महापुरुष की महागाथा
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रदीप श्रीवास्तव28 Oct 2014
समीक्ष्य पुस्तक: ‘पूत अनोखो जायो’
लेखक: नरेंद्र कोहली
प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड,
जे-40, जोरबाग लेन, नई दिल्ली-110003
मूल्य: रुपए 295
‘साहित्य समाज को समृद्ध बनाता है, सुसंस्कृत बनाता है, साहित्य चेतना का निर्माण करता है, आशाओं आकांक्षाओं को प्रेरित करता है, फंतासी के माध्यम से हमें यथार्थ के प्रति प्रेरित करता है।’ नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार मारियो वार्गास लोसा ने कुछ वर्ष पहले साहित्य की अहमियत रेखांकित करते हुए जब यह कहा तो यह पश्चिम के बहुसंख्य साहित्यकारों की उस घोषणा को नकारने जैसा लगा ‘कि दुनिया में साहित्य, कला की मौत का वक़्त आ गया है।’ मारियो का मानना है कि साहित्य के बिना समाज समाज ही नहीं रहेगा। भारत में आज के सिरमौर कथा शिल्पी नरेंद्र कोहली पिछले 5 दशक से विपुल साहित्य सृजन करते हुए मानो इस सिद्धांत को पहले से ही प्रतिपादित करते आ रहे हैं। आज जब यह कहा जा रहा है कि अच्छा उपन्यास वह जो छोटा हो इसके उलट वह सामान्यतः 6-7 सौ पृष्ठों का उपन्यास लिखते हैं। सुखद यह है कि यह पाठकों के बीच अपनी एक ख़ास पहचान बनाने में सफल भी होते हैं। उनका आठ खंडों में लिखा ‘महासमर’ उपन्यास संभवतः विश्व का सबसे बड़ा उपन्यास कहे जाने वाला टालस्टॉय के ‘वार एँड पीस’ के बाद सबसे बड़ा है। उनका समीक्ष्य उपन्यास ‘पूत अनोखो जायो’ भी 656 पृष्ठों का एक बड़ा उपन्यास है। यह स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित है। ऐतिहासिक पात्रों को लेकर नए संदर्भों में एक सर्वथा नई और विराट रचना करने की उनकी सिद्धहस्तता इस रचना में भी और मुखर हुई है।
स्वामी विवेकानंद के बचपन से लेकर सन् 1893 में शिकागो, अमेरिका में ऐतिहासिक विश्व-धर्म संसद तक की उनकी यात्रा का नरेंद्र कोहली ने ऐसा विशद वर्णन किया है कि पाठक अपने महान पूर्वज की देशभक्ति, अपने देश को पुनः विश्व सिरमौर बनाने, उनके हृदय में लहराते करुणा के सागर को देख कर चमत्कृत हो उठेगा। उनका लक्ष्य के प्रति अदम्य इच्छाशक्ति के साथ बढ़ने का जुनून जहाँ पाठक इस आख्यान में पाएँगे वहीं स्वामी विवेकानंद के जीवन के बारे में कई अनछुए पहलुओं का भी दर्शन करेंगे। जैसे वह अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के ऐसे आदर्श शिष्य हैं जिन्होंने अपने पिता के असमय देहांत के बाद परिवार की परवरिश से भी ज़्यादा देश को आज़ाद कराने की बात को अहमियत दी, परिवार के प्रति जितनी चिंता थी उससे असंख्य गुना अधिक वह देश की आज़ादी के लिए कटिबद्ध थे।
