एक कोठरी में
कथा साहित्य | कहानी प्रदीप श्रीवास्तव15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
पुराने लखनऊ की तमाम गलियों में से ही किसी गली का नाम बताया था उस्मान ने, जहाँ उसका घर था, और पिछली तीन चार पीढ़ियों से उसका परिवार वहीं रह रहा था। उसके घर के आसपास ही कहीं गधे वाली गली भी थी। उसकी यह बात मुझे अच्छी तरह याद थी कि इन तमाम गलियों में अधिकांश गलियाँ इतनी पतली हैं कि एक साथ दो-तीन लोगों का निकलना भी मुश्किल है।
मेरी पत्नी ने मुझसे कहा भी कि, “तुम्हारे पास उनके मकान का पता नहीं है, गली का नाम तक सही-सही याद नहीं है, कैसे उन्हें ढूँढ़ पाएँगे, क्या एक-एक दरवाज़े को खुलवा कर वहाँ पूछेंगे?”
मैंने कहा, “तुम टेंशन नहीं लो मैं उसे किसी भी तरह ढूँढ़ लूँगा। जब दिल्ली, गुरुग्राम और ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में कोई जगह मुझ से नहीं छिप पातीं तो यहाँ की कुछ तंग गलियों को छानने में मुझे कितना समय लगेगा।”
गलियों का ध्यान कर मैं कार के बजाय बाइक से उसका घर ढूँढ़ने के लिए निकला। सोचा बाक़ी परिवर्तन चाहे जो भी हो गया हो, लखनऊ शहर भले ही अब बड़ा हो गया है लेकिन पुराने शहर की वह गलियाँ उतनी ही बड़ी हो सकती हैं, जितनी तीस पैंतीस साल पहले थीं।
संयोग से मौसम भी मेरे साथ था, काफ़ी हद तक ख़ुशगवार हो रहा था। जुलाई का दूसरा सप्ताह था, आसमान बादलों से ढका हुआ था, दो-तीन दिनों से रुक रुक कर सारे शहर में बरसात हो रही थी। मन में बचपन जाग रहा था कि चलो यदि बारिश हुई तो भीगते हुए घूमने का भी मज़ा लिया जाएगा। किसी दुकान के बाहर कुल्हड़ में लेकर गरम-गरम चाय पी जाएगी।
मुझे कोई आइडिया नहीं था कि गधेवाली गली पहुँचने के लिए किस तरफ़ निकलना चाहिए। मैं अँधेरे में ज़मीन में गिरी सूई ढूँढ़ने जैसी स्थिति में था, लेकिन ढूँढ़ूँगा ज़रूर यह तय किये हुए था। इसलिए बाइक लेकर निकल पड़ा। जिधर भी निकलता मुझे बहुत कुछ बदला बदला मिलता। पुराना नदारद, नया नज़र आता। सूई ढूँढ़ते ढूँढ़ते मैं राजा बाज़ार में त्रिवेदी मिष्ठान्न भण्डार के सामने ठहर गया। यह भी अपना पुराना चोला त्याग कर नया धारण कर चुका था।
सामने मिठाइयाँ रखने का बड़ा सा काउन्टर था जिसमें शीशा लगा हुआ था, जिससे सामने से गुज़रते व्यक्ति को मिठाइयाँ दिख रही थीं। पापा जी जब रथखाना महल्ले में चाचा जी के यहाँ जाते थे तो त्रिवेदी के यहाँ की प्रसिद्ध दूध की बर्फ़ी मिठाई ज़रूर ले जाते थे, और लौटते समय घर के लिए भी ले आते थे क्योंकि घर भर को इसके स्वाद का नशा था।
दूकान देखते ही मुझपर वह पुराना नशा हावी हो उठा तो चार बर्फ़ी लेकर वहीं खाई। ऐसा लगा जैसे बीस वर्षों बाद कोई मिठाई खाई। मन ही मन कहा पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी इसके दीवाने थे तो कोई ग़लत नहीं थे। इसकी जो प्रसिद्धि है ये उसकी सच्ची अधिकारी है।
उस्मान से हॉस्पिटल में संयोगवश ही मित्रता हो गई थी। हुआ यह था कि हॉस्पिटल के पास ही कालीचरण कॉलेज के मैदान में छात्रों के बीच हो रहे क्रिकेट मैच में मेरे एक मित्र को सिर में चोट लग गई। चोट गंभीर थी तो पास ही बलरामपुर हॉस्पिटल में उसे भर्ती कर दिया गया। वहीं उस्मान की अम्मी भी भर्ती थीं। उन्हें उस्मान के अब्बू ने किसी बात पर नाराज़ होकर इस क़द्र पीटा था कि उनके सिर, आँख, नाक, जबड़ों में गंभीर चोटें आई थीं। वह डेढ़-दो हफ़्ते से एडमिट थीं।
