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उसकी प्रतिज्ञा

उसका वास्तविक नाम रितिका है, लेकिन मैं उसे आज भी रजनी ही कहता हूँ। पिछले तीस-बत्तीस बरस से जब-जब उसे रजनी कहता हूँ, वह तब-तब कहती है, “आख़िर तुम मुझे रजनी कहना कब बंद करोगे?” 

मेरा हर बार उसे यही उत्तर मिलता है, “जब मेरी पत्नी बन जाओगी।”

यह सुनते ही वह ज़ोर से हँसने लगती है, और उसकी हँसी रुकते-रुकते, आँखों, चेहरे पर गहरी टीस, पीड़ा साफ़-साफ़ दिखाई देने लगती है। कुछ क्षण चुप रह कर, जैसे वह तीस-बत्तीस बरस के समय को सोच डालती है। फिर जैसे रिलैक्स होने का प्रयास करती हुई कहती है, “तुम क्यों बत्तीस साल से एक ही बात कह-कह कर मुझे परेशान करते रहते हो। इससे तुम्हें क्या मिल जा रहा है? सच कहूँ, मैं नहीं समझ पा रही हूँ, आख़िर तुम चाहते क्या हो?

“तुम शादी कर चुके हो, बेटा तुम्हारा पंद्रह-सोलह साल का हो चुका है। शादी मैं न तब करना चाहती थी, न अब। यह किसी भी तरह से सम्भव नहीं है। जीवन के बावन साल जी लिए हैं। तुम भी इतने ही के हो रहे हो। इन बातों के लिए जो समय था, वो सब निकल चुका है। मैं बहुत उलझन में पड़ जाती हूँ कि इतने बरसों से मैं तुम्हें इतनी छोटी सी बात समझा क्यों नहीं पा रही हूँ? 

“अपनी पत्नी, बेटे के साथ कितना ख़ूबसूरत, ख़ुशहाल जीवन जी रहे हो। उसे ख़ूब एन्जॉय करने के बजाय, जब देखो तब रजनी रजनी कहकर तीस-बत्तीस साल पहले के पेइंग-गेस्ट हाउस, पटना में ले जाकर मुझे खड़ा कर देते हो। पता नहीं इससे तुम्हें क्या मिल जाता है? 

“किसी जन्म का बदला ले रहे हो यह भी नहीं कह सकती। क्योंकि यह भी मानती हूँ कि अपनी जगह तुम सही हो और मैं अपनी जगह। फिर इस विषय के सारे चैप्टर क्लोज़ क्या, ऐसा कोई चैप्टर ओपन ही नहीं किया था, मैं न जाने कितनी बार बोल चुकी हूँ, फिर भी तुम किसी तोते की तरह एक ही बात क्यों कहते रहते हो कि तुमने चैप्टर ओपन किया था, आज भी ओपन है। 

“अब यह बातें सुनकर मन अजीब सा हो जाता है। कभी हँसी आती है, कभी ग़ुस्सा। कभी-कभी तो बड़ा लिजलिजापन महसूस करती हूँ। तुम्हारा नहीं मालूम, तुम पता नहीं क्या महसूस करते हो। लेकिन जो भी है, फिर कहती हूँ, बार-बार कहती हूँ, प्लीज़ यह सब बंद करो यार। 

“अब बुढ़ापे की ओर बढ़ चले हो। बाल, मूँछें, छातियों के बाल सफ़ेद होने लगे हैं। कलर कर लेने से बत्तीस साल पहले वाले बीस वर्षीय युवक नहीं बन जाओगे। और तुम्हारे कहने से मैं युवती नहीं बन जाऊँगी। मेरे भी आधे बाल सफ़ेद हो गए हैं। बदन ढीला पड़ गया है। रोम-रोम उम्र चुराते, हँसते हुए दीखते हैं। अब मुझे यह सब बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।”

बड़े दिनों बाद एक दिन साथ समय बिताते हुए, इतनी लम्बी-चौड़ी बात उसने मेरी छाती के घने बालों को बड़ी नरमी से ऊपर खींच-खींच कर छोड़ते हुए कही। वह गंभीर हो चुकी थी। मैं भी उसकी बातों से उसके मन में उठ रहे तूफ़ान को समझने का प्रयास कर रहा था। वह मेरी बग़ल में करवट लिए हुए लेटी थी। सिर मेरे कंधे पर था। और हाथ व्यस्त थे बालों में। 

साथ में मेरे भी हाथ उसके बदन पर लेटे-लेटे जहाँ तक जा सकते थे, वहाँ-वहाँ बड़ी कोमलता के साथ जा रहे थे, स्पर्श कर रहे थे। मैं सोच रहा था कि यह कह रही है कि बूढ़ी हो गई हूँ। लेकिन मुझे तो आज भी वही बत्तीस वर्ष पहले वाली, फूलों सी कोमल, मोती सी चमक, कमल के फूलों सी अद्भुत मादक ख़ुश्बू वाली सौंदर्य देवी लग रही है। आज भी इतनी मनमोहक, मादक, सम्मोहक लग रही है कि इससे अलग होने की सोच कर ही रोएँ खड़े हो जा रहे हैं। 

चार-पाँच घंटे हो रहे हैं, लेकिन इसे छोड़ कर जाने की बिलकुल भी इच्छा नहीं हो रही है। मन यही कर रहा है कि समय यहीं ठहर जाए और यह ऐसे ही, मेरी बाँहों में सिमटी रहे। 

मैं बहुत बार सोचता हूँ कि ऐसी भावना पत्नी के लिए आज तक कहने को भी क्यों नहीं उभरी, चाहे पहली रात रही हो, या दूसरी, कभी भी नहीं। बेटा हो गया उसके बाद भी कभी नहीं। सौंदर्य शास्त्रीय उसे सौंदर्य, आकर्षण में इससे बीस ही कहेंगे, उन्नीस नहीं। 

मुझे एकदम चुप देखकर उसने बड़ी धीमी आवाज़ में कहा, “तुम्हारी इस आदत से मैं वाक़ई बहुत परेशान हो जाती हूँ। बहुत उलझन होती है यार, पता नहीं किस दुनिया में खो जाते हो कि लगता है जैसे मेरे अलावा और कोई यहाँ है ही नहीं। मैं दीवार हूँ। हवाओं से बातें कर रही हूँ।”

उसकी इस बात पर मैंने गहरी साँस लेकर छोड़ते हुए जैसे ही कहा, “रजनी . . . यह सुनते ही वह बिदकती हुई बोली, “ओहो, फिर वही रजनी। प्लीज़ प्लीज़ मत कहो।”

मैंने भी तुरंत कहा, “ओफ़्फ़ो, तुम मुझे रोका नहीं करो। तुम रजनी कहने से मना करती हो, तो लगता है जैसे बबूल, भटकटैया के हज़ारों काँटों से शरीर बिंध गया है। अब मैं कहता हूँ कि क्या मुझे इतनी पीड़ा देकर तुम्हें ख़ुशी मिलती है, अच्छा लगता है, बोलो।”

मैंने बहुत नम्रता से कहा, तो कुछ ही क्षण में पता नहीं क्या सोचकर वह बोली, “मेरे ही नहीं, किसी भी के कारण से तुम्हें पीड़ा हो, यह मैं सोचती ही नहीं। लेकिन जब तुम ऐसा कहते हो तो मुझे काँटों की चुभन नहीं, लगता है जैसे, दहकती सलाखों से पीटा जा रहा है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आख़िर तुम क्यों ऐसे रास्ते पर चल रहे हो, जो अंतहीन है। किसी भी मंज़िल तक नहीं जाता। 

“एकदम आसमान की तरह, जैसे असंख्य तारों को देखकर यह नहीं कह सकते कि कहीं न कहीं उसका छोर तो होगा ही, वैसे ही यह नहीं कह सकते कि तुम्हारा रास्ता मंज़िल तक जाएगा। तुम्हारी मंज़िल है कि मैं आज भी इस बुढ़ापे में तुमसे शादी कर लूँ। लेकिन मैं कहती हूँ कि यह आसमान का ओर-छोर ढूँढ़ने जैसा असम्भव है।”

यह कह कर वह एकदम शांत हो गई तो मैंने कहा, “असम्भव और सम्भव के बीच केवल एक शब्द है तुम्हारी ‘हाँ’। जो किसी भी समय, कहीं भी, तुम पलक झपकाने के समय से भी कम समय में कह सकती हो। चौथाई सेकेण्ड से भी कम समय में, तुम मुझे मेरी उस मंज़िल तक पहुँचा सकती हो, जिसे पाने के लिए मैं बत्तीस वर्षों से प्रयासरत हूँ। 

“अब तो यह भी नहीं है कि पापा हैं, भाई है, बहनें हैं। सच बताऊँ यह मेरा दुर्भाग्य है कि गुरु जी इतनी जल्दी यह दुनिया छोड़ कर चले गए। नहीं तो मैं बहुत पहले ही तुम्हें उनसे माँग लेता।”

मेरी बात पूरी होते ही वह गहरी साँस लेकर, थोड़ा उठ कर मुझ पर झुकी हुई सी बोली, “माय डियर लिसेन टु मी, पापा कहते तो भी मैं तुम्हारे साथ शादी नहीं करती।”

उसने अपनी एक उँगली को मेरे निचले होंठों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाते हुए कहा। उसके भारी स्तन मेरी छातियों को स्पर्श कर रहे थे। जिनके लिए भी वह कई बार कह चुकी थी कि अब यह भी उम्र-दराज हो चुके हैं। लेकिन मुझे तब भी वह बत्तीस वर्ष पहले से ही मादक मोहक लग रहे थे। 

उसने पहली बार यह कह कर मुझे आश्चर्य में डाल दिया था कि पापा के कहने पर भी वह मुझसे शादी नहीं करती। उसने आगे कहा, “मैं कोई वस्तु यह सामान नहीं हूँ कि तुम माँग लेते और पापा मुझे उठाकर तुम्हें दे देते, ऐसे जैसे कि मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। मैं आज भी पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि तुमसे कुछ कहने से पहले पापा मुझसे पूछते। और मेरी जो इच्छा होती वह वही करते। क्योंकि वह हम बेटियों को भी वस्तु नहीं इंसान समझते थे, अपने अस्तित्व के बराबर ही हमारे अस्तित्व को भी महत्त्व देते थे। 

“यदि ऐसा न होता तो, वह हम-लोगों के बचपन में ही, अम्मा की अचानक हुई डेथ के बाद, रिश्तेदारों की इस सलाह और दबाव के आगे झुक जाते कि बेटियों की जल्दी से जल्दी शादी कर दो। वह चाहते तो जल्दी-जल्दी जहाँ चाहते वहाँ हमारी शादी कर देते। तब हम इतने मैच्योर भी नहीं थे कि अपनी राय उनके सामने रखते।”

उसकी इस बात पर मैंने कहा कि “क्या यह जानने के बाद भी तुमसे कुछ न कहते कि पटना में पेइंग-गेस्ट में हम क्या से क्या बन चुके हैं।”

यह बात उसे पता नहीं कैसी लगी कि कुछ देर मुझे एकटक देखने के बाद बोली, “पहले तो वह बहुत दुखी होते कि हम-दोनों ने उनके विश्वास को तोड़ा। मैं उनकी बड़ी बेटी हूँ। उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती समझती थी। उसी आधार पर कहती हूँ कि पेइंग-गेस्ट हाउस की बात जानकर भी मेरी राय ज़रूर पूछते। 

“मेरे न कहने पर सख़्त नाराज़ भी होते कि ‘जब शादी नहीं करनी थी, तब इतना बड़ा क़दम क्यों उठाया? क्यों मेरे विश्वास को तोड़कर वह किया, जिससे न केवल मेरा विश्वास टूटा, बल्कि तुमने परिवार में सबसे अनैतिक कार्य करके, मुझे मेरी ही नज़रों में गिरा दिया, इतना अपमानित कर दिया है कि मैं अब जीवन भर न स्वयं से और न ही किसी और से आँखें मिलाकर बात कर पाऊँगा। जब तुमने बड़ी होकर ऐसा किया है, तो मैं कैसे विश्वास करूँ कि दोनों छोटी ने भी मेरा विश्वास कुचला नहीं होगा।’

“हो सकता है कि दुख के कारण टूटते हुए भरी-भरी आँखों से यह भी कहते कि ‘बेटे ने शराब, अय्याशी, लोफ़र्टी से ख़ानदान की नाक कटवा रखी है। अवशेष को तुमने साफ़ कर दिया। अब मैं बिना नाक सम्मान का एक निकृष्ट प्राणी भर रह गया हूँ, क्या फ़ायदा ऐसा निर्लज्जता भरा जीवन जीने का। अब तो मुझे मर जाना चाहिए।’

“उनके ऐसा कहते ही, मैं उसी समय आत्महत्या कर लेती। अच्छा हुआ कि तुमने भावना में बहकर कभी उनसे यह बात नहीं की। 

“सारी बातें सामने आने के बाद भी, तुम्हें भी वह कोई डाँटते-मारते नहीं। बस घृणा से कहते कि ‘तुम पर मैंने बेटे से ज़्यादा विश्वास किया, इतना कि तुम्हारे साथ बेटी भेजी। और तुमने मेरे विश्वास को इस तरह से कुचला। अब जीवन में मैं किसी पर विश्वास नहीं कर सकता। इससे तो अच्छा था कि मैं उसे अकेली ही भेज देता। तुमने तो वही किया, जो एक विश्वासघाती गुंडा बदमाश मवाली करता है। जाओ यहाँ से, हट जाओ मेरे सामने से। फिर कभी मेरी आँखों के सामने मत पड़ना।’

यह कहते-कहते रजनी बहुत भावुक हो गई। उसने फिर अपना सिर मेरी छाती पर रखकर, स्वयं को एकदम ढीला छोड़ दिया। मैं एक हाथ से उसे समेटे हुए था। हम एकदम चुप थे। कमरे में इतनी गहन शान्ति थी कि एसी चल रहा था, वह बहुत शान्ति से अपना काम कर रहा था, लेकिन फिर भी उसकी बहुत हल्की सी आवाज़ भी एक भारी शोर लग रही थी। उस भारी शोर में भी हमारी साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। 

जब यह शान्ति असह्य हो गई तो मैंने पूछा, “क्या सोच रही हो?” 

