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काँटों की सेज

 (पुरुष विमर्श पर कहानी) 

 

“सत श्री अकाल भाबी जी! हाउ आर यू?” 

पिछली कोठी की हमारी आँगन की साझी बाउंड्री दीवार जो चार फुट ऊँची है, उसके दूसरी ओर से जीत भाई साहब की आवाज़ सुनकर मैं चौंक गई। 

“सत श्री अकाल जी! कदोंआए?” (कब आए) पूछते हुए मैंने हैरानगी दिखाई। इस पर वे बोले, “भाबी जी, अज कल विच आ जाइयो तुहाडे नाल कुज गल्ल करनी ए।” (आजकल में आईएगा कुछ बात करनी है आपसे) बात आगे ना बढ़ाते हुए मैंने कह दिया कि अच्छा आज ही आते हैं। 

मॉडल टाउन का नक़्शा कुछ ऐसा बना है कि बीच में पार्क उसके चारों ओर आठ गलियाँ हैं जिनके मुहाने पर दुकानें ही दुकानें और हर गली अपने में 24-25 घरों को सँभालती चारों ओर फैली हुई हैं। इस पर घरों के आँगन की दीवारें आपस में जुड़ी हैं तो लोगों में प्यार मोहब्बत हो ही जाती है। समय मिलते ही दीवारों के आसपास खड़े होकर आपस में बतियाने से कुछ और नहीं तो आत्मीयता बनी रहती है। हमारा भी अपने पिछले घर वालों से काफ़ी प्रेम-प्यार बना हुआ है। 

जीत भाई साहब के पिताजी जिन्हें हम अंकल जी कहते थे, उनके स्वर्ग सिधार जाने से आंटी जी भी अकेली पड़ गई थीं। उन्होंने दो किराएदार रखे और उन्हें घर की ज़िम्मेवारी सौंप कर स्वयं इंग्लैंड बेटे के पास चली गई थीं। बुढ़ापे में बहू से सेवा करवाने लेकिन कर्म का लेख कैसे टल सकता है? उनकी बहू कमल कौर बहुत अच्छी और रौनक़ी थी! सास के आने पर, कुछ समय बाद ही अचानक वह बीमार हुई और चल बसी थी। आंटी जी सुख लेने गई थीं, लेकिन कर्मों में सुख नहीं था। घर में बेटा और उसके दो बेटे थे। बहू की मृत्यु से बेटे की सुरताल में लयबद्ध बीतती ज़िन्दगी का संगीत बेताल हो गया था या कहो संगीत की सूई अटक गई थी। गृहणी की कमी ने घर को पंगु बना दिया था। सो, माँ को वहीं छोड़कर उनका बेटा कोई हल ढूँढ़ने अपने घर वापस भारत आया था। 

साँझ गहरा गई थी जब हम जीत भाई साहब को उनके घर मिलने पहुँचे। उनके हाव-भाव में उनकी पत्नी का अफ़सोस तो था ही लेकिन उसके जाने से जीवन में चली आई असंतुष्टि अधिक लग रही थी। कारण—बड़े बेटे की शादी कर दी थी कि बहू आकर घर को सँभाल लेगी। पर इस नए युग की लड़की ने परिवार से अलग रहने की ज़िद ही पकड़ ली। वह बोली, “मेरे हँसने खेलने के दिन हैं, ना कि तुम्हारे परिवार की रोटी बनाने और दादी की सेवा करने के।”

जीत भाई साहब यह सुना रहे थे और बोले, “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के तो ख़ूब नारे लग रहे हैं लेकिन बेटियों को पारिवारिक शिक्षा कौन देगा? संस्कारों के नाम पर डब्बा ही गुल है! हमारा बेटा पराया हो गया। बच्चे की देखभाल और घर सँभालने के लिए मेरे दोस्त ने यहाँ पंजाब में अख़बार में मेरी शादी का विज्ञापन दिया था। उसके जवाब में कई चिट्ठियाँ और फोन आए हैं। मैं इसीलिए मजबूरी में पुनः शादी करने आया हूँ। आपसे यही बात करनी थी मैंने।”

जीत भाई साहब की बातें सुनकर उनकी बीवी की मृत्यु का हमने अफ़सोस क्या करना था? उल्टे हम उन्हें अग्रिम शुभकामनाएँ देकर घर वापस आ गए थे। 

