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हनुवा की पत्नी

हनुवा धारूहेड़ा, हरियाणा से कई बसों में सफ़र करने, और काफ़ी पैदल चलने के बाद जब नोएडा सेक्टर पंद्रह घर पहुँची तो क़रीब ग्यारह बजने वाले थे। मौसम में अच्छी ख़ासी खुनकी का अहसास हो रहा था। चार दिन बाद दीपावली थी। हनुवा का मन रास्ते भर नौकरी, अपने घर भाई-बहनों, माँ-बाप पर लगा हुआ था। दीपावली के एकदम क़रीब होने के कारण बहुत सी जगहों पर उसे रास्ते में दोनों तरफ़ घरों और बहुत सी बिल्डिंगों पर रंग-बिरंगी लाइटें सजी दिख रही थीं। सुबह धारूहेड़ा जाते और आते समय उसे लोग रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों की तरफ़ जाते-भागते से दिख रहे थे। लग रहा था जैसे शहर ख़ाली हो रहा है। इन लोगों के साथ हनुवा का भी मन बार-बार अपने घर इलाहाबाद (अब प्रयाग) के पास बड़ौत पहुँच जा रहा था। 

आज भी वह रोज़ की तरह सेक्टर पंद्रह के कमरे पर जल्दी पहुँचने के लिए परेशान थी लेकिन उसका मन रोज़ के विपरीत बड़ौत अपने माँ-बाप, भाई-बहनों के पास पहुँच जा रहा था। उसके साथ कमरे में चार और फ़्रेंड रहती हैं। सभी इस परदेश में एक दूसरे की सुख-दुख की साथी हैं। उनका लैंडलॉर्ड मकान में नहीं रहता। उसने पूरे मकान में ऐसे ही चार किराएदार रखें हैं। वह किसी फ़ैमिली वाले या जेंट्स को मकान किराए पर नहीं देता। गर्ल्स हॉस्टल बना रखा है। किराएदारों के लिए जो चार सेट बनवाए हैं उन में से हर सेट में चार से ज़्यादा लड़कियों को नहीं रहने देता। 

हनुवा ने जब कमरे पर पहुँच कर कॉलबेल बजाई तो उसकी साथी सांभवी ने दरवाज़ा खोला। सामने हनुवा को एकदम थकी-हारी देखकर कुछ कहने के बजाए वह किनारे हट गई। उसके चेहरे की उदासी से वह समझ गई थी कि हनुवा आज भी ख़ाली हाथ लौटी है। थकी वह भी थी लेकिन उसे हनुवा पर बड़ी दया आ रही थी। हनुवा कमरे में पड़ी चार फोल्डिंग में से एक पर धम् से बैठ गई। वह कुछ देर शांत बैठी रही। तब सांभवी ने पूछा, “मैंने खिचड़ी बना रखी है। खाना अभी खाओगी। या पहले चाय बनाऊँ?” हनुवा बोली, “तुमने खाया की नहीं?” सांभवी के ना कहने पर उसने कहा, “सांभवी तुम खा लो मेरा मन कुछ भी खाने-पीने का नहीं है।” सांभवी ने कहा, “खाना-पीना छोड़ने से क्या फ़ायदा हनुवा? तुम्हारी हालत देखकर ही मैं समझ गई थी कि आज भी तुम ख़ाली हाथ लौटी हो। 

“शाम को जब तुम्हें फ़ोन किया तभी तुम्हारी बातों से मुझे अहसास हो गया था कि वहाँ इंटरव्यू देना बेकार ही रहा। ये कंपनी वाले इस तरह दौड़ा कर ना जाने क्या पाते हैं?” 

“पता नहीं, जो टाइम बताया था मैं उससे थोड़ी देर पहले ही ग्यारह बजे पहुँच गई थी। वहाँ पहले से ही बीस-पचीस लड़कियाँ बैठी थीं,” हनुवा ने कुछ देर बाद उठकर पानी पीते हुए कहा। “मेरे बाद भी कई लड़कियाँ आईं। मुझे सब फ़्रेशर ही लग रहीं थीं। मैं अंदर-अंदर ख़ुश हो रही थी कि इंटरव्यू में इन सब पर भारी ही पड़ूँगी। अपना सेलेक्शन मैं तय मानने लगी।” 

हनुवा बात करते-करते उठी और चाय बनाने लगी। सांभवी ने उससे एक दो बार खाने के लिए और पूछा था। उसके मना करने पर उसने अपने लिए खिचड़ी निकाल कर खाना शुरू कर दिया था। उसने ढेर-सी टोमैटो सॉस और चिली सॉस भी ले ली थी। हनुवा चाय लेकर उसके सामने वाली बेड पर बैठ गई। दो-तीन सिप लेने के बाद बोली, “कंपनी बहुत बड़ी थी। मैंने सोचा बड़ी कंपनी है। सैलरी भी अच्छी होगी। चार महीने से ख़ाली बैठी हूँ, मिल जाए तो तुम सबका क़र्ज़ उतार दूँ।” 

सांभवी ने हनुवा को बीच में ही टोकते हुए कहा, “इतना टेंशन ना ले यार, आज नहीं तो कल मिल ही जाएगी। तब दे देना।”

“टेंशन कोई लेता कहाँ है? वो तो परिस्थितियों के चलते हो जाता है। मैं यहाँ से गई तो थी बड़ी उम्मीदों के साथ लेकिन उन सारे कैंडिडेट्स के बाद जब मेरा नंबर आया, मैं पहुँची इंटरव्यू देने तो पहुँचते ही कहा गया कि ’कॉल तो केवल फ़्रेशर्स के लिए है। आपके पास तो पाँच साल का एक्सपीरिएंस है।’ यह सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे गाल पर तमाचा जड़ दिया है। मेरे सारे सपने बीएसएनएल के सिग्नल की तरह अचानक ही टूट गए। जब मुझे लगा कोई उम्मीद नहीं है तो मैंने भी अपनी भड़ास निकाल देना ही ठीक समझा। मैं बिगड़ उठी कि ’मुझे बेवजह क्यों बुलाया गया? मेरा टाइम, पैसा जो वेस्ट हुआ उसे कौन देगा?’ 

“मैं एच.आर. मैनेजर से मिलने के लिए अड़ गई। उन्होंने सिक्योरिटी गॉर्ड बुला लिए तो भी नहीं मानी। उन्हें लगा कि मुझे कैंपस से बाहर करने पर मैं वहाँ भी तमाशा कर सकती हूँ तो उन लोगों ने एच.आर. मैनेजर को बुलाया। उसने भी मुझे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं नहीं मानी। आख़िर मुझे कन्वेंस, लंच मुझे जो परेशानी हुई उन सब को देखते हुए पाँच हज़ार रुपए थमा दिए। मैंने सोचा जो मिल रहा है ले लो। चलो यहाँ से। टाइम भी बहुत हो रहा था। डर भी लग रहा था कि इनके गुंडे बदमाश कहीं पीछे ना पड़ जाएँ। आख़िर चली आई मन मसोस कर।” 

सांभवी अब तक अपना खाना फ़िनिश कर चुकी थी। प्लेट किचन में रख कर आई। वापस अपनी फ़ोल्डिंग पर बैठते हुए कहा, “यार नौकरी नहीं मिली यह कोई बात नहीं है। लेकिन तुमने अकेले दम पर उनसे पैसा वसूल लिया ये बड़ी हिम्मत वाली बात है। मैं होती तो मुँह लटका कर चली आती। इतना बोलना कौन कहे सोच भी ना पाती।”

“हिम्मत-विम्मत वाली कोई बात नहीं है। जिस कंडीशन से गुज़र रही हूँ, उससे आपा खो बैठी थी। रास्ते में कई बार ये बात दिमाग़ में आई कि मैं इतना कैसे कर गई?” फिर हनुवा ने एक गहरी साँस लेकर कहा, “देखो अभी और कब तक धक्के खाने हैं।” उसने उठते हुए अपनी दो बाक़ी पार्टनर के बारे में पूछा, “ये दोनों घर गईं क्या?” 

सांभवी बोली, “हाँ दोनों साथ ही निकलीं। सुहानी की ट्रेन चार बजे थी। और नीरू की छह बजे। बड़ी ख़ुश थीं दोनों। जाते-जाते तुम्हें भी दीपावली की बधाई दे गई हैं। और ये लो दोनों ने ये गिफ़्ट तुम्हारे लिए भी दिया है।” सांभवी ने चॉकलेट के दो पैकेट हनुवा की तरफ़ बढ़ा दिए। 

हनुवा ने पैकेट लेते हुए कहा, “दोनों घर पहुँच जाएँ तो कल उन्हें फ़ोन करूँगी। और तुम कब जाओगी?” आख़िर में हनुवा ने सांभवी से पूछा तो वह बड़ी हताशा भरी आवाज़ में बोली, “क्या जाऊँ यार। यहाँ का किराया, सारे खर्चे, पी.एल. (पर्सनल लोन) की किश्त निकालने के बाद पैसा इतना बचा ही नहीं कि जा पाऊँ। जाने पर आने का किराया भी चाहिए था। जितना पैसा मैं माँ को देना चाह रही थी उसका आधा भी नहीं था। सोचा जाऊँगी तो दोनों बहनों, भाई, पेरेंट्स के लिये भी गिफ़्ट नहीं लूँगी तो अच्छा नहीं लगेगा। वो लोग यहाँ के ख़र्चों के बारे में नहीं जानते। कुछ कहें भले ही न लेकिन सोच तो सकते ही हैं कि इतना कमाती है और . . . इसलिए मैंने सोचा कि चलो मैं न सही वो सब तो ख़ुशी-ख़ुशी त्योहार मनाएँ। इसलिए आज मैंने एमरजेंसी के लिए कुछ पैसे रखे बाक़ी सब पापा के अकाउंट में जमा कर दिए। मम्मी को फ़ोन कर के बता दिया कि ऑफ़िस में एक ही दिन की छुट्टी मिल रही है। इसलिए नहीं आ पाऊँगी। पैसा भेज दिया है सब लोग ख़ूब अच्छे से दीपावली मनाना। 

भाई के लिए स्पेशली बोल दिया कि उसके लिए उसकी मन पसंद ड्रेस ख़रीदना। सबसे छोटा है। मम्मी तो बिल्कुल पीछे पड़ गईं कि जैसे भी हो दो दिन की और छुट्टी ले लो। तुम्हारे बिना सब बड़ा ख़ाली-ख़ाली लगेगा। हनुवा माँ बहुत रोने लगी थी। मैंने बड़ी कोशिश की लेकिन मेरे भी रुलाई आ ही गई थी। उन्हें कैसे समझाती कि मेरी मजबूरी क्या है? वह बार-बार कह रही थीं ’बेटा होली में भी नहीं आई। अब दिवाली भी।’ उनको क्या बताती कि मम्मी जितना तुम सब का मन होता है उससे ज़्यादा मेरा भी मन करता है, तुम सब के साथ रहने, खाने-पीने, मज़े करने का। लेकिन फिर नौकरी का क्या होगा? तब तो हालात और ख़राब हो जाएँगे। तब जो परेशानी होगी उससे यह दुख अच्छा है,” बात पूरी करते-करते सांभवी की आँखों से आँसू टपकने लगे। 

हनुवा जो चेंज करने के लिए उठी थी वह अपनी जगह खड़ी-खड़ी उसे सुनती रही। फिर उसके चुप होते ही बोली, “बड़ा ग़ुस्सा आता है अपने लोगों की इस हालत पर। ना जीते हैं ना मरते हैं। इस समय तो मैं ख़ुद तुम सब पर डिपेंड हूँ। पैसा मेरे पास होता तो तुम्हें देकर मैं घर ज़रूर भेजती। चुप हो जा, ख़ुद को ऐसे परेशान करने से फ़ायदा भी क्या?” 

हनुवा इतना कह कर चेंज करने चली गई। एक बड़ा और एक छोटा कमरा, किचन, टॉयलेट इतने में ही चारों सहेलियाँ रहती हैं। इन सबने अपनी ज़रूरतों में भी बहुत सी कटौती कर रखी थी। इतनी ही चीज़ें साथ रखीं हैं कि बस ज़िन्दगी चल जाए। चेंज कर के जब हनुवा फिर आई कमरे में तो सांभवी लेटी हुई थी। उसे नींद नहीं आ रही थी। मन घर पर लगा हुआ था। हनुवा को लगा कि शायद वो सोने के मूड में है तो वह आने के बाद चुप ही रही। अपनी फोल्डिंग पर बैठी तो पूरानी होने के कारण उसके जंग लगे पाइप, क्लंपों से चरचराहट की आवाज़ आई। जिसे सुन कर दूसरी तरफ़ मुँह किए लेटी सांभवी ने करवट ली और उसकी तरफ़ मुख़ातिब होकर कहा, “तुम्हें भूख नहीं लगी है क्या? बाहर कुछ हैवी नाश्ता कर लिया?” 

“क्या यार तुम भी मज़ाक करती हो। ये तो कहो वहाँ पैसे मिल गए थे, तो आसानी से आ गई। नहीं तो आने के लिए किराया भी नहीं था। क्या करूँ मूड इतना ख़राब हो गया था कि कुछ खाने-पीने का मन ही नहीं हुआ। फिर वहाँ से निकलते-निकलते ही बहुत देर हो गई थी।”

“तो अब तो खा लो, कहो तो निकाल दूँ,” सांभवी ने हनुवा की पस्त हालत देख कर कहा। हालाँकि बात आधे-अधूरे मन से ही कही थी। हनुवा ने कहा, “क्या खाऊँ, भूख तो लगी है। ख़ाली पेट पानी, चाय पी-पी कर पेट अजीब सा हो रहा है। दीपावली एकदम सामने खड़ी है। अभी तक घर कुछ पैसा भी नहीं भेज पाई। यह संयोग ही कहो कि वहाँ से पाँच हज़ार मिल गए। कल सुबह पहले यह पैसे पापा के अकाउंट में जमा कर दूँ तब जाकर मुझे चैन मिलेगा।”

“ठीक है, कुछ तो खा लो, नहीं तो गैस प्रॉब्लम करेगी। वैसे भी तुझे ये प्रॉब्लम बड़ी जल्दी होती है। चाहो तो खिचड़ी गरम कर लो। ठंडी हो गई हो गई होगी, अच्छी नहीं लगेगी।”

“क्या अच्छी-खराब, पेट ही तो भरना है, जिससे चलती रह सकूँ।” फिर हनुवा ने खाना खाया और अपनी फ़ोल्डिंग पर बैठ गई। सांभवी इस बीच बात करते-करते सो गई। उसकी नाक से खुर्र-खुर्र की हल्की आवाज़ आने लगी थी। हनुवा की आँखों में नींद की कड़वाहट थी, लेकिन वह सो नहीं पा रही थी। 

सांभवी की बातों ने बड़ा उद्वेलित कर दिया था। कि उसके घर वाले उसे कितना चाहते हैं। उसे बार-बार बुला रहे हैं। वह भी जाने के लिए तड़प रही है। लेकिन अपने घर वालों की ख़ुशी के लिए इतना परेशान है कि अपनी ख़ुशी भी त्याग दी। यह सोच कर नहीं गई कि जाने पर किराए में ही बहुत सा पैसा ख़र्च हो जाएगा। तो वह कम पैसा दे पाएगी। उनकी ख़ुशियाँ कहीं कम ना हो जाएँ, तो अपनी ख़ुशी को त्याग दिया। बाक़ी दोनों सहेलियाँ पहले ही चली गईं। 

एक मेरा घर है। मेरे माँ-बाप हैं। भाई, बहन हैं। सारी बातें हो जाती हैं। पैसे की भी बात हो जाती है। लेकिन इतने सालों में कोई एक बार भी नहीं कहता कि तुम कब आओगी? या आओगे? शायद उनके पास मेरे लिए शब्द नहीं होते होंगे। कि आओगी कहें या आओगे। ये भाषा को बनाने वालों को क्या ये ध्यान नहीं था कि हम जैसे लोगों के लिए भी कोई शब्द बनाते। कि लोग हमें गे कहें या गी। आख़िर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ता यदि हम जैसों के लिए भी भाषा में हमें परिभाषित करने वाले भी शब्द होते। 

ना ऊपर वाले ने हमारे लिए कोई क्लियर स्पेस निर्धारित किया और ना नीचे वालों ने। लेकिन जब ऊपर वाले नहीं कर सके तो ये नीचे वाले कहाँ से करते। इनकी क्या ग़लती? हनुवा इन उलझनों में से निकलने की कोशिश करने लगी। जिससे सो सके। थकान से चूर हो रही थी। मगर दिल में घर की ओर से मिले ये शूल उसे ना सिर्फ़ बेध रहे थे। बल्कि जैसे बार-बार हिल-हिल कर दर्द और बढ़ा रहे थे। दर्द उसके उस अंग में भी आज ज़्यादा हो रहा था, जिसके कारण, ना वह इधर की थी ना उधर की। किधर की है इस पर भाषा तक मौन है। 

मगर माँ-बाप, वो क्यों मौन हैं? आख़िर मैं उनकी संतान हूँ। क्या यह सही है कि उनके बाक़ी बच्चों को किसी के ताने, किसी की हँसी, किसी की उपेक्षा ना सहनी पड़े, उनके बाक़ी बच्चों के शादी-ब्याह, कॅरियर पर कोई फ़र्क़, कोई आँच ना आए, इसलिए एक बच्चे की बलि दी जा सकती है। क्या यह फ़ॉर्मूला लागू होगा कि बाक़ी बच्चों के हित के लिए यदि एक बच्चे की बलि की आवश्यकता है तो उसे बेहिचक दे देना चाहिए। 

उसके मन की पीड़ा, उसके सारे दर्द से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। जैसे इस समाज को। और यदि यही करना था तो मुझे बचा कर क्यों रखा? मार डाला होता। यदि इसके लिए हाथ नहीं उठा पाए, नहीं हिम्मत जुटा पाए तो कम से कम हमें हमारे जैसे लोगों की दुनिया में जाने देते। वहाँ हम खुलकर अपने हिसाब से साँसें तो लेते। हँस-बोल तो सकते। 

कुछ छिपाने के लिए हर क्षण चिंतित तो नहीं रहना पड़ता। हनुवा के मन में प्रश्नों की झड़ी लगी थी कि आख़िर उसके साथ ऐसा क्यों किया गया? और लोगों की तरह मुक्त होकर क्यों नहीं रह सकती? उन्हीं की तरह नौकरी के लिए कहीं भी खुल कर ट्राई क्यों नहीं कर सकती? अन्य लड़कियों की तरह हर फ़ैशन के कपड़े, बिंदास कपड़े क्यों नहीं पहन सकती? हाँ लड़कियों की तरह। उसका मन लड़कियों की ही तरह तो तितली बन आज़ाद उड़ना चाहता है। उसका मन मचल-मचल उठता है। लड़कियों की तरह खिलखिलाने, उछलने-कूदने के लिए। मगर वह कर कहाँ पाती है यह सब। हमेशा सबसे छिपती-फिरती है। 

घर वाले भी तो बचपन से ही छिपाते आ रहे हैं। क्या-क्या जतन नहीं किए और करवाए मुझसे। और मैं भी कैसे-कैसे जतन करती रहती हूँ कि इस मन-आत्मा से पूर्ण एक लड़की, शरीर से भी हूँ ही। सिर्फ़ एक इस अंग को छोड़ कर। ईश्वर ने एक इस अंग के साथ भेद कर मेरी आत्मा, मन को हर क्षण रोने के लिए क्यों विवश कर दिया है? एक अंग पुरुषों का, बाक़ी शरीर, दिल लड़कियों का देकर आख़िर किस पाप की सज़ा दी है। 

या यह एक ह्यूमन एरर की तरह ही गॉड एरर है। जिसका परिणाम मैं भुगत रही हूँ। और एरर करने वाले को कोई फ़र्क़ नहीं। इस एक एरर से जान मेरी जा रही है। तीन दिन से दर्द के मारे रहा नहीं जा रहा है। कपड़े लूज़ पहनूँ तो पोल खुलने का डर। आख़िर क्या करूँ, कहाँ मरूँ जाकर? 

हनुवा सोना चाह रही थी, मगर दर्द जो अब काफ़ी बढ़ चुका था उसके कारण वह लेट भी नहीं पा रही थी। खाने के बाद दर्द बढ़ता ही जा रहा था। वह कभी बैठती, कभी लेटती, कभी कमरे में टहलती, टेस्टिकल में उठती दर्द की लहरों ने आख़िर उसके बर्दाश्त की सीमा तोड़ दी। वह कराह उठी। दर्द ऐसी जगह कि ना उसे कोई दवा सूझ रही थी। ना कोई और तरीक़ा। 

उसने सोचा ज़रूरत से बहुत ज़्यादा टाइट इनरवियर के कारण तो यह नहीं हो रहा तो बाथरूम में जाकर उसे भी उतार आई। ऐसा वह इसलिए करती आ रही है शुरू से जिससे कपड़े के ऊपर से भी कभी किसी को शक ना हो। मगर दर्द तो जैसे पीछे ही पड़ गया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई जिससे उसके कराहने की आवाज़ सांभवी को जगा ना दे। लेकिन आज तो ऐसा लग रहा था जैसे उसके साथ कुछ अशुभ होना तय है। दर्द इस क़द्र भयानक हुआ कि हनुवा सिर कटी मुर्गी सी तड़फ उठी, फड़फड़ा उठी। उसे अब इस तरह की किसी बात का ध्यान नहीं रहा कि सांभवी जाग जाएगी। 

आख़िर हुआ यही। उसके रोने कलपने की आवाज़ से सांभवी की नींद खुल गई। वह उसके पास कमरे में पहुँची और उसे एकदम से कंधों के पास पकड़ कर घबड़ा कर पूछा, “हनुवा, हनुवा क्या हुआ तुम्हें। तुम ज़मीन पर क्यों पड़ी हो?” सांभवी की आवाज़ सुन कर हनुवा की चैतन्यता अपनी सीक्रेसी को लेकर जैसे फिर सक्रिय हो उठी। उसने तड़पते हुए पेट में दर्द की बात कही। टेस्टिकल की बात एकदम छिपा गई। 

सांभवी ने उसे हाज़मे की एक दवा शीशी से निकाल कर दिया कि वह खा ले तो उसे आराम मिल जाएगा। लेकिन हनुवा ने मना कर दिया। क्यों कि दर्द सच में कहाँ है यह तो वही जानती थी। यह भी जानती थी कि उसे हाज़मे की दवा की नहीं उस दवा की ज़रूरत है जो उसके टेस्टिकल में हो रहे दर्द को ठीक कर सके। लेकिन कौन सी दवा चाहिए ये वो भी नहीं जानती थी। 

दर्द से उसके रोने कलपने को देख सांभवी घबरा उठी। उसने हनुवा से कहा कि वह थोड़ा धैर्य रखे, वह उसे हॉस्पिटल ले चलने की व्यवस्था करती है। लेकिन हनुवा ने उसे मना कर दिया। वह जानती थी कि डॉक्टर के पास जाते ही पोल खुल जाएगी। लेकिन दर्द ने जैसे उससे होड़ लगा रखी थी कि वह उसे हरा कर छोड़ेगा, वह उसकी पोल खोल कर रहेगा। दर्द और बढ़ गया। और भयानक हो गया। 

उसे लगा जैसे उसके यूरीन ट्रैक में काँच के कई टुकड़े रेंग रहे हैं। गहरे घाव कर कर के दर्द और बढ़ा रहे हैं। उसने अचानक ही महसूस किया कि उसे तेज़ पेशाब लग आई है। इतनी तेज़ कि तुरंत ना गई तो कपड़े ख़राब हो जाएँगे। वह हड़बड़ा कर उठी, सांभवी ने उसकी मदद की। वह किसी तरह दर्द से दोहरी होती। लड़खडा़ती टॉयलेट में घुस गई। इस हालत में भी वह अंदर से दरवाज़ा बंद करना ना भूली। 

पेशाब का प्रेशर इतना तेज़ था कि वह बड़ी मुश्किल से क्षण भर में कपड़े खोल सकी। लेकिन पेशाब करना चाहा तो लगा वह ट्रैक में ही क़रीब आकर फँस गया है। भयानक प्रेशर भी हो रहा था। और प्रेशर देने पर अंततः भयानक दर्द के साथ यूरिन ट्रैक को जैसे चीरती हुई दो-तीन बूँदें टपकीं। जिसे देख कर वह सहम उठी। वह यूरिन नहीं ब्लड था। पीड़ा कई गुना बढ़ गई। वह चीख पड़ी इस पर उसके और बल्ड निकल आया। तभी दर्द के कारण वह गिर गई। उसे लगा जैसे उस पर बेहोशी छा रही है। उसने कुछ सोच कर किसी तरह दरवाज़े की सिटकनी खोली, लेकिन निकलने की कोशिश में फिर लुढ़क गई। 

जिस रहस्य को रहस्य बनाए रखने के लिए उसने बरसों से इतना कुछ किया, अब उसे इस चीज़ की कोई सुध-बुध नहीं रही। वह कपड़े भी पहन ना पाई। उसके पेट तक का हिस्सा बाथरूम से बाहर कमरे तक आ चुका था। शेष बाथरूम में ही था। उसकी चीखों के कारण सांभवी दरवाज़े पर ही खड़़ी थी। वह घबड़ा कर उसे उठाने लगी। लेकिन बहुत कोशिश कर के भी वह उसे उठा नहीं पाई तो किसी तरह खींच-खाँच कर कमरे में ले आई। उसे कपड़े पहनाए। अब तक हनुवा पूरी तरह बेहोश हो चुकी थी। 

हनुवा को जब होश आया तो उसने अपने को एक हॉस्पिटल की एमरजेंसी में पाया। वह बेड पर थी। हाथ में ड्रिप लगी हुई थी और प्राइवेट पार्ट में कैथेटर। आँखों में उसकी बहुत जलन हो रही थी। उसे आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। वह बेहद छोटे से कमरे में थी। उसने उठना चाहा तो देखा उसके दोनों हाथ बेड की साइड रॉड से बँधे हुए हैं। शरीर पर लाइट मिलेट्री ग्रीन कलर की हॉस्पिटल की ड्रेस थी। ट्राउज़र और शॉर्ट टी-शर्ट जैसी शर्ट। 

बदन पर यह ड्रेस देखकर वह सकते में आ गई। यह क्या? फिर क्षण भर में उसके सामने रात का दृश्य उपस्थित हो गया। उसकी आँखें जैसे फटी जा रही थीं। वह रो पड़ी। आँसू ऐसे झरने लगे मानो बादल ही फट पड़ा हो। शर्म ऐसे महसूस कर रही थी कि जैसे वह भरे चौराहे पर हज़ारों की भीड़ में अचानक ही निर्वस्त्र हो गई है। 

अपने जिस तन को वह पिछले पचीस वर्षों से बड़े जतन से सबकी नज़रों से बचाती आ रही थी जिससे वह अपने विशिष्ट तन के कारण, समाज में उपेक्षा, ज़लालत, हिमाक़त सब से बची रहे। उसी रहस्य को इस मनहूस दर्द ने कैसे क्षण भर में बेपर्दा कर दिया। 

