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शकबू की गुस्ताख़ियाँ

सुबह पढ़ने के लिए पेपर उठाया तो नज़र शहर में एक नए फ़ाइव स्टार होटल के खुलने के विज्ञापन पर ठहर गई। पेपर के पहले पूरे पेज पर एक बेहद ख़ूबसूरत युवती की नमस्ते की मुद्रा में बहुत ही प्रभावशाली फोटो थी। और होटल के ग्रुप का नाम छोटा सा एकदम नीचे दिया गया था। 

पहला पेज खोलते ही अंदर पूरे पेज पर होटल के सबसे ऊपरी मंज़िल का दृश्य था। पंद्रहवीं मंज़िल पर स्वीमिंग पूल का। फ़ोटो ऐसे एंगिल से ली गई थी कि वहाँ से नीचे अंबेडकर पार्क का विहंगम दृश्य बहुत लुभावना लग रहा था। अँग्रेज़ी और हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित अख़बारों में छपे इस विज्ञापन ने सुबह-सुबह कुछ देर तो एक अजीब सी ख़ुशी, प्रसन्न्ता दी, कि हमारा शहर कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। 

भगवान लक्ष्मण का वह शहर लखनऊ, जहाँ आज़ादी के संग्राम में कभी स्वतंत्रता-सेनानियों ने अँग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिए थे। जहाँ आज मैट्रो ट्रेन चल रही है, पहले कभी वहाँ की सड़कों पर ‘इक्कों-तांगों’ का राज हुआ करता था। जिसके अवशेष पुराने शहर में आज भी हैं। 

कुछ पुरानी यादें एकदम ताज़ा होने लगीं। इन ताज़ा होती यादों में ही अचानक ही मेरा प्यारा मित्र शकीबुल्लाह आ गया। और मन दुखी कर गया। इतना कि आँखें भर आईं। मन ही मन कहा अरे शकबू ज़िन्दगी के आख़िरी दिनों में यह पागलपन करने की ज़रूरत क्या थी? शकबू मैं तुम्हारे उस काम को आज भी पागलपन ही कहूँगा। 

शकबू की याद ने मेरी ख़ुशी को एकदम ख़त्म कर मुझे दुख में डुबो दिया। मेरी हालत महाभारत के युद्ध में घायल पड़े दुर्योधन सी हो गई। जिसे यह वरदान था कि जब उसके सुख-दुख का स्तर एक समय में एक बराबर हो जाएगा तभी उसके प्राण-पखेरू उड़ेंगे। 

जैसे भीम की गदा से घायल दुर्योधन तड़प रहा था, वैसे ही मैं कराह उठा था। शकबू की याद में डूबते-डूबते पेपर पढ़ना भूल गया। पेपर पढ़ना मेरे लिए एक नशे की लत सा है। ऐसी लत जो मरते दम तक नहीं छूटेगी। मगर यह लत इस समय एकदम स्थगित हो गयी थी। 

हिंदी, अँग्रेज़ी, दोनों पेपर मैंने सामने पड़ी बेंत की टेबल पर रख दिए। और मकान की दूसरी मंज़िल की बॉलकनी में बैठा सामने पार्क में खेलते बच्चों को देखने लगा। जो सामने ही स्थित एक स्कूल के बच्चे हैं। और स्कूल में कंडोलेंस मीटिंग के बाद असमय ही हुई छुट्टी के कारण पार्क में खेल रहे थे। 

मेरी नज़र इधर-उधर उन पर ठहर रही थी। लेकिन दिलो-दिमाग़ शकबू में खोया जा रहा था। जीवन के क़रीब सत्तर साल पूरे करने के बाद भी यदि कोई चीज़ ऐसी थी जो मुझे दुख पहुँचाती थी तो वह सिर्फ़ शकबू था। वह भी पिछले दो साल से, नहीं तो मैंने जीवन में जो चाहा वह पाया। पूरे चालीस साल वकालत करने के बाद पेशे को आख़िरी प्रणाम किया था। शकबू ने भी ठीक उसी दिन। 

अपने जीवन में मैंने शकबू के बाद उसके जैसा ज़िंदादिल आदमी केवल अपने एक चचेरे भाई को पाया था। और ज़िंदादिली भी क्या कि जो भी दिल चाहा वह कर गुज़रे। शकबू ने सरसठ-अड़सठ की उम्र में बाइस वर्षीया शाहीन को दिल देने का मन किया तो दे दिया। उससे निकाह कर जब घर पहुँचे तो पहली बेगम को पता चला। फिर कोहराम मचना था तो मचा। मगर शकबू जीवन में कब किसी की सुनता था, जो उस दिन सुनता। 

सबसे छोटा लड़का जो कि चार साल से तलाक़शुदा ज़िन्दगी जी रहा था, उसने ज़्यादा हंगामा किया तो साफ़ बोल दिया ‘मेरी ज़िन्दगी है। मैं जैसे चाहूँगा जीयूंगा। तुमने मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ निकाह किया तो मैंने कुछ नहीं कहा था। फिर तुम मेरे मुआमले में क्यों दख़ल दे रहे हो। 

अम्मी का तुम्हें ज़्यादा ख़्याल है तो चाहो तो उन्हें लेकर दूसरे मकान में रहो। जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं चाहूँ तो उन्हें तीन सेकेंड में तलाक़ दे दूँ। लेकिन मैंने जैसे आज तक उन्हें पूरी इज़्ज़त, प्यार, दिलोज़ान से लगा कर रखा है, आगे भी रखूँगा। शाहीन के कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। वह मेरी बेगम हैं, उसे समझाना-बुझाना, बाइज़्ज़त रखना मेरा काम है।”

लड़का जब बोला कि ‘वह उसकी अम्मी भी हैं और उसे हक़ है बोलने का।’ तो शकबू भड़क उठा था। आग-बबूला हो बोला था। ‘बिलकुल वह तेरी अम्मी हैं, लेकिन उससे पहले मेरी बेगम है। और मैं तेरा अब्बा। और एक सीमा के बाद मेरे जातीय मसले पर तुम भी नहीं बोल सकते। तुम चाहो तो रहो मेरे साथ, ना चाहो तो ना रहो। चाहो तो शाहीन को अपनी दूसरी अम्मी मानो, चाहो तो ना मानो। मगर मेरी ज़िन्दगी के इस मुआमले में अब कुछ नहीं बोलना। मैं क़तई बर्दाशत नहीं करूँगा।’

बात किसी तरह ठंडी पड़ी। शकबू की बेगम ने अपने बेटे को समझाया। चुप कराया। बोलीं ‘हमारे मुक़द्दर में यह बदक़िस्मती बाक़ी थी वह भी हो गई। अल्लाहतआला ने जो लिखा है मुक़द्दर में, होगा तो वही ना। इनकी आदतें, बातें देखकर मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि जीवन में कभी सौतन का भी मुँह देखूँगी। बुढ़ापे में शौहर तलवार गर्दन पर रख कर अपनी मनमानी पर चुप रहने को मजबूर कर देगा। मगर अल्लाह की ऐसी मर्ज़ी थी तो यह भी देखा।’

यह कहते-कहते शकबू की बेगम रो पड़ी थीं। उनके बेटे तौफ़ीक़ ने उन्हें समझाया और चुप करा कर अंदर दूसरे कमरे में ले गया। मगर जाने से पहले शकबू अपने अब्बा पर एक साथ कई गोले दाग गया कि ‘आज से आपके और परिवार के बाक़ी सब लोगों के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं, हमेशा के लिए। अब हमारे आप के बीच कोई रिलेशन नहीं रहा। और भूल कर भी किसी को मेरी दूसरी अम्मी ना कहिएगा। मुझे जिसने जन्म दिया मेरी बस एक वही अम्मी है।”

इस पर आग-बबूला शकबू और भड़क उठा था। उसे बेटे की यह बात अपनी नई-नवेली जवान बेगम की तौहीन लगी। और अपनी भी कि बेटे ने नई बेगम के सामने ऐसा कह दिया। उसने थरथराते हुए कहा, "तुम अपनी हद से बाहर आ रहे हो। तुम्हारे मानने न मानने से कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला। शाहीन तुम्हारी दूसरी अम्मी है। दुनिया यही कहेगी। और मैं चाहूँ तो अभी दो निकाह और कर सकता हूँ। मुझे अन्य मुसलमानों की तरह चार निकाह करने की बाक़ायदा इजाज़त है। तुम एक से इस तरह ख़फ़ा हो जब कि चाहूँ तो दो बेगम और ला सकता हूँ। और वह सब भी तुम्हारी सौतेली अम्मी होगी। दुनिया यही कहेगी। तुम रोक नहीं पाओगे।”

शकबू के यह कहने पर तौफ़ीक़ और भड़क उठा था। उसने बेलौस होकर कहा ‘आपको शायद मालूम नहीं कि चारों निकाहों के लिए कुछ शर्तें भी हैं। ये नहीं कि जैसी मर्ज़ी हो वैसा कर लो। तलाक़ की भी अपनी शर्तें हैं। ये नहीं कि बस आ गए मूड में तो तीन सेकेंड में कह दिया तलाक़, तलाक़, तलाक़। जैसा कि अभी आपने धमकी दी। 

इस समय आप बिलकुल उन काफ़िरों की तरह बात कर रहें हैं, जो अपनी हाइपर सेक्सुअल डिज़ायर पूरी करने के लिए इस्लाम क़ुबूल कर कई औरतों से निकाह कर लेते हैं। जब कि सच में उनका इस्लाम पर कोई ईमान होता ही नहीं। उनका इस्लाम से कोई लेना-देना ही नहीं होता।” इसके बाद तौफ़ीक़ ने अपने अब्बा शकबू को कई ऐसी सख़्त बातें कह दीं कि शकबू अपना आपा खो बैठा था। बाप-बेटे में हाथा-पाई की नौबत आ गई थी। 

तौफ़ीक़ की अम्मी इस अप्रत्याशित घटना को बर्दाश्त न कर सकीं। वहीं गश खाकर गिर गईं। यह तमाशा देख कर शाहीन भी घबरा गई थी। उसने अपने शौहर शकबू को शांत कराया। मगर सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि अपनी नई बेगम के सामने शकबू इस तरह बंधा-बंधा सा था कि गश खाकर गिरी अपनी पहली बेगम को उठाना तो छोड़िए उसकी तरफ़ एक क़दम भी बढ़ाया नहीं कि वह कैसी हैं? यह भी देख सके। 

वही शकबू जो कभी अपनी इसी पहली बेगम पर जान छिड़कता था। उसकी सुंदरता पर फ़िदा हो उसे शमशीर कहता था। वह जब टोकती “क्या शमशीर-शमशीर कहते हो। यह भी भला कौन सा नाम हुआ?” बेगम चाहती थी कि वह अव्वल तो उसका नाम ले ही ना। अगर ले तो जो उसका वास्तविक नाम है शाजिया, वही ले। 

उस रोज़ इसी शाजिया की तरफ़ शकबू के क़दम बढ़े ही नहीं। जैसे उनमें बेड़ियाँ जकड़ीं हों। जब कि नई बेगम ने बड़ी दिलेरी दिखाई और अपनी सौतन की मदद के लिए उसकी तरफ़ बढ़ गई। मगर आग-बबूला तौफ़ीक़ ने उसे इतना तेज़ डपटा कि वह सहम कर चौंक गई। और पीछे हट कर अपने शौहर के पीछे जा खड़ी हुई। वह काँप रही थी। शकबू भी काँप रहा था। लेकिन वह डर से नहीं। बेटे के व्यवहार से ग़ुस्सा हो कर काँप रहा था। 

शाजिया अगर बेहोश ना होती तो अब-तक वह अपने बेटे पर हाथ उठा देता। तौफ़ीक़ अम्मी को उठा कर बग़ल के कमरे में ले गया। इधर शकबू अपनी नई नवेली बेगम को घर की पहली मंज़िल पर अपने उस कमरे में ले गया जो पेशे से रिटायरमेंट लेने के बाद उसने अपने लिए स्टडीरूम कम बेडरूम की तरह बनवाया था। 

