एबॉन्डेण्ड - 4
कथा साहित्य | कहानी प्रदीप श्रीवास्तव1 Apr 2020 (अंक: 153, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
बाथरूम से वापस पहुँच कर दोनों फिर अपनी जगह बैठ गए हैं। लेकिन पहले की अपेक्षा अब शांत हैं। थकान और नींद का असर अब दोनों पर दिख रहा है। ये ना हावी हो यह सोचकर युवती कह रही है।
"बैठे-बैठे इतना टाइम हो गया, पता नहीं कब साढ़े तीन बजेगा। अभी भी दो घंटा बाक़ी हैं। सुनो कुछ खाने के लिए निकालो ना।"
इस समय मोबाइल युवती के हाथ में है। युवक का तंज सुनिए।
"तुम लड़कियों के दो काम कभी नहीं छूटते।"
"कौन-कौन से?"
"एक तो कभी चुप नहीं रह सकतीं। दूसरे उनको हमेशा कुछ ना कुछ खाने को मिलता रहना चाहिए। जिससे उनका मुँह चपर-चपर चलता रहे।"
"अच्छा, जैसे तुम लड़कों का दिनभर नहीं चलता। जब देखो तब मुँह में मसाला भरे चपर-चपर करते रहते हो। पिच्च-पिच्च थूक कर घर-बाहर, हर जगह गंदा किये रहते हो।"
"मैं मसाला-वसाला कुछ नहीं खाता, समझी। इसलिए मुझे नहीं कह सकती।"
"मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रही हूँ। तुमने लड़कियों की बात की तो मैंने लड़कों के बारे में बताया। मुँह चलाते रहने के अलावा जैसे उनके पास कोई काम ही नहीं है।"
"अच्छा ठीक है, ये लो नमकीन और बिस्कुट, खाओ। लेकिन कुछ बोलो नहीं।"
"तुम भी खाओ ना, अकेले नहीं खा पाऊँगी।"
"हे भगवान। बार-बार वही बकवास करती रहती है। मैं तो खा ही रहा हूँ।"
"अरे, खाने ही को तो कहा है। काहे ग़ुस्सा हो रहे हो।"
युवती ने लगभग आधी मुट्ठी नमकीन मुँह में डालकर खाना शुरू किया है। नमकीन काफ़ी कुरकुरी लग रही है क्योंकि उसके मुँह से कुर्र-कुर्र की आवाज़ सुनकर युवक कह रहा है।
"तू नमकीन खा रही है कि पत्थर चबा रही है, कितनी तेज़ आवाज़ कर रही है।"
"कमाल की बात करते हो। कड़ी चीज़ होगी तो आवाज़ तो होगी ही ना। क्या सब ऐसे ही निगल जाऊँ।"
"नहीं, जितनी तेज़ कुर्र-कुर्र कुरा सकती हो कुर्र कुराओ।
"ठीक है, मैं अब केवल बिस्कुट ही खाऊँगी, इससे कोई आवाज़ नहीं होगी।"
"अरे मैं मज़ाक कर रहा था। ले और खा और ये पानी पकड़।"
"नहीं, पानी तो बिल्कुल नहीं पियूँगी।"
"क्यों?"
