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सेकेंड वाइफ़ – 3

गाड़ी पूरी रफ़्तार में चलती चली जा रही थी और मैं अपनी अतीव सुंदर पत्नी से श्वेत-सुंदरी की तुलना कर रहा था। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जिन्हें हमेशा दूसरों की पत्नी बहुत सुंदर लगती है और उन्हीं में रुचि लेते हैं।

श्वेत-सुंदरी में भी मैं कोई रुचि नहीं ले रहा था, बस एक उत्सुकता थी कि मैं उनसे बार-बार मिला हूँ। ‘कहाँ?’ यही याद कर रहा था। ‘कहाँ?’ का उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैंने बरसों से भूली हुई अपनी नथुनी वाली सहपाठिनी को याद कर लिया था। उससे जुड़ी हुई कितनी ही बातें याद आती चली जा रही थीं।

कितने ही भूले-भुलाए लोगों को याद कर लिया। पैसेंजर ट्रेन कभी तेज़, तो कभी कच्छप गति से चलकर रात नौ बजे लखनऊ पहुँच गई। लेकिन मुझे ‘कहाँ?’ का उत्तर नहीं मिला। इसके बावजूद मैं मानने तो क्या, सोचने को भी तैयार नहीं हुआ कि यह मेरा एक भ्रम है कि मैं श्वेत-सुंदरी से कहीं मिला हूँ, कई-कई बार मिला हूँ।

मैं उनके पीछे-पीछे ही ट्रेन से नीचे उतरा। दोनों बच्चों के साथ वह बाहर के लिए चलने लगीं। बच्चे उनके आगे-आगे चल रहे थे। तभी मैंने सोचा कि अब बस कुछ ही मिनट का समय बचा है, बात नहीं की तो ‘कहाँ?’ का उत्तर मुझे जीवन में कभी नहीं मिल पाएगा।

मैं तेज़ चलने लगा कि उन तक पहुँच जाऊँ और उनसे कहूँ, मैं पहले भी कहीं आप से मिल चुका हूँ। मुझे याद नहीं आ रहा है, आपको कुछ याद है क्या? आप यहीं लखनऊ की रहने वाली हैं। मैं उनसे बालिश्त भर की दूरी पर रह गया था कि तभी टिकट चेकिंग पॉइंट आ गया। उन्होंने टिकट चेक कराए और आगे बाहर निकल गईं।

मैं जहाँ से शुरू हुआ था अपने को फिर वहीं खड़ा पाया। स्टेशन से बाहर पहुँच कर उन्होंने मोबाइल निकाला और एक कैब बुलाई। मैं उनसे कुछ क़दम पीछे था। कैब मैंने भी बुला ली थी। मैंने सोचा जब-तक कैब आएगी तब-तक दो मिनट बात कर ही लेते हैं, जो होगा देखा जाएगा।

मैं यह सोच ही रहा था कि श्वेत-सुंदरी पलट कर एकदम से मेरे सामने आकर खड़ी हो गईं। मात्र बालिश्त भर की दूरी पर। वह मेरे इतने क़रीब थीं कि उनकी साँसें मेरी ठुड्डी से टकरा रही थीं। वह मेरी आँखों में देख रही थीं। उनकी आँखों, चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान की लहरें हिलोरें मार रही थीं।

उनकी अकस्मात इस हरकत से मैं थोड़ा सकपका गया कि यह मुझे पीछा करने वाला समझकर झाड़ने तो नहीं आई हैं। क़रीब दो सेकेण्ड तक मेरी आँखों में देखने के बाद वह शब्द को एकदम चबाती हुई बोलीं, ‘कायर’ इसके साथ ही उनकी आँखों में क्रोध की ज्वालाएँ सी फूट पड़ीं। मुझे लगा जैसे उनका शरीर क्रोध से काँपने लगा है।