ना जाने किन-किन लोगों ने उसे किशोर के गाये इस गाने की तर्ज़ पर देखा होगा कि “चाँद की भी ना पड़ी जिनपे किरन, मैंने देखे उन हसीनों के बदन।” जिस बात को छिपाने के लिए उसने कितनी पीड़ा, कितनी तकलीफ़ें झेलीं, कपड़े पहनने, सोने, कहीं जाने, हर क्षण क्या-क्या नहीं किया। वह क्षण में व्यर्थ हो गया। सांभवी ने ना जाने किस-किस को बताया होगा। मैं तो कपड़े भी नहीं पहन पाई थी। इसने सभी फ़्रैंड को फ़ोन कर दिया होगा। उन सबने मेरे रहस्य को जान लिया होगा। रही-सही कसर यहाँ हॉस्पिटल में पूरी हो गई होगी। 

यहाँ का स्टॉफ़ ना जाने क्या सोच रहा होगा? सब मुझे झूठी धोखेबाज़ समझ कर गाली दे रहे होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सुबह के राउंड पर आते ही डॉक्टर, स्टॉफ़ मुझे डाँटे, निकाल बाहर कर दें। सांभवी नहीं दिख रही है। असलियत जानते ही भाग गई होगी। तो क्या मैं यहाँ अकेली ही पड़ी रहूँगी? यहाँ के बिल का क्या होगा? पता नहीं कौन सा ट्रीटमेंट किया है? कोई यहाँ कुछ बताने वाला नहीं है। अब क्या होगा? इस ज़लालत, शर्मिंदगी से तो अच्छा था कि मर ही जाती। सभी चले गए थे। ये सांभवी भी चली गई होती तो अच्छा था। सबके सामने पोल तो ना खुलती। वहीं कमरे में बेहोश पड़े-पड़े मर जाती। 

मगर ये भी मेरी तरह पैसे से हमेशा ख़ाली ही रहती है। हनुवा कमरे में एक छोटे से बल्ब की रोशनी में मन में उठ रहे बवंडर से तड़प उठी थी भीतर तक। उसे यह सोचते देर नहीं लगी कि इस नर्क ज़िन्दगी, सबसे कुछ छिपा कर जीने से अच्छा है कि मैं आत्महत्या कर लूँ। ऊपर चल रहा यह पंखा भी ज़्यादा ऊँचा नहीं है। बेड की यह चादर काम आ जाएगी। मगर तभी उसका ध्यान अपने बँधे हुए हाथों की तरफ़ गया तो वह बिलख पड़ी। वह बँधे हुए थे। वह कुछ नहीं कर सकती थी। वह विवश थी फिर से एक बार दुनिया का सामना करने के लिए। 

वह नहीं समझ पा रही थी कि अब वह पोल खुल जाने के बाद दुनिया का सामना कैसे करेगी? और यह दुनिया अब उसकी हक़ीक़त जानने के बाद उससे किस तरह का व्यवहार करेगी? क्या अब उस पर हँसी-ठिठोली अपमानजनक व्यवहार की बौछार होगी? क्या अब उसे कहीं नौकरी भी नहीं मिलेगी? सभी फ़्रैंड थूकेंगी उस पर कि मैंने उन सब को धोखा दिया। उनकी इज़्जत उनकी भावनाओं से खिलवाड़ किया। कोई आश्चर्य नहीं कि यह सब मिलकर मेरी पिटाई ही कर दें। या पुलिस में कंप्लेंट कर दें कि मैं मर्द जैसी कैपेसिटी की होकर उन सबको धोखा देकर साथ रही। उनके साथ लड़की बन कर रही। ये सब मुझे कई सालों के लिए जेल भिजवा सकती हैं।  

अपने बँधे हाथ को उसने छुड़ाने की कोशिश की लेकिन वो बड़ी मज़बूती से बँधे थे। ज़ोर लगाने पर जिसमें वीगो लगा था उसमें दर्द होने लगा। दूसरे में भी पूरा ज़ोर नहीं लगा पा रही थी। अपनी विवशता पर उसे रोना आ रहा था, विवशता से ज़्यादा उसे अकेलापन कचोट रहा था। घर की याद आ रही थी। लेकिन जब घर के लोगों की उपेक्षा, उसको लेकर उन लोगों का दिखावटी अपनापन याद आया तो दिल तड़प उठा कैसा घर? किसका घर? यहाँ पूरी दुनिया से मैं अपने को छिपाती फिरती हूँ। और घर वाले मुझसे छिपते फिरते हैं। 

उन सबके हावभाव से साफ़ पता चलता है कि वे नहीं चाहते कि मैं उन लोगों के पास पहुँचूँ। सब कितनी फ़ॉर्मेलिटी करते हैं। कहीं मैं उन सबको कुछ ज़्यादा ही तो परेशान नहीं करने लगी? वो सब मुझे अपनी ख़ुशियों पर लगा ग्रहण मानते हैं। मुझे अब यह सब समझना चाहिए। अपने स्वार्थ के लिए कब तक उनके लिए ग्रहण बनी रहूँगी। वो मुझसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। मैं ही पीछे पड़ी रहती हूँ। मगर लगता है कि अब समय आ गया है कि मैं बोल्ड स्टेप लूँ। उन सब लोगों से अब हमेशा के लिए सारे रिश्ते ख़त्म कर लूँ। 

बस एक बार जाकर किसी तरह और मिल लूँ। फिर कभी उस घर क्या, उस शहर की तरफ़ भी अब मुँह नहीं मोड़ूँगी। हनुवा बेड पर पड़े-पड़े आँसू बहाती रही, बँधे हुए हाथ बहुत परेशान कर रहे थे। उसने सोचा कि किसी को आवाज़ दूँ। बुलाऊँ और कम से कम हाथों को खुलवा तो लूँ। डॉक्टर, नर्स को जब आना होगा तब आएँगे। उसने दो-तीन बार आवाज़ दी “एस्क्यूज मी, कोई है?” मगर कोई रिस्पांस नहीं मिला। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने फिर आवाज़ दी तो दरवाज़ा खुला और उनींदी सी सांभवी अंदर आई। उसने आकर उसके सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा, “अब कैसी हो हनुवा?” 

हनुवा कुछ बोल ना सकी। वह सकपकायी सी सांभवी को देखती रही। सांभवी का व्यवहार उसकी सारी आशंकाओं के विपरीत अत्यंत प्यार, अपनत्व भरा था। हनुवा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले। उसकी आँखों से आँसू निकल कर पहले की तरह उसकी कनपटी भिगोते रहे। तो सांभवी बोली, “क्या हुआ हनुवा? इस तरह क्या देख रही हो? अब तबियत कैसी है?” इस बार हनुवा ने सिसकते हुए पूछा, “यहाँ मुझे तुम ले आई?” उसके होठ फड़क रहे थे। 

उसकी हालत देखकर सांभवी समझ गई कि हनुवा की इस समय असल परेशानी क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है? उसने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “मैं समझ रही हूँ तुम क्या सोच रही हो, क्या जानना चाहती हो? तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ भी किसी को कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। और होगी भी नहीं, क्यों कि उनको तो पैसों से मतलब है। 

“डॉक्टर के लिए पेशेंट सिर्फ़ पेशेंट होता है। और कुछ नहीं। और घर से मैं तुम्हें अकेले ही ले आई थी। एम्बुलेंस से। घर पर कपड़े मैंने ही पहनाए थे। हनुवा यह समय यह सब सोचने, परेशान होने का नहीं है। तुम पहले ठीक हो जाओ। घर चलो तब सोचना। फिर इसमें सोचना क्या है? बहुत से लोग हैं इस तरह से। दुनिया में सबकी तरह अपनी नॉर्मल लाइफ़ जी रहे हैं। 

“देखती नहीं कितनी हैं तुम्हारी जैसी, जो जज, विधायक, मेयर, प्रिसिंपल, पुलिस बनी हैं। अपनी परफ़ॉर्मेंस से बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ाए हुए हैं। मैं तो समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम अपनी फिज़िकल कंडीशन के कारण अपने को क्यों इतना टॉर्चर करती आ रही हो। मैं तुमसे इस बारे में बहुत पहले ही बात करना चाह रही थी। लेकिन तुम्हें जब ख़ुद को हद से ज़्यादा छिपाते देखती तो चुप हो जाती।” 

सांभवी की यह आख़िरी बातें सुनते ही हनुवा चौंकते हुई बोली, “क्या-क्या तुम?” 

सांभवी ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, “हनुवा जब तुम हम लोगों के साथ रहने आई थी तो तीन महीने बाद ही मैं बाइचांस ही तुम्हारे बारे में जान गई थी।” 

हनुवा चौंकी। उसने फटी-फटी सी आँखों से उसे देखते हुए पूछा, “क्या?” 

“हाँ हनुवा।” 

“तो तुमने उस समय कुछ कहा नहीं। मैं बड़े आश्चर्य में हूँ।” 

“हनुवा मैं इस समय भी कहाँ कुछ कह रही हूँ। तुम बेवजह परेशान हो रही हो।” 

“‘नहीं मेरा मतलब बाक़ियों ने भी कुछ नहीं कहा।” 

“बाक़ियों से मैंने कुछ बताया ही नहीं। वे सब कुछ नहीं जानती। हाँ मेरी ही तरह बाक़ी सब भी जान गई होंऔर मेरी ही तरह कुछ नहीं कहा तो मैं नहीं कह सकती। लेकिन मुझे पक्का यक़ीन है कि वे सब नहीं जानतीं। क्योंकि उन सबने मुझसे इस बारे में आज तक कोई बात नहीं की। इसलिए तुम निश्चिंत रहो।” 

“‘मगर तुम, तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आया कि मैंने . . . “

“हनुवा पहले ठीक हो जाओ, घर चलो तब यह सब बातें करना कि मुझे ग़ुस्सा आया या नहीं आया, मैं क्यों अब तक चुप रही? आगे रहूँगी या नहीं? आगे क्या होगा? यह सब घर चल कर। हाँ इतना ज़रूर कहूँगी कि तुम बिल्कुल शांत रहो। कोई टेंशन लेने की ज़रूरत नहीं। किसी तरह की कोई प्रॉब्लम नहीं है। जो होगा, अच्छा ही होगा।” 

सांभवी ने यह कहते हुए एक बार फिर उसके सिर को प्यार से सहला दिया। हनुवा को लगा कि जैसे ना जाने कितना बड़ा बोझ सांभवी के स्पर्श ने उतार दिया। आँखें उसकी फिर भर आई थीं। तभी दरवाज़ा हल्की सी आवाज़ के साथ खुला। डॉक्टर नर्स के साथ आए। उससे हाल-चाल पूछा। चेकअप किया। और चले गए। वह बड़ी जल्दी में दिख रहा था। 

हनुवा को फिर आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर, नर्स ने भी कुछ नहीं कहा। नर्स ने बड़े यंत्रवत ढंग से उसके हाथ खोले थे। ड्रिप निकाल दी थी। वीगो भी। वहाँ एक बैंडेज लगा दिया था। हनुवा इतनी हैरान, परेशान थी, सहमी हुई थी कि सांभवी से पंद्रह मिनट की बातचीत के दौरान कई बार मन में आने के बाद भी हाथ खोलने के लिए कहने की हिम्मत नहीं कर सकी थी। 

दिन में क़रीब तीन बजे तक उसे डिस्चार्ज कर दिया गया। उसे दवाएँ वग़ैरह दे दी गईं। कुछ दवाएँ बाहर से लेनी थीं। एक हफ़्ते बाद फिर आकर चेकअप कराना था। उसकी किडनी में दो से तीन एम। एम। तक के कई स्टोन थे। उन्हीं के कारण यह भयानक दर्द उठा था। शाम को वह सांभवी के साथ घर पहुँची। हनुवा बहुत थकान और कमज़ोरी महसूस कर रही थी। सांभवी ने उसे एक गिलास संतरे का जूस दिया। आते समय वह लेते हुए आई थी। दवाएँ भीं। हनुवा बेड पर लेटने की बजाय बैठी रही तो सांभवी ने कहा, “लेट जाओ। आराम करो।” 

हनुवा ने कहा, “नहीं लेटने का मन नहीं हो रहा है। तुम भी तो कल से थकी हो।” 

“हाँ . . . लेकिन मेरी और तुम्हारी थकान में फ़र्क़ है। और मैं यह भी जानती हूँ कि तुम लेटना क्यों नहीं चाहती। तुम अब बेचैन क्यों हो?” सांभवी की बात सुनकर हनुवा कुछ देर चुप रही, बैठी रही अपनी जगह। इस बीच सांभवी ने दूसरे कमरे में जाकर कपड़े चेंज किए। हॉस्पिटल जिन कपड़ों में गई थी उन्हें बाथरूम में डाला। हनुवा को भी एक सेट कपड़ा लाकर देते हुए कहा, “चेंज कर लो। फ़्रेश महसूस करोगी।” 

हनुवा ने उसे प्रश्न भरी निगाहों से देखते हुए कपड़े लिए तो सांभवी ने पूछा, “ऐसे क्या देख रही हो?” 

“मैं . . . मैं ये पूछ रही थी कि हॉस्पिटल में कितना पैसा लगा। कैसे मैनेज किया तुमने।” 

“थोड़ा आराम करने के बाद पूछती। इतनी जल्दी क्या है?” 

“नहीं सांभवी मैं बहुत बेचैन हो रही हूँ।” 

“अच्छा! ऐसा है कि हॉस्पिटल में क़रीब दस हज़ार लग गए। ये प्राइवेट हॉस्पिटल वाले ट्रीटमेंट के नाम पर लूटते हैं। मामूली सा हॉस्पिटल था फिर भी इतना पैसा ले लिया। उस समय तुम्हारी हालत देखकर मैं घबरा गई थी। इसलिए जैसे ही यह हॉस्पिटल नज़र आया यहीं पहुँच गई। एम्बुलेंस की मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी आ जाएगी। मगर मौक़े से सब होता गया। और तुम हॉस्पिटल पहुँच गई।” 

“और पैसे? वह कैसे मैनेज किए?” 

“वह भी बाइचांस ही समझो। पाँच हज़ार तो मैंने तुम्हारे पर्स से ही निकाले। वही जो तुम्हें कल ही उस कंपनी से मिले थे। क़रीब चार हज़ार मेरे पास थे। मैं आज ही यह पैसे भी घर भेजने वाली थी। मगर तुम्हारी हालत देखकर प्लान बदल दिया। बाक़ी पाँच हज़ार ऊपर वाली फ़्रेंड से लिए वह सब भी आज ही अपने घर चली गईं। 

“सभी ने त्योहार की वजह ज़्यादा पैसे नहीं दिए। लेकिन फिर भी सबने थोड़े-थोड़े दिए तो पाँच हज़ार हो गए। उससे काम चल गया। अभी मेरे पास क़रीब डेढ़ हज़ार रुपए और हैं। आगे हफ़्ते भर की दवाओं का तो काम चल जाएगा लेकिन उसके बाद भी अगर दवा चली तो कुछ और इंतज़ाम करना पड़ेगा। बाक़ी खाने-पीने का भी सारा सामान ख़त्म ही है।” 

सांभवी की बात सुनकर हनुवा की आँखें भर आईं। वह बड़ी देर तक बुत बनी रही। फिर बोली ‘सांभवी तुम सबका यह अहसान कभी ना भूलूँगी। तुमने तो जिस तरह से मैनेज किया उसके लिए तो वर्ड्स ही नहीं निकल पा रहे हैं। तुमने तो फ़्रैंड नहीं एक पैरेंट्स का रोल प्ले किया है। तुम ना होती तो मैं निश्चित ही ना बच पाती।” कहते-कहते हनुवा भावुक हो गई। गला रुँध गया। आँखें भर गईं। उसे इतना भावुक देखकर सांभवी भी भावुक हो गई। वह उसके क़रीब जाकर बोली, “क्या हनुवा, ये तुम क्या अहसान-वहसान लेकर बैठ गई। 

“अरे हम एक जगह रहते हैं, एक दूसरे की हेल्प हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? घर वाले तो यहाँ रहते नहीं। यहाँ तो हमीं लोग एक दूसरे के फ़्रेंड, नेबर, पैरेंट्स सब कुछ हैं। तो हम एक दूसरे की हेल्प नहीं करेंगे तो कौन करेगा? और इतना टेंशन करने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें ऐसी कोई बीमारी नहीं है कि जान चली जाए। मामूली सी स्टोन की बात है। वो भी दो-तीन एम.एम. के हैं। बाक़ी पैसों की जो प्रॉब्लम है वह भी देखी जाएगी। हमेशा ऐसा ही तो नहीं चलता रहेगा ना। अब तुम लेटो, आराम करो।”

सांभवी की बात सुनकर हनुवा एकदम से कुछ ना बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद बात को बदलते हुए बोली, “तुम घर कब जाओगी?” हनुवा को सांभवी एक दिन पहले ही बता चुकी थी कि वह नहीं जा रही। लेकिन फिर भी हनुवा के मुँह से यह अचानक ही निकल गया। हनुवा की यह बात सुनकर सांभवी के चेहरे के भाव बदल गए। वह तुरंत कुछ ना बोल पाई। कुछ देर चुप रही तो हनुवा ने फिर पूछा, "क्या हुआ? तुम ऐसे चुप क्यों हो?” तो सांभवी ने कहा, "अब क्या बताऊँ? घर जाने की पूछ रही हो। मगर अब मुझे घर जाने की बात सोच कर ही डर लगने लगता है।”

“घर जाने से डर लगने लगा है? क्या कह रही हो? ऐसा क्या हो गया?” 

“हाँ हनुवा। जैसे ही वहाँ जाने की बात आती है वैसे ही मैं घबरा उठती हूँ। मन घबराने लगता है। वहाँ भाई-बहनों, पैरेंट्स और टूटते जा रहे मकान की हालत परेशान कर देती है। जब तक यहाँ रहती हूँ तब तक कुछ रिलैक्स महसूस करती हूँ। या जब तक घर भूली रहती हूँ। याद आती है तो घबरा उठती हूँ। पापा रिटायरमेंट के क़रीब पहुँच रहे हैं। फ़ाइनेंशियल क्राइसेस इतना है कि मदर की तबियत बराबर ख़राब रहती है। लेकिन उनके ट्रीटमेंट के लिए पैसा नहीं है। मेंटीनेंस ना होने के कारण मकान टूटता जा रहा है। जाती हूँ तो यह सारी बातें लगता है जैसे मुझे नोच रही हैं। 

“पापा की हालत देखती हूँ। उनके चेहरे पर इन सारी समस्याओं के लिए जो तड़फड़ाहट देखती हूँ उससे दिमाग़ की नसें फटने लगती हैं। वो लोग हँसना-बोलना तो जैसे भूल ही गए हैं। पापा तो गंभीरता की मूर्ति बन गए हैं। बड़ा से बड़ा जोक सुना डालो लेकिन हँसी तो छोड़ो उनके चेहरे पर मुस्कान की लकीर भी पूरी नहीं बनती। मुझे लगता है जैसे हम सारे बच्चे पैरेंट्स के लिए ख़त्म ना होने वाली मुसीबत बन गए हैं। जब तक घर पर रहो, माँ से बात करो तो वो हम सबके भविष्य को लेकर इस क़द्र परेशान रहती हैं कि बस यही कहेंगी, ”तुम तीनों की शादी का क्या करूँ? कहाँ करूँ?” जब पापा-अम्मा बैठते हैं अकेले तो भी उनके बीच घूम फिर कर बातें हमारी शादी पर ही केंद्रित होती हैं। वो लोग तब से और ज़्यादा परेशान, डरे रहते हैं जब से पास ही की एक फ़ैमिली की लड़की किसी के साथ भाग गई। उस फ़ैमिली की भी फिनांशियल कंडीशन हमारे ही जैसी थी।” 

यह कह कर सांभवी फिर भावुक हो गई थी। हनुवा ने उसके चुप होते ही कहा, “कोई भी पैरेंट्स बच्चों की शादी को लेकर आख़िर क्षण तक हार नहीं मानता। वो हमेशा ही इसी कोशिश में रहते हैं कि बस बच्चों की शादी हो जाए। हाँ आस-पास की ऐसी घटनाएँ हर संवेदनशील माँ-बाप को परेशान करती ही हैं। तुम्हारे पैरेंट्स भी इसी तरह कोशिश में लगे ही होंगे। उन्होंने हार नहीं मानी होगी।” 

हनुवा की बात पर सांभवी बड़ी उदासी भरी मुस्कान के साथ बोली, “हमें रियलिटी को फ़ेस करने की भी आदत डालनी चाहिए हनुवा। जो सच है उसे मान लेना चाहिए। आख़िर उससे आँखें चुराने से क्या सचाई बदल जाएगी? मैं अपने पैरेंट्स से कई बार बोल चुकी हूँ कि घर की जो कंडीशन है उसे एक्सेप्ट करिए। 

“हम एक भी शादी का ख़र्च उठाने के क़ाबिल नहीं हैं, इस लिये आप हमारी चिंता छोड़ कर निश्चिंत हो कर जिएँ। उस बारे में सोचना ही क्या जो हमारे वश में नहीं है। लेकिन वो लोग समझते नहीं। एक हारी हुई लड़ाई को लड़ते हुए ख़ुद को ख़त्म किए जा रहे हैं। हनुवा मैंने शादी, हसबैंड, बच्चे इन सारी बातों के बारे में तभी से सोचना बंद कर दिया है जब से यह समझने लायक़ हुई कि एक लोअर इंकम ग्रुप के व्यक्ति के लिए अपने तीन-चार बच्चे पालना कितना कठिन है। 

“इज़्ज़त के लिए एवरी टाइम लड़ते रहने वाले इन लोगों के लिए इस डॉवरी इरा में अपनी एक भी लड़की की शादी कर पाना उतना ही मुश्किल है जितना किसी इक्पयुमेंट के बग़ैर पानी पर चलना। तैरना नहीं। ऐसे में तीन लड़कियों की शादी के बारे में सोचना मेरी नज़र में किसी पागलपन से कम नहीं है। और जिस दिन मेरी समझ में यह आया मैंने उसी दिन से मैरिड लाइफ़, फ़ैमिली के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। 

“यह मान लिया कि यह जीवन ऐसे ही बीतेगा। क्यों कि अपने देश में डॉवरी लेने की मानसिकता पूरे समाज का एक जींस बन चुकी है। जो किसी क़ानून, या गोली से नहीं बदलने वाली। इसे जैसी एजूकेशन से बदला जा सकता है, वह हमारे यहाँ है ही नहीं। और हो भी जाएगी तो मानसिकता बदलने में दो जनरेशन तो कम से कम निकल ही जाएगी। अब तुम्हीं बताओ ऐसे में कोई स्कोप नज़र आता है तुम्हें। कोशिश तो मेरे पैरेंट्स जब हम बहने सत्तरह-अठारह की हुई तभी से कर रहे हैं। देखते-देखते दस साल बीत गए। लेकिन तब जहाँ से स्टार्ट हुए थे आज भी वहीं के वहीं खड़े हैं। 

“हनुवा मैं ये सोच कर परेशान होती हूँ कि मैंने तो यह डिसाइड कर लिया है। लेकिन दोनों बहनों का क्या करूँ? पता नहीं वो दोनों मेरी तरह कोई निर्णय ले चुकी हैं। या अब भी शादी का सुंदर सपना लिए जीए जा रही हैं। मेरी तरह वह दोनों भी जानती है कि डॉवरी के लिए पैंरेंट्स के पास पैसे नहीं हैं। और उसके बिना शादी होनी नहीं। उन बेचारियों की भी लाइफ़ बस यूँ ही ख़त्म हो जाएगी। उन दोनों को लेकर मैं यह सोच कर भी परेशान होती हूँ कि वह इन्हीं बातों के चलते कहीं पड़ोस वाली लड़की की तरह कोई क़दम ना उठा बैठें।” 

“लेकिन सांभवी मैं तो समझती हूँ कि इस डॉवरी का जवाब यही है कि लड़के लड़कियाँ लव मैरिज कर लें।” 

“ऐसा होता तो कितना अच्छा होता हनुवा, मैं ख़ुद कर लेती। पैरेंट्स की सारी टेंशन दूर कर देती। लेकिन उधर जहाँ डॉवरी की समस्या है, वहीं इधर धोखाधड़ी की भी प्रॉब्लम है। लव के नाम पर आगे बढ़ते हैं, लड़की को यूज़ करते हैं फिर डिस्पोज़ेबल गिलास की तरह फेंक कर दूसरी पकड़ लेते हैं। लड़की विरोध करती है तो मार देते हैं। एसिड डाल देते हैं। ब्लू फ़िल्म बना कर ब्लैक-मेल करते हैं। पॉर्न इंडस्ट्री में ये फ़िल्में डाल कर वहाँ से पैसे कमाते हैं। व्हाट्स ऐप पर डाल देते हैं। इतना ही नहीं अपने रीलिजन भी बदल कर फँसाते हैं। फिर रीलिजन चेंज करने को विवश करते हैं, ना करो तो मार डालते हैं। इधर डॉवरी की आग है। तो दूसरी तरफ़ भी यही है। मैरिड लाइफ़ की ख़ुशियाँ पाने के लिए जो लाइफ़ है उस को ही रिस्क में डालने से मैं बचना चाहती हूँ बहनें क्या करेंगी ये वो ही जाने, मैं बड़ी होने के बावजूद उनसे ऐसी कोई बात डिस्कस नहीं करती। क्योंकि दोनों ही मुझसे कभी-कभी इतना रफ़ बोल देती हैं कि मन नहीं करता कि बात करूँ। 

“कुछ साल पहले पढ़ने-लिखने के लिए मैंने कुछ बात की थी। तो छोटी ने जिस बदतमीज़ी से बात की उसके बाद से मैं हिम्मत नहीं कर पाती। हनुवा मैं सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि जब तक पैरेंट्स हैं तब तक ही मेरा घर से रिलेशन है। उनके बाद मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती कि भाई-बहन कोई रिलेशन रखेंगे। अभी से तीनों मुझसे ठीक से बात तक नहीं करते तो आगे क्या करेंगे?” 

