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नुरीन

नुरीन होश सँभालने के साथ ही अपनी अम्मी की आदतों, कामों से असहमत होने लगी थी। जब कुछ बड़ी हुई तो आहत होने पर विरोध भी करने लगी। ऐसे में वह अम्मी से मार खाती और फिर किसी कमरे के किसी कोने में दुबक कर घंटों सुबुकती रहती। दो-तीन टाइम खाना भी न खाती। लेकिन अम्मी उससे एक बार भी खाने को न कहती। बाक़ी चारों बहनें उससे छोटी थीं।

जब अम्मी उसे मारती थी तो वह बहनें इतनी दहशत में आ जातीं कि, उसके पास फटकती भी न थीं। सब अम्मी के ज़ोरदार चाँटों, डंडों, चिमटों की मार से थर-थर काँपती थीं। वह चाहे स्याह करे या सफ़ेद, उसके अब्बू शांत ही रहते। अम्मी जब आपा खो बैठतीं, डंडों, चिमटों से लड़कियों को पीटतीं तो बेबस अब्बू अपनी एल्यूमिनियम की बैसाखी लिए खट्खट् करते दूसरी जगह चले जाते। 

उनकी आँखें तब भरी हुई होती थीं। जिन्हें वह कहीं दूसरी जगह बैठ कर अपने कुर्ते के कोने से आहिस्ता से पोंछ लेते। वह पूरी कोशिश करते थे कि, कोई उन्हें ऐसे में देख न ले। लेकिन अन्य बच्चों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील नुरीन से अक़्सर वह बच नहीं पाते थे। तब नुरीन चुपचाप उन्हें एक गिलास पानी थमा आती थी। ख़ुद पिटने पर वह ऐसा नहीं कर पाती थी। उसे अब्बू की हालत पर बड़ा तरस आता था। 

छह साल पहले एक दुर्घटना में उनका एक पैर बेकार हो गया था। कई और चोटों के कारण वह ज़्यादा देर बैठ भी नहीं सकते थे। रही-सही कसर मुँह के कैंसर ने पूरी कर दी थी। तंबाकू-शराब के चलते कैंसर ने मुँह को ऐसा जकड़ा था कि, जबड़े के कुछ हिस्से से लेकर ज़ुबान का भी अधिकांश हिस्सा काट दिया गया था। जिससे वह बोल भी नहीं सकते थे।

उनकी इस दयनीय स्थिति पर भी अम्मी उन्हें लताड़ने-धिक्कारने अपमानित करने से बाज़ नहीं आती थी। शायद ही कोई ऐसा सप्ताह बीतता जब वह अब्बू को यह कह कर न धिक्कारती हों कि, 'ये पाँच-पाँच लड़कियाँ पैदा कर के किसके भरोसे छोड़ दीं, कौन पालेगा इनको, तुम्हारा बोझ ढोऊँ कि इन करमजलियों का, अंय बताओ किस-किस को ढोऊँ।'

जब अब्बू उनकी इन जली-कटी बातों पर प्रश्नों और लाचारी से भरी आँखों से देखते तो अम्मी किचकिचाती हुई यह भी जोड़ देती, 'अब हमें क्या देख रहे हो, जब कहती थी तब समझ में नहीं आया था, तब तो दारू भी चाहिए, मसाला भी चाहिए, खाओ, अब हमीं को चबा लो।' यह कहते हुए अम्मी पैर पटकती, धरती हिलाती चल देती थी। और अब्बू बुत बने बैठे रहते। 

नुरीन को अम्मी की बातें, ग़ुस्सा कभी-कभी कुछ ही क्षण को ठीक लगता था कि, अब्बू के बेकार होने के बाद घर-बाहर का सारा काम उन्हीं के कंधों पर आ गया। घर के उनके कामों में जहाँ अब्बू को कपड़े पहनने में मदद करना तक शामिल है, वहीं बाहर का सारा काम, सारे बच्चों के स्कूल के झमेले और फिर दिन में तीन बार आरा मशीन पर जाना। 

पहले दादा को आरा मशीन पर पहुँचाना, फिर दोपहर का खाना देने जाना, शाम को उनको घर ले आना। अब्बू के बेकार होने के बाद दादा एक बार फिर से आरा मशीन का अपना पुश्तैनी धंधा देखने लगे थे। नौकरों के सहारे बड़ा नुक़सान होने के कारण उन्होंने मजबूरी में यह क़दम उठाया था कि, चलो बैठे रहेंगे तो कुछ तो फ़र्क़ पडे़गा। 

नुरीन हालाँकि घर के कामों में अम्मी की बहुत मदद करती थी। उम्र से कहीं ज़्यादा करती थी। इसके चलते उसकी पढ़ाई भी डिस्टर्ब होती थी। ऐसे माहौल में नुरीन को कभी अच्छा नहीं लगता था कि, कोई मेहमान उसके घर पर आए। लेकिन मेहमान थे कि आए दिन टपके ही रहते थे।

शहर के अलग-अलग हिस्सों में सभी रिश्तों की मिला कर उसकी छह से ज़्यादा फुफ्फु और इनके अलावा चाचा और ख़ालु थे। इन सबमें उसे सबसे ज़्यादा अपने छोटे ख़ालु का आना खलता था। वह न दिन देखें, ना रात जब देखो टपक पड़ते थे। बाक़ी और जहाँ परिवार के सदस्यों को लेकर आते थे। वहीं वह अकेले ही आते थे। 

अब्बू के एक्सीडेंट के समय जहाँ कई रिश्तेदारों ने बड़ी मदद की थी, वहीं इस ख़ालु ने खाना-पूर्ती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब्बू के कैंसर के इलाज के वक़्त भी यही हाल था। नुरीन को अपने इस ख़ालु के चेहरे पर मक्कारी-धूर्तता का ही साया दिखता था। वह चाहती थी कि अम्मी भी ख़ालु की इस धूर्तता को पहचानें।

उसे बड़ा ग़ुस्सा आता जब वह अम्मी के साथ अकेले किसी कमरे में बैठकर हँसी-मज़ाक करते, बतियाते, चाय-नाश्ता करते। और अब्बू अलग-थलग किसी कमरे में अकेले बैठे सूनी-सूनी आँखें लिए दीवार या किसी चीज़ को एक टक निहारा करते। 

उस वक़्त उसका मन ख़ालु का मुँह नोच लेने का करता, जब वह अम्मी के कंधों पर हाथ रखे बग़ल में चलते हुए रसोई तक चले जाते। या फिर जब वह दोनों कमरे में बातें कर रहे होते तो, उसके या किसी बहन के वहाँ पहुँचने पर अम्मी ग़ुस्से से चीख़ पड़तीं।

उसे यह भी समझने में देर नहीं लगी थी कि, उसकी ही तरह अब्बू भी अंदर-अंदर यह सब देख कर बहुत चिढ़ते हैं। मगर उनकी मज़बूरी यह थी कि, वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं सकते थे। दादा की कुछ चलती नहीं थी। घर चलता रहे इस ग़रज़ से वह बेड पर आराम करने की हालत में हिलते-काँपते, आरा-मशीन का धंधा सँभालते थे। 

उन्हें मौत के क़रीब पहुँच चुके अपने बेटे के इलाज की चिंता सताए रहती थी। वैसे भी अब्बू के इलाज के चलते घर अब-तक आर्थिक रूप से बिल्कुल टूट चुका था। बाक़ी दोनों बेटे मुंबई में धंधा जमा लेने के बाद से घर से कोई ख़ास रिश्ता नहीं रख रहे थे। इन सबके बावजूद उनकी हिम्मत पस्त नहीं हुई थी। तमाम लोगों का बड़ा भारी परिवार होने के बावजूद वह ख़ुद को एकदम तन्हा ही पाते थे। मगर फिर भी उनकी हिम्मत में कमी नहीं थी। 

नुरीन उनके इस जज़्बे को सलाम करती थी। और अब्बू के साथ-साथ दादा की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ती थी। वह दादा से कई बार बोल चुकी थी कि, दादा उसे काम-धंधे में हाथ बँटाने दें। लेकिन दादा बस यह कह कर मना कर देते कि, 'बेटा मैं अपने जीते जी तुम्हें लकड़ी के इस धंधे में हरगिज़ नहीं आने दूँगा। दुकान पर मर्दों की जमात रहती है। वहाँ तुम्हारा जाना उचित नहीं है।'

दादा की इस बात पर वह चुप रह जाती और मन ही मन कहती दादा वहाँ तो बाहरी मर्दों की जमात से आप मेरे लिए ख़तरा देख रहे हैं। लेकिन घर में धूर्तों की जो जमात आती रहती है, उसमें मैं कितनी सुरक्षित हूँ इस पर भी तो कभी ग़ौर फ़रमाइए। 

यह सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आतीं कि, अब्बू देख कर भी कुछ करने लायक़ नहीं हैं, और दादा घर में धूर्तों की जमात पहचानने लायक़ नहीं रहे। वह हर ओर अँधेरा ही अँधेरा देख रही थी। इस अँधेरे को दूर करने की वह सोचती और इस कोशिश में घर के ज़्यादा से ज़्यादा काम करने के बावजूद जी-जान से पढ़ाई करती। 

अपनी बहनों को भी पढ़ने के लिए बराबर कहती और बहनों को अपने साथ एक जगह रखती। रिश्तेदारों से दूर रहने की कोशिश करती। घर के इस अँधेरे में दरवाज़ों, कोनों, दीवारों से टकराते, गिरते-पड़ते उसने ग्रेजुएशन कर लिया। इस पर उसने राहत महसूस की और सोचा कि आगे की पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी तलाशेगी। 

ग्रेजुएशन किए अभी दो-तीन महिना भी ना बीता था कि, पूरे घर पर क़हर टूट पड़ा। एक दिन अब्बू के मुँह से ख़ून आने पर जाँच कराई गई तो पता चला कि, कैंसर तो गले में भी फैला हुआ है, और लास्ट स्टेज में है। और अब्बू का जीवन चंद दिनों का ही रह गया है। 

यह सुनते ही दादा को तो जैसे काठ मार गया। नुरीन को लगा कि, जैसे दुनिया ही ख़त्म हो गई। अब्बू भले ही अपाहिज हो गए थे। गूँगे हो गए थे। लेकिन एक साया तो था। अब्बू का साया। अम्मी और वह दोनों अब्बू को लेकर फिर पी.जी.आई., लखनऊ के चक्कर लगाने लगी थीं। अब अम्मी को देख कर नुरीन को ऐसा लगा कि, मानो अम्मी के लिए यह एक रूटीन वर्क है।

