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रूबिका के दायरे

“यह तो चाँस की बात थी कि शाहीन बाग़ साज़िश में हम-दोनों जेल जाने से बच गई और टाइम रहते अबॉर्शन करवा लिया, नहीं तो हम भी आज आरफा जरगर की तरह किसी अनाम बाप के बच्चे को लेकर दुनिया से मुँह छुपाती फिर रही होती। आज कौन है जो आरफा को मदद कर रहा है। मदद के नाम पर भी उस बेचारी को अपनों ने ही ठगा।

कहने को वह ख़ानदान का ही लड़का था, बड़े तपाक से सामने आया कि बच्चे को मैं दूँगा अपना नाम। झट से निकाह कर लिया, साल भर यूज़ किया, उसके प्रेग्नेंट होते ही व्हाट्सएप पर तलाक़ देकर भाग गया धोखेबाज़। ये तो अच्छा हुआ कि उसने बिना किसी हिचक ज़रा भी देर नहीं की और तुरंत ही प्रेग्नेंसी अबॉर्ट करवा दी नहीं तो एक और बच्चे को ढो रही होती। पहले बेवक़ूफ़ी, फिर धोखे से मिले ज़ख़्म से उसके ऊपर क्या बीत रही है, कौन जाकर उससे कभी पूछता है।

मैंने तो उसी समय ऐसे फ़ालतू और पूरी तरह से ग़लत कामों से तौबा कर ली थी हमेशा के लिए, जब उसे जेल की सलाखों से सिर टकराते, मजबूर, आँसुओं से जेल की कोठरी भिगोते देखा था। जल्दी ही लॉक-डाउन के चलते उससे मुलाक़ात बंद हो गई। लेकिन जो बातें सुनती थी, उससे मेरा दिल दहल उठता था।

यह सोचकर ही मैं पसीने से भीग जाती थी कि दिन-भर घूमने-फिरने, लाइफ़ एन्जॉय करने वाली आरफा कैसी बेचैनी, तकलीफ़ महसूस कर रही होगी, अपने पेट में एक ऐसे बच्चे को बढ़ते हुए महसूस करके, जिसका वालिद कौन है, ख़ुद उसे भी पता नहीं है।

इसलिए महबूबा मुझे तो माफ़ करो, मैं अब किसी आंदोलन-फान्दोलन के चक्कर में अपने को फँसाने वाली नहीं। इन्हीं बेवुक़ूफ़ियों की वजह से पहले ही अपना कैरियर, अपना जीवन तबाह कर लिया है, अब जो थोड़ा बहुत बचा है, उसमें भी आग लगाने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। इसलिए अब ऐसी किसी बात के लिए मुझसे कोई उम्मीद नहीं रखो, मैं यह सब बिल्कुल भी करने वाली नहीं।”

रूबिका की बातों ने महबूबा को झकझोर ही नहीं दिया, बल्कि जनवरी की कड़ाके की ठण्ड में भी कमरे का माहौल एकदम से गरमा दिया। महबूबा आश्चर्य-मिश्रित बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी आँखों में देखती हुई बोली, “रुबिका तुम्हें क्या हो गया है? तुम यह क्या कह रही हो? यह कोई आंदोलन-फान्दोलन नहीं बल्कि अपने मज़हब, क़ौम की भलाई की बात है, क़ौम के साथ हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने की बात है, हम अगर अपने मज़हब, क़ौम के साथ नहीं खड़े होंगे, तो इससे बड़ा गुनाह और कुछ नहीं होगा। हम तो मुसलमान हैं, हमें इस तरह तो ख़्वाबों में भी नहीं सोचना चाहिए।

“आरफा के साथ तो बस बदक़िस्मती से यह सब हो गया, नहीं तो जैसे तुम और हम बच गए थे, वैसे ही वह भी बच गई थी। बाद में पुलिस ने पता नहीं कहाँ से सब पता कर लिया और उसे पकड़ ले गई। बदक़िस्मती उसकी यह भी रही कि उसी समय लॉक-डाउन लग गया, सारी क़ानूनी कार्रवाइयाँ ठप पड़ गईं, नहीं तो ज़मानत मिल जाती या अबॉर्शन के लिए ही टाइम दे दिया जाता।

“इसलिए किसी एक घटना को लेकर अपना नज़रिया ऐसे नहीं बदलना चाहिए। चाहे जो भी हो जाए, हमें आँख मूँद कर अपने मज़हब, अपनी क़ौम के लिए हमेशा ही खड़े रहना चाहिए, किसी तरह के सवालात करने क्या उस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।

“फिर प्रेग्नेंसी की प्रॉब्लम तो हमारी ही बेवुक़ूफ़ियों के चलते हुई थी। हमीं लोग आंदोलन की आवाज़ बुलंद करने के साथ-साथ वहाँ हॉस्टल वाली एन्जॉयमेंट के फेर में पड़ गए थे। आंदोलन में भीड़ बनी रहे इसके लिए वहाँ शराब, ड्रग्स, सेक्स, पैसा हर तरह की व्यवस्था थी ही, हमीं लोग जोश में होश खोती रही, उसी व्यवस्था का हिस्सा बनती गई, ऐसे में जो हो सकता है, हमारे साथ वही हुआ। ज़िम्मेदार हमीं हैं।”

“जो भी हो महबूबा, मैंने तौबा कर ली है, तो कर ली। इसलिए मुझसे कुछ नहीं कहो, ठीक है।”

“रूबिका पहले बात तो पूरी सुनो, प्रोफ़ेसर सईद ने कल ही अपने घर पर मीटिंग में कहा है कि ‘जैसे भी हो हमें हमेशा की तरह एकजुट होकर अपने लिए, क़ौम के लिए हर हाल में आगे आना होगा। जैसे हमने ऐन‍आरसी, सीए‍ए मामलों में सरकार की ईंट से ईंट बजा दी थी, वैसे ही हल्द्वानी के अपने भाइयों के लिए भी अपनी ताक़त दिखानी ही होगी।

‘ये माना कि हमारे ऑर्गनाइज़ेशन को देश-द्रोही गतिविधियों के आरोप में बैन कर दिया गया है, मेन लोग जेल में हैं। लेकिन बाक़ी सारे लोग तो बाहर हैं, आज़ाद हैं। स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िसों सहित बाक़ी जिस भी जगह, जो जहाँ है, वो वहाँ से ही अपना काम करता रहे।’ रुबिका उन्होंने सभी से दरख्वास्त की है कि सभी लोग जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, इकट्ठा हों और हल्द्वानी के भाइयों के लिए सड़कों पर उतरें।”

“देखो महबूबा मुझे हक़ीक़त देखने, समझने की समझ तो है ही और सब-कुछ समझते हुए भी, यदि हम अनदेखी करते हुए काम करेंगे न, तो आरफा से भी ज़्यादा मुसीबत में पड़ जाएँगे। हमें इस मुग़ालते से बाहर आ जाना चाहिए कि सीए‍ए, ऐन‍आरसी आदि मामलों में हमने सरकार की ईंट से ईंट बजा दी थी।