सांभवी अपनी बात पूरी करते-करते भावुक हो उठी। उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे थे। उसकी हालत से ऐसा लग रहा था जैसे वह बरसों से भरी बैठी थी। मगर वह किसके सामने अपनी बात कहे, कब कहे कभी उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आज संयोगवश ऐसे हालात बने कि उसका गुबार फूट पड़ा। वह रोक ना सकी। और कह दिया। लेकिन उसके मन में जो भरा था वह कुछ ही निकल पाया। जो अतिरिक्त प्रेशर था वह सेफ़्टी वॉल्व के रास्ते निकल गया। मगर शेष उसके मन में, उसके अंदर भरा ही रहा। 

वह अपने फ़ोल्डिंग बेड पर एकदम निश्चल बनी बैठी रही। हनुवा के सिर के ऊपर दीवार पर एकटक ऐसे देखती रही जैसे वहाँ बने किसी बिंदु पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रही हो। और हनुवा उसे अचरज भरी निगाहों से देखती रही। कि ऐसी हँसमुख, हमेशा ख़ुश रहने वाली लड़की के अंदर इतना दुख इतना मैग्मा भरा हुआ है। फिर भी यह कैसे हँसती मस्त रहती है। यह आख़िर किस मिट्टी की बनी है? आज इस समय भी अपनी घुटन को ये पूरा कहाँ ओपन कर रही है। लगता है जैसे आवेश में आकर सब कुछ बोलने वाली थी। लेकिन फिर ख़ुद को सँभाल लिया। और फिर से ख़ुद में क़ैद हो गई। इतना टेंशन इसके लिए अच्छा नहीं है। इसका दिमाग़ इस समय कहीं और ट्रांसफ़र करना ज़रूरी है। यह सोचते ही हनुवा ने कहा ‘सांभवी . . . ’ अपना नाम सुनते ही सांभवी हनुवा की तरफ़ देखते हुए धीरे से बोली, “हूँ।“

हनुवा ने उसे बड़े प्यार, स्नेह से देखते हुए कहा, “सांभवी तुम मेरी वजह से कल से ठीक से खा-पी नहीं सकी हो। थकी भी बहुत हो। मैं सोच रही थी कि तुम इस समय कुछ बनाने के झंझट में नहीं पड़ो। मार्केट से ही अपनी पसंद का कुछ चटपटा सा खाने को ले आओ। मेरे लिए कुछ सादा सा ले लेना।” 

हनुवा की बात सुन कर सांभवी ने कहा, “अरे तुम भी कैसी बात करती हो। मैं थकी-वकी नहीं हूँ। मैं बना लूँगी। सॉरी तुम्हें भूख लगी होगी मैं बातों के चक्कर में भूल ही गई। थोड़ा जूस रखा हुआ है। मैं तुम्हें देती हूँ। उसके बाद जल्दी से बनाती हूँ कुछ।” 

“नहीं सांभवी मुझे भूख नहीं लगी है। मैं तो तुम्हारे लिए कह रही हूँ। थकी हो बाहर ही से ले आओ कुछ।” 

“हनुवा मुझे तुम्हारी दवा की चिंता है। मैं पैसे बचा कर रखना चाहती हूँ। तुम बेवजह टेंशन ले रही हो। मैं बना लूँगी।” 

लेकिन हनुवा की ज़िद के आगे सांभवी को मानना पड़ा। वह बाहर से अपने लिए मसाला डोसा ले आई। और हनुवा के लिए पैक्ड फ्रूट जूस ले आई। पाइन एप्पल का। और बिल्कुल सादी, दाल रोटी, चावल भी। साथ ही सांभवी ने डिश टीवी का भी पेमेंट किया। वो आज ही बंद होने वाला था। वह अपने अंदर चल रहे द्वंद्व से बचना चाह रही थी। सोचा नींद जल्दी आएगी नहीं। टीवी भी नहीं चलेगा तो मारे टेंशन के रात काटनी मुश्किल हो जाएगी। हनुवा तो दवा खा कर सो जाएगी। 

दोनों ने साथ खाया। हनुवा ने दवाओं से ख़राब हो चुकी ज़बान का टेस्ट बदलने के लिए सांभवी से डोसा का थोड़ा हिस्सा ले लिया था। अब टीवी चल रहा था। सांभवी ने जो चैनल ऑन किया था उस पर उस वक़्त फ़ीयर फ़ैक्टर कार्यक्रम चल रहा था। जिस में चार-मेल, चार फ़ीमेल कंस्टेस्टेंट हिस्सा ले रहे थे। उन्हें स्टंट के कई स्टेप क्रॉस करने थे। हनुवा को यह प्रोग्राम पसंद था। उसने सांभवी से यह प्रोग्राम चलने देने के लिए कहा। सांभवी ने वही प्रोग्राम चलने दिया। 

सच यह था कि दोनों की नज़रें टीवी पर थीं। लेकिन मन में उनके कुछ और चल रहा था। कुछ ऐसा जो उन्हें भीतर ही भीतर विचलित कर रहा था। सांभवी अपने जीवन में उजाले की किरण किधर से आएगी उस दिशा को तलाशने में लगी थी। मगर हनुवा की हालत कुछ और थी, वह सांभवी से यह पूछना चाहती कि उसने कब कैसे जान लिया कि वह वास्तव में कैसी है? क्या है? जब जान गई तो क्यों चुप रही? क्या वजह है कि वह बात को बिल्कुल पी गई, कभी डिस्क्लोज़ नहीं किया। 

मुझसे सबसे ज़्यादा यही बात करती है। लेकिन बातचीत में कहने को भी कोई ऐसा इंडीकेशन कभी नहीं दिया कि डाउट होता। और आख़िर मुझसे कब ऐसी लापरवाही हो गई कि यह मेरे जीवन का सबसे सीक्रेट रहस्य जान गई। वह बड़ी देर तक सांभवी से पूछने की हिम्मत जुटाने के बाद बोली, “सांभवी एक बात पूछूं।” 

टीवी की तरफ़ नज़र किए अपने में खोई सांभवी धीरे से बोली, “हूँ पूछो।” 

लेकिन हनुवा संकोच में चुप रही तो सांभवी ने फिर कहा, “पूछो, हनुवा इतना संकोच क्यों कर रही हो?” 

“नहीं मैं . . . मैं सोच रही हूँ कि तुम अपसेट ना हो जाओ। मैं सच कहती हूँ कल से मैं यह सोच कर भी डर जाती हूँ कि कहीं तुम नाराज़ हो गई तो मैं यहाँ किसे अपना कहूँगी? मैं तो इस अँधेरी दुनिया में बिल्कुल अकेली हो जाऊँगी।” हनुवा की इस बात ने सांभवी को कुछ पसोपेश में डाल दिया। उसने हनुवा को देखते हुए कहा, “अरे हनुवा ऐसी क्या बात है? तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?” इतना कहती हुई वह उठकर हनुवा के पास पहुँची, उसके दोनों कंधों को प्यार से पकड़ कर पूछा, “बताओ हनुवा क्या बात है? क्यों इतना परेशान हो?” सांभवी हनुवा के ही पास बैठ गई। 

“सांभवी तुमने कहा था कि मेरे यहाँ आने के कुछ दिन बाद ही तुम मेरे बारे में जान गई थी। लेकिन कैसे? मैं तो ख़ुद को ख़ुद में इतना भीतर क़ैद किए रहती थी। फिर कैसे जान गई? तुम्हारे अलावा और किसको-किसको मेरे इस सच के बारे में पता है।” 

“ओफ्फो . . . हनुवा तुम अभी भी इसी बात में उलझी हो। आराम करो ना।” 

“प्लीज सांभवी, मुझे सच-सच बताओ ना। बता दोगी तभी मैं रिलैक्स हो पाऊँगी। आराम तो ख़ैर मेरे जैसों को जीवन में कहाँ मिलता है।” 

हनुवा के आग्रह से सांभवी समझ गई कि यह सच कह रही है। यह सारी बात जानने के बाद ही रिलैक्स हो पाएगी, इसकी मुश्किलें इतनी हैं कि यह इस एक और प्रेशर से और ज़्यादा परेशान होगी? वह बोली, “तुम इतना परेशान हो रही हो तो बता रही हूँ। 

“उस दिन मैं गुरुग्राम गई थी। एक इंटरव्यू देने। ऐड में कंपनी के बारे में जिस तरह दिया गया था उससे मैंने समझा कि बड़ी कंपनी है। अच्छा पैकेज देगी। वॉक इन इंटरव्यू था। मगर जब पहुँची तो मैंने अपने को बिल्कुल ठगा पाया। कंपनी की बर्बाद हालत देख कर लगा कि इससे बढ़िया तो जहाँ हूँ वही सही है। मैं बिना इंटरव्यू दिए लौट आई। बाहर इतनी गर्मी इतनी तेज़ धूप थी कि मुझे लग रहा था कि जैसे मैं झुलस गई हूँ। पसीने से सारे कपड़े भीग गए थे। लू ना लग जाए इससे भी डरी जा रही थी। क्यों कि उसके पिछले ही साल लू लगने से तबियत बहुत ख़राब हो गई थी। 

“मैं कंपनी को मन ही मन गाली देते, यहाँ पहुँची। दरवाज़ा खोला तो देखा कि पंखा पूरी स्पीड में चल रहा है और तुम गहरी नींद में सो रही हो। पसीने से भीगी होने के कारण मुझे पंखे की हवा बहुत अच्छी लग रही थी। मैं कुछ देर पंखे के एकदम नीचे खड़ी हो गई। तभी मेरी नज़र दुबारा तुम पर गई। तुम बिल्कुल चित्त हाथ-पैर फैलाए बेसुध सो रही थी। पंखे की तेज़ हवा से तुम्हारे बाल इधर-उधर फैले हुए थे। तुम उस वक़्त इतनी इनोसेंट लग रही थी कि क्या बताऊँ। जो भी होता वह कुछ देर तो ज़रूर देखता रह जाता। 

“अचानक मेरी नज़र तुम्हारे चेहरे से हट कर नीचे गई तो मैं एकदम शॉक्ड रह गई। तुम्हारे कुर्ते का निचला हिस्सा पंखे की हवा से मुड़ कर ऊपर हो गया था। और तुमने शायद ब्रीफ़ भी नहीं पहना था, और वहाँ अचानक ऐसा कुछ देखा कि मैं हक्का-बक्का रह गई। एक बार तो मैं सशंकित हुई कि मैं कहीं किसी दूसरे घर में तो नहीं आ गई। कुछ क्षण तो यक़ीन नहीं हुआ। मैंने नज़रें गड़ा दीं। मगर समझ नहीं पा रही थी। पता नहीं तुम उस समय कोई वल्गर सपना देख रही थी, या तुम्हें वॉशरूम जाने की बेहद सख़्त ज़रूरत थी। तुम्हारा प्राइवेट पार्ट इस बुरी तरह उठा हुआ था कि मैं देख कर एकदम सकते में आ गई। यक़ीन करने के लिए मुझे कई बार देखना पड़ा। मैं . . . सच बताऊँ हनुवा उस समय मैं ग़ुस्से से एकदम पागल हो रही थी। मन कर रहा था कि वहीं पास में रखा पानी का जग उठाऊँ और उसी से तुम्हारे चेहरे पर बार-बार मारूँ। 

“जिस मुँह से तुमने हम सब को धोखा दिया, झूठ बोला। उसे ही तोड़ दूँ। एक मर्द होकर हम लड़कियों के साथ गर्ल्स हॉस्टल में रह रही हो। हम सबके साथ सोते में या ना जाने कब क्या किया हो? मगर तुम्हारी स्ट्रोंग बॉडी के सामने डरी रही। अकेले होने का डर अलग था। हनुवा अगर बाक़ी तीनों भी साथ होतीं तो सच कह रही हूँ कि मैं हाथ उठा देती। ग़ुस्से में क्षण भर में ना जाने कितनी बातें दिमाग़ आती चली जा रही थीं। फिर मैं कभी तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे ब्रेस्ट तो कभी उस पार्ट को देखती। अचानक ब्रेस्ट देखते-देखते यह समझ पाई कि तुम ना मेल हो, ना फ़ीमेल, तुम तो . . .” 

सांभवी इसके आगे ना बोल पाई। उसकी आँखें भर आई थीं। और हनुवा की आँखें भरी नहीं . . . उनसे आँसुओं की धार बह रही थी। सांभवी को बात अधूरा छोड़ता देख उसने उसे पूरा करते हुए कहा, “मैं तो . . . हिजड़ा . . . हूँ . . .” 

हनुवा इसके आगे ना बोल सकी। वह अपने घुटनों के बीच चेहरा कर फूट-फूट कर रो पड़ी। सांभवी ने उसे चुप कराने की कोशिश की लेकिन हनुवा रोती ही जा रही थी। घुटनों से सिर ऊपर कर ही नहीं रही थी। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गईं। हनुवा इसके आगे ना बोल सकी। वह अपने घुटनों के बीच चेहरा कर फूट-फूट कर रो पड़ी। सांभवी ने उसे चुप कराने की कोशिश की लेकिन हनुवा रोती ही जा रही थी। घुटनों से सिर ऊपर कर ही नहीं रही थी। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गईं। 

सांभवी बड़ी देर में उसे चुप करा सकी। उसे पानी पिलाया। फिर बोली, “हनुवा तुम इतना सेंटी हो जाओगी मुझे मालूम होता तो मैं कभी कुछ ना कहती। जैसे इतने दिन कभी कुछ नहीं कहा। आगे भी ना कहती।” 

“सांभवी तुम्हीं बताओं मैं क्या करूँ? बचपन से हर क्षण घुट-घुट कर जी रही हूँ। हमेशा दुनिया से अपने को छिपाते-छिपाते घूम रही हूँ। हर साँस में यही डर कि कोई जान ना जाए। लेकिन फिर भी सब बेकार। दुनिया की नज़रों से बच नहीं पाती। तुम जान गई। ऐसे ही और ना जाने कितने लोग जानते होंगे। तुमने तो पता नहीं क्यों कुछ नहीं कहा। ऐसा क्यों किया? क्या मुझ पर दया आ गई थी? बताओ ना सांभवी तुम क्यों कुछ नहीं बोली? क्या बात थी?” 

सांभवी नहीं चाहती थी कि इस टॉपिक पर और आगे बात की जाए। उसे लग रहा था कि इससे हनुवा और दुखी होगी। लेकिन उसके आग्रह में इतनी निरीहता, इतनी पीड़ा समाई हुई थी कि वह चाहकर भी बातों के रुख़ को बदलने की कोशिश ना कर सकी। उसे लगा कि इस समय हनुवा के हर प्रश्न का उत्तर देकर ही उसे शांत कर सकती है। इसे तभी शान्ति मिलेगी। नहीं तो यह और भी ज़्यादा टेंशन में रहेगी। 

यह सोचते ही उसने कहा, “हनुवा हुआ यह कि तुम्हारी सचाई जान कर मुझे जितनी तेज़ ग़ुस्सा आया था वह उसी तरह देखते-देखते ख़त्म भी हो गया। 

“मेरी नज़र जैसे ही तुम्हारे चेहरे पर जाती मेरा ग़ुस्सा एकदम कम होता जाता। तुम्हारे चेहरे पर उस समय मुझे इतनी मासूमियत दिख रही थी कि मैं बता नहीं सकती। जैसे कोई छोटी सी क्यूट सी बच्ची हो। 

“जैसे किसी छोटे से बच्चे को देखकर, प्यार करने, उसे गोद में लेने खिलाने का मन होता है ना मेरा मन तब कुछ वैसा ही होने लगा। ग़ुस्सा एकदम ग़ायब हो गया। मैं बैठ गई। थकान मेरी पता नहीं कहाँ चली गई। मैं सोचने लगी कि आख़िर ये कैसा मज़ाक भगवान ने किया है। पूरा शरीर इतना ख़ूबसूरत बनाया, चेहरे पर इतनी मासूमियत भोलापन, मगर साथ ही यह क्यों कर दिया कि आदमी हमेशा टेंशन में रहे। उसकी हर साँस तकलीफ़ में गुज़रे। 

“आख़िर इतनी पेनफुल लाइफ़ लेकर कोई कैसे जिएगा? मेरे मन में फिर तुम्हारे लिए यह फ़ीलिंग आई कि तुम्हारे लिए जो भी हेल्प हो सके मैं वह ज़रूर करूँ। तुमने अपनी एक्चुअल पोज़ीशन छिपाई तो इसके पीछे कोई रीज़न होगा। तुमने दुनिया के सामने अपने को तमाशा बनने से रोकने के लिये ही ख़ुद को छिपाया। इसलिये मैंने सोचा जैसे भी हो तुम्हें कोई तकलीफ़ ना हो। 

“इसीलिए मैंने उसी समय डिसाइड कर लिया कि कभी किसी से भी डिस्क्लोज़ नहीं करूँगी। तुमसे भी कभी डिस्कस नहीं करूँगी। जिससे तुम्हें कष्ट हो। बस इसीलिए नहीं बोली।” 

सांभवी की बात सुनकर हनुवा अवाक्‌ सी उसे एकटक देखती रही। भावुकता से उसकी आँखें फिर भर आईं। आँसू फिर बह चले। उसने क़रीब-क़रीब सिसकते हुए कहा, 
“तुम मेरा इतना ध्यान रखती हो। मैंने कभी सोचा भी नहीं। इतना प्यार मुझे किसी फ़्रेंड से मिलेगा वो भी इतने कम समय में, ये तो वाक़ई मेरे लिए आश्चर्यजनक ख़ुशी है। जानती हो सांभवी मेरी तकलीफ़ इतनी ही नहीं है। मेरी सबसे बड़ी तकलीफ़ तो यह है कि मैं अपना दर्द किसी से शेयर भी नहीं कर पाती। माँ तक ने मुझसे बात करना छोड़ दिया है। मैं जितनी देर घर में रहती हूँ उतनी देर मुझे लगता है जैसे वो बहुत टेंशन में आ जाती हैं। जैसे उन्हें मेरे रहने से घुटन सी होती है। सभी कटे-कटे से रहते हैं। जानती हो मेरा कलेजा फट जाता है जब मेरे रहने पर वो बहनों को अपने पास सुलाती हैं। मुझे अलग-थलग कोने में जगह दी जाती है। 

“ऐसा लगता है जैसे मैं कोई बाहरी ग़ैर मर्द हूँ, जिससे उनकी लड़कियों की इज़्ज़त ख़तरे में है। मैं अपने ही घर में एक अजनबी सी रहती हूँ। मुझे घर के हर कोने में अपने लिए नफ़रत ही नज़र आती। जब से नौकरी के लिए यहाँ आई तब से फ़ोन पर भी अपने लिए यह नफ़रत और ज़्यादा महसूस करती हूँ। जो लोग नहीं जानते वो लोग ठीक से विहेव करते हैं। ऐसे लोग भी नफ़रत न करने लगे यही सोच कर डरती रहती हूँ। अपने को बचाती रहती हूँ। जैसे ही किसी के सामने पड़ती हूँ। या बाहर निकलती हूँ तो मैं भीतर-भीतर काँपती रहती हूँ, कि कहीं कोई सच जान न ले। 

“लगता है जैसे सब कोई मुझे चेक करने निकले हैं। बचने की मेरी सारी कोशिश कई बार लगता है कि बेकार हो जाती है। जहाँ भी जिनके साथ रहती हूँ वो किसी ना किसी दिन मुझे जान ही लेते है। एक नॉर्मल लड़की से कहीं ज़्यादा लंबा डील-डौल मुझे ऐसे भी एबनॉर्मल बना देता है। सारे लोगों के लिए मैं एक अजीब सी क्यूरीसिटी का प्वाइंट बन जाती हूँ। यही मेरे लिए मुसीबत बन जाती है। 

“कुछ मौक़ा मिलते ही मुझे पूरा देख लेना चाहते हैं। मुझे लगता है मैं कई जगह पकड़ ली जाती हूँ। कहीं मुझे मालूम हो जाता है। कहीं नहीं और ना जाने कितनी जगह पता ही नहीं चल पाता।” 

“हनुवा सभी मेल के लिए लड़कों सी तुम्हारी हाइट क्यूरीसिटी का रीज़न तो है। इसी लिए लोग तुम्हारी प्राइवेसी भी जानना चाहते होंगे।” 

“सांभवी मैं मेल की बात नहीं करती। वो तो ऐसा करते ही हैं। मैं फ़ीमेल्स की बात कर रही हूँ। बहुत सी फ़ीमेल भी मर्दों सा बिहैव करतीं हैं। मेरे साथ ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं इस लिए कह रही हूँ।” 

हनुवा की बात सुनकर सांभवी चौंकती हुई बोली, “क्या? क्या फ़ीमेल्स ने तुम्हारे साथ ऐसा किया। यक़ीन नहीं होता हनुवा।” 

“मैं जानती हूँ सांभवी, यक़ीन नहीं कर पाओगी। मैं तुम्हें अपने साथ हुई दो घटनाएँ बताती हूँ। जिनमें एक में मेल एक में फ़ीमेल इन्वॉल्व है। पहले मेल वाली घटना बताती हूँ। 

“एक बार बुआ की लड़की की शादी में घर के सब लोग जा रहे थे। लेकिन पैरेंट्स मेरी कंडीशन के कारण ही मुझे लेकर नहीं जाना चाहते थे। वो एक पड़ोसी को जिन्हें हम सारे भाई-बहन दादी कहते थे उन्हें उन चार-पाँच दिनों के लिए घर पर मेरे साथ छोड़ कर जाने की तैयारी कर चुके थे। मुझे इसका पता तक नहीं था। तब तक मैं इंटर पास कर चुकी थी। सारे-भाई बहनों के कपड़े बने। लेकिन मेरे लिए नहीं। लेकिन ये मेरे लिए बड़ी बात नहीं थी। मेरे साथ चाहे त्योहार हो, या कोई भी अवसर, कपड़े-लत्ते मेरे लिए म़जबूरी में ही बनते थे। एक्स एल साइज़ ना होता तो शायद उतरने ही मिलतीं। 

“मैं अपनी उस फुफेरी बहन को बहुत चाहती थी। हमारी उसकी बहुत पटती थी। वह एक साल कुछ मजबूरी वश मेरे ही यहाँ रह कर पढ़ी थी। हम दोनों का आपस में बहुत लगाव था। जब एक दिन रह गया तब माँ मुझे बताने लगीं कि सब वहाँ जा रहे हैं। और मैं घर पर रहूँगी। घर को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। इन चार-पाँच दिनों में मुझे क्या-क्या करना है यह बताने लगीं तो मैंने कहा मैं भी चलूँगी। मैं नहीं रुकूँगी। उन्होंने बहुत समझाया। मैं नहीं मानी, ज़िद पर आ गई। एक तरह से पहली बार मैं माँ से लड़ गई। और तब मैंने उस दिन माँ से ख़ूब गालियाँ, ख़ूब जली-कटी बातें तो सुनी ही मार भी खाई। उन्होंने उस दिन मुझे तार वाली झाड़ू से ख़ूब पीटा। इतनी तेज़ मारा था कि हर बार का निशान मेरे शरीर पर पड़ा था। 

“मैं भी ज़िद पर आ गई तो रोती रही। लेकिन यह भी कह दिया कि नहीं ले चलोगी तो मैं इसी घर में तुम लोगों के जाते ही आग लगा कर मर जाऊँगी। मैंने हर बार मार पर अपनी यही बात दोहराई। मेरी माँ मारते-मारते थक गई। मगर मैं अपनी बात दोहराती रही। थकी हुई माँ आख़िर रोने लगी। उन्होंने तब जो तमाम अपशब्द मुझे कहे वह अब कुछ ज़्यादा याद नहीं। लेकिन वह आख़िरी बात आज भी नहीं भूली। याद आते ही वही दृश्य एकदम सामने आ जाता है। उन्होंने चीखकर दोनों हाथों से अपना सिर पीटते हुए कहा था, ’पता नहीं कऊन पाप किए रहे जऊन ई कुलच्छनी पत्थर गटई मा भगवान डारि दिहिन’। 

“सांभवी मैं उनकी इस बात पर इतनी हर्ट हुई कि झाड़ुओं की चोट उसके आगे चोट थी ही नहीं। मैंने उस दिन खाना नहीं खाया। रोती रही रात भर। मुझे दुख इस बात का भी हुआ, और आज भी है कि मेरी बहनें वहीं खड़ी रहीं लेकिन माँ की झाड़ुओं से मुझे बचाने के लिए कोई हिली भी नहीं। इतना ही नहीं वह सब ख़ुद भी नहीं चाहती थीं कि मैं चलूँ। वैसे भी वह दोनों हर जगह साथ जाती थीं मगर मुझे दूर ही रखती थीं। इन बातों से मैं इतना टूट गई कि मैंने ख़ुद ही सुबह मना कर दिया कि मैं नहीं जाऊँगी। मैं घर पर ही रहूँगी। घर रखाऊँगी। मेरा ये कहना सबके मन की बात हो गई। सब यही सुनना चाह रहे थे। 

“एक दिन बाद सब चले गए। पड़ोसन दादी उन सबके आने तक रहने के लिए घर आ गईं। उनके साथ ही मुझे सबके लौट आने तक रहना था। जाने के समय तक मुझसे किसी ने एक बात तक नहीं की। केवल माँ जाते समय गला बैठाकर (भारी आवाज़ बनाकर बोलना) बोलते हुए तमाम शिक्षा दे गईं थीं। कि क्या करना है क्या नहीं। सब के जाने के बाद शाम को मुझे एक और झटका लगा। दादी का एक सत्रह-अठारह साल का पोता भी आ गया। रात को उसे हमारे घर पर ही सोना था। दादी तक तो मुझे कोई एतराज़ नहीं था। लेकिन पोते के आने पर मुझे बड़ा शॉक लगा। वह आया तो दादी बोलीं “बिटिया बचवा के सोवै का इंतज़ाम कई दे। तोहार माई कहे रहिन। रात-बिरात केहू मनई के होउब जरूरी बा।” 

“पहले तो मैंने सोचा कि मना कर दूँ। इसे वापस भेज दूँ। लेकिन दादी ने माँ का नाम लिया तो मैं चुप रही। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कुछ कहूँ। मैंने उसे बाहर पापा वाले कमरे में सोने के लिए बोल दिया। अंदर-अंदर मेरा ख़ून ऐसे ही खौल रहा था। उस लड़के को देख कर दिमाग़ और ख़राब हो गया। अक़्सर वह घर आता रहता था। उसके घर के सभी लोगों का आना-जाना था। वह मेरे साथ बहुत ज़्यादा चुहुलबाज़ी करता था। मैं उसे हर वक़्त अपने बदन को झाँकते ही पाती थी। जब भी मेरी नज़र अचानक ही उसकी नज़र से मिलती तो उसकी आँखों को अपने ब्रेस्ट पर गड़ी पाती। नज़र मिलते ही सकपका कर इधर-उधर देखने लगता। जानबूझ कर अगल-बग़ल से गुज़रता। कुर्तें के अंदर झाँकने की हर कोशिश करता। उसे देखते ही मैं दुपट्टे को कसकर लपेट लेती।” 

“इतनी कम उम्र में ही इतनी बदतमीज़ी करता था। तुम्हें उसे एकदम मना कर देना चाहिए था कि सोने की ज़रूरत नहीं। हम काफ़ी हैं।” 

“कैसे कह देती। जब माँ ने कहा था तो कहाँ से मना करती। उस समय तो उनकी झाड़ुओं की मार से वैसे भी पस्त थी। दो दिन बाद भी जगह-जगह दर्द कर रहा था। झाड़ू से ज़्यादा पीड़ा उनकी बातें दे रहीं थी। मैं फिर किस हिम्मत से उसे वापस भेज देती। लौटने पर माँ को क्या जवाब देती जो मेरी नहीं घर की रखवाली के लिए उसे रख गई थीं। 

“उनकी नज़र में मैं तो गले में पड़ा पत्थर थी। ऐसे पत्थर की सुरक्षा की बात कहाँ सोची जाती है। उनकी नज़र में मैं ना लड़का थी ना लड़की। जो लड़कियाँ, लड़का थीं, जो इज़्ज़त नाक थीं। वह उन्हें अपने साथ अपने प्राण की तरह चिपकाए हुए लेकर गई थीं। जो उनका सामान, मकान था उसकी रखवाली के लिए मुझे छोड़ गई थीं, मैं कुछ गड़बड़ ना करूँ इसके लिए दादी को और दादी कहीं कमज़ोर ना पडे़ं इसके लिए उस लफंगे को छोड़ गई थीं।” 

“वाक़ई ये तो बड़ा शॉकिंग है। कोई माँ अपने बच्चे के लिए ऐसा कर सकती है, इतना क्रुअल हो सकती है, आख़िर तुम भी उन्हीं की औलाद थी। तुम्हारी माँ वाक़ई बहुत . . . क्या कहें?” 