शकबू को उपन्यास पढ़ने का जुनून था। इधर कुछ बरसों से मेरे कहने पर वह हिंदी के नामचीन हिंदी उपन्यासकार नरेंद्र कोहली, मनू शर्मा के उपन्यासों के अलावा अँग्रेज़ी के हिंदी में उपलब्ध उपन्यासों को पढ़ क्या रहा था बल्कि घोंट कर पी रहा था। 

इसके पहले वह जासूसी उपन्यासों का दीवाना था। जेम्स हेडली चेज़, अगाथा क्रिस्टी, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा आदि के तो शायद ही कोई उपन्यास छूटे हों। इनके अलावा देवकी नंदन खत्री, इब्ने शफी, कुशवाहा कांत, जयंत कांत, को भी ढूँढ़-ढूँढ़ कर पढ़ता था। इसके लिए वह नज़ीराबाद में एक स्पोर्ट्स गुड्स की दुकान के सामने पुरानी किताबें बेचने वाले पर डिपेंड करता था। 

जब मैं कहता, ‘यार क्या यह सब पढ़ते रहते हो। मुझे तो लगता है तुम टाइम बरबाद करते हो। अरे कोई स्तरीय साहित्य पढ़ो।’ इस पर शकबू मुझे तरेर कर देखता। फिर कहता। ‘यार लाला तुम और ये बड़े़-बड़े साहित्यकार इन लेखकों को कुछ मानते ही नहीं। जब कि इनके लिखे में भी दम होता है। ये भी वही सब लिखते हैं जो हमारे बीच घटता है। बस कल्पना कुछ ज़्यादा हो जाती है। पर इसको सस्ता साहित्य कह कर सड़क पर फेंक दिया जाता है। तुम लोग इसको पढ़ने वाले को भी दुत्कारते हो। मगर यार कभी दिल पर हाथ रखकर इन लोगों के दिल का हाल भी जानो। तो शायद जो तुम मुझे मना करते हो वह न करो। ख़ैर छोड़ो तुम नहीं समझोगे। तुम पढ़ो अपना स्तरीय साहित्य। मुझे पढ़ने दो अपना साहित्य।’

मेरा यही प्रिय मित्र शकबू यदि उस कबाड़ी के यहाँ मेरे लायक़ कोई किताब पाता तो ख़रीद कर ज़रूर मुझे देता। एक बार वह क़रीब-क़रीब दुर्लभ सी किताब मध्यकालीन कवि सोमनाथ की ‘सोमनाथ ग्रंथावली’ ले आया मेरे लिए। तीन खंडों में क़रीब अठारह सौ पृष्ठों से बड़ी यह किताब आज भी मेरे पास मेरी किताबों की अलमारी में सुरक्षित है। 

यह संयोग ही था कि उसकी बेगम शाजिया भी बड़ी पढ़ाकू थीं। उन्हें फ़ैंटेसी या अय्यारी की किताबें पढ़ने का शौक़ था। उन्होंने देवकी नंदन खत्री की चंद्रकांता संतति, भूतनाथ बार-बार पढ़ी। ख़ुद शकबू उन्हें ऐसी किताबें लाकर दिया करता था। उस दिन वही शकबू भूल गया था अपनी शाजिया को। उसकी सौतन तो ले ही आया, जले पर नमक यह कि सौतन को लेकर पहली रात बिताने उसी कमरे, उसी बेड पर गया जो यह मकान बनवाते समय उसने ख़ास अपने लिए, अपनी ज़रूरतों के हिसाब से बनवाया था। 

मुझसे कहता था ‘यार लाला एक बात बताऊँ, कि ज़िन्दगी भर कमाने में ही लगा रहा। ज़िन्दगी जी कैसे जाती है, यह जब समझ पाया तो देखा ज़िन्दगी की तो शाम हो चुकी है। यार सोचता हूँ कि पता नहीं कब अचानक रात हो जाए। इसीलिए मैं बाक़ी ज़िन्दगी जी लेना चाहता हूँ। जितना ज़्यादा से ज़्यादा जी पाऊँ उतना। मैं बहुत जल्दी में हूँ यार।”

यही जल्दी शकबू के लिए बड़ी दर्दनाक साबित हुई। जिस शकबू को मैंने कभी उदास नहीं देखा था। उसी शकबू ने जीवन संध्या में कुछ ही दिनों में ऐसे दुःख झेले कि सारी ज़िन्दगी के सुख उसके सामने पसँघा भी नहीं रह गए। 

उस दिन भी वह उस कमरे में नई बेगम के साथ अपनी ज़िन्दगी जी रहा था और जो बेगम ज़िन्दगी भर हमसाया बनी रही, वह जीवन की जंग लड़ रही थी। लड़के और परिवार के अन्य सदस्यों ने ग़ुस्से में उन्हें बताया ही नहीं कि सदमें के चलते शाजिया को रात ग्यारह बजे जो सिवियर हार्ट अटैक पड़ा तो उन्हें डॉक्टर भी बचा ना पाए। लॉरी हॉस्पिटल में जब उन्होंने तड़के चार बजे आख़िरी साँस ली तब शकबू अपनी नई बेगम के साथ सोए हुए थे। 

उन्हें पता तब चला जब शाजिया की मिट्टी घर आ गई। लोग इकट्ठा हो गए। रोना-धोना शुरू हो गया। हक्का-बक्का शकबू, शाजिया के चेहरे से चादर हटाते ही ख़ुद को रोक ना पाया और शाजिया के सिर को पकड़ कर फफक कर रो पड़ा था। उसका पूरा शरीर हिल रहा था। मगर शाजिया अब थी कहाँ? जो हमेशा की तरह उसका सहारा बनती। उन्हें सँभालती। अब तो मिट्टी थी। लड़के, घर के बाक़ी सदस्यों में ग़ुस्सा इतना था कि किसी ने उन्हें कहने भर को भी सांत्वना देने के लिए एक क़दम ना बढ़ाया। 

रो-रो कर बेहाल होते शकबू की हालत जब मुझसे नहीं देखी गई तो मैं अपने इस दोस्त को सँभालने आगे बढ़ गया। उन्हें दोनों हाथों से थाम कर उठाया और एक तरफ़ पड़ी कुर्सी पर बैठाने को चला तो शकबू ने गिजगिजाकर मुझे जकड़ा और फिर फफक कर रो पड़ा। रोते-रोते बोला ‘लाला शाजिया चली गई। यार मैंने ऐसा गुनाह किया है कि परवरदिगार भी मुझे मुआफ़ नहीं करेगा। मैंने मार डाला। मैंने मार डाला उसे। अब मैं अल्लाहतआला को क्या मुँह दिखाऊँगा। शाजिया मुझे इतनी बड़ी सज़ा देगी मैंने सोचा भी नहीं था लाला। यार तुम्हारी बात मान लेता तो मुझसे यह गुनाह ना होता।’

शकबू का रोना देख कर मैं भी बड़ा भावुक हो रहा था। आँखें बस छलक ही जाने को थीं। ऐसा दोस्त ऐसी दोस्ती जिसे मुझे लगता है आज तक कोई देख ही नहीं पाया है। मैं उसे चुप ज़रूर करा रहा था। लेकिन ख़ुद को कितनी देर रोक पाऊँगा कुछ समझ नहीं पा रहा था। तभी एक और अप्रिय घटना हो गई। शकबू की नई बेगम शाजिया भी मिट्टी के पास पहुँच गई। 

उसका वहाँ पहुँचना था कि शकबू का लड़का तौफ़ीक़ चिल्ला पड़ा ‘हाथ ना लगाना मेरी अम्मी को। चली जाओ, जहाँ थीं उसी कमरे में।’ 

तौफ़ीक़ इतनी तेज़ चीखा था कि वहाँ उपस्थित सभी चिहुँक पड़े थे। शकबू एकदम सहम सा गया था। और शाहीन, वह भी नया ख़ून थी, लेकिन थी तो आख़िर महिला। तो वह भी एकदम चौंक गई थी। बेहद गोरे उसके चेहरे पर बड़ी-बड़ी उसकी आँखों से आँसू झर रहे थे। दरअसल तब उस घर में सबसे दयनीय स्थिति उसी की थी। अभी इस घर में आए उसे चंद घंटे ही हुए थे। कुछ घंटे पहले ही अपने शौहर की बाँहों में सिमटी ज़िन्दगी के हसीन सपनों में खोई हुई थी। 

दस-बारह घंटे पहले इस घर में पहली बार आने पर जिस तरह उसका इस्तकबाल हुआ था उससे वह यह तो जान गई थी कि हर तरफ़ से हमला होगा। और सिर्फ़ उसका शौहर ही उसकी ढाल, तलवार सब है। जब-तक वह है साथ तब-तक तो कोई चिंता नहीं। कुल मिला कर रोज़ काँटों भरे रास्ते से गुज़रना है। फिर कुछ देर को फूलों का बग़ीचा मिलेगा। मगर यहाँ तो क़हर ही टूट पड़ा था। 

ऐसा क़हर जिसने यह भी डर पैदा कर दिया था, कि कहीं उसकी तलवार, ढाल ही उसका साथ ना छोड़ दे। जीवन के क़रीब पचास साल साथ रही पहली बेगम शाजिया के इंतकाल के चलते कहीं भावुकता में वह उसके ही ख़िलाफ़ ना खड़ा हो जाए। वह हक्का-बक्का अपनी ओढ़नी से सिर और मुँह ढँके थरथराते क़दमों के साथ पीछे हट गई। तभी शकबू कुछ बोलने को हुआ तो मैंने उसे शांत रहने का इशारा करते हुए कंधे से पकड़ लिया। 

इसी बीच शकबू की मँझली लड़की ने आगे बढ़ कर शाहीन को बाँह से थामा और कान में कुछ फुसफुसाते हुए उसे ले जाकर ऊपर उसके कमरे में छोड़ आई। शकबू बार-बार फूट पड़ रहा था। उसकी चारों लड़कियाँ भी ज़ोर-ज़ोर से रो रही थीं। फिर बारह बजते-बजते शाजिया को ग़ुस्ल कराया गया। नमाज पढ़ाने आए मौलवी को शकबू ने नमाज पढ़ाने की इजाज़त दी। इसके बाद जनाज़ा क़ब्रिस्तान के लिए रवाना किया गया। 

पचास सालों से हर पल साए की तरह साथ रही शाजिया मेरे प्यारे शकबू को पल में छोड़ कर चली गई। और मुझे भी। शाजिया को मैं भाभी कहता था। मेरी और शकबू की शादी में मात्र तीन हफ़्ते का अंतर था। शकबू ने जब पहली बार उनसे मेरा परिचय कराया था तो मुझे अपनी बाँहों में भर कर कहा था, ’शाजिया ये मेरा बचपन का यार है। हम दोनों चौथी कक्षा से साथ पढ़े हैं। बस ये समझ लो ये मेरा यार ही नहीं मेरा भाई भी है, मेरा साया है। इसकी आव-भगत में कभी कोई कोताही ना करना। ध्यान रखना, बड़ा नकचढ़ा है। मुँहफट तो इतना कि अल्लाह बचाएँ। मगर दिल का साफ़ है। इसीलिए मेरी इसकी बचपन से छनती आ रही है और जीवन भर छनेगी।’

शाजिया नज़रें झुकाए शकबू की बातें सुन रही थीं। शकबू मेरी तारीफ़ के और क़सीदे पढ़े इसके पहले ही मैंने शाजिया को हाथ जोड़कर कहा ‘भाभी जी नमस्ते’ उन्होंने बड़ी मधुरता के साथ बड़े हौले से आदाब किया। और पचास साल तक मैं जब भी अपनी इस भाभी से मिला तो इस भाभी ने ऐसे ही प्यार से हमेशा मेरा स्वागत-सत्कार किया। मानो सगी भाभी हों। इन पचास सालों में एक भी ऐसा वाक़या, मुझे याद नहीं पड़ता जब मैंने उनकी नज़रों में अपने लिए, एक देवर के लिए भाभी की नज़रों में उमड़ता प्यार स्नेह ना देखा हो या कम देखा हो। 

