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घुसपैठिए से आख़िरी मुलाक़ात के बाद

पिछली तीन बार की तरह इस बार भी मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकली कि लखनऊ में मानसून क़रीब हफ़्ते भर देर से पहुँचेगा। मानसून विभाग द्वारा बताए गए संभावित समय को बीते दो दिन नहीं हुए थे कि लक्ष्मण की नगरी लखनऊ के आसमान में बादल नज़र आने लगे थे। 

मेरा बेहद भावुक क़िस्म का साथी फोटोग्रॉफर पत्रकार अरूप पाल आसमान में चहलक़दमी करते मानसूनी बादलों की कई फोटो खींच कर ऑफ़िस में मेरे सिस्टम में लोड कर गया था। मैंने उन सब फोटुओं पर एक नज़र डाली। मगर उनमें से कोई भी मुझे कुछ ख़ास नहीं लगी कि मैं उसे अख़बार के लोकल पेज पर लगा कर कोई कैप्शन देता। 

शहर वालों को बताता कि लो, “फिर घिर आए कारे बदरा, सड़क के गढ्ढे सताएँगे बन ताल-पोखरा।” मेरा फोटोग्रॉफर साथी निराश न हो, यह सोच कर मैं कभी भी उसकी किसी फोटो को ख़राब या उसकी आलोचना नहीं करता था। बस इतना ही कहता था कि, “यार कुछ इस टाइप की भी फोटो चाहिए।” उस दिन भी मैंने उससे यही कहा कि, “अरूप कुछ फोटो ऐसी भी लाओ जिसमें बादलों की उमड़-घुमड़ ज़्यादा हो। वह कुछ सेकेंड चुप-चाप खड़ा रहा फिर बोला, “हूँ . . . देखता हूँ।” फिर चला गया। 

इसके बाद मैं पेज को जल्दी-जल्दी तैयार करने लगा। 

वैसे तो पूरा पेज देर रात कहीं फ़ाइनली तैयार हो पाता था। लेकिन जिस दिन मुझे फतेहपुर के राधा नगर में कमला वर्मा के पास जाना होता था उस दिन सात बजे तक जितना काम हो पाता उसे कर देता बाक़ी अपने दूसरे साथी के हवाले कर के चल देता। क्योंकि मैं फतेहपुर मोटर-साइकिल से ही जाता था। लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी तय करने में मुझे दो घंटे से कुछ ज़्यादा समय लग जाता था। 

वहाँ जाने का प्रोग्राम मैं अपनी साप्ताहिक छुट्टी के एक दिन पहले बनाता था। और अगले दिन वहाँ से देर रात ही लौटता था। प्रधान संपादक को भी मेरी इस हरकत की पूरी जानकारी थी। लेकिन एक तरह से वह हम सबको सँभाले रखने की गरज से मैनेज किए रहते थे। क्यों कि पेपर की हालत काफ़ी ख़राब हो चुकी थी। 

मालिक ने जिस ताम-झाम के साथ बड़े पैमाने पर पेपर शुरू किया था उस वक़्त उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि जल्दी ही उनके ख़राब दिन आने वाले हैं। उनकी पार्टी की सत्ता जाते ही वह क़ानून के शिकंजे में फँस जाएँगे। उन्हें अपने राजनेता होने, अपनी ताक़त पर बड़ा घमंड था। उन्होंने पेपर शुरू ही किया था अपनी हनक और बढ़ाने के लिए। 

जब तक पार्टी की सत्ता रही, तब-तक वह क़ानून के शिकंजे से बाहर रहे। पेपर के लिए फ़ंड की कोई कमी नहीं थी। लेकिन जैसे ही उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हुई और वह क़ानून के शिकंजे में फँसे, वैसे ही फ़ंड की कमी भी शुरू हो गई। 

पूरे स्टाफ़ पर ख़बरों से ज़्यादा विज्ञापन लाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। इसके चलते स्टाफ़ के कई अच्छे होनहार लोग पेपर छोड़ कर दूसरे पेपरों का रुख़ कर चुके थे। मैं भी कहीं फ़िराक़ में हूँ यह अफ़वाह आए दिन ऑफ़िस में उड़ती रहती थी। दरअसल यह सही ही था। क्योंकि मैं एक और बात से भी आहत था। कि यहाँ ख़बरों को छापने को लेकर प्रबंधन का हस्तक्षेप अन्य पेपरों से कहीं ज़्यादा था। अतः मैं भी किसी बढ़िया विकल्प की तलाश में था। 

उस दिन भी मैं फतेहपुर जाने के लिए जब जल्दी निकलने लगा तो प्रधान संपादक अचानक ही गलियारे में मिल गए। मुझे देखते ही बोले, “क्यों महोदय निकल लिए टूर पर।” ऑफ़िस में सब मेरे और कमला वर्मा के रिश्तों के बारे में जानते थे, संपादक ने वही व्यंग्य मारा था। 

मैंने भी बिना किसी लाग-लपेट के कहा, “सर आप तो जानते ही हैं, कि हफ़्ते भर जी-तोड़ मेहनत करने के बाद मैं ख़ुद को अगले हफ़्ते के लिए रिएनरजाईज़ करने के लिए जाता हूँ। जिससे अगले हफ़्ते-भर काम ज़्यादा और बढ़िया कर सकूँ।” 

मेरी इस बात पर वह ज़ोर से हा . . . हा कर हँस दिए, फिर बोले, “ठीक है, रिएनरजाईज़ होते रहो, मगर सँभल कर। अच्छा ये बताओ उस ऐड का क्या हुआ?” मैंने कहा, “पार्टी ने अभी एक महीने रुकने को कहा है।” इस पर वह कुछ पल मेरी आँखों में आँखें डाले देखते रहे। मानो मेरी बात की सत्यता जानने के लिए उन्हें पढ़ रहे हों। फिर हौले से सिर हिला कर बोले, “ठीक है, ध्यान रखना। और हाँ बाइक धीरे चलाना।” 

वह ऐसे मौक़ों पर मुझे धीरे बाइक चलाने की नसीहत देना कभी नहीं भूलते थे। उनकी यह बात मुझे कुछ देर को उनके साथ इमोशनली अटैच कर देती थी। मैं उस वक़्त जल्दी में था। कमला के पास जल्द से जल्द पहुँचने की बेचैनी बढ़ रही थी। इसलिए उनकी इस इमोशनल बात का संक्षिप्त सा जवाब दिया, “ओके सर, थैंक यू।” और हाथ मिला कर बाहर निकल आया अपनी बाइक के पास। 

मैं अपनी इस बाइक से आज भी बहुत प्यार करता हूँ। यामाहा की फ़ाइव गियर बाइक को मैं इतना मेंटेन रखता हूँ कि लगता है मानो अभी-अभी शो रूम से आई है। जबकि लिए हुए पंद्रह साल से ज़्यादा हो चुके हैं और कंपनी ने इसका उत्पादन भी बंद कर दिया है। 

गाड़ी की कंडीशन देख कर मेरे दोस्त कहते भी हैं तू इसे पोंछता ज़्यादा है चलाता कम है। मैं इस जुमले को हँस कर आज भी टाल जाता हूँ। अपनी इसी प्यारी बाइक को लेकर महानगर के एक प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट गया, वहाँ से कबाब, पराँठे और एक रोस्टेड चिकेन पैक कराया। 

इस रेस्टोरेंट वाले ने मुझसे तब से पैसा लेना बंद कर दिया था, जबसे मैंने इसे पड़ोसी दुकानदार से हुए झगड़े में हवालात पहुँच जाने पर आसानी से छुड़वा दिया था। और इसके विरोधी को टाइट भी करवा दिया था। अन्य मामलों में भी आए दिन उसकी कुछ न कुछ मदद करता ही रहता था। इसके चलते वह पहुँचने पर मेरी जमकर आव-भगत करता है और पैसे भी नहीं लेता। 

उस दिन भी उसने बैठने और कुछ खा-पी लेने के लिए कहा लेकिन मैंने कहा, “फिर कभी अभी जल्दी में हूँ।” वहाँ से निकल कर मैंने रॉयल स्टैग व्हिस्की की एक बोतल भी लेकर डिक्की में डाल ली। और बिना एक पल गँवाए फतेहपुर की ओर चल दिया। 

तेज़ बाइक चलाना मेरी आदत में शामिल है। अपनी इसी आदत के अनुरूप मैं एवरेज सत्तर-अस्सी की स्पीड से चला और क़रीब पौन घंटे से कम समय में बछरांवा तिराहे पर पहुँच गया और फतेहपुर के लिए बाईं ओर मुड़ कर रुक गया। 

बस-स्टेशन के सामने एक पान की दुकान से एक डिब्बी गोल्ड फ़्लेक लेकर एक सिगरेट वहीं खड़े-खड़े पी और छह पान भी बँधवा लिए। कमला के लिए चार मीठे पान अलग से लिए। 

लगभग नौ बज रहे थे। सड़क पर अब भी चहल-पहल थी। तभी मैंने देखा फतेहपुर डिपो की बस फतेहपुर के लिए बस-स्टेशन से बाहर निकल रही है। बस क़रीब-क़रीब पूरी भरी थी। वह मेरे सामने से ही निकल कर धीरे-धीरे आगे जा कर आँखों से ओझल हो गई। क़रीब दस मिनट बाद मैं भी चल दिया अपनी मंज़िल की ओर। 

मेरा मन कमला तक पहुँचने को मचल रहा था। दोपहर से शाम तक उससे चार बार बात हो चुकी थी। बछरांवा से चलते वक़्त मुझे आसमान में कुछ छिटपुट बादल दिखाई दिए थे। आगे की सड़क पतली और गड्ढों से भरी जिगजैग थी इसलिए बाइक की स्पीड ज़्यादा नहीं बढ़ा पा रहा था। 

कुछ किलोमीटर चलने के बाद मैंने देखा आसमान घने बादलों से ढक गया है। हवा एकदम शांत थी। सड़क पर अब चहल-पहल नहीं सन्नाटा दिखने लगा था। काफ़ी समय के अंतराल पर इक्का-दुक्का बाइक या अन्य वाहन दिख जाते थे। हर तरफ़ घुप्प अँधेरा था। सड़क से बहुत दूर कहीं एकाध टिम-टिमाती लाइट दिख जाती। पूरा माहौल बेहद डरावना लग रहा था। 

मैं चाह कर भी बाइक की स्पीड बढ़ा नहीं पा रहा था। घुप्प डरावने अँधेरे को बाइक की हेड-लाइट काफ़ी दूर तक चीरती आगे-आगे चल रही थी। और बाइक की आवाज़ भी दूर तक गूँज कर भयभीत कर रही थी। इस सबके चलते मैं आगे कितना बढ़ चुका था, यह ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था। 

जीवन में पहली बार ऐसे घनघोर बादलों से ढंके आसमान के नीचे घुप्प अँधेरे में अकेले बियाबान सी स्थिति में गुज़र रहा था। अचानक ही पूरा इलाक़ा तेज़ रोशनी से कौंध उठा। फिर कुछ पलों बाद बादलों की तेज़ गड़गड़ाहट ने कानों को कुछ देर के लिए सुन्न कर दिया। 

बाइक का हैंडिल मुझसे छूटते-छूटते बचा। अब मैं और ज़्यादा सावधानी बरतते हुए स्पीड कम कर आगे बढ़ रहा था। बिजली कड़कने के कुछ ही देर बार बूँदा-बाँदी शुरू हो गई। मुझे तब इतना याद था कि आगे अभी लालगंज तक कहीं ठहरने की कोई जगह नहीं है। बीच में एक बेहद दयनीय हालत में पेट्रोल पंप ज़रूर पड़ेगा। और कुछ छिट-पुट मकान, वहाँ भी रुकने लायक़ कोई ठिकाना नहीं था। यह रास्ता बरसों से कमला के पास बार-बार जाने के कारण काफ़ी हद तक मुझे याद हो गया था। 

मेरे पास एक ही रास्ता था कि जैसे भी हो जल्दी से जल्दी कमला के पास पहुँचूँ। अब मैं कुछ-कुछ परेशान होने लगा था। इस बीच बारिश तेज़ हो गई थी। चेहरे पर पानी की बूँदें सिटकी (छोटा कंकण) सी लग रही थीं। 

हेलमेट के शीशे पर पानी पड़ने से देखना मुश्किल हो रहा था इसलिए शीशा ऊपर कर दिया था। इसके बावजूद आँखों पर भी पानी पड़ने से देखने में दिक़्क़त हो रही थी। थकान अलग महसूस होने लगी थी। अब रह-रह कर बिजली चमक रही थी। बादल गरज और बरस भी रहे थे। मेरी मुश्किल बहुत बढ़ चुकी थी। 

मेरे सामने इस बारिश में भीगते हुए आगे बढ़ते रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था। इस लिए पूरी हिम्मत के साथ बढ़ता जा रहा था। मगर जैसे इतना ही काफ़ी नहीं था। बाइक अचानक ही लहराने लगी। बैलेंस करना मुश्किल हो गया। रोक कर किसी तरह देखा तो मेरे होश उड़ गए। पिछला पहिया पंचर हो गया था। मेरे दिल की धड़कनें अचानक ही बढ़ गईं। 