वह आगे भी एक-एक शब्द चबाती हुई बोलीं, 'तुम कायर ना होते तो आज मेरे इन दोनों बच्चों के फ़ादर होते। सालों-साल जिसकी चोटी से खेलते रहे, उसकी नथुनिया पर गाना गाते रहे, जिसके साथ खाते-पीते रहे, पिछले चौदह घंटे से दो फुट की दूरी पर बैठकर भी पहचान नहीं पाए। इतना कन्फ़्यूज़न कि आगे-पीछे, आगे-पीछे होते रहे लेकिन एक बार भी बोलने की हिम्मत नहीं कर सके। स्कूल में भी कहती थी थोड़ा फ़्रैंक बनो, बोल्ड बनो। लेकिन मैं बेवकूफ़ थी, ग़लत थी। एक कायर कभी भी बोल्ड और फ़्रैंक नहीं बन सकता।'

यह सारी बातें उन्होंने बहुत ही फ़्लावरी अंग्रेज़ी में कहीं। मेरा ध्यान उनकी बातों से ज़्यादा इस तरफ़ था कि 'कहाँ?' का उत्तर मुझे मिल गया था। वह वही थीं जो ग्रेजुएशन तक मेरे साथ रहीं। फिर उनका निक़ाह हुआ और उसके बाद कभी नहीं मिलीं।

मैं उनसे बहुत बात करना चाहता था। अपनी बात शुरू ही करने जा रहा था लेकिन वह बीच में ही अपना मोबाइल नंबर देती हुई बोलीं, 'मैं रात एक बजे से तीन बजे के बीच तुम्हारी कॉल का वेट करूँगी। कॉल करोगे तभी कोई बात करूँगी वरना बिल्कुल नहीं। मुझे तो लगता है कि तुम उन्हीं लोगों में से हो, जो अपनी मिसेज़ के पास भी जाने से पहले पूछते हैं कि क्या मैं आ जाऊँ?'

तभी उनकी कैब आ गई और वह बिजली सी उसमें बैठ कर चली गईं। पैकिंग पेपर पर लिखे उनके नंबर को मैंने एक बार देखा और जेब में रख लिया। मेरी भी कैब आ गई थी।

रास्ते भर मेरे दिमाग़ में उनका यह सेंटेंस गूँजता रहा कि, 'यदि तुम कायर नहीं होते, तो मेरे इन दोनों बच्चों के फ़ादर होते।'

मुझे उनकी यह बात बहुत बुरी लगी कि मैं कायर हूँ। मैंने सोचा यदि मैं कायर था तो आपने कौन सी बड़ी बहादुरी दिखायी थी। जब-तक मिलीं एक बार भी खुलकर यह प्रकट नहीं किया कि मुझसे शादी करना चाहती हैं।

जिस तरह से मिलती, बोलती थीं उसमें किसी क्लोज़ फ़्रेंड से ज़्यादा कोई और बात झलकती ही नहीं थी। मेरे मन में भी कुछ चाहत नाइंथ में पहुँचते-पहुँचते पैदा हुई थी, लेकिन यह इतनी गहरी नहीं थी कि शादी की सोचता।

देर रात में ही बात हो सकती है उनकी यह शर्त भी मेरे लिए अबूझ पहेली बन गई। घर पहुँच कर मैंने पत्नी बच्चों से ख़ूब बातचीत की। खाना-पीना सब कुछ हुआ। लेकिन पत्नी को लापरवाही के लिए डाँटना है यह भूल गया।

याद रहा तो बस इतना कि, देर रात उनसे बात करनी है। यह बात तब भी दिमाग़ में घूमती रही जब पत्नी कई दिनों बाद मिलने के कारण बहुत आंतरिक क्षणों को जीने के लिए पास आई। वह क्षण जीते हुए भी उनकी बातें दिमाग़ में बनी रहीं।

पत्नी के सो जाने के बाद उनकी बातें ज़्यादा बेचैन करने लगीं। जल्दी एक बजे इसकी प्रतीक्षा करने लगा। साढ़े बारह बज गए थे। मैं थका हुआ भी बहुत था। आँखों में नींद भी बहुत थी, लेकिन मैं उनसे बात किये बिना सोना नहीं चाहता था। क्योंकि मैं उनसे यह जानना चाहता था कि जब वह मुझ से शादी करना चाहती थीं तो सही समय पर अपनी इच्छा ज़ाहिर क्यों नहीं की।

