेंगे। कितने ही अविश्वसनीय तथ्यों को जान कर ठगी सी रह गई। अफ़सोस होता रहा कि सरल, निश्छल हिंदुओं ने कुछ लोगों को सम्मान देकर अपना नेता क्यों बनाया, जिन्होंने मात्र हिन्दुओं और भारत भूमि के साथ छल कपट और धोखा किया। वक्फ बोर्ड का यथार्थ भी विस्तार बताया है। गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों का सत्य जानकर मन शर्म से पानी पानी हो गया। इस कहानी को पढ़ना एक भीषण दर्द और यातना से गुजरना है, क्योंकी ये कहानी सुनाने वाली स्वयं नीरजा टिक्कू हैं। वही जिसको कश्मीर में आरा मशीन से बर्बरता पूर्वक टुकड़ों में काट कर चील कौवों के लिए फेंक दिया गया था। जिस किसी को कांग्रेसी शासन के पढ़ाए गए इतिहास के अतिरिक्त जमीनी सच्चाई जानने की इच्छा हो, उसे एक दो घण्टे का समय निकाल कर धैर्य पूर्वक ये कहानी ज़रूर पढ़नी चाहिए। इतने गहरे शोध के लिए हार्दिक आभार प्रदीप जी।

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