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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–013

किसी शायर ने क्या ख़ूब इश्क़ के फ़ितूर की बात कही है:

“फ़ितूर होता है हर उम्र में जुदा-जुदा 
चढ़ती है जब इश्क़ की ख़ुमारी ख़ुदा-खुदा।” 

हँसता-खेलता बचपन दहलीज़ से पाँव बाहर निकालने को होता है कि अल्हड़़ जवानी पीछे से आकर उसे पाश में बाँध लेती है। ऐसा जादू चलता है उसका कि बचपन कब नन्हे पदचाप लिए किस ओर भाग जाता है, उसका पता ही नहीं चल पाता है। इसकी गवाही में स्कूल और आसपास का वातावरण सार्थक मूक-दर्शक होता है। 

यहाँ मैं इश्क़-हकीक़ी या इश्क़-हबीबी की बात नहीं करूँगी। मैं तो स्कूल की टीचर और स्टुडेंट के बीच के नाज़ुक आकर्षण यानी कि आकर्षण या एक क़िस्म की दीवानगी (attraction or a sort of infatuation) या हीरो वर्शिप (Hero worship) की बात करूँगी। जो फ़ितूर दूध के उबाल सा उफनता है, और फिर वैसे ही ढह भी जाता है। 

हम गर्ल्स स्कूल में पढ़ते थे, क्योंकि कटनी में वही बैस्ट स्कूल था। सारा वातावरण ही ईसाईयत से सराबोर था। हर सुबह असैम्बली में यीशु मसीह की प्रार्थना और हिम्स (भजन) गाए जाते थे (हाथ में बाईबल पकड़ कर)। वहाँ की अध्यापिकाएँ अनुशासित होतीं थीं। साड़ी का पल्लू कंधे पर ब्रोच से पिन-अप होता था और गर्दन पर बालों का जूड़ा होता था। ऐसी ही एक अध्यापिका मिस क्लिफ्टन आईं स्कूल में, जब मैं नौंवीं कक्षा में थी। एकदम सहज, शांत और चेहरे पर स्मित मुस्कान लिए साँवले रंग की साधारण सी लड़की, हाँ आँखें एकटक तकती थीं उनकी, जब वो पलकें ऊपर उठातीं थीं। कुछ तो था उनमें, जो उन्हें सामने पाकर मैं ठगी सी खड़ी रह जाती थी। मेरी सहेलियों ने भाँप लिया था। वे अब छेड़तीं, कहतीं, “देख वो आ रही है तेरी फ़ेवरेट मैम!”

स्टाफ़-रूम में कॉपीज़ का बंडल ले जाना होता था तो मैं ले जाती थी अपनी टीचर के साथ। मुझे लगता था शायद मेरी फ़ेवरेट मुझे वहाँ दिख जाए। यदि वो वहाँ होतीं तो मैं कंधे उचकाती, शरारती नज़रों से क्लास में पहुँचती। और सब सहेलियाँ उतावली हो जातीं पूछने को। मिलीं? अब मिस भी मुझे ढूँढ़तीं थीं, और आँखों से मुस्कुरा देती थीं। मेरा जन्मदिन था तो उन्होंने मुझे कुछ इशारा किया। मेरे भीतर सिहरन सी दौड़ गई। वो सुनसान में कुछ रखकर आगे बढ़ गईं। एक पैकेट था वहाँ। मैंने चारों ओर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा और डरते-डरते उसे किताबों के बीच छिपा लिया। मानो कोई भीषण अपराध कर रही होऊँ। स्कूल में उसे खोलकर देखने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई थी। घर पहुँचकर पिछले कमरे में जाकर अकेले में पैकेट खोला तो उसमें एक क्रीम कलर की कुशन्ड फोटो एलबम थी, जिसमें मिस की फोटो भी लगी थी। मानो मुझे सारे जहान की ख़ुशियाँ मिल गईं थीं। प्यार की पहली बयार कुछ ऐसी चली थी मेरे जीवन में। आज भी वो पहले प्यार का पहला तोहफ़ा मैंने सहेजा हुआ है। 