अब्बू की सामने खड़ी मौत से जैसे उन पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं था। मानो वह पहले ही से यह सब जाने और समझे हुए थीं कि, यह सब तो एक दिन होना ही था। जल्दी ही पी.जी.आई., के डॉक्टरों ने निराश हो कर अब्बू को घर भेज दिया।

कहा कि, 'ऊपर वाले पर भरोसा रखें। अब हमारे हाथ में कुछ नहीं बचा। आप चाहें तो टाटा इंस्टीट्यूट मुंबई ले जा सकती हैं।' यह सुन कर अम्मी एकदम शांत हो गईं। भाव-शून्य हो गया उनका चेहरा। वह ख़ुद रो पड़ी थी। पिछली बार जिन रिश्तेदारों ने पैसे आदि हर तरह से सहयोग किया था। वही सब इस बार खाना-पूर्ति कर चलते बने। 

पैसे की तंगी पहले से ही थी। ऐसे में लाखों रुपए अब और कहाँ से आते कि, अब्बू को इलाज के लिए मुंबई ले जाते। सबने एक तरह से हार मान ली। अब पल-पल इस दहशत में बीतने लगा कि, वह मनहूस पल कौन सा होगा जिसमें मौत अब्बू को छीन ले जाएगी। इधर कहने को दी गईं दवाओं का कुछ भी असर नहीं था।

अब मुँह में ख़ून, भयानक पीड़ा से अब्बू ऐसा कराहते कि, सुनने वालों के भी आँसू आ जाएँ। इस बीच नुरीन ने देखा कि, वह मनहूस ख़ालु अब आ तो नहीं रहा, लेकिन फ़ोन पर अम्मी से पहले से ज़्यादा बातें करता रहता है। अब्बू की इस हालत और ख़ालु की कमीनगी से नुरीन का ख़ून खौल उठता था। 

वह अब दादा की आँखों में भी गहरा सूनापन देख रही थी। उन्होंने मुंबई में अपने बाक़ी बेटों को फ़ोन किया कि, 'तुम्हारा एक भाई मौत के दरवाज़े पर खड़ा है। तुम लोग मदद कर दो तो किसी तरह मुंबई भेज दूँ, वहाँ उसका इलाज करा दो।'

मगर उन बेटों ने मुख़्तसर सा जवाब दिया कि, 'अब्बू यहाँ इतनी मुश्किलात हैं कि, हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे। डॉक्टर, हॉस्पिटल तो वहाँ भी बहुत अच्छे से हैं। वहीं कोशिश करिए।' दादा को इन बेटों से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी।

मगर उम्मीद की हर किरण की तरफ़ वह आस लिए बेतहाशा दौड़ पड़ते थे। नुरीन भी दादा के साथ ही दौड़ रही थी। बल्कि वह उनसे भी आगे निकल जाने को छटपटाती थी। तो इसी छटपटाहट में उसने मुंबई में चाचाओं को ख़ुद भी फ़ोन लगाया कि, 'आप लोग अब्बू को बचा लें। वह ठीक हो जाएँगे तो, आप सबके पैसे हर हाल में दे देंगे।' नुरीन जानती थी कि, उसके चाचा इतने सक्षम हैं कि, अब्बू का मुंबई में आसानी से इलाज करा सकते हैं। मगर उन चाचाओं ने नुरीन की आख़िरी उम्मीद का सारा नूर ख़त्म कर दिया। 

हार कर वह अम्मी से बोली थी कि, एक बार वह भी चाचाओं से बोले। लेकिन वह तो जैसे अंजाम का इंतज़ार कर रही थीं। नुरीन की बात पर टस से मस नहीं हुईं। कुछ बोलती ही नहीं। बुत बनी उसकी बात बस सुन लेती थीं। नुरीन हर तरफ़ से थक हार कर आख़िर में दादा के पास पहुँची। 

उनके हाथ जोड़ फफक कर रो पड़ी कि, “दादा अब्बू को बचा लो। सबने साथ छोड़ दिया दादा। अब आप ही कुछ करिए। अब तो अम्मी भी कुछ नहीं बोलती। दादा बिना अब्बू के कैसे रहेंगे हम लोग।” नुरीन को दादा पर पूरा यक़ीन था कि, वह कितना भी जर्जर हो गए हैं, लेकिन फिर भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वालों में नहीं हैं। कोई न कोई रास्ता निकालने की कोशिश ज़रूर करेंगे। 

नुरीन के आँसू, उसकी सिसकियों को सुन कर दादा भी रो पड़े थे। मगर जल्दी ही अपने आँसू पोंछते हुए बोले, “अल्लाह-त-आला पर भरोसा रख बच्ची, वह बड़ा रहम करने वाला है, तेरे आँसू बेकार ना जाएँगे मेरी बच्ची।” इस पर नुरीन बोली थी, “लेकिन दादा लाखों रुपए कहाँ से आएँगे। कोई रास्ता तो नहीं दिख रहा। सबने मुँह मोड़ लिया है। दादा वक़्त बिल्कुल नहीं है।” नुरीन को दादा ने तब बहुत ढाढ़स बँधाया था। लेकिन ख़ुद को लाचार समझ रहे थे। 

पैसे का इंतज़ाम कहीं से होता दिख नहीं रहा था। उस दिन वह रात-भर जागते रहे। पैसे का इंतज़ाम कैसे हो इसी उधेड़बुन में फ़ज्र की अजान की आवाज़ उनके कानों में पड़ी। वह उठना चाह रहे थे। लेकिन उनको लगा जैसे उनके शरीर में उठने की ताब ही नहीं बची। बड़ी मुश्किलों बाद कहीं वो उठ कर बैठ सके। 

उस दिन पूरी ताक़त लगा कर वह बहुत दिनों बाद नमाज के लिए ख़ुद को तैयार कर सके। 

नमाज अता कर वह बैठे ही थे कि, नुरीन फिर उनके सामने खड़ी थी। उसने आँगन की तरफ़ खुलने वाली कमरे की दोनों खिड़कियाँ खोल दी थीं। कमरे में अच्छी-ख़ासी रोशनी आने लगी थी। वह दादा के लिए कॉफ़ी वाले बड़े से मग में भर कर चाय और एक प्लेट में कई रस लेकर आई थी। 

वह दादा को बरसों से यही नाश्ता सुबह बड़े शौक़ से करते देखती आ रही थी। खाने-पीने के मामले में उसने दादा के दो ही शौक़ देखे थे, एक चाय के साथ बर्मा बेकरी के “रस” खाने और हर दूसरे-तीसरे दिन गलावटी कबाब के साथ रुमाली रोटी खाने का।

जब खाते वक़्त कोई मेहमान साथ होता तो, वह यह कहना ना भूलते कि, 'भाई इस शहर के गलावटी कबाब और इस रुमाली रोटी का जवाब नहीं। लोग भले ही काकोरी के गलावटी कबाब को ज़्यादा उम्दा मानें लेकिन मुझे तो, यही लज़ीज़ लगते हैं।'

यदि कोई कहता कि, 'अरे काकोरी लखनऊ से कौन सा अलग है।' तो वह जोड़ते, 'जाना तो जाता है काकोरी के नाम से ही ना।' फिर वह शीरमाल और मालपुआ की भी बात करते। नुरीन को अच्छी तरह याद है कि, दादा ने कई बार यह भी कहा था कि, 'अगर मुझे कोई दूसरी जगह तख़्तो-ताज भी दे दे और वहाँ गलावटी कबाब न हो तो, मैं वहाँ न जाऊँ।'

जब मुँह में डेंचर लग गए तो कहते, 'इस डेंचर ने सारा स्वाद ही बिगाड़ दिया।' नुरीन ने दादा को अब्बू के पहले ऑपरेशन के बाद पल-भर में अपनी इस प्रिय चीज़ को हमेशा के लिए त्यागते देखा था। तब उन्होंने यह कहते हुए कबाब, रोटी से भरी प्लेट हमेशा के लिए सामने से परे सरका दी थी कि, 'जब यह मेरे बेटे के गले नहीं उतर सकती तो, मैं इसे कैसे खा सकता हूँ।' 

उस दिन के बाद नुरीन ने दादा को इस ओर देखते भी ना पाया। आज उन्हीं दादा ने रस भी खाने से साफ़ मना कर दिया। कहा, “नुरीन बेटा अब कभी मेरी आँखों के सामने यह ना लाना।” उन्होंने काँपते हाथों से चाय उठाकर पीनी शुरू कर दी थी। उन्होंने इसके आगे कुछ नहीं कहा था, लेकिन नुरीन ने उनकी भरी हुई आँखें देख कर सब समझ लिया था।

फिर जल्दी से कुछ बिस्कुट लाकर उनके सामने रखते हुए कहा, “दादा बिस्कुट भी खा लीजिए, ख़ाली पेट चाय नुक़सान करेगी।” नुरीन के कई बार कहने पर उन्होंने एक बिस्कुट खाया, फिर भर्रायी आवाज़ में उससे अब्बू के बारे में पूछा। 

नुरीन बोली, “रात-भर दर्द के मारे कराहते रहे। घंटे भर पहले ही सोए हैं।” नुरीन की सूजी हुई आँखें देख कर उन्होंने पूछा था, “तू भी रात-भर नहीं सोई।’ नुरीन ने साफ़ बोल दिया कि, “कैसे सोती दादा, अब्बू के पास कोई भी नहीं था। अम्मी बोलीं थी कि, उनकी तबियत ठीक नहीं है। वो दूसरे कमरे में सो रही थीं। अभी कुछ देर पहले ही उठी हैं।” 

दादा को चुप देख कर नुरीन फिर बोली, “दादा अब्बू का इलाज कैसे होगा? सबने साथ छोड़ दिया है।” तब वह बोले, “ठीक है बेटा, सबने साथ छोड़ दिया है, लेकिन अभी मेरी हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा है। मेरी उम्मीद अभी नहीं टूटी है। अपने सामने अपने बेटे को बिना इलाज मरने नहीं दूँगा। भले ही मकान-दुकान बेचने पड़ें। झोपड़ी में रहना पड़े, रह लूँगा, मगर हाथ पे हाथ धरे बैठा नहीं रहूँगा।”

तभी नुरीन को लगा जैसे अब्बू के कराहने की आवाज़ आई है।

“मैं अभी आई दादा . . .” कहती हुई वह अब्बू के कमरे की ओर दौड़ गई। उसको यूँ भागते देख उन्हें लगा कि, उनका बेटा शायद जाग गया है। उम्र ने उनके सुनने की क़ूवत भी कम कर दी थी। इसीलिए नुरीन को जो आवाज़ सुनाई दी, उसका उन्हें अहसास ही नहीं था।