पंद्रह सोलह साल का उस्मान अकेले ही अम्मी की देखभाल करता था। उसके घर से कोई दूसरा व्यक्ति दिखता ही नहीं था। उसे हमेशा बहुत दुखी परेशान देख कर मुझे उस पर बड़ी दया आती। बिल्कुल दुबला-पतला सींकिया पहलवान जैसा था। टखने से छह सात इंच ऊँचा ढीला-ढाला पजामा, ऐसे ही घुटनों से नीचा लम्बा कुर्ता पहने रहता था। सिर पर जालीदार गोल टोपी भी।
उसकी दयनीय हालत देखकर एक दिन मैंने उससे बात शुरू करनी चाही तो पहले तो वह ज़्यादा कुछ बोलने को तैयार नहीं हुआ। अगले दिन जब हम तीन-चार दोस्त चाय समोसा लेकर अपने मित्र के पास पहुँचे तो उसे भी बुला लिया। बहुत कहने पर आया था। इसी के साथ हमारी दोस्ती की शुरूआत भी हो गई, और अगले पंद्रह दिन में हम पक्के मित्र बन गए।
उसने अपने घर की जो हालत बताई उससे हम दोस्तों को बहुत दुःख हुआ। उससे बड़ी चार बहनें थीं, और एक बहन, भाई छोटे थे। इन सबकी पढ़ाई लिखाई मदरसे में दो-चार कक्षा के बाद ही उनके अब्बू ने बंद करवा दी थी। उस्मान भी कक्षा चार में ही था तभी अब्बू ने मोटर मैकेनिक के यहाँ लगा दिया था। वह ख़ुद एक टेम्पो ड्राइवर थे और कई तरह के नशा करने के आदी भी।
हम सारे दोस्त रोज़ दोनों टाइम उसकी अम्मी, उसके लिए चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब ले जाने लगे। जबड़े में गहरी चोट के कारण उसकी अम्मी बहुत मुश्किल से कुछ खा-पी पाती थीं। बोलने में भी उन्हें कठिनाई होती थी। ग़रीब मरीज़ की सूची में दर्ज़ होने के कारण उसकी अम्मी को दोनों टाइम हॉस्पिटल से नाश्ता, खाना मिलता था, लेकिन सरकारी व्यवस्था आख़िर सरकारी ही होती है।
उसकी अम्मी से भी हम लोग बातें करते। वह हम लोगों की सेवा से बहुत ख़ुश होतीं। ख़ूब दुआएँ देतीं। क़रीब पंद्रह दिन बाद जब हमारे दोस्त को हॉस्पिटल से छुट्टी मिली तो वहाँ से चलने से पहले हम उनके पास पहुँचे, वह बहुत भावुक होकर बोलीं, “तुम सब ने हमारी बहुत मदद की। अल्लाह त’आला तुम्हें ख़ूब तरक़्क़ी दे, ख़ुश रखे। तुम सबको कभी भूल नहीं पाऊँगी।”
हम सब भी भावुक हो गए थे, सबने कहा जब तक आप यहाँ हैं हम मिलने आते रहेंगे। उस्मान भी बहुत भावुक हो रहा था। हमने कहा, “भाई घबराना नहीं, तुम्हारी अम्मी भी बहुत जल्दी ठीक हो जाएँगी।”
चलते समय अचानक ही मेरा ध्यान उस्मान के कपड़ों की तरफ़ गया, मैंने देखा इतने दिनों से वह एक ही कपड़ा पहन रहा था। बाँह के पास उसकी सिलाई भी खुल रही थी। मैंने उस समय उससे कुछ नहीं कहा। घर आकर सोचा अगले दिन उसके लिए दो सेट कुर्ता पजामा ख़रीद कर ले जाऊँगा। लेकिन उस समय मेरे पास इतने पैसे कहाँ होते थे कि किसी के लिए कोई कपड़ा वग़ैरह ख़रीद पाता। बहुत डरते-डरते पापा-अम्मा से बात की। सारी बातें सुन कर वह कुछ देर सोचने के बाद बोले, “ठीक है देखता हूँ।”
अगले दिन पापा ने दो सेट कपड़े लाकर मुझे दे दिए। मैंने उन्हें बता दिया था कि उस्मान मेरे जैसा ही है। बस दुबला ज़्यादा है। शाम को मैं खाना, कपड़े लेकर उस्मान के पास पहुँचा। उस दिन संयोग से कोई और दोस्त मेरे साथ नहीं जा सका था। मुझे देख कर उस्मान, उसकी अम्मी दोनों बहुत ख़ुश हुए कि मैं हॉस्पिटल से अपने दोस्त के चले जाने के बाद भी केवल उनसे मिलने पहुँचा।