अगले दिन फिर से आँगन की दीवार के उधर से उन्होंने पुन आवाज़ दी बोले, “भाभी जी एक रिश्ता जँच रहा है। जाँच पड़ताल मेरे दोस्त ने करवा ली है। विधवा महिला है। इसका एक बेटा है जो दसवीं में पढ़ता है (फोटो दिखाते हुए) हमारी उम्र में भी ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है आप भी ज़रा नज़र मार लो! असल में घबराहट बहुत है, पर कहीं तो‌ विराम लगना है ना।” 

मैंने फोटो पर नज़र डाली तो पंजाब के पिंड (गांव) की पेंडू लगी। सुंदरता का मापदंड यही था कि सब अंग और नैन-नक़्श सही थे। गेहुआ रंग था, जबकि जीत भाई साहब काफ़ी गोरे-चिट्टे हैं। मेरे चेहरे पर भावों का उतार-चढ़ाव न पाकर, वे बोले, “सुंदर लड़कियों की फोटोस तो बहुत आई हैं। किसी को भी मेरी उम्र से गुरेज़ (परहेज़) नहीं है। हर लड़की विलायत जाना चाहती है। पंजाब की यह भेड़ चाल है। इंग्लैंड के नाम पर सब की लार टपकती है। बड़ी लंबी लाइन है। भाभी जी, डरता हूँ लड़कियों की नीयत से। मुझे सीधी-सादी विधवा ठीक रहेगी। कम से कम घर तो सँभालेगी। दो लड़कियाँ तो अपनी माँ को ब्याहने आई थीं। विधवा माँ को कौन सँभाले? मेरा मन बड़ा ख़राब हुआ यह देखकर। अब आप बताओ मेरा फ़ैसला कैसा है?” 

मैं क्या कहती? सोचा व्यावहारिक दृष्टिकोण से वह ठीक ही सोच रहे हैं। एक पचास साल के पुरुष के साथ एक जवान लड़की कैसे ईमानदारी से निभा सकती है। फिर आजकल की हवा का रुख़ भी अपनी मर्ज़ी से मोड़ लेते हैं लोग। वे पुनः बोले, “इस विधवा महिला के बेटे की मैट्रिक की परीक्षा होते ही उसे भी हम पेपर्स भेज कर वहीं बुला लेंगे जिससे यह भी चैन से वहाँ रह सकेगी हम सब के बीच। छोटा बेटा नमन कॉलेज जाता है यह भी एडमिशन ले लेगा वहीं। हमारे दो से तीन बेटे हो जाएँगे। घर फिर बस जाएगा। क्या कहते हो आप?” 

अब तो लगते हाथ मैंने भी कह दिया, “शुभ काम में देरी क्या करनी? फिर लवो लांवा। (शादी कर लो)”

यह फ़ैसला होते ही उसी हफ़्ते उनका छोटा बेटा आ पहुँचा था अपने डैडी की शादी की फोटोग्राफी करने। उधर उस विधवा का बेटा भी अपनी माँ की शादी में ख़ूब नाच रहा था डीजे के सामने। बहुत ख़ुशहाल माहौल था। मैं सोच रही थी बीवी के मरने का ग़म तो एक पेग में ही भूल गया होगा। अब तो अगला पैग नई बीवी के आने की ख़ुशी का—ख़ूब नशा ला रहा होगा! वैसे भी अतीत को भूलकर ही वर्तमान सँवारा जा सकता है! यह सब रिश्ते खोखले होते हैं जो इंसान की ज़रूरतों से बँधे होते हैं। हमारे सांस्कृतिक मूल्यों के मानक कितने बदल गए हैं इस बदले ज़माने के साथ-साथ। एक हफ़्ते के भीतर ही पिछली कोठी की रौनक़ हवाई जहाज़ से विलायत चली गई और पिछला आँगन सूना हो गया था। 

मैं भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई थी। उनका क़िस्सा सुनकर हमारा दूधवाला अपनी परेशानी सुनाने लगा कि उसके भतीजे की अभी पिछले साल शादी हुई है इस शर्त पर कि लड़की का वीसा लग गया है लेकिन उसके पास टिकट के पैसे नहीं थे। तो शादी के बाद हमारा भतीजा उसकी टिकट ख़र्चेगा और वह वहाँ जाकर अपने पति को बुला लेगी। अब वह वहाँ पर है, लेकिन अपने पति को नहीं बुला रही है। वह बेचारे हर दिन स्पॉन्सरशिप के पेपर्स का इंतज़ार करते रहते हैं। वह ना पेपर्स भेज रही है और ना ही फोन उठाती है। घर में कोहराम मच गया है। बेचारा हमारा भतीजा पछता रहा है। पैसा भी ख़र्च हो गया लेकिन वह तो गहना-कपड़ा भी ले गई है! बहुत दुखी था बेचारा! 