नुरीन को जाते देख वह यह ज़रूर बुद-बुदाए थे कि, 'न जाने तुम सब की मुकद्दर में क्या लिखा है?' फिर उनका दिमाग़ रात में सोची इस बात पर चला गया कि, 'अब काम-धाम कुछ करने लायक़ रहा नहीं। आरा-मशीन का धंधा भी बड़ा मुश्किलों वाला हो गया है। रोज़ कुछ न कुछ लगा ही रहता है। 

मुंशी विपिन बिहारी के सहारे यह काम अब कब-तक खीचूँगा। गुंडे-माफ़िया दुकान की लबे रोड लंबी-चौड़ी ज़मीन पर नज़र गड़ाए हुए हैं। बरसों से गाहे-बगाहे धमकाते आ रहे हैं। सब शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स, अपॉर्टमेंट बनवा कर अरबपति बनने का ख़्वाब पाले हुए हैं। 

यही शाद सही होता तो ख़ुद ही कुछ करता। लखनऊ यूनिवर्सिटी पास ही है, हॉस्टल ही बनवा देता तो कितना कमाता। मगर जब ठीक था तो मेरी कुछ सुनता नहीं था। होटल से लेकर ना जाने काहे-काहे का ख़्वाब वह भी पाले हुए था। अब ना मेरा ठिकाना है, ना उसका। इधर बीच भू-माफ़िया और भी ज़्यादा सलाम ठोकने लगे हैं। जीते जी यह हाल है, मरने के बाद तो सब ऐसे ही इन सब को मार-धकिया के कब्ज़ा कर लेंगे। 

माफ़िया तो माफ़िया ये एम.एल.सी. माफ़िया तो आए दिन हाथ जोड़-जोड़ कर और डराता है। भाई-परिवार सब के सब एक से बढ़ कर एक हैं। चुनाव के समय चचाजान, चचाजान कह के एक वक़्त पूरे डालीगंज में घुमा लाया था। मैंने कभी बेचने की बात ही नहीं की थी। लेकिन ना जाने कितनी बार कह चुका है।

’चचा जब भी बेचना हो तो हमें बताना आपको मुँह माँगी रक़म दूँगा। सारे काम काज बैठे-बैठे करा दूँगा।’ क्यों न इसे ही बेच दूँ। किसी और को बेचा तो टाँग अड़ा देगा। माफ़िया ऊपर से नेता। जान छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। दुकान भी जाएगी पैसा भी नहीं मिलेगा। पाँच-छः साल पहले ही साठ-सत्तर लाख बोल रहा था। कहता हूँ अब सब कुछ बहुत बदल चुका है। 

प्रॉपर्टी के दाम आसमान को छू रहे हैं। सवा करोड़ दे दो तो लिख देता हूँ तुम्हारे नाम। सवा करोड़ कहूँगा तो एक करोड़ में तो सौदा पट ही जाएगा। इतने में शाद का इलाज भी करा लूँगा। सत्तर-पचहत्तर लाख जमा कर ब्याज से किसी तरह घर का ख़र्च चलाऊँगा। इसके अलावा अब कोई रास्ता बचा नहीं है। मकान बेचने से इसका आधा भी ना मिलेगा।

पुराने शहर की इन पतली-पतली गलियों और आए दिन के दंगे-फ़सादों से आजिज़ आ कर लोग पहले ही नई कॉलोनियों की तरफ़ खुले में जा रहे हैं, तो ऐसे में यहाँ कौन आएगा।' 

नुरीन के दादा ने सारा हिसाब-किताब करके नेता माफ़िया के घर जाने के लिए, अपने मुंशी को फ़ोन कर के कहा कि किसी कारिंदे को आटो के साथ भेज दे। वह नुरीन या उसकी अम्मी को लेकर नहीं जाना चाहते थे। फ़ोन कर के उन्होंने रिसीवर रखा और एक गहरी साँस ले कर बुदबुदाए। 'जाने मुकद्दर में क्या लिखा है? इस बुढ़ापे में ऊपर वाला और ना जाने क्या-क्या करवाएगा?'

वह क़रीब दो घंटे बाद जब माफ़िया नेता के यहाँ से लौटे तो बड़ी निराशा के भाव थे चेहरे पर। कारिंदा उन्हें उनके कमरे में बेड पर बैठा कर चला गया था। वह ज़्यादा देर बैठ न सके और बेड पर लेट गए। नुरीन उसकी बहनें-अम्मी कोई भी आस-पास दिख नहीं रहा था। गला सूख रहा था मगर किसी को आवाज़ देने की ताब नहीं थी।

काफ़ी देर बाद नुरीन दरवाज़े के क़रीब दिखी तो उन्होंने कोई रास्ता न देख अपनी छड़ी ज़मीन पर भरसक पूरी ताक़त से पटकी कि, आवाज़ इतनी तेज़ हो कि नुरीन सुन ले। इससे जिस तरीक़े से आवाज़ नुरीन के कानों में पहुँची, उससे वह सशंकित मन से दौड़ी आई दादा के पास और छड़ी उठा कर पूछा, “अरे! दादा क्या हुआ? आप कहाँ चले गए थे? अम्मी आपको दुकान तक छोड़ने जाने आईं, तो आप न जाने कहाँ चले गए थे। वह बहुत ग़ुस्सा हो रही थीं।” उन्होंने नुरीन की किसी बात का जवाब देने के बजाय इशारे से पानी माँगा। 

नुरीन पानी लेकर आई तो पीने के कुछ देर बाद बोले, “तेरे अब्बू कैसे हैं?” नुरीन ने कहा, “सो रहे हैं। लेकिन आप कहा चले गए थे?” तब वह बोले, “शाद के इलाज के लिए पैसे का इंतज़ाम करने गया था।” उनकी यह बात सुन कर नुरीन कुछ उत्साह से बोली, “तो इंतज़ाम हो गया दादा।”

इस पर गहरी साँस लेकर बोले, “अभी तो नहीं हुआ। बड़ी ज़ालिम है यह दुनिया। सब मजबूरी का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। मगर परेशान ना हो मैं जल्दी ही कर लूँगा। और हाँ सुनो कुछ देर बाद मुझसे मिलने कोई आएगा। उसे यहीं भेज देना। और देखना उस समय कोई शोर-शराबा न हो।'

नुरीन दादा की बात से बड़ी निराश हुई। पानी का ख़ाली गिलास लेकर वह बुझे मन से रसोई में चली गई। अम्मी कुछ काम से बाहर जाते समय खाना बनाने को कह गई थीं। मगर उसका मन कुछ करने का नहीं हो रहा था। वह अच्छी तरह समझ रही थी कि, हर पल अब्बू उन सबसे दूर होते जा रहे हैं।

उसने सोचा कि दादा से पूछूँ कि, वह कहाँ से? कैसे? कब तक? पैसों का इंतज़ाम कर पाएँगे। फिर यह सोच कर ठहर गई, कि कहीं वह नाराज़ न हो जाएँ। वह समझदार तो बहुत थी, लेकिन अभी दादा की तकलीफ़ का सही-सही अंदाज़ा नहीं लगा पा रही थी। 

दादा बेड पर लेटे-लेटे उस बिल्डर का इंतज़ार कर रहे थे। जिसे वह बात करने के लिए फ़ोन कर बुला चुके थे। क्योंकि माफ़िया नेता ने उन्हें निराश किया था। वह अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे थे। उसने बड़ी होशियारी से उनकी ख़ूब आव-भगत की थी। गले लगाया था। बड़े आत्मीयता भरे लफ़्ज़ों में कहा था, 'अरे चचाजान आप परेशान न होइए। आपको शाद के इलाज के लिए जितना पैसा चाहिए, बीस-पचीस लाख वह ले जाइए। पहले उसका इलाज कराइए, बाक़ी सौदा लिखा-पढ़ी होती रहेगी। आप जो रक़म कहेंगे हम देने को तैयार हैं। मगर पहले शाद का इलाज ज़रूरी है। चचा ये बड़ी भयानक बीमारी है। सँभलने का मौक़ा नहीं देती। और फिर शाद का मामला तो बहुत गंभीर है। पहले ही एक ऑपरेशन हो चुका है।' 

उसकी बात याद कर उन्होंने मन ही मन उसे गरियाते हुए कहा, 'कमीना मुझे कैसे डरा रहा था। बीस-पचीस लाख में करोड़ों की प्रॉपर्टी हड़पना चाहता है। बीस-पचीस लाख दे कर पहले फँसा लेगा, फिर औने-पौने दाम देगा कि, इससे ज़्यादा नहीं दे पाऊँगा, चाहे दें या ना दें। मेरे पैसे वापस कर बात ख़त्म करिए।

’और क्योंकि तब पैसे वापस करना मेरे वश में नहीं होगा। तब औने-पौने में सब लिख देने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं होगा। इसके चक्कर में पड़ा तो, यह तो दर-दर का भिखारी बना देगा। कमीना कितना पीछे पड़ा हुआ था कि, पैसा लिए ही जाइए। जब दाल नहीं गली तो कैसे आवाज़ में तल्ख़ी आने लगी थी। देखो अब यह बिल्डर क्या गुल खिलाता है।' 

जब-तक बिल्डर आया नहीं, तब-तक वह इन्हीं सब बातों में उलझते रहे। इस बीच नुरीन के बहुत ज़िद करने पर उन्होंने मूँग की दाल की थोड़ी सी खिचड़ी खायी थी। जब ढाई-तीन घंटे बाद बिल्डर आकर गया तो उससे भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखी। उसने सीधे कहा कि, 'वह एरिया ऐसा है जो अपॉर्टमेंट या शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स दोनों ही के लिए कोई बहुत अच्छा नहीं है। फिर भी हम कोशिश करते हैं। कुछ बात बनी तो आएँगे।'

नुरीन के दादा ने देखा कि उसकी माँ इस दौरान खिड़की के आस-पास बराबर बनी हुई है। उसकी इस हरकत पर उन्हें ग़ुस्सा आ रहा था कि, यह छिप कर जासूसी कर रही है। बिल्डर अभी उन्हें निराश करके गया ही था, वह अभी निराशा से उबर भी न पाए थे कि, वह अंदर आ गई और सीधे बेलौस पूछताछ करने लगी कि, “यह क्या कर रहे हैं?” उनके यह बताने पर कि, “शाद के इलाज के लिए दुकान बेच कर पैसे का इंतज़ाम कर रहा हूँ।” तो वह बहस पर उतर आई कि, “आप बिना बताए ऐसा कैसे करने जा रहे हैं? वह मेरे शौहर हैं, जो करना है मैं करूँगी। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि, मुझे क्या करना है, क्या नहीं। आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं। आप तो हम सबको भीख मँगवा देंगे।”