मैंने तो यह नहीं सोचा था। तुम्हारे मन में यह बात थी तो तुम्हें आगे आकर यह बताना चाहिए था। मैं यदि तब भी आगे नहीं आता, तब तुम मुझे कायर कह सकती थीं। लेकिन संयोग से आज बीस वर्ष बाद मिलने पर कह रही हो। यह जानते हुए भी कि अब इन बातों का कोई मतलब नहीं रह गया है।

मेरे मन में बहुत सी बातें उठ रही थीं। मैं उनसे एक बार बात करके यह जान लेना चाहता था कि उन्होंने समय पर अपनी बात क्यों नहीं कही। अब कहने के पीछे उद्देश्य क्या है? हस्बैंड के रहते ऐसी बात कहने का उनका मतलब क्या है? मन में संशय यह भी उठा कि कहीं इनके हस्बैंड ने हमारी बातें सुन लीं तो इनका दाम्पत्य जीवन डिस्टर्ब हो सकता है।

इस संशय के बीच एक बजते ही मैं बात करने के लिए मोबाइल उठाता और फिर रख देता। डर यह भी था कि कहीं धनश्री जाग गई तो? बड़ी देर तक तरह-तरह की उलझनों से लड़ने के बाद आख़िर दो बजे छत पर जाकर उन्हें कॉल की। दो रिंग होने के बाद ही उन्होंने कॉल रिसीव कर ली। उन्होंने हेलो कहा। आवाज़ पहचान कर मैंने जैसे ही उनका नाम लिया, तो वह हँसती हुई बोलीं, 'कॉल करने की हिम्मत जुटाने में एक घंटा लग गया।'

मैंने कहा कि, 'मैं संकोच कर रहा था कि तुम्हारे हस्बैंड ने अगर हमारी बातें सुन लीं तो तुम्हारे लिए समस्या हो जाएगी।'

मेरी इस बात पर उन्होंने तुरंत कहा, 'अब हस्बैंड मेरे साथ नहीं रहते। इसलिए तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हाँ अपनी पत्नी से डरते हो तो बात अलग है।'

यह बात कहते हुए भी उनकी आवाज़ में किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, जिससे यह लगता कि हस्बैंड के साथ छोड़ने से उन्हें किसी तरह की प्रॉब्लम या कोई दुख है। मैंने कहा कि, 'ऐसी कोई बात नहीं है।' तो हँसती हुई बोलीं, 'बात तो ऐसी ही लग रही है। तुम्हारी आवाज़ से साफ़ पता चल रहा है कि तुम कहीं अलग-थलग छिप कर बात कर रहे हो।'

मैंने सच बोला, कहा, 'हाँ, मैं छत पर हूँ।'

यह सुनकर वह हल्का सा हँस कर बोलीं, 'मैं जानती थी कि तुम इतनी रात को अपनी पत्नी के सामने किसी दूसरी औरत से बात कर ही नहीं सकते।'

मैं किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता था तो साफ़-साफ़ कहा कि, 'यह सब तो ठीक है, लेकिन इतनी रात में ही बात क्यों करना चाहती हो? जब तुमने ट्रेन में ही मुझे पहचान लिया था तो वहाँ बात क्यों नहीं की। उन चौदह घंटों में हम अपने बीते बीस वर्षों की पूरी बातें कर लेते।'

'हाँ, कर लेते। लेकिन मुझे तुमने पहले देखा और पहचान ही नहीं पाए, इससे मुझे बहुत ग़ुस्सा आया कि, यह कैसा आदमी है? मात्र बीस साल बाद ही मिले हैं, और यह पहचान नहीं रहा है। जबकि मैंने इन्हें देखते ही लिए पहचान लिया है। इतने दिनों में कोई इतना नहीं बदल जाता कि जिसके साथ बारह-चौदह साल रोज़ सात-आठ घंटे बिताया गया हो, उसे पहचाना ही नहीं जा सके।