“वास्तव में सरकार ने जिसे हम शाहीन बाग़ मूवमेंट कहते हैं, उसे अपनी रणनीति से अपने पक्ष में यूज़ कर लिया और हम ख़ुद ही अपनी पीठ ठोक-ठोक कर ख़ुश होते चले आ रहे हैं। सरकार ने जानबूझ कर हमें वहाँ से हटाने की कोशिश नहीं की। हमें इतना लम्बा रास्ता देती गई कि हम ठीक से समझे बिना चलते गए और फिर थक कर पस्त हो गए, बैठ गए। ऐसा माहौल बन गया कि उसके बाद हो रहे चुनाव दर चुनाव वह जीतती ही जा रही है। वह काम वही कर रही है, जो वह करना चाहती है।

“हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिस देश में रहते हैं, वहाँ के नियम-क़ायदे तो मानने ही पड़ेंगे। यह कब-तक मज़हब और क़ौम के नाम पर कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बने, भटकते हुए, अपने ही हाथों अपने जीवन में आग लगाते रहेंगे।

“तुम यह क्यों नहीं सोचती कि हम लोग यदि बहकावे में आकर एकदम लास्ट स्टेज में चल रही अपनी पढ़ाई छोड़-छाड़ कर शाहीन बाग़ साज़िश से नहीं जुड़ते तो आज मैं और तुम किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर होतीं और आरफा जरगर किसी हॉस्पिटल में डॉक्टर। साज़िश में शामिल होकर हम न इधर के रहे, न उधर के।

“घर वाले भी उस समय तो बड़े ख़ुश थे, बड़ी शान सबको बताते घूम रहे थे कि मैं क़ौम के लिए सड़क पर आंदोलन में जी-जान से जुटी हुई हूँ। रिश्तेदार बाक़ी दोस्त भी वाह-वाह करते थे। अब जब कहीं की नहीं रही तो कोई भी दिखाई नहीं देता। घर में भी सभी का मुँह मुझे देखकर लटक जाता है। तुम्हारे साथ क्या हो रहा है, मैं नहीं जानती।

“इसलिए मैं फिर कह रही हूँ कि मुझे बख़्श दो, अब मैं बात चाहे मज़हब की हो या क़ौम की, मैं किसी आंदोलन-वान्दोलन में नहीं जाने वाली। आंदोलन करवाने वाले तो एसी कमरों में बैठ कर अपनी-अपनी दुकानें चलाते हैं, राजनीति चमकाते हैं, उनके ख़जाने भरते रहते हैं, पुलिस की लाठी-गोली, मुक़द्दमे हम तुम जैसे लोग झेलते हैं, बर्बाद होते हैं, दूसरी तरफ़ क़ानून, सरकार अपना काम अपने हिसाब से करके ही रहती है। यह सब जानते-समझते हुए हम-लोग क्यों बेवजह अपने को खंदक में डालें।

“तुमसे भी कहती हूँ, छोड़ो इन सब बातों को। तुम्हारा हमारा कैरियर इन लोगों के बहकावे में आकर बर्बाद हो गया है। वाहवाही के चक्कर में बेवजह के मुक़द्दमों में फँस गए हैं। इतने दिन हो गए, हमारे तुम्हारे लिए प्रोफ़ेसर सईद ने आज तक क्या कर दिया, आगे भी क्या कर देंगे।

“जब-तक शाहीन बाग़ की आग जलाए रखनी थी, तब-तक तो उठते-बैठते नाक में दम किए रहते थे। उसके बाद न तो हमारे मुक़द्दमों की कोई खोज-ख़बर, न ही हमारी थीसिस की। हमें चवन्नी-अठन्नी देकर सारे पैसे अकेले डकारते रहते हैं। मुझे नफ़रत हो गई है उनसे।”

बड़ी तल्ख़ी के साथ अपनी बात कहती हुई रुबिका सोच रही थी, महबूबा अब आंदोलन-फान्दोलन का नाम लेने के बजाय चुप-चाप चली जाएगी, लेकिन वह उसकी उम्मीदों के उलट आगे ऐसे बोलने लगी जैसे वहाँ कोई बात हुई ही नहीं।

उसने बड़ी गंभीरता से कहा, “रूबिका, सईद साहब को तुमसे बहुत ज़्यादा उम्मीद है। उन्होंने मुझसे बहुत ज़ोर देकर कहा कि ‘महबूबा वह तुम्हारी बात मानती है। तुम उसे समझाओ कि अब ज़्यादा समय नहीं बचा है, सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि वह कार्रवाई पर रोक नहीं लगा रहा। मतलब कि सरकार को खुला रास्ता दे दिया है कार्पेट बिछा कर कि आप जिस तरह चाहें, अपने मक़सद को पूरा करने के लिए उस तरह आगे बढ़ें। और सरकार जिस तरह आगे बढ़ रही है, उससे साफ़ दिख रहा है कि वह जल्दी से जल्दी मक़सद पूरा करने की फ़िराक़ में है। इसलिए हमें भी उनकी स्पीड से ज़्यादा तेज़ शाहीन बाग़ से भी बड़ा शाहीन बाग़़ वहाँ खड़ा करना है। समय कम है, इसलिए सब को जल्दी से जल्दी सामने आना ही होगा।’

“रूबिका सिर्फ़ उन्हें ही नहीं, मुझे भी तुमसे बहुत उम्मीद है, इसलिए पहले मेरी बात सुनो, मुझे पूरा यक़ीन है कि जब तुम बात को समझ लोगी तो बीती सारी बातें भूल कर पहले से भी ज़्यादा जोश के साथ आगे बढ़ोगी। तुम्हें मज़हब का, क़ौम का वास्ता देती हूँ, कि केवल अपने बारे में सोचने से पहले मज़हब, क़ौम के बारे में सोचो, मेरी बात को सुनो।”

महबूबा ने रूबिका पर जब बहुत ज़्यादा दबाव डाला तो उसने मन ही मन सोचा यह तो बिल्कुल गले ही पड़ गई है। अपनी बात पूरी सुनाए बिना मानेगी नहीं। चलो सुन ही लेती हूँ। उसने महबूबा से कहा, “ठीक है, इतना कह रही हो तो बताओ, लेकिन इस तरह बात-बात में मज़हब का सहारा नहीं लिया करो। इतनी पढ़ी-लिखी तो हूँ ही कि कौन-सी बात मज़हब की, क़ौम की है, कौन-सी नहीं, यह अच्छी तरह समझती हूँ।”

यह सुनते ही महबूबा ने कहा, “अल्लाह का शुक्र है कि तुम बात सुनने को तैयार हुई। देखो अभी बीते दिनों तुमने टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर तो यह देख ही लिया कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा, गफूर, इंदिरा नगर, और उसके आसपास की सभी बस्तियों के लोगों ने मिलकर बस्ती को ख़ाली कराने के सरकार के आदेश के विरुद्ध बड़ा आंदोलन किया। 

“क़रीब चालीस से पचास हज़ार लोगों ने आंदोलन में शिरकत की। सरकार कहती है कि वह पूरी बस्ती ग़ैर-क़ानूनी है, सरकार की ज़मीन पर है। और अवैध बस्ती को अब वहाँ से हटना पड़ेगा। अब तुम ही बताओ बस्ती के क़रीब पचास हज़ार लोग कहाँ जाएँगे? 