वह बिल्कुल सामान्य सी आवाज़ में ऐसे बोली जैसे कि अभी कुछ देर पहले तक भावुक हुई ही नहीं थी। बड़ी निश्चिंतता के साथ कहा, “कुछ नहीं, जब कुछ बचा ही नहीं है जीवन में, तो क्या सोचना, किस बारे में सोचना? कभी-कभी कुछ मिनटों के लिए ही यह बात मन को परेशान कर देती है कि एक तुम ही हो जिसके सहारे जब बहुत थक जाती हूँ, तो कभी-कभी आराम करके, कुछ देर चैन की साँस ले लेती हूँ। 

“नहीं तो उसी ग्यारह कमरों, बरामदे वाले बड़े से मकान में, अपने कमरे में पड़ी रहती हूँ। बाक़ी कमरों में गए न जाने कितना समय हो जाता है। कई बार जब दूसरे कमरे खोलती हूँ तो, मकड़ी के जाले, धूल, मनहूसियत भरी दीवारें सामने होती हैं। जिन्हें देखकर इतना घबरा जाती हूँ कि जैसे दरवाज़ा खोलती हूँ, वैसे ही बंद कर के वापस बेड-रूम या फिर ड्राइंग रूम में आ जाती हूँ। 

“घर से बाहर निकलती हूँ, कोई मोड़ मुड़ती हूँ, चौराहे पर पहुँच कर रेड-लाइट पर गाड़ी रोकती हूँ, तो लगता है, अरे बग़ल की गाड़ी में पापा तो नहीं है। दूसरे मोड़ से वह चले तो नहीं आ रहे हैं। फिर जैसे कोई काँच का बर्तन अचानक फ़र्श पर गिरकर टूट जाता है। 

“छनाक की आवाज़ इतनी तेज कानों में गूँजती है कि वो सुन्न हो जाते हैं। जैसे कुछ देर सुनाई ही नहीं देता। ग्रीन लाइट होती है, दूसरी गाड़ियों के हार्न के शोर जैसे सोते से जगा देते हैं। और फिर पैर एक्सीलेटर पैडल को दबाने लगते हैं। ऐसे में तुम्हारा ही चेहरा दिखाई देता है। साथ ही यह डर भी मन में उठता है कि कहीं तुम भी मेरी क़िस्मत की तरह, मुझसे किनारा न कर लो। ऐसा हुआ तो मैं कहाँ जाऊँगी, किस के सहारे अपनी थकान दूर करूँगी। 

“कई बार सोचती हूँ कि भाई से कहूँ कि जालौन की सारी प्रॉपर्टी बेचकर चले आओ। यहीं साथ में रहो, यह इतना बड़ा मकान भी तो आख़िर तुम्हें ही मिलेगा। यहीं पर आकर कोई बिज़नेस करो। लेकिन उसके काम याद आते ही दिल दहल उठता है। काँप उठती हूँ, कि अभी तो वहीं बाप-दादों की प्रॉपर्टी बेच-बेच कर खा-पी रहा है। 

“भाभी को फोन करती हूँ, तो बेचारी रो-रोकर सब बताती हैं। कुछ दिन पहले ही गवर्नमेंट ने अपनी किसी योजना के लिए बहुत बड़े एरिया को अधिगृहीत कर लिया। तमाम लोगों की तरह इसके भी कई खेत अधिग्रहण का हिस्सा बन गए। उसे क़रीब दो करोड़ रुपए मुआवज़ा मिला था। आजकल वही उड़ा रहा है। नई कार ले ली है। 

“बेचारी भाभी यह भी बताती है कि आए दिन कोई न कोई सेक्स वर्कर घर ले आता है। रोकने पर भाभी पर ही बंदूक तान देता है। उसकी ऐसी ही तमाम हरकतों के कारण ही, मैंने उनके बच्चे जब छोटे थे, तभी भाभी से कहा कि बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में डालो। नहीं तो बच्चों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। वो बर्बाद हो जाएँगे। 
भाभी ने यही किया। अच्छी बात यह है कि बच्चे ठीक हैं और पढ़ लिख रहे हैं। उनकी दोनों बेटियों, बेटे की शादी कैसे होगी यह सब भी सोच-सोच कर अक़्सर परेशान हो जाती हूँ। यहाँ से जो कुछ भी उन्हें मैं बता पाती हूँ, उनकी हेल्प कर सकती हूँ, वह करती रहती हूँ। 

“उनके मायके वाले आज भी उनकी मदद के लिए हर समय खड़े रहते हैं। भाई जब भी कोई प्रॉपर्टी बेचता है, तो उनके दबंग मायके वाले उसमें से ज़्यादातर पैसा भाभी के नाम जमा करवा देते हैं। दो करोड़ में से क़रीब सवा करोड़ रुपए भाभी को दिलवा दिए। वह लोग इतने दबंग न होते, तो यह कुछ भी नहीं हो पाता। उसकी इन्हीं हरकतों से डर कर उसे यहाँ बुलाने की बात दिल से निकाल देती हूँ कि यहाँ भी यही सब करेगा। बस इन्हीं सब बातों के अलावा और कुछ नहीं सोचती।”

मैंने कहा, “इससे ज़्यादा और क्या सोचोगी। इतना सब कम है क्या अपना सुख-चैन बर्बाद करने के लिए। मगर मुझको लेकर जैसा सोचती हो, वह व्यर्थ है। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि मैं आख़िरी साँस तक तुम्हें नहीं छोड़ सकता। मैं तो हर समय तुम्हें हमेशा के लिए अपनाने को तैयार हूँ। 

“लेकिन तुम हो कि मेरी कोई बात सुनती ही नहीं। जब भी मैं कहता हूँ तो पेइंग-गेस्ट, पेइंग-गेस्ट, बत्तीस साल करने लगती हो। आख़िर इससे पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेती। क्यों इसे अपने से चिपकाए हुए, ख़ुद को जला रही हो। तुम चाहे कोई भी तर्क दो, कोई भी बात कहो, लेकिन मेरी दृष्टि में यह सब तुम्हारी मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है।”

मेरी इस बात पर रजनी मुझे एकटक देखने लगी। उसकी यह शुरू से आदत रही है कि जिस भी बात से असहमत होती है, तो उसका तुरंत कोई जवाब देने के बजाय, सामने वाले को घूरने लगती है। बत्तीस साल पहले पटना में, पेइंग-गेस्ट की जिस घटना को उसने अपने दिल में फाँस की तरह छुपा कर रखा है, जिसकी चुभन से ख़ुद को बराबर पीड़ित करती रहती है, कष्ट देती रहती है, देखा जाए तो ऐसी कोई बात है ही नहीं। 

हम-दोनों ग्रेजुएशन एक साथ कर रहे थे। मतलब एक ही सत्र में। कॉलेज अलग थे। गुरु जी एक कॉलेज के प्रिंसिपल होने के साथ-साथ एक राष्ट्रवादी संगठन के राष्ट्रीय पदाधिकारी भी थे। उनके कहने पर मैं भी उसमें शामिल हो गया। उनके घर में ही संगठन की होने वाली मासिक बैठक में शामिल होना होता था। 

उनसे मेरा परिचय भी बहुत ही अलग अंदाज़ में हुआ था। कॉफी-हाउस में गुरु जी तीन लोगों के साथ राष्ट्रवाद पर बहस में लगे हुए थे। वह अकेले ही उन दोनों घोर कम्युनिस्टों पर भारी पड़ रहे थे। उनके आक्रामक अंदाज़, तर्क, तथ्य, स्मरण शक्ति मुझे बहुत प्रभावित कर रहे थे। 

मैं भी मौक़ा देख उस बहस में शामिल हो गया। बहस ख़त्म हुई तो, गुरु जी अपना विज़िटिंग कार्ड देते हुए बोले, ‘रविवार को बारह बजे एक मीटिंग है। समय मिले तो आना। मुझे विश्वास है कि तुम्हारे उग्र आक्रामक राष्ट्र-वादी विचारों से वहाँ आए बाक़ी लोग भी प्रभावित होंगे।’

यह मेरे मन का काम था। मैं सही समय पर पहुँच गया। गुरु जी के प्रयासों से मुझे बोलने का मौक़ा भी सबसे पहले मिला। क़रीब तीन दर्जन लोगों की उपस्थिति में बोलते हुए, मुझे कोई हिचकिचाहट या संकोच नहीं हुआ। क्यों कि विषय मेरे मन का था, और गुरु जी का वरदहस्त भी। उपस्थित लोग मेरी बातों से बहुत प्रभावित हुए। इतना कि अगली मीटिंग में मुझे एक पद दे दिया गया। 

इस तरह मेरा उनके यहाँ आना-जाना शुरू हो गया। फोन पर रोज़ ही बातें होने लगीं। प्रेस-विज्ञप्ति भी मैं तैयार करने लगा। जल्दी ही खाना-पीना भी साथ में शुरू हो गया। गुरु जी पारिवारिक बातों में भी मुझे सम्मिलित करने लगे। तभी मैं उनके बेटे ऋषिराज उर्फ़ ऋषि की हरकतों, उससे त्रस्त परिवार की वास्तविक स्थिति को जान सका, यह समझ सका कि ऊपर से हमेशा प्रसन्नचित्त दिखने वाले गुरु जी भीतर-भीतर किस तरह घुट रहे हैं। 

अपने सभी बच्चों को वह जो बनाना चाह रहे थे, वह वो न बनकर कुछ और बनते जा रहे थे। दिमाग़ से उनके सभी बच्चे बहुत ही तेज़ थे। इसके बावजूद वह ठीक से पढ़ नहीं रहे थे। इसलिए गुरु जी और भी ज़्यादा कष्ट महसूस करते थे। 

रितिका यानी कि एक रजनी ही ऐसी थी जो उनके लिए बेटी ही नहीं, बल्कि उनका सहारा भी बनती जा रही थी। रजनी पढ़ाई-लिखाई भी अच्छे से कर रही थी। बेटे के आए दिन के बवाल को शांत करने के लिए अक़्सर मुझे बुलाया जाने लगा। 

एक दिन वह गुरु जी से ही मार-पीट पर उतारू हो गया। मैंने उसे टोका तो, मुझे भी गाली दे दी। मैं बर्दाश्त नहीं कर सका और उसे पीट दिया। नशे में होने के कारण वह मेरे सामने टिक नहीं सका। मैंने सोचा कि गुरु जी अब नाराज़ होंगे। जो भी हो आख़िर वह उनका बेटा है। मैंने उनके ही घर में, उनके ही सामने उसे पीटा है। निश्चित ही यह मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात है। 

लेकिन मेरा अनुमान ग़लत निकला। वह बेटे की बदतमीज़ी के लिए हाथ जोड़कर मुझसे माफ़ी माँगने लगे। मैंने उनके दोनों हाथ पकड़ कर कहा, “गुरु जी आप मुझे शर्मिंदा नहीं करिए। ग़लती तो मुझसे हुई ही है। मुझे अपने ग़ुस्से पर कंट्रोल रखना चाहिए था।”

मैं बहुत भारी मन से घर वापस चला आया। मुझे यह विश्वास हो गया था कि गुरु जी के यहाँ से अब रिश्ता ख़त्म। लेकिन अगले ही दिन सुबह-सुबह ही उनका फोन आ गया। हेलो कहते ही बोले, ‘बंधुवर नाराज़ तो नहीं हो।’ उनकी इस विनम्रता से मैं पानी-पानी हो गया। मैंने कहा, “गुरु जी आप से प्रार्थना है कि ऐसा न कहिए।”

शर्मिंदगी के कारण मैं अगले कई दिन तक उनके घर नहीं गया, तो फिर उनका फोन आया। पहले ही की तरह पूरे विनम्र भाव से कहा, “बंधुवर आ जाया करो। अब वह तुमसे डरता है। तुम्हारा नाम लेने पर उत्पात बंद कर देता है।”

उनके इतने आग्रह पर मैं फिर से रोज़ पहुँचने की कोशिश करता। उनकी बात एकदम सही थी। पिता, बहनों से मार-पीट पर उतारू होने पर, जैसे ही फोन का रिसीवर उठा कर मुझे बुलाने की बात होती, वह तुरंत अंड-बंड बकते हुए अपने कमरे में चला जाता, मार-पीट नहीं करता। घर के लिए यही सबसे बड़ी राहत की बात थी। धीरे-धीरे उसने घर में मार-पीट, गाली-गलौज सब बंद कर दी, लेकिन शराब, अय्याशी की आदत पर कोई असर नहीं हुआ। आठ-नौ महीने बाद ही एक नई विकट समस्या पैदा कर दी। 

घर से थोड़ी ही दूर पर एक मलिन बस्ती में तीन बच्चों की अम्मी उर्फी के चक्कर में पड़ गया। जब देखो तब वहीं पड़ा रहता। उर्फी का आदमी कहीं बाहर काम करता था। गुरु जी उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब भी पहुँचते, वह वहीं आपत्तिजनक हालत में मिलता। एक बार तो दोनों ऐसी हालत में थे कि गुरु जी को उल्टे पाँव आँखें बंद करके लौटना पड़ा। गुरु जी के पहुँचने पर उर्फी कोई शर्म-संकोच करने की बजाय उनसे झगड़ पड़ती थी। 

अपने भरसक हर प्रयत्न करके हारने के बाद गुरु जी ने मुझे बुला कर कहा, ‘बंधुवर अब तुम्हीं कुछ करो।’ मैंने उर्फी को समझाना चाहा कि ‘तुमसे आधी उम्र का लड़का है, यह क्या कर रही हो? तुम्हारे शौहर को पता चल गया तो वह तुम्हें तुरंत तलाक़ दे देगा।’ मगर वह उल्टा मुझ पर ही हावी होने की कोशिश करने लगी। 

आँखें दिखाती हुई बोली, ‘देखो हम पर कोई ऐसी-वैसी तोहमत मत लगाओ समझे कि नहीं। हम किसी को बुलाने जाते हैं क्या? कोई आएगा तो उसे डंडा मारेंगे क्या?’ मेरी उससे बड़ी बहस हुई। मैं उसको उसके पति तक सूचना पहुँचाने की धमकी देकर चला आया। हालाँकि बाद में पता यह चला कि शौहर तो ख़ुद ही उससे दूर भागता है। 

लेकिन बहस के दौरान वहाँ मोहल्ले वालों की जो भीड़ इकट्ठी हो गई थी, उससे वह थोड़ा दबाव में आ गई थी। अब वह चोरी-छिपे वहाँ पहुँचता था। जा कर थोड़ी ही देर में भाग आता था। शायद उर्फी मन का होते ही, उसे ख़ुद ही भगा देती थी। 

इस थोड़े से परिवर्तन से ही गुरु जी, सारी बहनों ने राहत की साँस महसूस की। पूरे परिवार ने जल्दी ही मुझे पारिवारिक सदस्य की तरह मानना, सम्मान देना शुरू कर दिया था। घर के हर कोने में मेरा स्वागत था। इस आने-जाने में मैंने जल्दी ही महसूस किया कि रितिका मेरे क़रीब और क़रीब आने की कोशिश में रहती है। जानबूझ कर मुझे स्पर्श करने का प्रयास करती है। किसी न किसी बहाने मेरे साथ बाहर जाने का अवसर तलाश लेती है। उसकी यह पहल मुझे आकर्षित करने लगी। 