अपनी उसी प्यारी भाभी को सुपुर्दे ख़ाक करते वक़्त मैंने भी उस दिन उन पर ख़ाक डाली। उस भाभी पर जिसके हाथों ना जाने कितनी बार खाना-पीना। चाय-नाश्ता किया था। उनके हाथ का बना मटन कोरमा मुझे बेहद पसंद था। मेरी इस पसंद को जानने के बाद वह जब मौक़ा मिलता तो बुलातीं और अपने हाथों से परोसतीं। शकबू छेड़ता तो सिवाय मुस्कुरा कर चुप रहने के और कुछ ना करतीं। मगर मेरा शकबू अब अकेला है। मेरे मन में क़ब्रिस्तान से लौटते वक़्त यह बात पल भर को आई थी। मगर फिर ख़ुद सोचा कि शकबू अकेला कहाँ है, शाहीन को कल ही तो नई बेगम बना कर ले आया है। भले अब शाजिया नहीं है और शकबू को रुला रही है। 

क़ब्रिस्तान से वापस मैं शकबू के घर तक फिर गया, उसे वहाँ छोड़ा। सांत्वना दी। तौफ़ीक़ से विशेष रूप से रिक्वेस्ट की ‘बेटा जो क़िस्मत में था वह हुआ। सब ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है। इस समय अब्बू, घर को सँभालना तुम्हारा फ़र्ज़ है। ऐसा कुछ ना करना कि अब्बू को कोई तकलीफ़ हो।’ मैं समझा-बुझा कर लौट आया। 

उस दिन और पूरी रात मेरी आँख नहीं लग पाई। सुगंधा ने कई बार कहा कि ‘कुछ खा-पी लो। आराम कर लो। अब जो होना था वह हो गया। भाई साहब (शकबू) ने इस उम्र में जो किया वह कोई पत्नी बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। पत्नी सुगंधा शकबू को भाई साहब ही बोलती थी। उसके बार-बार कहने के बावजूद मेरे गले के नीचे कुछ उतर नहीं रहा था। मैं अगले दिन सुबह फिर पहुँचा। 

नमाज अता की जानी थी। जब यह सब हो रहा था, तो मैंने देखा शकबू पहले दिन की अपेक्षा उस दिन बिलकुल शांत था। चेहरे पर गहन उदासी थी। तौफ़ीक़ का भी यही हाल था। हर तरफ़ मातम ही मातम था। शाहीन की झलक काले कपड़ों में मिली थी। फिर वह नहीं दिखी। पत्नी के साथ क़रीब दो घंटे वहाँ रहने के बाद मैंने चलते वक़्त शकबू से कहा ‘हिम्मत से काम लो। जिसका जितना साथ लिखा होता है वह उतना रहता है। भाभी का जितना साथ लिखा था उतने दिन रहीं। उनके जाने के लिए कहीं से कोई दोषी नहीं है। तुम तो सब बातें जानते ही हो। मैं क्या कहूँ।’ शकबू भरी-भरी आँखें लिए सब सुनता रहा। फिर बोला ‘लाला मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मैं अकेला हो गया हूँ या नहीं। शाजिया के जाने से या शाहीन के रहते ख़ुद को अकेला किस नज़रिए से कहूँ।’

शकबू का असमंजस देख कर मैंने कहा देखो ‘तुम अकेले नहीं हो। भाभी तुम्हें इतना चाहती थीं कि उनकी रूह तो क़यामत तक तुम्हें छोड़ ही नहीं पाएगी। वैसे अब शाहीन तो है ही। इसलिए अकेलेपन की बात सोचकर अपना मन दुखी मत करो। तुमने ज़िन्दगी को जीने की जो नई पहल शुरू की है। अब उससे पीछे हटना भी चाहो तो हट नहीं सकते हो। शाहीन अब तुम्हारे साथ है। इसलिए अब तुम्हें रुकना नहीं है। बस आगे ही बढ़ते रहना है। भाभी की रूह को इसी में शान्ति मिलेगी।’

मैंने ज़ोर देकर उससे कहा ‘सुनो, तौफ़ीक़ कुछ कहे भी तो शांत रहना। बोलना मत। नया ख़ून है, आवेश में है। इसलिए तुम धैर्य से काम लेना। जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।’ तभी शकबू बोला ‘सोच रहा हूँ शाहीन को कुछ दिन के लिए घर भेज दूँ क्या?’ उसकी बात सुनते ही मैंने कहा ‘नहीं। अब यह सब करने की ज़रूरत नहीं है।’

मैंने सोचा इस समय पूरा घर इससे नाराज़ है। कोई खाना-पीना भी इसको नहीं पूछेगा। यह अकेला कमरे में पड़ा रहेगा। एक शाहीन ही है जो इसके साथ बनी रहेगी। इसका दुख-दर्द बाँटेगी। बल्कि जल्दी ही शाजिया का दर्द ख़त्म कर देगी। दूसरे उसकी इसमें क्या खता कि शादी के एक दिन बाद ही पति को छोड़ कर मायके चली जाए। फिर उसके घर पर भी उसका कोई स्वागत नहीं होगा। पहाड़ सी मुश्किलें तो उसका वहाँ भी इंतज़ार कर रही हैं। सारे घर वालों को दरकिनार कर वह ना जाने क्या हुआ कि दीवानी सी शकबू के साथ आ गई। मेरे मना करने पर शकबू एकटक मुझे देखने लगा। 

मैंने कहा ‘देखो, बात को समझने की कोशिश करो। यहाँ जो हालात हैं उसमें ज़रूरी यह है कि शाहीन हर समय तुम्हारे साथ रहे। तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? फिर उसके घर वाले भी उससे नाराज़ हैं। कितना? यह तुम देख ही रहे हो कि क्षण भर को भी एक आदमी नहीं आया। इसलिए जहाँ तक मैं समझता हूँ कि अब के हालात में तुम दोनों का एक रहना बेहद ज़रूरी है।’ अंततः शकबू मान गया। उदास मन लिए मैं सुगंधा के साथ घर आ गया। 

आते वक़्त सिर्फ़ तौफ़ीक़ ही मुझसे दो मिनट मिला था। बाक़ी घर का कोई सदस्य नहीं मिला। वही घर जहाँ मेरे पहुँचने पर परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं होता था जो मुझसे ना मिलता। देर तक तरह-तरह की बातें ना करता। मगर बदले हालात में अब किसी को फ़ॉर्मेलिटी के लिए ही सही नमस्कार करना भी गवारा नहीं था। 

शकबू-शाहीन के मसले पर शायद पूरा घर मुझे भी कहीं दोषी मान रहा था। सबको यह ग़ुस्सा था कि शकबू मेरा बचपन का यार था। मुझे सब मालूम था। मैं उसे यह सब करने से रोकता तो क्या वह मानता नहीं? जब कि सच यह था कि जीवन भर कोई भी काम मुझसे सलाह-मशविरा किए बिना ना करने वाले शकबू ने जीवन में पहली बार मुझसे भी सब कुछ छिपाया। शाहीन के साथ उसका कोई रिश्ता बन चुका है इसकी उसने ख़बर तक नहीं की। जब निकाह करने जा रहा था तब सिर्फ़ फ़ोन कर कहा था, “लाला बहुत ज़रूरी काम है। जितना जल्दी हो सके फ़लाँ जगह पहुँचो।”

मैं घबराया कि यह इतनी अफनाहट में क्यों है? पूछा तो बोला, “परेशानी की कोई बात नहीं है। तुम तुरंत आओ बस।” मैं पहुँचा तो देखा शकबू अपनी कार में एक युवती को लिए बैठा सिगरेट पी रहा है। मेरे पहुँचने पर कार से बाहर आया, सिगरेट की डिब्बी मेरी तरफ़ बढ़ाई, मैंने भी एक सिगरेट लेकर उसी के लाइटर से जला कर एक कश लिया और पूछा, "अब बताओ क्या बात है? इतनी आफ़त कर दी खाना तक नहीं खाने दिया।”

इसी बीच मैंने यह भी देखा कि वह एक युवक की तरह मारे जोश के फड़क रहा है। साथ ही ब्रांडेड बेहद महँगी पैंट-शर्ट जूते पहन रखे हैं। राडो की महँगी घड़ी, गले में मोटी सी सोने की चेन। ना जाने कौन सा डियो स्प्रे किया था कि उसकी स्मैल आस-पास निकलने वालों को भी आकर्षित कर रही थी। उसको इस तरह देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि वह ऐसे ही दिलकश अंदाज़ में रहता था। 

मेरे पूछने पर कहा, “देखो लाला तुमने जीवन में कभी मेरी कोई बात नहीं टाली। मेरा पूरा यक़ीन है कि आज भी नहीं टालोगे। मैं जो करने जा रहा हूँ उसमें मेरा कोई साथ नहीं दे रहा है। अब तुम्हीं मेरा साथ दो और जो करने जा रहा हूँ वह पूरा कराओ।” इस बीच मैंने देखा कि कार में बैठी युवती बार-बार सशंकित नज़रों से मुझे एवं आस-पास से गुज़रते लोगों को देखती जा रही है। 

मैंने शकबू से कहा, “जब जानते हो मैं टालूँगा नहीं तो इतनी भूमिका क्यों बना रहे हो। सीधे-सीधे बताओ करना क्या है? इन मोहतरमा का अभी तक परिचय नहीं कराया। ये कौन हैं जिन्हें लिए घूम रहे हो?” शकबू बोला, “वही तो बताने जा रहा हूँ। ये तुम्हारी भाभी हैं। दूसरी भाभी।” इस पर मैंने कहा, “क्या मज़ाक कर रहे हो। तुम्हारी छोटी लड़की से कम उमर की लग रही है। और तुम उसे मेरी भाभी बता रहे हो।”

इस पर शकबू ने एक लंबा कश खींचा सिगरेट का और फिर धुआँ दूसरी तरफ़ फूँक कर बेहद रोमांटिक अंदाज़ में बोला, “यार ये दिल का मामला है और दिल के मामले में केवल भावनाएँ देखी जाती हैं। बाक़ी कुछ नहीं। उम्र वगरैह कुछ नहीं।” फिर शकबू ने बताया कि “यह वही शाहीन है जिसके बारे में तुम्हें बताया करता था। तुम यक़ीन नहीं करते थे। कहते थे मेरे जैसे बुढ्ढे से कोई लौंडिया क्यों इश्क़ फ़रमाएगी, लेकिन इश्क़ नहीं ये मेरी शरीकेहयात बन चुकी है। अब निकाह की रस्म भर पूरी करनी है। वह भी इसकी ज़िद है, इसलिए कर रहा हूँ, नहीं तो मैं तो ऐसे ही घर ले जा रहा था।” शकबू ने यह बोलकर मुझे सकते में डाल दिया था। 

शकबू शाहीन के बारे में पिछले कई महीने से कह रहा था। बड़े चटखारे लेकर बातें करता था। कई बार फूहड़ता की हद तक करता। अश्लीलता की सीमा पार कर देता। तब मैं इसे उसका ठिठोलीपन मानता। कहता, “अबे सँभल कर रहना इक्कीसवी सदी की कन्याएँ हैं। कहीं लेने के देने ना पड़ जाएँ।” मगर उसका जवाब होता था कि “लाला यहाँ भी बरसों-बरस का तजुर्बा है। एक से एक बे-अंदाज़ छोरियों को भी साधने का ऐसा तजुर्बा है कि इक्कीसवीं क्या बाइसवीं सदी की भी साध लूँगा। इसे जल्दी ही तुम्हारी भाभी ना बनाया तो कहना।” तब क्या पता था कि शकबू सच में सब चरितार्थ कर देगा। कुछ ही महीने में। 

