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दो बूँद आँसू

 

सकीना यह समझते ही पसीना-पसीना हो गई कि वह काफ़िरों के वृद्धाश्रम जैसी किसी जगह पर है। ओम जय जगदीश हरे . . . आरती की आवाज़ उसके कानों में पड़ रही थी। उसने अपने दोनों हाथ उठाए कानों को बंद करने के लिए लेकिन फिर ठहर गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि आख़िर वो यहाँ कैसे आ गई। 

उसकी नज़र सामने दीवार पर लगी घड़ी पर गई, जिसमें सात बज रहे थे। खिड़कियों और रोशनदानों से आती रोशनी से वह समझ गई कि सुबह के सात बज रहे हैं। वह बड़े अचरज से उस बड़े से हॉल में दूर-दूर तक पड़े बिस्तरों को देख रही थी जो ख़ाली थे, जिनके बिस्तर बहुत क़रीने से मोड़ कर रखे हुए थे। मतलब वहाँ सोने वाले सभी उठ कर जा चुके थे। 

इसी बीच आरती पूर्ण होने के बाद समवेत स्वरों में, “ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ श्लोक बोला जा रहा था। 

उसके हाथ एक बार फिर अपने कानों को बंद करने के लिए उठे, लेकिन बीच में ही फिर ठहर गए। वह बड़ी उलझन में पड़ गई कि कैसे यहाँ पहुँच गई। उसे कुछ-कुछ याद आ रहा था कि वह तो अपने सबसे छोटे बेटे जुनैद के साथ डॉक्टर के यहाँ दवा लेने के लिए निकली थी और उस समय शाम भी ठीक से नहीं हो पाई थी। 
धीरे-धीरे उसे एक-एक बात याद आने लगी कि डॉक्टर के यहाँ से दवा लेने के बाद जुनैद कार स्टार्ट करते हुए बोला था, ‘अम्मी तुम्हारी तबियत रोज़-रोज़ ख़राब हो जाती है, आज तुझे बाबा की मज़ार पर ले चलता हूँ। वहाँ बहुत लोग अपनी मन्नतें माँगने जाते हैं। तुम्हें दवा और दुआ दोनों की ज़रूरत है।‘तो उसने कहा था, ‘अभी मैं नहीं चल पाऊँगी, मुझसे बैठा भी नहीं जा रहा है। जब बुख़ार ठीक हो जाएगा, तब किसी दिन चलूँगी।’

लेकिन वह ज़िद करते हुए बोला था, ‘नहीं अम्मी, परेशान मत हो। दो लाइनें पार करके मज़ार तक पहुँच जाओगी। मैं तुझे स्टेशन के पीछे वाली सड़क से ले चलूँगा। तुम्हारा हाथ पकड़ कर लाइन पार कराऊँगा। देखना तुम वहाँ पहुँचते ही ठीक हो जाओगी।’

उसने फिर मना किया था कि ‘मुझसे बैठा नहीं जा रहा है, तुम पहले घर चलो।’ लेकिन उसने डॉक्टर की दी दवाओं में से एक पुड़िया उसे खिलाते हुए कहा, ‘लो, पहले तुम दवा खाओ। जब-तक हम-लोग मज़ार पर पहुँचेंगे तब-तक तुम्हारा बुख़ार उतर जाएगा। यह डॉक्टर सोलंकी की दवा है। जानती हो सभी कहते हैं कि इनकी दवाई में जादू होता है जादू।’

पुड़िया देख कर उसने कहा था कि ‘ऐसी कोई पुड़िया तो उन्होंने नहीं दी थी। ये क्या है . . .’ 

वह अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाई थी कि उसके पहले ही उसने दवा खिला दी थी। उसके बाद उसे कुछ याद नहीं कि यहाँ कैसे पहुँच गई। जुनैद कहाँ चला गया। 

उसे अभी भी बुख़ार महसूस हो रहा था। बहुत कमज़ोरी लग रही थी। अब-तक पूजा ख़त्म हो चुकी थी। आख़िरी बार शंख बहुत तेज़ बजा था। 

थोड़ी ही देर में उसने महसूस किया कि एक साथ कई लोग हॉल की तरफ़ चले आ रहे हैं। उनकी परस्पर बात-चीत की आवाज़ भी आ रही थी। वह बैठी-बैठी घबराई हुई सी दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी। उसका अनुमान सही था, एक बड़े डील-डौल वाली भगवा वस्त्र पहने साध्वी जैसी दिखने वाली महिला अंदर आई। उनके बेहद गोरे, चमकदार चेहरे पर बड़ा-सा तिलक लगा हुआ था। 

बहुत लम्बे, घने, रेशम से काले बालों को साधुओं की तरह सिर के ठीक ऊपर गोल-गोल लपेटा हुआ था। गले और हाथों की कलाइयों में रुद्राक्ष की बड़ी-बड़ी मोतियों की माला पहनी हुई थी। उनकी आँखों, चेहरे पर ग़ज़ब का तेज़ था। उनके साथ उनके जैसी ही लम्बी डील-डौल वाली भगवा वस्त्र ही पहने चार-पाँच और साध्वियाँ थीं। पूरा हॉल उन सभी की खड़ाउओं की एक लय-बद्ध सी आवाज़ से तब-तक गूँजता रहा जब-तक वह उसके पास आकर खड़ी नहीं हो गईं। 

साध्वी ने उससे बड़ी स्नेहमयी मुस्कुराहट के साथ पूछा, “अब आपका स्वास्थ्य कैसा है?” 