“वो सब सालों साल से वहाँ रहते चले आ रहे हैं, अब वह अपने घर, काम-धंधा छोड़ कर कैसे जा सकते हैं। इसलिए हम सबक़ो सरकार को रोकने के लिए जल्दी से जल्दी एक और शाहीन बाग़ खड़ा करना ही पड़ेग।”

महबूबा की बातों से रुबिका खीझ उठी। उसने कहा, “ओफ़्फ़ो कब-तक शाहीन बाग़ खड़ा करते रहेंगे, किस-किस बात के लिए शाहीन बाग़ खड़ा करेंगे, अरे जैसे बाक़ी लोग देश में रह रहे हैं, हम-लोग भी उसी तरह शान्ति से क्यों नहीं रह पाते? दुनिया में हम-लोग उपद्रवियों के रूप में क्यों बदनाम होते जा रहे हैं, कभी यह भी सोचो।”

रूबिका की यह बात महबूबा को काँटे-सी चुभ गई। वह भड़कती हुई बोली, “रुबिका तुम यह क्या काफ़िरों जैसी बातें कर रही हो? हम पर ज़ुल्म पर ज़ुल्म किए जा रहे हैं, और हम बोलें भी न। तुम उल्टा क़ौम को ही कटघरे में खड़ा कर रही हो। यह तुमको इतने ही दिनों में हो क्या गया है?” 

“मुझे कुछ नहीं हुआ है। न ही मैं क़ौम या किसी को कटघरे में खड़ा करने की सोचती हूँ, और मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि पूरा वाक़या क्या है . . .” 

रूबिका भी तैश में आ गई। उसने कहा, “जब उन्नीस सौ उनसठ के नोटिफ़िकेशन के हिसाब से ज़मीन रेलवे की है तो वह तो उसे लेकर ही रहेगा। लोगों को वह ज़मीन आज नहीं तो कल ख़ाली करनी ही पड़ेगी। यदि हम वाक़ई अपनी क़ौम की भलाई चाहते हैं तो हमें सरकार से यह माँग करनी चाहिए कि वहाँ के लोगों को कहीं और बसने की जगह दे दे। और साथ ही पर्याप्त समय भी कि लोग वहाँ पर जाकर बस सकें। 

“नियम-क़ानून के हिसाब से भी सुप्रीम कोर्ट में सरकार जीतेगी ही जीतेगी। ऐसे में एक और शाहीन बाग़ खड़ा करने की कोशिश में बेवजह का तमाशा खड़ा करके हम वहाँ के लोगों के लिए और बड़ी मुसीबत खड़ी करेंगे। 

“वह लोग इस धोखे में आ जाएँगे कि ऐसे शाहीन बाग़़ खड़ा होने से वह ग़लत होने के बावजूद क़ानून के शिकंजे से बच जाएँगे, जब कि बात इसके एकदम उल्टी है। जब हक़ीक़त से उनका सामना होगा, उन्हें वहाँ से छोड़कर जाना ही होगा तो सोचो उनके ऊपर क्या बीतेगी। 

“इस तरह तो हम उन्हें और भी ज़्यादा नुक़्सान पहुँचाएँगे। एक तरह से उन पर दो-तरफ़ा मार पड़ेगी। इसलिए मैं कहती हूँ कि अगर तुम लोग सच में उन लोगों की मदद करना चाहते हो तो सरकार से केवल इतनी माँग करो कि उन्हें कहीं और बसने देने के लिए ज़मीन दे दे, मकान बनाने के लिए आर्थिक मदद भी कर दे। सरकार अगर इतना कर देगी तो उनके लिए इससे ज़्यादा बड़ी और कोई मदद नहीं हो सकती, समझी।”

रुबिका की बातों से महबूबा एकदम हैरान होती हुई बोली, “तुम कैसी बातें कर रही हो, वह लोग वहाँ से हटे ही क्यों? जानती हो वह लोग देश की आज़ादी के पहले से वहाँ रह रहे हैं। आज जो रेलवे विभाग उन्नीस सौ उनसठ के नोटिफ़िकेशन के आधार पर कह रहा है कि यह ज़मीन उसकी है, उसी रेलवे ने उन्नीस सौ चालीस में उन लोगों को लीज़ पर दी थी। 

“और जब इतने बरसों से वह सभी लोग हाउस-टैक्स, बिजली, पानी का बिल देते आ रहे हैं, ख़ुद सरकार ने ही वहाँ डेवलपमेंट के तमाम काम करवाए हैं तो फिर वह बस्ती अवैध कैसे हो गई। सीधी-सी बात तुम समझती क्यों नहीं कि सीधे-सीधे क़ौम पर ज़ुल्म किया जा रहा है।”

महबूबा की बात, आवाज़ में साफ़ झलकते क्रोध को समझते हुए रुबिका ने कहा, “महबूबा देखो मैं बेवजह की बहस में नहीं पड़ना चाहती। इतने नियम-क़ानून हैं, फिर भी सही क्या है, ग़लत क्या है, यह सब मेरी तरह तुम भी अच्छी तरह जानती हो, फिर भी ग़लत बात करती जा रही हो। 

“तुमसे प्रोफ़ेसर सईद या जो लोग भी एक और शाहीन बाग़ खड़ा करने की बात कर रहे हैं, क्या उन्हें यह नहीं मालूम कि जब रेलवे ने उन्हें जगह लीज़ पर दी थी तब अँग्रेज़ों की सरकार थी, उनका क़ानून था। देश उनके हाथों में था। 

“उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद देश आज़ाद हो गया। इसके साथ ही अँग्रेज़ों का क़ानून, उनके नियम उनके साथ चले गए। आज़ादी के बाद देश ने अपने हिसाब से नियम-क़ानून बनाए। रेलवे भी उन्हीं में से एक है। 

“लीज़ को सरकार किसी भी समय ख़त्म भी कर सकती है। टैक्स देने का मतलब यह नहीं है कि मालिक हो गए। बिजली, पानी का बिल तो जो लोग किराए पर रहते हैं, वह भी देते हैं, तो क्या वो मालिक बन जाएँगे? 