मेरे दिमाग़ में उस समय बिजली की तरह यह बात कौंध उठी कि, यहाँ रुके रहना ख़तरे का इंतज़ार करते रहने जैसा है। पतली सड़क के दोनों तरफ़ के कच्चे फुटपाथ कीचड़ से हो रहे थे। आगे बढ़ते रहना मुश्किल से दूर होते रहना जैसा था। भले ही पैदल ही सही। मैं आगे बढ़ने को हुआ तो मुझे पीछे दूर से दो हेड-लाइट क़रीब आती दिखाई दीं। मैं रुक गया कि शायद कोई मदद मिल जाए। 

लेकिन देखते-देखते दो बाइक सामने से आगे निकल गईं। मैंने उन्हें रोकने के लिए ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिलाया था लेकिन दोनों पल-भर को भी ध्यान दिए बिना तेज़ी से आगे निकल गए। 

इस हालत में भी मैं उन दोनों को दाद दिए बिना न रह सका। ऐसी ख़राब सड़क और तेज़ बारिश में भी दोनों बेतहाशा गाड़ी भगा रहे थे। उन्हें देख कर मेरा जोश फिर जाग उठा। तब पैदल चलना मुझे कहीं से समझदारी न लगी और मैं पंचर गाड़ी पर ही पेट्रोल टंकी के एकदम क़रीब बैठ कर धीरे-धीरे आगे बढ़ चला। फिर भी गाड़ी बुरी तरह लहरा रही थी। ऐसे ही क़रीब बीस मिनट चलने के बाद मैं उस दयनीय पेट्रोल पंप के सामने पहुँचा। वहाँ घुप्प अँधेरा हर तरफ़ था। 

पंप के पीछे कुछ दूर पर बने कमरे की छोटी सी खिड़की की झिरी से धुँधली लाइट नज़र आ रही थी। मैंने बाइक खड़ी कर दरवाज़ा खटखटाते हुए पूछा, “कोई है?“ दो-तीन बार खटखटाने पर अंदर से किसी आदमी ने पूछा, “कौन है?“ तो मैंने उसे पंचर गाड़ी की बात बताते हुए मदद माँगी, इस पर वह अंदर से ही बोला, “थोड़ा आगे चले जाओ, बाएँ तरफ़ एक पंचर की दुकान है। शायद कोई मिल जाए। यहाँ कुछ नहीं है।” 

पंचर की दुकान सुन कर मुझे बड़ी राहत मिली। मैंने जल्दी से गाड़ी स्टार्ट कर हेड-लाइट ऑन की, बाईं तरफ़ देखता हुआ आगे तीस-चालीस क़दम ही बढ़ा होऊँगा कि बाइक की रोशनी में एक आठ-नौ फुट ऊँचे बाँस में कई टायर एक के ऊपर एक रखे दिखाई दिए। 

दूर-दराज की पंचर की दुकानों पर दूर से ही दिखाई देने वाला यह ख़ास निशान है। मैं स्टार्ट गाड़ी लिए तेज़ क़दमों से उसके पास पहुँचा। फुटपाथ से दस-पंद्रह क़दम पीछे हट कर एक अच्छी-ख़ासी बड़ी सी झोपड़ी थी। कच्ची दीवार पर छप्पर पड़ा हुआ था। छप्पर पर कई टुकड़ों में फटी-पुरानी पॉलिथीन भी पड़ी थी। 

अच्छा-ख़ासा चौड़ा दरवाज़ा था। जो बाँस के टट्टर से बंद था। टट्टर पर अंदर से मोटे बोरे आदि लगा कर उसे सील किया गया था। उसी दरवाज़े पर पहुँच कर मैंने चार-पाँच आवाज़ें दीं। कहा, “मेरी गाड़ी पंचर हो गयी है थोड़ी मदद चाहिए।” तब कहीं अंदर से आवाज़ आई, “सबेरे आओ, इतने समय कुछ न हो पाई।” उस विकट सुनसान में एक झोपड़ी में महिला की आवाज़ सुन कर मैं कुछ पशोपेश में पड़ गया। टट्टर के कुछ सुराखों से जैसी मटमैली पीली लाइट दिख रही थी उसे देख कर लग रहा था कि अंदर लालटेन वग़ैरह जल रही है। 

मैं यह सोच कर परेशान था कि इस निपट अकेले में कोई महिला अकेले तो होगी नहीं। पुरुष भी ज़रूर होगा फिर वह क्यों नहीं बोला। मैं अब अंदर ही अंदर घबराने लगा था। मैंने फिर आवाज़ दी कि “क्या आगे पास में कोई दुकान मिल जाएगी या बारिश रुकने तक ठहरने की जगह।” 

यह बात भी दो-तीन बार दोहराने के बाद बड़ा रूखा जवाब मिला कि, “अब अत्ती बखत हिंआ कहूँ कुछ ना मिली। आगे लालगंज जाओ बस हुंआ कुछ मिल सकत है।” लालगंज यानी क़रीब अठाइस-तीस किलो मीटर और आगे-जाने की बात ने मेरे होश उड़ा दिए। इस बात ने साँसत और बढ़ा दी कि इस बार भी किसी पुरुष के होने की कोई आहट नहीं मिली। फिर से वही महिला बोली थी। 

अब यह एकदम साफ़ था कि कोई ऐसा वाहन मिल जाए जिस पर मैं अपनी बाइक लाद कर आगे लालगंज तक जाऊँ। क्योंकि रास्ता इतना ख़राब हो चुका था कि पंचर गाड़ी लेकर आगे बढ़ना अपनी जान को विकट ख़तरे में डालना था। यह सोच कर मैं ऐसे वाहन का इंतज़ार करने लगा जो बछरांवा की तरफ़ से लालगंज की तरफ़ जा रहा हो। 

पंद्रह मिनट बाद उधर से एक ट्रैक्टर गुज़रा। हाथ देने पर उसने रोक भी दिया। लेकिन बात नहीं बनी। उस की ट्राली भूसे से भरी थी। चारों तरफ़ बाँस, बोरों को लगा कर ट्राली से क़रीब चार फुट और ऊँचाई तक भूसा भरा था। फिर ऊपर से तिरपाल से ढंका था। ट्रैक्टर पर भी ड्राइवर सहित आठ लोग बैठे थे। 

मैंने अपनी हालत बता कर मदद माँगी तो उन सब ने हाथ खड़े करते हुए कहा, “हम कुछ नहीं कर पाएँगे। हाँ पीछे अभी कुछ और गाड़ियाँ आएँगी। उनका इंतज़ार करिए।” 

मैं हाथ मल कर रह गया। उनकी बात पर विश्वास करने, भीगते हुए और इंतज़ार करने के सिवा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। तभी मुझे अपनी अक़्ल पर तरस आया कि अपने मित्र धीरेंद्र धीर को फ़ोन करने की बात अब तक मेरे मन में क्यों नहीं आई। शायद वह कुछ इंतज़ाम कर दे। 

वह कमला के घर में ही पिछले तीन साल से किराए पर रह रहा था। साथ ही कमला को भी बता दूँ कि मैं कैसी मुसीबत में पड़ गया हूँ। बेचारी कब से इंतज़ार कर रही होगी। मगर यह सोचते ही मेरा दिल धक्क से हो गया। 

हाथ तेज़ी से शर्ट की जेब में गया, जिसमें मोबाइल था। जो बुरी तरह पानी में डूब चुका था। मन ही मन कहा हो गया सत्यानाश। मोबाइल निकाल कर ऑन करने की कोशिश की तो वह नहीं हुआ। किस्तों पर लिए गए मेरे बीस हज़ार रुपए के मोबाइल की बारिश ने ऐसी की तैसी कर दी थी। 

मैं अब एकदम असहाय हो गया था। इसी बीच बाइक एक तरफ़ लुढ़क गई। फुटपाथ के कीचड़ में उसका साइड स्टैंड धँस गया था, जिससे वह लुढ़क गई। किसी तरह उठा कर मैंने फिर स्टैंड पर खड़ी की। 

तभी झोपड़ी में हुई कुछ आहट की तरफ़ मेरा ध्यान गया। मैंने अपना कान उधर लगा दिया। लगा जैसे कोई टट्टर के पास आया। घुप्प अँधेरे में इस आहट ने मुझे बहुत डरा दिया था। मेरी धड़कनें बढ़ी हुई थीं। तभी सामने तेज़़ बिजली कौंधी। पूरा इलाक़ा रोशनी में नहा गया। एक चमकीली पतली सी सर्पाकार लाइट आसमान में चमकी और क्षितिज पर नीचे को लपक कर ग़ायब हो गई। 

इसके साथ ही कानों को सुन्न करती बादलों की गड़गड़ाहट से पूरा एरिया थर्रा उठा। मैं मुश्किल से पैर ज़मीन पर टिकाए रख सका। बारिश और तेज़ हो गई। मैंने मोबाइल पैंट की जेब में डाल दिया। तभी मैंने सोचा कि चलूँ पेट्रोल पंप वाले को बोलूँ कि रात-भर के लिए शरण दे दे। लेकिन वहाँ जिस तरह से गुर्रा कर बात की गई थी उससे हिम्मत नहीं पड़ी। 

वहाँ छोटी सी खिड़की के धुँधले से शीशे के उस पार एक बंदूक भी नज़र आई थी। उस छोटे से कमरे में शरण मिलने की मुझे कोई उम्मीद नज़र नहीं आई। वैसे भी ये पंप वाले किसी को रुकने नहीं देते। और ऐसे सुनसान एरिया में तो बिल्कुल नहीं। 

मैंने पंप पर जाने का इरादा छोड़ दिया। बहुत देर से लगातार भीगने के कारण अब मुझे अच्छी-ख़ासी ठंड लग रही थी। पानी के साथ-साथ हवा भी तेज़ थी। 

तभी मेरा ध्यान डिक्की में पड़ी रॉयल स्टैग पर गया। सोचा निकाल कर थोड़ी सी पी लूँ तो इस ठंड से राहत मिलेगी। नहीं तो तबियत ख़राब होने का पूरा इंतज़ाम हो गया है। पिछले एक घंटे में दसियों बार छींक चुका हूँ। 

यह सोच कर मैं डिक्की की तरफ़ पहुँचा, लेकिन तभी उस टट्टर के पीछे से उसी महिला की तेज़ आवाज़ आई कि, “अरे! हिंआ से आगे का चले जाओ ना।” डिक्की की तरफ़ बढ़ा मेरा हाथ ठहर गया। उसकी इस बात ने मुझे झकझोर दिया। कि कैसी निष्ठुर हो गई है दुनिया। इतनी मुसीबत में बाहर घंटे भर से भीग रहा हूँ। यह तो नहीं कहा एक बार भी कि पानी रुकने तक आ जाओ अंदर। 

सड़क पर खड़ा हूँ इस पर भी भड़क रही है। सड़क पर अनथराइज़ दुकान खोल रखी है। हनक ऐसी कि जैसे इसके बाप की ज़मीन पर खड़ा हूँ। मन में भद्दी सी कई गालियाँ उसे एक साथ देता हुआ मैंने कहा, “अरे! परेशान न हो, कोई साधन मिलते ही चला जाऊँगा।” अंदर से जवाब मिला, “परेशान काहे होइबे।” 

इस बार उसकी आवाज़ कुछ कर्कश हो चुकी थी। मेरा डर बढ़ता जा रहा था कि आख़िर मामला क्या है कि अंदर से कोई मर्द क्यों नहीं बोल रहा है। ये महिला ही बार-बार क्यों बोल रही है। सुनसान विराने इलाक़े में इसके रुकने का मतलब क्या है? देहात में सड़क पर ऐसी छोटी-मोटी दुकानें रखने वाले लोग गोधुलिया (शाम) होते-होते दुकानें बंद कर अपने घरों को चले जाते हैं। औरत जात यह अकेले क्या कर रही है, अगर कोई मर्द है तो अब तक वह सन्नाटा मारे अंदर क्यों बैठा है? 