सकीना को कोई जवाब ही नहीं सूझा। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह क्या उत्तर दे। उसकी आँखों में आँसू भर आए। 

यह देख साध्वी ने कहा, “मैं आपकी मनःस्थिति को समझ रही हूँ। बिल्कुल भी परेशान मत होइए। आपकी सेवा-सुश्रुषा का ध्यान रखा जाएगा। आप शीघ्र ही पूर्णतः स्वस्थ हो जाएँगी। निश्चिंत रहिए। हमें अपने बारे में कुछ बताइए। आज जब आश्रम का गेट खोला गया तो आप बाहर चबूतरे पर एक फटा-पुराना कंबल ओढ़े लेटी हुई थीं। आपसे बात करने की कोशिश की गई, आप कौन हैं? कहाँ से आई हैं? लेकिन आप बुरी तरह बुख़ार में तप रही थीं। बोल भी नहीं पा रही थीं, तो हम आपको यहाँ ले आए। 

“डॉक्टर ने चेकअप करके दवा दी। आपको देखकर हमें इस बात का पूरा विश्वास है कि आप भले परिवार से सम्बन्ध रखती होगी। बस हम आपके बारे में इतना ही जानते हैं। हमें अपने घर-परिवार के बारे में बताइए, आपको आपके घर वालों तक पहुँचाने में पूरी सहायता की जाएगी।” 

यह सुनते ही सकीना की आँखों से आँसू झरने लगे। यह देख कर साध्वी ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “शांत हो जाइए, पहले ही आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है।”

साध्वी ने उससे और बात करना उचित नहीं समझा, साथ आए डॉक्टर को संकेत किया कि वह फिर से उसका चेकअप करें। उसका बुख़ार पहले से कम हो गया था, ब्लड-प्रेशर भी थोड़ा-सा ही ज़्यादा था। डॉक्टर ने पहले वाली दवाओं को कॉन्टिन्यू रखने और हल्का-फुल्का खाना-पीना देने के लिए कहा। 

साध्वी ने अपनी सहायिका को सकीना का ध्यान रखने, खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए कहा, और सकीना को सांत्वना देती हुई बोलीं, “नाश्ता करके दवाई ले लीजिए और आराम कीजिए। जल्दी ही पूरी तरह स्वस्थ हो जाएँगी। मैं फिर आपसे बात करूँगी।” यह कहकर चली गईं। 

कुछ ही देर में सकीना के लिए एक सहायिका पूड़ी-सब्ज़ी और खीर ले आई। उस बुख़ार में भी उन्हें देखकर भूख से सकीना की व्याकुलता और बढ़ गई। पिछले क़रीब बीस घंटों से उसने कुछ भी खाया-पिया नहीं था। खाने के बाद उसे बहुत राहत महसूस हुई। वह दवा खा कर लेट गई। सहायिका उसे कंबल ओढ़ा कर चली गई। 

हॉल में वह एकदम अकेली हो गई। सोचने लगी अल्लाह ता'ला उसे यह किस गुनाह की सज़ा दे रहा है। रोज़-रोज़ जो सुनती थी कि औलादों ने दौलत के लिए वालिदैन को मार दिया या कहीं बाहर फेंक दिया, भगा दिया तो क्या मेरी औलादों ने भी मेरे साथ यही किया है। 

वह करवट लेटी हुई थी। आँखों से आँसू निकल-निकल कर तकिये को नम कर रहे थे। उसे याद आ रही थी कल की बीती शाम, बेटा जुनैद, जो उसे दवा दिलाने के बहाने घर से तीन-चार सौ किलोमीटर दूर लाकर सड़क पर फेंक गया। 

वही बेटा जो सम्पत्ति के बँटवारे के समय बड़े लाड़-प्यार से कहता था, ‘अम्मी तू बिलकुल फ़िक्र मत कर, हम चारों में ही बँटवारा हो जाने दे। अपना हिस्सा लगवा कर क्या करेगी। मैं तुझे अपने साथ रखूँगा, तुम्हारी देख-भाल करूँगा।’

और उसकी बेगम ने भी बार-बार ऐसी ही बातें करते हुए मिन्नतें की थी कि ‘अपना अलग हिस्सा लेकर अकेली कैसे रहोगी? तुम ठीक से उठ-बैठ भी नहीं पाती हो। एक मैं ही हूँ, जब से आई हूँ इस घर में, तभी से बराबर तुम्हारी देख-भाल करती आ रही हूँ।’

कितनी बड़ी भूल की मैंने उन सब की बातों पर भरोसा करके। मुझे उन सब की धमकियों से डरने की बजाय उन्हीं ख़ातून की तरह सीधे पुलिस में जाना चाहिए था, जो मकान छीन कर लड़कों द्वारा बाहर निकाल दिए जाने पर सीधे पुलिस थाने गईं। 

पुलिस ने न सिर्फ़ फिर मकान पर क़ाबिज़ कराया, बल्कि लड़कों को पूरी सख़्ती के साथ समझा दिया कि क़ानूनन माँ की देख-भाल करना तुम सबकी ज़िम्मेदारी है। क़ानून का पालन नहीं करोगे तो सज़ा भुगतने के लिए भी तैयार रहो। मिनट भर में सब लाइन में आ गए थे। 

ख़ातून टीवी वालों के सामने कितना बार-बार पुलिस वालों को शुक्रिया कह रही थी। मैं भी पुलिस के पास चलूँ क्या? उन्हें बताऊँ कि मेरी औलादों ने ही मुझ पर किस-किस तरह से, कितने ज़ुल्म किए हैं। मेरी मदद कीजिये, औलादों के ज़ुल्मों-सितम से मुझे भी नजात दिलाइए। 

कमज़र्फ़ औलाद ने दवा के नाम पर न जाने कौन सा ज़हर खिला दिया था कि कार घंटों चलती रही और मुझे होश तक नहीं आया। ग़लती मेरी ही है, बीते दो महीनों से जिस तरह की बातें वह सब कर रहे थे, उन सब के इरादे मेरी समझ में उसी समय क्यों नहीं आए कि यह सब मकान दौलत के बाद अब मुझे घर से बाहर फेंकने की तैयारी कर चुके हैं। 

एक मोबाइल का सहारा था कभी किसी से बात करने का, उसको भी जान-बूझकर बच्चों से पानी में डलवा कर ख़राब करवा दिया था। बच्चे भी इधर बीच कैसी-कैसी ऊट-पटाँग बातें ज़्यादा बोलने लगे थे। माँ-बाप दोनों सुनते रहते थे, लेकिन बच्चों को एक बार भी मना नहीं करते थे कि मुझे ऐसी उल्टी-सीधी बातें कह कर ज़लील नहीं किया करें। मैं उनकी दादी हूँ। 

सकीना के दिमाग़ में एक बार यह बात भी आई कि गाड़ी से चला था, कहीं रास्ते में कोई अनहोनी तो नहीं हुई, किसी ने उसे नुक़्सान पहुँचाया और मुझे यहाँ लाकर फेंक दिया। फिर सोचा कि नहीं, ऐसा कैसे होगा, कोई अगर उसे नुक़्सान पहुँचाता, तो मुझे भी पहुँचाता, मुझे इतनी दूर लाकर फेंकने की ज़हमत क्यों उठाता। कोई अनहोनी होती तो चोट-चपेट मुझे भी तो आती न। 