फ़ितूर होता है हर उम्र में जुदा-जुदा . . . तो इस फ़ितूर को मैं पहले इश्क़ का नाम दूँ, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। किसी एक लड़की को एक दूसरी लड़की से भी ऐसा इश्क़ करते ख़ूब देखा है मैंने जबलपुर के होम-साइंस कॉलेज और होस्टल में। “हीरो वर्शिप” भी कहते हैं इसे। शायद लड़कों के बीच भी हीरो वर्शिप अवश्य होती होगी। कभी मैं भी कुछ लड़कियों की ख़ास होती थी। ख़ूब सेवा होती थी मेरी। कॉलेज के आख़री घंटे में हमारा पूरा ग्रुप “नरसप्पा सर” की डांस क्लास में भारत-नाट्यम कर रहा होता था। होस्टल में वापिस आकर मैं तो बिस्तर पर निढाल होकर गिर जाती थी। और नींद लग जाने पर जब उठती तो देखती एक प्यारी सी लड़की मेरे पैर दबा रही होती थी। होस्टल की प्रेसीडेंट होने के कारण कोने वाला कमरा मुझ अकेली को मिला हुआ था आख़री वर्ष में। सो वो चुपचाप चली आती थी वहाँ। शाम का टिफ़िन भी वहाँ रखा होता था। कमरा भी क़रीने से सजाया होता था उसने। कुछ कहना नहीं, हाँ केवल मेरी स्नेह भरी नज़र का इंतज़ार होता था उसे। 

इसे हम उम्र का तक़ाज़ा तो नहीं कह सकते न! यह कोई “लैस्बियन” व्यवहार भी नहीं है। तो फिर बात वहीं आकर ठहरती है कि यह एक फ़ितूर है . . . जो स्कूल, कॉलेज के पश्चात् स्वयं ही हवा हो जाता है। 

कहीं-कहीं अपवाद भी मिलते हैं इसके। एक लेडी प्रिंसिपल (निःसंदेह अविवाहित) के साथ सदैव उनकी एक साथिन होती थी। वो भी उन जैसी ही (अविवाहित) पर दिन-रात का साथ था उन दोनों का। बहुत अच्छी दोस्त थीं दोनों। इससे अधिक जानने की कभी सोची नहीं मैंने। वरना आज के युग में इन्हें “लैस्बियन कपल” भी कह सकते हैं। और फिर अब तो क़ानून ने भी ठप्पा लगा दिया है ऐसे रिश्तों पर। 

एक वाक़या याद आ रहा है होस्टल का। मैं डॉ. राधा कृष्णन की फिलासफी पढ़ रही थी उन दिनों। उसमें लड़कियों के छात्रावास में रहन-सहन के विषय में कैसी सतर्कता व सावधानी बरतनी चाहिए एवम् उससे जुड़ी कई बातें उल्लेखनीय भी थीं। जैसे उन्हें कभी साथ-साथ नहीं सोने देना चाहिए। यही सब ध्यान में धर के मैं रात को बारह बजे हाथ में टॉर्च लिए राउण्ड पर निकल पड़ी। चारों मंज़िल के हर कमरे की तलाशी ले रही थी मैं। दूसरी मंज़िल के एक कमरे में एक बैड ख़ाली था। मैं कुछ परेशान सी हुई कि आज तो सब हाज़िर हैं, पढ़ाई का ज़ोर है इन दिनों। फिर कौन नहीं है? मेरे पास ऐसी कोई सूचना नहीं थी। सो मैंने कमरे का दरवाज़ा खटखटाया कि पहले पक्का पता तो चले, तभी वार्डेन से बात करूँगी सुबह। 

दरवाज़ा खुलने और बिजली जलने पर देखा कि आशा और चन्द्रा एक ही लिहाफ़ में है। मैंने कहा, “लिहाफ़ से बाहर निकलो आशा और अपने बैड पर जाकर सो!” 

वो भीतर से ही बोली, “दीदी आप जाओ। मैं थोड़ी देर में चली जाऊँगी।” प्रत्येक कमरे में चार लड़कियाँ होती हैं। सो बाक़ी दोनों मुँह पर हाथ रखकर हँस रही थीं। मुझे कुछ ठीक नहीं लगा और मैंने झटके से उनका लिहाफ़ हटाना चाहा तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। वे दोनों जिस आपत्तिजनक स्थिति में थीं, मैं उसकी कभी कल्पना भी नहीं कर सकती थी। 

उनको वैसे ही छोड़ कर मैं आगे बढ़ गई थी। लेकिन बहुत डिस्टर्ब हो गई थी मैं। अगले दिन दोनोंं को बुलाया था वार्डेन ने। फिर माता-पिता भी बुलाए गए, लेकिन उन दोनों को एक-दूसरे की लत लग चुकी थी। आख़िर उन दोनों को कॉलेज से निकाल दिया गया था। आज के ज़माने में कोई एतराज़ नहीं करता पर यह सन् 1962 की बातें हैं। वैसे भी महान वैज्ञानिक “फ़्रायड” का कथन है, “जब दो बदन आपस में मिलते हैं तो कुछ भी हो सकता है, फिर चाहे वो बदन किसी के भी हों।”

इतनी लम्बी ज़िन्दगी में घटे ढेरों अफ़साने हैं। अगली बार मिलते हैं किसी और ठिकाने पर . . . 

वीणा विज ‘उदित’

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