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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–33

 

कभी-कभी कोई घटना या हादसा ऐसा घटा होता है, जिसका जीवन में महत्त्व न होते हुए भी वो हमारे स्मृति पटल पर अटका रहता है। और कुछ वैसा ही प्रसंग समक्ष पाकर स्मृति-परतें फटी स्वैटर के धागे सी उधड़ने लगती हैं। अभी-अभी टी.वी. न्यूज़ में एक एक्सीडेंट देखा तो मेरी आँखों के समक्ष पहलगाम में घटे एक एक्सीडेंट के दृश्य आ गए। आज वही संस्मरण सुनाती हूँ:

जुलाई के महीने में पहलगाम से अमरनाथ यात्रा प्रारंभ होने से वहाँ तीर्थ यात्रियों का मेला लगा रहता है। सन् 1975 की बात है। वैसे तो पहाड़ों के अपने ही मौसम होते हैं लेकिन जुलाई में मानसून वहाँ भी दस्तक दे देती है। जिससे यात्रियों को बारिश और कभी-कभी ऊपर बर्फ़ीले तूफ़ान का भी सामना करना पड़ता है। श्रद्धालु यात्री फिर भी हज़ारों की संख्या में पैदल हमारे घर के सामने से प्रतिदिन निकलते थे। संपन्न लोग जीप या टैक्सी में चंदनवाड़ी तक भी जाते थे। दो बर्फ़ ढंके पर्वतों के बीच में एक बड़ा ग्लेशियर है जिसके नीचे से लिदर दरिया पहाड़ों को लाँघता नीचे पहलगाम की ओर आता है। फिर वहाँ से आगे घोड़ों पर या पालकी पर जाते थे। क्योंकि इसे ही चंदनवाड़ी बर्फ़ का पुल कहते हैं। कई सैलानी आज भी वहाँ तक जीप या कार में उस बर्फ़ के पुल को देखने जाते हैं। उन्हें पहलगाम को पार करते हुए लिदर दरिया के ऊपर उन दिनों एक छोटा सा लकड़ी का पुल होता था, वहाँ से गुज़रना होता था। 

पिछली रात बेहद बारिश और तूफ़ान था। लेकिन दिन को मौसम साफ़ हुआ तो उस दिन हम दोनों सैर को उसी ओर निकल गए। अभी हम नदी के पुल से तक़रीबन सौ क़दम पहले ही थे कि एक जीप हमारे पास से गुज़र के पुल की ओर गई और एकदम से दरिया के बीच में गिर गई। बाक़ी लोगों की तरह हम भी घबरा कर, आशंकाओं को पाले हुए उधर ही दौड़े। 

जीप का ड्राइवर पहाड़ी मोड़ों से अनजान लगता था। ऐसा लगा मोड़ आने से पहले ही वह मुड़ गया था। जो भी कारण था। किनारे खड़े कश्मीरी लोग उसी पल दरिया में बह रहे औरतों और आदमियों को बचाने के लिए वहीं रखे लंबे-लंबे बाँसों और कटे पेड़ों से प्रयत्नशील हो गए थे। (पहाड़ों पर घास चरते बकरवालों के बकरे जब कभी दरिया में गिरते तो उन्हें निकालने के लिए यह बाँस और कटे पेड़ हमेशा तैयार रखे जाते हैं वहाँ) 

सो, शोर-शराबा और अफ़रा-तफ़री मच गई थी। सबसे पहले 5 साल के एक बच्चे को बचा कर एक कश्मीरी ऊपर लेकर आया। मैं वहीं खड़ी थी, मैंने उसे अपनी गोद में झट से ले लिया। वह बेहोश था। तब तक पुलिस भी आ गई थी। हमें देख कर इंस्पेक्टर ने हामी में सिर हिलाया। दो सरदार अधेड़ उम्र के और दो औरतें शायद उनकी पत्नियाँ और ड्राइवर था! ऐसा वहाँ के लोग अंदाज़े से बोल रहे थे। एक सरदार को उठाकर किनारे पर लाए तो उसे ज़रा सा पल भर को होश आया तो उसने “ब्लू फ़ॉक्स” श्रीनगर का नाम धीरे से बोला। रवि जी उन्हें जानते थे। इन्होंने इंस्पेक्टर से बोला कि वह अभी उनको संदेशा भिजवाते हैं। 