ऐेसे उमड़ते-घुमड़ते तमाम प्रश्न मेरे भय को बढ़ाते जा रहे थे। कोई गाड़ी आ रही हो यह सोच मैं फ़ुटपाथ से पक्की सड़क की तरफ़ चार क़दम आगे बढ़ गया। दूर-दूर तक कुछ नहीं दिख रहा था। वो क्या कहते हैं कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। 

व्हिस्की पीने का इरादा दिलो-दिमाग़ से एकदम ग़ायब हो गया था। ऐसे में संकट-मोचन हनुमान जी याद आए और याद आया उनका चालीसा कि प्रभु रक्षा करो प्राणों की। मैं कठिन वक़्त में ही भगवान को याद करने वालों की तरह मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। 'भूत-पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै। नासै रोग हरै सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा। संकट ते हनुमान छुड़ावै मन क्रम वचन ध्यान जो लावै . . .  लाइनें दोहराने लगा। इस चालीसा पाठ के सहारे सड़क पर मैंने बीस-पचीस मिनट और काट दिए। 

इतने समय में कुल मिला कर एक जीप और एक पिकप ही निकली। जब कि फतेहपुर से बछरांवा के लिए एक भी वाहन नहीं निकला। अब तक मैंने यह निर्णय ले लिया था कि लखनऊ वापसी के लिए भी कोई साधन मिल गया तो वापस हो लूँगा। जिधर के लिए मिल जाएगा साधन ऊधर को ही चल दूँगा। बस इस विराने से जितनी जल्दी फ़ुर्सत मिले उतना अच्छा। 

हनुमान जी हिम्मत बढ़ा रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगने लगा। पता नहीं सच क्या था, लेकिन मैं भीतर मज़बूत होता महसूस कर रहा था। अजब है मन का भी खेल, ऐसे में जैसा सोचो वैसा ही होता दिखता है। 

अचानक मेरे मन में आया कि सड़क पर मदद के लिए इधर-उधर देख रहा हूँ। और जो मदद इतनी देर से सामने खड़ी है उसकी तरफ़ पूरा ध्यान ही नहीं है। नाहक उससे भूत-पिशाच के वहम में थरथर काँप रहा हूँ। 

यह तय है कि यहाँ आज की रात इसके अलावा इससे अच्छी मदद क्या कहने भर को भी मदद नहीं मिलने वाली। अभी सवेरा होने में सात-आठ घंटे हैं। तब-तक इस हालत में रहा तो बच पाना मुश्किल है। 

मैं वापस बाइक के पास पहुँचा। उसे स्टार्ट करने लगा, चार-पाँच किक के बाद स्टार्ट हुई। हेड-लाइट ऑन कर टट्टर के पास पहुँचा। अंदर की आहट से यह साफ़ था कि मुझे टट्टर की झिरियों में से देखा जा रहा है। 

मैंने क़रीब पहुँच कर कहा, “देखिये मेरी मदद करिए। मेरी तबियत ख़राब होती जा रही है। यहाँ से आगे जाने के लिए ना कोई साधन मिल रहा है और ना ही कोई छाया जहाँ रुक सकूँ। मैं एक नौकरी-पेशा आदमी हूँ। डरने वाली कोई बात नहीं है।”

यह बात मैंने इतनी तेज़ आवाज़ में कही थी कि बारिश के शोर के बावजूद भी अंदर साफ़-साफ़ सुना जा सके। छप्पर के ऊपर पड़ी पॉलिथीन पर बारिश की पड़नें वाली बूँदों के कारण पट-पट की आवाज़ माहौल को और डरावना बना रही थीं। अपनी बात पूरी करने के बाद मैंने कुछ क्षण इंतज़ार किया कि अंदर से कोई उत्तर मिले। 

मगर अंदर रहस्यमयी ख़ामोशी छायी रही। मैंने फिर विनम्र शब्दों में कहा कि, “देखिये परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। इस आफ़त में बस आपसे थोड़ी मदद माँग रहा हूँ। रात-भर इस बारिश में रहा तो मैं बच नहीं पाऊँगा। मैं बी.पी. और हार्ट का भी मरीज़ हूँ। आपकी थोड़ी सी मदद से मेरी जान बच जाएगी। कोई आदमी हो तो मेरी बात करा दें।” 

इस बार अंदर से आवाज़ आई, “अरे! एकदम पीछेह पड़ि गए हौ। कहा ना और कहूँ ठौर ढूँढ़ लेओ।” मैंने फिर निवेदन किया कि, “आप अच्छी तरह जानती हैं कि इस आँधी-तूफ़ान में दूर-दूर तक कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। ठौर-ठिकाना इस विराने में कहीं है ही नहीं। आप बारिश रुकने तक बस एक किनारे बैठने भर की जगह दे दें। मेरी वज़ह से आप लोगों को कोई तकलीफ़ नहीं होगी। कोई हो तो मेरी बात करा दें। चाहें तो आप लोग मेरी तलाशी ले लें, तब अंदर आने दें।” 

मैं अपनी बातें कहते-कहते पाँच-छह बार छींक चुका था। अंदर से फिर कोई आवाज़़ नहीं आई तो मैंने सोचा ज़माना तो पैसे का है। कोई क्यों बिना किसी फ़ायदे के किसी की मदद करेगा। फिर अरूप की तोड़ी-मरोड़ी एक कहावत उस कठिन परिस्थिति में भी याद आई। 

वह रहीम दास जी के दोहे को इस तरह कहता कि, ’रहिमन पैसा राखिये बिन पैसा सब सून। पैसा गये न ऊबरे मोती मानुष चून।’ उसने रहीम दास जी के दोहे में पानी की जगह पैसा जोड़ दिया था। सैलरी मिलने में देरी होने पर वह सब के सामने बार-बार यही दोहराता था। 

मैंने सोचा इस मौसम में यदि यहाँ कहीं होटल या धर्मशाला कुछ होता और मैं वहाँ रुकता तो हज़ार-दो हज़ार तो ख़र्च हो ही जाते। यह झोपड़ी इस वक़्त मेरे लिए किसी होटल से कम नहीं है। यह डूबते का तिनका नहीं पूरा-पूरा लग्जरी क्रूज़ है। यह सोचते ही मैंने फिर आवाज़ दी। “देखिये मैं आपसे मुफ़्त में मदद नहीं लूँगा। मेरे पास क़रीब चार-पाँच सौ रुपए हैं। मैं वह सब आपको दे दूँगा।” 

इस बार भी कोई आवाज़ नहीं आई तो मैंने अपनी बात थोड़ी और ऊँची आवाज़ में दोहराते हुए टट्टर पर दो-तीन बार दस्तक भी दी। इस बार वह बोली मगर कुछ खीझी हुई आवाज़ में। “तुम तौ एकदम आफत कई दिनिहयो हो। रुको खोलित है।” इसके साथ ही टट्टर में बँधी चेन के खुलने की आवाज़ आई। फिर वह दरवाज़ा अंदर की तरफ़ छह-सात इंच खिसका। और वह औरत लालटेन लिए सामने आई। 

लालटेन उसने अपने आगे कर रखी थी। फिर पूछा, “का बात है? बताओ, काहे पाछै पड़े हौ अत्ती रात माँ औऊर कहूँ जगह नाहीं मिली तुमका।” मैंने इस बार उसकी आवाज़ में काफ़ी नरमी देखी। इससे मेरी उम्मीद के दिए की लौ एकदम भभक पड़ी। मैंने कहा, “देखिये मेरी वज़ह से आप को ज़रा भी परेशानी नहीं होगी। मैं बाल-बच्चों वाला एक नौकरी-पेशा आदमी हूँ। आपकी थोड़ी सी मदद चाहिए बस। मेरी गाड़ी ठीक होती तो मैं रुकता ही क्यों?“ 

फिर मैंने उसे मोटर-साइकिल का पंचर पहिया दिखाते हुए कहा, “ये देखिए पंचर है। मैं एकदम मजबूर हूँ। नहीं तो आपसे ना कहता। मेरे पास जो पैसा है सब आपको दे दूँगा।” यह कहते हुए मैंने यह भी जोड़ा, “आपको डरने की ज़रूरत नहीं है।” 

मेरी बात पूरी होने के बाद वह कुछ क्षण तक चुपचाप कभी मोटर-साइकिल को तो कभी मुझे देखती रही। फिर मैंने देखा उसने लालटेन एक तरफ़ रख दी। और आधी खुली चेन को पूरा खोल दिया। टट्टर को पीछे इतना खिसकाया कि अंदर जाने की जगह बन जाए। 

मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह मुझे अंदर रुकने देने के लिए तैयार हो गई है। भूख से तड़पते आदमी के सामने खाने की भरी थाली रखने पर जैसी व्याकुलता होती है, मैं अंदर जाने की लिए वैसे ही तड़प उठा। 

टट्टर पीछे खिसका कर उसने पहले से कहीं ज़्यादा मुलायम आवाज़ में कहा, “आओ।” ख़ुद दो क़दम बाएँ तरफ़ हट गई। मैं मात्र पाँच फ़ीट ऊँचे उस दरवाज़े से झुक कर झोपड़ी में दाख़िल हो गया। मैंने जैसा सोचा था झोपड़ी अंदर से वैसी नहीं थी। वह काफ़ी बड़ी थी। वह पीछे क़रीब सोलह-सत्तरह फ़ीट तक चली गई थी। उसकी डायमेंशन कहने भर को आयताकार पंद्रह गुणे सत्तरह की थी। 

अंदर जिस तरह से सामान रखे हुए थे उससे साफ़ था कि वह सिर्फ़़ दुकान नहीं पूरा एक घर है। जिसमें गृहस्थी थी। दो चारपाइयाँ पड़ी थीं। एक तरफ़ रसोई का सारा साजो-सामान था। एक तरफ़ टिन के छोटे-बड़े दो बक्से थे। एक लालटेन जल रही थी। दूसरी रसोई वाले स्थान पर बुझी हुई रखी थी। 

एक तरफ़ एक तार पर कुछ जनाना और कुछ मरदाना कपड़े टँगे थे। मतलब साफ़ था कि इस घर में कोई मर्द भी रहता है। लेकिन इस समय वो वहाँ नहीं था। तब मैं समझ गया कि यह महिला इसी कारण दरवाज़ा खोलने से इतना हिचक रही थी। 

मैंने देखा औसत क़द से कुछ ज़्यादा लंबी और मज़बूत जिस्म की साँवली सी महिला की आँखों में कोई संशय या भय के भाव नहीं थे। जबकि मैं ज़रूर अंदर-अंदर भयभीत था। मैं टट्टर से लगी दीवार के क़रीब खड़ा हो गया तो उसने टट्टर बंद कर दिया लेकिन चेन नहीं बाँधी। फिर वह तीन-चार क़दम दूर पड़ी चारपाई के पास खड़ी हो प्रश्न-भरी दृष्टि से मुझे देखने लगी। 

मैं जहाँ खड़ा था वहाँ के आस-पास की ज़मीन मेरे कपड़ों से चूते पानी के कारण भीगी जा रही थी। अंदर आते ही दो बार और छींक चुका था। अब मेरे मन में यह बात उठ खड़ी हुई कि इन गीले कपड़ों का क्या करूँ इन्हें बदले बिना तो बात बनेगी नहीं। इन गीले कपड़ों में रहना और बाहर भीगते रहने में कोई ख़ास फ़र्क़ तो है नहीं। मगर चेंज करूँ तो कैसे? एक सूखा रूमाल तक तो पास में है नहीं। इसके लिए भी मेरा ध्यान उसी महिला की तरफ़ गया और मैंने बिना समय गँवाए अपनी बात आगे बढ़ाई। 

कहा, “इस मदद के लिए आपको धन्यवाद देता हूँ। आप मदद नहीं करतीं तो इस विराने में मेरा ना जाने क्या होता? सुबह तक शायद ही बच पाता। मैं जीवन भर आपका अहसानमंद रहूँगा।” इस पर वह बोली, “बार-बार कहत रहेउ, खट्खटाए लागेउ तो हम कहेन खोलि देई। कबए भीगत रहेउ। नाहीं हम अत्ती रात माँ खोलित ना। तुम्हरी हालत देइख के हमका लागि तुम नीक मनई हो कोऊनो डर नाय है।” अपने लिए उसके मुँह से नीक मनई सुन कर मैं निश्चिंत हो गया कि इस बारिश के बंद होने तक यहाँ ठहर सकता हूँ। 

उसकी भाषा ने मुझे ज़रूर असमंजस में डाल दिया था कि यह कौन सी, किस क्षेत्र की हिंदी बोल रही है। जहाँ तक फतेहपुर ज़िले की बात है तो यहाँ भी यह शैली नहीं बोली जाती। मगर क्षण में इस असमंजस को किनारे लगा मैंने बात आगे बढ़ाई कहा, “आप की बात सही है। मैं नौकरी करता हूँ, मेरा परिवार है, एक बेटा है। फतेहपुर काम से जा रहा था। लखनऊ से जब चला तो मौसम साफ़ था। बाद में एकदम बिगड़ गया।” 

इस बीच मैंने एक बात और मार्क की कि, पान-तम्बाकू की वह ज़बरदस्त शौक़ीन है। शौक़ीन ही नहीं बल्कि उसकी लती कहना ज़्यादा सही है। उसके सारे दाँत एकदम कत्थई हो रहे थे। उस समय भी उसके मुँह में तम्बाकू भरी हुई थी। जिसकी तीखी गंध मेरे नथुनों तक पहुँच रही थी। बिस्तर पर एक बीड़ी का बंडल और माचिस भी दिखाई दे रही थी। वह अब भी मुझसे मात्र तीन फ़ीट की दूरी पर खड़ी थी। 

अब तक मैं सहज हो चुका था। मेरी हिम्मत बढ़ चुकी थी। तो मैंने उससे कहा, “मौसम का भी कोई ठिकाना नहीं कब बदल जाए। अरे! हाँ मैंने आपसे पैसे के लिए कहा था।” यह कहते हुए मैंने पैंट की जेब से पर्स निकाला। वह भी पानी से तर था। मैंने पर्स इस ढंग से खोला कि वह भी उसे अंदर तक ठीक से देख सके। उसमें सौ-पचास और कुछ दस के नोट थे। मैंने सब निकाल कर, जो संयोग से पाँच सौ ही थे उसकी तरफ़ बढ़ा दिए। कहा, “मेरे पास इतने ही हैं। इन्हें आप रख लें।” 

