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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–25

 

आत्मविभोर कर देता है कुछ घटनाओं का याद आना। हमारे पंजाब भ्रमण का अगला पड़ाव “लुधियाना” था। और पहली बार लुधियाना जाना मुझे रोमांचित कर रहा था। 

जब मैं बी.एड. कर रही थी जबलपुर के “हवाबाग कॉलेज” में तब मेरे साथ उषा सिब्बल पढ़ती थी। हमारी गूढ़ मित्रता के कारण वह भी मेरी लोकल गार्जियन बन गई थी बाद में। मैं होस्टलर थी, इसलिए एक दिन मेरा लंच बॉक्स उसके घर से आता था और दूसरे दिन “शिरीन” एक पारसी फ़्रेंड थी मेरी उसके घर से आता था। हम तीनों की अच्छी दोस्ती थी। मैं वहीं आगे एम.एड. करने लग गई थी। लेकिन उषा की शादी “लुधियाने  हीरो” परिवार में हो गई थी। चूँकि वह मेरे जीजा की बहन थी तो मेरे डैडी शादी में आए थे और अब मेरी शादी जालंधर में हुई तो उसने बढ़-चढ़कर मेरी शादी में हिस्सा लिया था। शिरीन ना जाने कहाँ दुनिया की भीड़ में 
खो गई, फिर कभी नहीं मिली। अलबत्ता ऊषा लोग हमें लुधियाना आने के लिए हर दिन फोन करते थे, कि तभी एक और बुलावा आया—जिससे मैं हर्ष मिश्रित उत्साह से भर उठी थी। 

आचार्य रजनीश (ओशो) का पत्र मुझे जालंधर में मिला। 

“मैं 21, 22, 23, 24 मार्च को लुधियाना में बोल रहा हूँ तुम रवि को लेकर वहाँ मुझे आकर मिलो। 

प्रिय वीणा को, 
रजनीश के प्रणाम!” 

उनके लेखन का यही अंदाज़ था। 

आपको बता दूँ कि सन् 1963 तक उन्होंने मुझे होम साइंस कॉलेज जबलपुर में पढ़ाया था। वैसे वे रॉबर्टसन कॉलेज में पढ़ाते थे। लेकिन हमारी क्लासेस लेने होम साइंस कॉलेज भी आते थे। दर्शनशास्त्र में मेरी अभिरुचि कुछ अधिक होने के कारण मैं उनकी विशेष प्रिय विद्यार्थी थी। बाद में जैन समाज को संबोधित करने वे जब भी कटनी आते तो मुझे भी उस सभा में आने का निमंत्रण मिलता था। और स्टेज पर आदर सहित बिठाया जाता था। उनकी पुस्तकें पतली-पतली व उनके पत्र मुझे मिलते रहे, कई वर्षों तक। मेरे पत्रों का उल्लेख उनके लेखन में भी है। चंडीगढ़ की चंद्रकांता अग्निहोत्री ‘प्रदीपा माँ’ से मैंने कई बातें शेयर की हैं ओशो की, जब वे मात्र आचार्य थे। 

ख़ैर, अब हम 24 मार्च को लुधियाना अति उत्साह से भरे जा रहे थे बीजी को भी साथ लेकर। वहाँ पहुँचकर घंटाघर क्रॉस करते ही दाहिनी तरफ़ स्टेशन था और सामने जगरावां पुल। हम पुल से पहले बाईं ओर एक गली में मुड़ गए। वहाँ बीजी की मामी का घर था। (कितनी सरल व साधारण मानसिकता थी हमारी तब। किसी रिश्तेदार का घर रास्ते में आए तो हम उसे मिलते थे ना कि आज की तरह कि क्या करना मिलकर उससे कोई काम नहीं है) सो, रास्ते में उन्हें मिलकर ही आगे बढ़ना था। वे यादें तो आज भी जीवंत हैं मेरी आँखों के समक्ष। 

भारी-भरकम ऊँचा गेट देखकर, घर के शानदार होने का अंदाज़ा लग गया था। उन दिनों फोन तो होते नहीं थे कि किसी को आने की ख़बर पहले दे दी जाए। और गेट खुला मिल जाए। सो, बंद दरवाज़े की बड़ी सी साँकल खटखटाई रवि जी ने। नौकर ने आकर भारी चरमराता गेट खोला। तभी अप्रत्याशित-ढेरों कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आईं भीतर से। कुछ भूत बँगले सा दहशत वाला माहौल बन गया था भीतर जाते हुए। देखते हैं कि सामने 3 फुट ऊँचे तख़्त पर एक बुज़ुर्ग औरत ढेरों तकियों के सहारे बैठी हैं और उनके दोनों तरफ़ छोटे-छोटे, बहुत ही प्यारे पॉमेरियन व टॉय डॉग खड़े भौंक रहे हैं गेट की ओर मुँह किए। 

इसी के साथ कुछ और कुत्ते पीछे सलाखों में क़ैद ख़ूँख़ार, भारी भरकम एलसेशियन व बुलडॉग भी भौंके जा रहे हैं। कुल मिलाकर वहाँ आठ कुत्ते गुर्रा रहे थे, जिन्हें उन्होंने बहुत लाड़ से चुप कराया। मामा जी अपने ज़माने में भारतीय रेलवे के चीफ़ इंजीनियर थे। उनकी बहुत शान थी तब। बेटा बहू तो अब यहाँ आते नहीं थे। यहाँ केवल उनकी तलाक़शुदा बेटी रहती थी, कमला मासी। बहुत फ़ैशनेबल और अप-टू-डेट लेडी। हैरानी की बात यह थी कि वो आँगन था और वहाँ पाँच दरवाज़ों पर बड़े-बड़े ताले लटक रहे थे। केवल एक कमरा खुला था जहाँ से मासी जी ने निकलकर हमारा स्वागत किया। 