“कहना क्या सांभवी, मैंने पहले ही कहा ना कि मैं उनकी संतान नहीं उनके गले में पड़ा पत्थर हूँ।” 

हनुवा की बात पर सांभवी ने बड़ी नफ़रत से ‘हुंऽऽ’ किया फिर पूछा, “अच्छा वह लफंगा जब तक रहा घर पर तब तक तुम्हारे साथ कोई हरकत तो नहीं की।” 

“कोशिश पूरी की। पहली रात को मैंने उसे जिस कमरे में रखा था। उस कमरे से अंदर आने पर एक आँगन है। आँगन पार कर के फिर तीन कमरे हैं। अंदर आने पर आँगन में ही बाईं तरफ़ बाथरूम, टॉयलेट हैं। एक स्टोर रूम है। मैंने एक ढिबरी मतलब कि मिट्टी तेल का एक दीया दादी और उस लफंगे के कमरे में रख दिया था। कि ये सब रात में उठेंगे तो ज़रूरत पड़ेगी। बाथरूम जाने के लिए लालटेन अपने कमरे में लेते आई।” 

“क्यों घर में लाइट नहीं है क्या?” 

‘है मगर तब आती कहाँ थी। चौबीस घंटे में चार छह घंटे आ जाती तो बड़ी बात हो जाती। जब आती थी तो वोल्टेज इतना कम रहता था कि लालटेन और बल्ब की रोशनी में ज़्यादा अंतर नहीं रहता। उस समय तो हफ़्ते भर से ग़ायब थी। 

“चोर खंबे से बिजली का तार ही काट ले गए थे। ट्रांसफ़ॉर्मर भी जला पड़ा था। उस समय बिजली विभाग वाले इस तरह की समस्याएँ तभी सॉल्व करते थे जब पूरे एरिया के लोग मिलकर पैसा इक्ट्ठा कर के दे आते थे। नहीं तो मुहल्ले में लाइट महीनों नहीं आती। इसी के चलते उस समय पूरा मोहल्ला हफ़्ते भर से अँधेरे में डूबा था। उस दिन भी। 
दिसंबर का आख़िरी हफ़्ता चल रहा था। ठंड बहुत थी। मैं दरवाज़ा बंद किए लेटी थी। रजाई में दुबकी। आँगन में बने एक ताख में तब एक ढिबरी रात भर जला कर रखी जाती थी। मैंने वह भी रख दी थी। आँगन से ही ऊपर जाने का ज़ीना है, मैंने उसके दरवाज़े पर ताला डाल दिया था। इतना सब करने के बाद भी मुझे नींद नहीं आ रही थी। बार-बार माँ की मार, उनकी विष बुझी तीर सी बातें रह-रह कर कानों में गूँज रही थीं। और फुफेरी बहन की बातें, उसकी शादी के होने वाले कार्यक्रमों की पिक्चर सी आँखों के सामने चल रही थी। 

इससे मुझे बार-बार रुलाई छूट जाती। मगर खुलकर रो भी नहीं सकती थी। घर में दो-दो बाहरी बाहर वाले कमरे में सो रहे थे। टीवी-सीवी का तो कोई मतलब ही नहीं था। मैंने अपने कमरे की लालटेन बुझा दी थी। कमरे में घुप्प अँधेरा था। बाहर जलती ढिबरी की वजह से दरवाज़े की झिरी पर एक मटमैली पीली लाइन सी बनी दिख रही थी। लेटे हुए आधा घंटा बीता होगा कि बाहर कमरे में सो रही दादी के खर्राटे की आवाज़ खुर्र-खुर्र आने लगी। बड़ी ग़ुस्सा लग रहा था।” 

“ओह गॉड फिर कैसे कटी तुम्हारी रात, “सांभवी ने टीवी चैनल चेंज करते हुए पूछा। 

“कटी क्या? कभी उठ कर बैठ जाती। कभी लेटती। लेटती तो लगता दरवाज़े पर वही लफंगा बाहर कमरे से आकर खड़ा हो गया है। मन करता कि उठ कर चेक करूँ। ऐसे ही घंटा भर बीता होगा कि आँगन वाले दरवाज़े की साँकल के हिलने की आवाज़ आई। मैं एक दम सिहर उठी। मेरा दिल इतनी तेज़ धड़कने लगा कि बस अब जान निकल जाएगी। फिर दरवाज़े के खुलने की आवाज़ हुई। पुराने ज़माने के भारी-भारी दरवाज़े हैं। जब खुलते, बंद होते हैं तो आवाज़ भी ज़रूर आती है। दरवाज़ा खुलते ही मुझे लगा कि ये लफंगा अब आकर मुझे मारेगा, मेरी इज़्ज़त तार-तार करेगा। और तब मेरी पोल खुल जाएगी। ये कमीना पूरे मोहल्ले, पूरी दुनिया में मेरी बदनामी कर देगा। 

मैंने उसी कुछ क्षण में ये तय कर लिया कि अगर कुछ हुआ तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। सेकेंड भर में मैंने ऊपर छत पर लगे पंखे के बारे में सोच लिया कि इसी पंखे में अम्मा की साड़ी का फंदा लगा कर लटक जाऊँगी। मेरे इतना सोचने तक लफंगे के आने की आहट मिली। मैं एकदम घबराकर बिजली की तेज़ी से उठ कर दरवाज़े की झिरी से आँगन में झाँकने लगी। उस कमीने को मैं आँगन में जलती ढिबरी की रोशनी में साफ़ देखा पा रही थी। बीच आँगन में खड़ा वह मेरे कमरे की ही तरफ़ देख रहा था। कमीना दाहिने हाथ से अपने प्राइवेट पार्ट को बराबर मसले जा रहा था। मैं पसीने-पसीने हो रही थी। मैं झिरी से एकटक उसे देखे जा रही थी। फिर कुछ देर रुक कर वह बाथरूम में चला गया। 

वह एक मिनट मुझे कई घंटे से लगे। बाथरूम से उसके पेशाब करने की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। मेरी नज़र बाथरूम के दरवाज़े पर ही टिकी थी। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला वह बाहर आया। बीच आँगन में आकर कुछ सेकेंड रुक कर फिर दबे पाँव चलता हुआ एकदम मेरे कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। मेरी स्थिति ऐसी हो गई जैसे बकरी की तब होती है जब उसे कसाई मारने के लिए कसके दबाकर अपनी छूरी उसकी गर्दन पर बस रेतने ही वाला होता है। 

आँखें एकदम पथरा गईं थीं। साँस जैसे थम गई थी। वह दरवाज़े के पास आकर झिरी से अंदर झाँकने की कोशिश करने लगा। इधर मैं उधर वो एक दूसरे की तरफ़ देखने की कोशिश में लगे थे। मेरे कमरे में घुप्प अँधेरा था उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। मैं उसे देख रही थी। मैं थोड़ा झुकी हुई थी जिससे कि आँखें मिल ना सकें। अचानक ही उसने दरवाज़े को बड़ी सावधानी से अंदर धकेलना शुरू किया। 

इस दरवाज़े में भी कुंडी की जगह साँकल ही थी। जिससे वह क़रीब डेढ़ दो इंच अंदर को आ गया। 

दरवाज़े के साथ ही मैंने अपने को भी अंदर खींच लिया। वह देखना चाह रहा था कि दरवाज़ा खुला है कि बंद। खुला होता तो वह निश्चित मुझ पर हमला करता। क्योंकि वह जब दरवाज़ा बंद पाकर दो तीन क़दम पीछे हटा तो उस समय भी दरवाज़े को घूर रहा था। और अपने हाथ से बराबर अपने प्राइवेट पार्ट को मसले जा रहा था। फिर चला गया कमरे में। लेकिन उसने अपने कमरे की साँकल बंद नहीं की। क्योंकि साँकल की आवाज़ बिल्कुल नहीं आई। उसके जाने के बाद भी मैं दरवाज़े की झिरी से उसके कमरे के दरवाज़े को थर-थर काँपती देखती रही।” 

‘ये तो किसी डरवानी फ़िल्म की सीन जैसी हालत थी। तुम उसी समय चिल्ला कर उसे अंदर से ही डाँटती। इतना चीखती कि उसकी दादी भी उठ जाती।” 

‘डर के मारे मेरी घिग्घी बँधी हुई थी, मैं चीखती क्या? मैं उसके बड़े डील-डौल से भी डरती थी। और दादी जाग भी जाती तो उसका क्या कर लेती? पूरी बस्ती रजाइयों में दुबकी, घटाटोप अँधेरे में सो रही थी। मेरी कौन सुनता।” 

‘सही कह रही हो, आज कल तो सब ऐसे हो गए हैं कि सामने कोई तड़पता पड़ा रहता है तो उसकी हेल्प करने के बजाय मोबाईल से वीडियो बनाते रहते हैं। एफ। बी।, यू। ट्यूब पर पोस्ट करने के लिए। ऐसी पत्थर दिल दुनिया में किसी से उम्मीद करना ही बेवकूफ़ी है। तो उस दिन तुम सोई भी या जागती रही रात भर।” 

“डर के मारे नींद ही कहाँ आ रही थी। उसके जाने के बाद मैं रजाई में फिर दुबक गई। डरती-काँपती किसी तरह घंटा भर बिताया। फिर मुझे भी पेशाब लग गई। अब मेरी हालत ख़राब। मैं दरवाज़ा खोल कर बाहर निकलना नहीं चाह रही थी। डर रही थी कि आँगन में निकलते ही वह मुझे पकड़ लेगा। रोके रही अपने को। तभी फिर बाथरूम के दरवाज़े की आवाज़ सुनी तो मैं फिर झाँकने लगी। वही लफंगा फिर बाथरूम से निकल रहा था। उसने कमरे का दरवाज़ा बंद ही नहीं किया था इसलिए खोलने की आवाज़ हुई ही नहीं। इस बार भी वह आँगन में खड़ा होकर मेरे कमरे की ओर देर तक देखने के बाद अंदर गया। अब मुझे पक्का यक़ीन हो गया कि यह मुझे पाने पर छोड़ेगा नहीं। मैंने तय कर लिया कि सुबह होने से पहले दरवाज़ा नहीं खोलूँगी। 

“तुम्हें तो पेशाब लगी थी। तो क्या रात भर . . ."

“नहीं। रात भर कहाँ रुक सकती थी। कमरे में ही एक मोबिल ऑयल का चार-पाँच लीटर का डिब्बा रखा था। जिसमें मिट्टी का तेल मँगाया जाता था। मैंने रात भर उसे ही यूज़ किया। उस दिन मुझे मेरे इस अभिशप्त पार्ट के कारण बहुत आसानी हुई। नहीं तो मेरी परेशानी और बढ़ जाती।” 

“ओह गॉड तुमने तो बड़े अजीब-अजीब फेज़ को फ़ेस किया है। सुनकर ही हैरानी होती है। अगले दिन उस लफ़ंगे को भगाया कि नहीं?” 

“नहीं भगा पाई। जब मैंने अगले दिन उसे डाँटते हुए कहा कि रात में ऐसा क्यों कर रहे थे? तो उसने ऐसी बात कही कि मैं दंग रह गई। बड़े अपनत्व के साथ बोला, ‘मुझे बड़ा डर लग रहा था। मैं तुम्हारी चिंता के कारण सो नहीं पा रहा था। इसीलिए मैं बार-बार उठकर बाहर देखने आता कि तुम ठीक हो की नहीं। सो रही हो कि नहीं। इसीलिए अंदर देखने की कोशिश कर रहा था।’ मैं उसके इस जवाब से एकदम भौचक्की रह गई। 

“मुझे लगा कि शायद ये सही कह रहा है। मैंने बेवजह शक किया। एकदम कंफ्यूज़ होकर बिल्कुुल चुप रही। सुबह वह घर चला गया। दादी रुकी रही। वह क़रीब ग्यारह बजे फिर आया। तब मैं अपने और दादी के लिए खाना बना रही थी। आया तो मुझे देखता-दाखता एकदम किचन में आ गया। मैं मुड़ी तो खीसे निकालता हुआ बोला, ‘लो खाओ।’ 

“मैंने सोचा अभी इसने कुछ खाया नहीं होगा, इसे भूख लगी होगी इसीलिए कुछ ले आया है। 

“वह एक डिब्बे में वहाँ मिलने वाली एक मिठाई लौंगलता लेकर आया था। मैदा और खोया से बनी चाशनी में डूबी यह मिठाई मुझे बहुत पसंद है। उस स्थिति में भी मेरे मुँह में पानी आ गया। फिर भी मैं कुछ देर उसे देखने के बाद बोली। तुमसे किसने कहा था कि मैंने कुछ खाया नहीं। और ये सब लाने के लिए पैसा कहाँ से ले आया? 

“इस पर वह उस मिठाई की ही तरह अपनी आवाज़ में भी मिठास घोलता हुआ बोला, ‘हनुवा ग़ुस्सा काहे हो रही हो। जब तक चाची नहीं आ रही हैं तब तक तो मुझे तुम्हारी चिंता करनी ही है। नहीं तो आकर जब चाची जानेंगी तो हम पर ग़ुस्सा होंगी।’ 

“मैंने ग़ुस्से में कहा—मेरी इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। मैं अपने लिए जो करना होगा कर लूँगी। ये जो ले आए हो इसे लेकर यहाँ से जाओ। 

“लेकिन वह जाने के बजाए अपनी मीठी-मीठी बातों में उलझा कर एक मिठाई मेरे आगे बढ़ा दी। मैंने मन ना होते हुए भी एक पीस ले लिया। इसके साथ ही कह दिया ठीक है जाओ। तो उसने मिठाई वहीं रख दी और चला गया। मैं आवाज़ देती रह गई, लेकिन उसने अनसुनी कर दी। ‘थोड़ी देर में आऊँगा’ कहता हुआ चला गया। 

“मनपसंद मिठाई थी। हाथ में जो पकड़ी हुई थी वह खा गई। मन नहीं माना तो एक और खा गई। फिर एक कटोरी में दो पीस दादी को भी दे आई। उसके लिए चार-पाँच पीस रख दिया। सोचा आएगा तो दे दूँगी। लेकर आया है, नहीं दूँगी तो अच्छा नहीं लगेगा। उसके प्रति मन में रात की घटना के कारण जो ग़ुस्सा था वह इस मिठाई ने जैसे कम कर दिया। क़रीब एक बजे जब धूप तेज़ हुई तो मैंने सोचा नहा लूँ। कई दिन से बाल धोए नहीं आज धो लूँ। नहीं तो कल बृृहस्पति हो जाएगा। दादी को बता कर मैं नहाने चली गई। मैंने बाथरूम में कपड़े उतारे ही थे कि मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी। दादी से बात कर रहा था। 

“मैं उसकी आवाज़ सुनकर अजीब सी झुरझुरी महसूस करने लगी। कुछ देर मैं स्थिर हो उसकी बात सुनती रही। वह घर में कौन क्या कर रहा था यही सब बता रहा था। यह सुनकर मैंने राहत की साँस ली। और कपड़े अलग कर दो-तीन जग पानी सिर पर डाला जिससे बाल बदन भीग जाएँ तो शैंपू लगाऊँ। तभी ऐसी आहट मिली जैसे वह किचन में गया हो। मैंने दरवाज़े की झिरी से देखा तो मेरा शक सही था वह किचन से निकलकर बाथरूम की तरफ़ आ रहा था। मैं डर कर थरथर काँपने लगी। क्यों कि दिन का समय था। आँगन में अच्छी ख़ासी तेज़ खिली हुई धूप की किरणें आधे आँगन को कवर किए हुए थीं। 

“ऊपर से धूप की किरणें बाथरूम की दीवार, पूरे दरवाज़े पर पड़ रही थीं। अंदर इतनी रोशनी थी कि दरवाज़े की झिरी पर आँख लगा कर साफ़-साफ़ देखा जा सकता था। मैंने थरथर काँपते हुए सबसे पहले तौलिया उठा कर अपने सामने लगा लिया। मैं साफ़ देख रही थी कि वह अंदर देखने के लिए झिरी से आँख गड़ाए देख रहा है। मैंने ग़ुस्से में एक जग पानी झिरी पर मारा और चीख-चीख कर गाली देने लगी। इस पर वह तुरंत भाग गया। उसके जाने के बाद भी मैं कुछ देर स्टेच्यू बनी बैठी रही। फिर नहाया। अमूमन मैं बाथरूम के दरवाज़े की तरफ़ पीठ कर के नहाती थी। लेकिन उस दिन इस कमीने के डर से ही दरवाज़े की तरफ़ मुँह किए थी। और मेरा शक सही निकला। बाहर निकल कर मैंने सबसे पहले उसे ही ढूँढ़ा तो वह ग़ायब मिला। 

“मैंने दादी से पूछा तो वह बोली, ’ऐ बच्ची बचवा ते कब्बे के चला गा बा।’ मैंने कुछ देर चुप रह कर दादी को सारी बात बताई तो वह सुनने को ही तैयार नहीं हुईं। बार-बार यही कहे जाएँ, ’ऐ बच्ची तू भरमाए गई हऊ। बचवा ऐइसन करै नाय सकत। अबै ओकर उमरिए केतनी बा। ऐ बच्ची मान जा तू। तू एकदम भरमाय गैय हऊ औऊर कुछ नाहीं।’ उन्होंने जिस तरह उसका पक्ष लिया उससे मैं हैरान-परेशान हो गई। मेरे मन में उनके लिए भी अपशब्द निकले। 

“मैंने मन ही मन कहा कमीना इस बुढ़िया के सामने भी कुछ हरकत कर डालेगा तो भी यह यक़ीन नहीं करेगी। उलटा मुझे ही फँसा देगी। मुझे ठंड लग रही थी। तो मैं छत पर जा कर धूप में बैठ गई। कई दिन बाद तेज़ धूप निकली थी। बड़ा अच्छा लग रहा था। रात भर उस कमीने के कारण मैं सो नहीं पाई थी तो आलस्य लगने लगा।” 

हनुवा अपनी बातें जारी रखे हुए थी तभी सांभवी ने उसे एक गिलास जूस पकड़ाते हुए कहा, “इसे पीती रहो। वीकनेस नहीं लगेगी।” 

उसने ख़ुद भी आधा गिलास ले लिया था। हनुवा ने गिलास लेते हुए कहा, “जिसकी तुम जैसी फ़्रेंड हो उसे कुछ नहीं हो सकता। एक बार तो यमराज भी आकर लौट जाएँगे।” 

हनुवा की इस बात पर सांभवी को ना जाने क्या हुआ कि अचानक ही उठ कर उसके चेहरे को दोनों हाथों में भर कर गाल चूम लिया और बड़े प्यार से बोली, “ओ, हनुवा-हनुवा तुझे कुछ नहीं हो सकता। अब तू अकेले नहीं है।” 

उसके इस अचानक किए गए प्यार-मनुहार से हनुवा कुछ क्षण को अभिभूत सी उसे देख कर मुस्कुराई। फिर बोली। ‘हां सांभवी, मैं अब ख़ुद को अकेला नहीं महसूस कर रही।” 

तभी सांभवी उसके सामने ही बैठती हुई बोली, “फिर वो लफ़ंगा लौट कर आया कि नहीं।” 

“आया। और चप्पलों से मार खाकर गया। मुझे धूप अच्छी लगी। रात भर की जगी थी। जिस बड़े बोरे पर मैं बैठी बाल सुखा रही थी उसी पर लेट गई थी। लेटते ही मुझे उस बोरे पर ही नींद आ गई। क़रीब एक डेढ घंटा ही बीता होगा कि मुझे लगा कि जैसे मेरे ब्रेस्ट पर कुछ दबाव सा पड़ रहा है। होंठ पर भी कुछ गरम-गरम सा छू रहा है। दिमाग़ में वह कुत्ता तो था ही मैं हड़बड़ा कर उठने को हुई तो अपने को उस कमीने की गिरफ़्त में पाया। 

“वह मुझे पूरी तरह दबोचने की कोशिश में ’सुनो-सुनो हनुवा’ फुसफुसाती आवाज़ में कहे जा रहा था। मगर मेरा ख़ून खौल उठा था। मैं पानी से बाहर आ पड़ी मछली सी तड़प कर उससे अलग हुई। और उसे लात, घूँसा बेतहाशा मारने लगी। वहीं पड़ी अपनी चप्पल उठाई उसी से पीटने लगी। वह बार बार सुनो-सुनो कहे जाए, हाथ जोड़े जाए। लेकिन मैं पागलों की तरह उसे गाली देते हुए मारने में लगी रही। 

“एक चप्पल उसकी नाक पर लग गई तो उससे ख़ून बहने लगा। मगर मेरे ख़ून सवार था। वह जितना इधर-उधर झुके-झुके भागता मैं दौड़ा-दौड़ा कर मारती। वह इससे बचने की कोशिश कर रहा था कि अगल-बग़ल की छतों पर से कोई देख ना ले। जाड़े का दिन था, सभी अपनी-अपनी छतों पर थे। हालाँकि वर्किंग डे होने के कारण कम लोग थे। महिलाएँ घर का काम निपटाने में लगी थीं। और बच्चे सब स्कूल गए हुए थे। आख़िर वह अपनी चप्पल उठा कर भागा। कुछ कहना चाह रहा था। लेकिन मैं बिना कुछ सुने उसे दौड़ाते हुए पीछे से चिल्ला कर कहा दुबारा दिख गए तो तुम्हारी जान ले लूँगी। 

“उसके पीछे-पीछे दौड़ती हुई बाहर दरवाज़े तक गई। मगर वह दिखाई नहीं दिया। भाग गया था। मैंने दरवाज़ा बंद किया। अंदर आने लगी तो देखा जगह-जगह ख़ून की कई बूँदें पड़ी हुई थीं। सच बताऊँ सांभवी उस समय ख़ून की वह बूँदें देखकर मुझे कुछ राहत मिली कि मैंने अपने अपमान, अपने शरीर पर हाथ डालने वाले से कुछ तो बदला ले लिया। मैंने ख़ून की बूँदें छत तक हर जगह देखी। मुझे ग़ुस्सा इतना लगा हुआ था कि अपने पैरों से सारी बूँदों को रगड़ती गई। फिर लौट कर दादी के पास गई मन ही मन गाली देते हुए कि बुढ़िया देख अपने पोते की करतूत। बड़ा बचवा-बचवा करके दूध का धुला बता रही थी ना। देख ले उस सुअर का असली चेहरा। लेकिन देखा वह रजाई से मुँह ढंके खुर्र-खुर्र आवाज़ करते सो रही थीं। 

“तब तक मेरा ग़ुस्सा कुछ कम पड़ चुका था। मैं फिर भीतर कमरे में गई, सबसे पहले अपनी सलवार और पैंटी चेक की, कि सही जगह हैं कि नहीं। सुअर ने मेरे कपड़े खोलकर मेरा भेद तो नहीं जान लिया। 

“कपड़ों को सही सलामत पाकर मैंने राहत महसूस की। शीशे में ख़ुद को देखा तो दो तीन जगह खरोचें थीं। बाँह और पेट पर भी थीं। कुर्ता साइड से फट गया था। ब्रेज़ियर के हुक टूट गए थे। इससे मैं बड़ी आहत हुई कि कमीने के गंदे हाथों ने मेरे ब्रेस्ट छुए। उसकी गंदी आँखों ने मेरे इन अंगों को गंदी सोच के साथ देखा। मैं रो पड़ी। मुझे माँ-पापा सब पर ख़ूब ग़ुस्सा आया। कि मुझे पत्थर मान कर यहाँ अकेले छोड़ कर ना जाते तो मेरी यह दुर्गति क्यों होती। 

“उनको अपनी इज़्ज़त अपनी शान की परवाह है, जो मेरे कारण ख़तरे में पड़ जाती है। मेरी जान भी चली जाए इसकी परवाह किए बग़ैर वो मुझे कहीं भी डाल सकती हैं। आज यह कमीना अगर मुझसे बहुत ज़्यादा ताक़तवर होता तो मेरे साथ ना जाने क्या करता? भेद खोल कर ना जाने कैसे-कैसे ब्लैकमेल करता। मेरे मन में आया कि क्या फ़ायदा ऐसी ज़िन्दगी से। इससे अच्छा तो मर जाऊँ। फिर रात वाली बात दिमाग़ में आई कि माँ कि कोई भी साड़ी और ऊपर लगा यह पंखा मुझे इस नरक भरी ज़िदगी से छुटकारा दिलाएँगे। माँ-बाप के गले का पत्थर भी यही हटाएँगे। 

“यह सोच कर मैं माँ की एक साड़ी उठा लाई। उसका फंदा बनाने से पहले उस कमीने के प्रति मन में फिर ग़ुस्सा ऊभर आया। सोचा इसके कारण मैं मरने जा रही हूँ। तो इसे भी इसके कुकर्मों की सज़ा मिलनी चाहिए। मैंने सुसाइड लेटर लिखा। उसको ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसे फाँसी दिए जाने की अपील की। माँ-बाप से माफ़ी माँगी। फंदा बनाकर पंखे में फंसाने की कोशिश की लेकिन ज़्यादा ऊँची छत के कारण फंदा ना डाल पाई। फिर मन में आत्महत्या का ख़्याल कमज़ोर पड़ गया। और मैं बच गई।” 

“हूँ . . . बचती कैसे ना हनुवा, तुम्हें मुझसे जो मिलना था, ” सांभवी ने एक बार फिर टीवी का चैनल बदलते हुए कहा तो हनुवा एक गहरी साँस लेकर बोली, “हां सांभवी तुमसे मिलना था। और तुमसे मिलने से पहले कई ऐसे काँटों की चुभन भी बर्दाश्त करनी थी जिनका दर्द इस जीवन में तो कभी नहीं जाएगा। वो जब-जब मैं साँस लेती हूँ तब-तब मुझे चुभते हैं। ऐसी टीस देते हैं कि दिल ही नहीं आत्मा तक रो पड़ती है।” 

हनुवा की यह बात सुन कर सांभवी को लगा कि परिवार के लोगों ने इसे और परेशान किया होगा। माँ ने और कड़वी बातें कहीं होंगी। उसने सोचा इसकी तबियत ठीक नहीं है। इस तरह की और बातें कह कर यह अपनी तबियत ख़राब कर लेगी। बात बदलने की ग़रज़ से उसने कहा, “हनुवा तुम्हें तकलीफ़ ना हो तो आओ थोड़ी देर दरवाज़े पर खड़े होते हैं। बाहर हर तरफ़ लोगों के घर लाइट से सज गए हैं। देखते हैं उन्हें। तुम्हारा मन थोड़ा चेंज हो जाएगा।” 

हनुवा सांभवी की बात टाल ना सकी। बाहर दरवाज़े पर गई। बाहर वाक़ई हर घर तरह-तरह की लाइट्स, झालरों से जगमगा रहा था। भारतीय त्योहार दीपावली चाइनीज़ झालरों की चमक से जगमग कर रहा था। रह-रह कर पटाखे भी दो दिन पहले से ही दग रह थे। लोगों की चहल-पहल देर रात होने के बाद भी दिखाई दे रही थी। सांभवी को बड़ा अच्छा लगा। 