अब ऐसों की मत को क्या कहें? मैं सोच रही थी कि हमारे समाज की चुनौतियाँ बहुमुखी हैं। पिछली सदी से इस सदी में आते-आते इनका परिदृश्य बदल गया है। यह ऐसी चुभन दे रहा है जिससे दर्द की एक लहर चल रही है। जिन मूल्यों को समाज ने सदिर्यों की यात्रा में गढ़ा था उसके दायरे में मूल्य के मानक बदल गए हैं। 

एक दिन मेरी पड़ोसन रीता का फोन आया कि क्या कर रहे हो आओ इकट्ठे चाय पीते हैं। तो मैं उनके घर चल पड़ी। वहाँ जाकर देखती हूँ कि उनका बेटा जो मेडिकल कॉलेज में पढ़ता है हॉस्टल से घर आया हुआ था और बहस रहा था कि उसे नई कार नहीं पुरानी-सी कार चाहिए। अरे! यह क्या उल्टी गंगा बह रही है? मैं तो सुनकर हैरान रह गई! 

वह मुझे ही इंगित कर बोला, “आंटी, जितनी बढ़िया कार होगी, उतनी ढेर गर्ल्फ़्रेंड्स बन जाती हैं। मुझे नहीं चाहिए ये गर्ल्फ़्रेंड्स। ख़ूब उल्लू बन रहे हैं लड़के। मेरे एक दोस्त ने अपना लैपटॉप बेचकर अपनी गर्ल्फ़्रेंड को डिज़ाइनर पर्स लेकर दिया और घर में पापा को फोन कर दिया कि उसका लैपटॉप चोरी हो गया है। पैसे जल्दी भेजें नए लैपटॉप के लिए। वो गर्ल्फ़्रेंड ख़ूब चालू है। तीन लड़कों के साथ इकट्ठा चक्कर चला रही है। तीनों आपस में ख़ार खाते हैं। एक ने तो दूसरे की अपने दोस्तों से पिटाई भी करवा दी है। मोबाइल में तीन-चार सिम रखती है। आपको और क्या-क्या बताऊँ। एक और लड़का दिनेश है। वह नाम मात्र को हॉस्टल में रहता है। वैसे एक लड़की के साथ किसी गेस्ट हाउस में पड़ा रहता है। डॉक्टर क्या बनेगा? पढ़ाई नहीं कर रहा! आंटी, बहुत बुरा हाल है लड़कों का। लड़कों की अक़्ल ही मारी गई है। पिछले वर्ष तो एक लड़के ने गंगा में कूद कर जान ही दे दी थी। इसीलिए मुझे खटारा कार चाहिए। मैं अपनी रईसी की शान नहीं दिखाना चाहता। ना जाने क्या करती हैं यह लड़कियाँ कि लड़के फँस जाते हैं।”

यह सब सुनकर मैं तो हक्की-बक्की रह गई। रीता का मुँह भी खुला का खुला रह गया था। मैं सोचने लगी, यह जवान पीढ़ी किधर का रुख़ कर रही है? इस युवा विमर्श को रोकना ही होगा जो शारीरिक आकर्षण से पीड़ित है। ख़ैर यह उनके घर का मामला था। लेकिन मैं असहज हो उठी थी। 