जब मैं उसे कपड़े देने लगा तो वह बहुत संकोच में पड़ गया। तो मैंने समझाया, “यार हम दोस्त हैं, एक दूसरे की मदद तो कर ही सकते हैं।” इसके बाद उसने ख़ुशी ख़ुशी कपड़े ले लिए। मैं क़रीब घंटे भर रुकने के बाद वापस घर आ गया था। इसके बाद उसकी अम्मी हॉस्पिटल में क़रीब दो हफ़्ते तक और रहीं। और हम सारे दोस्त भी रोज़ खाने-पीने की चीज़ें लेकर उनसे मिलने जाते थे।
बाद में अगले दो साल और लखनऊ में पढ़ने के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चला गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी भी वहीं मिल गई। संयोग कुछ ऐसा बना कि जल्दी ही ऑट्रेलिया चला। लेकिन जब-तक लखनऊ में रहा तब-तक उस्मान से मिलने अक्सर उसकी दुकान पर जाता था।
उस्मान से जुड़ी बातों को याद करता हुआ मैंने त्रिवेदी मिष्ठान्न के ही एक आदमी से पूछा, “गधे वाली गली किधर पड़ेगी?”
यह सुनते ही उसने अपना काम करते हुए कहा, “गधे वाली, भैंसा वाली गलियाँ अब शायद ही बची हों।” फिर उसने रास्ता बता दिया, लेकिन इतने मोड़, इतनी बातें बताईं कि मेरी समझ में कुछ-कुछ ही आया। बर्फी के स्वाद में डूबता उतराता आख़िर मैं पुराने शहर की तंग गलियों में पहुँच ही गया।
कुछ गलियाँ तो इतनी सँकरी मिलीं कि जब मैं बाइक आगे बढ़ाता और सामने से कोई आ रहा होता तो बाइक को एकदम किनारे नाली के पास करना पड़ता। मैं लोगों से पता पूछने के साथ-साथ हर तरफ़ दिख रहे बड़े परिवर्तन के बारे में भी ज़रूर बात करता। सब कहते सहूलियतें तो माशा अल्लाह बहुत हो गईं, लेकिन क़ीमत भी बहुत चुकानी पड़ी है। सड़कें, गलियाँ, चौड़ी की गईं तो बहुतों के मकान ख़त्म हो गए। सरकार ने मुआवज़ा तो दिया लेकिन कई-कई पुश्तों से रह रहे लोगों को अपनी जड़ों से हमेशा के लिए जुदा होना पड़ा।
परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है यह उन गलियों में हर तरफ़ दिख रहा था। पहले जहाँ टूटी-फूटी खड़ंजा सड़कें, दोनों तरफ़ गंदगी से भरी बजबजाती नालियाँ होती थीं, भयानक बदबू से नाक फटने लगती थी, बारिश के दिनों में तो पूरी गली ही नाली बन जाती थी, वहाँ अब आर सी सी की पक्की सड़कें थीं। दोनों तरफ़ गहरी पक्की नालियाँ थीं, सीवेज सिस्टम होने से गंदगी नालियों में नहीं आती थी, जिससे भयानक बदबू से लोगों को मुक्ति मिल गई थी। और गंदगी से होनेवाली तमाम बिमारियों से भी।
अधिकांश लोगों ने अपने पुराने मकान तोड़-तोड़कर नए बना लिए थे। यह सब देखना बड़ा सुखद था। लेकिन एक और परिवर्तन जो मुझे साफ़-साफ़ दिख रहा था, महसूस कर रहा था वह मुझे बहुत कष्टकारी, दुखद लगा।
मेरी बाइक के मास्क पर भगवान शंकर का स्टिकर लगा हुआ था, उस पर ‘हर हर महादेव’ लिखा था। मैं जिन जिन गलियों से निकला उनके अधिकांश बाशिंदे मुस्लिम थे। पतली-पतली गलियों में हर तरफ़ से अधिकांश आँखें मुझे घूरती हुई दिखतीं। उनमें भाव एक ही थे कि यह हमारे बीच का तो नहीं है, यह अनजान हमारी गली में क्या कर रहा है। यहाँ कैसे आ गया। मुझे, भगवान शंकर के स्टिकर को ऐसे घूरते जैसे हम कोई घृणास्पद अजूबा हैं। मन ही मन सोचा कि इस परिवर्तन की क्या ज़रूरत थी? पहले भी था यह सब लेकिन इतना तो नहीं था।