वह यह सोचकर ही फफक कर रो पड़ी कि उसके शौहर का बनवाया उसका इतना बड़ा घर, लेकिन बाहर सड़क पर किसी ने उसे ग़रीब भिखारी आदि समझकर दया करके उस पर एक कंबल डाल दिया कि रात में ठंड से ठिठुर कर मौत न हो जाए। अल्लाह ता'ला उसका भला करें, उसने कंबल नहीं डाला होता तो अब-तक मैं शायद ही बचती। 

बचती तो मैं शायद तब भी नहीं यदि यह लोग बाहर ठण्ड से बचा कर अंदर न ले आते, दवा-दारू न करते। शुक्र है अल्लाह ता'ला को कि शायद उसी ने मेरी मदद के लिए फ़रिश्ते के रूप में इन्हीं लोगों को भेज दिया। इन्हें भी जितना शुक्रिया कहूँ कम ही है। 

वह रोती रही। उसे इस बात का एहसास नहीं रहा कि उसके रोने की आवाज़ हाल से बाहर भी जा रही है। कुछ ही देर में एक सेविका आकर उसे समझाने-बुझाने लगी। उसने कहा, ‘ईश्वर पर भरोसा रखिए, सब ठीक हो जाएगा।’

वह उसे बहुत समझा-बुझाकर कर, शांत कराकर चली गई। लेकिन वह उसके मस्तिष्क में उठ रहे तूफ़ान को शांत नहीं करा पाई। हालाँकि वह उसकी मनोदशा को बहुत अच्छी तरह समझ रही थी। 

सकीना यह सोचकर भी परेशान हो रही थी कि साध्वी जिन्हें सभी गुरु माँ कह रही हैं, ने फ़ुर्सत में आकर फिर से बात करने के लिए कहा है। ज़ाहिर है वह सारा क़िस्सा जानने की कोशिश करेंगी। उन्हें मैं क्या बताऊँगी? 

इसी समय सकीना के कानों में प्रवचन की आवाज़ पड़ने लगी। उसने आवाज़ तुरंत पहचान ली। गुरु माँ ही प्रवचन दे रही थीं। 

उसे उनकी आवाज़ गुलाब के शरबत सी मीठी और मधुर लग रही थी। उनकी बातों को सुनकर उसे यह अच्छी तरह समझ में आ गया कि वह ‘रामायण’ की ही कोई बात कर रही हैं। 

उसे जल्दी ही याद आ गया तीस-बत्तीस साल पहले टेलीविज़न पर देखा गया ‘रामायण’ सीरियल। आज भी यह सीरियल उसके दिलो-दिमाग़ से पूरी तरह से धूमिल नहीं हुआ है। उसे यह भी याद आया कि यही सबसे छोटा बेटा जुनैद होने वाला था। तबीयत उसकी बहुत ख़राब रहती थी। 

डॉक्टर ने आराम करने के लिए कहा था। ख़ून की बहुत ज़्यादा कमी बताई थी। बहुत नाराज़ होते हुए कहा था, ‘इतनी जल्दी-जल्दी, इतने ज़्यादा बच्चे पैदा करके अपना जीवन क्यों ख़त्म करने पर तुली हुई हो। यह तुम्हारा सातवाँ बच्चा है। शरीर में ख़ून नाम की चीज़ नहीं है, कैसे बचाओगी ख़ुद की और अपने होने वाले बच्चे की जान।’ फिर बग़ल में खड़े शौहर से कहा था, ‘इसके बाद अगला बच्चा करने की सोचने से पहले, यह ध्यान रखिएगा कि अपनी बेगम से निश्चित ही हाथ धो बैठेंगे।’

उनकी इस बात से नाराज़ शौहर ने घर पहुँच कर कहा भी कि ‘तुम तो एक बार भी बोली नहीं। सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही डाल दी, जैसे कि सिर्फ़ मेरे कहने पर ही तुम यह बच्चे पैदा कर रही हो, तुम्हारी तो मर्ज़ी होती नहीं, एक बार भी नहीं बोल पाई कि मेरी भी रज़ामंदी होती है।’

तब उसने कहा था, ‘नाराज़ मत हो, वह हिंदू है, डॉक्टर है। उसे क्या मालूम कि अल्लाह ता'ला की नैमत क्या होती है।’ लेकिन उसी समय दोनों ने डॉक्टर की बात को सही कहते हुए और बच्चे पैदा न करना भी तय किया था। मगर जुनैद के पैदा होने के कुछ महीने बाद ही शौहर और बच्चे पैदा करने पर ज़ोर देने लगा था। 

तब वह ग़ुस्सा होकर मना करती हुई बोली थी, ‘शाहजहाँ ने जैसे चौदह बच्चे पैदा कर-कर के अपनी बेगम मुमताज़ को मार डाला था, फिर हवस पूरी करने के लिए अपनी ही बेटी जहाँआरा से निकाह कर लिया था, क्या अब मुझसे ऊब कर, तुम भी उसी तरह मुझे बच्चे पैदा कर कर के मारना चाहते हो।’

उस समय उसके मुँह से यह बात कई दिन से तकलीफ़ों से परेशान होने के कारण निकल गई थी। जो उसने कुछ ही दिन पहले किसी से सुना था। दोनों में कई दिन तक बड़ी बहसबाज़ी हुई थी, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई थी। तब जाकर बच्चों की गिनती सात पर रुक पाई थी। 

उस समय यह सीरियल इतना प्रसिद्धि पा चुका था कि इतवार के दिन जब यह सुबह-सुबह आता था तो सड़कों पर मानो कर्फ़्यू सा लग जाता था। एक घंटे तक हर तरफ़ सन्नाटा ही सन्नाटा पसरा रहता था। जिसके घर में टेलीविज़न होता था, उसका घर पड़ोसियों से खचाखच भर जाता था। क्योंकि तब कुछ ही लोगों के पास टेलीविज़न हुआ करता था। 