उसने बिना एक पल गँवाए हाथ बढ़ा कर नोट ले लिए। अरूप की बात दिमाग़ में फिर कौंध गई कि पैसा बिन सब सून। मैंने देखा नोट लेते वक़्त उसके चेहरे के भाव भी कुछ बदले थे। मैंने कहा, “भीगे हैं, इन्हें कपड़ों के नीचे दबा कर रख दिजिएगा सूख जाएँगे।” उसने यही किया सारे नोट तकिए के नीचे दबा कर रख दिए। नोट रखने के बाद वह उसी चारपाई के आगे खड़ी हो गई तो मैंने कुछ संकुचाते हुए कहा “कोई तौलिया या अंगौछा दे दीजिए तो अपना पानी पोंछ लूँ।” 

मैं यह बात पूरी भी ना कर पाया था कि मेरे एक के बाद एक लगातार तीन छींकें आईं। छींक बंद होने के साथ ही उसने मुझे अंगौछा दे दिया। मैंने देखा उसकी बॉडी लैंग्वेज बड़ी सहयोगात्मक हो रही है। सिर के बाल वग़ैरह पोंछने के दौरान वह अपनी जगह खड़ी रही। मैंने बाल पोंछने के साथ ही उससे फिर हिम्मत करते हुए कहा कि, “बड़ा संकोच हो रहा है कहते हुए कि, अगर एक लुंगी मिल जाती तो मैं इन भीगे कपड़ों को काम भर का सुखा लेता।” मेरी इस बात पर भी वो कुछ बोली नहीं बस तार पर पड़ी लुंगी ला कर मुझे थमा दी और फिर दूसरी वाली चारपाई पर थोड़ा आड़ में बैठ गई। 

लुंगी देते समय वह जब मेरे ज़्यादा क़रीब आ गई थी तो मुझे उसके मुँह से देशी शराब का भभका सा महसूस हुआ। मैं हफ़्ते में दो-तीन दिन पीने वालों में हूँ। मुझे लगा कि मुझे समझने में कोई ग़लती नहीं हुई है। इसने थोड़ी ही सही लेकिन पी ज़रूर है। कम से कम दो घंटे पहले पी है। लूँगी पाते ही मैंने जल्दी-जल्दी सारे कपड़े उतार कर उसे पहन लिया। और अंगौछा कंधे पर से ओढ़ लिया। फिर कपड़ों को निचोड़ कर दीवार पर लगी दो-चार कीलों पर टाँग दिया। और उसकी तरफ़ मुखातिब होते हुए कहा, “धन्यवाद।” 

असल में यह कह कर मैं उसका ध्यान आकर्षित करना चाहता था। वह दूसरी तरफ़ मुँह किए हुए बैठी थी। आवाज़ सुनते ही वह मेरी तरफ़ घूम गई। मैं तब-तक थक कर चूर हो चुका था। उसको बैठा और दूसरी चारपाई को ख़ाली देख कर मेरा मन बैठ कर आराम करने के लिए मचल उठा। 

मैंने कहा, “अब जा-कर राहत मिली। घंटों से भीगते रहने के कारण बुरी तरह थक गया हूँ।” मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उसने मुझे बैठने को कह दिया। मैं दूसरी चारपाई पर बैठ गया। दोनों चारपाई आमने-सामने पड़ी थीं। जिस पर वह बैठी थी उस पर दरी, चादर, तकिया सब था। मैं जिस पर था उस पर केवल दरी बिछी थी। लालटेन इन दोनों चारपाइयों के बीच में रखी थी। उसके मटमैले पीले प्रकाश में झोपड़ी का माहौल रहस्यमयी सा लग रहा था। 

बाहर अब भी तेज़ बारिश हो रही थी और अब मेरी भूख ज़ोर मारने लगी थी। मुझे डिक्की में रखे कबाब, पराँठे, रोस्टेड चिकेन और व्हिस्की की याद आयी। मैंने उससे कहा, “मेरी बाइक में कबाब, पराँठे और रोस्टेड चिकेन मतलब भुना हुआ मुर्गा रखे हैं। आप कहें तो निकाल लाऊँ। बहुत थक गया हूँ, भूख लग रही है।” मेरी इस बात पर उसने अजीब सा मुँह बना कर ऐसे देखा मानों कह रही हो ऊँगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ने की बात कर रहे हो। 

उसने बड़े भद्दे ढंग से उबासी ली फिर बोली, “लै आओ।” काफ़ी देर बाद बोली थी। बाहर निकलने पर भीगने से बचने के लिए मैंने उससे छाता माँगा तो उसने एक बड़ी सी पॉलिथीन थमा दी। जिसे ओढ़ कर मैं बाइक से कबाब, पराँठे, चिकेन ले आया। पैकेट को मैंने चारपाई पर रख कर खोला। चिकेन, कबाब की ख़ुश्बू नाक में भर गई। 

मैंने उसे भी खाने को कहा तो पहले तो ना-नुकुर की। फिर मैंने कबाब, पराँठे की तारीफ़ के पुल बाँधते हुए कहा, “यह लखनऊ की सबसे मशहूर दुकान का है। संकोच ना करें। बहुत ज़्यादा हैं। दोनों आराम से खा सकते हैं।” कई बार कहने पर वह तैयार हो गई। पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कान की एक लकीर दिखी। वह अपनी चारपाई से उठी और एल्युमिनियम की दो थाली मेरे सामने रख दी। 

थाली बड़ी साफ़-सुथरी दिख रही थी। लेकिन मन मेरा कुछ हिचक रहा था। मगर अनिच्छा को दबाते हुए मैंने आधे-आधे कबाब, पराँठे और एक-एक लेग पीस सहित चिकेन थाली में रख कर उसे भी अपनी ही चारपाई पर सामने बैठने को कहा तो वह तुरंत बैठ गई। ज़रा भी हिचक नहीं दिखाई। फिर खाना शुरू किया। और कोई वक़्त होता तो मैं इस तरह का ठंडा कबाब, पराठा और चिकेन कभी नहीं खाता। मगर तब भूख के कारण वे बहुत बढ़िया लग रहे थे। 

बड़ा अजब अनुभव हो रहा था। बाहर बारिश, एक अनजान झोपड़ी में अनजान महिला के साथ, आधी रात को कबाब, पराँठे, चिकेन की दावत उड़ा रहा था। और मन बार-बार डिक्की में रखी व्हिस्की की तरफ़ जा रहा था। मगर उसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। हालाँकि तब-तक यह कंफ़र्म हो चुका था कि वह महिला पहले से ही पिए हुए है। 

उस समय एक चीज़ उसकी मुझे बड़ी तकलीफ़देह लग रही थी। उसका खाते समय चप्प-चप्प आवाज़ करना। खाते समय मुँह से आवाज़ करने पर मुझे इतनी नफ़रत होती है कि ख़ून खौल उठता है। मन करता है कि सारा खाना उठा कर सामने वाले के सिर पर दे मारूँ। मगर उस समय उस आवाज़ को बर्दाश्त करने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। जिस स्पीड से उसने चार पराँठे और छह कबाब और आधा चिकेन चट किए उससे साफ़ था कि वह उसे बहुत अच्छे लगे थे। खाने के दौरान ही मैंने उससे नाम पूछा तो उसने कमला बताया। 

मैंने मन में ही कहा अजब संयोग है जिस कमला के पास जा रहा था वहाँ बारिश ने पहुँचने नहीं दिया। जिसके पास रुकने को विवश कर दिया वह भी कमला। लेकिन दोनों में कितना फ़र्क़ है। एक जब बोलती है तो लगता है कि बस उसे सुनते ही रहो। और यह है कि मन करता है कि बस चुप हो जाए। एक फूलों सी मासूम कोमल दिखती है। तो दूसरी कठोर, सख़्त लगती है। ख़ैर खाना ख़त्म हुआ। वह एक जग, दो गिलास में पानी भी लेकर आई, जिसे देख कर व्हिस्की की प्यास और बढ़ गई। 

बाहर बादलों का गर्जन-तर्जन बराबर अब भी जारी था। मानसून की पहली बारिश ही उम्मीद से कहीं ज़्यादा हो रही थी। मैं बातचीत करके अब-तक उससे घुल-मिल चुका था। 

इसी बीच उसने यह बता दिया था कि पति श्याम लाल किसी मुआवज़े आदि के चक्कर में लखनऊ गए हैं। आज काम नहीं हुआ तो वहीं दारुलसफा में ही एक नेता के साथ रुके हुए हैं। उसी ने काम कराने के लिए बुलाया था। दस हज़ार रुपए भी ले चुका है। 

बहुत दिन से लटकाए हुए है, इसीलिए पति आज उसके पीछे पड़े हैं। उसने बताया कि, “ऊ कहिन रहै कि सँभाल कै रहेऊ अंधियार होतै बंद कई लिहौ, सवेरे तक खोलेयो ना।” यह कहते हुए उसने खीसें बा दीं फिर बोली, “लेकिन तुम ऐइस पाछे पड़ि गैओ कि तुमका अंदर बैइठा लीनिह।” 

उसकी हँसी ने मेरा उत्साह बढ़ा दिया। मैंने कहा, “पानी ने मज़बूर कर दिया नहीं तो परेशान नहीं करता।” फिर मैंने उसकी तारीफ़ के पुल बाँधते हुए कहा, “आप बड़ी हिम्मती हैं। शुरू में तो मैं आपकी हिम्मत देख कर सहमा हुआ था। और सच कहूँ कि इन कबाब, पराठों, चिकेन के साथ मैंने एक बोतल बढ़िया अँग्रेज़ी शराब भी ले ली थी। वह अब भी डिक्की में रखी है। खाते समय बड़ी इच्छा हो रही थी। मगर मैं आपसे पूछने की हिम्मत नहीं कर सका।” 

मैं यह कहते हुए उसके चेहरे के भावों को ख़ास तौर से पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने साफ़ देखा कि वह भी अँग्रेज़ी शराब सुनते ही चहक उठी। बस खुल कर बोलने में हिचक रही थी। तो मैंने कहा, “आप परेशान ना हों, अगर कहेंगी, वह भी ख़ुशी-ख़ुशी तभी मैं उसे छुऊँगा।” 

कुछ क्षण चुप रह कर वह बोली, “अब इहाँ दारूह पिऐ का मन कैइ रहा है तौ पी लेऊ। जब खाए लिए हौ तो पियू लैओए पहिलै बताए होतेव कि गाड़ी मा रखै हो। जाओ लै आओ।” मैंने उसे और चेक करने की ग़रज़ से कहा, “नहीं मैंने तो बस आपको बात बताई। आप का मन हो तभी इज़ाज़त दिजिएगा। वैसे भी अकेले पीने में मुझे ज़्यादा मज़ा नहीं आता।” 

इस पर वह हँसी और बोली, “अरे! जाओ लै आओ हम देखि रहेंन कि अब वहिकै बिना तुमका चैन ना परी। जाओ लै आओ।” लेकिन उसे मैंने आख़िरी बार टटोलते हुए कहा, “छोड़िये अकेले क्या पीना।” इस पर उसने फिर खींसें निकालते हुए कहा, “अरे लै आओ, साथे खाए लिहिन तो वहू माँ देखिबै।” उसकी बात और हँसी से मुझे जब कंफ़र्म हो गया कि वह भी पियक्कड़ है तो फिर मैंने वही पॉलिथीन ओढ़ी और बोतल उठा लाया। 

रॉयल स्टैग की पैकिंग देख कर वह बोले बिना ना रह सकी कि, “ईतो बहुत महंगी वाली लागि रही।” मैंने कहा, “हाँ। और ये पूछ रहा था कि आप तंबाकू तो खाती हैं क्या ये . . . मैंने बात अधूरी छोड़ते हुए बोतल की ओर इशारा किया तो बड़ी चालाकी से सारी बात मुझ पर थोपती हुई बोली, “अब कहि तो रहेन कि इत्ता तुम कहि रहे हो तो लाओ।” 

बस इसके बाद मैंने गिलास पानी मँगवाया आमने-सामने बैठ कर पी। मैं झटके से पीने में यक़ीन नहीं करता। खाने के साथ धीरे-धीरे पीता हूँ। मगर वह गिलास में भरते ही एक झटके में गले में उतार देती। दो पैग पीने के बाद उसने बीड़ी भी जला ली। मुझे भी पकड़ा दी। मैंने जो सिगरेट ख़रीदी थी वह भीग कर बेकार हो चुकी थी। 

बीड़ी पीना नहीं चाहता था लेकिन उसने इतना दबाव डाला कि कोई रास्ता ही नहीं बचा। उसकी हालत देख कर साफ़ था कि वह पक्की खिलाड़ी है। बाहर रह-रह कर बादल गरजते और बरसते भी जा रहे थे। इधर हम-दोनों थोड़ी ही देर में पूरी बोतल गटक गए। उसने मुझसे एक पैग ज़्यादा पी ली थी। मैंने बोतल दो-दो पैग के इरादे से खोली थी। लेकिन कमला जैसी खिलाड़ी के सामने मेरी एक ना चली। 

हम-दोनों को शराब चढ़ चुकी थी। मुझे डर था कि कमला पी कर कहीं बहके नहीं। लेकिन वह एकदम सामान्य ही दिखी। बस एक गड़बड़ कर रही थी कि बार-बार मेरे चेहरे को देखती। जब मैं देखता तो वह मुस्कुरा कर सिर नीचे कर लेती। अब मैं सोच रहा था कि यह अपनी चारपाई पर चली जाए तो मैं कमर थोड़ी सीधी कर लूँ। दरअसल मैं मन में यह ठाने हुए था कि वहाँ सोऊँगा नहीं। मुझे विश्वास नहीं था। दूसरे मुझे दो और पैग की बड़ी सख़्त ज़रूरत महसूस हो रही थी। 