लेकिन बात न करने की वज़ह यह थी कि अचानक ही बीस साल बाद मेरे सामने वह व्यक्ति आ खड़ा हुआ था, जिसे मैं बीस वर्षों में कभी भूल नहीं पाई थी। जिसे मैं बीस वर्षों से अपनी जहन्नुम बनी ज़िंदगी के लिए ज़िम्मेदार मानती आ रही हूँ, उसे अचानक देखकर मन नफ़रत से उबल पड़ा।

मन में आया कि तुम पर ख़ूब तेज़-तेज़ चीखूँ-चिल्लाऊँ। सालों का सारा ग़ुस्सा, नफ़रत तुम पर सेकेंडों में उड़ेल दूँ। लेकिन बच्चों के साथ होने के कारण किसी तरह ख़ुद पर कंट्रोल किया। मन में आया सीट चेंज कर लूँ। सामने बैठी रही तो कहीं झगड़ा ना कर लूँ। लेकिन फिर यह सोच कर ख़ुद पर कंट्रोल किया कि मन कुछ शांत हो तो बात शुरू करती हूँ। कम से कम बीस वर्षों की भड़ास तो निकाल ही लूँ।

यह भी पूछूँ कि सफूरा के ज़रिए मैंने अपने प्यार के मैसेज बार-बार भेजे थे। लेकिन तुमने हर बार ठुकराया। यही करना था तो फिर आख़िर कौन से अधिकार से स्कूल में, कॉलेज में बरसों-बरस तक मेरी चुटिया, मेरे गालों को पकड़ कर खींचते रहे। मेरे नितंबों पर धौल जमाते रहे। आख़िर कौन से अधिकार से। क्या मुझे खिलौना समझ रखा था, जिससे इतने सालों तक खेलते रहे।'

उनकी बहुत ही भावुक आवाज़ में यह बातें सुनते ही मैं सकते में आ गया। यह सारी बातें मेरी जानकारी में थी ही नहीं। सफूरा ने कभी मुझे उनका कोई मैसेज दिया ही नहीं था। मैंने गहरी निराशा व्यक्त करते हुए कहा, 'यह सब तुम क्या कहे जा रही हो। सफूरा ने कभी भी तुम्हारा कोई मैसेज दिया ही नहीं। वह भी ऐसे मैसेज। अगर मुझे तुम्हारे किसी भी मैसेज का संकेत भी मिलता तो मैं तुम्हारे पास दौड़ा चला आता।

मैं तो आश्चर्य में हूँ कि मेरे कारण तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद हुई। इतना सब कुछ बिना मेरी नॉलेज में आए ही हुआ। जिन बातों से मेरा दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं, उन्हीं बातों के लिए तुम मुझसे बीस वर्षों से इतनी घृणा करती चली आ रही हो कि चौदह घंटे तक साथ रही, मगर एक शब्द नहीं बोली। और मन में यह भरी बैठी रही कि मैं इसके ऊपर बीस साल की सारी भड़ास उड़ेल दूँगी।'

मेरी यह बात सुनते ही वह भी सकते में आ गईं। कुछ क्षण एकदम सन्नाटा छाया रहा। फिर वह बोलीं, 'आश्चर्य में तो मैं हूँ कि मेरी सबसे क़रीबी दोस्त सफूरा ने तुम्हें मेरा कोई मैसेज दिया ही नहीं। कॉलेज के बाद से उससे कोई संपर्क नहीं है। नहीं तो मैं अभी उसे कॉन्फ्रेंस कॉल पर लेकर पूछती कि धोखेबाज़ तुमने मुझसे हर बार यह झूठ क्यों बोला कि, वो तुम्हारे मैसेज का कोई जवाब नहीं देते। बात शुरू होते ही दूर चले जाते हैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि उस चुड़ैल को मेरी ज़िन्दगी बर्बाद करके क्या मिला।'

'बीस वर्ष पहले भेजे गए वह मैसेज क्या तुम्हें अब भी याद हैं?'