नुरीन के दादा उसकी अम्मी की इन बातों का आशय समझते ही सकते में आ गए। उसने सख़्त लहज़े में कहा था कि, “आप दुकान नहीं बेचेंगे।” इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने भी पुरज़ोर आवाज़ में कहा, “वो तो मैं भी जानता हूँ कि, वह तुम्हारा शौहर है, और तुम उसके साथ क्या कर रही हो। लेकिन उससे पहले वह मेरी औलाद है, मेरे जिगर का टुकड़ा है। मैं उसे अपने जीते जी कुछ नहीं होने दूँगा। प्रॉपर्टी मेरी है, मैं उसे बेचूँगा, उसका इलाज कराऊँगा। मुझे रोकने वाला कोई कौन होता है। अगर मेरे रास्ते में कोई आया तो मैं उसे छोड़ूँगा नहीं, पुलिस में रिपोर्ट कर दूँगा।”

जब और ज़्यादा बोलने की ताब ना रही तो, वह अपना थर-थर काँपता शरीर लेकर बेड पर लेट गए। इस बीच दोनों की तेज़ आवाज़ें सुन कर नुरीन दौड़ी चली आई थी। वह अब्बू के पास बैठी थी, जब उसने यह तेज़ आवाज़ें सुनी थीं। उसकी बाक़ी बहनें भी आ गई थीं।

मगर सब अम्मी का आग-बबूला चेहरा देख कर सन्न खड़ी रह गईं। नुरीन भी कुछ बोलने की हिम्मत न कर सकी। क्षण-भर भी न बीता कि, अम्मी दरवाज़े की ओर पलटी और चीख़ पड़ी, “यहाँ मरने क्यों आ गई सब की सब? इतने बड़े घर में कहीं और मरने का ठौर नहीं मिला क्या?”

अम्मी का भयानक चेहरा देख सभी सिहर उठीं। सभी देखते-देखते वहाँ से भाग लीं। नुरीन भी चली गई। तब उसकी अम्मी बुद-बुदाई, “देखती हूँ बुढ़ऊ कि, बिना मेरे तू कैसे कुछ करता है। क़ब्र में पड़ा है, ऊपर ख़ाक भर पड़ने को बाक़ी रह गई है, और हमें धमकी दे रहा पुलिस में भेजने की, मुझे पुलिस के डंडे खिलाएगा। घबड़ा मत पुलिस के डंडे कैसे पड़वाए जाते हैं, यह मैं दिखाऊँगी तुझे। 

“अगला दिन तू इस घर में नहीं पुलिस के डंडों, गालियों के बीच थाने में बिताएगा। नुरीन को बरगला कर उसे मेरे खिलाफ भड़काए रहता है ना, देखना उसी नुरीन से मैं तुझे न ठीक कराऊँ, तो अपनी वालिद की औलाद नहीं।”

इसके बाद नुरीन की अम्मी का बाक़ी दिन, सोने से पहले तक का सारा समय बच्चों को मारने-पीटने, गरियाने, शौहर की इस दयनीय हालत में भी उनको झिड़कने और अपने दुल्हा-भाई से कई दौर में लंबी बातचीत करने में बीता। रात क़रीब दस बजे दुल्हा भाई को उन्होंने घर भी बुलाया। फिर उसको और नुरीन को लेकर एक कमरे में घंटों खुसुर-फुसुर न जाने क्या बतियाती रही।

नुरीन के अलावा बाक़ी बच्चों को दूसरे कमरे में सोने भेज दिया था। बातचीत के दौरान नुरीन कई बार उठ-उठ कर बाहर जाने को हुई, लेकिन उन्होंने उसे पकड़-पकड़ बैठा लिया। उस रात उसे सुलाया भी अपने ही पास। यह अलग बात है कि, नुरीन रात-भर रोती रही, जागती रही, सो नहीं पाई।

अगली सुबह रोज़ जैसी सामान्य ही दिख रही थी। नुरीन दादा को उनका नाश्ता दे आई थी। मगर उसके चेहरे पर अजीब सी दहशत, अजीब सा सूनापन ही था। वह खोई-खोई सी थी। फिर ग्यारह बजते-बजते उसकी अम्मी उसे तैयार कर चौक थाने पहुँच गई। जब घंटे भर बाद नुरीन को लेकर लौटी तो, उसने सबसे पहले ससुर के कमरे की ही जाँच-पड़ताल की।

वहाँ दो लोगों को बैठा पाकर भुन-भुनाई, “बुढ्ढा प्रॉपर्टी डीलरों का जमघट लगाए हुए है। सठिया गया है। कुछ देर और सठिया ले। तेरा सठियानापन ऐसे निकालूँगी कि, क़ब्र में भी तेरी रुह काँपेगी। दुल्हा-भाई को लोफ़र कहता है ना . . . घबरा मत।”

इधर नुरीन ने कमरे में पहुँचते ही बुर्का उतार कर फेंका और फूट-फूटकर रो पड़ी। उसकी अम्मी बाक़ी बहनों को दूसरे कमरे में बंद कर उसके पास पहुँची। बोली, “देख मैं जो भी कर रही हूँ, तेरे अब्बू की जान बचाने के लिए कर रही हूँ। मैं उनको और किसी को भी कुछ नहीं होने दूँगी। अब तू ख़ुद ही तय कर ले कि, अपने अब्बू की मौत का गुनाह अपने सिर लेना चाहती है या उनकी जान बचा कर अल्लाह की नेक बंदी बनना चाहती है।” 

अम्मी की बातों का नुरीन पर कोई असर नहीं था। वह फूट-फूटकर रोती ही रही। उसे थाने से आए हुए घंटा भर न हुआ था कि, इंस्पेक्टर दो कांस्टेबलों के साथ आ धमका। घर के दरवाज़े से दादा के कमरे तक उन्हें उसकी अम्मी ही लेकर गई। उसके दादा बेड पर आँखें बंद किए लेटे हुए थे। प्रॉपर्टी डीलर कुछ देर पहले ही जा चुके थे। 

कमरे में इंस्पेक्टर, कांस्टेबलों के जूतों की आवाज़ सुन कर दादा ने आँखें खोल दीं। दाहिनी तरफ़ सिर घुमा कर तीन लोगों को अम्मी संग खड़ा देख वह माजरा एकदम समझ ना पाए। तभी इंस्पेक्टर बोला, “जनाब उठिए आपसे कुछ बात करनी है।”

इंस्पेक्टर का लहज़ा बड़ा नम्र था। शायद दादा की उम्र और उनकी जर्जर हालत देख कर वह अपने कड़क पुलिसिए लहज़े में नहीं बोल रहा था। चेहरे पर अचंभे की अनगिनत रेखाएँ लिए दादा उठने लगे। उठने में उनकी तकलीफ़ देखकर इंस्पेक्टर ने उन्हें बैठने में मदद की और साथ ही प्रश्न भरी नज़र नुरीन की अम्मी पर भी डाली। 

दादा ने बैठ कर काँपते हाथों से चश्मा लगाया और इंस्पेक्टर की तरफ़ देखकर बोले, “जी बताइए क्या पूछना चाहते हैं?”

दादा का चेहरा पसीने से भर गया था। इंस्पेक्टर ने उनका नाम पूछने के बाद कहा, “आपकी पोती नुरीन ने कंप्लेंट की है कि, आप आए दिन उसके साथ छेड़-छाड़ करते हैं। आज तो आपने हद ही कर दी, सीधे उसकी आबरू लूटने पर उतर आए। उसके अब्बू बीमार हैं, लाचार हैं तो आप उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठा रहे हैं।”

इंस्पेक्टर इसके आगे आपनी बात पूरी ना कर सका। दादा दोनों हाथ कानों पर लगा कर बोले, “तौबा-तौबा या अल्लाह, ये मैं क्या सुन रहा हूँ। इस उमर में इतनी बड़ी ज़लालत भरी तोहमत। या अल्लाह अब उठा ही ले मुझे।”

यह कहते-कहते दादा गश खाकर बेड पर ही लुढ़क गए। इस पर इंस्पेक्टर ने एक जलती नज़र अम्मी पर डालते हुए कहा, “इनके चेहरे पर पानी डालिए और अपनी बेटी को भी बुलाइए।”

इस बीच इंस्पेक्टर ने मोबाइल पर अपने सीनियर से बात की जिसका लब्बो-लुआब यह था कि मामला संदेहास्पद है। दादा को जब-तक होश आया तब-तक इंस्पेक्टर ने नुरीन से भी पूछ-ताछ कर मामले को समझने की कोशिश की। लेकिन नुरीन ने रटा हुआ जवाब बोल दिया। अब-तक उसके ख़ालु सहित कई लोग आ चुके थे। 

घर के बाहर भी लोगों का हुजूम लगने लगा था। लोगों तक बात के फैलते देर न लगी। छुट्ट-भैये नेता मामले को तूल देने की फ़िराक़ में लग गए। किसी को यक़ीन नहीं हो रहा था कि, अब-तक अस्सी-बयासी वर्ष का जीवन इज़्ज़त से बेदाग़ गुज़ार चुके, असदुल्ला खां उर्फ़ मुन्ने खां अपनी पोती के साथ ऐसा करेंगे। 

अपने समय के मशहूर कनकउएबाज़ (पतंगबाज़) मुन्ने खां का आस-पास अपने समय में अच्छा-ख़ासा नाम था। पूरे जीवन उन पर किसी झगड़े-फ़साद, किसी भी तरह के ग़लत काम का आरोप नहीं लगा था। मज़हबी जलसों में भी वह ख़ूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। लोगों के बीच उनकी जो छवि थी उससे किसी को उन पर लगे आरोप पर यक़ीन नहीं हो रहा था। 

थाने पर उनके पहुँचने के साथ ही लोगों की भीड़ भी पहुँचने लगी थी। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा था कि, आरोपित, आरोपी दोनों एक ही परिवार के एक ही घर के सदस्य हैं। किसको क्या कहें। थाने पर वरिष्ठ अधिकारियों ने समझा-बुझा कर भीड़ को वापस किया। 