वह हनुवा को लेकर घर के बाहर दरवाज़े के सामने ही चहल-क़दमी करने लगी। हनुवा को भी अच्छा लग रहा था। तभी दो-तीन बाइक पर बैठे कुछ लफ़ंगे टाइप के लड़के दोनों के एकदम क़रीब से सीटी बजाते हुए तेज़ी से निकल गए। एक ने चिल्ला कर कुछ कहा भी था। जो बाइकों के शोर में वह दोनों समझ नहीं पाईं। उनमें से कम से कम एक बाइक अमरीकी कंपनी हार्ले डेविडसन की थी। जो भारत में युवाओं के बीच स्टेटस सिम्बल बनी हुई है। उनके बीच इसका जबरदस्त क्रेज़ है। यह भारत की बुलेट से भी तेज़ पड़-पड़ की आवाज़ करती है। कॉलोनी में रोज़ की अपेक्षा सड़कों पर लोगों का आना-जाना आधा से भी कम था। 

सब त्योहार के कारण अपने होम डिस्ट्रिक्ट जा चुके थे। हनुवा लफ़ंगों की इस हरकत से डर गई। कुछ देर पहले अपने साथ ऐसे ही लफ़ंगे द्वारा की गई अपनी बातें उसके मन मस्तिष्क में पहले ही छाई हुई थीं। इसलिए वह कुछ ज़्यादा ही डर गई। उसने तेज़ क़दम से घर की तरफ़ चलते हुए कहा, “सांभवी आओ अंदर चलें। बदतमीज़ अपनी बदतमीज़ी से बाज़ नहीं आएँगे। जहाँ जाओ वहीं मिल जाते हैं। वैसे भी आस-पड़ोस में ताले पड़े हैं। ऐसे में बाहर अब ठीक नहीं है।” हनुवा के साथ सांभवी अंदर आ गई। डर वह भी गई थी। इसलिए हनुवा के कहते ही बोली थी, “चलो।” 

अंदर आकर हनुवा ने दरवाज़ा बंद कर उसे बड़ी सावधानी से चेक किया था। फिर अपने बेड पर बैठ गई। सांभवी ने बैठने के बजाय रिमोट उसे थमाते हुए कहा, “तुम टीवी देखो तब तक मैं खाना बनाती हूँ।” 

हनुवा ने कहा, “अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ। मिल कर बनाते हैं। तुम कल से बहुत थक गई हो।” सांभवी के लाख मना करने भी उसने ज़्यादातर काम ख़ुद ही किया। समय निकाल कर नहा भी लिया। इससे वह फ़्रेश महसूस कर रही थी। लग भी रही थी। खाना खाते वक़्त भी दोनों ने ख़ूब बातें कीं। सब्ज़ी पराठा खाने के बाद सांभवी ने चाय भी बनाई। उसकी आदत थी खाना खाने के बाद चाय पीने की। 

चाय पीते हुए उसने फिर कहा, “हनुवा तुम जितनी बातें बता रही हो उससे तो लगता है कि तुम्हारे पैरेंट्स शुरू से ही तुमसे छुटकारा चाहते हैं। ऐसे में तुम इतने दिन कैसे रही उनके साथ। और उससे ज़्यादा बड़ी बात कि इतनी पढ़ाई-लिखाई कैसे कर ली? क्यों कि जो लोग साथ रखना ना चाह रहे हों वो पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें ये वाक़ई आश्चर्य वाली बात है।” 

सांभवी के इस प्रश्न ने हनुवा को फिर एकदम गंभीर बना दिया। लेकिन अब सांभवी के साथ उसके किसी भेद जैसी चीज़ भी नहीं थी। इसलिए किसी बात का कोई संकोच नहीं था। तो हनुवा ने एक दो घूँट चाय पीने के बाद कहा, “सांभवी मेरी स्थिति और इस दुनिया ने मेरे साथ जो-जो अत्याचार किए बचपन से ही उसने मुझे उम्र से बहुत आगे-आगे बड़ा किया। समझ दी। तुम क्या कोई भी आश्चर्य करेगा कि जिस घर में लोग मुझे देख कर एक सेकेंड को ख़ुश नहीं हो पाते थे। जिनके मन में यह हो कि यह मरे तो गले का पत्थर हटे, वो हमें कहाँ पढ़ाएँगे, लिखाएँगे वो भी, बी-टेक कराएँगे।” 

“हाँ यही तो मैं तब से सोच रही हूँ कि यह सब कैसे हुआ? तुम कैसे कर ले गई यह सब?” 

“कर क्या ले गई। एक टीचर जो मुझे पढ़ाती थीं, उनका बहुत बड़ा कंट्रीब्यूशन है। उन्हीं की वजह से पढ़ पाई। उन्होंने मुझे मेरी स्थिति बताई, मेरे जैसे लोगों के लिए समाज में जगह कहाँ है वह बताया। यह भी बताया कि मैं कैसे क्या करूँ कि अपनी ज़िन्दगी को नर्क बनने या नर्क में डूबने से बचा सकूँ। हालाँकि इस के लिए उन्होंने मुझसे जो क़ीमत वसूली वह मेरी ज़िन्दगी के सबसे भयानक पीड़ादायक घावों में से एक है, जो मुझे इस समाज ने दिए।” 

“अरे . . . ऐसा भी क्या किया उन्होंने? तुम तो बता रही हो टीचर थीं तुम्हारी। उन्हीं की वजह से तुम पढ़ पाई। टीचर हो कर ऐसा क्या किया उन्होंने?” 

सांभवी की इस बात पर हनुवा बड़ी कसैली सी हँसी हँसी। फिर दो घूँट चाय पीकर बोली, “सांभवी मेरा जीवन शुरू से ही इतना तकलीफ़देह, जटिल नहीं था। दस-ग्यारह की उम्र होते-होते मेरी तकलीफ़ शुरू हुई। और फिर बढ़ती गई। बचपन में ठीक थी। या ये कहें कि पैरेंट्स समझ ही नहीं सके कि ऐसी कोई प्रॉब्लम है। मेरे जन्म पर भी माँ बाप ने ख़ूब ख़ुशियाँ मनाई थीं कि उनके लड़का हुआ। मगर एक समस्या वो लोग मेरे चार-पाँच साल की होने के बाद से महसूस करने लगे थे। जो आगे बढ़ती गई। मेरी आवाज़ लड़कों सी ना होकर लड़कियों सी थी। मैं बाक़ी बच्चों के साथ खेलती तो सब मुझे चिढ़ाते। घर में सब बड़ा ऑड फ़ील करते। मैं इतनी समझदार तो थी नहीं। बाक़ी मुझे चिढ़ा रहे हैं इतना ही समझती और इसी बात पर ग़ुस्सा होती। जल्दी ही भाई-बहनों ने भी चिढ़ाना शुरू कर दिया। 

“छह-सात की होते-होते तक कोई दिन ऐसा ना जाता जिस दिन स्कूल और घर मिला कर मैं दो-चार बार टीचर, माँ-बाप या किसी अन्य से मार डाँट ना खाती। मैं अपनी उम्र के बच्चों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ रही थी। बड़े डील-डौल के कारण मैं सब को दौड़ा-दौड़ा कर मारती। फिर टीचर या माँ-बाप से पिटती। माँ-बाप ने कई डॉक्टरों को दिखाया। लेकिन सबने यही कहा किसी-किसी के साथ ऐसा होता है। धीरे-धीरे उम्र के साथ ठीक हो जाएगा। माँ-बाप ने फिर भी कोशिश जारी रखी। अब वो लोग इस समस्या के कारण बहुत चिंतित रहने लगे। जहाँ से जो पता चलता वही करने लगते। 

“मुझे मिर्च ख़ूब खिलाई जाती। कैथा के सीज़न में कैथा। जामुन के सीज़न में माँ मुझे जामुन खाने को यह कह कर देतीं कि इसे जितनी देर हो सके उतनी देर मुँह में रखो फिर निगलो। इसके बाद मुझे ख़ूब ठंडा पानी पिला देती। ऐसे ही ना जाने क्या-क्या मुझे खिलाया-पिलाया जाता रहा। इससे हालत यह हुई कि मेरा गला बुरी तरह ख़राब हो गया। अजीब सी सांय-सांय करती सी आवाज़ निकलती। मेरा बोलना-चालना मुश्किल हो गया। मगर मेरी और मेरे माँ-बाप के लिए असली समस्या तो अभी आनी बाक़ी थी। वह मेरा ग्यारहवां साल शुरू होते-होते शुरू हो गई।” 

“वो समस्या क्या थी?” 

“वही जो अब मैं हूँ। थर्ड जेंडर। उस समय तो यह शब्द सुना भी नहीं था। तब के शब्द में हिजड़ा। उसी समय से मेरी आवाज़ के साथ-साथ अब शरीर भी लड़कियों सी स्थिति में आने लगा। मेरे लड़कियों से कट्स बनने लगे। कमर, हिप, थाई लड़कियों सी कर्वी शेप लेने लगे। ग्यारह होते-होते निपल लड़कियों की तरह बड़े-बड़े इतने उभर आए कि मोटी बनियान, शर्ट पहनने पर भी साफ़ उभार दिखाई देता। माँ मेरी बनियान को पीछे से सिलकर ख़ूब टाइट कर देती। मगर सारी कोशिश बेकार। स्कूल में साथी अब आवाज़ के साथ-साथ इसको भी लेकर चिढ़ाने लगे। 

“कुछ तो खींचतान, नोच-खसोट करते, इस पर मैं मार-पीट करती। मैं स्कूल से आने के बाद घर से बाहर निकलना तो दो साल पहले ही बंद कर चुकी थी। एक दिन मोहल्ले के एक लड़के ने मेरी पैंट खोल कर बदतमीज़ी करने की कोशिश की। उस दिन फिर उसके हमारे घरवालों के बीच ख़ूब मारपीट हुई। बिहार के दरभंगा ज़िले के उस छोटे से क़स्बे में इससे ज़्यादा अच्छी स्थिति की उम्मीद नहीं कर सकती थी। उस दिन से मेरा स्कूल जाना भी बंद कर दिया गया। उस दिन शाम को घर में चूल्हा भी नहीं जला। माँ-बाप दोनों को ही मार-पीट में कई जगह चोटें लगी थीं। डॉक्टर के यहाँ मरहम-पट्टी करवानी पड़ी थी।” 

“ओफ़्फ़ो इतना सब होता रहा तुम्हारी एक इस हालत के कारण। वाक़ई तुमने और तुम्हारे घरवालों ने भी बड़ी मुश्किलें झेलीं हैं।” 

“सांभवी ये तो कुछ भी नहीं है। आगे मैंने जो-जो अपमान यातनाएँ भोगी हैं उनके अनगिनत घाव मुझे आज भी वैसे ही तड़पा रहे हैं। जैसे तब तड़पाते थे। एक-एक घटना गर्म आयरन रॉड की तरह आज भी मेरे शरीर से चिपकी मुझे भयानक पीड़ा दे रही हैं। मेरी मुश्किलें इतनी बड़ी हैं कि उनका मैं आज तक ओर-छोर ही नहीं ढूँढ़ पायी हूँ।” 

“अभी तक जो बताया वो मुश्किलें ही इतनी बड़ी हैं, इतनी पेनफ़ुल हैं तो और ना जाने क्या-क्या झेला होगा। जब स्कूल बंद हो गया तो पढ़ाई कैसे हुई?” 

“हुआ यह कि उसी दिन रात को मेरी एक हनुवा वाली मौसी आ गईं। मौसा जी उनके बच्चे भी साथ थे।” 

हनुवा वाली मौसी सुनकर सांभवी चौंकी। बीच में ही बोली, “हनुवा वाली मौसी! तुम्हारा नाम और।” 

“हाँ अजीब बात है ना। बिल्कुल मेरे नाम की तरह। हुआ यह कि जब मैं तीन साल की थी तब भी यह मौसी आयी थीं कुछ समय के लिए। उस वक़्त ये मुझे इतना प्यार करती थीं कि जब ये आठ-दस दिन बाद जाने लगीं तो मैं मौसी-मौसी कह कर रोने लगी। लोगों ने सोचा उनके जाने के बाद चुप हो जाऊँगी। लेकिन मैं घंटों रोती रही। तो माँ और सबने कहा ’मौसी हनुवा गईं।” असल में चित्रकूट ज़िले के पास हनुवा नाम का एक गाँव है। मौसी वहीं रहती हैं। तो सबने कहा हनुवा गईं। यह सुन कर मैं कहना चाहती थी कि मैं भी हनुवा जाऊँगी। लेकिन पूरा सेंटेंस बोलने के बजाय मैं आधा बोलती हनुवा, हनुवा। अगले दिन उठी तो भी मैं हनुवा-हनुवा कर रोने लगी। ऐसा कई दिन चला तो घर भर मुझे बाद में भी हनुवा कहने लगा। और फिर यही मेरा नाम हो गया। आगे चल कर मेरे साथ यह नाम ऐसा चिपका कि अब ख़ुद भी इससे छुटकारा नहीं चाहती।” 

“जिस चीज़ या बात से बहुत दिन जुड़ाव बना रहता है उसके साथ इमोशनली अटैचमेंट हो ही जाता है। तो उस दिन तुम्हारी हनुवा मौसी ने क्या किया? सबको इंजर्ड देखकर तो घबरा गई होंगी।” 

“हाँ दरवाज़े पर जब नॉक किया तो पापा सशंकित हुए कि झगड़ा करने के लिए विरोधी गुट फिर तो नहीं आ गया। यह सोच कर उन्होंने घर में एक कांता रखा हुआ था उसे ही हाथ में लेकर दरवाज़ा खोला। उनके ठीक पीछे अम्मा भी डंडा लिए खड़ी थीं। एक हाथ में लालटेन लिए हुए। बाहर तो अँधेरा ही अँधेरा था। सामने मौसा को देख कर पापा-अम्मा के जान में जान आई। अम्मा चहकती हुई बोलीं, “अरे सुमन तू . . .” पापा ने भी बढ़कर मौसा जी को नमस्ते किया और अंदर ले आए सबको। 

लेकिन अंदर आते ही उन लोगों ने पहला कुएश्चन किया, “अरे ये सब क्या हुआ? ये चोटें, कांता, लाठी।” तो पापा-अम्मा ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा, “कुछ नहीं भाई साहब, कभी-कभी लड़ाई झगड़े में भी हाथ साफ़ कर लेना चाहिए। पता नहीं कब ज़रूरत पड़ जाए।” इसके बाद चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब रात एक बजे तक चला और बातें भी। माँ-पापा जानते थे कि कुछ भी छिपाना सम्भव नहीं है। तो सारी बातें साफ़-साफ़ बता दीं। उनसे सलाह भी माँगी कि क्या करें? बाक़ी बच्चों का भी भविष्य देखना है। हम बच्चे तो सो गए। लेकिन बड़े लोगों की बातें और देर तक चलीं। 

अगले दिन भी विचार-विमर्श चलता ही रहा। मौसा ने यह कह कर और डरा दिया कि हिजड़ों तक यह बात पहुँचने में देर नहीं लगेगी। पता चलते ही वह सब इसको ज़बरदस्ती अपने साथ ले जाएँगे। फिर तो और ज़्यादा बदनामी होगी। समस्या के एक से एक हल ढूँढ़े जाने लगे। यह हल सुनकर शायद तुम आज भी सहम उठो कि मेरे ब्रेस्ट को सर्जरी कराकर पूरी तरह ख़त्म कर देने की भी बात हो गई। मगर यह समाधान बेकार हुआ। क्यों कि माँ ने बड़ी दूरदर्शिता दिखाते हुए कहा, “छाती तो सपाट हो जाएगी लेकिन इसकी जांघों, कूल्हों, कमर का क्या करेंगे? अभी से सोलह-सत्तरह साल की लड़कियों सी गदराई हुई हो रही है।” माँ की इस बात ने बात जहाँ शुरू हुई थी वहीं पहुँचा दी।” 

“हे भगवान माँ-बाप, मौसा-मौसी इस तरह भी सोच सकते हैं। मेरे तो सुनकर ही रोंगटे खड़े हो गए हैं। तुम पर क्या बीती होगी?” 

“बीती क्या? ग्यारह-बारह की तो हो ही रही थी। बहुत डीपली तो नहीं लेकिन काफ़ी हद तक चीज़ों को समझने लगी थी। बल्कि अपनी एज से कुछ ज़्यादा। लेकिन मैं बहुत ज़्यादा डरी सहमी थी। मेरे सारे भाई-बहन मौसी के बच्चे सब आपस में घुलमिल कर खेल रहे थे। मैं गुमसुम घर का कोई कोना ढूँढ़ती और वहीं छिपी रहने की कोशिश करती। उस दिन दोपहर होते-होते मौसा ने समस्या से निपटने की जो योजना सामने रखी। पापा-अम्मा को वह समझ में आ गई। 

मौसा ने साफ़ कहा, “चुपचाप यहाँ मकान, खेत सब बेच-बाच कर कहीं दूर जा के बसो। वहीं कोई काम-धंधा जमाओ। और वहाँ मुझे लड़का बनाए रखने की कोशिश ना करके जैसी दिखने लगी हूँ वही यानी लड़की बना के रखो। इससे कोई समस्या नहीं होगी।” 

“सब को यही सही लगा और फिर मौसा जी जो दो-चार दिन के लिए आए थे। वह उसी दिन शाम को अकेले हनुवा गए। काम भर के पैसे का इंतज़ाम कर हफ़्ते भर बाद लौटे। इसके बाद मन मुताबिक़ जगह की खोज में बड़ौत आ गए। और यहीं मेरी ज़िन्दगी बदल गई। 

“मौसी ने ही मेरा नाम सुशील से सुमिता कर दिया। अब पैंट-शर्ट की जगह सलवार सूट मेरी ड्रेस हो गई। यही मुझे पसंद भी थी। मौसी ही मेरे लिए चार सेट कपड़े भी पहले ले आईं। सब बच्चों को भी उन्होंने ना जाने क्या-क्या समझाया कि सब मिल-जुल गईं। वास्तव में अब मैं वह बन गई थी जो मैं फ़ील करती थी। यहाँ कोई दूर-दूर तक हम लोगों को जानने वाला नहीं था। वैसे भी हम लोगों का परिवार छोटा, अंतरमुखी है। मौसा के अलावा किसी से कोई संपर्क नहीं। दोस्त वग़ैरह भी नहीं। 

“मौसा ने जो पैसा दिया था वह जब खेत, मकान, बिका दरभंगा का तो वापस किया गया। जो बचा वह बिज़नेस में लगा दिया गया। संयोग से बिज़नेस चल पड़ा। और फिर दो तीन साल बीतते-बीतते जिस मकान में किराए पर रहते थे उसी से कुछ किलोमीटर आगे पापा ने एक पुराना मकान ख़रीद लिया। उसी में आज भी सब रहते हैं। मकान काफ़ी पुराना था। तो पापा बाद में धीरे-धीरे उसे तुड़वा कर नया बनवाते गए। बाद के दिनों में मैं समझ पाई कि अगर यहाँ आकर पापा का काम-धंधा ना चल गया होता तो मुझ पर मनहूस होने के और आरोप लगते, मेरी मुश्किलें और बढ़तीं। लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि अभी तो सबसे बड़ा घाव, सबसे बड़ी पीड़ा मिलनी बाक़ी है।” 

“क्या! इसके बाद भी अभी कुछ और होना बाक़ी है।” 

“हाँ अभी तो बहुत कुछ बाक़ी है। ऐसा नहीं है कि प्लेस और मेरा परिचय बदलते ही सब कुछ बढ़िया हो गया। शुरू में तो कई महीने लगे नए स्थान पर ख़ुद को एडजस्ट करने में। पापा के बिज़नेस को रफ़्तार पकड़ने में। मैं अपने बदले रूप से कुछ ही राहत महसूस कर रही थी। लेकिन समस्या कोई ख़त्म तो हुई नहीं थी। मौसा के जिन मित्र के ज़रिए मकान वग़ैरह आसानी से मिल पाया था उन्हीं के प्रयासों से ही हम तीनों बहनों का घर से थोड़ी दूर पर एक इंटर कॉलेज में एडमिशन हो गया। भाई का दूसरे स्कूल में। शिफ़्टिंग के कारण हम भाई-बहनों की पढ़ाई काफ़ी दिन बर्बाद हुई थी। किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ। मैं जिस कॉलेज में थी वह बस क़स्बों में जैसे होते हैं वैसा ही था। 

“मैं अपने भीतर शुरू से ही यह मान कर चल रही थी कि मेरी पढ़ाई अन्य सभी से ज़्यादा इंपॉर्टेंट है। मुझे सेल्फ़ डिपेंडेंट बनना है। मुझे मेरी स्थिति ने समय से पहले बहुत कुछ सिखा,समझा दिया था। मेरे साथ घर में जो व्यवहार होता था वह भी मुझे बहुत कुछ सिखाता, समझाता था। माँ-बाप ही नहीं भाई-बहन भी ज़्यादा से ज़्यादा काम मुझ पर ही डालते थे। मगर फिर भी अपनी पढ़ाई के लिए समय निकाल ही लेती थी।  

“इसीलिए पढ़ाई पिछड़ने के बाद भी मैंने जूनियर हाईस्कूल में अपनी क्लास में टॉप किया। पूरे स्कूल में मेरी दूसरी पोज़ीशन थी। स्कूल में मैं एकदम से सभी टीचर, सभी स्टुडेंट्स के बीच फ़ेमस हो गई। मेरी क्लास टीचर नाएला ने तो मुझे सिर आँखों पर बिठा लिया। क्यों कि उनकी भी ख़ूब चर्चा हुई। मैं आज भी मानती हूँ कि वो एक इंटेलिजेंट टीचर हैं। वो अपने स्टुडेंट पर जितना ध्यान देती थीं उसका आधा भी और देती रहतीं तो हर साल उनकी कम से कम तीन-चार स्टुडेंट टॉप टेन में ज़रूर रहतीं।” 

"वो लापरवाह क़िस्म की थीं क्या?” 

"नहीं लापरवाह तो नहीं कह सकती। एक्चुअली उनकी पर्सनल लाइफ़ बहुत डिस्टर्ब्ड थी। उनके हसबैंड वाराणसी में डी.एल.डब्ल्यू. हॉस्पिटल में सर्विस करते थे। वो चाहते थे कि मिसेज़ या तो नौकरी छोड़ दें। या वाराणसी ही ट्रांसफ़र करा लें। नाएला जी ने बहुत कोशिश की मगर हो नहीं पा रहा था। बाद के दिनों में यह भी सुनने को मिला कि नाएला जी नौकरी करें वो यही नहीं चाहते थे। दोनों के बीच सम्बन्ध बहुत कटु थे। उनके तीन लड़के एक लड़की थी। नाएला चाहती थीं कि कम से कम लड़की को उनके ही पास रहने दे। लेकिन हसबैंड कहते एक क़स्बे में रख कर बच्चों का कॅरियर बर्बाद नहीं करना। 

“बच्चे वाराणसी में ही अपनी दादी पापा के पास रहते। नाएला जी हर सैटरडे को अपने बच्चों के पास जातीं, और मनडे को लौट आतीं। घर से जब भी लौटतीं तो एक दो दिन उनका मूड बहुत ख़राब रहता। क्योंकि हर बार पति से जमकर झगड़ा होता था। पति बार-बार उन्हें तलाक़ देने की भी धमकी देते थे। एक बार जब वह ईद मनाकर लौटीं तो साथ की टीचरों ने अमूमन जैसा होता है ऐसे मौक़ों पर सिंवई वग़ैरह की बात कर दी। पहले तो वह बड़ी फीकी सी हँसी के साथ सबको टालती रहीं। लेकिन अचानक ही उनकी आँखों से झरझर आँसू बहने लगे। 

इससे सभी सकते में आ गए। सभी टीचरों ने सॉरी बोल कर उन्हें चुप कराया। उस दिन क्या फिर वह उस पूरे हफ़्ते कोई क्लास ठीक से नहीं ले पाईं। और सैटरडे को हसबैंड के पास गईं भी नहीं। एक बार एक टीचर ने उन्हें सलाह दी कि“जब हसबैंड नहीं चाहते तो छोड़ दीजिए नौकरी। इतने टेंशन के साथ जीने का क्या फ़ायदा।” 

तब नाएला जी ने जवाब दिया कि“अगर जॉब छोड़ने से टेंशन ख़त्म होती तो मैं यह भी सोचती। मगर मैं जानती हूँ तब मेरी तकलीफ़ें और बढ़ेंगी। मुझे वो जीवन भर एक-एक पैसे, एक-एक चीज़ के लिए तरसा देंगे। मुझे वो घर में क़ैद एक नौकरानी बना कर रखना चाहते हैं। बल्कि यह कहें कि नौकरानी से भी बदतर एक ऐसी मशीन एक ऐसी ग़ुलाम चाहते हैं जिसमें कोई इमोशंस, फ़ीलिंग्स ही ना रहे। जो घर, बच्चे उनकी माँ को देखे, ए टू जे़ड काम करे। और वो जब जैसे चाहें वैसे अपनी सेक्सुअल डिज़ायर पूरी करें। 

“मैंने बार-बार समझाया आख़िर कमाती तो हूँ सबके लिए ही ना। ज़्यादा पैसा होगा तो बच्चों की परवरिश पढ़ाई-लिखाई सब कुछ ज़्यादा अच्छी हो सकेगी। लेकिन मेरी बातें उनकी समझ में ही नहीं आतीं। और सास वह जब तक जागती हैं तब तक बारूद के पलीते में आग ही लगाती रहती हैं। एक बुज़ुर्ग, उससे पहले एक महिला के नाते वह झगड़ा ख़त्म कराने की कोशिश करेंगी ऐसा सोचना सबसे बड़ी मूर्खता करने जैसा है।” नाएला जी ने आख़िर में बड़े फ़ायरी अंदाज़ में कहा था कि“मैंने इनसे, इनके सारे घर वालों से निकाह से पहले ही क्लीयर कह दिया था कि मैं नौकरी नहीं छोड़ूँगी। मेरे पैरेंट्स ने भी क्लीयर कर दिया था कि सरकारी नौकरी है, बड़ी मुश्किल से मिली है। नाएला की सारी क़ाबिलियत के बावजूद लाखों रुपए रिश्वत, और सालों रात-दिन दौड़ धूप के बाद मिली। तब इन लोगों ने कहा नहीं नौकरी से कोई दिक़्क़त नहीं है। आजकल तो इसी का दौर चल रहा है। 

मगर निकाह के बमुश्किल छह सात महीने बीते होंगे कि नौकरी से लेकर खाने-पीने, पहनने सभी चीज़ों पर सभी अपने हुकुम चलाने लगे।” नायला जी इन सबकी रिंग लीडर अपनी सास को अपनी ख़ुशियों में आग लगाने वाली मानती हैं। मगर इन्हीं नाएला जी को इस बात का शायद ही अहसास हो, शायद ही उन्होंने कभी फ़ील किया हो कि उन्होंने कैसे मेरी लाइफ़ में आग लगाई। ऐसी आग कि मैं चाहे जितनी बड़ी एचीवमेंट पा लूँ मगर मेरे हृदय पर जो आग जलाई है वह इस जीवन में नहीं बुझेगी।” 

तभी बाहर कहीं क़रीब ही किसी ने बहुत तेज़ आवाज़ का पटाखा दगाया। जिस की भयानक आवाज़ से दोनों चौंक उठीं। रात बारह बज रहे थे लेकिन सारे क़ानून को धता बताते हुए प्रतिबंधित आतिशबाज़ी अभी भी रह-रह कर चल रही थी। हनुवा की बातें भी सांभवी के मन में आतिशबाज़ी ही कर रही थीं। बाहर हुए धमाके से चौंकने के बाद उसने सेकेंड भर में ही सँभलते हुए पूछा, “हनुवा क्या कह रही हो? तुम्हारी टीचर ऐसा क्या कर देंगी?” 