“और नियम तो इसी देश में यह भी है न कि सरकार किसी भी तरह के विकास कार्य के लिए किसी भी ज़मीन, प्रॉपर्टी का अधिग्रहण कर सकती है। काशी और अयोध्या में देख नहीं रही हो, सैकड़ों साल पुराने मकान, मंदिर आदि जो कुछ भी वहाँ के विकास में आड़े आए उनका सरकार ने अधिग्रहण कर लिया, लोगों को पैसा दे कर कहीं और बसा दिया। 

“सभी ख़ुशी-ख़ुशी चले भी गए, एक बार कहने को भी लड़ाई-झगड़ा फ़साद या आंदोलन-फान्दोलन किसी ने खड़ा किया? क्योंकि इन लोगों ने क़ानून के हिसाब से जो भी हो रहा था उसे मुआवज़ा लेकर होने दिया। 

“ऐसा ही कोई रास्ता यहाँ क्यों नहीं निकाला जाता? मैं साफ़-साफ़ कहती हूँ कि लोग निकालना चाहेंगे तो बड़ी आसानी से निकल आएगा, जैसे अयोध्या, काशी में निकला। 

“मैं बिना संकोच के यह कहती हूँ कि यह हो तभी पाएगा जब सईद जैसे लोग एक और शाहीन बाग़ खड़ा करने से बाज़ आएँगे। 

“जब उस दिन जुलूस में मैंने केवल महिलाओं को कैंडिल लिए हुए देखा तो मुझे तुरंत ही शाहीन बाग़ याद आ गया। ऐसे ही तमाशा वहाँ भी शुरू हुआ था। 

“सईद जैसे लोगों ने औरतों को आगे कर दिया, ख़ुद पीछे खड़े होकर अपने-अपने स्वार्थों की दुकान चमकाते रहे। शाहीन बाग़ में तो नहीं लेकिन यहाँ हल्द्वानी के जुलूस को देखकर मुझे बार-बार हरि सिंह नलवा और सलवार कुर्ता पहने मुस्लिम मर्द याद आते रहे। मैं यही सोचती रही कि मुस्लिम मर्दों की ऐसी हरकतों के कारण ही हरि सिंह ने उन्हें सलवार कुर्ता पहनाया होगा।”

यह सुनते ही महबूबा ने अजीब सा मुँह बनाते हुए कहा, “हरि सिंह नलवा, यह तुम किस काफ़िर का नाम ले रही हो, हल्द्वानी, मुस्लिम मर्दों के सलवार कुर्ता से एक काफ़िर का क्या लेना देना?” 

महबूबा की आवाज़ में तल्ख़ी का आभास कर रुबिका कुछ देर उसे देखती रही, उसने मन ही मन सोचा कि क़ौम पर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के नाम पर झूठी साज़िशों का हिस्सा नहीं बन रहे होते, अपनी पढ़ाई ठीक से कर रहे होते तो यह सब पता होता। उसे चुप देखकर महबूबा ने कहा, “तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, यह काफ़िर कौन है, जिसने तुम्हारे दिमाग़ में क़ौम के ख़िलाफ़ ज़हर भर दिया है।”

महबूबा की सख़्त लहजे में कही गई यह बात रुबिका को चुभ गई, “उसने भी उसी लहजे में कहा, “तुम बार-बार फ़ालतू की बातें नहीं करो तो अच्छा है। क़ौम के बारे में जितना तुम सोचती हो, उससे कहीं ज़्यादा मैं सोचती हूँ, उसकी भलाई कैसे हो सकती है यह तुमसे ज़्यादा ही जानती हूँ।”

रूबिका की इस बात से रूम का माहौल और गर्मा गया। तनावपूर्ण हो गया। महबूबा ने तीखे लहजे में कहा, “जब जानती हो, तो क़ौम पर इतनी बड़ी आफ़त आने के बाद भी उसकी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आ रही हो? यह केवल हल्द्वानी की ही बात नहीं है, हम शाहीन बाग़ खड़ा नहीं करते रहेंगे तो यह पूरे देश में ऐसे ही चलने लगेगा। रोज़ ही कोई ना कोई बस्ती ग़ैर-क़ानूनी होती चली जाएगी। 

“इसलिए हमें शुरू में ही अपना विरोध इतना तेज़ और भयानक करना चाहिए कि कोई भी सरकार हमारी क़ौम की किसी भी बस्ती को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर ख़ाली कराने से पहले हज़ार बार सोचे। अगर हम चुप रहे तो यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। 

“इसीलिए हमेशा की तरह क़ौम की फ़िक्र करने वाला हर कोई, मैं, बहुत फ़िक्रमंद हैं और क़ौम के एक-एक आदमी को जोड़ रहे हैं। ऐसे माहौल में किसी हरि सिंह नलवा-अलवा की बात करना भी किसी कुफ़्र से कम नहीं है।” 

रुबिका को महबूबा का आवेश भरा लहजा बहुत ही नागवार गुज़रा। उसने कहा, “मैं किसी ऐरे-ग़ैरे की बात नहीं कर रही हूँ, मैं इतिहास से सबक़ लेने की बात कर रही हूँ। कितना अफ़सोसनाक है कि तुम भी मेरी तरह ही इतिहास में ही पीएच. डी. कर रही हो, लेकिन जिसके नाम से ही दुश्मनों की रूह काँप जाती थी, उस हरि सिंह नलवा और मुस्लिम मर्दों के सलवार कुर्ता पहनने के कनेक्शन को नहीं जानती। 

“क़ौम के लिए वह हालत बड़ी शर्मिंदगी वाली होती है, जब क़ौम के मर्द, कोई काम निकालने के लिए औरतों के कंधों का सहारा लेने लगते हैं। शाहीन बाग़ मामले में देश-भर में बुर्कानशीं औरतों को आगे कर दिया गया था, अब फिर से वही किया जा रहा है। 

“मुझे डर इस बात का है कि जब आगे इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें ध्वनि यही होगी कि तब क़ौम के मर्द इतने कमज़ोर और कायर थे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी अपना कोई भी सही या ग़लत विरोध दर्ज कराने की हिम्मत नहीं रखते थे। 

“इसके लिए भी महिलाओं के पीछे खड़े होकर, उनके कन्धों पर बंदूक रखकर चलाने को छोड़ो, बंदूकें उनके हाथों में पकड़ा कर दूर बहुत दूर से खड़े होकर तमाशा देखते थे। अपनी उन्हीं महिलाओं को जिन्हें वह और दिनों में, एक कोठरी में, सात तहों में छुपा कर रखने के लिए जी-जान से जुटे रहते थे कि सूरज की रोशनी भी उन पर न पड़ने पाए लेकिन जब काम पड़ता था तो सड़कों पर खदेड़ देते थे। 

“आने वाली नस्लें ऐसे मर्दो पर हँसेगी नहीं तो क्या उनको सलाम करेंगी। आज भी इतिहास में जब पढ़ती हूँ कि सिक्ख महाराजा रणजीत सिंह के महान सेनानायक हरि सिंह नलवा ने पूरा कश्मीर, पेशावर, अटक, मुल्तान, सियालकोट, क़ुसूर, जमरूद, कंधार, हेरात, कलात, बलूचिस्तान एक तरह से पूरा अफ़ग़ानिस्तान, फ़ारस तक जीत लिया था, पठान उनसे बुरी तरह हार गए, बड़ी संख्या में उन्हें हरि सिंह ने क़ैद कर लिया, इन सबके सिर क़लम किए जाने थे। 

“जान बचाने के लिए मर्दों ने कहा कि हिंदू राजा, सेना नायक, लोग महिलाओं का सदैव सम्मान करते हैं, यदि महिलाएँ हरि सिंह नलवा से अपने पतियों, बेटों, भाइयों की जान बख़्शने के लिए रहम की भीख माँगें तो हरि सिंह सबक़ी जान बख़्श देंगे। 

“औरतों की मर्ज़ी नामर्ज़ी जाने बिना मर्दों ने जब उन्हें अपना फ़रमान सुनाया, तो औरतों ने मर्दों की जान बचाने के लिए हरि सिंह से रहम की भीख माँगी, लेकिन वह किसी पर रहम करने को तैयार नहीं थे। 