मैं कुछ और कहूँ इसके पहले ही वह मेरे पास शाहीन को लेकर आया। मुझसे परिचय कराते हुए बोला, “शाहीन ये मेरा बचपन का यार लाला है। इसे मैं तुम्हारे बारे में सब बता चुका हूँ। इसके-हमारे बीच कुछ भी राज़ नहीं है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह तुम्हारा देवर है। ऐसा देवर जो तुम्हारी उतनी ही चिंता सम्मान और रक्षा करेगा जितना कि मैं।” शकबू के मुँह से मेरे लिए देवर शब्द सुनकर शाहीन के चेहरे पर एक सुर्ख़ी सी मुझे दिखाई दी थी। एक दबी मुस्कुराहट के साथ उसने नमस्कार किया। मैंने भी नमस्कार किया। 

शकबू द्वारा अचानक ही उसका देवर कहे जाने से मैं स्वयं भी अजीब सी स्थिति में पड़ गया था। कि यह मेरी लड़की सी है। मेरी लड़की से कम उमर होगी इसकी। और मैं इसे भाभी कहूँ। लेकिन दूसरी तरफ़ मेरे बचपन का यार, मेरा हमदम मेरा दोस्त था। जिसने उसके साथ रिश्ते की डोर बाँध दी थी। क्योंकि उसे अटूट विश्वास था कि मैं रिश्ते को निभाना जानता हूँ। दोस्त के लिए आया था तो दोस्ती निभानी ही थी। फिर अगले कुछ घंटों में निकाह पढ़वा दिया गया। 

साथ ही यह भी तय हुआ कि अगले हफ़्ते ही निकाह को रजिस्टर भी कराया जाएगा। इसके बाद समस्या आई कि मेरा यार अपनी दूसरे निकाह की सुहागरात पहली रात कहाँ मनाए? मैंने सलाह दी किसी होटल में इंतज़ाम किया जाए। लेकिन कुछ देर सोचने के बाद शकबू ने मना कर दिया। उसकी बातों से इतना ही संकेत मिला कि वह बेमेल निकाह के कारण ऐसा नहीं करना चाहता। फिर मैंने कहा, “चाहो तो मैं अपने घर में व्यवस्था कर दूँ।”

इस पर वह बोला, “देखो तुम कह ज़रूर रहे हो। मैं भाभी को भी अच्छी तरह जानता हूँ। व्यवस्था वो भी कर देंगी। लेकिन तुम्हारे बेटों-बहुओं को भी जानता हूँ। मैं अपनी ख़ुशी के लिए तुम्हारे परिवार में कोई खटास नहीं पैदा करना चाहता।” कोई रास्ता ना देख कर आख़िर हमेशा अपने मन की करने वाले शकबू ने एकदम फ़ैसला सुनाते हुए कहा। 

“यार घर मेरा है। मैं किसी पर डिपेंड नहीं हूँ। तौफ़ीक़ का परिवार है नहीं। शाजिया को भी बताना ही है। इसलिए अपनी नई बेग़म को भी अपने ही घर ले जाऊँगा। देखता हूँ जिन घर वालों की ख़ुशी के लिए मैंने पूरा जीवन एक कर दिया वह मेरी ख़ुशी के लिए क्या करते हैं।”

शकबू का यह फ़ैसला मुझे अटपटा लगा। इस उम्र में पत्नी के रहते इस तरह अचानक दूसरी पत्नी को लेकर पहुँच जाना मुझे स्थिति को विस्फोटक बनाने जैसा लगा। मैं अंदर-अंदर डर गया। शाहीन का भी यही हाल था। अपना संदेह मैंने ज़ाहिर भी किया। कहा, “दो चार दिन किसी होटल में बिताओ। फिर कहीं अलग मकान लेकर रहो। धीरे-धीरे चीज़ों को सामने आने दो। एक दम से पहुँचना अच्छा नहीं है।”

मगर मेरा दोस्त, ज़िद्दी शकबू नहीं माना। नई बेग़म शाहीन का हुस्न उसे अंधा किए जा रहा था। वह उसे लेकर चला गया। आख़िर जो आशंका थी वही हुआ। पहली बेग़म इस अचानक घटनाक्रम को बर्दाश्त नहीं कर पाई। मौत के मुँह में पहुँच गई। मगर इन सबसे अनजान शकबू रात-भर अपनी सुहागरात में खोए रहे। इस बात से अनजान की सुबह इतनी काली होगी कि उसके सारे जीवन को स्याह बना देगी। मगर शकबू की क़िस्मत ने उसे थोड़ी राहत दी। 

शाजिया की मृत्यु के बाद घर में जो कोहराम मचा था, वह दो-तीन दिन में रिश्तेदारों-नातेदारों के जाने के बाद गहन सन्नाटे में तब्दील हो गया। हाँ सारी महिलाओं ने शाहीन पर विष भरे बाण छोड़ने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी। तौफ़ीक़ ने सबके जाने के बाद ख़ुद को अपने कमरे में बंद कर लिया। या बाहर जाता या अपने कमरे बंद रहता। वह अब्बा के साए से भी दूर रहता। शाहीन ने खाना-पीना देने के बहाने संवाद क़ायम करना चाहा, लेकिन वह आँखों-चेहरे पर क्रोध के भाव लाकर उसे अपने पास फटकने ना देता। 

शकबू के ग़म को शाहीन ने कुछ ही दिनों में अपनी सेवा, हुस्न, प्यार से ख़त्म सा कर दिया। इसका अंदाज़ा मुझे शकबू के आने वाले फ़ोन से होता। वह शाजिया की बात तो कहने भर को करता और शाहीन के गुणगान से थकता ही नहीं। मैं मन ही मन कहता वाह रे हुस्न, आँखों पर पल में कैसे पर्दा डाल देता है। शाजिया जो पचास साल साथ रही उसको भुलाने में पचास दिन भी नहीं लगे। 

मैं सोचता कि उस दिन शकबू मेरी बात मान जाता। कुछ महीने कहीं और रखता शाहीन को तो आज शाजिया भाभी भी ज़िन्दा होतीं। मगर शकबू ने अपनी ज़िद में अपने ख़ुशहाल हँसते-खेलते परिवार को ख़ुद ही तबाह कर दिया। इस घटना ने मेरे मन में भी शकबू के लिए कहीं कुछ ऐसा पैदा कर दिया था जो कहीं से अच्छा नहीं था। 

वही शकबू जिससे मेरा साथ पाँचवीं कक्षा में हुआ था। पढ़ने में वह बहुत तेज़ था। फ़र्स्ट पोज़ीशन के लिए हमारे और उसके बीच ज़बरदस्त कॉम्पटीशन रहता था। दो चार नंबरों से ही दोनों आगे पीछे होते रहते थे। पढ़ाई के लिए तो कभी नहीं लेकिन शैतानियों के कारण शायद ही कोई हफ़्ता ऐसा बीतता रहा हो, जब–हम दोनों को घर और स्कूल में मार ना पड़ती रही हो। हाई-स्कूल में पहुँचते-पहुँचते हमारी शैतानियाँ उम्र से कहीं आगे की होने लगीं। इंटर में थे तभी पाकिस्तान ने हमला कर दिया। भारत ने लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में उसको तहस-नहस कर दिया। 

तब हम-दोनों ने ठाना कि हम भी राजनीति करेंगे। नहीं बनना मुझे डॉक्टर-इंजीनियर। शकबू के घर वाले उसे इंजीनियर और मुझे मेरे घर वाले डॉक्टर बनाने पर तुले हुए थे। मगर हम अड़े रहे। नहीं बनना। हम दोनों के बीच राजनीति को लेकर बड़ी चर्चा होती। 

शकबू शास्त्री जी की बात दोहरता, कहता, “कितना दम है इनकी बात में कि अगर लेनिनग्राड की जनता अपने देश के लिए भूखी रह कर लड़ सकती है तो भारत की जनता क्यों नहीं? और भारत की जनता अमेरिका के अपमानित पीएल 470 गेहूँ को खाने के बजाय मरना पसंद करेगी। फिर जय जवान जय किसान का नारा देते हुए कहा कि ज़मीन का एक टुकड़ा भी खेती से बचा नहीं रहना चाहिए। रेलवे लाइन के किनारे भी ज़मीन ख़ाली ना रहे। और यही हुआ भी। हर जगह खेती हुई।”

बाद के दिनों में शकबू कहता, “यार शास्त्री जी ने खाने-पीने के मामले में आत्म-निर्भरता की जो राह पकड़ाई उसी का परिणाम है कि आज देश खाने के मामले में आत्म-निर्भर है। लाखों टन अनाज तो लापरवाही में सड़ जाता है।” मैं कहता, “लोग फिर भी भूखे मर रहे हैं।” वह कहता, “यह भ्रष्ट व्यवस्था का कमाल है। अगर शास्त्री जैसा कोई आदमी आज प्रधानमंत्री होता तो एक भी आदमी एक टाइम भूखा सो नहीं सकता था।”

उन्नीस सौ पैंसठ की लड़ाई के वक़्त राजनीतिज्ञ बनने का जो जोश हम-दोनों पर सवार हुआ था वह जल्दी ही कमज़ोर पड़ गया। इंटर के बाद हम-दोनों की पढ़ाई उतनी अच्छी नहीं रही, पहले जितनी हुआ करती थी। वजह यह रही कि अब हम-दोनों बाल-सुलभ शैतानियों से आगे बढ़ कर आवारगी-लोफ़रटी की तरफ़ क़दम बढ़ा चुके थे। 

अब लखनऊ की गलियों, गंज, नदी किनारे घूमना-फिरना हमारी प्राथमिकता में शामिल हो गया था। मैं शुद्ध शाकाहारी परिवार से सम्बन्ध रखता था। लहसुन, प्याज़ भी घर में वर्जित था। कायस्थ होने के बावजूद इस मामले में इतनी सख़्ती थी कि लोगों को अजीब लगता। शकबू को भी। मुझे मांसाहार का स्वाद शकबू के ही ज़रिए मिला। शकबू के साथ ही पहली बार सिगरेट पीनी शुरू की। चारबाग़ में आज जहाँ ए.पी. सेन गर्ल्स कॉलेज है पहले वह जुबली गर्ल्स कॉलेज हुआ करता था। उसी के पीछे रेलवे लाइन है। 

लाइन और कॉलेज दोनों के बीच नाले की तरह गहरी जगह थी। जहाँ घास, झाड़ियों का राज था। तब वहाँ सन्नाटा हुआ करता था। वहीं हमने और शकबू ने कई रिक्शे वालों के साथ मिलकर गाँजा भी ख़ूब पिया। असल में हम-दोनों ही आक्रामक स्वभाव के थे। मगर मैं शकबू से उन्नीस पड़ता था। जब फ़र्स्ट ईयर में था तभी गर्मियों की छुट्टियों में शकबू और मैं अपने-अपने गाँव गए थे छुट्टियाँ बिताने। छुट्टियाँ बिता कर जब हम-दोनों वापस लखनऊ पहुँचे तो अपने साथ गाँव के तमाम अनुभव, यादें बटोरे आए थे। 

मिलते ही एक दूसरे को अपने-अपने अनुभव बताने लगे। मैंने उसे गाँव में अपने बाग़ में ऑल्हा पाती जैसे खेल के खेलने। तालाब में नहाने। गुड़ बनते हुए देखने, पेड़ पर झूलने, कबड्डी खेलने आदि जैसे अनुभव बताए। ग़ौर से मेरी बातें सुनने के बाद शकबू ने अपनी तमाम बातें बताईं। उसने ज़मींदोज़ टर्की के बनने से लेकर उसके लाजवाब स्वाद के बारे में भी ख़ूब मज़े से बताया। कि कैसे-कैसे उसके एक चचाजान ने पूरी बतख बनाई थी। 