“सांभवी मैंने कहा ना कि मेरे साथ जो हुआ है अभी तक उसे किसी को बताओ तो वो शॉक्ड हुए बिना नहीं रह सकेगा। नाएला ने भी जो किया वो सुनकर तुम वैसे ही चौंकोगी जैसे अभी बाहर हुए धमाके से चौंकी थी।” 

“अरे ऐसा भी क्या?” 

“हाँ सांभवी, नाएला जी ने बरसों-बरस मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।” 

“क्या???” कहते हुए सांभवी अपने बेड पर पूरी तरह उठ कर बैठ गई। वह अब तक तकिया मोड़ कर उसे ऊँचा किए उसी पर सिर टिकाए अध-लेटी सी बातें सुन रही थी। 

‘मैंने कहा था ना सांभवी ऐसी बात है जिसे सुनकर कोई चौंकेगा ही नहीं उसके रोंगटे खड़े हो जाएँगे। नाएला जी ही हैं जिन्होंने मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।” 
“मैंने कहा था ना सांभवी ऐसी बात है जिसे सुनकर कोई चौंकेगा ही नहीं उसके रोंगटे खड़े हो जाएँगे। नाएला जी ही हैं जिन्होंने मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।” 

“हाँ, मैं तो विलीव ही नहीं कर पा रही हूँ। तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट वो भी एक लेडी, तुम्हारी ही क्लास टीचर करेगी।” 

“ये शॉकिंग है। लेकिन सांभवी पूरी तरह सच है। ये आजकल गवर्नमेंट ने जो स्वच्छता अभियान चलाया है ना, कि हर घर में टॉयलेट हो, कोई बाहर नहीं जाए। आज़़ादी के बाद पहले मुख्य कामों में यह भी होता तो अब तक सत्तर सालों तक, टॉयलेट ना होने के कारण बाहर जाने पर लाखों महिलाओं-लड़कियों की इज़्ज़त ना लुटी होती। उनकी हत्याएँ नहीं हुईं होतीं। यह तब की सरकारों का फ़ेल्यर है। जिसे ख़त्म करने की अब सोची गई। और देखते-देखते बहुत काम हो गया। टॉयलेट की प्रॉब्लम न होती तो मेरे साथ जो हुआ वह नहीं होता और नाएला जैसी इंटेलीजेंट लेडी मेरी घृणा का शिकार नहीं होती। 

वह टीचर जिसने मुझेे उस रास्ते पर आगे बढ़ाया, मेरी बराबर हेल्प की जिसके कारण मैं पैरेंट्स के इंट्रेस्टेड न होने के बावजूद भी बी-टेक कर पाई। इंजीनियर बन पाई। और तीन बार सरकारी नौकरी में सेलेक्ट हुई। लेकिन वो नौकरियाँ सिक्योरिटी फोर्सेस की थीं। वहाँ फिज़िकल टेस्ट में मेरी प्राइवेसी ख़त्म हो जाती। इसलिए मैंने क़दम वापस खींच लिए। इसके बाद किसी सरकारी नौकरी में सेलेक्शन हुआ ही नहीं। ना जाने कितने एग्ज़ाम दिए। अब तो याद भी नहीं कि किस-किस के रिज़ल्ट आए किसके नहीं।” 

“हनुवा शॉकिंग ये नहीं कि तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट हुआ। दुनिया में सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस होते रहते हैं। मेरे लिए शॉकिंग यह है कि तुम्हारा हुआ। कई बच्चों की माँ तुम्हारी लेडी टीचर ने किया। वो भी सालों साल। और तुम्हें बराबर आगे भी बढ़ाती रहीं। तुम्हारा उन्होंने कॅरियर भी बनाया। वो तो मुझे हॉलीवुड की किसी साइकिक मूवी की मेन कैरेक्टर सी लग रही हैं, कि तुम टॉयलेट के लिए बाहर जाती थी और वो तुम्हें पकड़ लेती थीं। 

“शायद तुम सही कह रही हो। वो कोई मनोरोगी भी हो सकती हैं। उनकी पर्सनल लाइफ़ ने, हो सकता है उन्हें साइकिक बना दिया हो।” 

“लेकिन टॉयलेट वाली बात तुम समझ नहीं पाई। हुआ यह कि जिस कॉलेज में थी वह क़स्बे का एक सरकारी कॉलेज था। जिसकी ख़स्ताहाल बिल्डिंग थी। स्टुडेंट और स्टॉफ़ के लिए दो टॉयलेट थे। उसमें स्टुडेंट वाला तो यूज़ के लायक़ ही नहीं बना था। स्टॉफ़ वाले में ही हम स्टुडेंट भी जाते थे। दरवाज़े, उनकी कुंडियाँ ऐसी थीं कि उन्हें बंद करने का कोई फ़ायदा नहीं था। हल्का सा खींचते ही खुल जाते थे। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ। 

“मैंने भरसक दरवाज़ा बंद किया था। मैं उठकर खड़ी ही हो रही थी कि नाएला जी आईं और एकदम से दरवाज़ा खींच कर खोल दिया। मैं एक घुटी हुई चीख सी निकालते हुए तड़पी। कपड़े बेहद टाइट होने के कारण मैं हड़बड़ाहट में उन्हें एकदम ऊपर खींच ही नहीं पाई, और मेरी प्राइवेसी नाएला के सामने पूरी तरह तार-तार हो गयी। कुछ भी छिपाने को नहीं रह गया था। नाएला जी भी मुझे एकदम अवाक्‌ स्टेच्यू बनीं देखती रह गईं। उस हड़बड़ाहट में भी मैं उनके चेहरे पर बार-बार भाव बदलते जा रहे हैं यह समझ रही थी। मैं कपड़ों को ऊपर कर बाँधते हुए बुरी तरह रोए जा रही थी। तब उन्होंने कहा, ’चुप हो जाओ मैं किसी को कुछ नहीं बताऊँगी। डरने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन तुम्हारे माँ-बाप को झूठ नहीं बोलना चाहिए था।’ 

“उनकी इस बात में ग़ुस्सा साफ़ झलक रहा था। मैं बाहर निकल पाती कि तभी वह बोलीं, ’छुट्टी में जाने से पहले मुझसे मिलकर जाना।’ मैं निकल ही रही थी कि तभी दो टीचर और आ गईं। मुझे रोता देख उन दोनों ने एक साथ पूछा, ’अरे इसे क्या हुआ?’ मैं डरी कि नाएला जी अब इन दोनों को भी सब बता देंगी। लेकिन उन्होंने बड़ी सफ़ाई से कहा, ’कुछ नहीं? मैं ज़रा जल्दी में थी, ध्यान दिया नहीं, दरवाज़ा खोल दिया। इसी लिए रो रही है।’ ये सुनते ही मेरे जान मैं जान आ गई। उनमें से एक तुरंत बोली ’इसमें इतना रोने की क्या बात है? यह भी लेडी हैं, जेंट्स तो नहीं। चलो जाओ क्लास में।’ मैं आँसू पोंछते हुए क्लास में पहुँच गई। 

“शाम को छुट्टी से एक पीरियड पहले ही नाएला जी ने मुझे अपने पास बुला लिया। मुझसे पूछताछ शुरू की तो मैंने सारी बात बता दी। पहले मारपीट, यहाँ शिफ़्ट करने सुशील से सुमिता बनने तक की सारी कहानी। मैं बार-बार रो पड़ती। तो उन्होंने उस दिन बहुत समझाया। यह विश्वास दिलाया कि कभी किसी से कुछ नहीं कहेंगी। अब मेरा कॅरियर बनाना उनकी ज़िम्मेदारी है। उन्होंने कहा ’मैं तुम्हें इतना पढ़ा-लिखा दूँगी कि तुम नौकरी में अच्छी पोस्ट पर काम कर सकोगी। जब तुम्हारे पास पैसा होगा, पॉवर होगी तो सभी तुम्हारे पीछे चलेंगे। तुम्हारे घर वाले भी तुम्हें अपने साथ बुला-बुला कर रखेंगे। तब तुम्हें किसी से छिपने या डरने की ज़रूरत नहीं होगी। तुम ओपनली बाक़ी लोगों की तरह खुल कर जी सकोगी। जो चाहोगी वह कर सकोगी।’ फिर उन्होंने कई ऐसी थर्ड जेंडर के बारे में बताया जो एक सक्सेजफुल लाइफ़ पूरी इज़्ज़त के साथ जी रहीं हैं। उन्होंने मुझे उस वक़्त इतना प्रोत्साहित किया, इतना समझाया कि मैं . . . मैं सारी टेंशन ही भूल गई। 

“मुझे लगा ही नहीं कि अभी कुछ देर पहले तक मैं बहुत डरी हुई परेशान थी। आख़िर में बोलीं ’ठीक है घर जाओ।’ मैं उठ कर उन्हें नमस्ते कर चलने लगी तो उन्होंने अचानक दोनों हाथों से मेरे चेहरे को पकड़ा और जल्दी-जल्दी मेरे गालों पर किस कर लिया। मैं उनके इस स्नेह प्यार से इतनी ख़ुश हो गई कि बता नहीं सकती। उन्हें देखती खड़ी रह गई, तो मुस्कुराती हुई बोलीं ’जाओ।’ चलने को मुड़ी तो मेरी पीठ और हिप पर भी हल्की-हल्की धौल जमा दी। 

“अपनी टीचर के इस प्यार से मेरे क़दम हवा में पड़ रहे थे। तब मुझे इस बात का अहसास ही नहीं था कि इसी प्यार के पीछे वह डंक है जो बस कुछ ही दिनों में मुझे लगने वाला है। यह प्यार वह जाल है, वह छद्मावरण है जो शिकारी अपने शिकार को फँसाने के लिए फैला रहा है।” 

“ये डंक तुम्हें कितने समय बाद लगा?” 

सांभवी का कुएश्चन सुन कर हनुवा ने कहा, “तुम्हें नींद नहीं आ रही क्या?” 

“नींद आती कहाँ है? मैं यहाँ हूँ तो मन कभी घर, तो, कभी अगले महीने की सात तारीख़ पर चला जा रहा है। इस बार अच्छी एम। ऐन। सी। में जॉब मिली है। ऑफ़र लेटर मिल चुका है। सैलरी पैकेज जो मिला है वह मेरी उम्मीद से कहीं बेहतर है। मैं इतनी एक्साइटेड हूँ इस जॉब को लेकर कि एक-एक घंटे का इंतज़ार लगता है जैसे कई सालों का है। और इन सबसे बड़ी चीज़ ये कि तुम्हारी लाइफ़ हिस्ट्री सुन कर मैं इतना शॉक्ड हूँ कि सारी बातें सेकेंड भर में जान लेना चाहती हूँ। 

“इतने तरह के प्रेशर के बाद कहीं नींद आती है क्या? वैसे भी जब से हम लोग जॉब के लिए यहाँ आए हैं तब से खाने-पीने, सोने जागने की कोई टाइमिंग रह गई है क्या? पर्सनल लाइफ़ क्या होती है यह सब तो भूल ही गई हूँ। कभी-कभी लगता है कि हम लोगों से अच्छी तो वो लड़कियाँ हैं जो जहाँ तक हुआ, पढ़ी-लिखीं। पैरेंट्स ने शादी कर दी, अपने हसबैंड बच्चों के साथ जी रहीं है। बेवजह सेल्फ़ डिपेंडेट होने का नशा पाल लिया। जब देखो तब नौकरी की चिंता, आज है कल रहेगी इसका पता नहीं। और सरकारी नौकरी सपने से कम नहीं। उसका तो सपना देखना भी पाप है।” 

सांभवी ने बेड पर पहलू बदलते हुए अपनी बात कही। उसकी बातों में, आवाज़ में उसकी तकलीफ़ छलछला पड़ी थी। जिसे हनुवा ने बड़ी गहराई से फ़ील किया। कुछ देर तक चुप उसे देखती रही। फिर कहा, “सांभवी तुमने सेल्फ़ डिपेंड होने का जो डिसीज़न लिया वह बिल्कुल ठीक है। हम लोग जैसी दुनिया में जी रहे हैं उसमें तो लड़कियों का सेल्फ़ डिपेंडेट होना बहुत ही ज़रूरी है। पैरेंट्स सभी के जल्दी से जल्दी लड़कियों की शादी कर देना चाहते हैं। मगर डॉवरी की आँधी में लड़की, पैरेंट्स दोनों की सारी इच्छाएँ उड़ जाती हैं। 

“लड़कियों को आगे बढ़ाने, सेल्फ़ डिपेंडेट बनाने की जो मेंटेलिटी डेवलप हुई अपने कंट्री में, मेरा मानना है वह ओनली-डॉवरी के ही कारण हुई। जिस तरह से लड़कियों को जलाया जाता है, उनका गला घोंटा जाता है, हाथ-पैर तोड़ा जाता है, ज़हर दिया जाता है, इसके बाद तो लोगों के सामने यही एक सॉल्यूशन बचा है। क्योंकि डॉवरी की डिमांड इतनी ज़्यादा है कि उसे अरेंज करने में ही पैरेंट्स दिवालिया हो जाते हैं। किसी तरह एक बार अरेंज कर शादी कर भी दी, तो भी उसके बाद बराबर डिमांड बनी ही रहती है। पैरेंट्स, लड़की सभी की सारी ख़ुशियाँ इसी में तबाह हो जाती हैं।” 

“तुम सही कह रही हो हनुवा, मेरे पैरेंट्स हम सभी भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई कराते-कराते फ़िनांशियली इतना वीक हो गए हैं कि क्या बताऊँ। हालत यह है कि कभी बिजली का बिल नहीं जमा होता, तो कभी हाउस, वॅाटर टैक्स। कहीं घूमना-फिरना तो जैसे हम लोग जानते ही नहीं। पहले जब डॉवरी वग़ैरह की प्रॉब्लम नहीं समझती थी तो यही सपने देखती थी कि पढ़ाई-वढ़ाई में समय बरबाद नहीं करूँगी। जल्दी से शादी करूँगी, तीन चार बच्चे पैदा करूँगी। उन्हें लेकर लाइफ़ को एंज्वाय करूँगी। तब ऐसे सपने मैं और ज़्यादा देखने लगी थी जब अपनी कॉलोनी ही की एक लड़की की ख़ूब धूमधाम से शादी फिर उसके बच्चे आदमी को मायके आने पर देखती। वह परी सी दिखती थी। वह बड़ी रिच फ़ैमिली में गई थी। 

“जब अपनी बड़ी सी कार से आती, तो उसे देखने के बाद मैं कई-कई दिनों तक वैसी ही लाइफ़ के सपने देखती। लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुई। अपने पैरेंट्स की फिनांशियल हैसियत और डॉवरी के अभिशाप को जाना, वैसे-वैसे सारे सपने मिट्टी में मिला दिए। भुला दिया ऐसे सपनों को। समझ गई कि अपनी लाइफ़ सिक्योर्ड करनी है, सेल्फ़ डिपेंडेट बनना है, तो पढ़ना है, कॅरियर बनाना है। हम सारे भाई-बहनों ने यही किया। पैरेंट्स इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि लड़कियों की शादी कहाँ से करूँ। हम सारे भाई-बहन नौकरी कर रहे हैं। प्राइवेट ही सही, लेकिन बात वही है कि किसी की शादी के लिए लाखों रुपए दो-चार साल में तो इकट्ठा नहीं हो जाएँगे। 

“पैरेंट्स हम सब की कुल इंकम का फिफ़्टी परसेंट जमा कर रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अपनी फ़ैमिली के स्टैंडर्ड की शादी के लिए जितना चाहिए उतना इकट्ठा करते-करते तो दस-पंद्रह साल निकल जाएँगे। तब तक तो हम बहनें पैंतीस-चालीस की हो जाएँगी। इस उम्र में शादी और काहे की शादी। कुल मिला कर यह कि हम बहनों का शादी के बारे में सोचना ही मूर्खता है, तो कम से कम मैंने तोे सोचना बंद कर दिया। भाई जब से नौकरी में लगा है तब से उसकी शादी के लिए लोग आ रहे हैं। मगर वो मूर्ख मानता ही नहीं। कहता है कि“बड़ी बहनों के रहते मैं कैसे कर सकता हूँ?” 

“पहले पैरेंट्स नहीं तैयार हो रहे थे। हम बहनों ने उनको किसी तरह तैयार किया कि हम बहनों के चक्कर में भाई की ज़िदगी तबाह करना कहाँ की समझदारी है? तब वो तैयार हुए। मगर मेरा भाई इमोशनली बहुत वीक है। तैयार नहीं होता। कहता है कि ’मान लो कोई ऐसी लड़की आ गई जो कहे कि तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकते। सबको बाहर करो। रोज़ झगड़ा करने लगे। तब तो और बड़ी प्रॉब्लम खड़ी हो जाएगी। कहाँ जाओगी तुम सब?’ उस मूर्ख को हम बहनें समझाती हैं कि अगर ऐसा हुआ तो कोई बात नहीं। हम अब इतना कमाते हैं कि अलग किराए पर मकान लेकर रह लेंगे। 

आगे पैसे इकट्ठा कर के कोई दूसरा मकान रहने भर का बनवा लेंगे। मगर जितना हम लोग उसको समझाते हैं, पलटकर उसका दुगुना वह हम सबको समझाने लगता है। अब तो ऐसे विहेव करता है जैसे घर का सबसे बड़ा वही है। इधर साल भर से पापा-अम्मा से रोज़ बहस, झगड़ा करता है कि मकान बेच कर बहनों की शादी कर दो। दुनिया में बहुत लोग किराए पर रहते हैं। हम लोग भी रह लेंगे। वो लोग नहीं माने तो उनकी इंस्ल्ट करने लगा। कि ’आप लोगों को अपनी लड़कियों के फ़्यूचर से ज़्यादा अपनी प्रॉपर्टी प्यारी है।’ इस पर भी पैरेंट्स नहीं माने तो घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देने लगा। 

आख़िर रोज़ कहते-कहते मम्मी-पापा को मना ही लिया। अब मकान बेचने और हम बहनों की शादी ढूँढ़ने का काम एक साथ चल रहा है। हम बहनों की बात सुनी ही नहीं जा रही है।” 

सांभवी की बातों को ध्यान से सुन रही हनुवा ने ख़ुश होते हुए कहा, “बहनों को तो ख़ुश होना चाहिए, कि ऐसा भाई मिला है। नहीं तो आजकल कौन भाई बहनों के लिए इतना सोचता है। सब सेल्फ़ डिपेंडेट होते ही शादी-वादी कर अपनी दुनिया में खो जाते हैं। परिवार को पूछते ही नहीं।” 

“हाँ ये तो है। लेकिन ये भी तो सही नहीं कि हम बहनें ऐसे भाई, पैरेंट्स के लिए इतने सेल्फ़िश हो जाएँ। मकान बेच कर जहाँ किसी तरह खींचतान कर हम तीनों की शादी हो जाएगी। वहीं परिवार के बाक़ी तीनों सदस्य तो परेशानी में आ जाएँगे ना। फिर जो माहौल चल रहा है उसे देखते हुए इस बात की क्या गारंटी कि शादी के बाद हम तीनों ख़ुश ही रहेंगे। 

“और फिर भाई की सर्विस भी कोई सरकारी नहीं है। कोई सिक्योर्ड जॉब नहीं है। आज है, कल रहेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। हमीं लोग कितनी जॉब छोड़ चुके हैं। जॉब शुरू करके साल-डेढ़ साल आगे बढ़ते हैं कि तभी अचानक ही नौकरी चली जाती है। हम विनिंग लाइन से सेकेंड भर में स्टार्टटिंग प्वाइंट पर पहुँच जाते हैं। 

“हाँ लेकिन फिर भी मुझे तुम्हारे भाई का सॉल्यूशन, उसका विज़़न ही सही लग रहा है। तीनों बहनों की शादी हो जाएगी। किराए पर रहते हुए भी उसकी शादी में अड़चन नहीं आएगी। और जो व्यक्ति इतना ब्रॉड माइंडेड होता है वो भविष्य बेहतर बनाने में भी सक्षम होता है। वह मकान वग़ैरह सब बना लेगा। ऐसे विज़नरी ब्रॉड माइंडेड, ब्रॉड हार्ट वाले लोग मिलते कहाँ हैं सांभवी? यहाँ अगर मैं ठीक होती ना तो तुमसे सिफ़ारिश करती कि अपने भाई से मेरी शादी करा दो,” इतना कह कर हनुवा खिलखिला कर हँस पड़ी। 

सांभवी भी हँस दी। उसे हनुवा की बात से ज़्यादा आश्चर्य इस बात का था कि इतने दिनों में वह पहली बार हनुवा को ऐेसे खिलखिला कर हँसते देख रही थी। लेकिन यह सब बस कुछ ही सेकेंड का था। हनुवा की हँसी बादलों में क्षण भर को कौंधी बिजली की तरह ग़ायब हो गई। फिर से पूरे चेहरे पर कसैलेपन की रेखाएँ उभर्र आईं। सांभवी को उसकी हालत समझते देर नहीं लगी। मगर कहे क्या? उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। तभी हनुवा ही बोल पड़ी। 

“सांभवी, माफ़ करना हम जैसों को तो ऐसे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है। हम ना किसी के हो सकते हैं, ना किसी को अपना सकते हैं। किसी के साथ अपने को मज़ाक में भी जोड़ना हमारे लिए पाप ही है।” 

“ओफ़्फ़ो हनुवा! तुम भी ना, कभी-कभी तुम्हारी बातों से लगता ही नहीं कि तुम इक्कीसवीं सदी की पढ़ी-लिखी पर्सन हो। कैसी-कैसी बातें दिमाग़ में भर रखी हैं। यार इतना टेक्निकल नहीं होना चाहिए।” 

“मैं टेक्निकल नहीं हूँ। सांभवी देखो ना अभी तुम्हें सिर्फ़ एक सेंटेंस बोलने में कितनी मुश्किल हुई। तुम आसानी से यह भी नहीं बोल पाई कि मैं इक्कीसवीं सदी की एक पढ़ी-लिखी गर्ल हूँ। बड़ी कोशिश करके तुमने एक रास्ता निकाला, मुझे पर्सन बोला। मेरा जेंडर तय नहीं कर पाई। सांभवी हम जैसों को तो नेचर ही ने इतना टेक्निकल बना दिया है कि हम और टेक्निकल होने की सोच ही नहीं सकते। हमारी टेक्निकल्टी इतनी ज़्यादा है कि हमारे यहाँ के कानूनविदों को पैंसठ साल लग गए फ़ॉर्मों में हमारे लिए थर्ड जेंडर का तीसरा कॉलम बनाने में। अब तुम्हीं बताओ इस हालत में हम जैसे लोग सोच भी सकते है टेक्निकल होने की?”

