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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–005

टकटकी लगाए पूनम के चाँद को निहार रही थी कि हठात्‌ चौंक गई। बादलों का एक टुकड़ा आया और चाँद का मुँह पोंछ गया। फिर भी उसके चेहरे पे वही चमक बरक़रार रही लगा चाँद अधिक चमक उठा था और मैं ख़्यालों में बह गई हूँ, दू ऽऽ र तक . . .

इसी पूनम के चाँद की दीवानी थी गुजरी (मेरी दादी) अपनी जवानी से। चाँद के बढ़ते स्वरूप को हर रात बेसब्री से तकती थी वो और पूर्ण रूप देखते ही उसकी उमंगें नाच उठती थीं। पाँव थिरक उठते थे और अन्तस से मधुर स्वर लहरी गूँज उठती थी। ऐसी ही एक साँझ को जब सूरज और चाँद दोनों ही आसमान पर अभी अपना अस्तित्व जमाए हुए थे और साँझ सिंदूरी थी, गुजरी ने सिर पर अपने हाथ की बनाई हुई चौड़ी लेस लगी मलमल का चुन्नटों वाला दुपट्टा डाला और बग़ल में एक झोली टाँगी जिनमें चार-पाँच पाथियाँ रखीं (गोबर के सूखे कंडे) और दौड़ती हुई पहाड़ी से नीचे उतर अपनी २-३ सखियों को बुलाया और चल पड़ीं चारों जंगल की ओर पंजाबी लोकगीतों (गौंड़) की पिटारी खोलकर . . . 

“उच्चियां लम्बियां टाहलियां नी ओए
विच गुजरी वाली पींग वे माइया।”

“डिग पई नी गोरी शीशमहल तों, 
पा दयो नी ओदे माईया वल चिट्ठियां।" वगैरह-वगैरह . . .

और ऐसे ही हंसी-मजाक करतीं, ढेरों गीतों को गाती हुईं वे सब दूर से आती धूल के गुबार का इंतज़ार कर रही थीं। जो घोड़े गाड़ियों के आने से उठना था। असल में गुजरी का माइया (पति) रावलपिंडी से पुन्या (पूर्णमासी) की रात वापिस आता था। साथ में जो कामे (सहायक) जाते थे, उनकी बीवियाँ ही गुजरी के साथ थीं। सभी हम उम्र थीं। आसमां पर से अभी सिंदूरी चादर का जादू उतरा नहीं था कि वहाँ के “गुसाईं जी” की कुटिया दिखी और ये सब वहाँ जा पहुँचीं। 

क्योंकि झोले में पाथियां वहीं के लिए थीं। 

गुसाईं जी के डेरे पर आग जलती नहीं दिखी तो गुज़री ने पूछा, “गुसाईं जी, यह क्या आज धूनी नहीं रमाई?” 

“शाहणी, आज कोई बीबी छोडे-पाथियां (लकड़ी-कंडे) नहीं लेकर आई।”

गुज़री ने अपना झोला आगे कर के कहा, ”ये लो गुसाईं जी! लगाओ धूनी।”

“जितनी पाथियां तूं लाई है शाहणी, उतनी बार रब्ब तेरी झोली भरे!” गुसाईं जी ने ख़ुश होकर कहा। 

गुज़री इस आशीर्वाद से घबरा कर बोली, “गुसाईं जी मैं तो अपने तीनों बच्चे ब्याह बैठी हूँ। मुझे कैसा वरदान दे दिया है, आपने! मेरी तो अब सूखने की उम्र आ रही थी। यह क्या कह दिया है आपने?” 

“अब तो 'वाक्क’  निकल गया है शाहणी, फ़िक्र न कर। उस रब्ब का हिसाब किसने जाना है?” यह कह कर वो सच्चा साधु आग जलाने में व्यस्त हो गया। 

और उस ख़ाली झोले में अब पाँच बच्चे लिए गुजरी लौट रही थी। दूर से धुएँ का गुबार भी दिखाई दे रहा था। ये सहेलियाँ वहीं ठहर गईं और घोड़ागाड़ियाँ पास आते ही अपने~-अपने माही के पास पहुँच गईं थीं। 

उस ज़माने में साधु-संतों मेंं बहुत तेज होता था। उनके न आश्रम होते थे और न ही चेले-चपाटे। केवल ईश्वर की आराधना में वे लीन रहते थे। उनका आशीर्वाद ख़ाली नहीं जाता था। गुजरी की पैदाइश १८७० की थी। ३८ वर्ष की उम्र में उनके पाँव फिर भारी हो गए। दो-दो वर्षों के अंतराल से पुन: दो बेटियाँ और तीन बेटे और आ गए थे परिवार में। हमारे पापा चौथे स्थान पर थे। वे ९९ वर्ष की आयु तक जीवित रहीं। और ढेरों क़िस्से सुनाती थीं। कभी गीत गाकर तो कभी अफ़साने। लेकिन एक साधु के कहने से बीस साल बाद बच्चे होने लगे—यह बात हमारे गले नहीं उतरती थी तब। अब समझ आती हैं, ऐसी बातें। 
 बाक़ी, अगले अंक में . . .

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