उसके बड़े वाले बच्चे भी मोहल्ले में दस-बारह घर छोड़कर विश्वकर्मा जी के घर देखने जाते थे। जो मोहल्ले का सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा परिवार था। उसका भी मन यह सीरियल देखने के लिए बहुत मचलता था, कि ऐसा क्या है कि पूरी दुनिया ही देखने के लिए टूट पड़ती है। 

तब उसने एक तरह से ज़िद कर ली थी शौहर से टीवी लाने के लिए कि बच्चे दूसरे के यहाँ जाकर देखते हैं, अब एक टीवी जैसे भी हो ले ही लो। तब पैसों की तंगी के चलते वह किश्तों पर टीवी ले आए थे। जिस दिन आया था, उस दिन घर में जश्न जैसा माहौल बन गया था। 

उसे याद आ रहा था कि पैसों की तंगी से पार पाने के लिए शौहर ने ऐसे काम भी किए जिसके चलते कई बार जेल भी गए। जान का ख़तरा अलग बना रहता था। पैसा कमाने के लिए वह यह ख़तरा बराबर उठाते भी रहे। और पैसा कमाया भी ख़ूब। 

लेकिन अब यह सब किस काम का। घर के कूड़े की तरह मैं सड़क पर फेंक दी गई। जब पैसे आए तो उनके खाने-पीने के शौक़ भी बदल गए और आख़िर जानलेवा साबित हुए। अल्लाह ता'ला की बड़ी रहमत हुई कि इंतकाल से पहले वह तीनों लड़कियों का निकाह कर गए थे। नहीं तो इन लड़कों के जो काम धंधे, मिज़ाज़ हैं, ये लड़िकयों का निकाह नहीं, उन्हें बेच ज़रूर डालते। या फिर शाहजहाँ बन जाते। 

सकीना को बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था चारों लड़कों पर कि जाहिलों ने ऐसे-ऐसे काम किए, आए दिन इतने झगड़े-फ़साद किए कि लड़कियों, दामादों, सारे रिश्तेदारों ने रिश्ते ही ख़त्म कर लिए। 

उसे बड़ी याद आ रही थी अपनी लड़कियों की। उसका मन उनसे बात करने के लिए तड़प रहा था। सालों बीत गए थे उन सब को देखे हुए, उनसे बात किए हुए। मोबाइल पर जो कभी-कभार बात कर लिया करती थी, वह भी उन सब को बर्दाश्त नहीं होता था, बड़ी चालाकी से इन सब के नंबर ही मोबाइल से मिटा दिए थे। 

वह सोच रही थी कि अब पता नहीं ज़िन्दगी में कभी उन सब को देख भी पाऊँगी, कभी उनकी आवाज़ भी सुन पाऊँगी, नातियों, पोतियों को देख पाऊँगी। घर पर होती तो कभी कोई रास्ता निकालती, उन सब को बुलाती या किसी तरह ख़ुद ही चली जाती। मगर इन नामुरादों ने तो घर ही से निकाल फेंका है। 

उसके कानों में साध्वी गुरु माँ के प्रवचन के शब्द बराबर पड़ रहे थे। वह महाराजा दशरथ के पुत्र भगवान राम के वन-गमन का वाक़या बता रही थीं। कि किस प्रकार महाराजा दशरथ ने अपनी रानी कैकेयी को कभी दिए गए अपने एक वचन को पूरा करने के लिए अपने प्राण प्रिय बड़े पुत्र भगवान राम को चौदह वर्षों का वनवास देने का निर्णय सुनाया। 

और परम मातृ-पितृ भक्त भगवान राम, पिता अपना वचन पूरा कर सकें, इस हेतु वन जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। एक-दूसरे को अगाध प्यार करने वाले भाइयों में से उनके एक छोटे भाई भरत ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, मगर उन्होंने पिता का वचन पूरा हो इसलिए इनकार कर दिया और अपनी धर्म-पत्नी सीता के साथ वन की ओर चल दिए। भरत ने लाख प्रयास किए, मनाते रहे लेकिन वे नहीं माने। दूसरे छोटे भाई लक्ष्मण राम के लाख मना करने के बावजूद उन्हीं के साथ वन को चल दिए। राजा दशरथ ने पुत्र के विछोह में अपने प्राण त्याग दिए। 

गुरु माँ कहे जा रही थीं कि “राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग कर भी कुल की मर्यादा बनाए रखी कि ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जायं पर बचन न जाई॥’ राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न ने माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करने, भाइयों में अटूट परस्पर प्यार को निभाते हुए समाज में उदाहरण प्रस्तुत किया कि किस प्रकार माँ-बाप का आदर सम्मान करना चाहिए, भाइयों में प्यार होना चाहिए। शिष्टाचार, सम्मान का ऐसा अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया जो दुनिया में आज भी कहीं और देखने को नहीं मिलता।”

वह यह भी कह रही थीं कि “जब भगवान राम लंका विजय कर वापस आए तो उनके भाई भरत जो चौदह वर्षों तक राज सिंहासन पर बड़े भाई राम की खड़ाऊँ रखकर राजकाज चलाते रहे, उन्होंने अतिशय प्रेम सम्मान के साथ बड़े भाई को सिंहासन पर बिठाया। 

“ऐसी श्रेष्ठ सनातन संस्कृति है हमारी। हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं हुआ कि राज-सत्ता के लिए पिता-पुत्र, भाइयों के मध्य युद्ध होते रहें, एक-दूसरे का शिरोच्छेद करते रहें, बड़े भाई का सिर काट कर थाल में सजा कर पिता के पास भेजते रहें। 

“लुटेरे आक्रान्ता मुग़लों के यहाँ तो यह सबसे ज़्यादा हुआ। दरिंदे औरंगजेब ने ही अपने बड़े भाई दारा का सिर काट कर थाल में सजा कर अब्बा शाहजहाँ के पास भेज दिया, जिसे उसने पहले ही क़ैद में डाल दिया था, फिर आधा पेट भोजन-पानी देकर भूख से तड़पा-तड़पा हत्या कर दी थी।”

वह बोलती ही जा रही थीं कि आगे चलकर भगवान राम ने लक्ष्मण को एक बड़ा भू-भाग भेंट किया, जहाँ उन्होंने लक्ष्मणपुर नाम का नगर बसाया। उसी नगर का नाम अठारहवीं सदी में विदेशी आक्रांता, विदेशी लुटेरे, डकैतों में से एक असफ-उद-दौला ने बदलकर लखनऊ कर दिया। 