'कैसे भूल सकती हूँ? जो मैसेज तुम्हें अपना शौहर बनाने के लिए भेजे थे, वह कभी भी भूल नहीं सकती।'

उनकी इस बात से मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि यह क्या हो गया। सफूरा ने हम-दोनों को इतना बड़ा धोखा क्यों दिया? मुझसे कितना क्लोज़ रिलेशन बनाई हुई थी। कितना अच्छा विहेव करती थी। आये दिन घूमने का प्लान लिए खड़ी हो जाती थी। जब-तक घूम नहीं लेती थी, तब-तक मानती नहीं थी। जान-बूझ कर सूनसान जगह पर ले चलती। रिश्ते की हर सीमा क्रॉस करने की कोशिश करती थी। बड़ी मुश्किलों से उसे रोक पाता था।

लेकिन उसकी ज़िद के आगे आख़िर एक बार हार गया। फिर तो वह जब चाहती अपनी ज़िद पूरी करती, एक और सीमा क्रॉस करती। अचानक ही ग़ायब होने तक उसने यह सिलसिला जारी रखा था। उससे अपने इस रिश्ते के बारे में, मैंने यह सोच कर श्वेत-सुंदरी को कुछ नहीं बताया कि इससे वह और दुखी होंगी।

सफूरा के संग बिताए हर अंतरंग क्षण के चित्र मेरे सामने उभरते जा रहे थे। मैं मन ही मन कह रहा था सफूरा मैं कल्पना तक नहीं कर पाया था कि तुम ऐसा भी कर सकती हो। तुमने दो लोगों का जीवन बर्बाद कर दिया। मेरे देर तक चुप रहने पर श्वेत-सुंदरी ने पूछा, 'क्या सोच रहे हो?'

'यही कि यदि तुम्हारा मैसेज मिल गया होता तो कितना अच्छा होता।'

'अच्छा, मैसेज मिल जाता तो क्या तुम मुझसे शादी कर लेते?'

'बिल्कुल। बिल्कुल मैं तुमसे शादी कर लेता। इसमें संदेह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।'

'तुम्हारा परिवार तैयार नहीं होता तब क्या करते?'
'मैं तब भी तुमसे शादी कर लेता। इसके लिए परिवार को किसी भी तरह से मैं तैयार कर लेता। लेकिन पहले तुम यह बताओ कि सामने अपनी बात कहने में तुम्हें हिचक हो रही थी तो मोबाइल पर कितनी बातें होती थीं, तुम क्या अपनी बात उसी समय नहीं कह सकती थी।'

'अब क्या बताऊँ, बोल्ड बनने के लिए मैं तुमको कहती रहती थी। लेकिन ख़ुद एकदम उस समय चूक गई, जब जीवन का सबसे निर्णायक पल सामने था। वह पल जो मेरे जीवन की दिशा तय करने जा रहा था। मुझ पर उस समय पता नहीं कहाँ से इतना दब्बूपन हावी हो गया था कि तुम्हारे सामने आने में ही हिचक महसूस होने लगती थी। रही-सही कसर नामुराद चुड़ैल सफूरा ने पूरी कर दी। उसकी छल-कपट भरी बात कि तुम मेरे बारे सुनना ही नहीं चाहते। यह सुन-सुन कर मैं निराश हो गई थी।

अपने को छली-ठगी महसूस कर हालात के हाथों सौंप दिया। बर्बाद होना था तो हो गई बरबाद। निराश हो कर रात-दिन आसूँ बहाती रही, दीवारों से सिर टकराती रही, आँखों, चेहरे को सुजाती रही, लेकिन एक बार भी मन में नहीं आया कि एक बार तुमसे मिल लूँ। पूछ लूँ तुमसे कि मुझ पर ऐसा ज़ुल्म क्यों कर रहे हो।