मगर इसके बाद जो बात बतायी वह बड़ी विस्फोटक थी। इतनी विस्फोटक कि इसने हम-दोनों को नए रास्ते पर ढकेल दिया। ऐसा रास्ता जो किसी लिहाज़ से सही नहीं कहा जाएगा। ऐसी घटना जिसने हम-दोनों को अय्याशी और चोरी के लिए आगे बढ़ा दिया। शकबू ने बताया कि उसका ख़ानदान बहुत बड़ा है। सभी इकट्ठा होते हैं तो संख्या चालीस से ऊपर निकल जाती है। 

बहुत बड़ा हवेलीनुमा मकान होने के बावजूद जगह सिकुड़ सी जाती है। इस बार शकबू ने वहाँ अपने एक रिश्तेदार जोड़े को संयोगवश ही शारीरिक संबंधों को जीते चरम स्थिति में देख लिया था। उस जोड़े की कुछ महीने पहले ही शादी हुई थी। और जब शकबू ने उन्हें एक बार चरम क्षणों को जीते देख लिया तो उसका किशोर मन उसे बार-बार देखने को मचल उठा। जब तक वहाँ वह रहा हर क्षण इसी फ़िराक़ में रहा कि कैसे उन्हें उसी चरम हालत में फिर देखे। उसकी यह कोशिश कई बार सफल रही। शकबू ने इसके बाद शारीरिक संबंधों की जो तस्वीर पेश की उससे मैं रोमांचित हो उठा। 

कुछ ही दिन बाद यह तय हुआ कि जैसे भी हो यह अनुभव लेना ही है। जब बात आगे बढ़ी तो पैसा आड़े आ गया। तब हम-दोनों ने अपने-अपने घर से पैसों की चोरी की। एक व्यक्ति के माध्यम से टुड़िया गंज पहुँच गए। जिन औरतों से हम मिले वह हमसे उम्र में दुगुनी थीं। मगर उन्हें पैसा और हमें औरत का शरीर चाहिए था तो इन चीज़ों का कोई मतलब ही नहीं था। पहला अनुभव कुल मिला कर ठीक था। हम-दोनों मित्र सफल रहे। यह कहूँ कि इस सफलता में उन औरतों का हाथ ज़्यादा था। वह हमें अनाड़ी समझ ऐसा अनुभव देना चाहती थीं कि हम उनके आदी बन कर बार-बार उनके पास पैसा लेकर पहुँचे। और यह हुआ भी। मगर अनुभव मिलते ही शकबू दलाल से बोला हमें इतनी उम्र की नहीं हमें हमारी उम्र की चाहिए। 

दलाल को तो मानों मन की मुराद मिल गई। उसने मुर्गा फँसा जान कर फट से दाम दुगने कर दिए। कहा जितनी कम उम्र उतना ज़्यादा पैसा। इस बार इतनी कम उम्र की होगी कि आप दोनों जन्नत का मज़ा लेंगे। उसने ऐसा भड़काया कि हम-दोनों बेताब हो उठे। दुगुना पेमेंट करने के लिए दुगुनी बड़ी चोरी की गई। मगर दलाल ने फिर ठगा। इस बार भी बीस बरस से ज़्यादा की औरतें थीं। 

हम ठगे गए लेकिन कुछ कह नहीं सकते थे। जन्नत का मज़ा के नाम पर दुगुना पैसा झटक लिया गया। इतना ही नहीं उस दिन की शाम हम-दोनों के लिए और ख़राब बीती। घर के दोनों चोर पकड़े गए। और ख़ूब ठोंके गए। सख़्त निगरानी शुरू हो गई। हाँ इतनी गनीमत ज़रूर रही कि घर वालों को यह पता नहीं चला कि हम-दोनों ने यह पैसा वास्तव में कहाँ ख़र्च किया। 

बाद के दिनों में जब गाँधी जी के बारे में पढ़ा तो मैंने पाया कि शुद्ध वैष्णव परिवार के गाँधी जी ने भी किशोरावस्था में मेरी तरह ही एक मुस्लिम दोस्त के साथ ही मांस भक्षण किया था। वेश्या गमन और घर में चोरी भी की। मगर उनमें नैतिक बल था। और ग़लती का अहसास होने पर उन्होंने पिता को सत्य बताकर माफ़ी माँग ली थी। पिता इस गहरे सदमें को सह नहीं पाए और उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। मगर मुझ में शकबू में इतना नैतिक बल नहीं था कि हम पश्चाताप करते और माफ़ी माँगते। 

जब मैंने यह पढ़ा था उस वक़्त तक हम-दोनों वकालत शुरू कर चुके थे। मैंने शकबू से कहा, “यार जब-जब यह बात याद आती है तो मन पर बड़ा बोझ सा लगता है। अब तो हम-लोग एक लाइन पर आ चुके हैं। मैं सोच रहा हूँ कि फ़ादर को बता कर माफ़ी माँग लूँ। रिलैक्स हो जाएँगे।”

मेरी बात सुनते ही शकबू भड़क उठा, बोला, “अबे लाला तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या? देखो ना तुम गाँधी हो। ना मैं। ना तुम्हारे बाप गाँधी के बाप जैसे बाबा गाँधी है, ना मेरे। बताने पर इस उम्र में ऊपर लठ्ठ भले ना चलें। लेकिन ज़लालत से बच नहीं पाएँगे। और गाँधी जी ने माफ़ी ज़रूर माँग ली थी। लेकिन बड़े होने पर जब ब्रिटेन और अफ़्रीका गए तब भी वेश्याओं के पास अपने दोस्त के साथ गए। यह भी ध्यान रख कि मैं किसी भी अन्य के आदर्श पर चलने का क़ायल नहीं हूँ। क्यों कि मेरा विश्वास है कि ऐसा आदमी पिछलग्गू के सिवा और कुछ नहीं बन पाता।” ऐसी विकट सोच वाले मेरे मित्र शकबू और मेरी शादी कुछ दिनों के अंतर पर हुई। मेरी पहले। 

मेरी शादी पर वह बोला था, “लाला तू जीवन की सबसे बड़ी पढ़ाई में तो बाज़ी मार ले गया।” जब उसकी शादी हो गई तो बोला, “लाला प्रोडक्शन चालू करने में बाज़ी मैं मारूँगा।” हम-दोनों की ख़ुराफ़ात इस हद तक थी कि हमारी पत्नियाँ सुनकर दाँतों तले उँगलियाँ दबा लेतीं। बोलतीं आप लोगों को शर्म नहीं आती क्या? और हम-दोनों का जवाब होता कि हम शर्म से परे वाले मर्द हैं। 

शादी में जो विशेष गिफ़्ट उसने और फिर जवाब में हमने दिया था यह कहते हुए कि इसे सुहागरात की सेज पर पत्नी के ही सामने खोलना। इसके लिए बाक़ायदा हम-दोनों ने एक दूसरे से वादा करवाया था। उस बारे में बच्चों के बड़े होने के बाद भी, जब कभी बात उठती तो शाजिया-सुगंधा दोनों ही कहतीं, “आप लोगों की बेशर्मी तो आज के जवानों की भी नाक काटती है।”

शकबू ने शादी के तीन महीने बाद ही हाई-कोर्ट में एक बड़ा पेचीदा मुक़दमा जीत लिया। हम-दोनों जब भी कोर्ट में कोई मुक़दमा जीतते थे तो उस दिन होटल में दूसरे को डिनर ज़रूर देते। उस दिन भी यही हुआ था। डिनर करके बाहर निकले, कार में बैठे। कार शकबू ने स्टार्ट की, बोला, “लाला शादी के मामले में तो तुम मुझे पीछे छोड़ गए थे। लेकिन मैंने कहा था ना कि प्रोडक्शन के मामले में पिछाड़ दूँगा। शाजिया प्रेग्नेंट हो गई है। ख़ुशख़बरी मैं सोच रहा था कि ना दूँ। आते-जाते शाजिया का उभरा पेट देख कर तुम ख़ुद मुझसे पूछो। लेकिन यार क्या बताऊँ तुमसे कुछ छिपा नहीं पाता।”

मैंने उसकी बात सुन कर उसे बधाई दी। फिर कहा, “शकबू बड़ा अजीब संयोग है। यही मैं सोच रहा था कि जब तुम सुगंधा का चेंज़ बॉडी शेप देखोगे, पूछोगे तब बताऊँगा। तुम्हें सरप्राइज़ दूँगा।” मेरी बात सुनते ही शकबू ने गाड़ी बंद कर दी। मुझे बाँहों में भरते हुए बोला, “क्या बे तू फिर आगे निकल गया। यार बड़ा छुपा रुस्तम है तू।” फिर शकबू ने मुझे ढेर सारी बधाई देते हुए कहा। लाला कितने दिन आगे निकल गया है तू। 

मैंने कहा, “सुगंधा की प्रेग्नेंसी दो महीने की हो गई है।” अब तक गाड़ी को स्टार्ट कर आगे बढ़ाते हुए शकबू बोला, “हूँ . . . अगर प्रीमैच्योर बेबी हो जाए तभी मैं जीत सकता हूँ।” इस पर मैंने उसे झिड़कते हुए कहा, “क्या यार तुम भी बेमतलब की हार-जीत के चक्कर में माँ-बच्चे की जान जोखिम में डालने पर तुले हो।” अपनी ग़लती का अहसास होते ही शकबू बोला, “अरे यार मैं मज़ाक कर रहा था।” मैंने कहा, “मित्रवर मज़ाक की सीमा में सब कुछ नहीं आता।”

“सही कह रहे हो लाला। ऐसे ही मित्रता में धोखेबाज़ी भी अच्छी नहीं। तुमने भी अच्छा नहीं किया।” मैंने उसके साथ धोखा किया यह सुनते ही मैं सकपका गया। क्षण-भर चुप हो उसे देखने के बाद मैंने कहा, “क्या शकबू, मैं तुम्हें धोखा दूँगा। धोखा देना छोड़ो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। अनजाने में कुछ हुआ हो तो नहीं कह सकता। उसे धोखा भी नहीं कह सकते। बताओ तुम मन में क्या छिपाए बैठे हो?” शकबू बड़ा गंभीर हो कर बोला, “लाला तुमको लगता है कि मैं मन में कुछ छिपा कर बैठ सकता हूँ। तुमने धोखा यह दिया कि मैंने जो गिफ़्ट दिया था यदि तुम उसका सम्मान करते तो प्रोडक्शन में मुझसे आगे कैसे निकलते?” 

उसकी बात समझते ही मैं ज़ोर से हँस पड़ा था। मैंने कहा, “शकबू तुम भी कमाल करते हो। कहाँ की बात कहाँ जोड़ते हो। ऐसे तो तुमने भी धोखा दिया। तुम भी अगर मेरे गिफ़्ट का सम्मान करते तो प्रोडक्शन इतनी जल्दी कहाँ शुरू होता। मैंने कम से कम छह महीने के लिए सामान दिया था। तुमने जो दिया था उसका दुगुना करके।” मेरी बात पर शकबू बोला, “लाला तू छोड़ता नहीं है। मज़ाक में भी नहीं बख़्शता।”

शकबू की ज़िंदादिली, उसके खिलवाड़ के क़िस्से इतने हैं, इस तरह के हैं कि कई किताबें लिखी जा सकती हैं। एक बार लंच टाइम में कोर्ट के बाहर हम-दोनों ने चाय पीकर सिगरेट जलाई और पीते हुए चैंबर की ओर चल दिए। तभी पेन, पॉकेट डायरी आदि बेचने वाला एक लड़का सामने आ गया। उसने हाथ में प्लास्टिक के रैपर में स्केच पेन का पूरा सेट लिया हुआ था। जिसमें बारह कलर थे। अमूमन हम-लोग उससे काला, नीला, लाल डॉट पेन लेते थे। स्केच पेन हमारे मतलब का नहीं था। लेकिन शकबू ने सिगरेट का कश खींचते हुए अचानक ही उस लड़के से स्केच पेन का पूरा पैकेट ख़रीद लिया। 

मेरी समझ में नहीं आया कि ये क्या करेगा। मगर उसके चेहरे पर मैंने शरारत की कुछ रेखाएँ पढ़ ली थीं, आख़िर बचपन से देख रहा था उसे। लड़के के जाने के बाद मैंने उससे पूछा, “ये स्केच पेन क्या करोगे?” उसने रहस्य भरी मुस्कान के साथ एक कश फिर लिया। फिर बोला, “लाला बॉडी पेंटिंग करूँगा।”

पेंटिंग के बारे में मुझे ना के बराबर जानकारी थी। कुरेदने पर शकबू बोला, “किसी के शरीर पर पेंटिंग करूँगा।” मैंने पूछा, “किसकी?” तो वह बोला, “ये हसीन काम किसी हसीना के शरीर पर ही करूँगा।” 

“हसीना कहाँ से लाओगे?” शकबू हँसते हुए बोला, “लाना कहाँ है। घर पर ही है। शाजिया हसीन नहीं है क्या?” 