“क्योंकि उन्हें यह विश्वास था कि यह सारे क़ैदी छूटने के बाद विद्रोह करने की तैयारी करेंगे। यह जानकर मर्द औरतें फिर गिड़गिड़ाने लगीं, तब हरि सिंह नलवा ने कहा, कि जो भी क़ैदी सलवार-कुर्ता पहन कर क़ैद से बाहर आने को तैयार होगा, उसकी ही जान बख़्शी जाएगी। 

“इसके बाद सारे के सारे पठान सलवार-कुर्ता पहनकर अपनी जान बचाकर नलवा की क़ैद से निकले। पठानों में नलवा का इतना ख़ौफ़ था कि उनका नाम सुनते ही वह भाग जाते थे या कहीं छिप जाते थे। 

“अपनी जान बचाने के लिए वह हमेशा सलवार-कुर्ता ही पहने रहते थे। यही धीरे-धीरे चलन में आ गया। उनकी परंपरा सी बन गई। 

“हरि सिंह नलवा ने अपनी तलवार के दम पर विशाल सिक्ख साम्राज्य स्थापित कर दिया था। वह इतने बहादुर थे, इतनी जंगें उन्होंने जीती थीं कि सर हेनरी ग्रिफिन जैसों ने उन्हें खालसा जी का चैंपियन की उपाधि से नवाज़ा था। 

“सभी इतिहासकार उन्हें नेपोलियन बोनापार्ट जैसा महान सेनानायक कहते हैं। उन्हें शेर-ए-पंजाब की भी उपाधि दी गई है। उनके दुश्मन, सभी पठान उनसे कितना ख़ौफ़ खाते थे उसका अंदाज़ा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि जहांगीरिया की लड़ाई में बर्फ़ीली नदी को पार करके उन्होंने पठानों पर भयानक हमला कर दिया। 

“दस हज़ार से अधिक पठान मारे गए, बाक़ी अपनी जान बचा कर पीर सबक़ की ओर भाग गए। हरि सिंह की बहादुरी को देख कर डरे घबराए पठान चिल्लाने लगे, ‘तौबा-तौबा ख़ुदा ख़ुद खालसा शुद।’

“मतलब कि ‘ख़ुदा माफ़ करें, ख़ुदा स्वयं खालसा हो गए हैं।’ इन डरे घबराए पठान मुसलमानों का हाल देखो कि क़रीब दो सौ साल होने वाले हैं और जो इन लोगों ने सलवार पहनी तो पहनते ही चले आ रहे हैं। 

“अफ़ग़ानिस्तान में तो मर्दों की जैसे राष्ट्रीय पोशाक बन गई है। चाहे वहाँ आज के आतंकी तालिबानी शासक हों या वहाँ की जनता, सब एक ही रंग में रँगे हैं। 

“अपने भारत में ही देख लो, ज़्यादा कट्टर मुसलमान दिखने के चक्कर में बहुत से बेवुक़ूफ़ नक़ल करते हुए बड़ी शान से सलवार-कुर्ता पहन रहे हैं। 

“ये सब कभी भी यह जानने की भी कोशिश नहीं करते कि उन्हें औरतों के यह कपड़े सलवार किसने पहनाई? बस ऐसे पहनते चले आ रहे हैं, जैसे कि वह उनकी बहादुरी, शानो-शौकत की निशानी है। अजीब बात तो यह है कि सलवार टखने से बहुत ऊपर पहनेंगे और कुर्ता घुटने से बहुत नीचे। 

“अजीब जोकरों सी-स्थिति होती है। सोशल मीडिया से लेकर ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ लोग हँसते न हों। मज़ाक में कहते हैं कि छोटे भाई का पजामा, बड़े भाई का कुर्ता। सोचो जिस तरह जान बचाने के लिए बहादुर मुसलमान पठानों ने औरतों के कंधों का सहारा लिया, औरतों के कपड़े सलवार कुर्ते पहन लिए, तो वह अपमानजनक वाक़या इतिहास में दर्ज हो गया है हमेशा-हमेशा के लिए, तो क्या अब ऐसा कुछ किया जाएगा तो वह इतिहास में दर्ज नहीं होगा।”

जिस आवेश में महबूबा ने नॉन-स्टॉप अपनी बातें कही थीं, उससे कहीं ज़्यादा आवेश, गति में रूबिका ने अपनी बातें कहीं। उसकी अतिप्रतिक्रियावादी आदत से महबूबा परिचित थी इसलिए उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन वह अब भी अपनी कोशिश में पीछे नहीं हटना चाहती थी। उसने तुरंत ही कहा, “कमाल की बात करती हो, पठान तो बहादुर लोग हैं। न जाने कितनी पिक्चरों में उनकी बहादुरी के क़िस्से भरे पड़े हैं।” 

“महबूबा मुश्किल तो यही है कि एक एजेंडे के तहत पिक्चरों में उलटी तस्वीर उकेरी गई, इनको बहादुर दिखाया गया। लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में स्थापित कर दिया गया कि पठान बहादुर होते हैं। मगर जब इतिहास के पन्नों को पलटते हैं तो उसमें हक़ीक़त इसके उलट नज़र आती है। वहाँ हमें पठान जान बचाने के लिए अपनी औरतों की सलवार कुर्ता पहनने वाले, दुश्मन से जान बचा कर भागते, छिपते नज़र आते हैं, बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती है।” 

इस बार महबूबा कुछ विचलित होती हुई बोली, “हिंदुस्तान पर एक नहीं कितने ही मुसलमानों ने हमले किए, यहाँ के राजाओं को हराया। मुग़लों ने सैकड़ों साल शासन किया, यह भी तो एक सच है।” 

रूबिका ने महबूबा की आँखों में देखते हुए गहरी साँस लेकर कहा, “नहीं महबूबा, यह एक सच नहीं वामपंथी, पश्चिमी, कांग्रेसी मानसिकता वाले इतिहासकारों का अधूरा या गढ़ा हुआ सच है। जैसे जोधा और अकबर का विवाह। तमाम रिसर्च के बाद अब यह सच सामने आ गया है कि जोधा बाई भारत, प्राचीन भारतीय संस्कृति से चिढ़ने, खुन्नस खाने वाले इन्हीं इतिहासकारों के दिमाग़ की उपज है। 

“मुस्लिम देशों, इन्हीं दुराग्रही इतिहासकारों, लोगों का एजेंडा चलाने वाले बॉलीवुड के लिए ही इन्हीं लोगों ने कपोल कल्पित कैरेक्टर गढ़े। एजेंडे का गोलमाल ही तो है कि हम-सब लोग, सारी दुनिया कल्पित कैरेक्टर जोधा बाई का क़िस्सा तो जानते हैं, लेकिन राजपूताने के ही महान शासक जिन्हें ‘फ़ादर ऑफ़ रावलपिंडी’, ‘काल भोज’ भी कहा जाता है, उनकी तीस से भी अधिक मुस्लिम पत्नियों के बारे में नहीं जानते। 