ग्रेजुएशन के बाद न कॉलेज बदलती न तुमसे दूर होती। मोबाइल खोने से तुम्हारा नंबर भी मिस हो गया था। सफूरा ने तुम्हारा जो नंबर दिया था वो या तो ऑफ़ मिलता या किसी और को। बद्तमीज़ ने यहाँ भी धोखा दिया था।

एक्चुअली किराये का मकान छोड़ कर अपने घर में शिफ़्ट होने को अब मैं अपनी बदक़िस्मती ही कहूँगी। बीस साल से किराये पर रहते हुए हम-सब ऊब चुके थे। इसलिए मकान की फ़िनिशिंग चल ही रही थी कि हम तभी शिफ़्ट हो गए। इस तरफ़ भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया कि शहर के दूसरे छोर पर है। कॉलोनी में कम लोग ही रह रहे हैं। इससे कॉलेज, तुम, सब छूट गए।

इधर पूरे घर को मेरे ग्रेजुएशन करते ही मेरे निक़ाह की इतनी जल्दी हो गई कि मेरे लाख मना करने के बावजूद पढ़ाई पूरी होने से पहले ही मेरा निक़ाह कर दिया। जब निक़ाह हो रहा था उस समय भी मेरी नज़रें तुम्हें ढूँढ़ रही थीं। सफूरा के ज़रिए मैंने तुम्हें बुलाने की फिर बहुत कोशिश की थी।

घर वालों की सख़्त हिदायत के बावजूद कि किसी दोस्त को भूल कर भी नहीं बुलाना है, तुम्हें इन्विटेशन कार्ड भी भेजा था। मैं उस वक़्त भी यही सोच रही थी कि तुम आ जाओ तो मैं हज़ार दीवारों को भी तोड़ कर तुम्हारे साथ चल दूँ। कर लूँ कहीं और चल कर शादी।'

इसके साथ ही मुझे उनके सिसकने की आवाज़ सुनाई दी। मुझे बहुत दुःख हो रहा था। मैंने उन्हें समझाते हुए कहा, 'सफूरा ने कार्ड देना तो छोड़ो, अपनी जुबान पर उसने कभी तुम्हारे निक़ाह की बात तक नहीं आने दी।'

यह सुनते ही वह क्रोधित स्वर में बोलीं, 'पता नहीं उस कमीनी के दिमाग़ में क्या था? कभी भी, कहीं भी मिल गई तो मैं उसे पीटे बिना छोड़ूँगी नहीं।'

' छोड़ो भी, अब इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। जीवन में हमें आगे बढ़ते रहने के लिए जो रास्ता मिल गया है, अब उसी पर आगे बढ़ते रहना है।'

'हाँ, पत्नी के प्रति तुम्हारी चाहत देख कर मन में आई यह बात भी कहने की हिम्मत नहीं कर पाऊँगी कि तुम पत्नी से तलाक़ ले लो। मैं तुमसे तुरंत शादी करने को तैयार हूँ।'

यह सुनते ही मैं सिहर उठा। उनकी आवाज़ बहुत भावुक हो रही थी। कुछ ही क्षणों में उनकी सिसकने की आवाज़ फिर सुनाई दी तो मैंने कहा, ’यदि अनजाने में भी मुझसे कोई ग़लती हुई है तो तुम जो चाहो वो सज़ा दो, लेकिन हम लोग जीवन में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब पीछे लौटने की सोच भी नहीं सकते। क्योंकि मुझे अपनी पत्नी, और हम-दोनों को अपने बच्चों को कष्ट में डालने का तो कोई अधिकार नहीं है न। आख़िर उन सब की क्या ग़लती ?'