“इन्हीं आक्रांताओं ने वहाँ लक्ष्मण टीले पर बना मंदिर तोड़कर मस्ज़िद बना दी और पीढ़ी दर पीढ़ी मक्कार, झूठे, भारतीय सनातन संस्कृति से घृणा करने वाले, मन-गढ़ंत इतिहास लिखने वाले विदेशी, वाम-पंथी, कांग्रेसी, मैकाले के मानस पुत्रों ने यही लिखा, पढ़ा, समझाया, स्थापित किया कि यह नवाबों की नगरी, नज़ाकत नफ़ासत तहज़ीब की नगरी लखनऊ है। 

“जबकि सच यह है कि उत्कृष्ट शिष्टाचार, सम्मान, श्रेष्ठतम जीवन मूल्यों की स्थापना करने वाले लक्ष्मण की बसाई है यह नगरी। अगर हम जीवन में भगवान राम द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों को आत्म-सात कर उसे अपने आचरण में ढालेंगे, तो उच्च जीवन स्तर पाएँगे। जीवन आत्म-संतुष्टि से भरा होगा।”

इसी बीच उनको सुन रही साध्वियों में से किसी ने कोई प्रश्न किया जिसे सकीना पूरा समझ नहीं पाई, क्योंकि उसकी आवाज़ कम आई, लेकिन गुरु माँ की आवाज़ वह स्पष्ट सुन रही थी। वह उसे बड़े प्यार-स्नेह से समझा रही थीं कि “हम-लोग जब-तक स्कूली किताबों के अलावा अपने धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक इतिहास का गहन अध्ययन नहीं करेंगे, उनके मर्म को नहीं समझेंगे, तब-तक स्वयं को जान ही नहीं पाएँगे, सत्य से अनभिज्ञ रहेंगे। 

“कैसे झूठ लिखाया, पढ़ाया, समझाया, स्थापित किया जाता है उसे इस एक उदाहरण से ही सरलता से समझा जा सकता है। जैसे स्कूली शिक्षा के दौरान हमें यह पढ़ाया-समझाया गया कि ग्रह नौ होते हैं, यह पंद्रह सौ इकहत्तर में जन्में जर्मन वैज्ञानिक जोहान्स केप्लर ने बताया। हम यही जानते-समझते हैं, लेकिन यह तथ्य कितना बड़ा धोखा, मिथ्या है इस एक श्लोक से ही स्पष्ट हो जाता है। 

“हम सभी सनातनी हमारी सुबह शुभ हो, इसके लिए प्रातः इस श्लोक का उच्चारण करते हैं, आज भी किया कि ‘ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥’ अर्थार्त समस्त नौ ग्रहों से हम प्रार्थना करते हैं कि वो हमारी सुबह को शुभ बनाएँ। 

“यानी कि यह श्लोक लिखने वाले हमारे ज्ञानी पूर्वज को नौ ग्रहों, उनके महत्त्व की पूर्ण जानकारी थी, तभी वह यह श्लोक लिखने के लिए प्रेरित हुए। यह ‘वामन’ पुराण के चौदहवें अध्याय में है। जिसे महर्षि वेदव्यास ने लिखा है। अपेक्षाकृत इस छोटे पुराण के कुल पंचानवे अध्याय में दस हज़ार श्लोक हैं। 

“अर्थात हमारे पूर्वजों ने दसियों हज़ार साल पहले यह ज्ञान तब प्राप्त कर लिया था जब केप्लर का नामो-निशान नहीं था, उनके पूर्वज कंदमूल खाते, आदिम युग में जी रहे थे। जंगलों गुफाओं में पशुओं की भाँति विचरण कर रहे थे। 

“हमारी ही बातों, खोज को चोरी करके, पूरी धृष्टता के साथ वापस हमें ही परोसा गया यह कहते हुए कि हम सनातनी अज्ञानी कूपमंडूक रूढ़िवादी हैं। और हम इस ओर ध्यान ही नहीं देते, उन्हीं की ग़लत बातों को सही मान कर चलते रहते हैं।”

इसके बाद गुरु माँ और विस्तार में जाती हुई गुरु वशिष्ठ, भगवान राम, तीनों भाइयों के प्रसंग बताने लगीं, जिन्हें सुन-सुन कर सकीना को सीरियल में देखे गए वह दृश्य इतने बरसों बाद ख़ासतौर से याद आने लगे, जिनमें भाइयों के आपसी प्यार सम्मान की पराकाष्ठा थी। उसने सोचा कि लड़कों में इन बातों का, ऐसे भाई-चारे का तोला-माशा भर भी असर होता तो वो आपस में लड़ते ना, न ही मुझको इस तरह धोखे से ज़हर देकर सैकड़ों किलोमीटर दूर, घर के बाहर सड़क पर फेंकते। 

वह भी तो इन सबके आपसी मार-पीट झगड़ों से परेशान रहते थे। ख़ुद इतने दबंग न होते तो यह सब उन्हें भी बाहर फेंकने में देरी न करते। लेकिन ग़लती तो हम-दोनों की ही थी। हमने इन्हें अच्छी तरबियत दी होती तो न चारों सही, एकाध तो सही रास्ते पर चलता। वही बुढ़ापे का सहारा बनता। कम से कम आख़िर के दिनों में इसकी तो फ़िक्र न करनी पड़ती कि पता नहीं कोई मुझे सुपुर्द-ए-ख़ाक करेगा कि नहीं, दो गज ज़मीन मिलेगी भी कि नहीं।

सकीना का न तो बीती बातों को याद करना सोचना-विचारना रुका, न ही उसके आँसू। और आख़िर दवा के प्रभाव में आकर आँसू बहाते-बहाते वह किसी समय सो गई। 

दोपहर हो गई थी। आश्रम की एक सेविका ने आकर खिड़की के पल्ले खोल कर पर्दे हटा दिए। चमकीली नर्म धूप से हाल नहा उठा। सकीना के चेहरे पर भी धूप पड़ रही थी। उसकी आँखें खुल गईं। सेविका ने उसके पास आकर बहुत धीरे से पूछा, “अब आप की तबीयत कैसी है?”