“अपनी जान और सत्ता बचाने के लिए इन मुस्लिम राजकुमारियों के अब्बा, भाईजान उन्हें बप्पा रावल को सौंपते जाते हैं लो, बना लो इसे अपनी बेगम, बख़्श दो मेरी जान। इसमें ग़ज़नी का मुस्लिम शासक मुख्य था जिसने अपनी बेटी का विवाह बाप्पा रावल से किया था। बप्पा रावल का बसाया शहर रावलपिंडी आज भी पाकिस्तान का प्रमुख शहर है। 

“राणा सांगा के नाम से ही दुश्मन काँपते थे, शरीर में अस्सी घावों के बावजूद वह युद्ध में सेना का संचालन करते थे। उनकी चार पत्नियाँ मुस्लिम थीं, उनमें से एक का नाम मेहरून्निसा था। 

“हल्दी-घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप ने अकबर को इतनी बुरी तरह परास्त किया था कि वह उनसे घबराने लगा, जब राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह गद्दी सँभालते हैं तो अकबर ने अपनी बेटी शहजादी खानम की शादी उनसे कर दी। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी बेटी रूहानी बाई की शादी राजा छत्रसाल से कर दी। जोधपुर के राजा हनुमंत सिंह ने जुबेदा से विवाह किया। 

“इसी तरह कुँवर जगत सिंह से उड़ीसा के नवाब कुतुल खां की लड़की मरियम का, वजीर खान की बेटी का महाराणा कुंभा से, राजा मानसिंह का मुबारक से, अमरकोट के राजा वीर साल का हमीदा बानो से विवाह हुआ था। 

“सेलेक्टेड ही नहीं झूठ, छद्म मक्कारी से भरा इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों की मक्कारी झूठ का सबसे बड़ा उदाहरण है जोधा बाई कैरेक्टर। सोचो कि अकबर अपनी आत्म-कथा में सब-कुछ लिखता है, बेगमों का ज़िक्र करता है, लेकिन जोधा बाई के बारे में एक शब्द कहीं नहीं है। 

“एक बार को यह मान भी लें अकबर भूल गया होगा, लिखते समय किसी कारण से ग़ुस्सा रहा होगा, इसलिए उसने जोधा बाई का ज़िक्र नहीं किया, लेकिन उसके ज़माने के बाक़ी इतिहासकारों ने भी अकबर की बेगमों के बारे में विस्तार से लिखा, उनके नाम बताए, लेकिन जोधा बाई का कहीं नामोनिशान नहीं है। यह तथ्य ही बताते हैं कि जोधा बाई मक्कारों के दिमाग़ की उपज के सिवा और कुछ नहीं है। 

“जिन जंगों की फ़तह, राज्य, शासन-व्यवस्था के आधार पर मुग़लों को महान-फहान बताया गया है, जब ईमानदारी से तथ्यों का विश्लेषण करो तो सचाई यह सामने आती है कि मुग़ल साम्राज्य हिन्दू राजाओं ख़ासतौर से राजपूतों के परस्पर झगड़ों के कारण बना। कुछ को छोड़ कर बाक़ी सारे युद्धों में मुग़लों के सेना-पति, सेना हिन्दू ही होते थे, वही लड़ते जीतते थे। सारी व्यवस्था राजा टोडरमल जैसे हिन्दू राजाओं की बनाई थी। 

“जिन कुछ युद्धों को मुग़ल सेनापति ने जीता वह भी छल छद्म से ही जीता, किसी युद्ध में गायों को आगे कर दिया कि हिन्दू सेना गायों के सामने होने पर हथियार ठीक से चला नहीं पाएगी, क्योंकि वो धार्मिक मान्यताओं के चलते किसी भी सूरत में गायों को नुक़्सान नहींपहुँचाएँगे। तो किसी में कुछ और। यदि वो इतने ही महान लड़ाके थे तो छत्रपति शिवा जी, उनके मराठा साम्राज्य को समाप्त क्यों नहीं कर पाए? आख़िर मराठा साम्राज्य ही मुग़ल साम्राज्य के नष्ट होने का कारण बना। 

“पूर्वोत्तर में आहोम साम्राज्य मुग़लों को नाकों चने चबवाता रहा, उसके सेनानायक लाचित बरफुकन ने सोलह सौ इकहत्तर में सराईघाट के युद्ध में मुग़ल सेना को रौंद कर रख दिया था। यहाँ भी मुग़ल सेना का सेनापति हिन्दू रामसिंह प्रथम थे। इस युद्ध में भी मुग़लों ने छल-छद्म किया, फ़र्ज़ी पत्र के माध्यम अफ़वाह उड़वाई कि सेनापति लाचित को मुग़लों ने युद्ध हारने के लिए एक लाख रुपये दिए हैं। 

“भ्रम फैला भी लेकिन लाचित ने अपनी बुद्धिमत्ता, रण-कौशल से ब्रह्मपुत्र नदी युद्ध में भी मुग़ल सेना को कुचल कर रख दिया। मुग़लों ने हार मानते हुए लिखा ‘महाराज की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहाँ तक कि मैं राम सिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूँढ़ सका!’ ऐसे लोगों के बारे में इतिहास में कितना पढ़ाया जाता है? दक्षिण में भी मुग़ल असफल रहे। सच छिपा कर हर वह झूठ स्थापित किया गया जो इस देश को अपमानित महसूस कराए, बर्बाद करे।” 

महबूबा, रूबिका की बातों से खीझती, परेशान होती हुई बोली, “रूबिका इतिहास में क्या हुआ, क्या नहीं, किसने मक्कारी की, किसने कितना झूठ लिखा, हमें इन सब चक्करों में नहीं पड़ना है। हमें तो आज देखना है। हल्द्वानी में अपनी क़ौम के साथ खड़े होना है बस।”

रूबिका ने कुछ सोचते हुए कहा, “महबूबा, मैं तुम्हारी तरह इतिहास से किसी भी तरह से मुँह नहीं मोड़ सकती। मैं तुम्हें पहले भी कई बार बता चुकी हूँ कि जब से मैंने यह जाना है कि मेरा ख़ानदान छह पीढ़ी पहले एक क्षत्रिय बड़ा ज़मींदार हुआ करता था, तब से मैं अपनी जड़ों को तफ़सील से जानने कि कोशिश में लगी हुई हूँ। 

“तुमसे भी कई बार कहा कि अपनी जड़ों को खोजो, कौन हो तुम यह जानो। लेकिन तुम इस बात को सुनती ही नहीं। मगर मेरा पूरा यक़ीन अब इस बात पर है कि अपने इतिहास को जाने-समझे बिना न हम आज को ठीक से समझ पाएँगे और न ही कल के बारे में कुछ तय कर पाएँगे।”

यह सुन कर महबूबा के चेहरे पर ग़ुस्सा खीझ दिखने लगी थी। उसने उस पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते हुए कहा, “रूबिका मैं तुमसे इतिहास पर बहस करने नहीं आई हूँ। प्रोफ़ेसर सईद ने जो कहा था, वह बताने के साथ ही यह गुज़ारिश करने आई हूँ कि आज फिर से क़ौम को तुम्हारी, हमारी, सबकी ज़रूरत है। हम-सब को फिर से बिना किसी आनाकानी के पुराने जज़्बे यानी की शाहीन-बाग़ वाले जज़्बे के साथ हल्द्वानी पहुँचना है बस।”