उस्मान का ठिकाना जानने के साथ साथ मैं इस परिवर्तन को भी गहराई से समझने की कोशिश में लग गया। कई जगह तो ऐसा हुआ कि जैसे ही पता पूछने के लिए रुकता वैसे ही चारों तरफ़ से लोग मुझे घेर लेते। तरह तरह के प्रश्न करते, कौन हो? कहाँ से आए हो? किसे ढूँढ़ रहे हो? क्यों ढूँढ़ रहे हो? आधार कार्ड दिखाओ . . . एक के प्रश्न का उत्तर पूरा दे भी नहीं पाता था कि दूसरा पूछने लगता।
ऐसा लगता जैसे मैं कोई ख़ूँख़ार अपराधी हूँ, और किसी तरह पुलिस की गिरफ़्त में पहुँच गया हूँ। वो मुझसे सब कुछ उगलवा लेना चाहती है। सतर्क इतनी है कि मैं कहीं भाग न निकलूँ इसलिए हर तरफ़ से घेरे हुए है।
मैं यह सोचकर पता किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति से ही पूछता कि पुरानी बातें वह ज़्यादा अच्छी तरह से बता पाएगा, लेकिन एक भी बुज़ुर्ग अपनी बात पूरी कर पाए, उसके पहले ही नई पीढ़ी घेर लेती थी। एक जगह तो खीझ कर मैं उत्तेजित हो उठा तो वह सब एकदम मारपीट पर उतारू हो गए। कइयों ने बाँहें चढ़ा लीं। देखते-देखते लोगों के हाथों में तलवारें, छूरे, तमंचे चमकने लगे।
एक क्षण को मुझे लगा कि अब यहाँ से जीवित निकलना मुश्किल है। मुझे ज़मीन पर गिराने के लिए धक्का-मुक्की भी शुरू हो गई। इसी बीच जिस बुज़ुर्ग से पता पूछ रहा था वो और कई अन्य ने लोगों को रोकते हुए मुझे गली के बाहर निकाला और कंधे को थपथपाते हुए कहा, “आज तो अल्लाह त’आला ने तुम्हें बचा लिया, लेकिन फिर कभी इधर का रुख़ नहीं करना क्योंकि हमारे बच्चे अपने एरिया में किसी काफ़िर का आना बरदाश्त नहीं कर पाते। पुलिस भी इधर आने की हिम्मत नहीं करती और तुम अंदर आकर बहस करने की हिमाक़त कर रहे थे।”
मैं आश्चर्य में पड़ गया कि ये इनका एरिया कहाँ से हो गया, क्या ये भारत देश से बाहर है। इनमें ये इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई। ये बुज़ुर्ग भी पता बताने से पहले बहुत से प्रश्न करते थे। लेकिन इन सब के बावजूद मैं उस्मान से मिलने की ज़िद पर अडिग था। और यह भी तय किये हुए था कि उस्मान से यह पूछूँगा ज़रूर, भले ही वह हमेशा के लिए नाराज़ हो जाए कि तुम लोगों ने यह क्या तमाशा बना रखा है, ये तुम लोगों का एरिया कब से होने लगा, देश में एक होकर रहने में तुम लोगों को कष्ट क्यों होने लगता है। अपने साथ हुए व्यवहार से मैं बहुत क्रोधित था ।
शाम होते-होते मैंने कटरावाली गली, शाहगंज की गली, टुड़ियागंज की गली, सात सौ वाली गली, कौड़ी वाली गली, चूड़ियों वाली गली, अफ़ीम वाली, बतासे वाली, गली दिलरुबा जान, पार्चेवाली, फूलों वाली, मेवे वाली, घड़ियाली वाली, चावल वाली, रोटीवाली, कंघीवाली, टक्सालवाली, गन्नेवाली, रस्सी बटन, चटोरी गली, मारवाड़ी गली, मसाले वाली और कचौड़ी गली छान मारी।
कचौड़ी गली में कचौड़ी भी खाई। बर्फ़ी की तरह इसका भी स्वाद मैं भूला नहीं था। गली में पहुँचते ही जगह जगह बन रही गरम-गरम कचौड़ी की ख़ुश्बू जैसे ही नथुनों में पहुँची मैं ख़ुद को रोक नहीं पाया। एक दुकान पर जी भर खाई और घर के लिए भी पैक करवा ली। फिर रस्तोगियों के महल्ले से होता हुआ लौट आया लेकिन उस्मान का घर नहीं ढूँढ़ पाया। मगर ज़िद और पक्की हो गई कि उसे ढूँढ़े बिना नहीं रहूँगा। अपने अभियान पर कल फिर निकलूँगा। साथ में इन गलियों के किसी जानकार को भी लूँगा। क्योंकि जानकारी के अभाव में मैं जिधर जाने के लिए निकलता, वहाँ न पहुँच कर कहीं और पहुँच जाता था।