"फिर जाना पड़ेगा और तुम बोलोगे कि बैठे-बैठे चलो। और मैं कहूँगी कि तुम भी कर लो तो कहोगे क्या ज़बरदस्ती कर लूँ। अच्छा सुनो, मैं थोड़ी देर लेटना चाहती हूँ, बहुत थक गई हूँ।"
"ठीक है लेट जाओ।"
"चाहो तो तुम भी थोड़ी देर लेट लो ना। बहुत टाइम हो गया है। पूरे दिन से लगातार कुछ न कुछ कर रहे हो। लगातार बैठे हो या चल रहे हो।" इस बार युवक पर थकान ज़्यादा हावी हो गई है। वह कह रहा है।
"ठीक है, चलो थोड़ा उधर खिसको, तभी तो लेटूँगा। अरे मुझे इतना क्यों पकड़ रही हो, गुदगुदी लग रही है।"
"तुम चटाई पर ही आओ ना, उधर ज़मीन पर क्यों जा रहे हो।"
"आ तो गया हूँ लेकिन तुम इतना कसकर पकड़ रही हो कि मुझे गुदगुदी लग रही है।"
"पकड़ नहीं रही हूँ, केवल साथ में ले रही हूँ।"
"ठीक है। चलो उधर खिसको, आ रहा हूँ।"
दोनों चटाई पर एक-दूसरे में समाए हुए लेटे हैं। मुश्किल से दस मिनट ही हुआ है कि यह क्या युवती एकदम से हड़बड़ाकर उठ बैठी है। उसके मुँह से घुटी-घुटी सी ई-ई-ई की आवाज़ निकल गई है। युवक भी उसी के साथ उठ बैठा है। काफ़ी घबराया हुआ है और युवती से पूछ रहा है, "क्या हुआ?" युवती अपनी सलवार ऊपर खींचती हुई कह रही है।
"लगता है कपड़े में कोई कीड़ा घुस गया है।" युवक ने जल्दी से मोबाइल टॉर्च ऑन करके देखा तो घुटने से थोड़ा नीचे क़रीब दो इंच का एक कनखजूरा चिपका हुआ था। युवक ने पल भर देरी किये बिना उसे खींचकर अलग किया और जूते से मार दिया। बिल्कुल कुचल दिया। युवती थर-थर काँप रही है। युवक ने बड़ी बारीक़ी से उस जगह को चेक किया, जहाँ कनखजूरा चिपका था। बड़ी देर में दोनों निश्चिंत हो पाए कि उसने काटा नहीं है। दोनों के चेहरे पर पसीने की बूँदें साफ़ दिख रही हैं। युवक ने एक बार फिर से पूरी जगह को बारीक़ी से साफ़ किया और फिर से दोनों लेट गए हैं।
अब आप इस युवा कपल को क्या कहेंगे? दिन भर के थके थे। ना सोने की तय किये थे। इसलिए बार-बार बात नहीं करेंगे कहते लेकिन बात करते ही रहे। लेकिन तय समय के क़रीब आकर नींद से हार कर सो गए। अब यह सोना इनकी ख़ुशकिस्मती है या बदकिस्मती। आइए देखते हैं। बड़ी देर बाद युवती घबराकर उठ बैठी है। अफनाई हुई कह रही है।
"सुनो-सुनो, जल्दी उठो, देखो ट्रेन जा रही है क्या?"
युवक बड़ी फुर्ती से हड़बड़ा खिड़की से बाहर देख रहा है। जाती हुई ट्रेन की पहचान कर माथा पीटते हुए कह रहा है, "हे भगवान, यह तो वही ट्रेन है। अब क्या होगा? मैं बार-बार कह रहा था सो मत, लेकिन तू तो पता नहीं कितनी थकी हुई थी। बार-बार लेट जाओ, आओ लेट जाओ, लो लेट गए, लेट हो गए और ट्रेन चली गई। बताओ अब क्या करूँ। यहीं पड़े रहे अगले चौबीस घंटे तक तो घर वाले ढूँढ़ ही लेंगे। निकाल ले जाएँगे यहाँ से। कल अँधेरा होने की वज़ह से नहीं आ पाए।
दो घंटे बाद जहाँ सवेरा हुआ तो पूरा दिन है उनके पास। चप्पा-चप्पा छान मारेंगे वह। हमें निश्चित ही ढूँढ़ लेंगे और तब ना ही मैं ज़िंदा बचूँगा और ना ही तुम। बुरी मौत मारे जाएँगे। पहले सब पंचायत करेंगे, पूरा गाँव चारों तरफ़ से इकट्ठा होगा। हमें अपमानित किया जाएगा। मारा-पीटा जाएगा और फिर बोटी-बोटी काटकर फेंक दिया जाएगा वहीं।"
"नहीं ऐसा मत बोलो।"
"तो क्या बोलूँ, जो सामने दिख रहा है वही तो बोलूँगा ना। अब ऐसे रोने-धोने से काम नहीं चलेगा। जो है उसे देखो और सामना करो।"
"तुम भी तो इतनी गहरी नींद सो गए। मेरे नींद लग गई थी तो कम से कम तुम तो जागते रहते।"
"बड़ी बेवकूफ हो, तुम्हीं पीछे पड़ गई थी कि आ जाओ, सो जाओ, तब मैं लेटा था। मैं भी थका हुआ था कि नहीं।"
"तो मैं क्या करती। अच्छा सुनो अभी ख़ाली यह बताओ कि किया क्या जाए?"