मुन्ने खां, नुरीन, उसकी अम्मी से कई बार पूछ-ताछ की गई। नुरीन से महिला अफ़सर ने बड़े प्यार से सच जानने का प्रयास किया। लेकिन नुरीन ने हर बार उसे वही सच बताया जो उसकी अम्मी और ख़ालु ने रटाया था। इससे वह बुरी तरह ख़फ़ा हो गई।

अंततः मुन्ने खां को हवालात में डाल दिया गया। अगले तीन दिन उनके हवालात में ही कटने वाले थे। क्योंकि अगले दिन किसी त्योहार की और फिर इतवार की छुट्टी थी। 

नुरीन जब अम्मी, ख़ालु के साथ घर पहुँची तो, देखा रात नौ बजने वाले थे फिर भी, घर के आस-पास दर्जनों लोगों का जमावड़ा था। सारे लोगों के चेहरे घूम कर उन्हीं लोगों की तरफ़ हो रहे थे। अंदर पहुँचते ही नुरीन फूट-फूटकर रोने लगी। अब तक एक-एक कर सारी फुफ्फु-फूफा, ख़ालु-खाला सब आ चुके थे। 

घर लोगों से भर चुका था। साथ ही दो धड़ों में बँटा भी हुआ था। एक धड़ा दादा की लड़कियों, उनके परिवारों का था, जो दादा को अम्मी की साज़िश का शिकार एकदम निर्दोष मान रहा था। दूसरी तरफ़ नुरीन की ननिहाल की तरफ़ के लोग थे, जो मासूम नुरीन को दादा के ज़ुल्मों का शिकार, उनकी करतूतों की सताई लड़की मान रहे थे।

जो यह कहने से न चूक रहे थे कि, “बेचारी के बाप की अब-तब लगी है। और बुढ्ढा उसे अभी से अनाथ समझ हाथ साफ़ करने में लगा हुआ है।” तो कोई बोल रहा था कि, “ऐसे गंदे इंसान को तो दोज़ख़ में भी जगह न मिलेगी। अरे इसकी हिम्मत तो देखो। इसे तो जेल में ही सड़ा कर मार देना चाहिए।'

नुरीन के कानों में यह बातें पिघले शीशे सी पड़ रही थीं। उसके आँसू बंद ही नहीं हो रहे थे। मारे शर्मिंदगी के वह कमरे से बाहर नहीं निकल रही थी। दरवाज़ा अंदर से बंद कर रखा था। 

सारी फुफ्फु उससे बात कर सच जानना चाह रही थीं। लेकिन अम्मी और उनका धड़ा मिलने ही नहीं दे रहा था। देखते-देखते घर में ही दोनों धड़ों के बीच मार-पीट की नौबत आ गई। फिर फुफ्फु-फूफा, और मुहल्ले के कई लोगों का हुजूम थाने पहुँचा कि, किसी तरह दादा को छुड़ाया जाए, जिसका जो बन सका फ़ोन-ओन सब कराया गया।

लेकिन पुलिस ने क़ानून के सामने विवशता ज़ाहिर करके सबको वापस भेज दिया। उन सबके आने पर नुरीन की अम्मी ने एक और हंगामा किया। अपने सारे लोगों के साथ मिलकर किसी को घर के अंदर नहीं घुसने दिया। बात बढ़ गई। आधी रात हंगामा देख किसी ने पुलिस को फ़ोन कर दिया। पुलिस ने मामले की गंभीरता को देखते हुए फुफ्फु-फूफा आदि सबको उन्हें उनके घर वापस भेज दिया।

नुरीन क़रीब तीन बजे कमरे से बाहर निकल कर अब्बू के पास गई। अब तक अम्मी सहित सब सो रहे थे। उसने अब्बू को देखा, वह भी सो रहे थे। वह उनके सिरहाने खड़ी उनके चेहरे को अपलक निहारती रही। उसे लगा जैसे अब्बू के शरीर में कोई जुंबिश ही नहीं हो रही है। 

उसने घबराते हुए उनके हाथ को पकड़ कर हलके से हिलाया, कोई जवाब न मिला तो उसने दुबारा हिलाते हुए, 'अब्बू' आवाज़ भी दी तो इस बार उन्होंने हल्के से आँखें खोल दीं। नुरीन को लगा वह नाहक़ घबरा उठी थी। अब्बू तो पहले जैसे ही हैं। मगर उनकी आँखों में हल्की सी सुर्ख़ी ज़रूर आ रही थी। उसने अब्बू के कंधे पर कुछ ऐसे थपकी दी जैसे कोई माँ अपने दुध-मुँहे बच्चे को थपकी देकर सुलाती है। उसने देखा अब्बू ने भी आँखें बंद कर ली और सो गए।

अगला पूरा दिन अजीब से कोहराम और कशमकश में बीता। जंग का मैदान बने घर में उसे लगा कि, एक पक्ष जहाँ दादा को छुड़ाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है, वहीं अम्मी और उनका गुट दादा को हर हाल में लंबी सज़ा दिलाने में लगा है। इतना ही नहीं अम्मी उस पर बराबर नजर भी रखे हुए हैं, किसी से मिलने भी नहीं दे रही हैं।

इस बीच मान-मनौवल, दबाव, सुलह-समझौते की सबकी सारी कोशिशें अम्मी की एक ही बात के आगे ढेर होती रहीं कि, “मैं ऐसे आदमी को बख़्श के अपने सिर पर गुनाह का बोझ न लादूँगी, जिसने मेरी जवान, मासूम बेटी की इज़्ज़त पर हाथ डाला है।”

नुरीन ने देखा कि, अम्मी के बेअंदाज़ तेवर के आगे सब धीरे-धीरे पस्त होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं लोगों के बीच यह बात भी दबे ज़ुबान हो रही है कि, ऐसी औरत का क्या ठिकाना, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ना जाने किस पर क्या आरोप लगा दे। 

ऐसी ही किच-किच के बीच पूरा दिन बीत गया। ना ठीक से खाना-पानी। न ही आराम। समोसा-चाय, नमक-पारा चाय पर ही सब रहे। मर्द लोग बाहर खा-पीकर आते रहे। उसने अब्बू के लिए उनके हिसाब से लिक्विड फ़ूड नली के ज़रिए दिया। उसे दिन-भर सबसे ज़्यादा कुढ़न अम्मी और ख़ालु के बीच गुपचुप होती गुफ़्तगू से हुई। 

काली रात फिर घिर आई। बड़ी ज़िद पर उसे अम्मी ने अपने कमरे में सोने की इजाज़त दी। वह जब सोने के लिए कमरे में पहुँची तो देखा उसकी बहनें सो चुकी हैं। उसके तख़्त पर का बिस्तर ग़ायब था। मतलब साफ़ था कि, किसी मेहमान के लिए ले लिया गया था। 

उठाने वाले को यह परवाह बिल्कुल नहीं थी कि वह कैसे सोएगी। आधी रात में कोई और रास्ता न देख वह बिना बिस्तर के ही लेट गई। कम रोशनी का एक बल्ब अँधेरे से लड़ने में लगा हुआ था। दो दिन से ठीक से सो ना पाने। खाना-पीना न मिलने, भयंकर तनाव के चलते उसे सिर दर्द हो रहा था। आँखें जल रही थीं। मगर फिर भी उसका मन दादा पर लगा हुआ था। उसका मन बार-बार उस हवालात में चला जा रहा था, जिसमें दादा बंद थे। 

वह यह सोच-सोच कर परेशान होने लगी कि, उनकी जर्जर-सूखी हड्डियाँ हवालात की पथरीली ज़मीन का कैसे मुक़ाबला कर रही होंगी। अब-तक तो उनका अंग-अंग चोटिल हो चुका होगा। जिस तरह से उन्हें जीप में बिठाया गया। थाने पर इधर-उधर किया गया, उस कड़ियल व्यवहार, कड़ियल माहौल को वह कितना झेल पाएँगे।

दो-चार दिन भी झेल पाएँ तो बड़ी बात होगी। अम्मी के दबाव, उनके डर के चलते मैंने एक फ़रिश्ते जैसे इंसान पर, वह भी अपने सगे दादा पर एकदम झूठा, वह भी इतना घिनौना आरोप लगाया। इन ख़्यालों ने उसे भीतर ही भीतर और तोड़ना शुरू कर दिया। 

उसकी आँखों के किनारों से आँसू निकल कर, कानों तक जा कर उन्हें भिगो रहे थे। इस बात पर वह सिसक पड़ी कि, वह अम्मी, खालू की साज़िश का आख़िर विरोध क्यों न कर पाई। तमाम बातों पर अम्मी से अक़्सर भिड़ जाने की उसकी हिम्मत आख़िर कहाँ चली गई थी कि, दादा पर ऐसा आरोप लगाया।

वह दादा जो मेरे अब्बू, हम सबके भविष्य के लिए अपनी जान से प्यारी दुकान, पुरखों की निशानी, कैसे एक पल गँवाए बिना बेचने लगे। और एक अम्मी है। जो अब्बू का क्या होगा? उसे इससे ज़्यादा चिंता प्रॉपर्टी की है। उसे बचाने के लिए इस हद तक गिर गई। मुझे अब्बू के नाम पर कितना डरा धमका रही हैं। एक तरह से ब्लैकमेल कर रही हैं। अब्बू की जान का भय दिखा कर ब्लैकमेल कर रही हैं।

जब कि सच यह है कि, ऐसे तो अब्बू जितने समय के मेहमान हैं, वह भी ना चल पाएँगे। और मुझे तो मुँह दिखाने लायक़ ही नहीं छोड़ा है। मैं किस तरह लोगों को अपना मुँह दिखाऊँगी। सच तो सामने आएगा ही। दादा छूटेंगे ही। या अल्लाह मैं कैसे करूँगी इन सबका सामना। अपना यह काला मुँह दुनिया के किस कोने में ले जाऊँगी। कहाँ छिपाऊँगी अपना गुनाह। अल्लाह कभी माफ़ नहीं करेगा मुझे।

पुलिस वाले जिस तरह बार-बार पूछ-ताछ कर रहे हैं, मैं ज़्यादा समय उनको अँधेरे में रख नहीं पाऊँगी। वैसे भी उन सब की हमदर्दी दादा ही के साथ है। उन्हें सिर्फ़ प्रमाण नहीं मिल पा रहा है कि झूठ पकड़ सकें। जिस दिन वह मेरा झूठ पकड़ेंगे, उस दिन मुझे जेल भेजे बिना छोडे़ंगे नहीं। और तब मुझे सज़ा होने से कोई नहीं बचा सकेगा। मैं बर्बाद हो जाऊँगी।