पिछले पाँच-छह सालों से प्रेस क्लब की बैठकी और पैसों की इंकम के साथ-साथ पीने की मेरी आदत बहुत बढ़ गई थी। मैं कमला को अपनी चारपाई से जब उसकी चारपाई पर भेजने का रास्ता ढूँढ़ रहा था। तभी मुझे लगा कि एक बार इस झोपड़ी से फिर बाहर जाना पड़ेगा। क्योंकि पेशाब ज़ोर मार रहा था। मैंने कमला से वह पॉलिथीन फिर माँगी। सोचा कि ख़ाली बोतल भी साथ ही बाहर फेंक आऊँगा। लेकिन कमला बेवज़ह फिर हँसी और बोली “काहे औऊर लाए का मन है का।” 

उसकी बात सुन कर मैंने मन ही मन कहा इसने तो हद ही कर दी है। मैं मर्द हो कर भी अंदर-अंदर सशंकित हूँ। यह औरत हो कर भी कैसे निश्चिंत है, बेअंदाज़ हुई जा रही है। मैंने कहा, “नहीं। अब कुछ है ही नहीं। वो . . .  ज़रा पेशाब के लिए जाना है।” तो वह बोली, “तो ई बताओ ना। बाहर भीगै की कऊन जरुअत, ऐइसी चले जाओ।” उसने झोपड़ी के एक कोने की ओर इशारा किया। उस कोने में मुझे लालटेन की नाम-मात्र की रोशनी में एक टूटा पत्थर रखा दिखा और दीवार में एक नाली भी। 

साफ़ था कि ऐसी स्थिति के लिए ही यह व्यवस्था थी। बाक़ी समय झोपड़ी के सदस्य बाहर ही जाते हैं। वहाँ पेशाब करना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था। क्योंकि जैसी व्यवस्था थी वैसे में बैठना पड़ता। तन पर मेरे ख़ाली लुंगी थी। खाने के बाद अंगौछे से हाथ वग़ैरह पोंछा था। तो वह चारपाई पर ही पड़ा था। बाहर कीचड़, पानी, झोपड़ी के पीछे गड्ढे, डरावना माहौल हो रहा था। अंततः किसी तरह अंदर ही निपट कर अपनी चारपाई पर बैठ गया। 

कमला अब भी वहीं बैठी थी मैंने घड़ी पर नज़र डाली साढ़े बारह बज रहे थे। कमला पर नज़र डाली तो वहाँ नींद नहीं, शराब की मस्ती, सुरूर नज़र आ रहा था। मैंने कहा, “साढ़े बारह बज रहे हैं, लेकिन बारिश बंद होने का नाम ही नहीं ले रही है।” मैं उसे अहसास कराना चाह रहा था कि टाइम बहुत हो गया है। मगर वह बैठी रही। मुझे लगा ये भी मेरी तरह सशंकित है, इसीलिए शायद यह भी जागते रहना चाहती है। 

फिर वह अचानक ही उठी, मैंने देखा उसके क़दम कुछ लड़खड़ा रहे हैं। मन में राहत मिली चलो यह अपनी चारपाई पर गई। अब कमर सीधी कर लूँगा। मगर क्षण भर में उम्मीदों पर पानी फिर गया। वह उसी नाली के पास गई, बड़ी फूहड़ता से निपट कर सीधे मेरे ही सामने आ कर फिर बैठ गई। 

उसी समय बाहर सड़क पर ट्रक जैसा कोई भारी वाहन बड़ी तेज़ आवाज़ करता हुआ गुज़र गया। शायद उसका साइलेंसर कहीं से टूट गया था। इसलिए बहुत देर तक उसकी कर्कश आवाज़ सुनाई देती रही। 

कमला को देख कर मुझे लगा चलो यह नहीं सोती है तो ना सोए। बैठी कुछ बतियाती रहेगी तो रात आसानी से कट जाएगी। नहीं तो इस को सोता देख कर मुझ पर नींद हावी हो जाएगी। मगर मैं ग़लत था। वह बातों का हाँ हूँ जवाब देती। और बेवज़ह हँसती या मुस्कुराती एक बार तो बादल के गरजने पर वह ताली बजा कर खिलखिला पड़ी। तभी मेरा ध्यान इस ओर गया कि हमारे उसके बीच जो दूरी थी वह आधी भी नहीं रह गई। 

मैं लुंगी कभी पहनता नहीं। वह भी ख़ाली लुंगी तो उसमें मैं असहज महसूस कर रहा था। उसकी बदलती हरकतें मुझे बहुत असहज करती जा रही थीं। मैं फ़ालतू बातें किए जा रहा था। वह हाँ, हूँ, मुस्कुराने के साथ-साथ मेरे घुटने पर भी हाथ रख दे रही थी। और फिर एक बार रखा तो हटाया ही नहीं। 

उसके हाथ को हटाने के इरादे के साथ मैंने उसका हाथ पकड़ा लेकिन हटा ना पाया। मेरा हाथ जैसे उसके हाथ से ही चिपक गया। उसने मेरा सारा कंट्रोल बिगाड़ दिया। मैंने उसे हलके से अपनी ओर खींचा तो वह एकदम मुझपे ही आ पड़ी। जैसे ना जाने कब से इसी का इंतज़ार कर रही थी। 

बाहर गरजते बादल, बरसता पानी, विराने में अकेली झोपड़ी, झोपड़ी में टिमटिमाती लालटेन का कहने भर का प्रकाश, मैं एक चारपाई पर अनजान महिला के साथ। मैंने लुंगी दूसरी चारपाई पर उतार कर फेंक दी। उसकी धोती बाक़ी कपड़े भी उसी पर फेंक दिए। और केवल दरी पड़ी उस चारपाई पर लेट गया। वह भी मुझसे चिपकी हुई थी। शराब के नशे में भी उसकी बग़लों के तीखे भभके नथुनों को परेशान कर गए। 

उस चारपाई पर हम-दोनों रात साढ़े तीन बजे तक रहे। शराब के साथ-साथ मैंने उसके तन की भी प्यास बहुत बड़ी पाई। तन की प्यास बुझाने में भी उसका फूहड़पन, बेलौस अंदाज़ मेरे लिए एकदम नया अनुभव था। तथाकथित सभ्य औरतों की तरह उसमें कोई बनावटीपन नहीं था। एक स्वाभाविक भूख के लिए बिल्कुल स्वाभाविक बिना किसी छल-कपट के सारी क्रिया-प्रतिक्रिया, बेहिचक पहल थी। 

तीन बार उसने सफलतापूर्वक शिखर पर चढ़ाई की। मुझे भी वहाँ तक पहुँचाया। एक अनजान महिला के साथ इतनी पूर्णता के साथ शिखर छूना मेरे लिए अचरज भरा अनुभव था। तीसरी चढ़ाई के बाद उसके चेहरे पर संतुष्टि की ऐसी गाढ़ी रेखा थी कि लगता इससे ज़्यादा संतुष्ट दुनिया में कोई होगी ही नहीं। 

साढ़े तीन बजे वह जब चारपाई से नीचे उतरी तो लालटेन एकदम बुझने वाली थी। झोपड़ी में क़रीब-क़रीब अँधेरा था। उसने एक बोतल से केरोसिन तेल डाला तो वह फिर तेज़ हो गई। लेकिन उसका शीशा कार्बन से अब तक बहुत मटमैला हो चुका था। रोशनी में कोई चमक नहीं थी। 

बाहर बारिश अब भी हो रही थी लेकिन पहले सी तेज़ नहीं थी। मैंने उठ कर लुंगी पहनी और अपने भीगे कपड़ों को टटोला। उनका पानी तो निचुड़ चुका था। लेकिन अब भी वे पूरी तरह गीले थे। 

कमला अपने कपड़े पहन कर दूसरी चारपाई पर बैठ गई थी। मैं अपनी पर बैठ गया तो उसने बीड़ी बंडल, माचिस उठाई और एक बीड़ी जला कर मुँह में लगाया और लंबा कश लेकर ढेर सा धुँआ उगल दिया। फिर बिना कुछ कहे बीड़ी बंडल, माचिस मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, “लेओ पिओ।” मैंने भी एक बीड़ी सुलगा ली। 

इसके पहले मैंने स्कूली लाइफ़ में दोस्तों के साथ बीड़ी पी थी। जब शुरूआत की थी तब आठवीं में था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब सिगरेट पर आ गया तो बीड़ी छोड़ दी। लेकिन उस दिन कमला के कहने पर मना नहीं कर पाया। एक बीड़ी सुलगा कर कश लेने लगा। मेरे मन में यह बात बराबर चल रही थी कि सुबह होते ही जो भी पहला साधन मिलेगा उसी से वापसी के लिए निकल लूँगा। 

चार-पाँच कश के बाद कमला ने चारपाई से हाथ नीचे कर बीड़ी ज़मीन में रगड़ कर बुझा दी फिर मुझे देखने लगी। मैंने भी बीड़ी बुझा दी थी। ना जाने क्यों मुझे बहुत ख़राब लगी। मैं कमला से चलने के बारे में बात करने की सोच ही रहा था कि वह फिर धीरे से हँसी। 

कत्थई दाँतों की दो भद्दी सी लाइनें नज़र आने लगीं। फिर वह बोली, “बहुत पोढ़ (मज़बूत) मनई हौ।” उसकी बात का आशय समझ कर मैंने उसे छेड़ा, “तुम्हारे आदमी से भी ज़्यादा?” दरअसल मैं इसी के बहाने उससे उसके और उसके पति के बारे में भी विस्तार से जानना चाह रहा था। वह मेरी बात पर फिर मुस्कुराई और बोली, “वहू है, मगर . . . फिर इसके आगे कमला चुप हो गई। लगा जैसे उसका कोई पुराना ज़ख़्म किसी ने कुरेद दिया। कुछ देर वह वैसे ही बैठी रही। 

मैंने फिर कुरेदा तो बोली, “हमैं नींद आय रही, हम सोवै जाइत हैए, तुम्हू सोइहो का?” उसकी भावना को समझते हुए मैंने उसे और कुरेदना ठीक नहीं समझा। 

मैंने कहा, “नहीं तुम सो जाओ। अब चार बजने को है। मैं कुछ देर बाद बाहर देखूँगा कोई साधन मिले तो वापस चलूँ।” इस पर वह अलसाई सी बोली, “सवेर होए से पहिले कुछ नाहीं मिले वाला हिआं। पानी अबहिनु बरस रहा, तौ औऊर देर लागी, अबै दुई घंटा टाइम हैए, तुम्हू सोए लेओ।” मुझे लगा वह सही कह रही। उसकी बात ने मेरी भी नींद बढ़ा दी। थकान से मेरा बदन टूट रहा था। तो मैं भी लेट गया अपनी चारपाई पर। 

मुझे बस एक ही डर था कि कहीं देर तक सोता ही ना रह जाऊँ। भूले-भटके इसका आदमी आ गया तो क्या होगा? मुझे लेटे हुए पाँच मिनट भी नहीं हुए थे कि वह उठी और मेरे बग़ल में चिपक कर सो गई। वह उठ कर ऐसे आई थी मानो नींद के कारण होश में ही नहीं है। मुझे बड़ा अटपटा लगा। अब क्या माज़रा है। 

उसका दाहिना हाथ मेरी छाती पर निर्जीव सा पड़ा था। वह ऐसे चिपकी थी कि मेरा हिलना-डुलना मुश्किल था। वह बेधड़क अस्त-व्यस्त निश्चिंत सो रही थी। उसकी इस नींद के कारण मैंने जो डेढ़-दो घंटे सोने का इरादा बनाया था वह ध्वस्त हो गया। उसके तन से उठती अजीब सी बदबू मुझे अब ज़्यादा परेशान कर रही थी। 

मेरे दिमाग़ में यह बात मथने लगी कि आख़िर मुझे क्या हो गया था कि ऐसी विकट स्थिति में भी मैं इस महिला के साथ सोया। बिना उसके बारे में कुछ पूछे-जाँचे, जाने-समझे, मैंने कैसे इसके साथ अति की सीमा तक बिस्तर साझा किया। खाया-पिया साथ में ऐसे कि जैसे ना जाने कितनी पुरानी यार हो। और इसको भी देखो, इसे ना जाने क्या हुआ है। ऐसे चिपकी है जैसे बरसों बाद मिले पति से कोई बीवी निश्चिंत हो चिपक जाती है। 

मैं गुत्थी को सुलझाने में लगा रहा। लेकिन कोई सिरा पकड़ नहीं पा रहा था। जब उसकी देह-गंध ने नाक में दम कर दिया तो उसे धीरे से अलग किया और उठ कर टट्टर के पास आ गया। टट्टर चेन से बंद था। ताला जकड़ा हुआ था। 

मैंने झिरी से बाहर देखा। पौ फटने के संकेत मिल रहे थे। बारिश रात भर बरस कर मानो थक चुकी थी। हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी बड़ी थकी हुई लग रही थी। मैंने वापस अपने कपड़ों की हालत देखी वे अब भी मुझे तकलीफ़ देने के लिए भीगे हुए थे। 