लेकिन मैं नैतिकता की दीवार फलाँगना नहीं चाहता था। क्योंकि मन में यह बात रहती कि यह गुरु जी के साथ विश्वासघात होगा। उन्हें पता चलेगा तो वह क्या कहेंगे। मैं रितिका से बचने की हर कोशिश करने लगा। लेकिन उनके यहाँ जाना कम करने की कोशिश में जिस दिन नहीं जाता, उसी दिन उसका फोन आ जाता। निरर्थक बातों के दौरान ऐसी बातें कहती कि वह मुझे उसकी ओर धकेलने लगतीं। 

साल बीतते-बीतते मुझे लगा कि गुरु जी यह सब जान-समझ रहे हैं। मैंने कई बार उनके चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया, कि इस बात से वह नाराज़ हैं या नहीं। मैंने जितनी बार पढ़ा, हर बार यही महसूस किया कि उन्हें ख़ुशी नहीं, तो नाराज़गी भी नहीं है। 

जल्दी ही हम-दोनों ने ग्रेजुएशन पूरा कर लिया। साथ में प्रतियोगी परीक्षाओं की भी तैयारियाँ चल रही थीं। सरकारी नौकरी के लिए हम फ़ॉर्म भी भरते जा रहे थे। इसी बीच मई के महीने में रेलवे और बैंकिंग की परीक्षा के कॉल लेटर आ गए। मुझे डाक-विभाग की लापरवाही के कारण देर से मिले। परीक्षा देने पटना जाना था। रविवार और फिर चार दिन बाद शुक्रवार को परीक्षा थी। 

मैंने रिज़र्वेशन कराया लेकिन लम्बी वेटिंग थी। मुझे पूरा विश्वास था कि परीक्षा के लिए मेरी तैयारी पूरी है। मैं पास हो सकता हूँ। साथ ही नौकरी के लिए पहली परीक्षा देने का उत्साह भी था। गुरु जी की राजनीतिक पहुँच पर मुझे विश्वास था कि वह अपनी पहुँच का प्रयोग कर रिज़र्वेशन क्लियर करवा देंगे। उस समय रिज़र्वेशन कम्प्यूटराइज़्ड नहीं था। 

मैं जब उनके पास पहुँचा तो वह किसी गोष्ठी में बोलने के लिए एक भाषण लिख चुके थे। मुझे देखते ही बोले, “आओ बंधुवर, आओ। बड़े अच्छे अवसर पर आए हो। लो इसे पढ़ो और बताओ ठीक है, या कोई कमी है।”

मैं जिस काम के लिए गया था वह काम पीछे रह गया। भाषण मुझे पहले पढ़ना पड़ा। भाषण तत्कालीन सरकार द्वारा सैंतालीस टन सोना बैंक ऑफ़ ब्रिटेन के पास गिरवी रखकर क़र्ज़ लेने पर था। जिससे देश अन्य देशों को भुगतान करता रह सके। 

मुझे लगा कि देश के लिए इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि आज़ादी के इतने साल बाद विकास की ऊँचाई छूने के बजाए वह दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया है। भाषण में मुझे दो तीन बातें जो समझ में आईं उसके लिए गुरु कहा कि “गुरु जी मेरे हिसाब से भाषण में तथ्य और तर्क की कमी है। सोना गिरवी रखना देश के माथे पर लगने वाला सबसे बड़ा कलंक है। ऐसा देश के इतिहास में पहली बार हुआ है। 
चीन हमसे दो साल बाद स्वतंत्र हुआ, हमसे ज़्यादा उनकी जनसंख्या थी, आज भी है। उनकी समस्याएँ भी हमसे कम नहीं थीं, फिर भी वह हर क्षेत्र में हमसे कई गुना आगे निकल गया है। उसकी और हमारी प्रगति की गति का अंतर हवाई जहाज़ और बैल-गाड़ी का है। 

“हम आज़ादी के साथ ही भ्रष्टाचार के दलदल में देश की प्रगति के बीज बोते आ रहे हैं, जो अंकुरित होने से पहले ही ख़त्म हो जा रहे हैं, सत्तालोलुपता, तुष्टिकरण ने हमारे लोक-तंत्र को शुरू से ही भीड़-तंत्र में परिवर्तित किया हुआ है। 

“गुरु जी मेरा अटल विश्वास है कि देश के माथे पर गिरवी नाम का बदनुमा गंदा कलंक फिर न लगे, यह तभी सुनिश्चित हो पाएगा, जब हम भीड़-तंत्र को तिलांजलि देकर अधिनायक तंत्र को अपनाएँगे, अन्यथा हम पगडंडियों पर बैलगाड़ियों पर रेंगते रहेंगे और जेट गति से आगे निकलता चीन एक दिन इतना आगे निकल जाएगा कि जैसे हमारी निकम्मई, लापरवाही, आत्म-मुग्धतता के चलते हमसे तिब्बत छीन लिया, वैसे ही एक दिन पूरा भारत निगल जाएगा। 

“भाषण में यह सारी बातें उसी तरह तर्क-पूर्ण ढंग से आनी चाहिए, जिस तरह प्रधानमंत्री चंद्रशेखर एक-एक तथ्य, मज़बूत तर्क के साथ अपनी बात कहते हैं, उसी तरह से उनकी इस असफलता पर बात होगी, तभी सुनने वालों पर प्रभाव पड़ेगा। वरना खाना-पूर्ति ही लगेगी। दूसरा मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि आप तीखा प्रहार करते-करते आख़िर में ख़ुद को रोक ले रहे हैं। सरकार के प्रति सॉफ़्ट कॉर्नर साफ़ दिख रहा है।”

मेरी बात पूरी होते ही वह बोले, ‘गुड बंधुवर, तुम्हारी यह साफ़गोई मुझे बहुत अच्छी लगती है। मुझे लगता है कि तुम कोर्स से ज़्यादा बाहर अध्यनरत रहते हो।”

ऐसी ही कुछ और बातों के बाद मैंने अपना काम बताया तो वह बोले, “बंधुवर मैं पूरी कोशिश करता हूँ। तुम्हें पहले ही बताना चाहिए था। रितिका, ऋषि का कल ही विधायक जी से कहकर करवाया है।” उन्होंने अपने एक विधायक मित्र का नाम लेते हुए कहा। साथ यह भी कह दिया कि “गर्मी की छुट्टियाँ हो चुकी हैं, इसलिए बर्थ मिलना मुश्किल हो गया है।”

फोन पर किसी को मेरे टिकट की डिटेल्स बताने के बाद बोले, “देखो अगर नहीं होता है तो, ऋषि के साथ बैठ लेना, बर्थ शेयर कर लेना। टीटी आए तो उसको को दे देना सौ-पचास।”

मैंने सोचा, चाहे जैसे भी हो जाना तो है ही। जिस दिन रात को सफ़र करना था, मैं उसी दिन शाम को क़रीब तीन बजे उनके पास पहुँचा कि पता करूँ बर्थ-क्लियर हुई कि नहीं। वह ड्राइंग-रूम में सोफ़े पर दोनों पैर ऊपर किए क़रीब-क़रीब पालथी मारे बैठे हुए थे। गंभीर चिंतन की मुद्रा में। सामने टेबल पर एक कप चाय रखी थी। 
उसकी हालत बता रही थी कि वह क़रीब घंटे भर से रखी है। बिल्कुल पानी हो चुकी थी। चाय के बेहद शौक़ीन गुरु जी के सामने चाय पानी हो जाए, इसका स्पष्ट मतलब था कि मामला बहुत ही ज़्यादा गंभीर है। वह पहला ऐसा अवसर था, जब वह सामने सोफ़े की तरफ़ हाथ से इशारा करते हुए, बहुत ही निराशा भरे स्वर में बोले, “आओ बैठो।” उन्होंने बंधुवर नहीं कहा। मैं उन्हें प्रणाम कर बैठ गया। 

मैंने महसूस किया कि मैं बहुत ग़लत समय पर पहुँच गया हूँ। गुरु जी गहरी उदासी के साथ टेबल पर देखते जा रहे थे। मुझे उनकी आँखों में आँसुओं की चमक साफ़ दिख रही थी। पूरे घर में गहन सन्नाटा छाया हुआ था। बस सीलिंग फ़ैन की आवाज़ सुनाई दे रही थी। 

मैं जब वहाँ पहुँचा था, तब बाहर चालीस डिग्री टेंपरेचर चल रहा था। गर्मी से बहुत परेशान था। पसीना कई बार पोंछ चुका था। गुरु जी ने वहाँ लगा भारी-भरकम कूलर पता नहीं क्यों बंद किया हुआ था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ, उनसे क्या पूछूँ। ऐसा ना हो कि पूछना उनके दर्द को और बढ़ाना हो। 

कुछ देर बैठने के बाद मुझसे उनकी हालत देखी नहीं गई, तो मैंने उठते हुए कहा, “गुरु जी आप आराम कीजिए, मैं बाद में आता हूँ। शायद मैं ग़लत समय पर आ गया हूँ।”

उन्होंने तुरंत ही मुझे बैठने का इशारा करते हुए कहा, “घर में आने का कोई सही और ग़लत समय नहीं होता बंधुवर, भावनाएँ सही हैं या ग़लत, महत्त्व यह रखता है।”

इसी के साथ उन्होंने रितिका को आवाज़ दी। कुछ ही देर में तीनो बहनें चाय नाश्ता लेकर आ गईं। सभी के चेहरे बता रहे थे कि ख़ूब रोना-धोना हुआ है। बात हुई तो फिर वही निकली, जिसका अंदेशा था। बेटा दोपहर से ही ग़ायब था। 

सब परेशान थे कि रात को जाना है, चार-पाँच दिन के लिए सारे कपड़े वग़ैरह रखने हैं और इसका अभी तक कुछ पता ही नहीं है। संदेह होने पर गुरु जी उर्फी के यहाँ पहुँच गए। उनका संदेह सही निकला, वह वहीं मिला। अपने सुख-चैन में गुरु जी को रोड़ा समझ कर उर्फी अपना आपा खो बैठी। गुरु जी के साथ हद दर्जे की बदतमीज़ी की। 

वहाँ इकट्ठा भीड़ ने गुरु जी को यह समझाते हुए वापस भेज दिया कि आप पढ़े-लिखे सभ्य आदमी हैं। इस बदमाश, जाहिल के चक्कर में न पड़िए। इसकी आवारागर्दी से तो पूरा मोहल्ला ही परेशान है। अपने लड़के को कहीं बाहर भेज दीजिए। नहीं तो कभी उससे भी हाथ धो बैठेंगे। यहाँ कई और भी आते हैं, सब में तनातनी होती रहती है। 

ऋषि उस समय भी नशे में था। गुरु जी लोगों की मदद से उसे घर ले आए, उसे ख़ूब डाँटा-फटकारा और पैसे देकर कहा, ‘तुम जालौन चले जाओ। तुम्हें यहाँ रहने की ज़रूरत नहीं है।’

मगर वह सीधे मारपीट, गाली-गलौज पर उतर आया। कोई रास्ता न देख कर गुरु जी ने पुलिस बुला ली। वह सब गुरु जी को जानते थे। सारी बातें सुनकर उन लोगों ने दो-तीन पुलिसिया हाथ लगा कर, उसे नहा-धोकर तुरंत तैयार होने के लिए कहा। तैयार होते ही उसे अपने साथ लेते गए और बस में बैठाकर जालौन भेज दिया। ख़ूब धमकाया भी कि अगर लखनऊ में दिखे तो हाथ-पैर तोड़ कर जेल में डाल देंगे। 

इस घटना से गुरु जी बुरी तरह आहत हुए थे। उनको इतना आहत मैंने पहले कभी नहीं देखा था। स्थिति देख कर मैं समझ गया कि रितिका का जाना कैंसिल है। रिज़र्वेशन के बारे में पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। तमाम बातों के बीच क़रीब घंटा भर समय निकल गया तो, मैंने सोचा चलूँ, पटना के लिए तैयारी करूँ। 

रिज़र्वेशन हो गया तो ठीक है, नहीं तो जनरल बोगी में ही खड़े-खड़े या बैठे जैसे भी हुआ चल देंगे। मैं चलने लगा तो गुरु जी बोले, “बैठो बंधुवर तुम्हारे रिज़र्वेशन का पता करता हूँ।”

यह सुनते ही मैं बैठ गया, मुझे बड़ी राहत महसूस हो रही थी। गुरु जी ने फोन किया तो पता चला कि वेटिंग जितनी थी, उतने पर ही ठहरी हुई है। गुरु जी ने खीझते हुए रिसीवर वापस रख दिया। मैंने कहा, “गुरु जी आप परेशान न होइए। मैं किसी तरह चला जाऊँगा। रात का सफ़र है, गर्मी वग़ैरह की भी कोई ज़्यादा परेशानी नहीं होगी।”

मगर उन्होंने बैठा लिया। मैं समझ गया कि बिना कोई व्यवस्था किए मुझे जाने नहीं देंगे। कुछ देर बात-चीत के बाद यह तय हुआ कि ऋषि की बदतमीज़ी के कारण उन्होंने रितिका की जो जर्नी कैंसिल कर दी थी, अब वह पटना जाएगी। मैं उसके साथ ऋषि बनकर चला जाऊँ। उसका रिज़र्वेशन क्लियर है ही। इससे रितिका भी एग्ज़ाम दे लेगी। यह सुनकर रितिका बहुत ख़ुश हुई थी। उसे अपनी तैयारी पर इतना विश्वास था कि वह अपना कम से कम रेलवे में चयन निश्चित मान रही थी। वह पहले भी एक बार एग्ज़ाम दे चुकी थी। 

हम एग्ज़ाम से एक दिन पहले शनिवार की सुबह पटना पहुँच गए थे। गुरु जी ने अपने जिन बेहद क़रीबी मित्र के यहाँ हमारे रुकने की व्यवस्था की थी, स्टेशन पर उतर कर मैंने उन्हें फोन किया तो, उन्होंने रॉन्ग नंबर बोल कर रिसीवर रख दिया। 

मैंने सोचा कि शायद ग़लत नंबर मिल गया होगा। लेकिन अगली बार भी उन्होंने यही किया तो मैं घबरा गया। मैंने गुरु जी को फोन किया तो उन्होंने कहा, “रुको मैं बात करता हूँ।”

दस मिनट बाद फिर किया तो वह बड़े आहत स्वर में बोले, “उन्होंने तो रिसीवर ही अलग रख दिया है।” फिर कुछ सोच कर बोले, “एड्रेस तुम्हारे पास है, सीधे उनके घर ही चले जाओ, देखो सच्चाई क्या है। जैसा हो मुझे बताओ।”

हम घंटे भर में वहाँ पहुँच गए, लेकिन वहाँ जो जवाब मिला उससे मैं बहुत परेशान हो गया। मैंने फिर गुरु जी को फोन करके बताया कि “एक महिला मिली, वह कह रही हैं कि सभी लोग गाँव गए हैं। आप लोगों को मैं नहीं जानती। मैंने कहा कि आप उनसे फोन पर बात कर लीजिए, तो वह बोली वहाँ पर कोई फोन नहीं है।”

यह सुनते ही गुरु जी आश्चर्य से बोले, “अरे यह कैसे हो सकता है, मैंने कल रात भी उनसे बात की थी, उन्होंने तब भी कहा था, हाँ आने दीजिए बच्चों को। यह तो सीधे-सीधे धोखाधड़ी है। एक रिश्तेदार होकर यह बदतमीज़ी करके उनको क्या मिल गया?”