बताते हैं लेडीज़ पुलिस भी बहुत मारती है। अम्मी के दबाव में, मैंने जो गुनाह किया है, उसकी सज़ा अल्लाह जो देगा, वो तो देगा ही, पुलिस उससे पहले ही हड्डी-पसली एक कर देगी। दुनिया थूक-थूक कर ही ऐसी ज़लालत की दुनिया में झोंक देगी कि, मेरे सामने सिवाय कहीं डूब मरने के कोई रास्ता नहीं होगा। 

अम्मी का यह झूठ-गुनाह बस दो चार दिन का ही है। उसके गुनाह से मैंने यदि समय रहते निजात न पा ली तो, सब कुछ बरबाद होने, तबाह होने से बचा ना पाऊँगी। समय रहते अम्मी के गुनाह की इस दुनिया को नष्ट करना ही होगा, इसी में पूरे परिवार और उनकी भी भलाई है।

नुरीन लाख थकी-माँदी, भूखी-प्यासी थी, लेकिन दिमाग़ में चलते इन बातों के बवंडर से ख़ुद को अलग नहीं कर पा रही थी। आँखों में गहरी नींद थी, लेकिन उन्हें बंद कर वह सो नहीं पा रही थी। उसके दिलो-दिमाग़ इंतिहा की हद तक बेचैन थे।

तालाब से बाहर छिटक गई मछली की तरह उसकी तड़फड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी कि, कैसे इस हालात को बदल दे। जो कालिख ख़ुद पर पोत ली है, उसे साफ़ कर पाक-साफ़ बन जाए। उलझन तड़फड़ाहट बेचैनी इतनी बढ़ी कि, वह उठ कर बैठ गई।

अगली सुबह उसकी अम्मी जल्द ही उठ गई। उसने रात-भर एक सपना कई बार देखा कि, नुरीन अपनी सारी बहनों को लिए घर के आँगन में एक तरफ़ खड़ी है। वो उन्हें जो भी बात कहती है, उसे नुरीन और उसकी बहनें एक-दम तवज्जोह नहीं दे रही हैं। और जब वह ग़ुस्से में उन्हें मारने दौड़ती है तो, वह सब नुरीन के पीछे-पीछे, कुछ क़दम बाहर को जा कर, एक-दम ग़ायब हो जाती हैं।

उन्होंने बेड पर से उतरने के लिए दोनों पैर नीचे लटकाए, दुपट्टे को ओढ़ने के लिए कंधे पर पीछे फेंका तो, उनको लगा कि उसके एक कोने पर कुछ बँधा हुआ है। दुपट्टे के छोर को वापस खींचा तो, देखा उनका शक सही था। वह मन ही मन बोलीं, ’मैं तो दुपट्टे में यूँ कभी कुछ बाँधती नहीं। कल सोते वक़्त भी, कुछ नहीं था मेरे हाथ में, जो बाँधती।'

मन में बढ़ती जा रही इस उलझन के बीच ही उन्होंने गाँठ खेल कर देखा तो, उसमें किसी कॉपी के कई पन्ने बँधे हुए थे। जिसके पहले पन्ने पर बड़े अक्षरों में सिर्फ़ इतना लिखा था, “अम्मी यह सिर्फ़ तुम्हारे लिए है। आगे के पन्नों को पूरा ज़रूर पढ़ लेना।”

यह लाइन पढ़ते ही उसकी अम्मी भीतर ही भीतर कुछ बुरा होने की आशंका से घबरा उठी। उन्होंने अपनी धड़कनों के बढ़ते जाने को स्पष्ट महसूस किया। साथ ही पूरे शरीर में एक थर-थराहट भी। 

जल्दी से अगला पन्ना खोल कर पढ़ना शुरू किया। पहली लाइन पढ़ते ही दिल धक् से हो कर रह गया। चेहरे पर पसीने की बूँदें चमक उठीं। हथेलियाँ नम हो उठीं। कुछ क्षण अपने को सँभालने के बाद उन्होंने पहली ही लाइन से फिर पढ़ना शुरू किया। 

नुरीन ने बिना किसी अभिवादन के सीधे-सीधे लिखना शुरू किया था कि, “अम्मी मैं हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रही हूँ। इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ज़िम्मेदार हो। मैं तुम्हारे गुनाहों में अब और साथ नहीं दे सकती। इसलिए मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है।

“इससे भी पहले यह कहूँगी कि, मैं अपने अब्बू को, निरीह, लाचार अब्बू को, तुम्हारे गुनाहों के कारण समय से पहले मौत के मुँह में जाते नहीं देख सकती। और साथ ही यह भी कि, तुम अब्बू के इलाज में अकेली सबसे बड़ी बाधा हो, रुकावट हो। 

“अम्मी मैंने अब-तक, अपने जीवन में तुम्हारी जैसी औरत नहीं देखी, जो संपत्ति के लालच में अपने शौहर को मौत के मुँह में धकेल दे। मुफ़्त की संपत्ति पाने के लिए फ़रिश्ते जैसे अपने ससुर पर अपनी पोती की इज़्ज़त लूटने का घिनौना इल्ज़ाम लगा दे। 

“तुम लालच में इतनी अंधी हो गई हो कि, अपनी बेटी की इज़्ज़त पूरी दुनिया के सामने उछालते तुम्हें ज़रा भी संकोच, शर्म नहीं आई। तुमने पल-भर को भी यह ना सोचा कि, अस्सी बरस के ऐसे इंसान पर तुम आरोप लगा रही हो जो, चलने-फिरने, खाने-पीने में भी लाचार है। वह मेरी जैसी लहीम-सहीम एक जवान लड़की की इज़्ज़त क्या लूट पाएगा? 

“तुम्हें यह आरोप लगाते हुए ज़रा सी यह बात समझ में न आई कि, दुनिया तुम्हारी इन बातों पर कैसे यक़ीन कर लेगी। हर आदमी शुरू से ही तुम पर ही शक कर रहा है। पुलिस को दुनिया ऐसी-वैसी कहती रहती है। लेकिन वह सब भी, तुम्हीं पर शक कर रहे हैं कि, तुमने मुझ पर कोई न कोई दबाव बना कर ही, मुझे इस साज़िश में शामिल किया है। 

“अम्मी तुम्हें भले ही पुलिसवालों, दुनिया वालों की नज़र में ख़ुद के लिए लानत-मलामत ना दिख रही हो, लेकिन मैंने इन सबकी नज़रों में अपने लिए ग़ुस्सा, नफ़रत, लानत-मलामत सब देखा है। किसी के सामने पड़ने पर शर्म के मारे मैं ज़मीन में धँसी चली जाती हूँ। मुझे लगता है कि, जैसे सचमुच ही सरे-राह मेरी इज़्ज़त लुट चुकी है।
 
“तुम्हें भले ही इन बातों से कोई फ़र्क़ ना पड़े, लेकिन मुझे वह सब सुन कर लगता है कि, इससे अच्छा था कि, मैं मर ही जाती। 

“उस महिला पुलिस अधिकारी ने बड़ा साफ़-साफ़ पूछा कि, 'तुम्हारे दादा ने यह छेड़खानी पहली बार की या इसके पहले कितनी बार की। उन्होंने तुम्हारे शरीर के किस-किस हिस्से को छुआ।' वह मुझसे सच उगलवाने पर इस क़दर तुली हुई थी कि, शरीर के अहम हिस्सों की तरफ़ इशारा करके पूछती, 'यहाँ छुआ या यहाँ छुआ। किस तरह से दबाया, कितना किया।'

“मैं जवाब दे पाने के बजाय फूट-फूट कर रो पड़ी थी अम्मी। मुझे यह सब सुन कर लग रहा था, मानो सचमुच मेरी इज़्ज़त लुट रही है। असहनीय थी मेरे लिए वह ज़लालत। 

“मैं उस पुलिस अधिकारी को क्या बताती कि, मेरे दादा के हाथ हमेशा हम सब बच्चों की भलाई के लिए, दुआ के लिए ही उठे। सिर पर हाथ हमेशा आशीर्वाद के लिए ही रखा। लेकिन अम्मी, मैं ऐसी खुर्राट पुलिस ऑफ़िसर के भी सामने, ऐसी ज़लालत भरी स्थिति में भी टूटी नहीं। झूठ को बराबर सच बनाए रही। रोती रही मगर अड़ी रही।

“क्योंकि अब्बू का चेहरा बराबर मेरे सामने था। और तुम्हारी धमकी बराबर कानों में गूँजती रही कि, 'ज़रा भी तूने सच बोला तो अब्बू का मरा मुँह देखेगी।' तुम बराबर झूठ पर झूठ बोलती रही कि, तुम और ख़ालु अब्बू के इलाज के लिए पैसे का इंतज़ाम बस कर ही चुकी हो।

“अम्मी यह सब जानते हुए भी, मैं सिर्फ़ इस लिए तुम्हारे इशारे पर नाचती रही, क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अब्बू को नहीं खोना चाहती। और इसीलिए यहाँ से भागने का भी फ़ैसला लिया। हमेशा के लिए। क्योंकि मैं जानती हूँ कि, मैं यहाँ रहूँगी तो तुम तो अब्बू का इलाज कराने से रही। ऊपर से दादा को भी छोड़ोगी नहीं।

“इस हालत में इस तरह तो वह यूँ ही चल बसेंगे। इसलिए मैं जा रही हूँ। सबसे पहले मैं यहाँ से जाकर पुलिस को विस्तार से ई-मेल करूँगी, कि दादा को किस तरह झूठी साज़िश रचकर फँसाया गया। मुझे साज़िश में शामिल होने के लिए फँसाया गया, विवश किया गया। 

“इन सारी बातों की मैं विडियो रिकॉर्डिंग कर के, विडियो भी पुलिस को मेल कर दूँगी। कि दादा बिल्कुल बेगुनाह हैं, उन्हें तुरंत छोड़ दिया जाए। इस काम के लिए मैं तुम्हारा मोबाइल ले जा रही हूँ। यह काम पूरा होते ही कोरियर से भेज दूँगी।

“क्योंकि अपने पास रखूँगी तो पुलिस इसके सहारे मुझ तक पहुँच जाएगी। सच जानने के बाद वह तुम्हें नहीं छोड़ेगी। इसलिए मैं दादा को भी फ़ोन करके उनसे गुज़ारिश करूँगी कि, वो ख़ालु को छोड़ कर हमें, तुम्हें और बाक़ी सबको बख़्श दें। पुलिस को किसी भी तरह मना कर दें।