सकीना ने कहा, “अब पहले से बहुत ठीक लग रही है।” वह उठ कर बैठ गई। दवा ने अच्छा असर दिखाया था। उसे अब बुख़ार बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। सेविका ने उससे कहा, “भोजन का समय हो रहा है। आप भोजन आश्रम के सभी लोगों के साथ करेंगी या आपका भोजन यहीं पर भिजवा दिया जाए।”

सकीना सेविका की विनम्रता, आश्रम के लोगों के सेवा-भाव से अब-तक एकदम अभिभूत हो चुकी थी। अब वह पूरे होशो-हवास में थी। सेविका की बात सुनकर वह बहुत भावुक हो गई। उसने हाथ जोड़ लिए। उस के होंठ फड़क रहे थे। उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या उत्तर दे। उसके फिर पूछने पर आश्रम में आने के बाद वह दूसरी बार बोली, “मेरे साथ आप सब लोग कैसे . . .” संकोच में वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाई। 

सेविका ने उसकी मनोदशा का अहसास कर बड़े प्यार से उसके हाथों को पकड़ लिया, कहा, “आप को रंच-मात्र भी संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम अखिल ब्रह्मांड के सभी प्राणियों को अपना मानते हैं, उनमें परमात्मा का स्वरूप देखते हैं, हमारे साथ आपके भोजन करने से, हम में से किसी को कहने को भी कोई संकोच नहीं होगा। 

“लेकिन हम आपकी भावनाओं का भी पूरा सम्मान रखने का प्रयास करेंगे। गुरु माँ आपकी स्थितियों को देखती हुई चाहती हैं कि आप सभी लोगों के बीच आएँ। आप जो मानसिक रूप से बहुत ज़्यादा परेशान हैं, जिसके कारण आपका स्वास्थ्य ख़राब हो रहा है, वह सभी के बीच अच्छे वातावरण में आने से ठीक हो जाएगा। 

“जैसे दिन और रात होते हैं, वैसे ही जीवन में सुख-दुख भी आते-जाते रहते हैं। हमें दोनों को जीवन का हिस्सा मानते हुए, एक समान रूप में लेकर चलना चाहिए। ऐसे भाव में चलने से कष्ट हमें परेशान नहीं कर पाते, हम उनका सफलता-पूर्वक समाधान ढूँढ़ लेते हैं।”

सेविका की बातों से सकीना का संकोच कम हो गया, उसकी हिम्मत बढ़ी और वह सभी के साथ भोजन करने के लिए तैयार हो गई। सेविका उसको एक सेट कपड़ा देकर चली गई। 

सैकड़ों साध्वियों के साथ शुद्ध सादा शाकाहारी भोजन करके सकीना वापस अपने बेड पर आ गई। अब वह अपने को पूरी तरह स्वस्थ महसूस कर रही थी। साध्वियों ने उसके साथ बातें कीं। किसी ने उससे कहने को भी ऐसी कोई बात नहीं की जिससे उसके हृदय को ज़रा भी कष्ट होता है। सभी का व्यवहार ऐसा था जैसे सब न जाने कितने वर्षों से उसके साथ हैं। 

उसे याद नहीं आ रहा था कि कभी उसने इसके पहले ऐसे शांति-पूर्ण माहौल में ऐसा शुद्ध भोजन किया हो। ऐसा सुकून भी वह जीवन में पहली बार महसूस कर रही थी। उसे महसूस हो रहा था जैसे आश्रम के कोने-कोने में सुकून की बारिश हो रही है। 

मगर गुरु माँ की यह बात याद आते ही वह तनाव में आ गई कि मैं दोपहर में आपसे बात करूँगी। वह इस बात को अच्छी तरह समझ रही थी कि बातचीत में वह उसकी परेशानियों का सबब भी पूछेंगी। और तब वह उनको क्या बताएगी? 

उसका जो सच है, उसे सुनकर, जिस तरह से वह, पूरे आश्रम-वासी उसकी मदद कर रहे हैं, उसे आश्रम का ही सदस्य मानकर चल रहे हैं, कहीं उससे नफ़रत न करने लगें, उसे लड़कों की तरह ही आश्रम से निकाल कर सड़क पर न फेंक दें। यहाँ से भी फेंकी गई तो सड़क पर भीख माँगने, तिल-तिल कर मरने के सिवा और कोई रास्ता नहीं होगा मेरे पास। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि मेरी कमज़र्फ़ नामुराद औलादों ने पहले गला दबा-दबा कर सम्पत्ति अपने नाम करवा ली, फिर धोखे से ज़हर देकर बेहोश किया और आठ-नौ घंटे गाड़ी चला कर चार सौ किलोमीटर दूर लाकर कूड़े की तरह सड़क पर फेंक दिया। 

क्या उन्हें यह बताऊँगी कि मेरे शौहर ने ग़ैर-क़ानूनी हथियारों और लड़कियों-औरतों की ख़रीद-फरोख़्त करके सारी दौलत कमाई थी। बार-बार उन्हें पुलिस ने पकड़ा, जेल गए और जब इंतकाल हुआ तो उनके ऊपर आठ-नौ मुक़द्दमे चल रहे थे। 

क्या उन्हें यह बताऊँगी कि शौहर ने अपनी जिन कमज़र्फ़ औलादों को मज़हबी तालीम देने के लिए, अपने जिस सबसे क़रीबी हाफ़िज़ को लगाया था, उसकी पहले दिन से ही मुझ पर ग़लत नज़र थी। मुक़द्दर ने भी उसी का साथ दिया और दूसरे महीने में ही शौहर किसी लड़की को बेचने के इल्ज़ाम में जेल चले गए। 

वह उन्हें छुड़ाने का झाँसा देकर मेरी अस्मत लूटने लगा। कुछ महीने बाद वह ज़मानत पर छूट कर आ गए, लेकिन उसके बाद भी अस्मत लूटते हुए मेरी जो बहुत सी वीडियो बना ली थी, मुझे वही दिखा-दिखा कर डराता रहा, अस्मत लूटता रहा, मेरा मुँह बंद किए रहा कि वो शौहर से कहेगा कि मैं उनकी ग़ैर-हाज़िरी में उस पर ज़ोर डाल कर नाजायज़ रिश्ते बनाती रही। 