हमसे ज़्यादा गुरु जी परेशान हो गए। जिस पीसीओ से हमने उन्हें फोन किया था, गुरु जी बोले, “तुम थोड़ी देर वहीं पर रुको। मैं कुछ व्यवस्था करके बताता हूँ।”

अब-तक धूप तेज़ हो चुकी थी। पीसीओ वाले का नंबर गुरु जी को बता दिया था। वह फोटो कॉपी आदि का भी पूरा बिज़नेस प्वाइंट था। उसने गर्मी से परेशान देखकर हमें बैठने की जगह दे दी। बात-चीत में मैंने उससे होटलों की जानकारी ली, तो उस हिसाब से हम-दोनों के पास जो पैसे थे, वह दो-तीन दिन में ही समाप्त हो जाते। 

दूसरे मैं रितिका को लेकर होटल में रुकने के पक्ष में नहीं था। मैंने निश्चय कर लिया था कि अगर कोई पूरी तरह से सुरक्षित व्यवस्था नहीं हो पाई तो, परीक्षा-वरीक्षा छोड़-छाड़ के आज ही लखनऊ वापस लौट जाऊँगा। लेकिन रितिका को लेकर मैं कोई रिस्क नहीं लूँगा। गुरु जी ने मुझ पर विश्वास करके भेजा है। चलते-चलते कहा था, ‘बंधुवर ध्यान रखना। मैं तुम पर विश्वास के कारण ही इसे भेज रहा हूँ।’

उस समय बिहार की क़ानून-व्यवस्था के नए-नए क़िस्से मीडिया की सुर्ख़ियों में रोज़ ही बने रहते थे। वहाँ जंगलराज है, देश-भर में यही चर्चा हमेशा होती थी। वही सारी बातें सोच-सोच कर, मन में ढेरों शंकाएँ पैदा हो रही थीं। प्रतीक्षा करते-करते आधा घंटा हो जाने पर भी जब गुरु जी का फोन नहीं आया, तो रितिका के कहने पर मैंने फोन किया। गुरु जी ने थोड़ा और रुकने को कहा। 

गुरु जी की आवाज़ में मैंने घबराहट साफ़-साफ़ महसूस की थी। रितिका भी परेशान हो रही थी। और दुकानदार भी, कि हम आधे घंटे से जमे हुए हैं। मैंने सोचा चलो कुछ चाय-बिस्कुट मँगवाते हैं। उसी को पैसे देकर मैंने कहा, तो उसने बाहर निकल कर एक दुकान वाले को आवाज़ दी, थोड़ी देर में चाय-बिस्कुट आ गई। 
हम चाय ख़त्म कर ही रहे थे कि गुरु जी का फोन आ गया। उन्होंने एक एड्रेस, फोन नंबर नोट कराकर कहा, “यह एक पेइंग-गेस्ट हाउस है। मेरे एक साथी प्रोफ़ेसर के रिश्तेदार का है। बहुत नॉमिनल पेमेंट पर रहने खाने की व्यवस्था हो जाएगी। मैंने बात कर ली है। तुम लोग चले जाओ।”

मैंने पीसीओ वाले से एड्रेस पूछा तो उसने विस्तार से बताते हुए कहा कि यहाँ से कम से कम छह-सात किलोमीटर दूर है। एक जगह धोखा खाने के कारण मैंने वहाँ जाने से पहले एक बार फोन कर लेना उचित समझा। उधर से किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति ने बड़ी आत्मीयता से बेटा-बेटा कह कर बात की। उनकी बात-चीत में पुरज़ोर तरीक़े से भोजपुरी शैली हावी थी। 

उनके यहाँ पहुँचने पर भी वही आत्मीयता मिली। पैंसठ-सत्तर वर्ष के बुज़ुर्ग दंपती ने नाम वग़ैरह पूछने के बाद हमें बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर बैठने के लिए कहा। पुरुष की अपेक्षा महिला ज़्यादा कमज़ोर दिख रही थी। इनका परिचय इतना ही मालूम था कि महोदय आर्मी में थे। तीनों बेटे भी आर्मी में हैं, सभी के सभी जम्मू-कश्मीर में पोस्टेड हैं, और दोनों बेटियाँ ससुराल में हैं। 

घर काफ़ी बड़ा था, एक बड़े से आँगन के चारोंं तरफ़ बरामदे, कमरे बने थे। बिल्कुल उसी तरह ऊपर भी एक मंज़िल दिख रही थी। मुख्य दरवाज़े के कोने से जीना ऊपर की ओर चला गया था। मकान ज़्यादा पुराना तो नहीं दिख रहा था, लेकिन बनावट बड़ी पुरानी लग रही थी, जिससे बनाने वाली की सोच परिलक्षित हो रही थी कि वह पुरानी परंपराओं, विरासत को ढोते रहने वाले व्यक्ति की प्रॉपर्टी है। 

हमारे बैठते ही बुज़ुर्ग व्यक्ति, जिन्हें हम चाचा जी कहने लगे थे, ने किन्हीं धारिणी को आवाज़ दी। चंद सेकेण्ड में क़रीब तीस-बत्तीस वर्षीय एक महिला दरवाज़े के बग़ल वाले कमरे से आ गई। उसके पीछे-पीछे चार-पाँच साल का एक बच्चा भी आ गया। 

उससे उन्होंने चाय-नाश्ता लाने के लिए कहा तो वह पाँच मिनट में ही लेकर आ गई। मतलब सूचना मिलने के बाद पहले से ही तैयारी थी। नाश्ते के दौरान वह हमसे बराबर एग्ज़ाम, पढ़ाई-लिखाई की बातें करते रहे। चाची जी अमूमन शांत ही रही थीं। बोलने पर उनकी साँस फूलने लगती थी। 

नाश्ते के बाद ही धारिणी ने हमें ऊपर ले जाकर अगल-बग़ल कमरों में ठहरा दिया। ऊपर ही बाथरूम वग़ैरह भी दिखा दिया। घंटे भर बाद खाने के लिए नीचे आने को कह कर चली गई। गुरु जी के कहे अनुसार जब मैंने दो-तीन दिन का पैसा निकाल कर एडवांस देने का प्रयास किया तो वह बोले, “अभी रखो बेटा, जब जाने लगना तो इकट्ठा दे देना।” नहाने-धोने के बाद खा-पीकर हमने शाम-छह बजे तक आराम किया। हालाँकि हम सो नहीं सके। क्योंकि लाइट का बार-बार आना-जाना लगा रहा। 

शाम को नाश्ते के लिए धारिणी ने बुलाया तो हम नीचे गए। वह हमें घर के पिछवाड़े बड़े से लॉन में ले गई। वहाँ तमाम पेड़-पौधे लगे थे। पानी का छिड़काव किया जा चुका था। बेंत की दो कुर्सियों पर बैठे वह दोनों लोग हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। 

लॉन को देखकर मेरे मन में एक बात ज़रूर आई कि सभी लोग लॉन घर के सामने बनवाते हैं, इन्होंने पीछे क्यों बनवाया है? सोचा, मकान मेन रोड पर है, इसलिए ऐसा किया होगा। जिससे ट्रैफ़िक का शोर परेशान न करे। 

नाश्ते के दौरान वह अपनी आर्मी लाइफ़ के क़िस्से बताते रहे। उनकी बातों से स्पष्ट हो रहा था कि वह बेहद खुले विचारोंं के तेज़-तर्रार व्यक्ति हैं, लेकिन एक नहीं सभी बच्चों द्वारा अपनी उपेक्षा से बहुत दुखी हैं। 

महीने-महीने भर हो जाता है, बच्चों, नाती-पोतों में से किसी का फोन तक नहीं आता। वह एक बार स्टार्ट हुए, तो बोलते ही चले जा रहे थे। और हम बड़ी उत्सुकता प्रकट करते हुए सुनते जा रहे थे। हालाँकि चाची जी ने कई बार संकेत किया कि घर की बातें पहली बार मिले लोगों से क्यों कर रहे हो? 

उन्हें रोकने के लिए उन्होंने यह भी कहा कि ‘बच्चों को अब अपने एग्ज़ाम की तैयारी करने दीजिए।’ लेकिन उन्होंने यह कह कर उनकी बात हवा में उड़ा दी कि ‘तैयारी पहले की जाती है, ऐन टाइम पर तो रिलैक्स होते हैं, जिससे फ़्रेश मूड में, अच्छे से पेपर सॉल्व कर सकें।’

जब अँधेरा होने लगा, तो हम अंदर आ गए। अब-तक मच्छरों ने हमला तेज़ कर दिया था। घर में बस काम की जगह पर ही एक-एक बल्ब जल रहे थे। लो वोल्टेज के कारण वह टिमटिमाते हुए से लग रहे थे। 
हम अपने कमरे में पहुँचे कि कुछ पढ़ाई कर लें, लेकिन तभी लाइट चली गई। हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा। हमने छज्जे की तरफ़ का दरवाज़ा खोला कि सड़क पर लाइट होनी चाहिए। लेकिन बाहर भी हर तरफ़ घुप्प अँधेरा ही अँधेरा था। 

मैं छज्जे पर खड़ा देखता रहा नीचे। कहीं लैंप, लालटेन तो कहीं पेट्रो-मैक्स चमकने लगे थे। पाँच मिनट भी नहीं बीता होगा कि तभी धारणी दो छोटे लैंप लेकर आ गई, साथ में फिनिट स्प्रे कैन भी ले आई थी। उसने एक-एक लैंप दोनों कमरे में रख कर, बेड के चारों तरफ़ स्प्रे किया और बोली, “अब लाइट दस बजे आएगी। खाना उसी समय सबके साथ खाएँगे कि पहले।”

मैंने छूटते ही कहा, “सबके साथ।” अब-तक यह स्पष्ट हो गया था कि यहाँ लाइट की नियमित कटौती होती है। यह भी साफ़ हो गया था कि दिन में गर्मी और रात में लाइट की वजह से पढ़ाई नहीं हो सकेगी। लैंप की रोशनी में कोशिश की, लेकिन पढ़ नहीं सका। 

कमरे में रखी लकड़ी की भारी सी कुर्सी छज्जे पर लाकर बैठ गया। लैंप एकदम धीमा कर दिया। लेकिन रितिका अपने कमरे में लैम्प की लाइट में ही दो घंटे तक पढ़ती रही। उसे पढ़ता देखकर मैंने दूसरा लैम्प भी तेज़ करके उसके ही पास रख दिया था। 

छज्जे पर मच्छरों ने इतना परेशान किया कि मैं नीचे से फिनिट फिर ले आया। स्प्रे कर नीचे देने गया तब चाचा जी ने बताया कि “जनरेटर दो हफ़्ते से ख़राब है, मैकेनिक दो बार आ चुका है, लेकिन बना नहीं पाया। बोला बड़ी ख़राबी है, एजेंसी के लोग आकर बनाएँगे।”

मैंने सोचा कि सारी आफ़त इसी समय आनी है। लाइट आने का व्याकुलता से इंतज़ार करता मैं क़रीब चालीस गुणे पाँच फ़ीट के छज्जे पर कभी इस कोने से, उस कोने तक टहलता, कभी बैठता। चिकन का कुर्ता पहन रखा था, लेकिन फिर भी लग रहा था कि पसीने से भीग जाऊँगा। फिनिट की बदबू अलग परेशान कर रही थी। मन में एक दो बार आया कि क्या रितिका को कमरे में फिनिट की बदबू से परेशानी नहीं हो रही है? मैंने उसे डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा। 

लाइट दस बजे के बजाय साढ़े दस बजे आई तो, खाना खाकर हम ग्यारह बजे कमरे में आ गए। सोचा, चलो रात में दो-तीन घंटे पढ़ लेते हैं। पेपर सेकेण्ड मीटिंग में है। इसलिए थोड़ा देर से उठ लेंगे। लेकिन मेरा सोचा उस दिन कुछ भी नहीं होने वाला था। 

साढ़े बारह बजे ही लाइट फिर चली गई। मैं सिर पीटकर फिर छज्जे पर आ गया। इधर-उधर दृष्टि डाली तो, देखा दूर कहीं-कहीं कुछ हिस्सों में लाइट थी। मतलब की इस बार लाइट कटौती नहीं, किसी ख़राबी के कारण गई थी। जिसके ठीक होने की सम्भावना कम ही थी। 

मैं खाने के बाद ऊपर आते समय हाथ वाला एक पंखा माँग कर ले आया था। उसे ही लेकर फिर से छज्जा वासी बन गया। मगर रितिका पढ़ती ही रही। देखते-देखते पहाड़ से ढाई घंटे कट गए। घनघोर अँधेरा हर तरफ़ था। गर्मी उबाले दे रही थी। 

धारिणी ने खाना बहुत अच्छा बनाया था। चाचा जी का आर्मी का ज़ायक़ा मेंटेन किए हुए थी। ख़ूब मसालेदार दो सब्ज़ियाँ बनाई थीं। सब्ज़ी, सलाद सब में मिर्ची हावी थी। उससे हो रही जलन भी परेशान कर रही थी। परेशान होकर मैं कुर्ता पजामा उतार कर अंडर-वियर में ही छज्जे पर बैठा रहा। दूसरे दरवाज़े पर कुंडी लगा दी, जिससे नीचे से कोई ऊपर ना आ जाए। हालत यह हो रही थी कि नींद जागने नहीं दे रही थी, और गर्मी, फिनिट की बदबू, मच्छर सोने नहीं दे रहे थे। फिनिट से मच्छरों का हमला कमज़ोर भर हुआ था। 

रात पौने तीन बजे रितिका के कमरे का दरवाज़ा अचानक खुला, जब-तक मैं कुछ समझूँ, वह सामने आ गई। मैंने एकदम अचकचाते हुए कहा, “अरे तुम सोई नहीं, बैठो मैं अभी आया।” मैं उठने लगा कि कपड़े पहन कर आऊँ। लेकिन उसने कंधे पर हाथ रखकर बैठाते हुए कहा, “बैठो न, कौन देख रहा है?”