महबूबा ने बहुत ज़ोर देकर, क़रीब-क़रीब आदेशात्मक लहजे में अपनी बात कही तो रूबिका को ग़ुस्सा आ गई। उसने महबूबा की आँखों में देखते हुए कहा, “महबूबा मैं बोलना तो नहीं चाहती थी, लेकिन तुमने मुझे मजबूर कर दिया है बोलने के लिए तो सुनो प्रोफ़ेसर सईद के असली चेहरे के बारे में। 

“क़ौम के लिए उनकी इतनी हमदर्दी तब कहाँ चली गई थी, जब मैं अपनी बड़ी बहन का जीवन तबाह होने से बचाने के लिए उनसे मदद माँगने गई थी। तब उन्होंने बजाए मदद करने के अपने जाल में फँसाने की कोशिश की। 

“मुझे कई दिन तक दौड़ाया और फिर एक पुरानी बात का हवाला देकर ब्लैक-मेल किया, बहुत दिन तक मेरी इज़्ज़त लूटते रहे, मेरे इसी बदन को शराब पी-पी कर जानवरों की तरह नोचते रहे। बदन पर से वो निशान अब भी मिटे नहीं हैं। तुम्हें यक़ीन नहीं होगा इसलिए ये . . . ये देखो सुबूत . . .” 

बहुत आवेश में आ चुकी रूबिका ने बात पूरी करने से पहले ही कुर्ता उतार कर पेट, पीठ कुछ अन्य हिस्सों पर सईद के वहशीपन के निशान दिखाए। लेकिन महबूबा के चेहरे पर कोई आश्चर्य के भाव आने के बजाए ऐसा लगा जैसे कि वह पहले से ही सब-कुछ जानती है। 

मगर आवेश में इस बात से अनजान रूबिका कहे जा रही कि “आज मैं उनका चेहरा बेनक़ाब कर रही हूँ, उन्होंने जो किया वह बताने जा रही हूँ, हालाँकि मैं जानती हूँ कि मालूम तुम्हें भी होगा। लेकिन तुम उनकी इतनी पैरवी कर रही हो इसलिए कह रही हूँ कि . . .”

इसी वक़्त महबूबा बोल पड़ी, “मैं पैरवी नहीं कर रही हूँ, मैं तो . . .” 

“सुनो-सुनो, पहले मेरी बात सुनो, मेरी बहन उज्मा का मामला तो तुम्हें काफी-कुछ मालूम है। उसके जुआरी शौहर ने पहली बार तलाक़ दिया, फिर कुछ दिन बाद ही अपने बड़े भाई से हलाला करा कर दोबारा निकाह कर लिया। इसके कुछ दिन बाद ही घर में प्रॉपर्टी को लेकर झगड़ा हो गया। 

“सारे भाई अपनी-अपनी प्रॉपर्टी लेकर अलग हो गए। इसी बीच उज्मा के शौहर ने जुए के साथ-साथ नशेबाज़ी भी शुरू कर दी। घर का सामान भी बेचने लगा। जिससे रोज़ झगड़ा होने लगा। एक दिन उसने फिर तलाक़ दे दिया। अबकी हलाला की बात घर में नहीं बन पाई, क्योंकि भाइयों में तो प्रॉपर्टी को लेकर पहले ही ख़ूब मार-पीट, लड़ाई-झगड़ा हो चुका था, सब जानी दुश्मन थे, बोलचाल भी बंद थी। 

“उसने एक मौलवी से मसले का हल पूछा, तो वह ख़ुद ही हलाला करने के लिए तैयार हो गया, तो उसने उज्मा को मौलवी के पास हलाला के लिए जाने के लिए मजबूर कर दिया। समस्या तब और बड़ी हो गई जब मौलवी ने बातचीत में तय हुए समय पर उज्मा को तलाक़ देने से आनाकानी करनी शुरू कर दी। 

“वह उसको रोज़ शारीरिक यातना देता रहा। शौहर बार-बार तलाक़ के लिए कहता रहा, मगर मौलवी टालता रहा। शौहर उसके पास बार-बार जाता गालियाँ खाकर लौट आता। उसके तीनों बच्चे लावारिस से होकर रह गए थे। मौलवी ने बच्चों को लाने के लिए सख़्त मना कर दिया था। जुआरी-शराबी बाप के चलते बच्चों को मैं लेते आई। 

“वह मौलवी उज्मा का शारीरिक शोषण इतनी भयानक तरीक़े से करता था, लगता कि जैसे वह उसे तड़पा-तड़पा कर मारना चाहता है। मेरे घरवाले, मैं, उसका शौहर सारी कोशिश करके थक गए, लेकिन मौलवी ने उज्मा को तलाक़ नहीं दिया कि वह फिर से अपने लफ़ंगे शौहर से निकाह कर पाती, अपने बच्चों को सँभाल पाती। 

“हार कर मैं सईद के पास गई कि उनका बड़ा रुतबा है, तमाम महत्त्वपूर्ण संगठनों से जुड़े हुए हैं, वह मौलवी से कहेंगे तो वो उज्मा को तलाक़ दे देगा। मेरी बात सुनते ही सईद ने ऐसी बातें कहीं कि लगा बस अभी मौलवी को फोन करके उज़्मा को मिनट भर में तलाक़ दिलवा देंगे। 

“लेकिन देखते-देखते तीन महीने बीत गए। मैं सईद और मौलवी के बीच में फुटबॉल बनके रह गई। दोनों मुझे किक मारते और मैं इधर से उधर, उधर से इधर होती रही। उज्मा की हालत देखती तो कलेजा फट जाता। उसका चेहरा, बदन चोटों से भरा रहता था। बड़ी मशक़्क़तों के बाद ही मौलवी कुछ देर को मिलने देता था। 

“बहुत दबाव के बाद उसने अपने एक दलाल के ज़रिए तलाक़ के बदले पाँच लाख रुपये की माँग कर दी, जो बहुत मिन्नतें करने के बाद दो लाख रुपए में तय हुई। तब जाकर उसने तलाक़ दिया। यह पैसा भी मेरे घर वालों ने किसी तरह इंतज़ाम करके दिया। 

“उज्मा के निकम्मे जुआड़ी-शराबी शौहर ने एक पैसा नहीं दिया। हमारी बदक़िस्मती इतनी ही नहीं रही, जब उज्मा घर आ गई तो पता चला कि शौहर ने एक दूसरी औरत से निकाह कर लिया है। इस बात को लेकर भी बड़ा बवाल हुआ। उज़्मा तब से घर पर पड़ी है। 

“इतनी चिड़चिड़ी हो गई है कि बच्चों को अपने पास भी नहीं आने देती, छोटे-छोटे बच्चों को बेवजह पीटती है। बड़ी ऊल-जुलूल बातें करती है। कहती है, ‘जानवरों से भी गई-गुज़री हो गई है ज़िन्दगी। ऐसी बदतरीन ज़िन्दगी से तो बेहतर है मर जाना। सबसे अच्छा जीवन तो हिन्दू औरतों का है। उन्हें वो देवी मानते हैं। हिन्दू ही बन जाऊँ तो अच्छा है।’ उसका, उसके तीनों बच्चों का भविष्य क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। घर का पूरा माहौल ऐसा तनावपूर्ण रहता है कि जीना मुश्किल हो गया है। घर जाने का मन नहीं करता।” 