दिनभर बाइक चला-चला कर बुरी तरह थका-हारा मैं घर पहुँचा था लेकिन पत्नी को बिलकुल भी नहीं बताया कि मैं थका हुआ हूँ, और कुछ कट्टरपंथियों ने मुझे काफ़िर कह कर मुझसे हाथापाई की, जान से मारने की भी कोशिश की। क्योंकि बता देता तो वह अगले दिन जाने ही नहीं देती। कोई न कोई ऐसा अड़ंगा ज़रूर लगा देती कि उसी में उलझ कर रह जाता, निकल ही नहीं पाता।
अगले दिन जब सुबह क़रीब ग्यारह बजे निकला तो आसमान में छिटपुट बादल थे, कभी धूप कभी छाँव हो रही थी। मेरे सामने समस्या यह थी कि साथ किसे लूँ, बचपन के जो गिने-चुने चार-पाँच दोस्त थे वह सब भी अपनी अपनी नौकरियों के चलते दूसरे शहरों में जा बसे थे। इस समस्या का भी मैंने सॉल्यूशन निकाला। सबसे पहले एक ऐसे ऑटो ड्राइवर को ढूँढ़ा जो जालीदार गोल टोपी लगाए हुए था। उसके दाढ़ी तो नहीं थी लेकिन बेतरतीब सी घनी मूँछें थीं। क़रीब हफ़्ते भर से उसने शेव नहीं की थी, दाढ़ी बढ़ी हुई थी और माथे पर सजदे का स्याह निशान था।
मैंने उससे उस्मान का ज़िक्र करते हुए कहा, “देखो लखनऊ की इन गलियों से मेरा पुराना रिश्ता है, मेरा उस्मान, उसका परिवार इन्हीं में से किसी गली में रहता है। मैं बहुत सालों बाद अपने इस शहर में लौटा हूँ, इसलिए तमाम रास्ते भूल गया हूँ। बहुत कुछ यहाँ बदल गया है इसलिए पुराना कुछ ढूँढ़ पाना और मुश्किल हो रहा है।
“आप अपना ऑटो जहाँ खड़ा करते हैं, वहाँ खड़ा कर दीजिये। मेरी बाइक पर आप पीछे बैठ कर रास्ता बताते रहिये। जितने घंटे आप मेरे साथ रहेंगे उतने घंटे का जो भी पैसा आप बताएँगे वह मैं दूँगा, साथ ही चाय नाश्ता, खाना पीना वग़ैरह जो भी होगा वह सब भी मेरे साथ ही होगा।”
तो उसने कहा, “साहब मेरा ऑटो ओला कैब से जुड़ा हुआ है, मुझे मुश्किल हो जाएगी।”
मैंने कहा, “आपका कोई नुक़्सान नहीं होगा, यदि हुआ भी तो वह सब भी मैं ही दूँगा।”
अंततः वह तैयार हो गया। संयोग से वह उन्हीं तमाम गलियों में से एक, गली दिलरुबा जान का ही रहने वाला था। वहीं जन्मा, पला-बढ़ा था। एक-एक गली के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ था। इसलिए वह सीधे उस जगह पहुँचा जहाँ से गधे वाली गली शुरू हुआ करती थी।
लेकिन अब वहाँ न कोई गधा या गधा गाड़ी थी, न और कोई पुरानी निशानी थी, जो अपना परिचय देती हुई मिलती, जो भी था सब नया-नया था, नयों ने गधे वाली गली को इतिहास के पन्नों में छिपा दिया था। लेकिन मैं अपने लक्ष्य के क़रीब पहुँच गया हूँ यह ज़रूर तय हो गया था।
अब उस गली के आस-पास के एरिया में ऑटोवाले जिसका नाम सगीर था, के साथ उस्मान का घर ढूँढ़ने लगा। सगीर का साथ होना काम आया, क़रीब दो ढाई घंटे बाद हम एक दस-बारह फ़ीट चौड़ी गली में छोटे से बेहद जर्जर मकान के सामने थे, वह मकान उस्मान का था। सगीर ने मेरी तरफ़ प्रश्नाकुल दृष्टि से देखा तो मैंने कहा, “किसी को बुलाइए।”
तो उसने जर्जर दरवाज़े की कुण्डी खटखटाने के बजाय आवाज़ दी, “भाईजान . . .। उस्मान भाईजान . . .