मेरी दूसरी कोशिश पर भी उसने मना कर दिया। अपने कमरे से एक स्टूल लाकर बैठ गई। वह भी जलन, गर्मी, मच्छर, फिनिट की बदबू से परेशान थी। हम दोनों में बातें शुरू हो गईं, रोमांटिक। थोड़ा क्या, कुछ ज़्यादा ही रोमांटिक होते जा रहे थे। 

हम बहुत कम बोल रहे थे, लेकिन जो भी बोल रहे थे, बिल्कुल फुसफुसाहट वाले अंदाज़ में। हमारी बातों में एग्ज़ाम का कोई पता ठिकाना नहीं था। आख़िर मैंने कहा, “जाओ, अब तुम सो जाओ। सुबह ज़्यादा देर तक सोते रहे, तो नीचे न जाने क्या सोचेंगे?”

वह धीरे से बोली, “हाँ, सही कह रहे हो।”

यह कह कर वह उठी और अपने कमरे में जाने के बजाए, मेरे कमरे में चली गई। मैंने सोचा कुछ लेने गई होगी। कुछ देर बाद भी, जब वह नहीं आई तो मैं उठा कि देखूँ क्या कर रही है। मैं अंदर पहुँचा तो अँधेरा था। मैंने उसे धीरे से आवाज़ दी। लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला। मैंने टटोल कर माचिस उठानी चाही तो उसका सिर मेरे हाथों को छू गया। 

मैंने बात समझने की कोशिश करते हुए माचिस जलाई, तो देखा कि वह दूसरी तरफ़ करवट किए लेटी थी। कुर्ता बहुत ऊपर खिसका हुआ था। पता नहीं गर्मी या किस कारण से परेशान होकर उसने ऐसा किया था। माचिस की तीली मेरी उँगुलियों, अँगूठे तक को जलन दे कर बुझ गई। 

मैंने अवशेष नीचे छोड़ दिया। तब रितिका को ऐसे देख कर, मैं यह भी नहीं सोच पा रहा था कि दूसरी तीली जलाऊँ या नहीं। दूसरी बार भी आवाज़ देने पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। तभी मुझे लगा कि वह कुछ हिली-डुली है। मैं बैठने ही वाला था कि दिमाग़ में यह बात आई कि कहीं यह नींद में मेरे कमरे को अपना समझ कर तो नहीं चली आई है। मैंने उसके कंधे को थोड़ा सा हिला कर फिर बुलाया तो, उसने धीरे से कहा, “लेटो न।”

अब मेरा असमंजस चरम सीमा पर पहुँच गया। पंद्रह-बीस सेकेण्ड सोचने के बाद, मैं पहले उसके कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद कर आया। मेरे लेटते ही वह मुझसे लिपट गई। क़रीब साढ़े चार बजे मैंने उससे कहा, “अब अपने कमरे में चली जाओ। कहीं धारणी जगाने न आ जाए।”

उसने धीरे से कहा, “हूँ।” फिर जल्दी से कपड़े पहने और अपने कमरे में चली गई। उसके बदन की मदहोश कर देने वाली वह गंध आज भी मेरे दिलो-दिमाग़ में तरोताज़ा है। 

अगले दिन भरी दोपहरी में हम-दोनों एग्ज़ाम देने निकले, तो चाचा-श्री ने एड्रेस के साथ ही यह भी समझा दिया कि “छुट्टी होते ही तुरंत घर चले आना। बदमाशों ने उत्पात मचा रखा है।”

हम-दोनों के एग्ज़ाम सेंटर के बीच छह किलोमीटर का अंतर था। रितिका के सेंटर का एरिया वीराना सा लगा। वहाँ की हालत देखकर मैंने सोचा कहाँ आकर फँस गया हूँ। आने-जाने के जो साधन हैं, उससे अपने सेंटर से आने में से कम डेढ़ घंटा तो लगेगा ही। 

मैंने रितिका को एग्ज़ाम के लिए अंदर भेज दिया। मगर स्वयं के लिए कोई डिसीज़न नहीं ले पा रहा था कि एग्ज़ाम देने जाऊँ या न जाऊँ। जब-तक लौटूँगा, तब-तक सब चले जाएँगे, वह इस वीराने में अकेली कैसी रहेगी। 

मैं यह भी देख रहा था कि जो लोग भी एग्ज़ाम देने आए थे, उनके साथ कोई ना कोई ज़रूर था, और सभी वहीं पर रुके हुए थे। वहाँ के दो-चार स्थानीय लोगों से अपने मन की बात की, तो उन लोगों ने जैसा बताया, उससे मैं डर गया कि ज़रा-सी भी कोई बात हो गई, तो मैं गुरु जी को क्या जवाब दूँगा। चलते-चलते कितनी बार उन्होंने कहा था, ‘बंधुवर ध्यान रखना।’ कितना भावुक हो रहे थे। 

वहाँ लोगों की बातें सुन-सुन कर मैंने सोचा कि लोग सही कहते हैं कि दुनिया में जंगलराज देखना हो तो बिहार चले जाओ। कॉलेज के आस-पास जितने भी पेड़ या छाया वाली जगहें थीं, वहाँ पहले से ही, अधिक होशियार लोग जमे बैठे हुए थे। मैं भी एक पेड़ के नीचे किसी तरह जगह बना कर बैठ गया। 

वहीं अन्य कई लोगों की देखा-देखी बर्फ़ का एक गोला खाया, एक बहुत बुज़ुर्ग व्यक्ति ठेले पर सतुआ घोल कर गिलास में बेच रहा था, मैंने वह भी पिया। जीवन में पहली बार मैंने सतुआ पिया था। लेकिन उससे उस भयंकर गर्मी में मुझे बड़ी तरावट महसूस हुई। इन सब के बीच मेरे मन-मष्तिष्क में रितिका के साथ रात में बिताए गए वह विशेष क्षण बराबर घूमते रहे। 

मैं कभी आश्चर्य में पड़ता कि यह सब क्या, कैसे हो गया। फिर सोचता इसमें आश्चर्य वाली क्या बात है, हम-दोनों एक-दूसरे को इतने दिनों चाहते आ रहे हैं, यह हमारे प्यार-स्नेह के और प्रगाढ़ होने के प्रतीक के सिवा और कुछ नहीं है। न मैंने कुछ ग़लत किया है, न रितिका ने। हमने तो केवल अपने रिश्ते को जिया है। उसे और जाँचा-परखा है। जिसमें वह शुद्ध सोने सा खरा उतरा है। 

मगर गुरु जी! जैसे ही यह दिमाग़ में आता, वैसे ही दिमाग़ कुछ क्षण को शून्य हो जाता। फिर सोचता, हमारा यह रिश्ता एक न एक दिन तो गुरु जी के सामने आएगा ही। उनका सामना तो करना ही पड़ेगा। लेकिन कैसे करूँगा? वह मुझे विश्वास-घाती, पीठ में छूरा घोंपने वाला कहेंगे। मुझे रितिका से हमेशा के लिए दूर करने का हर सम्भव प्रयास करेंगे। कहेंगे बंधुवर फिर कभी मेरी आँखों के सामने नहीं पड़ना। 

नहीं, बंधुवर नहीं कहेंगे। कहेंगे विश्वास-घाती हट जाओ मेरी आँखों के सामने से, और फिर कभी मुझे दिखाई नहीं देना। और अपनी बेटी रितिका को, पता नहीं उसके साथ क्या व्यवहार करेंगे। वह बहुत खुले विचारोंं के सज्जन, विनम्र, सहिष्णु व्यक्ति हैं, लेकिन यह मामला कुछ और है, इसलिए कुछ भी अनुमान लगा पाना बहुत ही मुश्किल है। 

इस खोपड़ी-भंजन में यह बात भी ज़रूर आती कि नहीं, गुरु जी मुझे बहुत मानते हैं। वह इतने उदार हृदय व्यक्ति हैं कि थोड़ी-बहुत नाराज़गी के बाद हमारे रिश्ते को स्वीकार कर लेंगे। कहेंगे, बंधुवर तुमने बहुत जल्दबाज़ी कर दी। अब थोड़ा रुको, मैं विधिवत तुम दोनों का विवाह करवाऊँगा, जिससे कोई कुछ कह नहीं सके। 

कहने को मैं पेड़ की छाँव में था, लेकिन गर्म हवा के थपेड़ों ने बिलकुल झुलसा कर रख दिया था। प्रतीक्षा के कुछ घंटे मुझे ऐसे लगे, जैसे मैं तेज़ लू, गर्मी में घंटों चलता रहा हूँ। 

पेपर छूटते ही परिक्षार्थियों की भीड़ गेट से बाहर निकलती दिखी। मेरी नज़रें रितिका को ढूँढ़ रही थीं। जब क़रीब-क़रीब सभी लोग बाहर आ गए, तब वह भी मुझे बाहर आती दिखी। उस तेज़ गर्मी में भी, उसके चेहरे पर जो ख़ुशी चमक रही थी, उससे मैं समझ गया कि इसका पेपर इसकी अपेक्षा से भी कहीं बहुत अच्छा हुआ है। 

वह आगे बढ़ती हुई भीड़ में इधर-उधर मुझे ढूँढ़ रही थी, मुझे मज़ाक सूझा और मैं पेड़ की आड़ में चला गया। मैंने देखा कि कुछ ही सेकेण्ड में मुझे न पाकर वह बहुत गंभीर हो गई। हर तरफ़ नज़र डालती एक पेड़ की तरफ़ ही बढ़ गई। 

तभी मैंने सोचा कि चलूँ नहीं तो सारी गाड़ियाँ चली जाएँगी। सब जल्दी-जल्दी सवारी भर रही थीं। मैं लपक कर रितिका के पास पहुँचा। मेरा अंदाज़ा सही था। उसका पेपर बहुत ही अच्छा हुआ था। उसने अपना बताने के बाद तुरंत ही मेरा पूछा, मैंने झूठ बोलते हुए कह दिया, “मेरा भी बहुत अच्छा हुआ, आओ पहले किसी गाड़ी में बैठते हैं, नहीं सब चली जाएँगी।”

भीड़ की धक्का-मुक्की से उसे बचाते हुए एक ऑटो में बैठा। जिसमें एक दो नहीं, पूरे बारह लोग बैठे थे। उसमें टेल लाइट की तरफ़ एक पटरा लगा दिया गया था। जिस पर पीछे की दिशा में मुँह करके चार लोग बैठे थे। चार अंदर और चार ड्राइवर के साथ। रितिका अंदर थी और मैं बाहर। क्योंकि अंदर और लड़कियाँ भी थीं। 
क़रीब छह बजे जब हम घर पहुँचे तो, किसी गऊ-सी धीर-गंभीर, सीधी-साधी धारिणी ने दरवाज़ा खोला। अंदर बरामदे में चाचा-चाची कुर्सियों पर बैठे आराम करते मिले। ऊपर सीलिंग फ़ैन अच्छी-ख़ासी स्पीड में चल रहा था। जनरेटर की आवाज़ आ रही थी। मतलब कि वह बन गया था। और लाइट नदारद थी। पेपर आदि की बातों के बीच उन्होंने बताया कि गुरु जी का फोन आया था। उनके कहने पर हम-दोनों ने भी बात की। पेपर अच्छा हुआ, यह जानकर वह बहुत ख़ुश हुए। 

चाय-नाश्ता करके हम ऊपर अपने कमरे में आ गए। थोड़ी देर आराम करने के बाद हम अपनी किताबों के साथ हो लिए। रात को बिजली चली जाने के बाद इनवर्टर से पंखे चल रहे थे। बड़े जुगाड़ से व्यवस्था की गई थी। 

जनरेटर से पहले इन्वर्टर चार्ज किया जाता था। बिजली जाने पर इनवर्टर यूज़ होता था। सोने का समय आया तो मन-मस्तिष्क में पिछली रात की अद्भुत घटना विचरने लगी। मुझे पूरा विश्वास था कि रितिका के मन-मस्तिष्क में भी वही चल रहा था। 

मैंने सोचा कि कल तो रितिका सारी रात बिजली के अंतर्ध्यान रहने के कारण गर्मी में किसी तरह सोई, आज तो इनवर्टर महोदय पंखा चला रहे हैं, आज भी आएगी क्या मेरे पास? मैं छज्जे पर खड़ा दूर तक जाती अँधेरी सड़क पर, कहीं-कहीं टिमटिमाती लाइट देख रहा था। मैंने लाइट, पंखा ऑफ़ कर दिया था, जिससे इनवर्टर जल्दी डिस्चार्ज न हो। 

मैं अजीब सी व्याकुलता में तमाम प्रश्न-उत्तर मन में करता रहा। चार क़दम इधर तो, दो क़दम उधर टहलता रहा। बार-बार क़दम रितिका के कमरे की तरफ़ उठते, फिर ठहर जाते। उसके कमरे की लाइट जल रही थी। नींद ज़्यादा सताने लगी तो, मैं भी अंदर कमरे में पंखा चला कर लेट गया। अँधेरे में ही। 

मुझे थोड़ी देर बाद कुछ आहट-सी मिली, लेकिन मैं सोने का स्वाँग करता लेटा रहा। वह आई और मेरे साथ सटकर लेट गई। पीछे से हाथ लाकर सीने पर हथेली फिराते हुए धीरे से कहा, “यहाँ पढ़ने, एग्ज़ाम देने आए हो या कि यही सब करने आए हो। न पढ़ते हो, न पढ़ने देते हो। छज्जा परेड कर-करके मुझे उठा कर ही माने।”

इतना कहते हुए उसने, मुझे धीरे से चिकोट लिया। मैंने हल्की सी सिसकारी लेते हुए, पलट कर उसे बाँहों में भर लिया था। उस कमरे में हमारी छह रातें ऐसी ही बीतीं थीं। 

ऐसी ही एक रात में, मैंने उसके बालों को खोल कर, उन्हें सामने की तरफ़ करके बिखरा दिया था। बाल इतने घने लंबे थे कि वह बैठी थी और बालों ने सामने से उसे पूरा ढक लिया था। तभी मुझसे अचानक ही एक आड़ी-बेड़ी तुक-बंदी बन गई। उसे ही कहते हुए, मैंने उसे रजनी कहना शुरू कर दिया था। वह तुक-बंदी अब मुझे बिलकुल भी याद नहीं। 

वहाँ से वापसी यात्रा में हमने बहुत सी बातें कीं। मैंने शादी की बात चलाते हुए कहा कि “तुम्हारे दोनों एग्ज़ाम बहुत अच्छे हुए हैं। मेरा भी। मुझे पूरा विश्वास है कि हमें नौकरी मिल ही जाएगी। इसके बाद हम-दोनों शादी कर लेंगे।”

इस पर वह हल्की सी नाराज़गी ज़ाहिर करती हुई बोली, “तुमने भी क्या शादी-वादी लगा रखी है। चुप भी रहो न, अभी यह सब सोचना भी मैं बेवक़ूफ़ी समझती हूँ।”

