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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–50

 

अक़्सर बहुत कुछ ऐसा भी घटता है जीवन में, जो शेष रह कर भी अशेष ही रह जाता है। तब उस अधूरे के साथ ही जीवन लंगड़ी चाल चल पड़ता है। वह यादों में नहीं रह पाता वह तो परछाईं बन साथ लिपटा रहता है। जैसे कि मेरे जीवन की यह घटना हर पल छिन मेरे साथ है। वह अपने होने का मुझे एहसास देती रहती है . . . 

हुआ यूँ कि 1 नवंबर 2015 को मैंने अपनी कामवाली की 10-12 वर्ष की बेटी सावित्री को मदद के लिए रख लिया। मुझे एक पल भी नहीं देख कर वह फटाक से दरवाज़ा खोल देती थी। मुझे देख कर उसे चैन आ जाता था कि वो अकेली नहीं है। तो 3 नवंबर को मैं नहाने गई और उसके कारण कुंडी लगा ली भीतर से। बदक़िस्मती देखिए, उसी दिन बाथरूम के टब में मेरी टाँग फिसली और मैं उठ नहीं सकी। 

आधा घंटा मैं वही पड़ी रही, दर्द से कराहती रही। जब और भी समय बीत गया तो रवि जी मुझे ढूँढ़ते आए। मेरी दर्द भरी रोती आवाज़ से वे घबरा गए। दरवाज़ा खुल नहीं सकता था। कुछ लोगों को बुलाकर सामने वाले घर से मनु को भी बुलाया और दरवाज़ा तोड़ कर मुझे बाहर निकाला गया। मनु ने मेरे ऊपर चादर से ढँक दिया था। 

मेरे दाहिने घुटने की  ‘नी रिप्लेसमेंट’ (knee replacement) हुए 9 साल हो गए थे। गिरने से दाहिने घुटने से टाँग नीचे डेढ़ इंच हो गई थी। वातावरण में मेरी चीखें गूँज रही थीं। असह्य दर्द के कारण! पटेल हॉस्पिटल से मेरे ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉक्टर सग्गर ने एम्बुलेंस भेजी। मुझे बेड कवर समेत उठाने के लिए वह चारों अटेंडेंट गद्दे पर चढ़ गए (बाद में पता चला कि गद्दा बुरी टूट गया था) मुझ चीखती-चिल्लाती को वे ले गए। वहाँ हर कोण से एक्स-रे लिए जा रहे थे। और मैं ज़ोर-ज़ोर से असह्य दर्द के कारण रोए जा रही थी। 

डॉ. सग्गर परेशान थे कि नया घुटना कहाँ से मिलेगा? उस कंपनी का नाम रिकॉर्ड में नहीं था। मोहित-रोहित दोनों बेटे अमेरिका में भी 2006 में कौन से घुटने होते थे उनका पता कर रहे थे। 

डॉक्टर साहब जी मुंबई, पुणे, दिल्ली आदि जगहों पर एक्स-रे प्रिंट भेज कर पता कर रहे थे। साथ ही वे परेशान थे कि ऐसे केस तो बिगड़ ही जाते हैं अधिकतर। क्योंकि मांसपेशियों ने 9 वर्षों में घुटने को अडॉप्ट कर लिया होता है पूरी तरह। अब खरोंच के निकालेंगे तो दूसरा घुटना इस उम्र में कैसे अडॉप्ट करेंगी ये? दूसरी सुबह वह आकर बोले कि मैं सारी रात सो नहीं सका आंटी। 

“You are very active and this is next to possible a successful case।”

मुझे तो दर्द के कारण होश ही नहीं था क्योंकि मुझे ‘शामक’ (sedatives) दिए जा रहे थे। कोशिशें हर तरफ़ हो रही थीं। 

तीन दिनों तक मुझे हॉस्पिटल में रखा गया। इसके बाद मुझे ‘सपोर्ट ब्रेसेस’ (support braces) से बाँध दिया गया और 3 तकियों के ऊपर टाँग को रख दिया गया। लगता था यह दर्द़ का सिलसिला चल पड़ा है कभी न टूटने के लिए। 

मुँह खोलते ही एक लफ़्ज़ बोलने पर भी टाँग के टूटे हिस्से में चीखों वाली दर्द उठती थी। चीखों के बवंडर में ही मुश्किल से मुझे उसी हाल में घर लाकर लिटाया गया। रवि जी पूरी ज़िम्मेदारी से मुझे सँभाल रहे थे। स्वाति को भी कुछ नहीं करने देते थे। इतने बड़े कष्ट में वही मेरे संबल थे। 