“उन्हें अब्बू का वास्ता दूँगी। अल्लाह-त-अला का वास्ता दूँगी कि, हम भटक गए थे। हमें माफ़ कर दें। हमें पूरा यक़ीन है कि, वे ऐसे नेक इंसान हैं कि, हम ने उनसे इतनी घिनौनी ज़्यादती की है, लेकिन वह फिर भी हमें बख़्श देंगे। वो इतनी क़ूवत रखते हैं कि, हमें ज़रूर बचा लेंगे। 

“अम्मी अब तुम यह सोच रही होगी कि, इस सबसे अब्बू का इलाज कहाँ से हो जाएगा। तो अम्मी यह अच्छी तरह समझ लो कि, जब मुझे यह पक्का यक़ीन हो गया कि, यह क़दम उठाने से दादा को बचाने के साथ-साथ अब्बू के इलाज का भी रास्ता साफ़ हो जाएगा, तभी मैंने यह क़दम उठाया।

मैं दादा से साफ़ कहूँगी कि, आप छूटते ही सबसे पहले जो प्रॉपर्टी बेचना चाहते हैं, तुरंत बेचकर अब्बू का इलाज कराएँ। और घर में शांति बनी रहे, इसके लिए वह तुम पर किसी सूरत में कोई केस न करें। तुम्हें बख़्श दें।

“एक तरह से यह तुम्हारे लिए सज़ा भी है। मैं उनसे यह भी कहूँगी कि, दादा मुझे भूल जाओ। क्योंकि मेरे वहाँ रहने पर आप यह सब नहीं कर पाएँगे। क्योंकि अम्मी, ख़ालु के साथ कोई ना कोई साज़िश रच कर मुझे फँसाए रहेंगी। 

“अम्मी मैं दादा को यह भी बता दूँगी कि, तुमने किस तरह प्रॉपर्टी के चक्कर में मेरा निक़ाह ख़ालु के लड़के दिलशाद से करने की साज़िश रची है। अम्मी तुम प्रॉपर्टी के चक्कर में इस क़दर गिर जाओगी, मैंने यह कभी भी नहीं सोचा था। तुम्हें यह भी ख़याल नहीं आया कि, मैं भी एक इंसान हूँ, कोई भेड़-बकरी नहीं कि, जहाँ चाहे बाँध दिया, जब चाहा तब ज़ब्‍ह कर दिया। 

“इस निक़ाह के बारे में सोचते हुए तुम्हें यह ख़याल तो करना चाहिए था कि, जिस लड़के के साथ मैं बचपन से खेलती-कूदती, पढ़ती-लिखती आई, जिसे मैंने हमेशा सगा भाई माना। उसे सगे भाई का दर्जा दिया, चाहा, प्यार किया, और उसने भी हमें, हमेशा सगी बहन माना, प्यार दिया। उससे तुम मेरा निकाह करने का फ़ैसला किए बैठी हो। 

“ख़ालु तो ख़ालु ठहरे, वह जानते हैं कि, घर में कोई लड़का है नहीं। मकान-दुकान मिलाकर कई करोड़ की प्रॉपर्टी है, जो अंततः लड़कियों को ही मिलेगी। इस स्वार्थ में अंधे हो उन्होंने तुम्हें फँसाया, फिर अपने लड़के को मुझसे निक़ाह के लिए तैयार कर लिया। 

“जब से तुम दोनों ने दिलशाद को इसके लिए तैयार किया है, तब से उसको मुझसे मिलने नहीं दिया। क्योंकि तुम्हें यह डर है कि, मुझसे मिलने के बाद वह मुकर ना जाए। 

“अम्मी तुम्हें सोचना चाहिए था कि, आख़िर मैं ऐसे शख़्स से कैसे निक़ाह कर लूँगी, जिसे बचपन से भाई की तरह देखती रही हूँ। फिर अचानक उसे शौहर मान लूँ। उसके बच्चों को पैदा करने लगूँ। छी....अम्मी मुझे घिन्न आती है। यह ख़्याल आते ही उबकाई आने लगती है।

“मैं दिलशाद को भी समझा कर मेल करूँगी। मुझे यक़ीन है कि, वह भी क़दम पीछे खींच लेगा। मैं उसको यह भी समझाऊँगी कि, यदि तुम्हारे अब्बू, मेरी अम्मी, मेरी छोटी बहनों से निक़ाह की बात चलाएँ, तो भी तुम ना मानना। बल्कि ऐसे किसी ग़लत काम को तुम रोकना भी। 

“अम्मी मैं एकदम समझ नहीं पा रही कि, आख़िर ख़ालु ऐसा कौन सा काला जादू जानते हैं कि, इतनी आसानी से तुम्हें बरगलाया। अपने इशारे पर तुम्हें नचाते हुए एक के बाद एक गुनाह करवाए जा रहे हैं। अम्मी ज़रा सोचो कि, इससे बड़ा गुनाह क्या होगा कि, तुम उनके बहकावे में आकर अपने शौहर से दग़ा कर बैठी। मेरी ज़ुबान यह कहते नहीं काँप रही अम्मी कि, तुम लंबे समय से यह इंतज़ार कर रही हो कि, कब तुम्हारे शौहर इस दुनिया से कूच कर जाएँ। 

“अम्मी यह कहने की हिम्मत इस लिए कर पाई हूँ, क्योंकि तुम्हारी हरकतों ने दिलो-दिमाग़ से तुम्हारे लिए सारी इज़्ज़त धो डाली है। जिस तरह तुमने अपनी जवान लड़कियों के सामने, घर में शौहर के रहते ख़ालु से नाजायज़ संबंधों की पेंगें बढ़ाईं, उससे अम्मी मन में तुम्हारे लिए नफ़रत ही नफ़रत भर गई है। 

“अपने शौहर की लाचारगी का जैसा फ़ायदा तुम उठा रही हो, अम्मी वैसा शायद ही कोई बीवी उठाती हो। ज़रा सोचो अम्मी तुम्हारी इस घिनौनी, ज़लील हरकत से अब्बू पर क्या बीतती होगी। अम्मी गुनाह करके ज़्यादा दिन बचा नहीं जा सकता। और अब यही तुम्हारे साथ भी हुआ। मैं जा रही हूँ। मेरे जाने से तुम्हारे और कई गुनाह भी बेपर्दा हो जाएँगे। कम से कम दादा के साथ तुमने जो किया वह तो बेपर्दा हो ही जाएगा। 

“जहाँ तक बाक़ी गुनाहों की बात है, तो समय के साथ वह अपने आप ही खुल जाएँगे। क्योंकि गुनाह एक दिन ख़ुद पुरज़ोर आवाज़ में दुनिया के सामने सच बोल ही देता है। अम्मी मैं पुलिस को यह भी कह दूँगी कि, मैं अब बालिग हूँ। मैं कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हूँ। अब मैं घर में नहीं रहूँगी। इसलिए मुझे ढूँढ़ा ना जाए। 

“दादा से कह कर सारे केस समाप्त करवा लूँगी। अम्मी मुझे अपनी हिम्मत, अपनी क्षमता पर यक़ीन है। एक दिन अपना एक मुक़ाम ज़रूर बनाऊँगी। जिस दिन कुछ बन गई, उस दिन एक बार घर ज़रूर आऊँगी। माना दुनिया बहुत ख़तरनाक है। 

“एक अकेली लड़की का उसमें रहना दुनिया के सबसे भयानक ख़तरे का सामना करने जैसा है। शेर, चीतों, भालुओं जैसे हिंसक जानवरों से भरे जंगल में अकेले घूमने जैसा है। अम्मी, ख़ालु जैसे लोगों के चलते ख़तरे का सामना तो मैं अपने घर में भी करती ही आ रही हूँ। 

“अम्मी इसी ख़तरनाक दुनिया में एक लड़की पढ़-लिख कर, मेहनत करके, होटल में वेटर से लेकर न जाने क्या-क्या काम करके आगे बढ़ती है, अपने इसी मुल्क में केंद्रीय मंत्री बन जाती है। और भी ऐसी न जाने कितनी लड़कियों ने अपना मुक़ाम बनाया है, तो मैं भी क्यों नहीं बना सकती।

अम्मी मैं जिस दिन कुछ बन जाऊँगी उस दिन अपनी बहनों को भी साथ ले जाऊँगी। और हाँ, मैं तुम्हारा बुर्का पहन कर जा रही हूँ। बड़ा ख़ूबसूरत है। तुम भले ही छिपाओ, लेकिन मुझे मालूम है कि किसने दिया है। वैसे भी क्या वाक़ई तुम्हें बुर्के की ज़रूरत है भी। 

“अम्मी तुमने मेरे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा है। इसलिए जा रही हूँ। हो सके तो गुनाहों से तौबा कर लेना। ज़िंदगी बड़ी ख़ूबसूरत है। इसे ख़ूबसूरत बनाए रखना अपने ही हाथों में है। अच्छा अल्लाह हाफ़िज़।”

नुरीन के ख़त को पूरा पढ़ते-पढ़ते नुरीन की अम्मी पसीने से नहा उठी। उन्हें सब कुछ हाथों से निकलता लग रहा था। हाथों से काग़ज़ों को मोड़ कर उन्हें जल्दी से एक अलमारी में रख कर ताला बंद कर दिया। और दुल्हा-भाई को फ़ोन करने के लिए उस कमरे में जाने को उठीं, जिसमें लैंड-लाइन फ़ोन रखा था। पसीने से तर उनका शरीर काँप रहा था। 

उन्होंने दरवाज़े की तरफ़ क़दम बढ़ाया ही था कि, एकदम से नुरीन सामने आ खड़ी हुई। वह एकदम हक्का-बक्का पल-भर को बुत सी बन गईं। नुरीन भी उनसे दो क़दम पहले ही स्तब्ध हो ठहर गई। उसकी अम्मी के दिमाग़ में एक साथ उठ खड़े हुए अनगिनत सवालों ने, उन्हें एकदम झकझोर कर रख दिया। 

फिर भी घर में मेहमानों की मौजूदगी का ख़याल उनके शातिर दिमाग़ से छूट न सका। वह दाँत पीसती हुई आग-बबूला हो बोलीं, “कलमुँही तू तो जहन्नुम में चली गई थी, फिर यहाँ मरने कैसे आ गई। कहीं ठिकाना नहीं लगा।”

यह कहती हुई वह नुरीन की तरफ़ बढ़ने को हुईं तो वह बेख़ौफ़ बोली, “दिलशाद से बात करने के बाद मैंने इरादा बदल दिया।”

उसकी इस बात का अम्मी ने ना जाने क्या मतलब निकाला कि, उस पर हाथ उठाती हुई बोली, “हरामज़ादी मुझको बदचलन कहते तेरी काली ज़ुबान कट कर गिर न गई।”