मैंने बात ख़त्म करते हुए कहा, “तुम्हारी सनक का भी जवाब नहीं। अरे पत्नी है रखैल नहीं।” वह बोला, “लाला तुम भी कमाल करते हो। अकेले दुनिया भर का मज़ा लेते रहोगे। अरे बीवियों को भी मज़ा लेने का हक़ है।”

अगले दो दिन छुट्टी पड़ गई। इस बीच मैंने एक केस के सिलसिले में रात क़रीब नौ-दस बजे के बीच फ़ोन किया। शकबू बड़े मज़ाकिया मूड में लग रहा था। बोला, “यार लाला बहुत ज़रूरी काम में लगा हूँ। डिस्टर्ब ना करो।” इतना कहते ही फ़ोन रख दिया। तब मोबाइल जैसी कोई चीज़ थी नहीं। लैंडलाइन ही सब कुछ था। 

मैंने फिर डायल किया। उसके बोलने पर कहा, “दो मिनट सुनो, ऐसा क्या ज़रूरी काम कर रहे हो?” फिर वह इठलाता हुआ बोला, “लाला वकालत के पेशे का बोझ उतार रहा हूँ। तरोताज़ा बना रहा हूँ ख़ुद को। अपने पेंटिंग हुनर को आज़मा रहा हूँ, शाजिया मदद कर रही है। बीच में शैतान क्यों बना हुआ है?” यह सुनते ही मैं समझ गया कि ख़ुराफ़ाती क्या कर रहा है। मैं कुछ कहूँ उसके पहले ही फिर फ़ोन काट दिया। और रिसीवर भी हटा दिया। उसकी हरकत पर मुझे बड़ी खीझ हुई। 

दो दिन बाद कोर्ट में मिलते ही मैंने मुद्दा उठाया तो पहले तो वह ठठा कर हँसा। फिर बोला, “शाम को बताऊँगा।”शाम को कोर्ट के बाद हम-दोनों एक होटल में बैठे। वहाँ कोर्ट का एक मुलाज़िम भी आने वाला था। कुछ सरकारी काग़ज़ की कॉपी लेनी थी उससे। इसके लिए एक बड़ी रक़म उसे देनी थी। उसका कहना था कि रक़म कई जगह बँटेगी। हम-दोनों उस का इंतज़ार करते हुए चाय-पकौड़ी का भी मज़ा ले रहे थे। इस महीने उम्मीद से कहीं ज़्यादा हम-दोनों सफल हो रहे थे। तभी मैंने फिर पूछा, “कौन सा काम कर रहे थे जो बात नहीं की छुट्टी में।”

पेंटिंग की बात उठाई तो उसने जो बताया उससे हँसी रुक ही नहीं रही थी। आश्चर्य अलग हो रहा था कि शकबू और इसकी बीवी वाक़ई कमाल के हैं। शकबू ने एकदम खुले शब्दों में बताया कि उस दिन सारे स्केच पेन शाजिया के बदन पर ख़र्च कर दिए। शरीर के अंग-अंग पर उसने पेंटिंग की थी। क्या-क्या डिज़ाइन बनाई सब बताया। मैं दंग रह गया उसकी इस हरकत से। और आश्चर्य में भी पड़ गया कि शाजिया भी इसके चक्कर में पड़ गई। बाद के दिनों में मालूम हुआ कि शकबू ने उसे मजबूर कर दिया था। 

आज जब सुनता हूँ दुनिया में बॉडी पेंटिंग के बारे में तो मन ही मन कहता हूँ, मेरा शकबू तो दशकों पहले यह करता रहा है। वह भी अपनी बीवी के बदन पर। आज लोग नया क्या कर रहे हैं? 

हमारी शकबू की दोस्ती पर निश्चित ही एक शानदार फ़िल्म बन सकती है। जो सुपरहिट हो सकती। एक बार कार लेने की बात आई। उस समय देश में कार के नाम पर केवल एम्बेसडर, और फिएट ही आती थीं। 

फिर वह दौर शुरू हुआ जब भारत में मारूति कार की शुरूआत हुई। और इसके साथ ही भारत में कारों की दुनिया ही बदल गई। मारूति-800 बाज़ार में आई। हम दोनों मित्रों ने यह कार ली। मगर जो कलर शकबू को चाहिए था वह ऐन टाइम पर नहीं आया। मैंने अपनी कार भी उस दिन नहीं ली। जब आया मनपसंद कलर तो हम-दोनों ने एक साथ ली। हालाँकि घर के लोगों ने उत्साह के चलते थोड़ा मुँह ज़रूर फुलाया था। 

इस बात का अंदाज़ा ना जाने कैसे शकबू को हो गया। उसने हमसे कहा, “लाला तुम्हारे चक्कर में हम गुनाह कर बैठे। इसके लिए तुम्हारे घर वालों से माफ़ी माँगनी पड़ेगी। कल जुमा है, नमाज के समय अल्लाह-त-आला से दुआ करूँगा कि मुझे इस गुनाह के लिए माफ़ करें। और मेरे यार लाला को इस बात की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएँ कि वह ना कोई गुनाह करे और ना ही मुझसे करवाए।”

मैं परेशान हो गया कि कौन सा गुनाह हो गया मुझसे। बार-बार पूछने पर भी नहीं बताया। चेहरा ऐसा गंभीर बनाए रहा कि मेरी परेशानी बढ़ती गई। अगले दिन घर पर आया, यह कह कर माफ़ी माँगी कि उसकी वजह से आप लोगों की कार आने की ख़ुशी मनाने का समय आगे खिसक गया। उसने यह कह कर पल भर को मुझे बड़ा भावुक बना दिया। 

असल में शकबू एक ऐसा व्यक्ति था जो ऊपरी तौर पर बड़ा लापरवाह, मस्तमौला दिखता। लेकिन वह वास्तव में था इसका एकदम उलटा। एक अध्ययनशील और हर विषय पर विश्लेषण करने वाला व्यक्ति था। किसी चीज़ को एकदम स्वीकार करने को वो क़तई तैयार नहीं होता था। किसी बहस यहाँ तक कि कोर्ट में विपक्षी वकील से बहस के दौरान भी कोई बात सामने आ जाती तो वह उसकी तह तक पहुँचने के लिए मुक़दमा समाप्त हो जाने के बाद भी लगा रहता। 

एक बार फ़ुर्सत के क्षणों में ही मुझसे हल्की-फुल्की बहस चल रही थी। मैंने कह दिया कि, “देखो इस्लाम तो चौदह सौ साल पहले आया। उसके पहले सारे मुसलमान ख़ासतौर से दक्षिण एशिया के वह सब हिंदू थे। बाद में जो मुसलमान बने उनमें नाम मात्र का प्रतिशत छोड़ दें तो बाक़ी सब तलवार के ज़ोर पर बने। तू भी अपनी पूर्व की पुश्तों का पता कर हिंदू ना निकले तो कहना।”

वह मानने को तैयार ना हुआ। लेकिन तुरंत कोई जवाब उसके पास नहीं था। तो भी वह बोला, “लाला तेरी बात में दम है। ऐसी बात कही है कि मुझे अब अपनी पुश्तों के बारे में खोजबीन करनी ही पड़ेगी। आख़िर पता तो चले कि हमारी जड़ है कहाँ?” 

मैंने समझा कि शकबू ने ऐसे ही कह दिया है। लेकिन मैं ग़लत था। शकबू जी जान से ढूँढ़ने लगा अपनी जड़। इसमें छह साल का समय लगा दिया। मैं बार-बार कहता, “यार क्यों इस निरर्थक काम में पैसा, समय बरबाद कर रहे हो।”

इस चक्कर में वह कई बार देश के विभिन्न राज्यों के चक्कर लगा आया था। एक बार तो नोबेल प्राइज विनर राइटर वी.एस. नायपॉल का नाम लेते हुए कहा कि “जब वह अपनी जड़ें ढूँढ़ने दूर देश से यहाँ आ सकते हैं तो मैं कम से कम अपने देश में ही ढूँढ़ रहा हूँ।” शकबू की छह साल की मेहनत रंग लाई। 

उसने ख़ानदान का छह पीढ़ी पहले तक का पूरा इतिहास ढूँढ़ लिया। इस सिजरे के हिसाब से उसकी छहवीं पीढ़ी आज के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की रहने वाली थी। उसका ख़ानदान सामंती ख़ानदान था। छहवीं पीढ़ी के मुखिया ठाकुर बलभद्र सिंह थे। उनसे छोटे पाँच और भाई थे। बलभद्र सिंह वहीं एक राजा के यहाँ फ़ौज में बड़े ओहदे पर थे। बाक़ी भाइयों के पास दो-दो, चार-चार गाँवों की ज़मींदारी थी। 

अँग्रेज़ी हुकुमत के ख़िलाफ़ अठारह सौ सत्तावन की बग़ावत में राजा ने भी हिस्सा लिया। जब स्वतंत्रता सेनानियों की हार हुई तो अँग्रेज़ों ने ढूँढ़-ढूँढ़ कर उनका क़त्लेआम शुरू किया। राजा और बलभद्र सिंह सहित परिवार के भी अधिकांश लोगों का अँग्रेज़ों ने क़त्ल कर दिया। परिवार के कुछ सदस्य छोटे भाई वीरभद्र के साथ बच निकलने में क़ामयाब रहे। काफ़ी समय तक वह किसी पर्वतीय क्षेत्र में छिपे रहे। वहीं पास में कटास राज शिव मंदिर है। जो ईसा से क़रीब तीन सौ वर्ष पूर्व का माना जाता है। 

कई बार वीरभद्र इस मंदिर में छिप कर अँग्रेज़ों से ख़ुद को बचा पाए थे। इस पवित्र मंदिर के सरोवर का जल तब कई दिन उनके परिवार का जीवन बन गया था। कहते हैं यह सरोवर भगवान शिव के आँसू से बना है। माता सती के शरीर त्याग से भगवान शिव के आँखों से दो बूँद आँसू टपके थे। एक बूँद यहाँ कटास राज में गिरी। दूसरी राजस्थान के पुष्कर में। जो तीर्थराज पुष्कर बना। 

शकबू ने बताया यही वीरभद्र सिंह बचते-बचते परेशान हो गए तो वहाँ से किसी तरह निकल कर बंगाल पहुँच गए। इस बीच बीतते समय के साथ अँग्रेज़ों की खोजबीन कम हुई। तो वहीं बंगाल में किसी छोटी-सी स्टेट में नौकरी कर ली। अँग्रेज़ों की पिट्ठू उस स्टेट में वह अपने को छिपाए रखने में सफल रहे। समय बीतता रहा। हालात फिर बदले, परिवार यहाँ से फिर भाग कर आज के पाकिस्तान के सिंध प्रांत पहुँच गया। फिर वहीं बस गया। मगर इस परिवार के लिए एक जगह रुकना जैसे अभिशाप बन गया था। 

जैसे-जैसे हिंदुस्तान की आज़ादी क़रीब आती गई। जिन्ना का दो राष्ट्र का सिद्धांत ज़ोर पकड़ता गया। जल्द ही यह तय हो गया कि विभाजन होकर रहेगा। अब शकबू के परिवार ने फिर निर्णय लिया कि जहाँ वह है वह हिस्सा पाकिस्तान में जाएगा यह तय है। और हालात जैसे हैं, उससे यह भी तय है कि बड़े पैमाने पर हिंसा होगी तो क्यों ना यह स्थान समय रहते ही छोड़ दिया जाए? 