"सिवाए इंतज़ार के और कुछ नहीं। कल रात को जब ट्रेन आएगी तभी चल पाएँगे। दिन में तो यहाँ से निकलना भी सीधे-सीधे मौत के मुँह में जाना है।"
"लेकिन तुम तो कह रहे हो कि दिन होगा तो वह लोग यहाँ तक भी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहुँच ही जाएँगे।"
"सही तो कह रहा हूँ। पूरा दिन होगा उनके पास ढूँढ़ने के लिए। एक-एक कोना, चप्पा-चप्पा छान मारेंगे। तू यह समझ ले कि मरना निश्चित हो गया है।"
"मरना ही है तो सबके सामने बेइज़्ज़त होकर, मार खा-खा कर मरने से अच्छा है कि हम लोग यहीं अभी फाँसी लगा लें। जीते जी एक साथ नहीं रह पाए तो कोई बात नहीं। कम से कम एक साथ मर तो लेंगे।"
"चुप! मरने, मरने, बार-बार मरने की बात कर रही है। मैं इतनी जल्दी मरने के लिए तैयार नहीं हूँ और अपने जीते जी तुझे भी मरने नहीं दूँगा।"
"तो अब क्या करोगे?"
"अभी उजाला होने में कम से कम डेढ़ घंटा है। यहाँ से बस स्टेशन क़रीब-क़रीब सात-आठ किलोमीटर दूर है। पैदल भी चलेंगे तो एक घंटे में पहुँच जाएँगे। वहाँ से कोई ना कोई बस सवेरे-सवेरे निकल ही रही होगी। वह आगे जहाँ तक जा रही होगी उसी से आगे चल देंगे। यहाँ से जितनी जल्दी, जितना ज़्यादा दूर निकल सकें पहली कोशिश यही करनी है।"
"ठीक है चलो, फिर जल्दी निकलो यहाँ से।"
चलने से पहले युवक के कहने पर युवती पेपर्स वाली पॉलिथीन, चटाई पर से उठाकर फिर से सलवार में खोंसने लगी तो युवक ने ना जाने क्या सोचकर उसे लेकर अपनी शर्ट में आगे रखकर बटन लगा ली। और पूछा, "तू इतनी दूर तक पैदल चल लेगी?"
"जब मौत सिर पर आती है तो सात-आठ किलोमीटर क्या आदमी सत्तर-अस्सी किलोमीटर भी चला जाता है और तुझे पाने के लिए तो मैं पूरी पृथ्वी ही नाप लूँगी।"
"तो चल निकल। नापते हैं सारी पृथ्वी। मेरा हाथ पकड़े रहना। छोड़ना मत। जल्दी-जल्दी चलो।"
दोनों बड़े हिम्मती हैं। बोगी से निकल कर क़रीब-क़रीब भागते हुए आगे बढ़ रहे हैं। मगर थोड़ा सा आगे निकलते ही युवक कह रहा है, रुको-रुको, एक मिनट रुको ।"
"क्या हुआ?"
"वहाँ प्लेटफॉर्म के आख़िर में जहाँ पर फायर के लिए बाल्टियाँ टंगी हुई हैं। वहीं पर रेलवे के कर्मचारी अपनी साइकिलें खड़ी करते हैं। तू एक मिनट इधर रुक शेड के किनारे। देखता हूँ अगर किसी साईकिल का लॉक खुला हुआ मिल गया तो उसे ले आता हूँ। उससे बहुत आसानी से जल्दी निकल चलेंगे।"
"यह तो साइकिल की चोरी है।"
"इसके बारे में बाद में बात कर लेंगे। तुम अपने बालों में से एक चिमटी निकालकर मुझे दे दो।"
चिमटी लेकर गया युवक फुर्ती से एक साइकिल उतार लाया है। जिसे देखकर युवती कह रही है।
"मुझे तो बड़ा डर लग रहा है। क्या-क्या करना पड़ रहा है?"