हमारी भारतीय संस्कृति में दुख-दर्द पूछने वाले हमदर्द भी बहुत होते हैं। सारा दिन मेरा हाल पूछने आने वालों का ताँता बँधा रहता था तो रवि जी उन्हें दूसरे कमरे में बैठाते थे। और सब को मना करते थे कि आप लोग आने की तकलीफ़ मत करें। (लॉकडाउन ने अपने आप ही सब को यह सब सिखा दिया) 

हमारे भारतीय लोगों जैसे कष्ट में साथ देने वाले विरले ही कहीं और होते होंगे। बहुत लोगों के घर से खाना भी आना शुरू हो गया था, जबकि रवि जी किसी के घर का खाना नहीं खाते हैं। पर कोई सुनता ही नहीं था। आपस में सब की होड़ लगी थी जैसे, मेरे प्यार के कारण। कोई भी देखने आता था, तो उसे खाना खिला कर भेजते थे, क्योंकि बहुत खाना पड़ा होता था। मेरी रसोई सबकी अपनी रसोई बन गई थी। 

चमत्कार और “शहर की चर्चा”

एक रात को मेरा गला सूखने लगा रो-रो कर। तो मैंंने रवि जी से मुश्किल से “पाऽनी” माँगा। उस दिन 8 नवंबर थी, अच्छी ठंड थी। सिरहाने पड़े चाँदी के गिलास में पानी काफ़ी ठंडा था। मैंंने जैसे ही पानी पिया उसके बाद ही मुझे इतनी ज़ोर से छींक आई कि मेरी टूटी टाँग ऊपर की ओर उछली और दर्द की शिद्दत के कारण मेरी बहुत ज़ोर की चीख निकली। 

पल भर को लगा कि मेरी टाँग टूट ही गई अब तो। जीवन से निराश होकर मैंं बहुत दुखी हो निढाल पड़ गई। तन में पग कम्पित सिहरन दौड़ गई। बेचैनी की, चिंता की कोंपलें फूट रही थीं भीतर। मैंं बिस्तर पर उसी दशा में पड़ी रह गई थी। समय की रफ़्तार मेरे लिए रुक गई थी। 

कुछ रिश्तेदारों के जाने के बाद, रात 11:00 बजे रवि जी ने कमरे में आकर मुझे दर्द की दवाई देनी चाही, तो मैंंने अपने को ज़रा सा हिलाया। मुझे दर्द नहीं हुआ। सो, मैंंने कहा, “मुझे अभी दर्द नहीं हो रहा।” मैंं तो एक शब्द ‘पानी’ भी नहीं बोल पाती थी और इतना लंबा वाक्य बोल दिया था, इस पर वे हैरान हो गए। 

उन्होंने मेरी टाँग को छुआ। मैंंने आराम से उनको छूने दिया। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने झट से मेरे सपोर्ट बेस खोले। मैंं कुछ भी नहीं बोली और ना रोई चिल्लाई। इस पर उन्होंने दूसरी टाँग के घुटने को उसके साथ रखा तो आश्चर्यचकित हो देखा कि दोनों घुटने एक जैसे हो गए थे और टाँग घुटने से जुड़ गई थी। 

”ओए, कमाल हो गया,”इस करिश्मे को देख उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। 

हर्ष मिश्रित ख़ुशी से मैंं रोए जा रही थी। दुनिया का सबसे बड़ा सर्जन “ईश्वर” आया था छींक के रूप में मेरा टूटा जोड़ ठीक करने। 

वैसे अब दिन रात निःशब्द मैंं उसी के भरोसे पड़ी हुई थी, क्योंकि 10 नवंबर को मेरी सर्जरी होनी थी। नौ की रात को रोहित अमेरिका से चल रहा था हमारे पास आने के लिए। इधर रवि जी अपनी तसल्ली कर रहे थे। बार-बार मेरे घुटने को और टाँग को हिला कर ऊपर नीचे कर के। क़रीब 11:30 बजे उन्होंने डॉ. को फोन किया। 

“डॉक्टर साहब वीना की टाँग घुटने से जुड़ गई है।”