बड़ी देर तक उन्हें समझा-बुझा कर चुप कराने के बाद पूछा, 'तुमने अभी तक हसबैंड के बारे में कुछ नहीं बताया।'

यह सुनते ही उन्होंने गहरी साँस लेकर कहा, 'हस्बैंड! निक़ाह के सात साल बाद ही उनसे तलाक़ हो गया था। पढ़ाई पूरी कर मैं सीए बनना चाहती थी। मैंने उनसे कहा तो बड़ी मुश्किल से तैयार हुए। मैं चाहती थी कि पढ़ाई पूरी होने तक बच्चे पैदा ना करें। लेकिन उनकी सोच एकदम अलग थी। साल भर में ही बेटा हो गया। फिर भी मैं मेहनत करती रही। अब-तक वह मेरे साथ गाली-गलौज मारपीट भी करने लगे थे।

दूसरे साल में ही मेरे हर विरोध के बावजूद दूसरा बेटा हो गया। मगर उन्हें फिर भी चैन नहीं था। वो हर वह काम करते थे, जिससे मेरी पढ़ाई बंद हो जाए। तीसरे बच्चे की बात आई तो फिर मैं झगड़ा कर बैठी। बात बहुत ज़्यादा बढ़ गई। अब मैं ज़्यादा बर्दाश्त करने के मूड में नहीं थी।

मैं अब एक पल को भी तैयार नहीं थी कि अपनी पढ़ाई का समय बर्बाद करूँ। तो आखिर मैं मायके चली गई। लेकिन वह फिर बुला लाते। घर पहुँचते ही उनका रंग फिर बदल जाता। फिर वही झगड़ा होता। इन झगड़ों के बीच ही ऊब कर एक बार मैं ज़िद पर अड़ गई कि अब मैं इस जहन्नुम में नहीं रहूँगी। मुझे तलाक़ चाहिए ही चाहिए। अंततः तलाक़ हो गया। जिस समय तलाक़ हुआ उस समय मुझे लगा कि जैसे मैं नर्क से मुक्त हो गई हूँ।'

उनके जीवन का यह हिस्सा सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैंने पूछा, 'तलाक़ को इतने साल हो गए, तुम्हारे घर वालों ने तुम्हारा दूसरा निक़ाह करने का प्रयास नहीं किया।'

'एक्चुअली मुझे घर से भी पूरा सपोर्ट नहीं मिला। मायके वाले भी चाहते थे कि मैं हस्बैंड की बातों को मान लूँ। तलाक़ के बाद मुझे लगा कि अब मैं मायके में भी नहीं रह सकती। मायके के दरवाज़े जब मेरे लिए बंद हो रहे थे, तब-तक मैं पढ़ाई पूरी कर चुकी थी।

एक सीनियर के साथ काम करने लगी थी। मैं सेल्फ़-डिपेंड बन चुकी थी तो मायके वालों को भी कष्ट देना बंद कर दिया। अलग रहने लगी। जल्दी ही सीनियर से अलग होकर मैंने अपना काम शुरू किया। ऑफ़िस खोल लिया। बस ऐसे ही काम चलता गया और मैं आगे बढ़ती गई।'

’सच में तुम्हारे साथ बहुत ही ग़लत हुआ है। तुम्हारे हस्बैंड को तुम्हारी भावनाओं का भी ख़्याल रखना चाहिए था। यह बताओ तलाक़ को इतना समय हो गया। तुम सेल्फ़ डिपेंड भी हो। ऐसे में तुम जब चाहती तब दूसरा निक़ाह कर सकती थी।'

'हाँ कर सकती थी। कई लोगों ने मेरी ज़िन्दगी में आने की कोशिश भी की। मेरा मन भी हुआ कि कर लूँ दूसरा निक़ाह। अकेले ज़िंदगी नहीं कटती। दिन से ज़्यादा रात काटने को दौड़ती है। लेकिन बच्चों को देख कर मन को समझाती रही कि नहीं, अब शादी नहीं करनी है।

दूसरे के बच्चों को कोई भी नहीं पालता। न्यूज़ में बार-बार देख, पढ़ चुकी हूँ कि ऐसे बच्चों को लोग मार भी देते हैं। मैं अपने बच्चों को जान से ज़्यादा चाहती हूँ। इसलिए कोई रिस्क नहीं लेना चाहती।'

'तुम ठीक कर रही हो। ऐसे में बच्चों का जीवन सदैव ही हाई रिस्क पर होता है। लेकिन इतना लंबा जीवन पड़ा है, उसे कैसे जियोगी ? क्या प्लान किया है?'