"इतना आसान थोड़ी ना है घर वालों के ख़िलाफ़ चलना, घर से भागना। आओ बैठ जाओ। लो तुम्हारी चिमटी की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। पता नहीं कोई जल्दी में था या फिर शराब के नशे में, ताला तो लगाया लेकिन उसमें से चाबी निकालना भूल गया। झोले में रखा हुआ एक टिफ़िन भी पीछे कैरियर पर लगा हुआ था। मैंने उसे निकालकर वहीं रख दिया।"
"तुम्हें साइकिल उठाते डर नहीं लगा?"
"तू बिल्कुल बोल नहीं। मुझे जल्दी-जल्दी साइकिल चलाने दे।"
युवती को आगे बैठाकर युवक पूरी ताक़त से साइकिल चला रहा है। लेकिन पहली बार साइकिल पर बैठने के कारण युवती ठीक से बैठ नहीं पा रही है। उसके हिलने-डुलने पर युवक कह रहा है।
"ठीक से बैठ ना। इतना हिल-डुल क्यों रही है।"
"मेरे पैर सुन्न होने लगे हैं।"
"तुम ज़्यादातर लड़कियाँ इतनी नाजुक क्यों होती हैं?"
"पता नहीं यह तो ऊपर वाला ही जाने।"
"क्या ऊपर वाला जाने? तमाम लड़कियाँ तो पहलवान बनकर पहलवानी कर रही हैं। सेना में जाकर गोलियाँ, फ़ाइटर ज़ेट, बस, कार, ट्रक चला रही हैं।"
"तो, ऐसे तो अपने गाँव में ट्रैक्टर भी चला रही हैं। तो क्या सबकी सब पहलवान हैं। काम करना आना चाहिए। ज़रूरत होगी तो पहलवानी भी सीख लेंगे।"
"चुप। बिलकुल चुप कर। चुपचाप बैठी रह। बिल्कुल बोलना नहीं। नहीं तो मैं तेरा मुँह फोड़ दूँगा। जब फूट जाएगा तभी चुप रहोगी क्या?"
"मेरा मुँह मत फोड़ो। नहीं तो फिर मुँह कहाँ लगाओगे?"
"तेरी ऐसी बातों के कारण ही रात में नींद आ गई और ट्रेन छूटी। अब ये साइकिल ट्रेन चलानी पड़ रही है।"
"ठीक है। चुप हूँ। और कितनी देर तक चलना पड़ेगा?"
"अभी तो पन्द्रह मिनट भी नहीं हुए हैं। घंटा भर तो लगेगा ही।"
"वहाँ कोई बस मिल जाएगी क्या?"
"चुप, बिल्कुल चुप रह।"
युवक बिना रुके पूरी ताक़त से साइकिल चलाए जा रहा है। ग़ज़ब की ताक़त, हिम्मत दिखा रहा है। पसीना उसकी नाक, ठुड्डी से होता हुआ टपक रहा है। युवती के पैर सुन्न हो रहे हैं। जिसे वह बार-बार इधर-उधर कर रही है। युवक का पसीना उसके सिर पर ही टपक रहा है। वह परेशान है और पूछ रही है, "अभी और कितना टाइम लगेगा?"
"बस आने वाला ही है स्टेशन।" जल्दी ही स्टेशन दिखने लगा है तो उतावली युवती कह रही है।
"स्टेशन दिख रहा है, लग रहा है सूरज भी निकलने वाला है। जल्दी करो और तेज़ चलाओ ना।"
"और कितनी तेज़ चलूँ ।"
"तुम्हें पसीना हो रहा है क्या?"