मैं दूसरी चारपाई पर बैठ गया। कुछ देर बाद ही मुझे सड़क पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वाहनों का छुट-पुट आना–जाना शुरू हो गया था। किसी ट्रैक्टर ट्राली जैसी सुविधा की आस में मैंने गीले कपड़े ही पहन लिए। साढ़े पाँच बजने जा रहे थे। मैंने फिर कमला को उठाया। कई बार उठाने पर वह उठी थी। उसकी आँखें, चेहरा सूजे हुए लग रहे थे। कभी मुझे गीले कपड़ों में देखती तो कभी अपने आस-पास की चीज़ों को। मेरी तरह उसका भी नशा क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुका था। मगर ख़ुमारी ज़बरदस्त थी। 

मैंने उससे कहा, “कमला जो मदद तुमने की वह जीवन भर नहीं भूलूँगा। मैं अब जल्दी वापस जाना चाहता हूँ। ये ताला खोल दो।” वह मेरी बात पर मेरे चेहरे को एकटक देखती रही। ना जाने कुछ देर तक क्या सोचती रही फिर थकी सी उठी। 

अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर अपनी अस्त-व्यस्त धोती बाक़ी के कपड़े ठीक किए। दूसरे कोने में रखी बाल्टी से पानी निकाल कर हाथ-मुँह धोया और धोती के आँचल से ही पोंछा। दूसरी चारपाई के बिस्तर के नीचे रखी चाबी निकाल कर ताला खोल दिया। 

मैंने बाहर झोपड़ी की दीवार के सहारे बाइक खड़ी की थी। बाहर निकलते ही पहले उस पर नज़र डाली। उसे देख कर बारिश पर बड़ा ग़ुस्सा आया। कीचड़ में स्टैंड स्थिर नहीं रह सका था। और मेरी प्यारी बाइक पलटी पड़ी थी। ईंट वग़ैरह से टकराने के कारण उसकी हेड लाइट भी टूट गई थी। और टंकी से पेट्रोल भी बाहर बह गया था। 

उसे उठा कर किसी तरह खड़ी किया। संयोग से पाँच मिनट बाद ही एक ट्रैक्टर ट्रॉली ही आती दिखाई दी। आयशर ट्रैक्टर की फट्-फट् करती आवाज़ मैंने दूर से ही पहचान ली और उसे हाथ दे कर रोका। वह बछरांवा तक जा रहा था। मुझे और गाड़ी ले चलने को तैयार हो गया। 

मेरे सामने पैसे की भी समस्या आ खड़ी हुई। रात में मैंने सारे पैसे तो कमला को दे दिए थे। मैं उसके पास फिर झोपड़ी में पहुँचा। वह झोपड़ी से बाहर नहीं आई थी। सीधा कहा, “कमला एक मदद और कर दो। मुझे सौ रुपए उधार दे दो। मैं हर हफ़्ते इधर से निकलता हूँ। तुम्हें ब्याज सहित दो गुना दे दूँगा।” 

उसने एक नज़र मुझ पर डाल कर कहा, “लैई जाओ। हम कब ब्याज माँगित, चाहे दियो, चाहे ना दियो। है तो तुम्हरै। मदद माँगि-माँगि जब हमही का लई लियो तो ई पइसन माँ का धरा।” यह कहते-कहते उसने सौ रुपए की नोट मुझे थमा दिया। 

मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा, “कमला अगर तुम ग़ुस्सा हो तो इसे रख लो। मैं जाने के लिए कुछ और इंतज़ाम कर लूँगा। मुझ पर तुम्हारा बड़ा अहसान है कमला। मैं कहने भर को भी तुम्हें दुखी नहीं कर सकता।” 

मैंने नोट सहित उसकी मुट्ठी बंद कर दी। बाहर ट्रैक्टर वाला इंतज़ार कर रहा था। चलने को हुआ तो उसने अधिकारपूर्वक रुपया मेरी जेब में डाल दिया। कहा, “राखि लेयो यहू मदद है। ब्याज का मूलो ना चाही। मगर हमरे मनई के सामने हमरी छायौ कै पास ना आयो। हमार तुमार कौउनो रिश्ता थोड़े आय, जाओ।” उसके जाओ कहने में घृणा नज़र आई। 

मैं आगे कुछ बोले बिना ड्राइवर की बग़ल में ट्रैक्टर के पहियों के भारी मडगॉर्ड पर बनी सीट पर बैठ गया। मेरी नज़र झोपड़ी के टट्टर से हटी नहीं थी। वह फिर पहले की तरह बंद हो गया था। मैं बछरांवा तक इस रहस्यमयी महिला की गुत्थी सुलझाने में लगा रहा। मगर फिर वही दोहराना पडे़गा कि सिरा ही नहीं पकड़ पाया था। 

मैं उस दिन समय से लखनऊ पहुँचने के बाद भी अगले दिन ऑफ़िस नहीं गया। इतना थका था कि सात-आठ घंटा घोड़े बेच कर सोया। उसके पहले बाइक ठीक कराई। एक काम चलाऊ सस्ता-मद्दा मोबाइल लिया। संयोग से दोनों सिम सूखने के बाद काम करने लगे थे। 

दोपहर में ही फतेहपुर वाली कमला से बात की। वह छूटते ही ताव दिखाने लगी कि ’आने को कह कर घर क्यों नहीं आए, फ़ोन तक नहीं किया, रात-भर परेशान रही, सो नहीं पाई। इतनी लापरवाही अच्छी नहीं।’  ख़ैर जब वह शांत हुई तो मैंने उसे सारी घटना बता दी। कहा कि शायद तुम्हीं ने कमला बन के गाँव की उस झोपड़ी में मेरी मदद की। 

मैंने इस कमला को यह नहीं बताया कि उस अनजान रहस्यमयी महिला ने रात भर अपने तन के ज़रिए जो मदद की या यह कहें कि ली, वह इस जीवन में कभी नहीं भूलेगी। 

मैं उस की मदद को यह सोच कर कभी छोटा नहीं करूँगा कि उसने पानी से बचने में जो मदद की उसके बदले अपने तन की तपिश मेरे तन से शांत की। यह अलग बात थी कि मैं तो भूत-पिशाच निकट नहिं आवैं . . . करता सहमा सा ख़ुद में सिमटा जा रहा था। मेरी हिम्मत ही नहीं थी उसे छूने की। वह ना बढ़ती तो मैं उसकी ओर देखे बिना झोपड़ी के किसी कोने में पड़ा रहता। 

मैं उस दिन बड़ी देर तक दोनों कमला और पत्नी विशाखा को लेकर उलझता रहा। पत्नी बिना बात की बात पर चार साल के मेरे बेटे हिमांक को ले कर क़रीब आठ महीने से तब मायके में रह रही थी। झगड़ा बस इस बात को लेकर शुरू हुआ और बढ़ा कि स्कूल में मैं बेटे का नाम हिमांक सिन्हा ही रखना चाहता था। लेकिन वह डेव बेखम सिन्हा लिखाना चाहती थी। 

मैंने कहा, “तुम उसे घर में तो बेखम बुलाती ही हो। स्कूल में हिमांक चलने दो।” मगर वह भिड़ गई। मैंने कहा, “मैंने कभी तुम्हें रोका नहीं जब चाहती हो चर्च जाती हो। सारे त्योहार जैसे चाहती हो मनाती हो। मैं भी उसमें ख़ुशी-ख़ुशी शामिल होता हूँ। जबकि तुम हमारे कई त्योहारों को मनाने से कतराती हो। 

“कायस्थों की क़लम-दवात की पूजा की तुम खिल्ली उड़ा चुकी हो। सरनेम भी तुमने अपनी मर्ज़ी से बदला। ख़ुद को विशाखा सिन्हा कहा। मैंने कभी नहीं कहा कि मेरा सरनेम जोड़ो। तुम्हारे कहने पर मैं अपना घर, माँ-बाप, भाई सब छोड़ कर अलग रहने लगा। लेकिन तुम्हें इस पर भी संतोष नहीं। 

“तुम मेरा परिचय मेरा अस्तित्व ही मिटाने में लगी हो।” ऐसे आरोप-प्रत्यारोप उस दिन ख़ूब हुए थे। फिर अगले दिन वह मायके चली गई थी। तब से बात ही नहीं कर रही थी। बेटे से भी बात नहीं करने देती थी। 

मैंने मन जानने के लिए एक बार तलाक़ की भी बात उठाई लेकिन उसने कोई उत्तर ही नहीं दिया। बेटे का नाम स्कूल में डेव बेखम जेवियर लिखवाया था। इतना ही नहीं सिंगिल पेरेंट बन गई। फ़ादर नेम लिखा ही नहीं। मिशनरी स्कूल में वह अपने मन की करने में सफल रही। 

अगले चार-पाँच दिन मेरे पहले जैसे ही बीते। कुछ अलग था तो इतना कि फतेहपुर चलने की जल्दी ज़्यादा थी। पहली कमला यानी झोपड़ी वाली कमला से मिलने की उत्कंठा मैं ज़्यादा पा रहा था। 

मैं जल्दी से जल्दी उसके पैसे वापस करना चाहता था। दूसरी बात यह कि तीन दिन पहले ही मेरे कमीशन के पचास हज़ार मुझे मिले थे। वह जेब में उछल रहे थे। सैलरी के सहारे इतना उछलना हो ही नहीं पाता। फिर सैलरी मिलती ही कितनी थी। हमेशा तीन-चार हफ़्ते देर से मिलती थी। 

और फिर उस दिन जब मैं निकला फतेहपुर को तो जेब में दस हज़ार रुपए डाल कर निकला। ज़्यादा पैसे ले जाने की वज़ह यह थी कि वहाँ मैं अगले दिन एक टैक्सी किराए पर लेकर कमला के साथ महर्षि भृगु की तपोस्थली भिटौरा में बनी शंकर जी की विशाल मूर्ति के दर्शन को जाना चाहता था। 

कमला कई बार वहाँ चलने को कह चुकी थी। उसी से मुझे यह पता चला था कि गंगा नदी काशी, हरिद्वार के बाद यह तीसरा स्थान है जहाँ उत्तरमुखी भी होती है। उसके साथ मैं रेन्ह गाँव के क़रीब यमुना नदी के किनारे भी पिकनिक मना चुका था। 

तब उसने कहा था, “मालूम है तुम्हें, हम लोग भगवान कृष्ण के भाई बलराम की ससुराल में पिकनिक मना रहे हैं। पापा कहते थे महाभारत के समय का यह बड़ा पवित्र गाँव है। यहाँ भगवान कृष्ण के चरण पड़े थे।” दरअसल वहीं पर यह तय हुआ था कि इन स्थानों पर मैं एक बढ़िया फ़ीचर लिखूँ। और अपने अख़बार में छापूँ। 

इसी क्रम में वह मुझे खजुआ गाँव के उस सैकड़ों वर्ष पुराने इमली के पेड़ के पास भी ले गई थी। जिस पर स्वतंत्रता सेनानी जोधा सिंह अटैया और उनके इक्यावन साथियों को कर्नल क्रिस्टाइल ने 28 अप्रैल 1858 को फाँसी दे दी थी। 

तब से इमली के इस पेड़ को बावनी इमली कहा जाता है। प्रसिद्ध शहीद स्थल अभी भी उचित सम्मान, रख-रखाव, विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। उसके साथ मैं यहाँ की वह विशिष्ट रामलीला, दशहरा मेला भी देख चुका था, जो भादो महीने में होती है, और यहाँ रावण को मारने के बजाय पूजते हैं। वह भी राम से पहले। लखनऊ से टैक्सी ले जाना ज़्यादा महँगा पड़ता इसलिए धीरेन्द्र से कह कर एक टैक्सी मैंने पहले ही बुक कर ली थी। 

उस बार मैं मोटर-साइकिल की बजाय अरूप की एल.एम.एल. वेस्पा स्कूटर ले गया था। यह सोच कर कि कम से कम पंचर होगी तो इसकी स्टेपनी तो काम आ जाएगी। हालाँकि अरूप ने स्कूटर देते वक़्त जो बात कही उससे मैंने यह तय कर लिया कि इसके बाद उससे स्कूटर नहीं लूँगा। और अगला कहीं किसी का कोई काम-धाम कराने का पैसा मिला तो एक स्कूटर भी लूँगा। 

हालाँकि उसने मज़ाक में ही कहा था कि, “अबे भाभी को ले आ। इधर-उधर भटक रहा है किसी दिन धोखे में पड़ जाएगा।” लेकिन उस की यह बात मुझे पर्सनल मैटर में इंटरफ़ियरेंस लगी थी। 

मैं क़रीब सात बजे बन्नावां गाँव वाली कमला की झोपड़ी के सामने फिर रुका। सामने दो स्टूल पर दो आदमी बैठे बीड़ी पी रहे थे। पंचर का सारा सामान लगा था। बाँस पर मोटर साइकिल के दो-चार नए टायर-ट्यूब टँगे थे। कमला कहीं नहीं दिख रही थी। मैंने हवा चेक करने को कहा तो उसमें से एक उठा और हवा चेक कर दी। 