दो तीन आवाज़ देने के बाद अंदर से किसी महिला की आवाज़ आई, “आ रहे . . .”
कुछ ही देर में एक प्रौढ़ औसत क़द काठी की महिला आई तो सगीर ने पूछा, “उस्मान भाईजान हैं?”
महिला ने हम दोनों को बहुत संदेहास्पद दृष्टि से देखते हुए बड़े ही रूखेपन से पूछा, “काहे, का काम है?”
मैंने ध्यान दिया कि महिला मेरी बाइक पर लगे स्टिकर को बार-बार देख रही थी। उसके इस अटपटे व्यवहार से सकपकाते हुए सगीर ने कहा, “ये साहब उनके बचपन के दोस्त हैं, विदेश से आए हैं, उनसे मिलने के लिए . . .”
यह सुनते ही महिला के भाव एकदम से बदल गए। देखते-देखते उसकी आँखें भर आईं। उसकी हालत देख कर मैं किसी अनहोनी की आशंका से परेशान हो उठा। मैंने नमस्कार करते हुए संक्षेप में उन्हें अपना परिचय और दोस्ती के बारे में बता कर कहा, “मैं उनसे मिलना चाहता हूँ, कल से आपका घर ढूँढ़ रहा हूँ, मिल ही नहीं रहा था, आज यह सगीर जी साथ आए तब ढूँढ़ पाया।”
इसके बाद उस महिला ने जो उस्मान की बेगम थी, जो कुछ बताया अपने शौहर के बारे में उसे सुनकर उस्मान को लेकर मन बहुत कसैला हो गया। महिला के मन में भी उसके लिए बहुत घृणा भरी है, यह साफ़ दिख रहा था। उस्मान के अब्बू अम्मी का इंतकाल हो चुका था। दो बहनों का ही निकाह हो पाया था, तीन बहनें अब भी बिन ब्याही घर में ही पड़ी थीं। सिलाई वग़ैरह करके घर का ख़र्च चलाने में मदद करती थीं।
भाई महल्ले की किसी लड़की को लेकर भाग गया था। उसके बाद दसियों साल से उसका कुछ पता ही नहीं कि वो कहाँ है। और उस्मान . . . उस्मान अपने ही एक साथी, उसकी पत्नी की हत्या के मामले में अंतिम साँस तक आजीवन कारावास की सज़ा लखनऊ जेल की एक कोठरी में बीते दस साल से काट रहा था। यह सब सुनने के बाद मन बहुत खिन्न हो गया। सोचा बड़ी मूर्खता की मैंने, बेवजह ही पैसा, समय बर्बाद किया। वहाँ एक सेकेण्ड भी रुकना मुझे भारी महसूस होने लगा तो जल्दी से पैसे देकर सगीर को विदा किया, निरर्थक ही कुछ ख़रीदारी कर घर लौट चला।
रास्ते भर सोचता रहा पत्नी को क्या बताऊँ कि जिससे मिलने के लिए बरसों से व्याकुल था वह दो लोगों की हत्या का अपराधी है, आजीवन कारावास की सज़ा काट रहा है, और इन लोगों ने अपना एरिया बना रखा है, जहाँ ग़ैर मुस्लिम के पहुँचने पर उसकी हत्या तक कर देते हैं, मैं ख़ुद मरते-मरते बचा . . .
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