"तुम्हें इतनी देर बाद मालूम हुआ।"
"गर्दन पर कुछ गीला-गीला बार-बार टपक रहा है तो मुझे लगा शायद तुम्हारा पसीना ही है।"
"पसीने से पूरा भीग गया हूँ। घंटा भर हो गया साइकिल चलाते-चलाते और कोई दिन होता तो इतना ना चला पाता। मगर तेरे लिए मैं इतना क्या, यहाँ से दिल्ली तक चला सकता हूँ।"
"और मैं भी कभी साइकिल पर इतनी देर बैठी नहीं। पैर बार-बार सुन्न हो रहे हैं। कभी इधर कर रही हूँ, कभी उधर कर रही हूँ। लेकिन अगर तू दिल्ली तक चलाए तो भी ऐसे ही बैठी रह सकती हूँ।"
"अच्छा चल उतर, इतनी लम्बी फेंक दी कि अब चला नहीं पा रहा हूँ।" स्टेशन पर पहुँच कर युवक ने झटके से साइकिल रोक कर युवती को उतरने के लिए कहा और स्टेशन की बाऊँड्री से सटाकर साइकिल खड़ी कर दी यह कहते हुए, "साइकिल गेट पर ही छोड़ देता हूँ। जिसकी है भगवान उसको रास्ता दिखाना कि उसे उसकी साइकिल मिल जाए।"
सामने कुछ दूरी पर तैयार खड़ी एक बस को देखकर उत्साहित युवती कह रही है। "देखो बस तैयार खड़ी है, लगता है जल्दी ही निकलने वाली है।"
युवती युवक से भी ज़्यादा जल्दी में दिख रही है। सामने खड़ी बसों पर उसकी नज़र युवक से आगे-आगे चल रही है। युवक उसका हाथ पकड़े-पकड़े बस की तरफ़ बढ़ते हुए कह रहा है।
"हाँ और अंदर ज़्यादा लोग भी नहीं हैं। दस-पन्द्रह लोग ही दिख रहे हैं।" दोनों जल्दी-जल्दी चढ़ गए और बीच की सीट पर बैठ गए हैं। जिससे कि आगे पीछे सब पता चलता रहे। कंडक्टर अन्दर आया तो उसे देखकर युवती कह रही है, "टिकट ले लो। लेकिन यह बस जा कहाँ रही है?"
"रायबरेली जा रही है। सामने प्लेट पर लिखा है। वहीं तक का टिकट ले लेते हैं।"
कंडक्टर टिकट देकर आगे चल गया तो युवती पूछ रही है। "यह कंडक्टर हम लोगों को ऐसे घूर कर क्यों देख रहा था।"
"चुप रहो ना। उस तक आवाज़ पहुँच सकती है। रायबरेली पहुँचकर वहाँ देखेंगे, कोई ट्रेन मिल ही जाएगी दिल्ली के लिए। बस लगातार चलती रहे तो अच्छा है, वरना पकड़े जाने का डर है।"
"रायबरेली कब तक पहुँचेगी?"
"क़रीब दस बजे तक।"
इसी समय युवती चिहुँकती हुई कह रही है। "लगता है मेरा मोबाइल छूट गया है।"
"क्या कह रही हो?"
"हाँ, जल्दी-जल्दी में ध्यान नहीं रहा।"
"रखा कहाँ था?"
"मुझे एकदम ध्यान नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?"
"कुछ नहीं होगा। लोगों को जल्दी मिलेगा ही नहीं। साइलेंट मोड पर है। रिंग करके देखता हूँ किसी के हाथ लग गया है या वहीं पड़ा है। अरे, रिंग तो जा रही है।"
इसी बीच युवती फिर चिहुँकती हुई बोली। "रुको, रुको। मोबाइल तो मेरे ही पास है।"
"कमाल है सीने में छुपा के रखा हुआ है। और बता रही हो छूट गया। तुम्हें इतना भी होश नहीं रहता है।"
"ग़ुस्सा नहीं हो, जल्दबाज़ी और हड़बड़ाहट के मारे कुछ समझ में नहीं आ रहा था।"
"अच्छा हुआ तुम हड़बड़ाई, बौखलाई। इससे एक बड़ा काम हो गया। नहीं तो चाहे जहाँ पहुँच जाते पकड़े निश्चित जाते। लाओ जल्दी निकालो मोबाइल। यह संभावना भी ख़त्म करता हूँ।"
"क्या?"