मैंने थोड़ा रुकने की ग़रज़ से उससे फतेहपुर तक की सारी जानकारी पूछ डाली। ये भी कहा थक गया हूँ क्या थोड़ी देर बैठ जाऊँ। उसने मेरी बात पर कोई ध्यान दिये बिना स्कूटर की तरफ़ इशारा कर दिया कि उसी पर बैठो फिर दोनों गप्पें मारने लगे। 

मैंने दाल गलती न देख जल्दी-जल्दी सिगरेट फूँकी और चल दिया फतेहपुर वाली कमला के पास। 

वहाँ पहुँच कर पहले अपने मित्र धीरेंद्र धीर के पास पहुँचा। वह कमला के ही घर में ऊपर किराये पर रहता था। मैं उसी से मिलने कई साल पहले तब गया था जब वह ट्रांसफर होकर फतेहपुर पहुँचा था। वहीं मैं उसकी मकान मालकिन कमला से मिला। धीरेंद्र ने ही परिचय कराया था। 

कमला का हसबैंड वेटनरी डॉक्टर है। और पड़ोस के ही ज़िले कौशांबी के एक गाँव में तब तैनात था। वह हर सेकेंड सैटरडे को घर आता था। गाँव की राजनीति के झमेले के चलते वह ज़्यादा निकल नहीं पाता था। 

मेरा पहला परिचय बस यूँ ही था। 

दूसरी बार मिला तो मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगा कि उसमें कुछ ख़ास कशिश है। और वह बातचीत में इंट्रेस्टेड भी है। इस सोच के आते ही मैं हर हफ़्ते पहुँचने लगा। फिर कुछ ही दिन में फ़ोन पर हमारी बड़ी देर तक बातें होतीं और देर रात तक होतीं। 

सीधा-साधा धीरेंद्र इसे ग़लत मानता था। लेकिन फिर उसने अपने को तटस्थ कर लिया। किसी तरह की कोई समस्या न हो इसलिए पहले मैं धीरेंद्र के कमरे में पहुँचता। उसके बाद कमला के पास, जब उसके दोनों बच्चे सो जाते। 

इस बार भी मैंने ऐसा ही किया। फिर अगले दिन धीरेंद्र के साथ ही निकला उसे पहले उसके ऑफ़िस में छोड़ा। वह रेलवे में था। राधानगर की उस कॉलोनी से उसका ऑफ़िस ज़्यादा दूर नहीं था। इसके बाद कमला के साथ टैक्सी में तय सारी जगहों पर हो आया। फिर शाम को उसे घर छोड़ कर मैं सीधा लखनऊ आया। 

इस बार मैं कमला के पास से लौट कर ना जाने क्यों अजीब सी उलझन में पड़ गया था। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि जितनी देर मैं कमला के साथ रहा। उतनी देर बन्नावां गाँव वाली कमला हम-दोनों के बीच रही। 

मैं कमला के साथ तन से तो जुड़ा रहा लेकिन मन भटक रहा था। बार-बार झोपड़ी वाली कमला के पास चला जा रहा था। और बीच-बीच में विशाखा के पास भी। यह उलझन मेरी पूरे हफ़्ते नहीं गई थी। समय के साथ बढ़ती रही। 

झोपड़ी वाली कमला से एक बार मैं खुल कर यह बात साफ़-साफ़ करना चाहता था कि वह वैसे डरावने माहौल में एक अनजान पर पुरुष के साथ इस तरह क्यों पेश आई, एकदम निसंकोच, एकदम निडर होकर। और फिर जाने के समय ऐसे पेश आई कि जैसे कुछ घटा ही नहीं। एक दूसरे को देखा ही नहीं। 

रोज़-रोज़ की इस बढ़ती उलझन के बीच मैं महीने भर में चार बार गया। मगर दुर्भाग्य से हर बार वही सूखा बाँस सरीखा लंबा आदमी ही मिलता। मैं हर बार वहाँ रुकता हवा चेक कराने के बहाने। हर बार पूरी कोशिश करता, इस आस में दरवाज़े पर नज़र डालता कि शायद वह खड़ी दिख जाए। इस चक्कर में उस सूखे बाँस से फ़ालतू की बातें करता। सिगरेट भी पिलाता मगर नतीजा ज़ीरो। 

वह आदमी मुझे ग़ज़ब का चतुर और शातिर नज़र आया था। लाख कोशिश के बाद भी वह खुलता नहीं था। कोई उम्मीद ना देख झक मार कर मैं अपनी राह हो लेता था। पाँचवीं बार भी हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं मिला। 

मन में झोपड़ी वाली कमला को लिए पूरी रात राधानगर वाली कमला के साथ बिताई थी। देर रात राधानगर वाली सो गई थी लेकिन मैं नहीं सो पाया। क़रीब सवा सौ किलोमीटर गाड़ी चला कर गया था। थका था फिर भी नहीं। थकान शायद कमला के साथ ने उतार दी थी। 

मैं बेड के सिरहाने टेक लगा कर बैठा था। लाइट का टोटा और फतेहपुर का साथ जनम-जनम का है। इनवर्टर के सहारे पंखा धीरे-धीरे राहत दिए हुए था। निश्चिंत सी कमला बग़ल में लेटी थी। मैंने उसके चेहरे पर ग़ौर से नज़र डाली। 

वहाँ मुझे वह निश्चिंतता नज़र नहीं आई जो झोपड़ी में कमला के चेहरे पर थी। कहने को इस कमला को शारीरिक रूप से सभी बल्कि मैं भी बहुत ख़ूबसूरत कहूँगा। मगर इस ख़ूबसूरती में मुझे उस स्वाभाविकता की कमी नज़र आ रही थी जो झोपड़ी में थी। 

झोपड़ी वाली कमला के तन की वह दिमाग़ में पहुँच जाने वाली तीखी गंध मुझे ज़्यादा मादक लग रही थी इस सोई हुई कमला के कॉस्मेटिक सुगंध से। 

इस सोई कमला के तन की अपनी मौलिक नैसर्गिक गंध तो कहीं से अपना अहसास करा ही नहीं रही थी। सारी नैसर्गिक ब्यूटी तो इसके कैमिकल वाले स्प्रे ने सोख ली थी। जिस नैसर्गिक ब्यूटी का मैं दीवाना हूँ वह मुझे पूरी तरह से विशाखा में मिली थी। 

इसी लिए मैं उसका दीवाना बना और अब भी हूँ और आजीवन रहूँगा। मुझे इस चीज़ का अच्छी तरह अहसास है कि अपने लिए मेरी इस दीवानगी का विशाखा पूरा फ़ायदा उठाती है। 

मेरी यह मनोदशा जब मैं सुबह लखनऊ के लिए चला तब भी बनी रही। मन में झोपड़ी वाली कमला के पास पहुँचने की जल्दी थी। जिससे मिलने की कोशिश महीने भर से कर रहा था। उस दिन मेरे भाग्य ने साथ दिया। 

मैं जब ग्यारह बजे उसकी झोपड़ी के सामने रुका तो वह उसी स्टूल पर बैठी मिली जिस पर उसका लंबू बाँस सा सूखा पतला आदमी मिलता था। ऐस दुबला स्कैल्टन जैसा आदमी कभी-कभार ही देखने को मिलता है। 

कमला को देख कर मुझे बेहद ख़ुशी हुई। जल्दी से गाड़ी खड़ी की उसके क़रीब पहुँच कर मुस्कुराते हुए पूछा, “कैसी हो कमला?” 
“का . . . ठीक हैयन हमका का भवा, अब का काम हवै।” 

मुझे लगा शायद पहचान नहीं पाई। तो मैंने फिर कहा, “कमला पहचाना नहीं क्या?” उसने सड़क की दूसरी तरफ़ देखते हुए कहा, “रातिभर घरि माँ राखेन, औउर बतावति हौ पहिचानिव ना। आजऊ गाड़ी बिगरी है का?”

 उसका इस तरह टेढ़ा बोलना मुझे खल गया। मैंने कहा, “नहीं तुमसे जो पैसे उधार लिए थे वह देने आया हूँ।” यह कहते हुए पाँच सौ का नोट उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। उसने बिना एक पल देर किए नोट लेकर ब्लाउज में अंदर तक खोंस लिया। फिर सड़क पर ऐसे देखने लगी जैसे देख रही हो कि कोई देख तो नहीं रहा। 

मुझे उम्मीद थी कि वह पाँच सौ देख कर कहेगी कि यह तो ज़्यादा हैं। दो सौ की बात हुई थी। लेकिन वह तो ऐसे ले कर बैठ गई कि मानो बरसों से वह इतने ही का इंतज़ार कर रही थी। और फिर मिलने की उम्मीद खो चुकी थी। लेकिन अचानक ही मिल गया। 

उसके व्यवहार ने मेरे उत्साह पर घड़ों पानी डाल दिया। फिर भी मैंने कहा, “कमला मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।” इस पर वह बड़ी बेपरवाही से बोली, “काहे हमार तुमसे कऊन रिश्ता जऊन हमसे बात करै चाहत हौ। पानी मा भीगौ ना। मार हाथ जोड़ै जात रहो, तौ घरि माँ ठौरि दई दिन्हीं तौ तुम हमहिन का लूटि लियो, ना जाने कइस बतियात रहौ कि हम समझिन ना पाएँन। वहि पर ऐसि दारू पियाओ कि हम बौराय गैयन। ना जाने कऊँन मंतर-टोना मारेव कि हम समझेन ना पाएन। जब ले जानेन तब लै तौ तुम भागि लिनिहो रहे। अब इत्ते दिन बाद फिर आए हौ। देखेव अकेलि बैठि बस मन लहराय गवा। ठारि होइगेव आए कै। चलो फिर लूटौ यहिका। मुला बार-बार थोड़ौ बउरैइब। होइगा याकि बार होइगा। अब ठारि काहे हौ, जाओ। वहिकै आवै का बखत होइ रहा। जाओ। आज गाड़ियु नाय बिगरी। पानिऊ नाय बरिस रहा, जाओ।”

कमला ने अप्रत्याशित रूप से यह ऐसा विस्फोट किया कि मैं काँप उठा। पैरों तले ज़मीन खिसक गई। पसीने-पसीने हो गया। वह इतना भरी होगी अंदर-अंदर मैंने कल्पना तक ना की थी। 

मैंने उसके साथ छल किया, लूटा। अकेला जान नशे में करके उसे यूज़ किया यह ऐसे इल्ज़ाम थे जो असहनीय थे। और यह भी कि मुझे बरसों-बरस जेल की हवा खिला सकते हैं। 

मैंने महसूस किया कि मैं अंदर से काँप रहा हूँ। कुछ क्षण अवाक्‌ सा उसे देखने के बाद मैंने गाड़ी स्टार्ट की फिर जितना तेज़ वहाँ से चल सकता था चल दिया। बीच में कहीं गाड़ी नहीं रोकी। सीधे लखनऊ घर पर रुका। 

मैं हफ़्तों परेशान रहा उसकी बातें याद कर-कर के। उसने महज संयोगवश हुई सारी बातों को बड़ी ख़ूबसूरती से एक साज़श का रूप दे दिया था। स्वयं पहले से नशे में धुत्त थी। अंदर से काफ़ी देर तक मुझे देख कर बात करके तसल्ली करने के बाद दरवाज़ा खोला था। साज़िश तो स्वयं की। और साजिशकर्ता मुझे कह रही थी। 

इस बीच राधानगर की कमला से बात करता रहा लेकिन वहाँ भी वही डर कहीं मन में बैठ गया कि कहीं यह भी किसी दिन ऐसे ही आरोप ना मढ़ दे। आए दिन ऐसे केस आ रहे हैं कि दो-दो, तीन-तीन साल बाद यौन शोषण का आरोप लगा-लगा कर बहुत सी औरतें लोगों को तबाह कर दे रही हैं। जेल भिजवा दे रही हैं। 

फ़ैसला देने वाले न्यायमूर्ति तक नहीं बच रहे। यह डर मुझे इस क़दर सताने लगा कि मैंने तय कर लिया कि राधानगर वाली कमला से भी तौबा। वह भी कौन सा मुझ पर जान छिड़कती है। 

जिस दिन पति के आने का प्रोग्राम होता है उस दिन आने से तो सख़्ती से मना करती ही है। फ़ोन पर दो मिनट बात भी नहीं करती। उसके प्यार मोह में उस बारिश की रात मरते-मरते बचा। कितने नख़रे दिखाती है। उन्हें जितना उठाता हूँ उतना विशाखा के उठाऊँ तो वह तो हाथों-हाथ लेगी। 

इन उलझनों के बीच रह-रह कर मुझे बेटे और विशाखा की याद अब बहुत ज़्यादा कचोटने लगी। फिर एक दिन सारे अहं सारे शक हटा कर विशाखा के पास पहुँचा। पहले तो वह सख़्त बनी रही लेकिन बच्चे के भविष्य और बेटे की बार-बार मेरे पास चलने की ज़िद गाड़ी को पटरी पर ले आई। 

मगर विशाखा अब भी कहीं अहं के दायरे से पूरी तरह बाहर नहीं आ पाई थी। तो गाड़ी पटरी पर दौड़ सके यह सोच कर मैंने कहा, “नाम वग़ैरह जो जैसा चाहो करो मगर ऐसी बातों के लिए जीवन नीरस ना बनाओ। सिंगिल पैरेंटिंग तपता रेगिस्तान सरीखा है। जिसकी तपिश जीवन भर जलाती है और जला-जला कर ही ख़त्म कर देती है।” 