अब-तक रूबिका बहुत भावुक हो गई थी, आँखों से आँसू टपकने लगे थे। महबूबा ने कहा, “तलाक़ ए बिद्दत के ख़िलाफ़ क़ानून है। उसके शौहर, मौलवी के ख़िलाफ़ रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई।” 

“रिपोर्ट दोनों के ख़िलाफ़ है, मुक़दमा चल रहा है। उज्मा की रिपोर्ट लिखवाते समय मन में आया कि मेरा शोषण जिस तरह से सईद ने किया उसकी रिपोर्ट मैं कर दूँ, लेकिन कुछ सोच कर चुप रही। उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या किया, वह भी मुझ से छुपा नहीं है। 

“मैं तो समझ नहीं पा रही हूँ कि तुम इतना सेक्सुअल हैरेसमेंट झेलने के बाद भी, अब भी उनके साथ कैसे इतनी शिद्दत से लगी हुई हो। क्या तुम्हारे मन में ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आता या तुमको भी वह सब अच्छा लगता है। 

“अरे वह और उनके जैसे लोग हमारी-तुम्हारी जैसी औरतों के कंधों पर बंदूक रखकर हल्द्वानी में जो दूसरा शाहीन बाग़ खड़ा करने पर तुले हुए हैं, उसमें हमें तुम्हें सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन यह तय है कि उनकी जेब में अब-तक करोड़ों रुपए आ चुके हैं। 

“जिस संगठन पर अभी प्रतिबंध लगे हैं, देश में तबाही मचाने की साज़िश रचने के आरोप में, यह उस संगठन के ऐसे कर्ता-धर्ताओं में से हैं, जो चेहरे पर नक़ाब लगाएँ बड़े पाक-साफ़ दिखते हुए काम करते हैं। लेकिन झूठ एक दिन सामने आएगा ही, तमाम पकड़ के जेल भेजे गए हैं, कोई ताज्जुब नहीं कि जल्दी ही एक दिन यह भी धरे जाएँ। इसलिए तुमसे भी कहती हूँ कि अपना कैरियर देखो, उनके साथ लगी रही तो किसी दिन तुम भी आरफा की तरह क़ानून के शिकंजे में फँस सकती हो, जेल पहुँच सकती हो।” 

रुबिका की बातों से महबूबा के चेहरे पर ग़ुस्से की रेखाएँ बहुत गाढ़ी हो गईं। उसने कहा, “रुबिका तुम जातीय दुश्मनी के कारण क़ौम पर हो रहे काफ़िरों के हमले के ख़िलाफ़ एक क़दम नहीं बढ़ाना चाहती, तो न बढ़ाओ, तुम यह गुनाह करना चाहती हो, तो करती रहो, मर्ज़ी तुम्हारी, लेकिन ख़ुद को बचाने के लिए आरफा की आड़ मत लो। 

“सईद साहब ने न ही मेरा और न ही तुम्हारा, किसी का कोई बेजा फ़ायदा उठाया है। पढ़ी-लिखी तुम भी हो और मैं भी हूँ। कोई बच्ची नहीं कि सईद साहब या कोई भी बिना हमारी मर्ज़ी के हमें छू ले। इसलिए उन पर कोई तोहमत लगाने की ज़रूरत नहीं है।” 

यह सुनते ही रूबिका भड़क उठी। उसने कहा, “सईद जैसे लोग कैसे हमारी-तुम्हारी जैसी पढ़ी-लिखी शेरनियों का जाल बिछाकर शिकार करते हैं, यह तुम भी बहुत अच्छी तरह जानती हो। मगर जब तुम्हें शिकार होने में ही मज़ा आता है, तो तुम कैसे कह सकती हो कि तुम्हारा शिकार हो रहा है। यह मज़ा तुम्हें मुबारक। 

“मैं किसी सईद के इशारे पर नाचने को अब तैयार नहीं। काफ़िर और क़ौम के नाम पर यूज़ करना बंद करो। इतिहास से तुम लोगों ने कुछ जाना हो या न जाना हो, लेकिन उसमें लिखी बातों को हथियार बनाना बड़ी अच्छी तरह जान लिया है। मगर मैं अब किसी का हथियार बनने के लिए तैयार नहीं, इसलिए मुझे तुम माफ़ करो। 

“अपने सईद साहब से जाकर कह देना कि क़ौम की बड़ी चिंता है तो पहले क़ौम की महिलाओं पर ख़ुद वह और उनके मौलवी जो अत्याचार कर रहे हैं, उसे बंद करें। उन्हें जो दोयम दर्जे का बना कर रखा हुआ है, मस्जिद में नमाज तक पढ़ने नहीं देते, क़ानून बन जाने के बाद भी तीन तलाक़ देकर औरतों को सड़क पर फेंक देते हैं, उनके साथ जो ज़्यादतियाँ हो रही हैं, उनको पहले उनसे नजात दिलाएँ। उसके बाद काफ़िरों का डर दिखाकर रोज़ नए-नए शाहीन बाग़ खड़ा करें और अपनी जेबें भरें।” 

यह सुनते ही महबूबा तैश में आकर खड़ी हो गई। आँखें तरेरते हुए कहा, “तुम रास्ता भटक गई हो रुबिका, तुम किसी काफ़िर के बहकावे में आ गई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो। मैं अल्लाह ता'ला से दुआ करूँगी कि वह तुम्हें सही रास्ते पर जल्दी ले आएँ और तुम जल्दी ही फिर से मेरे साथ आओ, अपनी क़ौम के साथ।” 

यह कहती हुई वह कमरे से बाहर निकल गई। 

रूबिका ने भी उसे सुनाते हुए कहा, “मैं भी अल्लाह ता'ला से दुआ करूँगी कि वह तुम्हें और सईद जैसे लोगों को सही और ग़लत रास्ते का फ़र्क़ जानने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएँ।” 

वह उसे दूर तक जाते देखती रही, उसकी एकदम नई स्कूटर को भी, जिसकी चमकीली टेल लाइट शाम होते ही पड़ने लगे कोहरे में जल्दी ही गुम हो गई।

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टिप्पणियाँ

शैली 2023/02/11 09:43 PM

इतिहास के साथ हुई छेड़ छाड़ को पढ़ कर आँखे खुल गयीं। समाज के एक हिस्से की सच्चाई बहुत स्पष्टता से बतायी हैं। हार्दिक आभार एक अच्छी रचना पढ़ने का अवसर देने के लिए

RAM TIRTH CHAUHAN 2023/02/02 01:56 PM

Sundar Lekh aur Majedar kahaniyon ka sanklan. Bahut Bahut Badhai Apko.

पाण्डेय सरिता 2023/02/01 09:54 PM

ख़तरनाक विषय पर संवेदनशील विमर्शपूर्ण रचना

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