"मोबाइल, मोबाइल निकालो जल्दी।"
युवती युवक की जल्दबाजी से सकपका गई है। उसे मोबाइल दे रही है।
"यह लो।"
मोबाइल लेकर युवक उसकी बैट्री निकाल रहा है। कह रहा है, "इसकी बैट्री निकाल कर रखता हूँ। ऑन रहेगा तो वो हमारी लोकेशन पता कर लेंगे। और हम तक पहुँच जाएँगे। टीवी में सुनती ही हो, बताते हैं कि मोबाइल से लोकेशन पता कर ली और वहाँ तक पुलिस पहुँच गई। अब यह दोनों मोबाइल कभी ऑन ही नहीं करूँगा।"
"फिर कैसे काम चलेगा आगे।"
"देखा जाएगा। अब तो पहला काम यह करना है कि अगले स्टेशन पर ही इस बस से उतर लेना है।"
"क्यों?"
"क्योंकि इस मोबाइल से वह यहाँ तक की लोकेशन पा चुके होंगे या जब पुलिस में जाएँगे तो वह पता कर लेगी। इस बस से उतर लेंगे और फिर कोई दूसरी पकड़ेंगे, उससे आगे बढ़ेंगे।"
हैरान परेशान दोनों आधे घंटे बाद ही अगले बस स्टॉप पर उतर गए हैं। युवक कह रहा है।
"चलो इस बस से तो पीछा छूटा।"
"हाँ, देखो अगर यहाँ दिल्ली के लिए ही बस मिल जाए तो बस से ही दिल्ली चला जाए।"
"नहीं बहुत दूर है। बस में बहुत परेशान हो जाएँगे। इसलिए ट्रेन से चलेंगे।"
दोनों को संयोग से एक ट्रेन मिल गई। जो तीन घंटे लेट होने के कारण उसी समय स्टेशन पहुँचे जब वो स्टेशन पहुँचे । इसी ट्रेन से दोनों लखनऊ पहुँच गए हैं। वहाँ दिल्ली के लिए उन्हें चार घंटे बाद ट्रेन मिलनी है। दोनों यहाँ कुछ राहत महसूस कर रहे हैं और ज़रूरत भर का सामान लेने के लिए निकल रहे हैं। युवक बोल रहा है, "चलो पहले एक बैग लेते हैं और ज़रूरत भर का सामान भी। ऐसे दोनों ख़ाली हाथ चलते रहेंगे तो ट्रेन में टीटी, सिक्योरिटी वाले कुछ शक कर सकते हैं। पीछे पड़ सकते हैं। सामान रहेगा तो ज़्यादा शक नहीं करेंगे। बाहर से जल्दी ही आ जाएँगे। टिकट लेकर यहीं कहीं आराम करते हैं। बाहर होटल या गेस्ट हाउस चलता हूँ तो बेवज़ह अच्छा ख़ासा पैसा चला जाएगा और वहाँ सबकी नज़र भी हम पर रहेगी। उतने पैसों में कुछ सामान ले लूँगा और तत्काल टिकट में बर्थ मिल जाए तो ट्रेन में आराम से सोते हुए चलेंगे।”
भाग्य दोनों के साथ है। सामान लेकर जल्दी ही लौट आए हैं। उन्हें रिज़र्वेशन में बर्थ भी मिल गई और आराम से वे चल दिए हैं। सुबह ट्रेन दिल्ली पहुँचने को हुई तो युवक बोला, "दस बजने वाले हैं। थोड़ी ही देर में स्टेशन पर होंगे। तीन-चार घंटे सो लेने से बहुत आराम मिल गया। अब हम निश्चिंत होकर कहीं भी आ जा सकते हैं। अब हमें पकड़े जाने का कोई डर नहीं है। हम पति-पत्नी की तरह आराम से रह सकेंगे।"
"ज़रूर, अगर कभी कोई मिल भी गया तो हमारे पास काग़ज़ तो हैं ही। बालिग हैं। अपने हिसाब से जहाँ चाहें वहाँ रह सकते हैं। हमें यहाँ कोई रोक-टोक नहीं सकेगा।"
स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर युवती कह रही है, "कितना बड़ा है यह स्टेशन!"