उसकी शर्तों को सुनकर मैंने कहा, “हम एक परिवार हैं विशाखा, कोई पोलिटकल पार्टीस का समूह नहीं कि मिनिमम साझा प्रोग्राम के तहत परिवार चलाएँ।” कई बार की कोशिशों के बाद अंततः मैं उसे साथ लाने में सफल हो गया। 

घर आने से पहले मेरी इस बात को उसने बचकानी हरकत कहा था कि, “धार्मिक आस्था हमारे बीच टकराव बन रही है तो क्यों न हम-दोनों अपना-अपना धर्म छोड़ कर कोई तीसरा धर्म अपना लें।”

उसके घर आने के बाद बेटे हिमांक के साथ मुझे लगा जैसे स्वर्ग मिल गया। मैं उस वक़्त चौंक गया जब मैं सदैव की भाँति अकेले ही मंगल के दिन हनुमान जी की पूजा कर रहा था तो वह स्वयं ही बेटे के साथ उसमें शामिल हो गई। उसके बदले रूप ने मुझे ऐसा बदला कि मैंने राधानगर वाली कमला को फ़ोन करना भी बंद कर दिया। 

मुझे लगा यह सब कर के मैं अपने ही हाथों से अपने घर संसार में आग लगा रहा हूँ। सबसे बड़ी बात यह कि यह सब होने के बाद मुझे अपनी ज़िन्दगी बड़ी स्मूथ लगने लगी। 

इस बीच मेरे लिए एक अच्छी ख़बर और रही कि दिल्ली के एक जिस बड़े अख़बार में जाने की कोशिश मैं बहुत दिनों से कर रहा था। एक केंद्रीय मंत्री से पूरा जुगाड़ लगाया था। वह काम क़रीब-क़रीब हो गया था। अच्छी सैलरी बड़ा अख़बार दोनों थे। 

मंत्री जी की कवयित्री पत्नी ने इस काम में अहम भूमिका निभाई थी। अपनी इस नौकरी से दो-चार दिन में इस्तीफ़ा देने का निर्णय कर चुका था। यह निर्णय मैंने विशाखा से विचार-विमर्श कर किया था। 

इस्तीफ़े का निर्णय लेने के बाद मेरा मन नहीं लग रहा था। इसी बीच एक दिन पहुँचा तो सीनियर रिपोर्टर एक रेड की बड़ी रिपोर्ट लेकर हाज़िर हुआ। एस.टी.एफ़. ने एक बड़ी रेड बन्नांवा के पास ही कर हाथियारों और बम बनाने के सामान के साथ कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया था। शुरूआती जाँच में गिरफ़्तार लोग बंग्लादेशी घुसपैठिए निकले थे। 

रिपोर्ट पर एक नज़र डाल कर मैंने रिपोर्टर से कहा, “क्या ज़रूरत है इस मुद्दे पर इतनी मेहनत करने की। जानते तो हो यह सब अपने अख़बार में छप नहीं सकता।” 

उसने तर्क दिया, “लेकिन सर यह आज की बहुत बड़ी ख़बर है। देखिएगा कल यह सारे अख़बार की सबसे बड़ी ख़बर होगी। अपने में ना फ़र्स्ट लीड, सेकेंड लीड ख़बर तो जानी ही चाहिए।”

उसने एक के बाद एक तमाम तर्क दे डाले। वह अपनी मेहनत ज़ाया नहीं होने देना चाहता था। मैंने कहा, “अच्छा ठीक है देखता हूँ। फर्स्ट लीड लायक़ रही तो फर्स्ट लीड ही बनेगी।” 

उसके जाने के बाद मैंने रिपोर्ट ध्यान से पढ़ी। उसकी बात सही थी, बड़ी ख़बर थी। टीवी चैनलों पर दोपहर से ही यह ख़बर चल रही थी। सबसे पहले दिखाने के दावे के साथ। लेकिन हमारे रिपोर्टर ने कई ऐसी बातें कहीं थीं जो किसी चैनल पर नहीं थीं। रिपोर्ट पढ़ कर मैं भीतर-भीतर डर गया। 

रेड वहीं पड़ी थी जहाँ बारिश में मैंने पूरी रात कमला के साथ बिताई थी। जिसे कमला जाना समझा था, वह कमला नहीं कुलसुम थी। उसका बाँस सरीखा सुखैला पति श्याम लाल नहीं लियाकत खान था। उसके साथ पकड़े गए लोगों का पूरा नेटवर्क आस-पास के ज़िलों से लेकर लखनऊ और असम तक था। कुलसुम को लियाकत पश्चिम बंगाल के एक जिले से भगा कर लाया था। 

उसका पति मीट शॉप चलाता था। उसके चार बच्चे थे। लियाकत ने वहीं संपर्क साधा और कुलसुम को फुसला कर भगा लाया था। कुलसुम और उसका पति एक बार घुसपैठिए के तौर पर पश्चिम बंगाल में ही पकड़े गए थे। लेकिन जल्दी ही एक स्थानीय नेता ने मामला रफ़ा-दफ़ा करा दिया था। उसी घुसपैठिया कुलसुम के घर लियाकत ने घुसपैठ की और उसे भगा लाया। 

लियाकत पर आगजनी, लूटपाट के कई केस वहाँ दर्ज थे। इसीलिए वहाँ से भाग निकला था। रिपोर्ट में रिपोर्टर ने कई प्रमाणों के साथ सरकार की समय-समय पर स्वीकारोक्तियों को कोट करते हुए स्पष्ट लिखा था कि सरकार ने सदन में ही यह माना था कि 2001 में ही इनकी संख्या दो करोड़ से ऊपर है। फिर उसने लिखा कि आज 2015 में तमाम रिपोर्टों ग़ैर सरकारी आँकड़ों की मानें तो क़रीब पाँच करोड़ से ज़्यादा घुसपैठिए देश-भर में फैले हुए हैं। 

असम, पश्चिम बंगाल में इनकी संख्या इतनी ज़्यादा हो गई है कि यह कई जगह स्थानीय मूल के लोगों को लूटते रहते हैं। बस्तियों पर कब्ज़ा कर रहे हैं। जला रहे हैं। मार रहे हैं। दंगे इतने बड़े पैमाने पर इतने भयावह हो रहे हैं कि सेना लगानी पड़ रही है। 

तमाम सीटों पर ये निर्णायक संख्या में वोटर बन गए हैं। पश्चिम बंगाल में तो ये क़रीब 38 सीटों पर निर्णायकों की हैसियत में हैं। इसलिए कई राजनीतिक दल इनका वोट बैंक की तरह प्रयोग कर रहे हैं। उनके राशन कार्ड, वोटर कार्ड सब बनवा रहे हैं। वे नाराज़ न हों इसके लिए देशद्रोह जैसे उनके कामों को अनदेखा कर रहे हैं। इससे उनकी हिम्मत आसमान छू रही है। 

कई भयावह तथ्यों के साथ यह भी जोड़ा था कि हालात इतने बिगड़ गए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। और एक-दो नहीं असम और पूर्वोत्तर के पूरे छब्बीस छात्र संगठनों ने मिल कर पूर्वोत्तर छात्र संगठन का गठन कर देश के लिए आंदोलन चला रखा है। 

रिपोर्टर ने बड़ी बेबाकी से यह भी लिखा कि इन घुसपैठिए चूहों में से यदि एक, एक दिन में आधा किलो आनाज खा रहा है। तो पाँच करोड़ घुसपैठिए देश के सवा सौ करोड़ लोगों के हिस्से का डेली क़रीब ढाई करोड़ किलो आनाज चट कर जा रहे हैं। 

यहाँ का खा भी रहे हैं और पत्तल में छेद भी कर रहे हैं। यहीं के कुछ भेदियों के संग मिल कर जहाँ मौक़ा पाते हैं वहीं सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानियों के ख़ून के प्यासे बन जा रहे हैं। 

रिपोर्टर ने बड़ी खोजबीन के साथ तथ्य सहित यह बताया था कि औसतन सात-आठ लोगों का इनका परिवार गली-सड़कों में दिन में क़रीब पाँच कुंतल कूड़ा बीनते हैं। जो औसतन छह सौ रुपए कुंतल के हिसाब से कबाड़ी ख़रीदता है। 

इस तरह से महीने में क़रीब नब्बे हज़ार रुपए कमाते हैं। बीस हज़ार ख़र्चे के निकाल कर सत्तर हज़ार महीना बचाते हैं। साल भर में नौ-दस लाख रुपया इकट्ठा कर छोटा-मोटा मकान बनाते हैं। फिर चोला बदल कर यहीं के लोगों में घुल-मिल जाते हैं। इतना ही नहीं ये सब कमला, विमला, श्याम लाल, राम लाल, राधे श्याम जैसे नाम रख पहचान छिपाए रहते हैं। 

उस दिन अपने सीनियर रिपोर्टर के काम की तारीफ़ किए बिना मैं नहीं रह सका। उसने सप्रमाण यह भी बताया कि लखनऊ शहर में ही इन चूहों की संख्या लाखों में है। लेकिन वोट के खेल के चलते पार्टियाँ चुप हैं। देश को भीतर-भीतर कुतर रहे इन चूहों की तरफ़ से मुँह मोड़े हुए हैं। 

सुरक्षा एजेंसियों की सारी रिपोर्ट्स कूड़े-कचरे में डाल दी जाती हैं। उसकी रिपोर्ट के इन हिस्सों को पढ़ते हुए मुझे कुछ माह पहले एक बड़े विख्यात लेखक पत्रकार विभांशु दिव्याल का उपन्यास ’गाथा लंपट तंत्र की’ याद आ गया। उन्होंने उपन्यास में लखनऊ में इन घुसपैठियों की स्थिति का एक हल्का सा ख़ाका खींचा था। 

मैं पूरी रिपोर्ट पढ़ कर दंग रह गया कि देश किस तरह ख़तरे के मुहाने की तरफ़ बढ़ता जा रहा है। और सब चुप हैं। अपने-अपने स्वार्थ के आगे मुँह सीए हुए हैं। कुछ बोलते हैं तो सिर्फ़ बोल कर ही इतिश्री कर लेते हैं। बिना वज़ह की बात पर भी चीख़ पुकार करने वाला मीडिया भी चुप है। 

वह मीडिया जिससे नेपोलियन बोनापार्ट भी थर्राता था। मेरे अख़बार में तो ख़ैर पहले ही कई मुद्दों पर ख़ामोश रहने की हिदायत थी। उसमें यह मुद्दा भी शामिल था। लेकिन उस समय मैंने यह तय कर लिया कि आजकल में इस्तीफ़ा तो देना ही है। 

चाहे जो हो यह रिपोर्ट और बेहतर करके छापूँगा। कार्यवाई पर सारी ज़िम्मेदारी ख़ुद पर लेते हुए इस्तीफ़ा दे दूँगा। मैंने एकदम आख़िर समय में उसे लीड न्यूज़ के तौर पर प्रिंट होने भेज दिया। 

अगले दिन जैसा अनुमान था वही हुआ। प्रबंधन ने क्लास ली तो मैंने दबने के बजाय इस नीति को अख़बार के लिए घातक बताते हुए इसे पेपरहित में उठाया क़दम बताया था। और यह भी कहा कि अगर मैनेजमेंट इसे ग़लत समझता है तो मैं सहमत नहीं हूँ। 

रिपोर्टर की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। इसलिए मैं इस्तीफ़ा दे रहा हूँ। ऐसी स्थितियों में काम करना सम्भव नहीं है। मैनेजमेंट को मुझसे ये उम्मीद नहीं थी। सो वो अवाक् थे। लेकिन मुझे निकलना था तो निकल लिया। 

रिपोर्टर को समझा दिया कि निश्चिन्त रहे कुछ नहीं होगा। मैं उस वक़्त बड़ा संतोष महसूस कर रहा था कि चाहे जैसे हो मैं अपना कर्तव्य कुछ हद तक पूरा कर सका। 

उस रात और अगले कई दिनों तक मैं यह सोच-सोच कर परेशान होता रहा कि मैंने न सिर्फ़ पूरी रात एक घुसपैठिए के साथ, देश को कुतरने वाले के साथ बिताई, बल्कि शारीरिक सम्बन्ध भी पागलपन की हद तक बनाए। और इतना ही नहीं देश के इन विरोधियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा तो ख़ूब भरा है। सबको दोष भी दे रहा हूँ। लेकिन जाँच टीम के पास ख़ुद जाकर पूरा वाक़या बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूँ। 

इससे जाँच टीम को शायद कुछ मदद मिल जाए। लेकिन मेरे क़दम हर बार थम जाते हैं यह सोच कर कि यह क़दम उठाने पर शारीरिक सम्बन्धों की भी पोल खुलेगी। तब जो होगा वह होगा लेकिन विशाखा क्षण-भर को यह सहन नहीं कर पाएगी। 

मैं इस असमंजस में दिल्ली जाने की तैयारी में लग गया कि अपना घर बचाऊँ या अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों के हित भी देखूँ। समझ नहीं पा रहा हूँ कि जाने कभी इस असमंजस से बाहर निकल पाऊँगा, जाँच टीम के सामने पहुँच कर सारी बात कह भी पाऊँगा या नहीं। 

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