“सॉरी हनुवा मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतना नाराज़ हो जाओगी।” 

“अरे कैसी बात कर रही हो? सांभवी तुम तो मेरी जान बन चुकी हो। नाराज़गी शब्द तुम्हारे लिए मेरी डिक्शनरी में है ही नहीं,” इतना कहते-कहते हनुवा ने कुछ ही देर पहले ही फिर से सामने आ बैठी सांभवी को गले लगा लिया। और जब उससे अलग हुई तो उसकी आँखें भरी हुई थीं। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें सुर्ख़ हो गई थीं। बहुत ही भर्राई आवाज़ में बोली। 

“फिर ऐसा ना सोचना, तुम्हें मैं अपना हिस्सा मान चुकी हूँ। मेरा मन यही कहता है कि इस दुनिया में अब सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हीं हो मेरी। तुमने अगर छोड़ा तो मेरे सामने मरने के सिवा कोई रास्ता ही नहीं होगा।” 

हनुवा की भावुकता के सामने सांभवी भी ठहर ना सकी। अब उसने हनुवा को अपने गले से चिपका लिया। बोली, “हनुवा-हनुवा मेरी हनुवा, मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। अब तुम ही मेरी सब कुछ हो। सब कुछ।”

इतना कहते हुए जब सांभवी अलग हुई तो उसकी भी आँखें भरी थीं। कुछ सेकेंड वह हनुवा के चेहरे को अपलक देखती रही फिर बोली, “तुम्हारी उस टीचर ने तुम्हें किस तरह डंक मारा कि तुम जीवन भर उसके दर्द को महसूस करोगी यह तो बताया ही नहीं। बातों का ट्रैक ही बदल गया। कहाँ से कहाँ चले गए हम दोनों।”

“हाँ सही कह रही हो तुम। बात तो मैं अपनी टीचर की कर रही थी। मन तो नहीं करता कि उनके लिए टीचर जैसे पवित्र शब्द का प्रयोग करूँ। लेकिन मेरा कॅरियर बनाने में उनका इतना बड़ा हाथ है कि या ये कहें कि एक मात्र उन्हीं का हाथ है जिसकी वजह से उन्होंने मुझे जो पीड़ा दी जीवन भर की उसे मैं थोड़ा साइड कर देती हूँ। 

“ग़ुस्सा तो बहुत आता है। लेकिन फिर भी उनके लिए मन में कोई गंदा शब्द नहीं आता। कोई गाली नहीं आती। उस दिन जब स्कूल से बड़े प्यार दुलार से शाम को मुझे घर भेजा तो मैं बहुत ख़ुश थी। लेकिन मैंने घर में किसी को कुछ नहीं बताया। अगले दिन स्कूल में नाएला जी ने मुझसे कहा कि उनके घर पर शाम को छह बजे तक कुछ लड़कियाँ पढ़ने आती हैं। मैं भी आ जाया करूँ तो वह पढ़ा देंगी। इससे मेरे मार्क्स और अच्छे आएँगे। मैं अपने घर और अपने बारे में उन लोगों की इच्छा-अनिच्छा सब जानती थी, और यह भी कि मुझ पर एक पैसा भी एक्स्ट्रा ख़र्च करने वाले नहीं है। अलग से ट्यूशन की तो बात ही नहीं उठती। 

“इसलिए मैंने उनसे साफ़ कह दिया कि मैं नहीं आ सकती। मेरे माँ-बाप फ़ीस किताब ही मुश्किल से देते हैं। ट्यूशन का नाम सुनते ही मार भी सकते हैं। इस पर वह बोलीं, ‘मैं तुम्हें पढ़ाई-लिखाई में इतना आगे बढ़ाना चाहती हूँ कि तुम आगे चल कर किसी पर डिपेंडेट ना रहो। बल्कि घर की भी हेल्प कर सको। इतने अच्छे मार्क्स लाओ कि तुम्हें मैं स्कॉलरशिप दिला सकूँ। पढ़ाने के लिए मैं तुम्हारे पैरेंट्स से एक पैसा नहीं चाहती।’ 

“मैंने घर पर कहा तो मुझे झिड़क दिया गया। अगले दिन नाएला जी ने सारी बात सुनने के बाद भी हार नहीं मानी। तीन चार दिन में दुकान पर फ़ादर से बात कर ली। फ़ादर की दुकान के बग़ल में ही पी.सी.ओ. था। ज़रूरत पड़ने पर हम लोग उसी पर संपर्क करते थे। नाएला जी फ़ादर को कंविंस करने में सफल रहीं। और अंततः पाँचवें दिन से मैं उनके घर पढ़ने जाने लगी। मेरे अलावा चार लड़कियाँ और आतीं थीं। 

“मेरे घर से उनका घर क़रीब बीस मिनट की दूरी पर था। ऊपर दो कमरे का मकान उन्होंने किराए पर लिया था। नीचे मकान मालिक रहते थे। पढ़ाते समय वो किसी एक लड़की को बोल कर सबके लिए चाय बनवातीं। अपना प्रिय पारले जी बिस्कुट ख़ुद भी खातीं और हम सबको भी देतीं। कमरे में वह एक तख़्त पर कभी लेटे-लेटे पढ़ातीं तो कभी बैठ कर। कोई निश्चित टाइम नहीं था। कभी डेढ़ घंटा, कभी दो घंटा। 

“पढ़ना शुरू करने के बाद जब दूसरा संडे आया तो उन्होंने कहा कल भी दोपहर तक आ जाना। बता कर आना कि देर से आऊँगी। इतने दिन की पढ़ाई से मैंने ख़ुद अपनी पढ़ाई में फ़र्क़ महसूस किया था। घर वालों ने भी। मेरी तरह वो लोग भी इंप्रेस्ड थे। इस लिए संडे को मैं क़रीब एक बजे पहुँच गई। उस समय वो हफ़्ते भर के कपड़े धुल चुकीं थीं। कमरे से लगी अच्छी-ख़ासी बड़ी सी छत पर तार की अरगनी पर फैला रही थीं। 

“उन्होंने जो मैक्सी पहन रखी थी वह भी क़रीब-क़रीब पूरी भीगी थी। बदन से मैक्सी चिपक-चिपक जा रही थी। वह मुझे बड़ी अजीब लग रही थीं। सामने से मैक्सी का काफ़ी हिस्सा ऊपर तक खुला था। चलने पर उनकी जाँघें तक खुल जाती थीं। उनका गोरापन देखकर मैंने सोचा टीचर जी का आधा गोरापन भी मिल जाता हम भाई-बहनों को तो कितना अच्छा था। वह मुझे कमरे में बैठने को बोलकर काम में लगी रहीं। 

“मैं घर में काम करने की आदी तो थी ही। उनको ऐसे मेहनत करते देख कर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने हेल्प करने की कोशिश तो वो नहीं मानीं। लेकिन मैंने भी उनकी बात नहीं मानी। उनके लाख मना करने पर भी हेल्प की। बाल्टी में चादरें थीं, उन्हें भी धुल कर डाला। कपड़ों के बाद वो पूरी छत धोकर नहाना चाहती थीं। मैंने कहा आप नहाइए। छत मैं धोऊँगी। वो बड़ी मुश्किल से मेरी बात मानीं। 

“मैंने देखा छत बीच-बीच में तो धो ली जाती है लेकिन किनारे-किनारे दीवारों के पास बहुत गंदी है। मैं अपनी सफ़ाई पसंद नेचर के चलते एक-एक कोने को पूरी तरह साफ़ कर जब कमरे में पहुँची तब तक नाएला जी दो कप चाय, एक प्लेट में बिस्कुट, ढेर सा सेवड़ा (मैदा से बनीं नमकीन) और दो लौंगलता तख़्त पर रख चुकी थीं। मुझसे उसी पर बैठने को कहा। हम सभी स्टुडेंट उनके सामने ज़मीन पर दरी बिछा कर बैठते थे। मैंने संकोच में नीचे ही बैठने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानीं। तख़्त पर उन्हीं के सामने बैठी। बीच में नाश्ता था। पहले मिठाई फिर नमकीन, चाय हम दोनों ने खाई पी। मुझे वो बार-बार खाने को कहतीं तभी मैं लेती थी। 

“मैं बहुत डर रही थी। नाश्ते के दौरान ही उन्होंने पढ़ाई की बातें शुरू कर दीं थीं। मगर जल्दी ही बातों का ट्रैक उन्होंने बदला। यह समझाने की कोशिश कि की हमारे यहाँ का एजुकेशन सिस्टम केवल नौकरी के लिए ही तैयार करता है। स्टुडेंट को वह एजूकेट नहीं करती सिर्फ़ लिटरेट करती है। उन्हें अन्य डेवलप्ड कंट्रीज़ की तरह ऐसा नहीं बनाती कि अपने नेचुरल टैलेंट का वो कोई यूज़ कर पाएँ। इतनी बातें करते-करते उन्होंने फिर ट्रैक बदला और मेरी जैसी ट्रांसजेंडर की स्थिति क्या होती है समाज में यह बताने लगीं। इस बीच नाश्ता ख़त्म हो चुका था और मैं प्लेट वग़ैरह किचन में रख आई थी। जब मैं लौटी तो वो तख़्त पर लेट गई थीं। मैंने सोचा अब पढ़ाएँगी। अक़्सर वह पढ़ाते-पढ़ाते लेट जाती थीं। 

“मैं यह सोच कर दरी बिछाने और किताबें निकालने को हुई तभी उन्होंने अपनी बग़ल में तख़्त पर ही बैठने को कहा। उनकी ज़िद पर मैं बिल्कुल उनके पैरों के पास बैठी। लेकिन वो फिर ज़िद कर बैठीं और मुझे बीच में बैठाया। मैं उनके चेहरे की ओर मुँह किए उनके पेट के नज़दीक ही बैठी। मेरे बैठते ही उन्होंने करवट ली। उनका पेट मुझसे छूने लगा। मैं उनकी ज़िद के कारण हट नहीं पा रही थी। कुछ ही देर में उनकी हरकतों से मैं सहमने लगी, उनकी बातें मुझे डराने लगीं। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए कहा कि ’तुम्हारे जैसी ट्रांसजेंडर को हिजड़ों का समूह उठा ले जाता है। शरीर के कई हिस्सों को अपने धंधे के हिसाब से अंग-भंग कर देता है। अगर उनको मालूम हो जाएगा तो वो तुम्हें ज़बरदस्ती उठा ले जाएँगे। घर वाले, पुलिस कोई उन्हें रोक नहीं पाएगा।’

“लगे हाथ एक घटना भी बता दी कि मेरे जैसी किसी ट्रांसजेंडर को वो ऐसे ही ले जा रहे थे। घर के लोगों ने रोका तो वो झगड़ा करने लगे। पुलिस आई तो वो सब नंगे होकर लड़ने पर उतारू हो गए। पुलिस भाग गई। शहर भर के हिजड़े इकट्ठा हो कर उस लड़की को लेते गए। आज वो उन्हीं की तरह नाचने-गाने का काम करती है। बेइज़्ज़ती के कारण उसके फ़ादर, मदर ने सुसाइड कर लिया। बाक़ी बच्चों को भी ज़हर दे दिया था। सब के सब मर गए। 

“मैं ये सब सुनकर रोने लगी। तो उन्होंने मुझे अपने से और चिपका कर आँसू पोंछते हुए कहा ’हनुवा तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगी। मैं तुम्हारा कॅरियर ऐसा बना दूँगी कि तुम बाक़ियों के लिए एक एग्लज़ाम्पल बन जाओगी।’ उन्होंने पहले की तरह फिर कई ऐसे ट्रांसजेंडर्स की बात की जिन्होंने ने अपनी इस समस्या से पार पा के अपना एक स्पेस बनाया। मैं इस बीच बार-बार यह भी फ़ील कर रही थी कि नाएला जी के हाथ मुझे ऐसी जगह भी टच कर रहे हैं, सहला रहे हैं जहाँ मेरी समझ से उन्हें टच नहीं करना चाहिए था। सांभवी उन्होंने मुझे यह कह कर सबसे ज़्यादा डरा दिया कि हम जैसे लोग समाज में महाभारत काल से ही एकदम कोने में फेंके जाते रहे हैं। 

एक उदाहरण तब का बताया जब राम के अयोध्या वापस आने पर नगरवासी उत्सव मना रहे थे। देर हुई तो राम ने सारे नर-नारियों, बच्चों, बूढों को घर जाकर सोने, आराम करने को कहा। लेकिन जो ट्रांसजेंडर थे उन्हें कहना भूल गए। और ये ट्रांसजेंडर राजा राम का आदेश ना मिलने के कारण रात भर नाचते रहे। अगले दिन राम ने पता होने पर खेद प्रकट किया। 
दूसरा उन्होंने ऐसा प्रमाण दिया जिस पर डाउट करने का मेरे पास कोई रीज़न नहीं था। उन्होंने कहा तमिलनाडू में एक ज़िला बिल्लूपुरम है। वहाँ कुआगम गाँव में महाभारत के काल से ही एक परंपरा चली आ रही है। गाँव के एक मंदिर कुठनद्वार में साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता है। जिसमें देशभर से सारे ट्रांसजेंडर इकट्ठा होते हैं। वहाँ उनकी एक दिन के लिए शादी होती है। फिर मंदिर का पुजारी उनके मंगलसूत्र तोड़ कर उन्हें विधवा बना देता है। वो असली विधवाओं की तरह ख़ूब विलाप करती हैं। यह परंपरा तब से शुरू हुई जब महाभारत युद्ध चरम पर था। उसी समय अर्जुन और उनकी नागवंशी पत्नी चित्रांगदा के पुत्र अरवाण ने युद्ध में भाग लेने से एक दिन पहले विवाह की इच्छा प्रकट कर दी। 

सभी बड़े असमंजस में पड़ गए। कृष्ण ने पूरे युद्ध की तरह यहाँ भी छल-छद्म का इस्तेमाल किया। एक ख़ूबसूरत स्त्री का रूप धारण कर अरवाण से विवाह कर लिया। मगर अरवाण रात भर अपनी सुहागरात नहीं मना सका। कृष्ण का मोहिनी रूप उसे कंफ्यूज किए रहा। उसे बार-बार ऐसा महसूस होता कि उसकी पत्नी के शरीर से कभी माखन की तो कभी मिसरी की ख़ुश्बू आ रही है। कृष्ण अपने हावभाव से रात भर उसे कंफ्यूज किए रहे। और सवेरा हो गया। अरवाण अपनी अधूरी सुहागरात की पीड़ा लिए युद्ध मैदान में चला गया। 

उसके भयानक संग्राम से विपक्षी सेना में हा-हा कर मच गया। वह पत्थर का रूप धारण कर दुश्मनों पर लुढ़कता चला जा रहा था। उन्हें कुचलता मारता जा रहा था कि तभी उसने देखा कि उसकी पत्नी रोती, चीखती-चिल्लाती अपने सुहाग चिह्नों को मिटाती, तोड़ कर फेंकती चली आ रही है। यह देख कर अरवाण को संतोष हुआ कि उसके बाद उस पर आँसू बहाने वाला कोई तो है। कहते हैं कि इसी अरवाण का पत्थर बना सिर कुठनद्वार मंदिर में है। जिसकी पूजा तभी से सारे ट्रांसजेंडर करते आ रहे हैं। मेले वाले दिन आज भी दुनिया भर से सारे ट्रांसजेंडर यहाँ आते हैं। 

“अरे यार एक बार तो इस मेले में चल कर देखना चाहिए कि सच क्या है?” 

“‘नहीं सांभवी मैं वहाँ के नाम से काँपती हूँ। वहाँ लाखों हिजड़ों में से किसी ने भी यदि मेरी सच्चाई जान ली तो मैं बच नहीं पाऊँगी। कहते हैं वो सब ट्रांसजेंडर्स को सात तहों में भी पहचान लेते हैं। तुम वहाँ से अकेले ही आओगी। मैं तभी से कुवागम नाम से ही सिहर उठती हूँ जब उस दिन नाएला जी ने इन किस्सों के साथ-साथ ढेर सारे ऐसे ही और क़िस्से बतायए। मुझे थर्ड जेंडर की उन्होंने जो दुनिया दिखाई उससे मैं तभी से हर पल डरती-काँपती रहती हूँ। अपने को बचाए रखने का कौन सा जतन नहीं करती हूँ। यह डर ही है कि मैं फूट-फूट कर उनके सामने रोती रही कि मुझे वो जल्दी से वह बना दें कि मैं सुरक्षित होकर लोगों के लिए एग्ज़ाम्पल बन जाऊँ। मेरे उस भय का ही उन्होंने फ़ायदा उठाया। 

“मेरी सारी फिज़िकल कंडीशन को थॉरोली समझ कर, मेरे लिए वो एक प्लान बना कर आगे बढ़ सकें, इसके लिए चेक करने के नाम पर उन्होंने मेरे सारे कपड़े अलग कर दिए। मेरे अंगों से खेलती ख़ुद भी नेकेड हुईं। और मेरा जी भर कर सेक्सुअल हैरेसमेंट किया। उस दिन पढ़ाई के नाम पर तीन घंटे मुझे रोका। इस सारे समय चेकअप के नाम पर मेरा हैरेसमेंट करतीं रहीं। और फिर यह बरसों-बरस चला।”

इतना कहते-कहते हनुवा फिर रोने लगी। सांभवी ने उसे चुप कराते हुए कहा, “ओह गॉड! टीचर होकर तुम्हारे साथ ऐसा किया। और बरसों तक करती रहीं। आश्चर्य तो यह है कि फिर भी इतने सालों बाद भी तुम्हारे मुँह से उसके लिए एक भी ग़लत शब्द नहीं निकलता। यार तुम क्या हो? तुम क्या-क्या सहन करती आई हो? कितना सहन करती हो? तुमने उसी दिन अपने पैरेंट्स से क्यों नहीं बताया? मान लो डर के मारे नहीं बताया। लेकिन यह भी तो कर सकती थी कि अगले दिन से उस गंदी औरत के पास जाती ही नहीं। तुम्हें नहीं लगता कि तुमने बड़ी ग़लती की जिस कारण वह सालो-साल तुम्हारा शोषण करती रहीं।” 

“सांभवी ये पॉसिबल नहीं था।” 

“क्यों?” 

“क्योंकि जब तीन घंटे बाद उन्होंने मुझे घर जाने के लिए छोड़ा तो एक तरह से साफ-साफ धमकी दी कि घर में बताया तो वो मेरी सारी बातें सब को बता देंगी। वहाँ जो हिजड़े हैं उन्हें भी बता देंगी। वो सबसे यही कहेंगी कि पढ़ने के लिए डाँटा-मारा तो मैंने उन पर झूठा आरोप लगा दिया। मेरी बात पर कोई यक़ीन नहीं करेगा। उनके पास जाना मैं इसलिए नहीं छोड़ सकती थी क्योंकि घर पर उन्होंने सबको यक़ीन दिला रखा था कि वो मेरा कॅरियर ऐसा बना देंगी कि मैं परिवार पर कोई बोझ ना रह कर परिवार की ताक़त बन जाऊँगी। 

“मेरी पढ़ाई में जो परिवर्तन घर वालों ने देखा था उससे वो नाएला जी के जबरदस्त प्रभाव में थे। वो नाएला जी की ही बात मानते। सबसे ज़्यादा मैं इस बात से परेशान थी कि उन्होंने वहाँ के हिजड़ों को मेरी बात बता देने की धमकी दी थी। मेरे ख़िलाफ़ उनके हाथ में यह एक ऐसा ब्रह्मास्त्र था जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। तुम्हीं बताओ क्या मेरे पास कोई जवाब हो सकता था?” 

हनुवा इतना कहकर सांभवी को देखने लगी तो वह बोली, “सच कहूँ हनुवा कि ऐसी स्थिति में मुझे भी कोई रास्ता नहीं सुझाई देता। मैं तुम्हारी जगह होती तो इतना तो यार तय था कि मैं क्या रिज़ल्ट होगा इसका ख़्याल ना करती। और वहाँ जो कुछ मेरे हाथ लगता उसी से उस निम्फोमैनिएक लेडी को मार देती। निश्चित ही मैं यही करती। ख़ैर जब इतनी गिरी हुई औरत थी तो तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कॅरियर का उसने क्या किया? जब-जब वह तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट करती थी तब-तब तुम उसे मना करने की कोशिश नहीं करती थी क्या?” 

“सांभवी उस समय मैं बड़ी ही अजीब, बड़ी ही क्रिटिकल सिच्यूएशन में थी। उनके सामने पड़ते ही मैं कसाई के सामने पड़ गए मेमने की तरह काँपती थी। एक ऐसी खिलौना बन जाती थी जिसका रिमोट उनके हाथ में था। वो जैसा चाहती थीं मुझे वैसा ही चलाती थीं। और-और मैं, एक्चुअली उन्होंने अपना काम आसान, परफ़ेक्ट बनाए रखने के लिए मुझे अपनी स्थिति अपने शरीर को एंज्वाय करने की आदत डाली। सेक्स के हर पहलू से परिचित करा कर वो मुझे ऐसा बना देना चाहती थीं कि मैं ख़ुद उनके पास पहुँचूँ। 

“काफ़ी हद तक वो अपने काम में सफल रहीं। मैं ख़ुद तो उनसे क्या पहल करती लेकिन वो जब मुझे यूज़ करतीं तो मुझे कोई ग़ुस्सा या खीझ नहीं होती थी। हाँ जब कभी-कभी वह बहुत ही ज़्यादा एग्रेसिव हो जातीं तो मुझे तकलीफ़ होती। और मैं अलग होने की कोशिश में उन्हें धकेल तक देती। मगर वह फिर इतने प्यार से क़रीब आतीं कि मेरा ग़ुस्सा ख़त्म हो जाता। 

“मैं अपनी भी ग़लती बताऊँ कि उनसे बचने की मैं पूरी कोशिश नहीं कर पाती थी। आधी-अधूरी ही करती थी। या शायद तब इतनी समझदार ही नहीं थी। पूरी कोशिश करती तो शायद वो उतना शोषण ना कर पातीं जितना किया। एक बात और कि वह अपनी बात की बहुत पक्की थीं। वो मेरी पढ़ाई-लिखाई पर अब और ज़्यादा ध्यान देती थीं। उन्हीं के कारण मैं बीटेक। कर सकी। उन्होंने ही कानपुर यूनिवर्सिटी से प्राइवेट एम। ए। भी करवाया। वो नौकरी के लिए जगह-जगह फ़ॉर्म भरवाती रहीं। 

“उन्होंने सिविल सर्विस के लिए भी तैयारी कराई। दो बार प्री वीट भी कर लिया। लेकिन आगे नहीं बढ़ पायी। असल में विनिंग लाइन पर पहुँच-पहुँच मैं बार-बार जो हारती रही तो इसके पीछे मेरा डर ही ज़िम्मेदार है। नाएला बार-बार इससे मुझे बाहर निकलने को कहतीं। एक मनोचिकित्सक की तरह मेरा ट्रीटमेंट करतीं, लेकिन मैं भेद खुल जाने, हिजड़ा कहे जाने के डर से उसके फोबिया से ख़ुद को ना निकाल पाई। नाएला कोशिश करके हारती रहीं। वो खीझ कर कहतीं कि ’अब तो इतना पढ़ चुकी हो। डरने की ज़रूरत नहीं। ये दुनिया जो चाहे कहे उसकी परवाह ही नहीं करनी है।’ 

“उनके ऐसा कहते ही मैं गिड़गिड़ाने लगती कि नहीं ऐसा किसी हालत में नहीं करना है। सांभवी मेरी पढ़ाई-लिखाई में जितना ख़र्च हुआ वह सब उन्होंने ही किया। उन्होंने ना जाने कहाँ से कैसे कोशिश कर-कर के मुझे कई स्कॉलरशिप दिलवाई, जिससे उनका बोझ हल्का हुआ। बाद के दिनों में मेरे पैरेंट्स इतने इंप्रेस हुए कि उनसे कहने लगे ’बहन जी आप ही इसकी माँ-बाप हैं। अब तो हनुवा आपकी हुई। हम तो इसे पैदा करने भर के दोषी हैं बस।” 

“यह सुन कर मेरे तन-बदन में आग लग जाती। ऐसी टीस उठती कि जी तड़प उठता। वहीं दूसरी तरफ़ नाएला जी का भी चेहरा देखती। जहाँ सेकेंड भर में अनगिनत भाव आ आकर चले जाते। मेरे शोषण के साल भर ही बीते होंगे कि नाएला जी के हसबैंड ने उन्हें तीन तलाक़ दे दिया। वो जब बच्चों से मिलने गईं तो मिलने भी नहीं दिया। मार-पीट अलग की। इससे दुखी नाएला जी कई दिन स्कूल नहीं गईं। घर पर पड़ी रोती रहतीं। मुझे बुलातीं ज़रूर लेकिन पढ़ाती नहीं। बस होम वर्क वग़ैरह पूरा करा देतीं। खाना-पीना कुछ ना बनातीं। मेरे घर वालों के भेजने पर मना कर दिया। कहा ’ऐसा कुछ नहीं है, बना लेंगे।” फिर मैं ही उनके घर पर कुछ ना कुछ बना कर उनको खिला भी देती। 

“उनको मामले को कोर्ट ले जाने की सलाह दी गई, तो उन्होंने कहा कि ’कुछ नहीं होगा। कई मामले कोर्ट में गए। महिलाओं के हक़ में फ़ैसले भी हुए। लेकिन अमल में कुछ नहीं आया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने हिसाब से चलेगा। तलाक़ मामलों में हम महिलाओं के लिए बड़ी उम्मीद वहाँ नहीं है। कोर्ट में भी यह बाधा ही है।” नाएला इस सदमें के चलते बीमार पड़ गईं। तब मैंने पैरेंट्स के कहने पर उनकी जी-जान से सेवा की। उन्हीं के साथ रहने लगी। रात में भी। जल्दी ही वह ठीक हो गईं। फिर मुझे वह अपने ही यहाँ रोकने लगीं। मुझे अपने साथ ही सुलातीं। मेरे प्रति उनका प्यार और उनके द्वारा मेरा शोषण दोनों ही रोज़ पर रोज़ बढ़ते गए। अब वह मेरी पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ कपड़े वग़ैरह का भी ख़र्च उठाने लगीं। साल में बाक़ी भाई-बहनों को भी कपड़े वग़ैरह देने लगीं। लेकिन इन सबको मुझसे दूर ही रखतीं।” 

“तुम्हारी नाएला को मैं क्या कहूँ समझ में नहीं आता। भगवान ने भी दुनिया में ना जाने कैसे-कैसे कैरेक्टर बना के भेजे हैं। लेकिन जब तुम और बड़ी हो गई तब भी कोई विरोध नहीं करती थी या कभी तुम दोनों का झगड़ा नहीं हुआ?” 

“सांभवी आज भी उनके सामने आने पर मेरी स्थिति छोटे बच्चे की तरह होती है। जो टीचर के सामने जाने पर डरता रहता है। बी-टेक. करने के समय तक मैं शारीरिक रूप से नाएला जी की अपेक्षा बहुत स्ट्रॉन्ग हो चुकी थी। मैं ज़्यादा से ज़्यादा पर्सेंटेज़ लाने के लिए जमकर पढ़ाई करने में लगी रहती थी। 

“अब नाएला जी का मेरी पढ़ाई पर इतना ही हस्तक्षेप था कि उनकी इंग्लिश लैंग्वेज बहुत अच्छी थी। उसी में हेल्प करती थीं। इसलिए मैं उनके मन मुताबिक़ उन्हें समय ना दे पाती। ऐसे में देर रात तक जब पढ़ती तो वह साथ सोने को बुला लेतीं। मैं आना-कानी करती तो नाराज़ होतीं। मैं मन मार कर साथ सो जाती। मुझे बड़ा ग़ुस्सा आता। जिसे मैं रिलेशनशिप के दौरान उन्हें रौंद कर उतारती। उस वक़्त तो वह कुछ ना बोलतीं। शायद वह मेरी जबरदस्त आक्रामकता के कारण हिम्मत ना कर पाती थीं। लेकिन बाद में दो-तीन दिन ठीक से बात ना करके अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर देतीं। मगर फिर प्यार से बुला लेंती। 

“कुछ उसी तरह की स्थिति होती थी जैसे मियां-बीवी के बीच दिन में टुन्न-भुन्न हुई लेकिन रात होते ही सब ख़त्म, एक हो गए। वास्तव में हुआ यह कि शुरू के दो चार बार तो उन्होंने मेरे अग्रेशन को यह समझा कि अब मैं बड़ी हो गई हूँ। और सेक्सुअल डिज़ायर के अपने उफान को कंट्रोल में नहीं रख पाती। जिसका अल्फाबेट मैंने उन्हीं से जाना था। लेकिन जल्दी ही जब वह मेरे अग्रेशन का कारण समझ गईं तो ग़ुस्सा होने लगीं।”

“वाह री नाएला जी। इनसे तुम्हें फ़ुरसत कब मिली?” 