"हाँ, बहुत बड़ा। आख़िर अपने देश की राजधानी है।"
"यहाँ कोई किसी को पकड़ता नहीं क्या?"
"ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करता है वह पकड़ा जाता है। हम लोग अगर अपने गाँव में पकड़े जाते तो जो हाल वहाँ होता, वह यहाँ पर नहीं हो पाएगा। बस इतना अंतर है। आओ निकलते हैं। बाहर अभी और कई लड़ाई लड़नी है। एक घर की लड़ाई। नौकरी की लड़ाई। यहाँ की भीड़ में कुचलने से अपने को बचाने की लड़ाई। यहाँ के लोगों से अपने को बचा लेने के बाद अपने भविष्य को सँवारने की लड़ाई। अपने सपने को सच कर लेने की लड़ाई। बस लड़ाई ही लड़ाई है। आओ चलें।"
"हाँ चलो। लड़ाइयाँ चाहे जितनी ढेर सारी हों लेकिन हम दोनों मिलकर सब जीत लेंगे। सच बताऊँ। हमें तो उम्मीद नहीं थी कि अपने गाँव से निकलकर हम सुरक्षित यहाँ तक पहुँच पाएँगे। तुम्हारी हिम्मत देखती थी तो हमें यह ज़रूर लगता था कि तुम्हारी यह हिम्मत हमारे सपने को पूरा ज़रूर करेगी। तुम हमें ज़रूर, ज़रूर, ज़रूर मिलोगे।"
"तुम्हारी हिम्मत भी तो काम आई ना। तुम अगर हार जाती तो मैं क्या करता? इसलिए हम दोनों ने मिलकर जो हिम्मत जुटाई वह काम आई और दोनों यहाँ तक पहुँचे। अब अपनी दुनिया भी मिलकर बना लेंगे। मैं भगवान को सारा का सारा धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने मुझे इतनी हिम्मत दी। मुझे इतना दिमाग़ दिया कि हम सारे काम निपटा सके। बहुत-बहुत धन्यवाद हे! मेरे भगवान।"
इन दोनों ने अपने को सफल मानकर भगवान को सारा का सारा धन्यवाद दे तो दिया है। लेकिन गाँव में अभी बहुत कुछ हो रहा है। जब ये आधे रास्ते पर थे तभी वहाँ यह बात साफ़ हो गई कि दोनों मिलकर निकल गए। मामला दोनों समुदायों की इज़्ज़त का बनकर उठ खड़ा हुआ। हालात इतने बिगड़े कि समय पर भारी फ़ोर्स ना पहुँचती तो बड़ा ख़ून-ख़राबा हो जाता। वास्तव में यह दोनों तो बहाना मात्र थे। इस तूफ़ान के पीछे मुख्य कारण तो वही है कि वह संख्या बढ़ाकर अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे हैं। हमारे लिए यह वर्जित है तो यह नहीं हो सकता। इसे वर्चस्व का ही संघर्ष कहिए। यह अभी ठहरा ज़रूर है, समाप्त नहीं हुआ है।
फ़ोर्स की ताक़त से चक्रवाती तूफ़ान से होने वाली तबाही तो ज़रूर रोक दी गई है। लेकिन पूरे विश्वास से कहता हूँ कि ऐसे तूफ़ान स्थायी रूप से ऐसे युवक-युवती ही रोक पाएँगे जो अपना संसार अपने हिसाब से बसाने सँवारने में लगे हुए हैं। जिनका उनके परिवार वालों ने उनका जीते जी अन्तिम संस्कार कर परित्याग कर दिया है। ये त्यागे हुए लोग, पीढ़ी ही सही मायने में भविष्य हैं हमारी दुनिया के। फ़िलहाल आप चाहें तो इनके माँ-बाप की तरह मानते रहिए इन्हें एबॉन्डेण्ड।
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