क्या उन्हें यह बताऊँगी कि जब-तक शौहर ज़िंदा थे, तब-तक सात औलादों में से जो दो औलादें उस हाफ़िज़ से थीं, उन्हें देखते ही मेरी रूह काँप उठती थी कि ख़ुदा-न-ख़ास्ता कभी जो शौहर का ध्यान इस ओर चला गया और पूछ लिया कि इन दोनों के चेहरे हाफ़िज़ से क्यों लगते हैं, तब उन्हें क्या बताऊँगी, कौन-कौन से झूठ बोलूँगी? कोई अजूबा नहीं होता यदि सच जानकर वह उसकी दोनों औलादों और मेरा सिर तन से जुदा कर देते, हाफ़िज़ से शायद वह कुछ न कहते क्योंकि न जाने क्यों वह उससे घबराते थे। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि यही हाफ़िज़ मुझे यह समझाता था कि हिंदू मुशरिक होते हैं, काफ़िर होते हैं, काफ़िरों का मौक़ा मिलते ही क़त्ल करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ होता है। इनसे कोई रिश्ता, मिलना-जुलना बिल्कुल नहीं रखो। इनकी दुकानों से कोई सामान नहीं ख़रीदो। 

क्या उनको ये बताऊँगी कि वह हमेशा इस बात के लिए मुझ पर दबाव डालता था कि मैं हिंदू लड़कियों औरतों को उसके चंगुल में फँसाने में मदद करूँ। और मैंने कोशिश की भी थी, एक औरत इसके चलते उसके चंगुल में फँसते-फँसते रह गई थी। 

उसी ने मेरे, पूरे परिवार के दिमाग़ में ठूँस-ठूँस कर यह बात भर दी थी कि हिंदुओं, सिक्खों, बौद्धों, क्रिश्चियनों के पूजा-पाठ का एक भी शब्द हमारे कानों में नहीं पड़ना चाहिए। जैसे ही सुनाई दे कानों में उँगली कर लो। इसीलिए जब से यहाँ आई हूँ, हाथ बार-बार कान की तरफ़ चले जाते हैं। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि उसी के कहने समझाने पर शौहर ने अच्छा-ख़ासा बड़ा सा मकान बेचकर उस मोहल्ले में नया मकान लिया, जहाँ क़रीब-क़रीब सभी अपनी ही जमात के लोग थे। जहाँ पहले वाले मोहल्ले की अमन-चैन की जगह आए दिन झगड़ा-फ़साद होता रहता था। 

उन्हें क्या यह भी बताऊँगी कि वह लड़कों को मुशरिकों के ख़िलाफ़ हमेशा जिहाद करते रहने के लिए भड़काता रहता था, उनसे कहता रहता था कि मुशरिकों को जहाँ भी पाओ, उन्हें जहाँ भी जितना भी नुक़्सान पहुँचा पाओ, उसे हमेशा पहुँचाने की कोशिश करते रहो। 

हिन्दू, सिक्ख, क्रिश्चियन बौद्ध इनकी महिलाओं से अपनी असलियत छिपा कर इश्क़ फ़रमाओ, जब वो चंगुल में आ जाएँ तो उनसे निकाह करो, ज़्यादा बच्चे पैदा करो फिर उसे तलाक़ देकर दूसरी से करो। यह एक जिहाद है, अल्लाह ता'ला ख़ुश होंगे, जन्नत बख़्शेंगे, वहाँ तुम्हारे लिए बहत्तर हूरें होगी। इस बात की परवाह ही नहीं करो कि वो इसे लव-जिहाद कर कह रहे हैं। तुम अपने काम में लगे रहो, उन्हें कोई तवज्जोह ही नहीं दो। 

उसी के तरह-तरह से बार-बार भड़काने पर लड़के आए दिन किसी ना किसी फ़साद में पुलिस के हत्थे चढ़ते रहते थे। लड़कों से न जाने कितने पैसे मज़हब के नाम पर लूट-लूट कर अपना कितना बड़ा मकान बना लिया था। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि मदरसों में थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी एक तरह से अनपढ़ों की जमात मेरे घर के आपसी लड़ाई-झगड़े का उसने ख़ूब फ़ायदा उठाया, पैसा भी लूटा, औरतों की आबरू भी। लड़कों की नशे और लड़ाकू-झगड़ालू होने की आदत का इस्तेमाल कर पहले उन्हें भड़का कर उनकी बीवियों को तलाक़ दिलवा देता था, फिर समझाने-बुझाने का नाटक करके उनकी बीवियों का हलाला भी करता, उसके एवज़ में भी ख़ूब पैसे खींचता था। उनको क्या यह बताऊँगी कि मेरा घर उसकी कमाई और अय्याशी का अड्डा था। 

दो लड़कों की बीवियाँ उससे अपनी अस्मत केवल इसलिए बचा पाईं, क्योंकि उन दोनों ने अपने शौहरों से साफ़-साफ़ कह दिया था कि अगर तुमने तलाक़ दिया तो दोबारा तुम्हारे साथ नहीं आऊँगी, हलाला की तो बात ही भूल जाओ, मायके में नहीं रखा गया तो किसी भिखारी के साथ चली जाऊँगी, उसके साथ घर बसा लूँगी पर तुम्हारे पास लौटने की सोचूँगी भी नहीं। उसके दिमाग़ में उधेड़-बुन का बवंडर गुरु माँ के आने तक चलता रहा। 

साध्वी गुरु माँ ने उससे बहुत ही प्यार स्नेह से बातें की, जानना चाहा कि वह कौन है? कहाँ की रहने वाली है? घर के लोगों का कोई संपर्क सूत्र है, जिससे उन्हें संपर्क किया जा सके, और उसे घर वापस भेजा जा सके। यदि घर के लोगों से वह झगड़ कर आई है या उन लोगों ने उसे निकाला है, तो सभी को समझा-बुझाकर उसे घर वापस भेजा जाए। लेकिन बड़े आश्चर्य-जनक ढंग से उसे कुछ भी याद नहीं आ रहा था। अपना घर, घर के लोग, मोहल्ले, शहर का नाम या फिर कोई फोन नंबर। 

तो गुरु माँ ने उसे समझाते हुए कहा कि ‘आपको परेशान होने की कोई भी ज़रूरत नहीं है, जब-तक घर का पता नहीं चलता है, घर के लोग ले जाने के लिए तैयार नहीं होते हैं, तब-तक आप इसी आश्रम में पूर्ण निश्चिंतता के साथ रहिए।’