' जितने बनाये सब फ़ेल होते रहे, इसलिए अब कोई प्लान नहीं बनाती।'

निराशा में डूबी आवाज़ में उनकी यह बात सुनकर मैंने कहा, 'तुम्हारी लाइफ़ जानकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ जिससे तुम्हारी तकलीफ़ दूर हो जाए। मैं कुछ कर सकूँ तुम्हारे लिए तो मुझे राहत मिलेगी। बहुत ख़ुशी होगी।'

यह सुनते ही वह बोलीं, 'सच में मेरे लिए कुछ करना चाहते हो तो मैं कुछ कहूँ, नहीं तो मैं अपनी बात ख़राब नहीं करना चाहूँगी।'

' क्या मुझ पर तुम्हें इतना भी यक़ीन नहीं है। मुझसे जो भी हो सकेगा वह मैं ज़रूर करूँगा।'

यह सुन कर कुछ देर सोचने के बाद वह बोलीं। 'मैं बहुत सोच-समझ कर बोल रही हूँ, इसलिए मुझे फिर से सोचने-समझने के लिए मत कहना। मैं एकदम क्लियर कह रही हूँ कि तुम रोज़ मेरे साथ कुछ घंटे बिताओ। बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं एकदम अकेली पड़ जाती हूँ। अपने को काम में कितना खपाऊँ। इसलिए मैं हमेशा के लिए तुम्हारी सेकेण्ड वाइफ़ बनकर रहना चाहती हूँ। 'अन्या से अनन्या' की लेखिका प्रभा खेतान की तरह। बोलो तैयार हो? कल आओगे?'

उनकी इस अप्रत्याशित बात से मैं सन्न रह गया। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूँ? मेरे चुप रहने पर वह फिर बोलीं, 'चुप क्यों हो गए? क्या अपनी नथुनिया वाली "अमीरा" के लिए इतना भी नहीं कर सकते? उसे अपनी सेकेण्ड वाइफ़ नहीं बना सकते? क्या तुममें इतना भी करने की हिम्मत नहीं है। मैं तुम्हारी पहली मिसेज़ की लाइफ़ को टच भी नहीं करूँगी।'

मैं अब भी नहीं समझ पा रहा था कि क्या कहूँ, मेरे चुप रहने पर वह बहुत गंभीर आवाज़ में आगे बोलीं, 'तुम्हारे पास पूरा समय है। इत्मीनान से सोच-समझ लो। मैं कल लंच के समय तुम्हारा इंतज़ार करूँगी। गुड नाइट।'

अमीरा ने बहुत साफ़-साफ़ अपनी बात कहकर फोन काट दिया। यह प्रतीक्षा भी नहीं की कि मैं कुछ कहूँगा। बड़ी देर तक मैं छत पर इधर-उधर टहलता, बैठता, सोचता रहा कि क्या करूँ? जाऊँ या ना जाऊँ। बार-बार मेरे कानों में उनकी बातें गूँजती रहीं। चोटी खींचने, गाना गाने के दृश्य याद आते रहे।

"अन्या से अनन्या" शीर्षक से अपनी बोल्ड आत्मकथा लिखने वाली विख्यात लेखिका प्रभा खेतान वाली उनकी बात हर तरफ़ गूँजती हुई सी महसूस कर रहा था। अचानक ही मेरा ध्यान इस ओर गया कि आसमान की कालिमा धुँधला कर स्लेटी हो चुकी है। असंख्य तारों की जगह छिटपुट कुछ तारे टिमटिमा रहे हैं। मैं बोझिल क़दमों से सीढ़ियाँ नीचे उतर रहा था। लेकिन नींद मेरे आस-पास भी नहीं थी।

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/10/16 08:56 AM

बेहद रोचक कहानी

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