बाद में वे हमें घर के ख़ूब खुले छत पर ले गईं। और वहाँ कैक्टस का बाग़ दिखाया। आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि कैक्टस के इतने सुंदर पौधे भी होते हैं! कइयों में फूल भी लगे थे। वहाँ ढेरों गमलों में बेइंतेहा क़िस्में थीं। बहुत ही प्रभावित किया उस टेरेस गार्डन ने। इतने ढेर कुत्ते और कैक्टस का गार्डन टेरेस पर—दोनों ही अजूबा थे हमारे लिए। 

हर कमरे के मुँह पर ताला और लम्बी-लम्बी चाबियों का भारी भरकम गुच्छा उनके तकिए के नीचे रखा था। लगा, ये असुरक्षित और असहज महसूस करती होंगी बुढ़ापे में, तभी ऐसा इंतज़ाम करके रखा है या अपनी पुरानी शान बरक़रार रख कर अपना मन बहलाती हैं! 

जो भी हो कुत्तों की महक (smell) उनके कपड़ों से भी आ रही थी। इस उम्र में ईश्वर भजन की अपेक्षा—उनका दीन ईमान धर्म सब कुत्ते ही थे। ऐसा लगा मानो अगले जनम में, वे भी इसी योनी में जायेंगी। हैरतंगेज़ माहौल से अजीब-सी सोच लिए, वहाँ से हम सिविल लाइंस के लिए निकले। जहाँ क्वालिटी आइस क्रीम वालों के घर ओशो आए हुए थे। 

वहाँ पहुँचकर देखा, काफ़ी भीड़ थी। शायद उन्हें इंतज़ार था हमारा, क्योंकि जालंधर की गाड़ी देखते ही वे हमें आदर सहित भीतर हॉल में ले गए। हॉल खचाखच भरा था सामने गोल तख़्त पर लाल रंग का झालर वाला शनील का कपड़ा बिछा था। जिस पर मध्य में ओशो बैठे थे। हमें देखते ही ओशो ने बोलना बंद कर दिया और हमारे प्रणाम करने पर बीजी व हम दोनों को आशीर्वाद दिया। फिर अपने दोनों तरफ़ प्यार से बिठा कर श्रोताओं को मेरा व इनका परिचय दिया। लोग मंत्र मुक्त भाव से उन्हें सुन रहे थे। लगा, ओशो ने रवि जी और बीजी की नज़रों में मुझे ऊँचा उठा दिया है। कृतज्ञ भाव से मैं भर गई थी। उनकी कुछ बातें मेरे जीवन का आदर्श बन चुकी थीं। 

पहली–जो पल अभी है वह बीत जाएगा, उसे हँस कर गुज़ारो। सदा प्रसन्न रहो। (मैं सदा ख़ुश रहती हूँ) 

दूसरी–दो लोगों के प्रेम के बीच अहम् को कभी ना आने दो—यही सच्चा प्रेम है। (यही कोशिश रहती है) 

तीसरी–हर रात को जीवन की आख़िरी रात समझकर, अपना पूरा काम समाप्त करके सोवो क्या मालूम कल हो ना हो। (यहाँ चूक हो जाती है) 

उनके प्रवचन के बाद लोगों का ताँता बँध गया मुझसे मिलकर बहुत कुछ पूछने को। यहाँ तक की क्वालिटी आइसक्रीम वाले होस्ट कपल भी बिछे जा रहे थे, हमारे स्वागतार्थ। मेरे आचार्य अब “ओशो” बन चुके थे। उन्होंने आश्रम आने के लिए रवि जी से आग्रह किया किन्तु हम सारा जीवन यूँ ही व्यस्त रह गए और कभी वहाँ जाने का सोचा भी नहीं। गोयाकि हमें ख़्याल ही नहीं रहा। 

वहाँ से विदा हो कर हम मॉडल टाउन में उषा के घर की ओर बढ़े। लुधियाना मॉडल टाउन में अजब रिवाज़ है। घर पहचानने के लिए घर का नंबर बोलते हैं ना कि घर वालों का नाम। जैसे 36 नंबर जाना है। 72 नंबर वालों के घर कल कीर्तन है। शाम को 40 नंबर पर मिलेंगे आदि आदि, रोचकता पूर्ण लगा। ख़ैर, उनके घर खिलखिलाहट भरा माहौल रहा। कॉलेज की सहेलियाँ जब मिल जाएँ तो बातें कभी ख़त्म ही नहीं होतीं। ऊषा प्यारी-सी बिटिया “सारिका” की माँ बन चुकी थी। उसकी सासू माताजी “ज्वालापुर आश्रम हरिद्वार” से लुधियाना आई हुई थीं उन दिनों सो, हमारे बीजी को उनका साथ मिल गया था। देर रात गए हम वापिस जालंधर लौटे थे। 

भाँति-भाँति के अनुभवों को एकत्रित करती मैं पंजाब दर्शन कर रही थी। तब जालंधर में दर्शन स्थल “देवी तालाब मंदिर” ही था केवल। 13 अप्रैल बैसाखी पर वहाँ मेला लगता था। बैसाखी मनाने और मंदिर के दर्शन करने हम वहाँ गए थे। तब मंदिर इतना भव्य नहीं था। लेकिन मन में श्रद्धा थी और विश्वास प्रबल था। बस, मेरा पंजाब अभी यहीं तक था। असली पंजाब जो गाँव, खेतों और खलिहानों में बसता है उसके दर्शन तो बाद में दूरदर्शन की ख़ातिर हुए। 
 

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