इस मुद्दे पर परिवार दो हिस्सों में बँट गया। एक वो जो हर सूरत में वहाँ से नहीं हटना चाहता था। जो होगा देखा जाएगा की सोच लिए वहीं रहने को अडिग था। तो दूसरा गुट हर हाल में हटना चाहता था। क्योंकि उसका मानना था कि हिंदू बहुत कम हैं, वह दंगों में मारे जाएँगे। यही गुट अंततः वहाँ से पानीपत के पास आकर बस गया। 

शकबू कहता, “लाला देश बँट गया। ख़ून से लथपथ आज़़ादी तो बाद में मिली। लेकिन पानीपत में आ बसे हमारे पुरखे उन्नीस सौ चालीस के क़रीब ही ना जाने किन परिस्थितियों में हिंदू धर्म छोड़ कर मुसलमान बन गए। इस स्थित में परिवार की दो बुज़ुर्ग महिलाओं ने आत्महत्या कर ली कि वह अपना धर्म नहीं छोड़ेंगी। और कुछ सदस्यों ने परिवार से नाता तोड़ लिया। कहीं और चले गए। कहाँ गए उनका कुछ पता नहीं कर पाया। और लाला मैं इस्लाम ग्रहण करने वाले गुट का वंशज हूँ।”

बेहद उदास स्वर में एक दिन शकबू ने कहा था। ‘लाला परिवार के जिस गुट ने जिस वजह से सिंध छोड़ कर पानीपत में शरण ली थी। वही गुट मुसलमान बना, बँट गया। दो सदस्य आत्म हत्या कर लेते हैं। जो गुट सिंध में ही डटा रहा वह आज भी हिंदू है। लाला सच कहूँ तो मुझे जब अपने ख़ानदान की कहानी याद आती है ना तो मुँह से यही निकलता है कि इस पृथ्वी पर सियासत से गंदी चीज़, घिनौनी चीज़ कोई नहीं है। हिंदुस्तान के जो टुकड़े हुए, लाखों लोगों के ख़ून से जो यह धरती लाल हुई, इसी सियासत के कारण हुई।”

शकबू जब यह कहना शुरू करता तो ग़ुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठता था। कहता ‘यह देश कभी न बँटता। लाखों लोग कभी मारे ना जाते। बहू, बेटियों की इज़्ज़त ना लूटी जाती। बच्चों का क़त्लेआम ना होता। मगर सियासी खेल ने यह सब कराया। 

विश्व युद्ध के बाद तो पस्त हो चुके अँग्रेज़ ऐसे भी कुछ सालों से ज़्यादा हिंदुस्तान को अपने क़ब्ज़े में ना रख पाते। मगर अँग्रेज़ों की तरह पस्त हो चुके उम्र के आख़िरी पड़ाव पर पहुँच चुके हमारे बहुत से नेताओं में भी धैर्य ख़त्म हो चुका था। सत्तालोलुपता बढ़ गई थी। 

यही कारण था कि आनन-फ़ानन में अँग्रेज़ों की साज़िश समझते हुए भी देश का बँटवारा स्वीकार कर लिया गया। क़त्लेआम होता है तो होने दो। हमारे सपने पूरे हों बस यही सोचा और करा गया। अहिंसा का ढिंढ़ोरा पीटने वालों को मैं इसके लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ। लाला अगर यह ना हुआ होता तो मेरा ख़ानदान यूँ टूट-टूट कर बिखरा ना होता। लोग बेमौत ऐसे ना मरते। 

लाला मेरा कलेजा तड़प रहा है पाकिस्तान जाकर उस कटास राज मंदिर के दर्शन को, जिसने अँग्रेज़ों जैसे ज़ालिमों से मेरे परिवार को बचाया। जिसे घिनौनी सियासत ने तबाह किया। मैं वहाँ जाकर अपने ख़ानदान के बचे हुए लोगों को गले लगाना चाहता हूँ कि भाई मैं तुम्हारा ख़ून हूँ। उन्हें उनकी हिम्मत की दाद देना चाहता हूँ कि पाकिस्तानी सरकार, कट्टरपंथियों के तमाम ज़ुल्मों-सितम के बाद भी तुम अपना अस्तित्व बचाए हुए हो।”

शकबू एक बार इतना भावुक हुआ कि यह सब बताते-बताते रो पड़ा। बोला ‘यार वहाँ के जैसे हालात हैं उससे तो नहीं लगता कि अब वो भी अपना अस्तित्व ज़्यादा दिन बचा पाएँगे। कट्टरपंथियों के ज़ुल्म वहाँ बढ़ते ही जा रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि किसी तरह उनके पास पहुँचूँ और उन्हें भारत में आकर बसने के लिए तैयार करूँ।”

सन् 2005 में जब पाकिस्तानी सरकार ने अंतरराष्ट्रीय दबावों, नियमों के चलते कटास राज मंदिर और उसके क़रीब के मंदिरों के पूरे समूह के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया तो शुभारंभ के लिए भारत से भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बुलाया। शकबू ने उसी समय वहाँ जाने की सोची। मगर ऐन वक़्त पर काग़ज़ पत्रों में कोई कमी आ गई। वह नहीं जा पाया। तब उसने हफ़्तों चुन-चुन कर ज़िम्मेदार लोगों को एक से एक गंदी-गंदी गालियाँ दीं। 

मगर ज़िद्दी शकबू तीन महीने बाद कटास राज मंदिर गया। भरसक अपने ख़ानदान को ढूँढ़ा। मगर निराश लौटा। आते समय मंदिर के पवित्र सरोवर का जल ले आया था। मुझे भी दिया था। कहा था, “लाला जानते हो मुझे इस पवित्र जल में अपने ख़ानदान के लोगों के अक़्स दिखते हैं।”यह संयोग देखिए कि बाद में पाकिस्तानी सरकार ने भी आडवाणी को उस पवित्र सरोवर का पवित्र जल भेजा था। शकबू ने बड़ा दुख व्यक्त किया था वहाँ के अल्पसंख्यकों और उनके पूजा स्थानों की दयनीय हालत पर। उन पर होने वाले बर्बर अत्याचारों पर। इसके लिए वह पूरी तरह से सियासतदानों, मज़हबी धर्मांधों को दोषी ठहराता। 

मेरा शकबू एक ऐसा इंसान था जो सामने वाले को एक लापरवाह, मस्तमौला मुँह फट इंसान दिखता। लेकिन सच में वह अंदर-अंदर चिंतन मनन मंथन करने वाला व्यक्ति था। वह तमाम मुद्दों पर आए दिन कुछ न कुछ ऐसी बातें कहता जो गहन चिंतन मनन के बाद ही हो सकती थीं। 

पाकिस्तान से लौटने के महीने भर बाद एक दिन उसने कहा, “लाला सियासती चालों ने हिंदुस्तान को कितना सिकोड़ दिया है। पाकिस्तान, बंगलादेश बन गए। अँग्रेज़ों, अन्य बहुतों ने सियासत ने हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन को लड़ा-भिड़ा कर अलग कर रखा है। अगर इन सबको जोड़ दो तो मुझे लगता है विश्व में सब से बड़ी संख्या हिंदुओं की है।”

फिर एक दिन बोला कि “जो लोग यह कहते, सोचते हैं कि शिक्षा के विस्तार के साथ आतंकवाद समाप्त हो जाएगा वो मूर्ख हैं। सही मायने में जाहिल हैं।” फिर तमाम वैश्विक आतंकी घटनाओं का ब्यौरा रख कर बोला, “इन घटनाओं को अंजाम देने वाले अधिकांश पढ़े-लिखे थे। वास्तव में जब-तक यह भावना रहेगी दुनिया के किसी भी धर्म में कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है। इसको मानने वाले को ही जीने का हक़ है। तब-तक दुनिया से अशांति, जंग, आतंक ख़त्म नहीं होगा।”

मैं कहता, “इतना सोचते हो तो आगे बढ़कर दुनिया बदल डालने की कोशिश क्यों नहीं करते?” तो हँस कर कहता, “लाला अपनी क्षमता जानता हूँ। तथ्य यह है कि मैं चिंतन मनन कर सकता हूँ लेकिन जहाँ तक बदलने का सवाल है, मैं दुनिया तो क्या अपना मोहल्ला, अपना परिवार बदलने की भी क्षमता नहीं रखता।”

ऐसा बेबाक शकबू अपनी नई बेगम शाहीन को लाने के कुछ महीनों बाद ही मुझे टूटता हुआ दिखा। पस्त और हारता दिखा। दो महीना भी पूरा नहीं हुआ था कि एक दिन बोला, “लाला कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ कि शाहीन को लाकर ग़लत किया या कि सही।”

मैंने कहा, “ऐसा सोचने की ज़रूरत क्यों पड़ी? अब तो तौफ़ीक़ तुमसे और शाहीन से अच्छे से पेश आने लगा है। शाहीन से तो वह इतना घुल-मिल गया है कि लगता ही नहीं कि यह वही व्यक्ति है जो कुछ महीने पहले उस महिला को देखना भी नहीं चाहता था। यह तो तुम बता ही चुके हो।” तो शकबू बोला, “हाँ, कहा तो था, सही ही कहा था। लेकिन यार मुझे अब जो चीज़ परेशान कर रही है वह है शाहीन का विहेवियर। जो इन दिनों खुलकर सामने आ गया है।” मैंने कहा, “उसके व्यवहार में ऐसा क्या हो गया कि तुम्हारे जैसा आदमी चार दिन में इतना चिंता में पड़ गया।”

शकबू बोला, “लाला असल में मुझे लगता है इस उम्र में शाहीन को लाकर मैंने ग़लती कर दी। और शाहीन को कहूँगा कि उसने मेरे जैसे उम्रदराज आदमी से एक जवान की अपेक्षा करके मूर्खता की। तुम जब मना करते थे कि यह क़दम ना उठाओ। वह एक युवती है। गर्म ख़ून है। एक दहकती भट्टी है। शांत नहीं कर पाओगे उसकी आग। तो नहीं सुनता था तुम्हारी बात। आँख, नाक, कान, सब तो उसकी बदन की तपिश ने बंद कर दिए थे। 

“तुम्हारी बात सच निकल रही है। वह तुम्हारे अनुमान से कहीं ज़्यादा धधकती हुई है। इतना ही नहीं अपनी आग शांत करने के लिए एक तरह से मुझसे ज़्यादती भी करती है। फिर भी शांत नहीं होती। वह एक जलजले की तरह टूट पड़ती है। मुझे डर लगता है कि कहीं कोई रात! रात ही क्यों कोई भी दिन मेरे साथ किसी हादसे का दिन ना बन जाए। जब टोकता हूँ तो बड़ी बेशर्मी से लड़ पड़ती है कि एक जवान लड़की की तरफ़ क़दम बढ़ाते वक़्त सोचा नहीं था। मैं जवाब देता हूँ तो तुमने क्यों नहीं सोचा एक बूढ़े व्यक्ति की तरफ़ क़दम बढ़ाते हुए। यह सुनते ही और भड़क जाती है। कहती है यह काम तुम्हारा था मेरा नहीं। अभी दो दिन पहले ही सारी प्रॉपर्टी अपने नाम लिखने को कह दिया। लाला मैं वाक़ई में उसके सामने पस्त हो जाता हूँ। आगे का रास्ता बड़ा बेढब नज़र आ रहा है।”