अम्मी के ऐसे रौद्र रूप से पहले जहाँ नुरीन दहल उठती थी, वह इस वक़्त बिल्कुल नहीं डरी और अम्मी के उठे हाथ को बीच में ही थाम कर बोली, “बस अम्मी . . . अब भी सँभल जाओ नहीं तो मैं चिल्ला कर सबको इकट्ठा कर लूँगी।”

कल्पना से परे उसके इस रूप से उसकी अम्मी सहम सी गईं। उन्हें जवान बेटी के हाथों में ग़ज़ब की ताक़त का अहसास हुआ। उन्होंने अपना हाथ नुरीन के हाथों में ढीला छोड़ दिया तो नुरीन ने उन्हें अपनी पकड़ से मुक्त कर दिया।

दोनों माँ-बेटी पल-भर एक दूसरे की आँखों में देखती रहीं। नुरीन की आँखें भर चुकी थीं। अम्मी की आँखें क्रोध से धधक रही थीं। सुर्ख़ हुई जा रही थीं। सहसा वह बोलीं, “मालूम होता तू ऐसी होगी, तो पैदा होते ही गला घोंट कर कहीं फेंक देती।”

इतना ही नहीं यह कहते-कहते उन्होंने नुरीन को पकड़ कर एक तरह से उसे जबरन बेड पर बैठा दिया। फिर बोलीं, “मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि, तू ऐसी नमक-हराम, एहसान फ़रामोश होगी। इतनी बदकार होगी कि, अपनी अम्मी को ही बदनाम करने पर तुल जाएगी। उसे बदचलन कहने में तेरी ज़ुबान नहीं काँपेगी। तेरी जैसी औलाद से अच्छा था कि मैं बे-औलाद रहती।

“अरे! आज तक सुना है कि, किसी लड़की ने अपनी अम्मी को ऐसा कहा हो। उसकी जासूसी की हो। चली थी घर छोड़ कर भागने, मुक़ाम बनाने, अब्बू का इलाज कराने, उस बुढ्ढे को छुड़ाने, कर चुकी सब। अपनी यह मनहूस सूरत लेकर बाहर निकलने में जान निकल गई। घबरा नहीं मैं तेरी सारी मुराद पूरी कर दूँगी। अब तेरी रुह भी इस घर से बाहर न जाने पाएगी। देखना मैं तेरा क्या हाल करती हूँ।” 

“अम्मी तुम्हारे जो दिल में आए कर लेना, मार कर फेंक देना मुझे, मैं उफ़्फ़ तक न करूँगी। मगर पहले अब्बू का इलाज हो जाने दो।”

इतना सुनते ही उसकी अम्मी फिर बरस पड़ीं। बोलीं, “हाँ . . . ऐसे बोल रही है जैसे करोड़ों रुपए वो कमा के भरे हुए हैं घर में, और बाक़ी जो बचा वो तूने भर दिए हैं।”

“अम्मी उन्होंने कमा के करोड़ों भरे नहीं हैं तो, तुमसे या दादा से भी कभी इलाज के लिए एक शब्द बोला भी नहीं है। जो भी उनका इलाज अभी तक हुआ है, वह दादा ने ख़ुद कराया है। एक बाप ने अपने बेटे का इलाज कराया है। और वही बाप आगे भी अपने बेटे का इलाज कराने के लिए अपनी संपत्ति बेच रहा है तो, तुम्हें क्यों ऐतराज हो रहा है।”

उसकी इस बात पर उसकी अम्मी और आग बबूला हो उठीं। किच-किचाते हुए बोलीं, “चुप . . .” इसके आगे वह कुछ और ना बोल सकीं। क्यों कि नुरीन बीच में ही, पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ आवाज़ में बोली, “बस अम्मी! बहुत हो गया। मेरे पास अब फ़ालतू बातों के लिए वक़्त नहीं है। मैं थाने जाकर अपनी कंप्लेंट वापस लेने के लिए दिलशाद को बुला चुकी हूँ। वह कुछ देर में आता ही होगा। मैं हर सूरत में दादा को छुड़ा कर आज ही लाऊँगी समझीं। अब इस बारे में मैं तुमसे या किसी से भी न एक शब्द सुनना चाहती हूँ, और न ही कहना चाहती हूँ।” 

नुरीन की एकदम तेज़ हुई आवाज़, एकदम से ज़्यादा तल्ख हो गए तेवर से उसकी अम्मी जैसे ठहर सी गई। उन्हें बोलने का मौक़ा दिए बग़ैर नुरीन बोलती गई। उसने आगे कहा, “और अम्मी यह भी साफ़-साफ़ बता दूँ कि, मैंने घर छोड़ने का इरादा बाहर आने वाली दुश्वारियों से डर कर नहीं बदला। मैंने घर छोड़ने का इरादा दिलशाद से बात कर के यह समझने के बाद बदला कि जिस मक़सद से मैं यह क़दम उठा रही हूँ, वह तो पूरा ही नहीं होगा। 

“दिलशाद ने साफ़ कहा कि, ’ऐसे कुछ नहीं हो पाएगा। केस उलझ जाएगा। पुलिस पहले तुमको ढूँढ़ने में लग जाएगी। और कोई आश्चर्य नहीं कि, अपनी योजना पर पानी फिर जाने और लेटर में लिखी तुम्हारी बातों से खिसियाई, ग़ुस्साई अम्मी, तुम्हारे फूफा वग़ैरह पर यह आरोप लगा दें कि, उन लोगों ने उनकी लड़की नुरीन का अपहरण करा लिया या हत्या कर दी। 

’वह कुछ भी कर सकती हैं, ऐसा ही कोई और बखेड़ा भी खड़ा कर सकती हैं। ऐसे मैं दादा का छूटना, अब्बू का इलाज तो दूर की बात हो जाएगी। तुम्हारी अम्मी घर के न जाने कितनों और को अंदर करा देगी। तुम भाग कर न अपनी बहनों को बचा पाओगी और ना ख़ुद को।

’जैसे उन्होंने तुम्हारा निक़ाह मुझसे तय कर दिया। वैसे ही तुम्हारे न रहने पर तुम्हारी बहनों का निक़ाह ऐसे ही तय कर देंगी। मेरे इंकार करने पर दूसरे भाइयों से कर देंगी। कुल मिला कर पूरा घर तबाह हो जाएगा। जब कि यहाँ रह कर जो तुमने तय किया है वह सब हो जाएगा। घर की और ज़्यादा थू-थू भी नहीं होगी। मुझसे जितनी मदद हो सकेगी मैं वह सब करूँगा।’ 

“अम्मी मुझे दिलशाद की सारी बातें एकदम सही लगीं। मुझे जब पक्का यक़ीन हो गया कि, मैं यहाँ रह कर ही सब कुछ कर पाऊँगी, तभी मैंने अपना इरादा बदला। अम्मी दिलशाद ने सच्चे भाई होने का अपना हक़ बख़ूबी अदा किया है। वह कुछ ही देर में यहाँ आने वाला है। मैं फिर तुमसे कह रही हूँ कि, अपनी ज़िद से अब भी तौबा कर लो। दादा को छुड़ाने साथ चलो। 

“अब्बू का इलाज करवाने के लिए वह जो करना चाहते हैं, वह उन्हें करने दो। इससे मेरी, तुम्हारी, इस घर की दुनिया में और ज़्यादा बदनामी होने से बच जाएगी। हम-दोनों ये कह देंगे कि, ग़लतफ़हमी के कारण यह ग़लती हो गई। थाने वाले मान जाएँगे। वह सब तो पहले से ही दादा को बेगुनाह मान कर ही चल रहे हैं। 

“अम्मी मान जाओ अभी भी वक़्त है, इससे ऊपर वाला हमें बख़्श देगा। वरना ये तो गुनाह-ए-कबीरा है, जो कभी बख़्शा नहीं जाएगा। इसलिए कह रही हूँ कि, तैयार हो जाओ हमारे साथ चलो। क्योंकि अब मैं किसी भी सूरत में पीछे हटने वाली नहीं। 

“एक बात तुम्हें और बता दूँ कि, मैं यहाँ तुम से यह सब कहने नहीं आई थी। मैं तो इरादा बदलने के बाद जो ख़त तुम्हारे दुपट्टे में बाँध गई थी, उन्हें वापस लेने आई थी। जिससे कि तुम उन्हें न पढ़ सको। उनमें लिखी बातों से तुम्हें दुख न पहुँचे। मगर बदक़िस्मती से आज तुम रोज़ से जल्दी उठ गई और ख़त पढ़ लिया। उनमें लिखी बातों के लिए अभी इतना ही कहूँगी कि, मुझे माफ़ कर दो या बाद में जो सज़ा चाहे, दे लेना, मगर अभी चलो।” 

नुरीन अपनी बात पूरी करके ही चुप हुई। उसकी अम्मी दो बार बीच में बोलने को हुई, लेकिन उसने मौक़ा ही नहीं दिया। उसके तेवर ने उसकी अम्मी को यह यक़ीन करा दिया कि, बाज़ी अब उसके हाथ से निकल कर बहुत दूर जा चुकी है। 

अब भलाई अगली पीढ़ी की बात मान लेने में ही है। नहीं तो इसके जोश में उठे क़दम से, वह भी हवालात का सफ़र तय कर सकती है। साज़िश रचने के आरोप में। करमजला दिलशाद इसके साथ है ही। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। जिसे सुन नुरीन फिर उनसे मुख़ातिब हुई। कहा, “लगता है दिलशाद आ गया है। तुम साथ चल रही हो तो मैं रुकूँ, नहीं तो अकेले ही जाऊँ।”

उसकी अम्मी ने एक जलती हुई नज़र उस पर डालते हुए, नफ़रत भरी आवाज़ में मुख़्तसर सा जवाब दिया, “चलती हूँ।”

इस बीच घर में ठहरे कई मेहमान जाग चुके थे, उनकी आवाज़ें आने लगी थीं। नुरीन बाहर दरवाज़ा खोलने को चल दी। वह बात किसी और तक पहुँचने से पहले अम्मी को लेकर थाने के लिए निकल जाना चाहती थी। जिससे बाक़ी सब, कोई रुकावट ना पैदा कर दें। उसे लगा कि, थाने पर जल्दी पहुँच कर इंतज़ार कर लेना अच्छा है, लेकिन यहाँ रुकना नहीं।

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टिप्पणियाँ

shaily 2021/11/13 02:05 PM

बहुत सही और सटीक कहानी लिखी है

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