शादी को लेकर रजनी का यह व्यवहार आगे भी नहीं बदला। इसी कारण बीच में बहुत वर्षों तक अंतरंग सम्बन्ध ख़त्म हो गए थे। बाक़ी मिलना-जुलना, बात-चीत पूर्व-वत चलती रही। उसके भाई ऋषि की बदतमीज़ियाँ भी। 

वह जालौन गया तो वहाँ से लौटने का नाम ही नहीं लिया। कई साल बीत गए। फिर अचानक ही गुरु जी को पता चला कि उसने ग्रेजुएशन कर लिया है। किसी को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन प्रमाण-पत्रों की सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता था। बाद में पता चला कि उसकी जगह एग्ज़ाम किसी और ने दिया था। पूरा सेंटर ही नक़ल के लिए बुक था। वह वहाँ फुल आज़ादी का पूरा मज़ा लेने में लगा हुआ था। 

इधर गुरु जी ने सदियों से चली आ रही, एक ग़लत नीति का पालन किया कि लड़का ग़लत रास्ते पर है तो शादी कर दो, पत्नी आएगी तो सुधर जाएगा। बहुत से मामलों में यह सच हुआ भी होगा लेकिन ऋषि के मामले में परिणाम ढाक के तीन पात ही रहे। किसी भी ज़िम्मेदारी से तो उसका कोई सरोकार नहीं रहा, उल्टे एक-एक कर तीन लड़कियाँ, फिर एक लड़का पैदा कर दिया। 

अब गुरु जी और ज़्यादा परेशान रहने लगे। बातचीत में आए-दिन मुझसे कहते, “अभी तक तो यह था, अब इसके बच्चों के भविष्य का क्या करूँ। कौन सँभालेगा इन्हें।”

दूसरी तरफ़ उन्हें अपनी तीनों बेटियों की शादी के मामले में भी कोई सफलता नहीं मिल रही थी। कई जगह तो वह साथ में मुझे भी लेकर गए। जब वह रजनी की शादी के लिए कहीं जाते तो, मैं सोचता कि गुरु जी से कहूँ क्या, कि मैं करना चाहता हूँ। 

लेकिन अगले ही पल निराश हो जाता कि जब रजनी ही नहीं तैयार है, तो मेरे कहने से क्या फ़ायदा। ऐसा करना तो गुरु जी को एक और पीड़ा देने के अलावा और कुछ नहीं होगा। गुरु जी की समस्याएँ बेटे के अलावा अब छोटी दोनों लड़कियाँ भी बढ़ा रही थीं। 

उन दोनों के पर ऐसे निकल आए थे कि ऋषि की तरह वह भी आए दिन कोई न कोई समस्या खड़ी कर देती थीं। गुरु जी इन सब से इतना परेशान हुए कि वह खुल कर बोलना, हँसना-मुस्कुराना, सोशल-वर्क, राजनीति सब कुछ भूल गए। 

एक बार मुझसे बड़ी उदासी भरी मुस्कुराहट के साथ कहा, “बंधुवर बार-बार मुझसे कहते हो कि ‘गुरु जी इतना तनाव मत लीजिए। अपने को पहले की ही तरह व्यस्त रखते हुए समाधान ढूँढ़ते रहिए। धीरे-धीरे सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। ऐसे तो आप अपना स्वास्थ्य ख़राब कर लेंगे’। मगर बंधुवर, ऐसा कोई तो पॉइंट बताओ, जिसे देख कर मुझे आशा की एक भी किरण दिखाई दे। मुझे हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा दिखता है। 

“पत्नी होती, तो भी कुछ सहारा मिलता, कोई मॉरल सपोर्ट मिलता। एक तुम ही हो, जो बरसों से हर काम में मेरी मदद करते चले आ रहे हो। बेटे की उम्र के होकर मुझे बड़े भाई की तरह, इतने सालों से सँभाल रहे हो। इसीलिए अभी तक क़दम बढ़ते चले आ रहे हैं। लेकिन तुम भी अब अपनी नौकरी से कितना समय निकाल पाओगे।”

बच्चों की आदतों, हरकतों से वो हमेशा इतना तनाव में रहते थे कि एक बार अपने गृह ज़िला जालौन से वापस लखनऊ आ रहे थे। रास्ते में इस दबाव ने उन्हें असमय ही दुनिया से ही विदा कर दिया। इतना तेज़ हार्ट-अटैक पड़ा कि उन्हें किसी डॉक्टर के पास ले जाने का भी समय नहीं मिला। महीने भर पहले ही रिटायर हुए थे। 

लौट कर उन्हें मेरे साथ, कारगिल युद्ध में पकिस्तान को धूल-धूसरित कर प्राप्त की गई विजय के बाद, युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले देश के महान सपूतों को एक कार्यक्रम में श्रृद्धांजलि अर्पित करनी थी। वहाँ वह मुख्य वक्ता के रूप में बोलने वाले थे। 

मगर वह जीवन के रण-क्षेत्र में अपना रण हार कर शांत हो गए हमेशा के लिए। उनका इस तरह अचानक शांत होना, मेरे लिए एक बहुत बड़ा सदमा था। वह गहरी पीड़ा आज भी हृदय में समाई हुई है। कानों में आज भी उनका यह वाक्य गूँजता है, ‘आओ बंधुवर, आओ।’

रजनी ने फोन करके मुझे बुलाया और अंतिम संस्कार के प्रबंध की सारी ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी। एक वही मुझे पूरे घर में बहुत गहरे दुखी, टूटती हुई दिख रही थी। पुत्र ऋषि पितृ-शोक में इतनी पीता रहा कि कभी ज़मीन पर तो, कभी किसी बिस्तर पर पड़ा रहता। 

गुरु जी के ब्रह्मलीन होने के बाद मैंने उनके घर जाना बंद कर दिया, क्योंकि रजनी जहाँ गुरु जी की गरिमा को बनाए रखने की कोशिश कर रही थी, वहीं दोनों बहनों को जैसे पूरी आज़ादी मिल गई थी, अपनी अति महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सही–ग़लत सब भूलकर तूफ़ान की तरह आगे बढ़ने की। 

उनकी इस तूफ़ानी गति से आए दिन कोई ना कोई समस्या खड़ी होने लगी। रजनी फोन पर सारी बातें बता-बता कर परेशान होती। वह चाहती थी कि मैं पहले की तरह रोज़ पहुँचूँ। मैंने उसे समझाया कि “देखो गुरु जी के जाने के बाद स्थितियाँ बदल चुकी हैं। तुम्हारी बहनों की जो सोच है, उसे देखते हुए, मैं स्वयं से ज़्यादा तुम्हारे लिए सोचता हूँ। 

बाहरी तो बाद में कोई उँगली उठाएँगे, मगर तुम्हारी यह बहनें सबसे पहले उठाएँगी। तुम्हें जब मिलना हो तो बता दिया करो, मैं कहीं और आ कर मिल लिया करूँगा, लेकिन घर पर नहीं। उसने मेरी बात मान ली। 

अब-तक एक आसानी मोबाइल की हो गई थी, और रजनी भी नौकरी करने लगी थी। जल्दी ही दो-तीन साल और बीत गए। मुझ पर घर में शादी का दबाव पड़ने लगा। मैंने रजनी से कई बार बात की, मगर उसने पहले तो कई बार हाँ या न कुछ भी जवाब नहीं दिया। मेरे साथ पूरा-पूरा दिन रहती, लेकिन इस प्रश्न का जवाब टाल जाती। 

असल में अब हम-दोनों अक़्सर अपने-अपने ऑफ़िस से किसी न किसी बहाने मिलने के लिए निकल लेते थे। मैं किसी एकांत जगह की व्यवस्था किए रहता था। वहीं कई-कई घंटे तक हम साथ रहते। कई बार तो घर से सीधे वहीं पहुँचते, पूरा दिन वहीं रहते। 

शादी की ही बात पर एक बार उसने कहा, “देखो, मैं शादी कर लूँगी तो दोनों बहनों की शादी कौन करेगा?”

मैंने कहा, “इसके लिए तो हमारी शादी और भी ज़्यादा ज़रूरी है। तुम अकेले बहनों की शादी नहीं कर पाओगी। शादी कर लेने पर हम-दोनों मिलकर यह काम आसानी से कर लेंगे। तुम्हें मुझ पर विश्वास करना चाहिए।”

उसने कहा, “बात विश्वास की नहीं है। मैं तुम्हें भी जानती हूँ और स्वयं को भी। यह मुझे व्यावहारिक नहीं लग रहा है। तुम्हें अपना भी घर देखना होगा। अपनी शादी के बाद बहनों की शादी मैं नहीं कर पाऊँगी।”

तो मैंने कहा, “और उनकी शादी के बाद?” 

तो वह कुछ सोच कर बोली, “अभी जो बात सामने नहीं है, उसके लिए क्या कहूँ? समय आने पर देखा जाएगा।”

रजनी ने जी-जान से बहनों की शादी करने का प्रयास शुरू किया। फोन पर शुरूआती बात मैं कर लिया करता था। लेकिन यह बात जैसे ही उसकी दोनों छोटी बहनों को पता चली, दोनों ने आफ़त कर दी। 

वही रटी-रटाई बहस कि ‘मेरी लाइफ़ है, मैं डिसाइड करूँगी कि मुझे शादी करनी है या नहीं करनी है, या कब करनी है।’ दोनों बहनें एक होकर बड़ी बहन पर हावी हो गईं। छोटी वाली ने तो हद पार करते हुए यह भी कह दिया कि ‘तुम्हारा काम बिना आदमी के नहीं चल रहा है, तो तुम अपनी शादी कर लो। और जाओ यहाँ से।’

बहनों के इस व्यवहार से रजनी बहुत दुखी हुई। सारी बातें मुझे बता-बता कर बहुत रोई। उसने मुझसे बार-बार पूछा, ‘बताओ मैं क्या ग़लत कर रही थी, जो दोनों ने छोटी होकर ऐसी गंदी-गंदी बातें मुझे कही हैं।’ 

बहनों ने इसके बाद भी उसे समय-समय पर बहुत ही ज़्यादा अपमानित किया। पिता की फ़ैमिली पेंशन उसने उन दोनों को ही लेने दी। अपने को अलग कर लिया, कि मैं तो नौकरी कर रही हूँ। वह घर का सारा ख़र्च भी चलाती। 

उन दोनों को किसी काम से कोई मतलब नहीं था। उन्हें समय से खाना-पीना हर चीज़ चाहिए थी। कोई भी कमी होने पर, बड़ी बहन यानी रजनी पर हावी हो जातीं। वो बाहर से चाहे रात ग्यारह बजे आएँ या बारह बजे। सुबह उठें या दोपहर तक सोती रहें, कोई उनसे कुछ नहीं पूछ सकता था। 

हवा में उड़ते उनके क़दमों को रोकने वाला अब कोई नहीं था। ऐसी स्थिति में रजनी से मैंने फिर शादी की बात की, लेकिन रजनी ने पुनः यह कहते हुए मना कर दिया कि ‘क्या यार शादी, शादी, पत्नी-पत्नी लगा रखी। अभी पत्नी नहीं हूँ क्या? अरे ज़रूरी है क्या शादी का साइन बोर्ड लगाना, एक ही घर में, एक ही कमरे में रहना, बच्चे पैदा करना। इनके बिना भी तो पति-पत्नी बने हुए हैं। ऐसे ही बनी रहूँगी हमेशा। 

‘मैं आज फिर कह रही हूँ कि शादी नहीं कर पाऊँगी। बहनों की हालत देख ली। भाई को भी जानते हो। मैं उसके बच्चों को कैसे भुला सकती हूँ। भाभी लाख समझदार हैं, बहुत हिम्मती हैं। लेकिन उनकी भी क्षमता जानती हूँ। बच्चों का भविष्य अच्छा हो सके, सुरक्षित हो सके, यह सब वह मेरे सहयोग के बिना नहीं कर सकेंगी। 

‘यह सब कोई एक-दो दिन का काम नहीं है। सारे बच्चे जब-तक एक लाइन पर नहीं आ जाते हैं, उनका कॅरियर नहीं बन जाता है, तब-तक मैं अपने लिए सोचना भी नहीं चाहती। आज तुमसे फिर कह रही हूँ, रिक्वेस्ट कर रही हूँ, मेरे लिए अपना जीवन, समय बर्बाद नहीं करो। अपनी शादी जितनी जल्दी हो, किसी अच्छी-सी लड़की से कर लो, और मुझे भूल जाओ। नहीं भुला सकते, तो ऐसे ही एक मित्र की तरह मैं तुम्हारा स्वागत करती रहूँगी। ज़रूरी नहीं कि शादी करके ही रिश्ता जिया जा सकता है।’

यह कह कर वह कुछ क्षण पता नहीं क्या सोच कर फिर बोली, ‘बल्कि मैं यह कहूँगी कि शादी के बाद मुझसे तुम सारे सम्बन्ध तोड़ लो, मुझसे कभी नहीं मिलो। क्योंकि मुझे डर है कि इससे तुम्हारी पर्सनल लाइफ़ निश्चित ही डिस्टर्ब हो सकती है।’

इसके बाद रजनी ने मुझसे बातचीत या मेरे साथ समय बिताने को लेकर आना-कानी शुरू कर दी। बात करती भी तो यही कि शादी कर लो। उसने अति तब कर दी, जब अपने ऑफ़िस की एक लड़की की फोटो मोबाइल पर भेजकर पूछा यह कैसी है? सुंदर थी तो मैंने कह दिया कि ‘सुंदर है।’ तो वह तुरंत बोली, “मैं इससे कहती हूँ कि अपने पेरेंट्स को शादी की बात करने के लिए तुम्हारे पेरेंट्स के पास भेजे।”

इतना ही नहीं उसने यह भी बताया कि मेरी फोटो वह उस लड़की को भी दिखा चुकी है। लड़की ने पसंद भी कर ली है। उसके इस काम से मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। मैंने फोन काट दिया। उसने कई बार कॉल की, लेकिन मैंने रिसीव नहीं किया, तो उसने मैसेज भेजा, “सॉरी यार, बात करो प्लीज़। तुम मुझे और मेरी स्थिति को समझो पहले। मैं रिश्ता ख़त्म कहाँ कर रही हूँ।”

मैसेज के कुछ ही देर बाद उसने फिर कॉल की, लेकिन मैंने रिसीव नहीं किया और न ही मैसेज का कोई जवाब दिया तो, दो दिन बाद ही उसने अपनी एक फोटो भेजी। जिसमें वह हाथ जोड़े रो रही थी। उसे देखते ही मेरे मन में आया कि तुरंत ही उसके पास पहुँच जाऊँ। 