मेरे ही आस-पड़ोस में कितना कुछ घट रहा था! सड़क पार वाली हवेली में अग्रवाल साहब रहते हैं उनके बेटे की शादी बड़ी धूमधाम से हुई थी। हम भी शामिल हुए थे। लेकिन अगले दिन पता चला कि दुलहन पहली रात को ही अपने घर वापस चली गई थी। उसने दूल्हे से कहा कि वह किसी और से प्यार करती है उसे तलाक़ चाहिए। तलाक़ के साथ उसने पाँच करोड़ की माँग रखी है। उनकी इज़्ज़त का फालूदा कर दिया था उसने। अभी तो शहनाई की आवाज़ हवा में रस घोल रही थी और मेहमानों की हँसी फ़ज़ा में गूँज रही थी जबकि दूल्हा शर्मिंदगी में अपना सर धुन रहा था। उन दोनों ने शादी के पहले “प्री वेडिंग शूट” (वीडियो फोटोग्राफी) करवाया था जिसमें उसकी रज़ामंदी साफ़ दिखाई दे रही थी। वही लड़की विदाई के बाद होटल के कमरे से बाहर निकल आई और तलाक़ माँगने लगी थी। यह सुनकर वह दूल्हा बेचारा होटल के कमरे से बाहर ही नहीं निकल रहा था। दुलहन को छूने का तो अभी मौक़ा ही नहीं आया था। मध्यवर्गीय परिवारों में आए दिन कलह-क्लेश बढ़ते जा रहे हैं। तलाक़ के लिए मोटी रक़म माँग कर तलाक़ लिए जा रहे हैं। लड़की के माँ-बाप साथ देते हैं और ख़ुशी से तलाक़ के पैसे लेते हैं। लेकिन यहाँ तो रईसों का भी बुरा हाल है। उनकी माँग भी करोड़ों में है। हर गली, हर महल्ले, क्या हर घर में ऐसी घटनाएँ घट रही हैं। ज़माने को कौन सी हवा लग गई है—विचारणीय है। 

वक़्त की चाल बहुत तेज़ होती है कब दिन महीने में और महीने साल में गुज़र जाते हैं हमें पता ही नहीं चला कब जीत भाई साहब पुनः भारत आ गए थे और एक बार फिर से बाउंड्री वॉल के दूसरी तरफ़ से वही अपनत्व भरी आवाज़ आई, “भाबी जी की हाल है? सब ठीक है ना!”

“अरे तुसी इस बार जल्दी ही चक्कर लगा लया अपने देश दा?” उनके चेहरे पर परेशानी देखकर मैंने पूछा, “सब ठीक है ना अकेले ही आ गए हो, साथ बीवी को नहीं लाए?” 

“आराम से बैठ कर बातें होगी, आप आने का कष्ट करना, मेहरबानी करके!”

वह मेरे को बहुत इज़्ज़त देते थे तो मैं भी उसी शाम उनके घर पहुँच गई। उनका दोस्त उनके साथ बैठा था। 

उन्होंने बताया कि यही दोस्त उनके लिए मेहनत करते रहे, और अब दुखी हैं उनके साथ। मैंने आश्चर्य दिखाया तो वे बोले, “भाभी जी वह तो पता नहीं कहाँ दौड़ गई।”

“क्या बोल रहे हैं आप? यह कब हुआ और कैसे हुआ?” 

वह बेचारे दुखी मन से अपना रोना रोने लगे, “भाभी जी मैंने तो उसके बेटे को भी बुला लिया था पेपर भेज कर। उससे पूछा, ‘क्या पढ़ना है किस कॉलेज में एडमिशन करवा दूँ?’  बोला, ‘मैं पहले कोई जॉब करूँगा।’
उसकी माँ ने भी कहा कि वह भी वॉलमार्ट में काम करेगी। बेटा डॉलर शॉप में लग गया। दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर से जॉब करने जाते और हँसी-ख़ुशी रहते रहे कुछ समय तक। फिर पता नहीं किस से दोस्ती-यारी कर ली और अचानक एक दिन दोनों ग़ायब हो गए। बहुत ढूँढ़ा। पुलिस की मदद भी ली, लेकिन पता नहीं चला। दोनों पक्के हो गए थे, मैंने ही तो उन्हें स्पॉन्सर किया था। ना मेरी कमल कौर मरती ना मैं इन झमेलों में पड़ता।”

इतना कहकर वे सिर धुनने लगे। उनके सपने टूट कर बिखर गए थे। बोले, “वक़्त भी गँवाया, पैसा भी गँवाया। इन सबसे ज़्यादा दिल को, भरोसे को बहुत चोट लगी है।”

वह माथे पर हाथ रखकर सर झुका कर बैठ गए थे। तमन्नाएँ धूल में मिल गई थीं। इस नई चोट से कमल कौर के जाने का सदमा गहरा गया था। बेचारे जीत भाई साहब . . .! 

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