अर्थचक्र: सच का आईना
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रदीप श्रीवास्तव27 Dec 2014
समीक्ष्य पुस्तक: अर्थचक्र
लेखिका: शीला झुनझुनवाला
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली-110002
मूल्य: रुपए 200
आधुनिक ज़माने की मसरुफ़ियत ने लोगों को यदि बहुत कुछ दिया है तो बहुत कुछ छीन भी लिया है। सुकूनभरी अलमस्त ज़िंदगी से लेकर पाठकों से पढ़ने का वक़्त तक अब पहले सा कहाँ है! इसी का परिणाम है कि बाज़ार में उपलब्ध पत्रिकाओं में अब कंटेंट कम से कम और फोटो ही ज़्यादा भरी रहती हैं और लोगों को यही लुभाती भी हैं। किताबों या उपन्यासों का हाल भी यही है। यहाँ फोटो के प्रयोग की गुंजाइश न होने पर उनकी मोटाई तराश दी गई है। अब पहले जैसे मोटे-मोटे उपन्यास कम दिखते हैं। पाठकों के पास वक़्त का और धैर्य का टोटा-सा जो है। ऐसे हालात के चलते ही विगत दिनों एक नामचीन पत्रकार, लेखक ने अपने एक लेख में लिखा "सबसे अच्छा उपन्यास: जो बहुत मोटा न हो।"
समीक्ष्य उपन्यास "अर्थचक्र" इस दृष्टि से तो दिलचस्प है ही सहजता सरलता बोधगम्य शब्दावली, छोटे-छोटे वाक्य इसकी पठनीयता को और बढ़ाते हैं। विषय कोई नया नहीं है और न ही प्रस्तुति कोई ऐसी चौंकाने वाली है कि पाठक अचंभित हो जाएँ। विषय वही चिर-परिचित भ्रष्टाचार और धन के पीछे हाँफते-भागते लोगों की दुनिया है। और साथ में नत्थी है वक़्त की कमी के कारण भावनात्मक लगाव की छीजती दुनिया का सच एवं दहेज की आग से तपते लोगों की आह। शीला झुनझुनवाला इस छोटे से उपन्यास में एक साथ इन कई मुद्दों पर क़लम चलाती हैं। लेकिन इसके चलते उपन्यास विस्तार न ले सके इस पर कड़ी नज़र रखी है।
नायक एक ईमानदार इनकम टैक्स ऑफ़िसर है जो भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ है। अपनी इस जंग में उसे तरह-तरह की स्थितियों से गुज़रना पड़ता है। जब एक बिजनेसमैन ने जो उसका पड़ोसी है, अचानक ही उससे संबंध प्रगाढ़ करने चाहे तो उसे शक होता है और वह इसके पीछे के राज़ को जानने की कोशिश करता है तो भ्रष्टाचार की स्याह दुनिया का सच मुखर हो उठता है। पाठक इस प्रसंग को बेहद रोचक पाएँगे। उन्हें इस प्रसंग में यह भी देखने को मिलेगा कि जब धन लिप्सा सवार होती है तो इसके सिवा इंसान को सब मिथ्या लगता है। यहाँ तक कि पूजा-पाठ ईश्वर की प्रतीक मूर्तियाँ भी उसके लिए आस्था का श्रद्धा का प्रश्न न होकर धन को सुरक्षित रखने का यंत्र या साधन होते हैं। ऐसे लोग किस हद तक जा सकते हैं इसकी सीमा निर्धारित करना मुश्किल है। भ्रष्टाचार से लड़ने वाला नायक अपने को आहत तब महसूस करता है जब अपनी बेटी की शादी के लिए निकलता है तो दहेज साधक बड़ी बेशर्मी से कहते हैं, आप तो इनकम टैक्स वाले हैं आप को तो देना चाहिए। इसी प्रसंग में लेखिका यह भी बताने में सफल रही है कि हमारा समाज बहुत बदल रहा है लेकिन बेटी को लेकर, बेटी की शादी को लेकर दशकों पहले जहाँ खड़ा था उससे 21वीं सदी में भी बमुश्किल कुछ क़दम ही आगे बढ़ा है। बेटी पढ़ी-लिखी नहीं कि जल्दी से जल्दी शादी का प्रयास प्रारंभ हो जाता है। इस प्रसंग को इतने कम शब्दों में इतनी ख़ूबसूरती से लिखा गया है कि पढ़कर "गागर में सागर" कहावत याद आ जाती है।
नई पीढ़ी की कार्यशैली उसकी मनोदशा से उसके पहले की पीढ़ी यानी माता-पिता का नज़रिया क्या है? कितना सही है कितना गलत है और किस तरह आहत हैं माँ-बाप इसका भी दिलचस्प ज़िक्र है। उदाहरणार्थ एक दिलचस्प प्रसंग देखिए "माँ-बेटी का प्यार भी पल-दो-पल की यांत्रिक गतिविधि रह गई है क्या? सोचकर शालिनी छटपटा गई मन ही मन। याद आया....स्वयं शालिनी जब नन्हीं सी थी। माँ के साथ प्यार कैसे जताती थी। इतनी प्रसन्न और तृप्त कि कसमसाती भी नहीं थी। आज....माँ के साथ कितना तुरत-फुरत प्यार जता दिया जाता है। चुटकी बजाने से भी ज़्यादा वक़्त लगता होगा। माँ को चूमने में वक़्त ही क्या लगता है। इधर चूमा, उधर पलटीमारी और चल दिए कॉलेज!"
ऐसी ही बहुत सी बातें हैं जिन्हें पढ़ते वक़्त पाठक को लगेगा यह उसके आसपास ही तो घट चुका है या घट रहा है। यह एक ऐसी बात है जो पाठक को उपन्यास के साथ आखिर तक बांधे रखने में सक्षम है। किसी सफल उपन्यास के लिए यह भी महत्वपूर्ण गुणों में से एक है। शीला झुनझुनवाला के इस उपन्यास में यह विशेषता कहीं से भी कमतर नहीं है। इन सबके चलते यह एक रोचक बेहतरीन उपन्यास बन पड़ा है।
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