लेकिन ग़ुस्से के कारण मैसेज भेज दिया कि ‘इमोशनल ब्लैक-मेल मत करो। जब तुम्हारी दृष्टि में किसी के इमोशंस का कोई महत्त्व नहीं है, तो ऐसे भावना-रहित रिश्ते को ढोते रहने के पक्ष में मैं नहीं हूँ।’ मैंने यह मैसेज रात को भेजा था, और वह अगले ही दिन पाँच मिनट के लिए सुबह-सुबह ऑफ़िस आ गई। और अक़्सर जहाँ हम साथ समय बिताया करते थे, मुझे शाम को चार बजे वहाँ पहुँचने के लिए कह कर तुरंत चली गई। 

उसे इतना दृढ़ आत्म-विश्वास था कि यह भी जानने की प्रतीक्षा नहीं की, कि मैं वहाँ पहुँचूँगा या नहीं। जबकि वह स्थान मेरे एक दोस्त का ख़ाली मकान था। जिसकी एक चाबी मेरे पास रहती थी। मित्र अच्छी तरह जानता था कि मैं उसके मकान का क्या प्रयोग करता हूँ। 

टाइम से वहाँ पहुँचने के लिए मैं ख़ुद को रोक नहीं सका। क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता था कि वह बात की पक्की है। मैं नहीं पहुँचा तो वह गेट के बाहर ही खड़ी रहेगी। मेरा अनुमान सही था, मैं निर्धारित समय से दस मिनट ही देर से पहुँचा तो वह सच में गेट के बाहर ही खड़ी हुई मिली। 

उसके चेहरे पर प्यार और ग़ुस्से भरे भाव आ–जा रहे थे। हमेशा की तरह हम किसी उत्साह के साथ नहीं मिले। एक दूसरे के लिए जैसे बोझ हैं, इस तरह सामने आ गए। अंदर पहुँच कर मैंने चाभी सामने अलमारी पर रखी, और सोफ़े पर बैठ गया। वह सामने दीवान पर बैठ गई। और कोई समय होता तो, वह अंदर पहुँचते ही गले से लिपट जाती। 

हम क़रीब चार घंटे वहाँ रहे, वह मुझे इस बात के लिए सहमत कराने में सफल हो गई कि मैं किसी दूसरी लड़की से शादी कर लूँ। इन चार घंटों में उसकी आँखों से कई बार आँसू टपके। अब बहनों से ज़्यादा वह अपने भाई के बच्चों के भविष्य को लेकर परेशान थी। उसने कहा कि इन बच्चों के भविष्य को सुरक्षित किए बिना वह अब अपने बारे में सोचना भी नहीं चाहती। 

हमारी उसकी शिखर वार्ता के क़रीब चार महीने बाद, जब मेरी शादी होनी सुनिश्चित हुई, तब मैं शादी का निमंत्रण-पत्र देने स्वयं गया था, वह मिली नहीं थी। मैंने निमंत्रण-पत्र में तीनों बहनों का नाम डाल दिया था। मुझे रजनी के सिवा किसी और के आने की कोई आशा नहीं थी, लेकिन तीनों बहनें आईं। तीनों ही बेहद महँगी डिज़ाइनर साड़ियाँ पहन कर आई थीं। 

वे सौंदर्य देवी लग रही थीं। मुस्कुराती हुई एक साथ मेरी तरफ़ चली आ रही थीं। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि इन बहनों जैसा प्रगाढ़ प्यार अन्य बहनों में मिलेगा ही नहीं। मुझे चंद सेकेण्ड को ऐसा आभास हुआ जैसे कि आगे-आगे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ गुरु जी भी चले आ रहे हैं। 

तीनों ने आकर मुझे, मिसेज को बधाई दी। फोटो खिंचवाई। बुके और गिफ़्ट देकर स्टेज से नीचे उतर गईं। मेरे दोनों छोटे भाइयों ने उनका स्वागत किया, उन्हें खाने-पीने की टेबल तक लेकर गए। मैं भाइयों को भी लेकर गुरु जी के पास कई बार जा चुका था। सभी पूरे परिवार से परिचित थे। स्टेज से नीचे उतरते समय रजनी ने मेरे कान में धीरे से कहा, “अब मुझे भूलकर हमेशा ख़ुश रहना।” उसकी बात पर मैंने मुस्कुराने का प्रयास किया कि पत्नी कहीं कुछ और न समझ ले। वह कहते हैं न कि चोर की दाढ़ी में तिनका। 

पत्नी हमारी तरफ़ ही देख रही थी। मैं मुस्कुराया ज़रूर, लेकिन मन में गहरी पीड़ा थी। मन ही मन बोला, रजनी तुम्हें भुला ही तो नहीं पाऊँगा। यही हुआ एक-दो महीना करते-करते दो-तीन साल बीत गए। लेकिन मेरे मन में रजनी रजनी और रजनी चलता ही रहा। 

दूसरी तरफ़ वह पूरी कठोरता के साथ मुझ से गैप बढ़ाती चली जा रही थी। अब वह ऑफ़िस टाइम के अलावा अन्य किसी भी समय फोन नहीं करती। बातें भी हल्की-फुल्की, हाल-चाल लेने के अलावा और कुछ नहीं। ऑफ़िस टाइम के अलावा अन्य किसी समय की गई, मेरी कॉल को वो रिसीव ही नहीं करती। 

एक मिनट को भी कहीं साथ जाने को तैयार ही नहीं होती। वह जितना ही मुझसे दूर जाने की कोशिश करती, मेरा मन उतना ही उसके समीप होता जाता। मेरा मन कहीं और रहता है, पत्नी की आँखों में ऐसा संदेह मुझे अक़्सर दिखने लगा। हालाँकि अपना संदेह उसने कभी व्यक्त नहीं किया। 

एक दिन अचानक ही रात तीन बजे रजनी का फोन आया। मैं उसका नाम देखते ही घबराया कि बहनों के बीच और कोई बहुत बड़ा विवाद हो गया है, वरना इतने साल के बाद, इतनी रात को फोन नहीं करती। इन सालों में उसने मुझसे इतना ज़्यादा गैप बढ़ा लिया था कि उसके बाद तो प्रश्न ही नहीं उठता था। कॉल रिसीव करते ही वह रोती हुई बोली, “हो सके तो तुरंत आ जाओ।”

कारण पूछने पर बोली, “फोन पर नहीं बता सकती, जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी आ जाओ।”
अब-तक पत्नी भी उठ कर बैठ गई थी। मोबाइल की रिंग से उसकी नींद टूट गई थी। दरअसल हम-दोनों कुछ देर पहले ही सोए थे। उसे नहीं मालूम था कि फोन किसका था। मैंने उससे कहा, “तुम सो जाओ। एक मित्र के साथ कुछ परेशानी हो गई है। इसी समय उसके पास जाना है।”

उसने तुरंत ही कहा, “ऐसी भी क्या बात है, जो इतनी रात को जाना है। सुबह हो जाए तब चले जाइयेगा।”

वह एकदम पीछे ही पड़ गई तो, मैंने कपड़े पहनते हुए रजनी के बारे में बताया और चल दिया। वहाँ पहुँचते ही मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। जिस बात की आशंका गुरु जी बरसों पहले जता चुके थे, वही हुआ था। अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए दूसरी लड़की, सत्ता के गलियारे में शतरंज की जिस बिसात पर खेल रही थी, उसमें बुरी तरह पिट जाने को बर्दाश्त नहीं कर सकी, और हताशा में अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। 

रजनी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, बस रोए चली जा रही थी। छोटी वाली भी हतप्रभ थी। मैंने सोचा पुलिस को इन्फ़ॉर्म करने का मतलब है, पोस्टमार्टम, दुनिया भर की बातें। मीडिया में चर्चा गुरु जी के नाम पर और काली स्याही उड़ेलेगी। 

आख़िर दुनिया ने यही जाना कि हार्ट-अटैक ने एक और जीवन असमय ही छीन लिया। भाई ने बहनों से अपने छत्तीस के आँकड़े को मेंटेन रखा। दूसरे दिन आया, पित्र-शोक की तरह बहन का शोक मनाया। हाँ उसकी पत्नी से जितना हो सका उसने किया। 

अंतिम संस्कार ख़त्म होते ही भाई चला गया। उसे यहाँ अपनी आज़ादी नहीं मिल रही थी। इसके बाद साल भर भी नहीं बीता कि रजनी ने अपनी तीनों भतीजियों और भतीजे को अपने पास बुला लिया। क्योंकि बोर्डिंग में एक भतीजी की शिकायतें मिलने लगी थीं। 

घर में सन्नाटे की जगह हलचल थी। और रजनी इस हलचल में शान्ति महसूस करती। अब हम-दोनों फोन पर भी कभी-कभार हाल-चाल ले लिया करते थे। इस बीच रजनी की सबसे छोटी बहन ने अपने कामों से उसको इतनी तकलीफ़ दी, इतना परेशान किया कि दो बार पुलिस तक आ गई। 

वह जिसके के साथ रिलेशन में थी, उसके बहकावे में आकर कहने लगी कि ‘मकान बेचो, मेरे हिस्से का पैसा मुझे दो, मैं कहीं और रहूँगी।’ आख़िर मैंने अपने संपर्कों के ज़रिए एक रास्ता निकाला। उससे कहा गया कि एक फ़्लोर तुम्हारा रिज़र्व रहेगा, चाहो तो तुम उसमें अपना ताला डाल दो। ज्वाइंट प्रॉपर्टी सभी के तैयार होने पर ही बिकेगी। पुलिस से दबाव डलवा कर उसे इस बात को मानने के लिए तैयार किया। 

जिसकी शह पर वह उत्पात कर रही थी, मैंने उन्हीं को ज़्यादा शह दी, मतलब कि किसी दबंग से उसे बहुत टाइट करवा दिया। फिर वह उसी के साथ गौतम बुद्ध नगर चली गई। पाँच-छह महीने में कभी-कभार आती है, दो-तीन घंटे रुक कर फिर चली जाती है। वह जहाँ भी रहे, शान्ति से रहे, इसलिए रजनी ने फ़ैमिली पेंशन पूरी की पूरी उसी को दे दी। अब घर में लड़ाई-झगड़ा ख़त्म हो गया। 

लेकिन मेरे मन में रजनी को लेकर जो भावना थी वह नहीं बदली। बीच में दस-बारह साल जो बात-चीत महीने दो महीने में होती थी, वह फिर से ज़्यादा होने लगी। रजनी के बच्चे अब बड़े हो चुके थे। वह अपनी भतीजियों, भतीजे को अपने बच्चे ही कहती थी। यह सही भी था, वह उन्हें सगी माँ की तरह ही पाल रही थी। 
जल्दी ही दोनों बड़ी बच्चियों ने पढ़ाई पूरी की और एक बड़े संस्थान में नौकरी भी करने लगीं। अपनी बुआ के काम को हल्का करते हुए, उन दोनों ने अपने लिए जीवन साथी भी ढूँढ़ लिए, तो बुआ ने बिना देर किए ज़रूरी बातों की जाँच-पड़ताल करके, बहुत शानदार ढंग से दोनों की शादी करवा दी। 

शादी के लिए पर्याप्त पैसे तो माँ के पास थे ही, लेकिन बुआ ने अपने पास से भी ख़ूब ख़र्च किए। पिता ने बेटी की शादियों का उत्सव ख़ूब मनाया। इतना कि दोनों बेटियाँ एक साथ विदा हो गईं, और वह दो दिन बाद वीडियो देख कर जान समझ पाया कि बेटियों की विदाई हो गई है। 

यह समझते ही पत्नी के साथ कई घंटे तक बहुत झगड़ा किया, कि तुमने मुझे अपमानित करने के लिए नहीं उठाया। सभी निश्चिंत थे कि यह तमाशा कुछ ही देर का है, फिर यह अपने अपमानित होने की पीड़ा को दूर करने के लिए ख़ूब पियेगा, पीकर सो जाएगा। और हुआ भी यही। 

दस दिन बाद जब जालौन गया तब भी शान्ति थी। जाते समय उसकी पत्नी ने रजनी के पैर छू-छू कर उसके प्रति आभार जताया। कहा, ‘दीदी सच में तुम मेरे लिए जीती-जागती देवी हो। मैं सोच-सोच कर परेशान होती थी, कि इनका यह हाल है, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, इनकी शादी कैसे होगी। तुमने माँ-बाप से भी बढ़कर इतना सारा काम पूरा कर दिया, सच कहूँ तो इनकी वास्तविक माँ और बाप भी तुम ही हो। अब दोनों छोटों की इतनी चिंता नहीं है।’

रजनी ने समझाया, “भाभी देवी वग़ैरह कुछ नहीं। भगवान जैसा चाहता रहा, वैसा होता रहा। दोनों छोटों की भी बिलकुल चिंता नहीं करिए, जल्दी ही उनकी भी हो जाएगी। रजनी ने अपनी यह बात अगले चार साल में पूरी भी कर दी। इन दोनों बच्चों ने भी अपनी बड़ी बहनों की तरह बुआ के काम को हल्का कर दिया था। 

इन बच्चों के साथ ही घर की जीवंतता, चहल-पहल भी पूरी तरह चली गई। ख़त्म हो गई। हमेशा के लिए। इसके बाद रजनी का ऑफ़िस से घर जाते समय जी घबराता। मैं उससे हर बार कहता कि मैं तुम्हें ऐसी हर घबराहट से हमेशा के लिए मुक्त करना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि तुम और मैं भी दुनिया के और बहुत से लोगों की तरह निश्चिंत होकर आराम से रह सकें, निश्चिंतता की साँस ले सकें। तुम्हारे बिना मैं इस स्टेज को पा ही नहीं सकता। क्योंकि मेरा मन हमेशा तुम्हारे ही पास रहता है। 

लेकिन वह हर बार पेइंग-गेस्ट, पटना को बीच में लाकर एक रहस्यमयी वातावरण पैदा कर देती। उसी में मेरी सारी बातों को गहरे डुबो देती। लेकिन इस बार मैंने भी यह तय कर लिया कि आज हर हाल में यह रहस्य जानकर रहूँगा। 

पेइंग-गेस्ट, पटना क्यों हमारे बीच एक पनौती की तरह बना हुआ है। उससे कहूँगा कि अभी तक तो यह बहाना था कि बहनों, बच्चों को देखना है। यह सब तो देख चुकी, बच्चों ने तो बच्चे होकर भी अपनी दुनिया अपने हिसाब से सृजित कर ली। और हम बड़े होकर भी दब्बुओं की तरह, अपने ही हाथों, अपनी सुनहली स्वप्निल दुनिया को क्यों तहस-नहस करते आ रहे हैं। अब तो कहने को भी कोई ज़िम्मेदारी, अड़चन नहीं है, फिर यह अस्वीकार्यता क्यों बनी हुई है? 