उन दिनों सैल फोन नहीं होते थे। रवि जी ने उसी समय एक होटल में जाकर श्रीनगर फोन करके अपने एक दोस्त को कहा कि वह जल्दी जाकर ब्लू फ़ॉक्स वालों को इस हादसे के बारे में ख़बर दे और पहलगाम आने को कहें। जो शायद उनके रिश्तेदार थे। पहले एक 60-65 साल की पंजाबी स्त्री को उठा कर ऊपर लाया गया। जिसकी साँस बंद थी। उसकी पशमीना की शॉल साथ थी, जो मैंने उस पर डाल दी। वैसे तो मेरा कोई नाता नहीं था लेकिन भावुकता वश मानवीय संवेदनाओं के चलते मैं रोए जा रही थी। पल भर में यह क्या हो गया था समझ नहीं आ रहा था। ज़रा सी चूक और दुर्घटना हो गई थी। जिन सरदारजी में अभी जान थी कुछ, उन्हें जल्दी से पुलिस जीप में पहलगाम हॉस्पिटल भेजा गया। बाद में पता चला उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। 

लिदर का बर्फ़ीला पानी, जिसमें दो मिनट भी नहीं रहा जा सकता, इसके अलावा पत्थरों से भरी वेगवती नदी जो ऊपर से नीचे की ओर बह रही है—उस के थपेड़े सहते हुए‌ बाक़ी अन्य लोग कितनी दूर बह गए थे, अभी समझ से परे था। दूसरी स्त्री की लाश भी थोड़ा आगे जाकर पत्थर से अटकी हुई मिल गई थी, लहूलुहान। पुलिस जीप में अब दोनों स्त्रियों की लाशें उनकी फटी हुई ख़ून के धब्बों से भरी बढ़िया कढ़ाई की हुई पशमीना की शॉल से ढंकी हुई थीं। 

हीरे के कानों के झुमके और अंगूठियाँ थीं उनकी। गले में चेन, हाथों में सोने की चूड़ियाँ। जीवित इंसान कब सोचता है कि शरीर के मिट्टी हो जाने पर इन सब का कोई मायने नहीं रह जाएगा। यह सब पल भर में मिट्टी हो जाएगा। फिर भी मैंने पुलिस इंस्पेक्टर को ताक़ीद कर दी थी कि ध्यान रखें। क्योंकि भीड़ में लूट-खसूट तो भीड़ का हक़ बन जाता है न! 

उन्हें और बच्चे को साथ लेकर हम आर के स्टुडियो आए। वहाँ बच्चे को ऊपर घर ले जाकर हमने उसे गर्म हल्दी वाला दूध थोड़ा-थोड़ा करके पिलाने का यत्न किया और उसके कपड़े उतार कर उसके बर्फ़ जैसे ठंडे बदन को शालों से लपेटकर हाथ और पैरों के तलवे रगड़ कर उसे गर्म करने का प्रयत्न किया। वह अब होश में आ गया था और लगातार रोए जा रहा था “नानू”, “नानू” पुकारता हुआ। 

महिलाओं के शवों को गवर्नमेंट अस्पताल में ले गए थे। घर में मेरे दोनों बेटे अभी बहुत छोटे थे। वे सहम कर मुझसे चिपक गए थे और रोना शुरू हो गए थे। 

कौतूहलता वश, आस-पड़ोस के लोग भी ऊपर आना शुरू हो गए थे। मुश्किल से उनको रोकना पड़ा। बच्चे को उसके कपड़े पहना दिए थे अब। क़रीब दो-तीन घंटे बाद जब रात गहरा गई थी तो ब्लूफॉक्स वाले श्रीनगर से आ पहुँचे थे। लेकिन शायद बच्चा उनको ठीक से नहीं जानता था, उनके पास भी नहीं जा रहा था। उन्होंने बताया कि “गोल्डी” (बच्चे का नाम) के नाना-नानी अपने छोटे भाई-भाभी के साथ कश्मीर घूमने आ रहे थे, तो यह नानी के साथ आ गया था। अमृतसर से कल उसके पेरेंट्स पहुँच जाएँगे श्रीनगर। उनको ख़बर कर दी है। यह सब सिर्फ़ चंदनवाड़ी घूमने जा रहे थे। बाद में पता चला कि बाक़ी शव क्षत-विक्षत हाल में दस-पंद्रह किलोमीटर पर मिले थे। 

पहलगाम में दो-चार दिन इस एक्सीडेंट के विषय में चर्चा चली, उसके बाद सब शांत हो गया था। लेकिन सुनने और देखने में फ़र्क़ होता है। मेरी यादों में कहीं आज भी आरम्भ से अंत तक सारा हादसा जीवित है। 

वैसे पहलगाम में आए दिन एक्सीडेंट और हादसों की ख़बरें सुनते रहते हैं पर शुक्र है ईश्वर का, मैंने वैसा एक्सीडेंट अपनी आँखों से फिर नहीं देखा। 

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