“फ़ुरसत! उस दिन जब दिल्ली में जॉब मिली। जब उनसे मैं आने से पहले मिलने गई। उनके यहाँ मेरा जो सामान, किताबें, कपड़े वग़ैरह थीं उन्हें लाने गई और उनसे आशीर्वाद माँगा।” 

“आशीर्वाद! उस औरत से जिसने तुम्हारी मजबूरी का सालों फ़ायदा उठाया, सालों जुम्हारा हैरेसमेंट किया। उस औरत से आशीर्वाद! क्या हनुवा मैं तो यह सुनकर आश्चर्य में हूँ।”

“सांभवी कुछ भी हो, थीं तो मेरी टीचर ही ना।” 

"अरे कैसी बात कर रही हो। उसके कुकर्मों को जानने के बाद तो मुझे नहीं लगता कि उसे कोई टीचर कहेगा। उसे वैसी रिस्पेक्ट देगा। वो तो टीचर के नाम पर कलंक हैं।” 

“तुम अपनी जगह सही हो। लेकिन मेरी अपनी मजबूरी थी। मैं यह सोचती हूँ कि यदि वह नहीं होती तो मैं निश्चित ही पढ़-लिख नहीं पाती। इंजीनियर नहीं बन पाती। होता यह कि मैं हर तरफ़ से उपेक्षा, अपमान, तकलीफ़ों के चलते आत्महत्या कर लेती। या फिर? अन्य थर्ड जेंडर्स की तरह नाचना या कि उनमें से ही बहुतों की तरह सेक्स टॉय बनी नर्क भोग रही होती। क्यों कि मुझे तो मेरे पैरेंट्स भी सपोर्ट नहीं करते थे। तो नाएला जी ने ना सिर्फ़ मरने से बचाया बल्कि नर्क भोगने से भी बचाया। सांभवी मैं इसे उनका स्वयं पर इतना बड़ा एहसान मानती हूँ जिसे मैं समझती हूँ कि मैं इस जीवन में चुका नहीं सकती। इसलिए उनकी सारी ग़लतियों को भुला कर उन्हें अपनी टीचर ही मानती हूँ। अपनी मेंटर मानती हूँ। 

“इसीलिए मैं उनसे आशीर्वाद लेने गई थी। असल में मैं उस वक़्त बहुत भावुक हो गई थी। मेरी आँखें बार-बार भर जा थीं। जब मैंने उनके पैर छुए तो उन्होंने एकदम से मुझे खींचकर गले से लगा लिया। एकदम जकड़ लिया मुझे। और ऐसा फूट-फूट कर रोने लगीं, कि जैसे कोई माँ अपनी लड़की को शादी के वक़्त बिदा करते समय रोती है। मैं भी ख़ुद को रोक न पाई हम दोनों बड़ी देर तक रोते रहे। 

“वह बार-बार कहती रहीं, ‘हनुवा मुझे माफ़ करना। मैं नहीं जानती कि मैंने तुम्हारे साथ कितने गुनाह किए हैं। मगर इतना जानती हूँ कि तुम बहुत बड़े दिल वाली हो। तुम माफ़ कर दोगी तो ऊपर वाला भी माफ़ कर देगा।’ 

“वह बार-बार यही कहतीं और फफक कर रो पड़तीं। 

“मैंने किसी तरह उन्हें बैठाया। पानी पिलाया। कहा आपको इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि आज मैं जो कुछ भी हूँ आपकी वजह से हूँ। मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई में यहाँ तक कि मेरे घर में रहन-सहन में जो बड़ा बदलाव, संस्कार आया उसमें भी आपका बड़ा हाथ है। बहुत समझाने के बाद वो चुप हुईं। मगर बीच-बीच हिचकियाँ उनकी आती रहीं। 

“आखिर में उन्होंने मुझसे यह वादा कराया कि मैं उन्हें जीवन भर छोड़ूँगी नहीं। और जब वो मरेंगी तो सूचना मिलने पर मैं ज़रूर पहुँचूँ और उनका संस्कार पूरा कराऊं। एक बार यह कह कर वह फिर फफक पड़ीं कि ’हनुवा इस दुनिया में तुम्हारे सिवा अब मेरा कोई नहीं है।’

“सांभवी उस दिन पहली बार मेरा ध्यान इस ओर गया कि नाएला जी मन ही नहीं तन-मन दोनों ही से बुरी तरह कमज़ोर जर्जर खोखली हो गई हैं। वह भीतर ही भीतर बड़ी तेज़ी से ग़लती जा रही हैं। अपनी उम्र से कहीं दुगुनी रफ़्तार से। और इसकी मुझे दो ही वजह नज़र आई, एक उनके पति ने उनसे जिस तरह का व्यवहार किया। दूसरा उनके मायके वालों ने भी उन्हें जिस तरह एकदम छोड़ दिया था, उससे चिंता और तनाव ने उन्हें तेज़ी से खोखला करना शुरू कर दिया था। लिमिट से कहीं ज़्यादा सेक्स को भी मैं एक और कारण मानती हूँ। मुझे लगता है कि वो तनाव को सेक्स के ज़रिए ख़त्म करने का रास्ता ढूँढ़ रही थीं। जो उनके भ्रम के सिवा और कुछ नहीं था। 

“उस दिन मुझे सही मायने में यह अहसास हुआ कि मैं भी उन्हें कितना चाहती हूँ। जब अपना सामान लेकर नीचे आई। रिक्शे पर बैठी तो मैं अपने को रोक न सकी। नाएला जी ऊपर बॉलकनी पर खड़ी मुझे देख रही थीं। मैंने जैसे ही उन्हें ऊपर देखा, एकदम से रो पड़ी। मैं बिजली की तेज़ी से नीचे उतरी, जितना हो सकता था उतनी तेज़ी़ से ऊपर दौड़ती हुई गई और उनसे चिपक कर फूट-फूट कर रो पड़ी। वह भी रोती रहीं। 

“बड़ी देर बाद मैं फिर नीचे आई और किसी तरह घर पहुँची। उसके बाद जब स्टेशन पर ट्रेन चली तो जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती मुझे लगता जैसे मेरा हृदय मुझसे अलग होता हुआ उन्हीं के पास चला जा रहा है। मेरा ध्यान घर वालों की तरफ़ नहीं उन्हीं की तरफ़ बार-बार चला जा रहा था। दिल्ली आकर भी मैं कई दिन रोई हूँ उन्हीं के लिए।” 

हनुवा की आँखें फिर नम हो गईं। उसे देखते हुए सांभवी अपना सिर हनुवा की जांघों पर रखकर लेट गई। जैसे कोई लड़की बड़े प्यार स्नेह से अपनी माँ की गोद में सिर रख लेट जाती है। लेटते-लेटते ही वह बोली, “हनुवा नाएला जी के साथ जितना और जैसा तुम्हारा जीवन बीता वह अपने आप में एक इनक्रेडेबल लाइफ़ हिस्ट्री है। ऐसी हिस्ट्री जिसे जान कर लगता है कि जैसे किसी ग्रेट स्टोरी राइटर ने बहुत रिसर्च करके, बड़ी मेहनत से लिखी है। सच कहूँ अगर तुम्हारी इस लाइफ़ पर एक रियलिस्टक फ़िल्म बनाई जाए तो वह सुपर हिट होगी। लोग देखने के लिए टूट पड़ेंगे। फ़िल्म पूरी दुनिया में तहलका मचा देगी। लेकिन इसे इंग्लिश में बनाया जाए। और फ़िल्म का डायरेक्टर मीरा नायर, दीपा मेहता जैसी सोच का हो। तुम्हारे इस कैरेक्टर को हॉलीवुड एक्ट्रेस हेल बेरी ही सबसे सही ढंग से निभा पाएगी। अं . . . नहीं शर्लिन चोपड़ा या वैसी ही कोई। ऐसे लोग ही तुम्हारी इस स्पेशल लाइफ़ हिस्ट्री के साथ सही ट्रीटमेंट कर पाएँगे। नैरोमाइंडेड या कूपमंडूक टाइप के लोग या परंपरावादी लोग इसे समझ ही नहीं पाएँगे। क्यों, मैं सही कह रही हूँ हनुवा।”

सांभवी की बात सुन कर हनुवा ने जो अब तक अपनी जांघों पर रखे उसके सिर को सहला रही थी उसके गालों पर हल्की सी प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा, “अरे कैसी फ़्रेंड हो यार? मैं लोगों से ख़ुद को बचाती-छिपाती आ रही हूँ, और तुम हो कि मुझे पूरी दुनिया के ही सामने एक दम नेकेड कर देना चाहती हो।” 

“हाँ हनुवा मैं तुम्हें पूरी दुनिया के सामने नेकेड कर देना चाहती हूँ। और तुम्हारी टीचर नायला को भी। क्यों कि मैं समझती हूँ कि तुम्हारी स्थिति में ख़ुद को छिपाने से अच्छा है ख़ुद को एक्सपोज कर देना। अरे हम क्यों छिप कर, घुट-घुट कर जिएँ। दुनिया मुझे, मेरी ही हालत में ऐसे ही एक्सेप्ट करती है तो करे, नहीं करती है तो ना करे। अगर उसे हमारी परवाह नहीं तो हमें भी उसकी परवाह नहीं। समाज और हम दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में से किसी एक को छोड़ कर सिक्का खोटा ही रहेगा। खरा नहीं। 

“इसलिए हम क्यों छिपते फिरें। और सुनो, तुम अभी कह रही थी ना कि नाएला चिंता, हायपर सेक्सुअलटी के कारण उम्र से पहले ही खोखली बूढ़ी हो गईं, तो तुम इसे ख़ुद पर भी लागू करो। क्यों कि ये अच्छे से समझ लो कि इस तरह तुम ख़ुद को ख़ुद में क़ैद कर नाएला से भी ज़्यादा तेज़ी से खोखली बूढ़ी हो जाओगी। और तब तुममें नाएला में सिर्फ़ इतना ही फ़र्क़ होगा कि बूढ़ी, खोखली, कमज़ोर नाएला के पीछे सिवाय तुम्हारे और कोई नहीं है। और तुम्हारे पीछे परिवार होगा बस। 

“लेकिन परिवार भी आजकल किसका कितने दिन साथ देता है। इसलिए अपने को पिंजड़े से बाहर निकालो। पिंजड़े के सारे दरवाज़े नहीं उसकी सारी दिवारें गिरा दो। उसके अंदर फड़फड़ाने तड़पने की ज़रूरत नहीं है हनुवा। ख़ुद को मारो नहीं ज़िन्दा करो और ज़िदगी जियो।” 

सांभवी ने जिस जोरदार ढंग से अपनी बात कही उससे हनुवा भीतर तक सहम गई, हिल गई। सही तो कह रही है यह, मैं खोखली हो रही हूं। नाएला की तरह नष्ट हो रही हूं। नाएला के पीछे तो मैं हूं लेकिन मेरे! सच में तो मेरे पीछे कोई नहीं है। वह सांभवी के सिर को सहलाते हुए कुछ देर उसे देखती रही फिर पूछा ‘सांभवी तुम मुझे दुनिया के सामने क्यों एक्सपोज करना चाहती हो यह तो बता दिया लेकिन मेरी टीचर ,मेरी मेंटर नायला जी को क्यों करना चाहती हो?’

सांभवी ने जिस ज़ोरदार ढंग से अपनी बात कही उससे हनुवा भीतर तक सहम गई, हिल गई। सही तो कह रही है यह, मैं खोखली हो रही हूँ। नाएला की तरह नष्ट हो रही हूँ। नाएला के पीछे तो मैं हूँ लेकिन मेरे! सच में तो मेरे पीछे कोई नहीं है। वह सांभवी के सिर को सहलाते हुए कुछ देर उसे देखती रही फिर पूछा, “सांभवी तुम मुझे दुनिया के सामने क्यों एक्सपोज करना चाहती हो यह तो बता दिया लेकिन मेरी टीचर, मेरी मेंटर नायला जी को क्यों करना चाहती हो?” 

“हनुवा शुरू में तो नायला जी पर मुझे बड़ी ग़ुस्सा आ रहा था। उनसे बड़ी नफ़रत हो रही थी कि यह कैसी लिजलिजे कैरेक्टर की गंदी औरत है। लेकिन सारी बातें सुनने के बाद लगा कि नायला जी या उनके जैसी कोई भी औरत घृणा के लिये नहीं है। ऐसी सभी लेडी का तो हम सब को, पूरे समाज को सपोर्ट करना चाहिये। हम उनसे घृणा करके उन्हें उस ग़लती की सज़ा देते हैं जो उन्होंने की ही नहीं। तुम्हीं सोचो यदि नायला जी के हसबेंड उनकी सास ने उनके साथ धोखाधड़ी नहीं की होती, शादी के बाद उन्हें याातना ना दी होती, उनका जाहिल हसबेंड उन्हें बड़े बड़े बच्चों के सामने पीटता नहीं तो नायला जी इतनी हर्ट नहीं होतीं। ना ही अपनी नैचुरल डिज़ायर के लिये तुम्हें यूज़ करतीं। 

“आखिर वो भी एक इंसान हैं। नेचर ने उन्हें भी इमोशंस दिये हैं। फ़ीलिंग्स दी हैं। उन्हें भी सपने देखने, पूरे करने का हक़ है। ये इनह्यूमन है कि उनका हसबैंड जो चाहे करे। और नायला जी क्यों कि औरत हैं इसलिये कुछ नहीं कर सकतीं सिवाय इसके कि हसबेंड जो कहे उसे ग़ुलामों की तरह करतीं रहें। इसलिये हनुवा मैं तुम्हारी नायला जी को पूरा सपोर्ट करती हूँ कि उन्होंने कम से कम इतनी हिम्मत की कि अपनी नेचुरल डिज़ायर को पूरा करने के लिये क़दम तो बढ़ाये। भले ही तुम्हारे माध्यम से। लेकिन उनकी इस हिम्मत से पिस तुम गयी। 

“उन्होंने अपनी ही मासूम छात्रा का शोषण कर डाला। असल में उनके क़दम यहीं पर भटक गये। मुझे पूरा यक़ीन है कि ऐसा उन्होंने केवल इसीलिए किया होगा जिससे उन्हें किसी तरह की समस्या का सामना न करना पड़े। खोखले जड़वादी लोगों के तानों का सामना न करना पड़े। तुम्हारे साथ क्योंकि ऐसा कोई डर नहीं था और जो उन्हें चाहिए था वह सब मिल रहा था। हनुवा मैं नाएला जी को सैल्यूट करती यदि वो हसबैंड की ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करतीं। 

“अपना हक़ लेकर रहतीं। उन्हें धोखाधड़ी, घरेलू हिंसा की सजा दिला कर रहतीं। लेकिन वो हिम्मत नहीं कर सकीं। संयोग से तुम अपनी ख़ास स्थिति के साथ उनके सामने पड़ गई। और उन्होंने अपनी एक छोटी सी इच्छा बस किसी तरह पूरी कर ली। लेकिन इसके बावजूद मैं उनसे मिलना, बात करना चाहती हूँ। जब भी तुम जाओगी, मैं चलूँगी तुम्हारे साथ उनसे मिलने। ले चलोगी ना?” 

“हाँ ज़रूर ले चलूँगी। सांभवी तू कितनी अच्छी है। कितनी हिम्मत वाली है।” 

इतना कह कर हनुवा उसे स्नेह भरी नज़रों से देखने लगी तो सांभवी बोली, “हनुवा मैं कुछ ज़्यादा तो नहीं बोल गई? मेरी बातों से अगर तुम्हें दुख हुआ हो तो सॉरी यार। मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकती।” 

सांभवी ने यह कहते हुए बड़े प्यार से हनुवा का हाथ थाम लिया। हनुवा ने भी उसी सहजता से जवाब दिया, “अरे नहीं। मैं तुमसे फिर कहतीं हूँ कि कभी यह मत सोचा करो कि मैं तुमसे नाराज़ होऊँगी। तुमने जिस सच का एकदम से सामना करा दिया उससे मैं एकदम सकते में आ गई। सांभवी सच तो यह है ही कि नाएला जी के पीछे मैं हूँ। अगर उनको देखभाल की ज़रूरत पड़ी तो मैं अपना कॅरियर भी यहीं ख़त्म कर, उनकी सेवा के लिए उनके पास चली जाऊँगी। लेकिन तुमने मेरे परिवार की जो बात की वह थोड़ा नहीं बिल्कुल अलग है। मैं केवल एक बात बताने जा रही हूँ, उसी से तुम्हें अंदाज़ा हो जाएगा कि मेरा परिवार कितना मेरा है। वो मुझे अपना हिस्सा मानता भी है कि नहीं।” 

“अरे, ये क्या कह रही हो?” 

“सुनो तो अभी पिछले ही महीने मेरी दोनों बहनों की एंगेजमेंट हुई। हनुवा वाली मौसी ही ने अपने पट्टीदार के दोनों लड़कों से शादी तय करवाई है। दोनों भाई जुड़वाँ हैं। उनके माँ-बाप एक ही साथ दोनों की शादी करना चाहते थे। मौसी ने बात पक्की करा दी। शादी जनवरी में होनी है। लेकिन मुझे बताया तक नहीं गया। एक दिन मैं नाएला जी से बात कर रही थी तो उन्होंने कहा ’तुम हमेशा छुट्टी की प्रॉब्लम बताती हो। अभी से एप्लीकेशन देकर कम से कम हफ़्ते भर की छुट्टी लेकर आना। नहीं तो तुम जल्दी से चल दोगी और मैं तुमसे ठीक से बात भी नहीं कर पाऊँगी।’  

“उनसे यह सुनकर मुझे इतना शॉक लगा कि मैं सन्न रह गई। कि मेरी सगी छोटी बहनों की शादी है। एंगेजमेंट हो गई मुझे पता तक नहीं। 

“नाएला जी भी परिवार की सम्मानित सदस्य की तरह एंगेजमेंट में शामिल हुईं और मुझे बताना तक ठीक नहीं समझा गया। लेकिन घर की बात बाहर नहीं शेयर करना चाहती थी। तो नाएला जी को ज़ाहिर नहीं होने दिया। उनसे जल्दी से बात ख़त्म कर घर माँ को फा़ेन किया तो वो बोलीं ’अरे, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। एकदम अचानक हुआ तो टाइम ही ना मिला बताने का।’ जब मैंने ग़ुस्से में और बात बढ़ाई कि दोनों बहनों, भाई किसी को दो मिनट टाइम नहीं मिला कि फ़ोन करते। और मैंने इस बीच कई बार फ़ोन किया। तब भी तो तुम लोग एक शब्द नहीं बोले। आज हफ़्ता भर हो गया तो भी टाइम नहीं मिला। मुझे घर की इतनी अहम बात बाहरी से पता चल रही है। 

“उन को लगा कि बात पकड़ गई है तो एकदम बिदक गईं। दुनिया भर की बातें सुनाते-सुनाते आख़िर ग़ुस्से में बोल गईं कि ’क्या करती आकर। दुनिया भर की बातें होतीं कि बड़ी के रहते छोटी की काहे हो रही है। तुम्हारे चक्कर में इन सबका भी शादी ब्याह ना हो पाएगा।’ उनकी यह बात मुझे तीर सी बेधती चली गई। मैं रो पड़ी। मैंने रोते हुए कहा, ’ठीक कह रही हो अम्मा! मैं ही पागल हूँ, मुझे ख़ुद सोचना चाहिए था। ठीक है अम्मा तुम लोग परेशान ना हो, अब मैं शादी क्या बाद में भी नहीं आऊँगी। जिससे मेरी वजह से तुम लोग किसी परेशानी में ना पड़ो।’ मैं इससे आगे कुछ ना बोल सकी, रोती रही। और अम्मा ने झिड़कते हुए यह कह कर फ़ोन काट दिया ’अरे इसमें इतना रोने की क्या बात है। बेवजह अपशुगन कर रही हो।’ उनकी इस बात ने तो मेरा शरीर ही छलनी कर डाला।  

“इसके बाद मैंने हफ़्तों किसी को फ़ोन नहीं किया। मगर फिर भी किसी का फ़ोन नहीं आया। आख़िर फिर मन नहीं माना तो ख़ुद ही कभी-कभी करने लगी। सब बेगानों की तरह ऊबते हुए बातें करते हैं। हाल-चाल की रस्म अदायगी तक बात होकर ख़त्म हो जाती है। पैसा जो होता है भेज देती हूँ। उसके लिए अम्मा कभी कुछ नहीं कहतीं। तो सांभवी मेरी हालत तो नाएला जी से भी गई बीती है। 

“उनके साथ तो मैं हर हाल में रहूँगी। लेकिन मेरे साथ कोई नहीं होगा। मैं अकेले ही दीवारों से सिर टकराते-टकराते ख़त्म हो जाऊँगी। मेरा तो अंतिम संस्कार भी करने वाला कोई नहीं होगा। मैंने तो नाएला की तरह कोई ‘हनुवा’ नहीं तैयार की है," इतना कहते-कहते हनुवा फिर सिसक पड़ी तो सांभवी उठी, उसके आँसू पोंछती हुई बोली, "तुमने ‘सांभवी’ तैयार की है हनुवा। तुम अकेली नहीं हो, मैं रहूँगी तुम्हारे साथ।”

“तुम भी कब तक रह पाओगी? जल्दी ही तुम्हारी भी शादी हो जाएगी और तुम अपने पति के पास रहोगी।” 

“हाँ . . . सही कह रहे हो तुम। मैं अपने पति के ही पास रहूँगी।” 

सांभवी का अपने लिए ’सही कह रहे हो तुम’ सेंटेंस हनुवा को कुछ खटका। लेकिन उसने कहा, “फिर भी। आख़िर मैं तो अकेली ही रही ना। कोई अपने पति को छोड़ कर किसी को समय दे पाया है क्या जो तुम दोगी? और मैं चाहूँगी भी नहीं कि तुम अपने पति का टाइम मुझ पर ख़र्च करो।” 

“हनुवा-हनुवा मेरे प्यारे हनुवा मैं यही तो कह रही हूँ कि मैं अपने पति के पास ही रहूँगी। उसका एक क्षण भी किसी को नहीं दूँगी। मैं उसे जीवन की वो ख़ुशियाँ दूँगी जो वो सोच भी नहीं पाया होगा।” सांभवी हनुवा के दोनों कंधों को पकड़े उसकी आँखों की गहराई में झाँकती, उसके चेहरे के एकदम क़रीब जा कर कह रही थी। और हनुवा उसे एकदम ख़ाली-ख़ाली नज़रों से देखे जा रही थी। तो सांभवी ने उसे हल्के से झिझोड़ते हुए कहा, “ओह तुम कितने इनोसेंट हो। तुम ही मेरे पति हो समझे। तुम ही मेरे पति हो।” कुछ तेज़ आवाज़ में कहते-कहते सांभवी उससे एकदम चिपट गई। हनुवा कुछ देर एकदम हक्का-बक्का सी रह गई। फिर दोनों हाथों से पकड़ कर उसे अलग करती हुई बोली, “तुम्हें क्या हो गया है? होश में तो हो। जानती हो क्या कह रही हो?” 

“अच्छी तरह जानती हूँ हनुवा। महीनों सोचने-समझने के बाद मैंने यह डिसीज़न काफ़ी पहले ही ले लिया था। मैंने तुम्हें काफ़ी पहले ही अपना पति मान लिया है। हनुवा तुम मेरे पति हो। मेरे पति। मैं आख़िरी साँस तक साथ रहूँगी। अपने पति के साथ रहूँगी। मुझे परिवार, दुनिया किसी की परवाह नहीं। सिर्फ़ तुम्हारी और अपनी परवाह है। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं जानती।” सांभवी फिर चिपट गई हनुवा के साथ। भावुकता में उसके आँसू भी निकलते जा रहे थे। 

हनुवा ने उसे इस बार अपने से अलग करने के बजाय प्यार से बाँहों में भर लिया। उसकी पीठ को सहलाती हुई बोली, “मेरी सांभवी तुम मन में इतना बड़ा भूचाल लिए इतने दिनों से मेरे साथ हो और मुझे भनक तक ना लगने दी। नहीं तो मैं कुछ तो तुम्हें समझाती कि यह तुम ग़लत क़दम उठा रही हो। तुम मेरे साथ कहाँ ख़ुश रह पाओगी? यह सब एक एबनार्मल रिलेशनशिप है, जो ज़्यादा दिन नहीं चलेगी। अंततः दुख ही दुख है इस जीवन में। मैं तुम को इतना आगे बढ़ने ही ना देती कि तुम्हें क़दम खींचना मुश्किल होता।”

हनुवा समझाती रही। लेकिन सांभवी कुछ ना समझी। वह वाक़ई इतना आगे बढ़ चुकी थी कि पीछे जाने को कौन कहे सोच भी नहीं सकती थी। दोनों में सारी रात बहस हुई। अंततः सवेरा होते-होते सांभवी जीत गई। आगे जीवन का पूरा रोड मैप भी फ़ाइनल हो गया, कि ठीक दीपावली के दिन दोनों घर में उन्हीं भगवान राम के समक्ष शादी करेंगे। जो विजय के जश्न में हज़ारों साल पहले थर्ड जेंडर का ध्यान नहीं रख सके। सबको कहके यह भूल गए कि यह लोग भी आराम करें। साक्षी, माँ-बाप, भगवान सब वहीं होंगे, वही आशीर्वाद देंगे। और अगले महीने नौकरी ज्वाइन कर दोनों पति-पत्नी कहीं दूसरी जगह रहने चले जाएँगे। अपनी इस दुनिया में जीवन के इस पल में किसी को साझीदार नहीं बनाएँगे। 

अगले दिन दो-चार घंटे सोने के बाद दोनों ने पूरे घर की साफ़-सफ़ाई की। बाज़ार से पूजा के सामान के साथ-साथ दूल्हा-दुलहन के कपड़े सिंदूर भी ले आए। ऐन दीपावली की रात भगवान राम को ही साक्षी बनाकर सांभवी हनुवा ने एक दूसरे को वरमाला पहनाई। हनुवा ने सांभवी की माँग में सिंदूर भरा और दोनों ने एक दूसरे को अपना पति पत्नी मान लिया। 

दोनों ने अपनी सुहाग सेज भी बड़ी ख़ूबसूरती से अपने ही हाथों सजाई थी। गुलाब की पंखुड़ियों से महमह महकती सेज पर सांभवी लाल साड़ी पहने बैठी थी। और उसका पति हनुवा पीले रंग के वस्त्र पहने उसके समीप पहुँच रहा था कि तभी नाएला ने फ़ोन कर उससे दीपावली में भी ना आने की शिकायत करते हुए ख़ूब बधाई, शुभकामनाएँ दीं कि “तुम्हारा जीवन इन असंख्य दीयों की रोशनी की तरह जगमगाए। सदैव ख़ुश रहो।“ 

हनुवा भी उन्हें बधाई, धन्यवाद देकर अपनी दुलहन के घूँघट को हटाने लगा। घर से कोई फ़ोन नहीं आया यह बात उसके मन में किसी पटाखे की तरह बड़ा सा विस्फोट कर समाप्त हो गई। वह सब कुछ भूल अपनी पत्नी का होता गया। लाख क़ानून के बावजूद किसी ने रात एक बजे भी पटाखों की लंबी चटाई के पलीते में आग दिखा दी थी। वह धड़ाम-धड़ाम कर दगती ही जा रहा थी। जैसे हनुवा, सांभवी को नए जीवन की बधाई दे रही हो। हनुवा ने नाएला जी से भी शादी की बात बिल्कुल नहीं बताई। 

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टिप्पणियाँ

प्रदीप श्रीवास्तव 2022/02/02 06:13 PM

सरोजनी जी धन्यवाद कि आपने कहानी पढ़ कर अपने विचार प्रकट किए. आपने जो प्रश्न खड़े किए उनके विषय में कहना चाहता हूँ कि मैं कहानी हो या उपन्यास उसे सयास किसी सीमा में बाँधने के बजाय शांत नदी की तरह बहने देता हूँ ,उसे अपनी मंजिल सागर तक पहुँचने देता हूँ . यह कहानी भी अपने विषय के साथ समग्र रूप से न्याय करती हुई आगे बढ़ती गई और विस्तार होता गया .स्वाभाविक .अस्वाभाविक नहीं .जहाँ तक अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग की बात है तो दिल्ली ,हरियाणा ,एन.सी.आर. क्षेत्र में विभिन्न कंपनियों या कार्यालयों में कार्यरत जो लोग हैं विशेष रूप से नई पीढ़ी, उनके बीच ऐसी ही शब्दावली प्रयुक्त होती है .और यह कहानी उसी क्षेत्र में ,उसी नई पीढ़ी के बीच वार्तालाप के रूप में अपना अस्तित्व प्राप्त करती है .मेरा प्रयास रहा कि उनकी बात उनकी ही शब्दावली में आगे बढ़े....

Sarojini Pandey 2022/01/31 11:01 AM

कहानी में उठाई गई समस्या समसामयिक है परंतु कहानी की लंबाई और भाषा में सामान्य प्रयोग में आने वाले हिंदी शब्दों के बजाय अंग्रेजी शब्दों का इतना अधिक प्रयोग खलता है। पेरेंट्स के स्थान पर माता-पिता वेरी की जगह चिंता करना आदि शब्दों का प्रयोग अति स्वाभाविक हो सकता था। चरित्रों का वार्तालाप एक बात है,और लेखक की भाषा अलग है।

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