बात शुरू करते ही, जैसे पहले रहस्य की तमाम परतों पर परतें बनती जाती थीं, अब तो वह भी नहीं बनतीं। “अब एक ख़ास तरह की निश्चिंतता तुम्हारे चेहरे पर रहती है। तो अब तो सच-सच साफ़-साफ़ बोलो। जब मैं एकदम पीछे ही पड़ गया तो,” वह गहरी साँस लेकर, छोड़ती हुई बोली, “तुमने तो आज मेरे सारे रास्ते इस तरह बंद कर दिए हैं कि मुझे आज . . .

“आज तुम्हें सच बोलना ही पड़ेगा।” 

मैं बीच में ही बोल पड़ा तो वह हँस कर बोली, “हाँ, मैं भी सोच रही हूँ कि आज कह दूँ वह सब जो तुम तीस-बत्तीस साल से सुनने के लिए व्याकुल हो। मैं तुम्हारे धैर्य को प्रणाम करती हूँ कि इतने बरस बीत गए, लेकिन तुमने कहने को भी पलक झपकने भर को भी अपना धैर्य नहीं खोया। इतने धैर्य तन-मन हृदय से मोक्ष पाने के लिया ईश्वर की तपस्या करते तो कब का ईश्वर तुम्हें मोक्ष प्रदान कर चुका होता . . . ”

मैंने उसे फिर रोकते हुए कहा, “एक मिनट, एक मिनट, ईश्वर के पास जाने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, मैंने सपने में भी मोक्ष के बारे में कभी नहीं सोचा, मेरा ईश्वर, मेरी मोक्ष तुम्हीं हो और आज मुझे मोक्ष चाहिए ही चाहिए, आज तुम्हें देना ही होगा, तुम्हारे पास अब इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है, समझी।”

मैंने पूरा ज़ोर देकर मन की यह बात कही तो, वह हल्की मुस्कुराहट लिए अपलक ही कुछ क्षण मुझे देखने के बाद बोली, “इसे अपना दुर्भाग्य या क्या कहूँ कि उचित समय पर मैं तुम्हारी भावनाओं, इच्छाओं का सटीक आकलन नहीं कर सकी। और तुम्हारा भी फ़ेल्योर है कि तुम यह करवा नहीं सके। 

“सच कहूँ कि शुरू में मैं यही सोचती थी कि फिजिकल रिलेशनशिप के गहन आकर्षण के प्रभाव के चलते तुम मुझसे इतनी प्रगाढ़ता के साथ जुड़े हुए हो। जब तुम्हारी शादी हो गई, तो सोचा बस अब तुम्हारा मुझसे जुड़ाव का अध्याय समाप्त हो गया, सब-कुछ हमेशा के लिए ख़त्म। 

“लेकिन मेरे सारे अनुमानों को झुठलाते हुए, तुमने मुझसे जुड़ाव के अध्याय को अल्प-विराम तक नहीं दिया। जब पिता बन गए तो सोचा कि अब तुम बच्चे की किलकारियों, परिवार के झमेलों में सब भूल जाओगे। लेकिन देख रही हूँ कि तुम्हारे ऊपर बच्चे की किलकारियों या अब उसकी किशोरावस्था की ऊँचाई या फिर परिवार के झमेले, किसी भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। 

“जैसे ऋषि-मुनि ईश्वर दर्शन के लिए बिना डिगे अनवरत तपस्यारत रहते हैं, वैसे ही बत्तीस-तैंतीस वर्षों से तुम तपस्यारत हो। तुम्हारी इस युगों सी लम्बी तपस्या के सामने मैं आज समर्पण कर रही हूँ। 

“पेइंग-गेस्ट, पटना में तुम्हारे साथ जो समय जिया था, वह हमारे जीवन में बड़ा परिवर्तन लाने जा रहा था, लेकिन वहाँ एक और बात हुई थी, जो तुम नहीं जानते, और वही एक बात कुछ ऐसी काँटे सी चुभ गई हृदय में कि इतने बरस से मैं हाँ, ना के बीच भटक रही हूँ। 

“न मैं तुमसे विवाह कर सकी, न किसी और से। जब किसी और से सोचती तो मन में आता कि अरे यह तो तुम्हारे साथ विश्वासघात होगा, ख़ुद के साथ भी और जिससे शादी करूँगी उसके साथ भी। क्योंकि तन भले ही उसके पास होगा, लेकिन मन तो हमेशा ही की तरह तुम्हारे पास ही पड़ा रहेगा।”

रजनी चेहरे पर बड़े गंभीर भावों को लिए हुए बोल रही थी, मैंने उसी समय उसे टोकते हुए कहा, “सुनो-सुनो, पटना में मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहा, फिर ऐसा, कब क्या हुआ, कि मुझे आज-तक पता नहीं, और तुम बराबर छिपाए हुए हो।”

“घबराओ नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि तुम परेशान हो। कभी-कभी कोई छोटी सी बात भी जीवन-भर पीछा नहीं छोड़ती। नुकीली फाँस की तरह हृदय में चुभती, पीड़ा देती रहती है। तुम अभी तक यही समझ रहे हो कि हमने पेइंग-गेस्ट में जैसा, जो समय जिया था, वह कोई नहीं जानता। लेकिन ऐसा नहीं है। धारणी दूसरे ही दिन सब कुछ जान गई थी। उसने हम-दोनों को एक ही बेड पर देख लिया था।”

“यह क्या कह रही हो तुम?” 

“सच कह रही हूँ मैं। हम-दोनों आँगन की तरफ़ का दरवाज़ा बंद करके निश्चिंत हो जाते थे कि अब नीचे से कोई ऊपर नहीं आ पाएगा, लेकिन छज्जे पर एकदम किनारे बने दरवाज़े पर हमारा ध्यान ही नहीं गया था, जो ऊपर छत पर जाने के लिए बने जीने का था। 

आँगन वाले जीने से छत पर जाकर, वहाँ से छज्जे पर भी आया जा सकता था। उस दिन धारणी किसी काम से छत पर गई थी। फिर जीने से छज्जे पर आ गई। हमने छज्जे वाले दरवाज़े में तो कुंडी लगाई नहीं थी। उसने हम-दोनों को एक ही बेड पर देख लिया था। उस समय हमें टोकने के बजाए वह वापस चली गई। 

फिर दोपहर में एकदम बड़ी बहन की तरह समझाने लगी कि ‘शादी से पहले यह सब अच्छा नहीं होता, कोई ऊँच–नीच हो गई तो ज़िन्दगी ख़राब हो जाएगी।’ उसने तमाम बातें कहीं। यह भी कहा कि ‘मैंने भी प्रेम-विवाह किया है। लेकिन शादी के पहले कभी सम्बन्ध नहीं बनाए। यही सोचा कि चलो अपने मन का किया कि प्रेम कर लिया। लेकिन माँ-बाप का भी कोई अधिकार है। 

अपनी लड़की की शादी करने की उनकी भी इच्छा होती है, तो उनका मन तोड़कर, उन्हें दुख देने का क्या मतलब। उनको दुख देंगे तो ज़िन्दगी भर परेशान हम भी रहेंगे।’ उसने ऐसी-ऐसी बातें कहीं कि मैं आज-तक भूल नहीं पाई हूँ। 

“आख़िर में वह बड़े अपनत्व, प्यार से बोली, ‘तुम घबराओ नहीं, मैं किसी को कुछ भी पता नहीं चलने दूँगी। जीने का दरवाज़ा बंद ही रखा करो। सोचो कहीं बाबूजी को पता चल गया होता तो, कितनी बड़ी आफ़त आ जाती।’ वहाँ से आने के बाद में दसियों साल तक, फोन करके हाल-चाल लेने के बहाने उसका मूड समझने का प्रयास करती रहती थी कि कहीं वह लोगों को बता न दे। 

“लेकिन वह अपने नाम के ही अनुरूप वाक़ई बहुत भली महिला थी। हम-लोगों के आने के पाँच-छह साल बाद ही कुछ ही महीनों के अंतराल पर चाचा-चाची दोनों का ही स्वर्गवास हो गया था। उनके न रहने पर बच्चों ने कुछ ही सालों बाद मकान बेच दिया। 

“धारिणी अपने बच्चों के साथ कहीं और चली गई। लेकिन उसकी बातें मेरे साथ आज भी बनी हुई हैं। मैं यही सोचती कि पापा को पता चला तो, वह यही सोचेंगे, यही कहेंगे कि ‘तुम पर मैंने सबसे ज़्यादा विश्वास किया और तुमने ही मेरे साथ सबसे बड़ा विश्वासघात किया।’ कैसे बर्दाश्त करेंगे यह आघात। 

“जब तुम शादी के लिए प्रेशर डालते, तो सोचती कि पापा यह सुनते ही कहेंगे, ‘तुम्हें कहीं जाने-आने की छूट दी तो, तुम प्रेमालाप में पड़ गई।’ यह सोचकर मैं और परेशान हो जाती कि हमारी सच्चाई जानते ही पापा तुम्हें भी पीठ में छूरा भोंकने वाला विश्वासघाती कहकर सम्बन्ध ख़त्म कर देंगे। वह तुम्हें इतना चाहते थे कि मुझसे ज़्यादा शॉक उन्हें तुमसे लगता। 

“घर की तमाम स्थितियों और आत्म-ग्लानि से भरी ऐसी ज़िन्दगी जिए मैं चली आ रही थी। मेरी ऐसी मनःस्थिति बन गई थी कि शादी की बात सोचते ही मेरे पैर काँपने लगते थे। लगता जैसे हार्ट फ़ेल हो जाएगा। अभी कुछ साल पहले तक भी यही स्थिति थी। मेरी तबीयत ख़राब रहने लगी। जल्दी-जल्दी कई बार बीमार पड़ी, तभी एक डॉक्टर ने साइकियाट्रिस्ट के पास भेज दिया। वहाँ लंबे ट्रीटमेंट के बाद मैं ठीक हुई।”

यह सारी बातें सुनकर में बहुत परेशान हुआ। मैंने कहा, “मैं अब-तक इसी भ्रम में जीता रहा कि तुम बिल्कुल गुरु जी की तरह मुझसे सारी बातें शेयर करती हो। ख़ैर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है, तो अब शादी को लेकर तुम्हारा उत्तर क्या है?” 

“अब भी मुझे एक बात बहुत परेशान करती है।”

“अब ऐसी कौन सी बात है?” 

“मैं सोचती हूँ कि मेरे ऐसा करने पर तुम्हारी पत्नी क्या सोचेंगी? क्या बीतेगी उन पर, इस उम्र में कैसे बर्दाश्त करेंगी यह सब। एक औरत होने के नाते, उनको इससे होने वाली पीड़ा को मैं तुमसे ज़्यादा अच्छी तरह समझ सकती हूँ। 

“तुम्हारा बेटा इतना बड़ा हो गया है, वह क्या सोचेगा तुम्हारे, मेरे बारे में? हँस भी सकता है कि मेरे फ़ादर साठ साल से पहले ही सठिया कर, मेरी शादी की उम्र में अपनी शादी कर रहे हैं। एक तो वह टपर-टपर बोलता भी बहुत ही ज़्यादा है। अपनी उम्र से कुछ ज़्यादा ही क्वेश्चन करता है। जान-बूझकर पूछेगा, ‘आपको अपनी बुआ कहूँ या मम्मी’, सोचो तुम्हारे भाई-बहन क्या कहेंगे।”

“क्या यार, तुमने तो फिर ‘क्या’ की झड़ी लगा दी है। मैं कहता हूँ कि कोई कुछ भी नहीं कहेगा। अपने परिवार को, बेटे को तुमसे ज़्यादा अच्छी तरह जानता समझता हूँ। पत्नी को मैं बहुत अच्छी तरह से मैनेज कर लूँगा। पहली बात तो यह कि हम शादी का ढिंढोरा पीटेंगे ही क्यों? 

“पत्नी के बारे में सब जानोगी तो तुम बहुत आश्चर्य में पड़ जाओगी। मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि तीस-बत्तीस साल की हमारी सारी बातें जानने के बाद वह स्वयं ही तुम्हें एक बहन की तरह स्वीकार कर लेगी। कोई आपत्ति नहीं करेगी। इसलिए तुम अपनी बात बताओ, प्लीज़ साफ़-साफ़ बोलो न।”

रजनी बेड पर मेरे सामने ही बैठी थी, मैंने दोनों हाथों से उसके कंधों को पकड़ कर हल्के से हिलाते हुए पूछा, तो वह कुछ देर तक बहुत ही भरी-भरी आँखों से मुझे देखती रही। आँखें इतनी भरी थीं कि आँसू बस गिरने-गिरने को थे। 

फिर अचानक ही वह मुझसे लिपटती हुई बोली, “तुम्हारी बत्तीस साल की तपस्या पूरी हुई, और मैं अपनी प्रतिज्ञा तोड़ती हूँ। तुम जीत गए, मैं हार गई। अब से मैं तुम्हारी पत्नी हूँ।”

यह सुनते ही मैंने उसे पूरी ताक़त से जकड़ते हुए कहा, “ओह रजनी, रजनी, बत्तीस साल के प्रयास, प्रतीक्षा के बाद तुमने पत्नी बनना स्वीकारा, सुनकर मुझे कितनी ख़ुशी हो रही है, कैसा महसूस कर रहा हूँ, मैं बता नहीं सकता। मेरे पास ऐसे शब्द ही नहीं हैं कि मैं बता सकूँ।”

अगले दिन जब हम-दोनों उस घर से बाहर निकले, किसी भी बात की परवाह किए बिना पति-पत्नी की तरह ही निकले। गाड़ी स्टार्ट करते समय जहाँ मन में अथाह ख़ुशी थी, उससे भी बड़ा विराट प्रश्न भी था कि जिसे सात फेरे लेकर सात जन्म तक साथ निभाने का वचन देकर, पत्नी बनाकर ले आया, यह उसके साथ विश्वासघात तो नहीं है। उसके और बेटे के अधिकारों के साथ छल तो नहीं है। यदि यह छल-कपट है, तो इसे कैसे सुधार सकता हूँ। 

और अधिकार तो रजनी के भी हैं, इसके साथ सात फेरे भले ही नहीं लिए थे, भले ही वचन नहीं दिए थे लेकिन . . .। जैसे भी हो मुझे वह समाधान निकालना ही पड़ेगा जिससे यह तीनों ही ख़ुश रहें, कोई अपने को छला, ठगा हुआ महसूस न करे। 

ऐसा कौन सा समाधान हो सकता है, यह सब सोचते हुए जब मैंने रजनी के चेहरे पर दृष्टि डाली तो मुझे वहाँ भी बहुत सारे प्रश्न दिखाई दिए, मैंने तभी सोचा कि बत्तीस साल बाद मिली ख़ुशी का पहले उत्सव मनाते हैं, उसके बाद ढूँढ़ेंगे समाधान, तब आसानी होगी। यह सोचकर मैं उत्सव मनाने के लिए रजनी को साथ लिए चल दिया। 
 

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