और फिर देखते-देखते दिन बीतते गए। सकीना आश्रम का एक हिस्सा बनती गई। सभी आश्रम-वासियों के साथ ऐसे घुल-मिल गई जैसे नदी में बारिश की बूँदें। पहले दिन के बाद फिर कभी गुरु माँ या किसी ने भी उससे कोई पूछ-ताछ नहीं की। 

लेकिन उसे उसके घर वाले मिल जाएँ इसके लिए प्रयास ज़रूर किए। सोशल-मीडिया पर उसका विवरण सर्कुलेट किया, कि उसके परिवार, रिश्तेदार, कोई देखे तो आश्रम में संपर्क करे। इसके लिए जब उसे बता कर, उसकी फोटो ली गई, तो सकीना ने बहुत ही दुखी मन से सोचा कि जिन कमज़र्फ़ औलादों ने छुटकारा पाने के लिए ज़हर देकर रातोंरात चार सौ किलोमीटर दूर लाकर फेंक दिया, वह दुबारा क्यों ले जाएँगे? वह तो देख कर भी अनदेखा कर देंगे। 

थाने पर भी उसकी सूचना दी गई। लेकिन सकीना की आशंका ही सच निकली। दिन महीने साल करते-करते कई साल निकल गए। कहीं से कोई फोन तक नहीं आया। सकीना ने आश्रम को ही अपना घर मान लिया। उसने कई बार ऐसा महसूस किया कि जो सुकून उसे आश्रम में मिल रहा है, वैसा जीवन में पहले कभी नहीं मिला। 

निकाह हुआ, एक-एक कर सात बच्चे हुए, चालीस पोती-पोते, नाती-नातिन हुए, इतना लंबा जीवन निकल गया लेकिन ऐसा सुकून कभी नसीब ही नहीं हुआ। वह शुरू के कुछ दिनों तक जहाँ घर परिवार के बारे में सोच-सोच कर आँसू बहाया करती थी, बाद में उस घर को ही भूल गई। 

गुरु माँ के प्रवचन सुन-सुन कर अपने सारे ग़म भूलती चली गई। पहले जहाँ उनकी बातों को क़िस्सा कहानी समझकर सुनती थी, वहीं बाद में जैसे-जैसे बातें समझ में आती गईं, उसे जीवन क्या है? समझ में आता गया और उसके मन में यह बात बार-बार उठती कि उसका जीवन तो यूँ ही जाया हो गया। भजन-कीर्तन में शामिल होकर उसे लगता जैसे उसके जीवन में भी बहार आ गई है। 

प्रवचन में एक दिन जीवन की नश्वरता, क्षण-भंगुरता के बारे में सुनने के बाद उसने गुरु माँ से अपनी अंतिम इच्छा बताई कि उसकी मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए। उसकी इच्छा को सुनकर गुरु माँ ने स्नेह-पूर्वक उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “ईश्वर ने मनुष्य को जीवन जीने और स्वयं द्वारा उसके लिए निर्धारित किए गए कर्त्तव्यों का निर्वहन करने के लिए दिया है। 

“जितना जीवन उसने हमें दिया है, उसके लिए प्रसन्नता-पूर्वक हमें उसको धन्यवाद देते हुए, सदैव उसको स्मरण में रखते हुए, कर्त्तव्यों का निर्वहन करते रहना चाहिए। अखिल ब्रह्मांड का वही एकमात्र स्वामी है, उसी की इच्छा मात्र से सब-कुछ हो रहा है, होता रहेगा, हम सब तो निमित्त मात्र हैं।” 

और जब कुछ बरसों बाद सकीना ने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो गुरु माँ ने उसकी इच्छानुसार उसका अंतिम संस्कार अपनी ही देख रेख में संपन्न करवाया। पुष्पांजलि अर्पित की। 

उसके लिए उनके अंतिम वाक्य थे, “सकीना ईश्वर तुम्हें सद्गति प्रदान करें। तुम सदैव हमारी स्मृति-पटल पर अंकित रहोगी।” 

निश्चित ही सकीना की रूह यह देख कर, इस हृदय-विदारक पीड़ा से बिलख पड़ी होगी कि जिन्हें काफ़िर कह कर वह नफ़रत करती थी, वो अंतिम रुख़सती पर नम आँखों से फूलों की वर्षा कर रहे हैं, और जिन सात को पैदा किया, चालीस नाती-पोतों में से इस आख़िरी पल में कोई भी नहीं, जो उसके लिए दो बूँद आँसू भी गिराता। 

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टिप्पणियाँ

Meenakshi kumavat meera 2023/03/21 07:33 AM

बहुत ही हृदय स्पर्शी कहानी .बहुत सुंदर लेखन, बहुत बधाई

सुनीता आदित्य 2023/03/20 11:24 PM

कहानी ने अंत तक बांधे रखा... संस्कृति और संस्कारों के प्रभाव को उजागर करती कहानी। उपेक्षित बुजुर्गों को देखा है... पीड़ा होती है भौतिकता या यूं कहें बिना परिश्रम जल्द से जल्द अमीर बनने की ख्वाहिशें व्यक्ति को पतन के गहरे गर्त में ढकेलती है। मुझे उर्दू शब्दों के साथ कहानी की भाषा भी बहुत अच्छी लगी। प्रदीप जी को साधुवाद।

Pradeep Shrivastav 2023/03/20 10:03 AM

शैली जी, सुविधा जी, सरिता जी आप सभी को कहानी पर विचार व्यक्त करने के लिए धन्यवाद. यह उत्तर प्रदेश के एक शहर, आश्रम में घटी घटना पर केंद्रित है. यह सिर्फ़ समुदाय विशेष की महिलाओं की दयनीय स्थिति ही नहीं देश की सुरक्षा के लिए चुनौती बनी शक्तियों की एक तस्वीर भर है. स्थिति तो और खराब है....

शैली 2023/03/20 12:35 AM

संस्कार क्या होते हैं, इसे बताती हुई बहुत सत्य सी कहानी। घर से निकाल कर फेंके हुए ऐसे बुजुर्गों को मैंने देखा है। हार्दिक आभार इतनी मार्मिक रचना पढ़ने का अवसर देने के लिए

सुविधा पंडित 2023/03/19 11:07 PM

अनेक प्रश्नों व मुद्दों पे ध्यान खीचती है कहानी

पाण्डेय सरिता 2023/03/17 07:06 AM

अद्भुत. ..

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