इसके बाद शकबू जब भी बात करता शाहीन की ही बात करता। निकाह से पहले जहाँ उसको लेकर तमाम फूहड़ अश्लील बातें करता था। वहीं अब उसके कारण हो रही तकलीफ़ों की बातें करता। और शाजिया को बीच में ज़रूर लाता। कि, “वह बेमिसाल थी। वैसी नेक दिल औरत शायद ही कोई हो। ना जाने तब कौन सा शैतान हावी हो गया था मुझ पर कि उसकी क़द्र ना की। ऐसा ज़ख़्म दिया कि मर गई।”

कुछ ही दिन बीते होंगे कि शकबू मिलने के लिए घर आया। कुछ ही देर में यह कह कर मेरे होश उड़ा दिए कि, तौफ़ीक़ और शाहीन के बीच सम्बन्ध हैं। मैंने चौंक कर कहा, “शकबू क्या पागलपन है। तुम वाक़ई सठिया गए हो। यह कहते हुए तुम्हें संकोच नहीं हुआ। अरे कुछ तो शर्म करो। रिश्ते का कुछ तो ख़्याल रखो।”

इस पर वह गंभीर होकर बोला, “मैं जानता था कि तुम भी यक़ीन नहीं करोगे। जब तुम नहीं सुन पा रहे हो तो और कौन है मेरा सुनने वाला? तुम तो शाजिया से भी पहले मेरे सुख-दुख के साथी रहे हो। लेकिन आज तुम भी यक़ीन नहीं कर पा रहे हो। वाक़ई अब मैं सचमुच अकेला हो गया हूँ इस दुनिया में। अब यह दुनिया मेरे लिए नहीं है। चलता हूँ लाला . . . अब-तक जो कहा सुना हो माफ़ करना।” यह कहते-कहते शकबू की आँखें भर आई थीं। 

वह कुर्सी से उठने को हुआ तो मैंने उसे फिर बैठा दिया। मैं भी भावुक हो गया था। मेरी भी आँखें नम हो गईं थी। मैंने कहा, “कैसी बात करते हो शकबू। जीते जी तुम्हें छोड़ने की सोच भी नहीं सकता। दुबारा यह कभी न कहना, सोचना भी नहीं। मगर तुम जो कह रहे हो यह भी तो हो सकता है कि वह तुम्हारा वहम हो।” इस पर शकबू ने कई ऐसी बातें बताईं जो उसके शक को पुख़्ता कर रही थीं। मगर मैं फिर भी यक़ीन नहीं कर पा रहा था। शकबू को किसी तरह समझा-बुझा कर घर भेजा कि यक़ीन करो कि ऐसा कुछ नहीं होगा। इसके दस-बारह दिन बाद ही एक दिन सवेरे-सवेरे शकबू का फ़ोन आया कि “तबियत बहुत ख़राब है। डॉक्टर के यहाँ चलना है। यहाँ किससे कहूँ कोई सीधे मुँह बात नहीं कर रहा।”

मैं ड्राइवर लेकर पहुँचा तो देखा तौफ़ीक़ था नहीं, शाहीन कुछ काम से कह कर घंटे भर पहले निकल गई थी। वह पीएच.डी. कर रही थी। अपनी थीसिस पूरी करने में लगी थी। शकबू यही बताता था। उसने रास्ते में यह भी बताया कि, “शाहीन पिछले दस दिन से उसके साथ कमरे में नहीं सो रही है।” साथ ही यह भी जोड़ा कि, “दिन हो या रात तौफ़ीक़, शाहीन की हँसी, ठिठोली यहाँ तक की छीना-झपटी भी चलती रहती है। लगता है जैसे नवविवाहित जोड़ा है।” उसे इस तरह इग्नोर करते हैं जैसे वह वहाँ है ही नहीं। मैं उसकी बातें सुन-सुन कर परेशान होता रहता कि आख़िर अपने मित्र का दुःख दूर कैसे करूँ? मगर जैसे शकबू के लिए इतना ही दुख काफ़ी नहीं था। 

डॉक्टर ने किडनी, लीवर में गंभीर समस्या बता दी। इतनी गंभीर कि जान को ख़तरा है। और ट्रीटमेंट पी.जी.आई. में ही सम्भव है। तौफ़ीक़, शाहीन को ख़बर कर दी थी, लेकिन मैं डॉक्टर से शकबू का चेकअप करवा कर घर पहुँच गया, मगर वह दोनों घंटे भर बाद पहुँचे। मैंने उन दोनों को शकबू की बीमारी के बारे में बताया तो शाहीन बड़ी लापरवाही से बोली थी, “अरे प्राइवेट डॉक्टर ऐसे ही बढ़ा-चढ़ा कर बोलते हैं। मुझे कोई बड़ी प्रॉब्लम नहीं दिखती।”

लेकिन मेरे और शकबू के प्रेशर में उसे पी.जी.आई. में दिखाया गया। शक सही था बीमारी बेहद गंभीर हो चुकी थी। बड़े सोर्स के बाद पाँचवें दिन भर्ती किया गया। वहाँ दो महीने ट्रीटमेंट के बाद शकबू ठीक हुआ था। हॉस्पिटल में मैं उसे देखने रोज़ जाता था। बिना नागा। लेकिन तौफ़ीक़, शाहीन कई बार ऐसा भी हुआ कि पहुँचे ही नहीं। कई बार मेरे बेटे ने परिवार के एक सदस्य के वहाँ होने की भूमिका पूरी की। 

शकबू जब ठीक होकर घर पहुँचा तो बहुत कमज़ोर था। अब मुझे शाहीन से कोई उम्मीद नहीं थी। उसका शकबू को लेकर बेरुखापन अब मैं भी साफ़ देख रहा था। शकबू ने मेरी सलाह पर एक नौकर रख लिया। जो उसकी देखभाल कर सके। देखते-देखते तीन महीने निकल गए, शकबू पूरी तरह ठीक हो गया। मगर फिर भी उसे पूरी देखभाल की ज़रूरत थी। इस बीच मैंने देखा कि तौफ़ीक़ और शाहीन को मेरा वहाँ जाना अच्छा नहीं लग रहा है। उनकी बेरुख़ी जब ज़्यादा हो गई तो मैंने जाना कम कर दिया। 

फ़ोन पर शकबू के संपर्क में रहता। उससे यह सब बात नहीं बताई कि वह और दुखी होगा। ना जाने की वजह बताते हुए उसे कुछ ना कुछ बहाना बना देता था। जल्दी ही शकबू हालात से इतना हार गया कि फ़ोन पर रो देता। मेरा मन उसका रोना सुनकर तड़प उठता। उसके आँसुओें की रोज़-रोज़ एक ही वजह थी शाहीन। शकबू रोज़ उसकी एक-एक हरकत बताता। 

कहता, “अपनी आँखों से कुकर्म का यह नंगा नाच देखने से अच्छा है कि मैं मर जाऊँ। अब बर्दाश्त नहीं होता। दोनों की बेशर्मी इस हद तक बढ़ गई है कि मेरी कोई परवाह ही नहीं। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे मुझे चिढ़ा-चिढ़ा कर, दिखा-दिखा कर सब किया जा रहा है।”

शकबू कहता कि, “तौफ़ीक़ तो लगता है जैसे मुझसे बदला ले रहा है।” शकबू की तकलीफ़ से मेरा तन-मन खौल उठता। मन करता जाऊँ और सारे फ़साद की जड़ उस चुड़ैल को बालों से पकड़ कर खींचते हुए बाहर फेंक दूँ। जब बात चलती तो सुगंधा भी उसे कोसती। 

शकबू शाहीन के बीच मधुर सम्बन्धों की कुल मियाद मात्र दो महीने रही। उसके बाद उनके बीच छत्तीस का आँकड़ा चलता रहा। एक दिन सुबह सुगंधा के साथ बैठा चाय पी रहा था कि तभी शकबू का फ़ोन आया, नंबर उसका था लेकिन बात उसका नौकर दानिश कर रहा था। उसने हाँफते हुए कहा, “साहब जीने से गिर गए हैं। उनकी हालत बहुत गंभीर है।”

मैंने कहा तुरंत आ रहा हूँ। उसकी आवाज़ से मैं समझ गया था कि मामला बेहद गंभीर है। पहुँचा तो देखा ख़ून से सने कपड़ों को पहने शकबू बेड पर पड़ा है। डॉक्टर मरहम पट्टी करके उन्हें हॉस्पिटल ले जाने को कह रहा था। शकबू होश में था। मुझे देखते ही उसकी आँखों से आँसू झरने लगे। उसने बड़े अस्पष्ट शब्दों में कुछ कहा जिसका आशय समझते ही मेरा ख़ून खौल उठा। मैंने जलती नज़र तौफ़ीक़ और शाहीन पर डाली। लेकिन स्थिति की नज़ाकत को देखते हुए किसी तरह ख़ुद को रोका क्योंकि तब शकबू को हॉस्पिटल पहुँचाना पहला ज़रूरी काम था। शकबू को लेकर ट्रामा सेंटर पहुँचे। 

मेरा ज़िंदादिल, मेरे बचपन का यार, दुनिया के बड़े-बड़े लोगों पर जीत हासिल करने वाला अपनी नामुराद औलाद, बेगम के छल-कपट, व्यभिचार के आगे परास्त हो गया। ट्रामा सेंटर से बीस घंटे बाद उसका शरीर उसके घर लाया गया। जो सही मायने में घर कहाँ मकान रह गया था। घर के नहीं मकान के ख़ूबसूरत लॉन में अपने यार को एक सफ़ेद कफ़न ओढ़े लेटा देखकर मेरा मन, दिल चीत्कार कर उठा। लाख रोकने के बावजूद आँसू बह चले। मेरा यार कमीनी औलाद के चलते आख़िर में मुझसे अपनी बात भी ठीक से कह नहीं पाया था। 

मन में आया कि पुलिस को सच बताकर दोनों नामुरादों को उनके किए की सज़ा दूँ। पहुँचा दूँ फाँसी के फंदे पर। अपने यार के हत्यारों को सज़ा दिलाने के लिए फिर से पहन लूँ अपना वह काला लाबादा और जज से कहूँ कि यही दोनों हैं मेरे यार के क़ातिल। मैं हूँ चश्मदीद गवाह, ये दफा तीन सौ दो के अपराधी हैं। इन्हें मौत की सज़ा दीजिए। यह एक रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट केस है। यह लोगों के लिए एक नजीर बनना चाहिए। 

मगर ठहर गया यह सोचकर कि दुनिया में अपने यार की थुक्का-फजीहत नहीं कराऊँगा। यह कराने से अब मेरा शकबू लौट तो आएगा नहीं। पोस्टमार्टम अलग होगा। यार की मिट्टी नहीं ख़राब कराऊँगा। दिल पर पत्थर रख कर अपने प्यारे शकबू को सुपुर्दे ख़ाक किया। फिर लौट कर उसके घर की तरफ़ कभी रुख़ नहीं किया। 

आज होटल का यह विज्ञापन देख कर। उसकी पंद्रहवीं मंज़िल के स्विमिंग पूल को देखकर कभी इसी शहर के एक होटल में बिताई एक रात याद आ गई। जब हम-दोनों यार अपनी बेगमों के साथ शादी के कुछ महीनें के बाद की एक रात जी रहे थे। शकबू होता तो निश्चित ही यह ऐड देखकर फ़ोन करता कि “लाला क्या ख़याल है इस रूफ टॉप स्विमिंग पूल के बारे में। लाला कुछ तो होना ही चाहिए।” फिर ठठा कर हँस पड़ता। 

सुगंधा मेरी आदत को जानते हुए फिर एक कप ऑर्गेनिक टी लिए हुए आई। मगर मन इतना कसैला हो गया था कि मैंने चाय पीने से मना कर दिया। काश शकबू में भी कुछ चीज़ों को मना करने की आदत होती। 

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टिप्पणियाँ

Madhvi Pandey 2022/04/23 11:38 AM

बहुत बढ़िया कहानी है। इसमें समाज के हर पहलू को दिखाया

shaily 2022/04/18 07:58 AM

बेमेल शादी का यही हश्र होता है, अच्छी कहानी है

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