युवावस्था में ही संन्यास ग्रहण करने के बाद अन्य बहुत से संन्यासियों की तरह दीन-दुनिया त्यागने की नहीं, अपने देशवासियों को, अपनी संस्कृति, अपने ज्ञान को जानने, उसकी अहमियत पहचानने और अपने देश को आज़ाद कराने के लिए प्राण प्रण से तैयार रहने के लिए प्रेरित करना अपना मूल कर्तव्य समझा। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ तत्कालीन जनमानस को अज्ञानता की निद्रा से जगाने, शिकागो में विश्व समुदाय के सामने देश की वास्तविक और उज्ज्वल छवि को स्थापित करने का जैसा अप्रतिम कार्य उन्होंने किया उसका उतना ही अप्रतिम वर्णन इस उपन्यास में है। ऐसा श्रेष्ठ चित्रण आज कम ही देखने को मिलता है। ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर लिखे जाने वाले उपन्यासों के साथ अक्सर उपन्यास से ज़्यादा उनके दस्तावेज़ बन जाने का भय रहता है। लेकिन नरेंद्र कोहली की अद्भुत लेखन क्षमता के सामने यह सारी बातें बेमानी हो जाती हैं। वर्णन इतना रोचक है कि हर पन्ना अगले पन्ने को पढ़ने के लिए व्यग्र बना देता है। आमजन की सहज सरल भाषा में छोटे-छोटे वाक्य रोचकता को बढ़ाते हैं। कई जगह कुछ क्लिष्ट शब्द भी प्रयोग हुए हैं लेकिन इस कुशलता के साथ कि सामान्य पाठक भी आशय आसानी से समझ जाए। उदाहरण दृष्टव्य है ‘पवित्र हृदय पुरुष धन्य हैं, क्योंकि आत्मा स्वयं पवित्र है। अपवित्र हो भी कैसे सकती है। ईश्वर से ही उसका आविर्भाव हुआ है। वह ईश्वर प्रसूत है। बाईबिल के शब्दों में वह ईश्वर का निःश्वास है। कुरान की भाषा में वह ईश्वर की आत्मास्वरूप है। ईश्वरात्मा कभी अपवित्र हो ही नहीं सकती है। किंतु दुर्भाग्य से हमारे शुभाशुभ कार्यों के कारण वह मानो सदियों की मैल, सैकड़ों वर्षों की अशुद्धि और धूल से आवृत है।’ यह उपन्यासांश एक साथ दो बातें स्पष्ट कर रहा है, एक भाषा पर लेखक की अद्भुत पकड़ दूसरी उसका विशद अध्ययन। नरेंद्र ने पाँच दशकों में जो विपुल साहित्य सृजित किया है वह आदि ग्रंथों वेदों से लेकर सारे पौराणिक आख्यानों और अन्य सारे धर्मों के विराट अध्ययन के बिना संभव ही नहीं है। उनकी रचनाओं में हिंदू, सिख, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी सहित सारे धर्मों का प्रासंगिक ज़िक्र मिलता है। लेखन में ऐसी व्यापक दृष्टि एक तपस्वी बन कर ही पाई जा सकती है। नरेंद्र यह तपस्या पचास वर्षों से कर रहे हैं कोई और बाधा न हो इसके लिए नौकरी भी त्याग दी। मगर यहीं एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि देश-समाज के लिए जो इतनी तपस्या कर रहा है उसे प्रतिफल क्या मिल रहा है। पाठकों के बीच वह जैसे हाथों-हाथ लिए जाते हैं, क्या समालोचक और पुरस्कृत करने वाली संस्थाएँ भी वही दृष्टिकोण अपनाती हैं? महाकाव्यात्मक उपन्यास के प्रणेता कहे जाने वाले नरेंद्र को शलाका और अट्टहास आदि जैसे सम्मान ही दिए जा सके हैं। दरअसल यह एक ऐसी वैश्विक समस्या है जिसका समाधान न जाने कब होगा कि हम साहित्य शिल्पियों को समय पर सम्मानित करने की परंपरा को पुख़्ता कर पाएँ। यह स्थिति लेखकों को पीड़ित करती है जो समय-समय पर सामने भी आती है। प्रसंगवश कुछ नाम दर्ज करना ज़रूरी है जैसे 1909 की नोबेल विजेता सेलमा लेगरलॉफ, 2003 के जे.एम. कोट्जी, 2006 के ओरहान पामुक, 2010 के मारियो वार्गास ने पुरस्कार प्राप्त करते समय अपनी यह पीड़ा दर्ज कराई थी। यह समस्या ख़त्म होनी ही चाहिए। नरेंद्र ही नहीं ऐसे हर साहित्य शिल्पी की ओर दृष्टि जानी ही चाहिए। समीक्ष्य उपन्यास की उत्कृष्टता शायद इस ओर भी इंगित कर रही है।
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