फिर उन्हें पूरी घटना सुना दी छींक आने वाली। वे बोले मैंं बिस्तर में हूँ सुबह 6:30 बजे हॉस्पिटल आ जाऊँगा। उनको ले आना मैंं देख कर बताता हूँ मुझे विश्वास नहीं हो रहा है अभी आप उनको सुला दें। 

मैंं तो छह दिनों से रो-रो कर बेहद थक चुकी थी। ख़ुशी की अतिरेकता से ईश्वर को धन्यवाद ही दिए जा रही थी बारंबार। मुझे सब की दुआएँ, शुभकामनाएँ, आशीषें लग गईं थीं। मेरी भली सोच, शुभ कर्मों का ईश्वर ने इसी जन्म में फल दे दिया था। मैंंने सपने में भी कभी किसी का बुरा नहीं सोचा था। अपने आत्मविश्वास पर मुझे गर्व अनुभव हो रहा था। उस रात में चैन की नींद सोई, मानो मुद्दतों बाद माँ की गोद मिली हो। 

रवि जी ने झटपट रोहित को यू.एस. फोन किया और सारा क़िस्सा सुनाया। उसे कहा कि अभी मत आओ, बाद में आराम से आना। वह बार-बार कहता रहा कि पापा डॉक्टर को फ़ैसला तो लेने दो। लेकिन बच्चे पापा की बात नहीं टालते कभी। वह तीन-चार महीने बाद आया था। 

सुबह 6:00 बजे अमित आ गया क्योंकि रात 12:00 बजे उसे भी बता दिया था। वह भी रोमांचित था। उसने आकर मुझे ज़ोर की जफ्फी डाली। वह मुझे बार-बार पकड़ रहा था लेकिन मैं अपने आप कार में बैठी। अस्पताल पहुँचकर एक्स-रे कराने के लिए डॉक्टर ने कहा तो वहाँ का अटेंडेंट भी हैरान था। 

बोला, “अरे यह कैसे हुआ? यह टूटी टाँग तो नॉर्मल हो गई है।”

उसने वहीं से 4 एक्सरे खींच कर डॉक्टर साहब को ऑपरेशन थिएटर मैं भेज दिए। रक्त सने गल्व्स पहने हुए डॉक्टर सग्गर ‘ओ टी’ से बाहर दौड़े आए। आकर बोले, “आंटी आप इस व्हीलचेयर से उठ सकते हो?” मैंने अपने दोनों हाथों पर वज़न डाला और खड़ी हो गई। 

वे फिर बोले, “आप दो क़दम चल के दिखाइए!” तो मैंने उनका कंधा पकड़ लिया और चल कर दिखाया। 

वह आश्चर्य से ख़ुश होकर बोले, “यह चमत्कार है! यह तो चमत्कार हो गया!!”(It's a miracle! Miracle happened!) ईश्वर ऐसी छींक सब कष्ट से तड़पने वाले मरीज़ों को दे दे, तो हम सर्जरी करने वालों की ज़रूरत ही क्या है?” 

भीतर जाकर उन्होंने गल्वस (gloves) उतारे और वापस आकर मुझे प्यार से जफ्फी डाली। अपने दोस्तों को पुरानी टाँग टूटी और टाँग जुड़ी के एक्स-रे व्हाट्सएप किए। बाक़ी डॉक्टरों को भी सूचना दी। कोई मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। 

एक ही बात बोले जा रहे थे, “यह तो चमत्कार है, यह कैसे हुआ मेरी समझ से परे है, यह केवल चमत्कार ही है!!!” (this is a miracle, how it happened । can't understand, this is simply a miracle!!!)

अस्पताल में ही क्या, मेडिकल जगत में भी यह चर्चा ख़ास हो गई थी। इसके अलावा यह ख़बर सब जगह जंगल की आग की तरह फैल गई थी। यानी कि ‘टॉक ऑफ़ द टाउन’ बन गई थी। लोग हैरानी से एक दूसरे को सुनाते थे। 

मैंने कोई मन्नत नहीं माँगी थी उसके दर पर। यह उसका न्याय था, फ़ैसला था मेरे कर्मों के लेखे जोखे का! मेरा माथा ऊपर वाले की मेहरबानी पर हर पल सज्दा करता है। हर साँस उस का गुणगान करती है। 

हित तो रुक गया था कि अब इमरजेंसी नहीं है। बच्चों से अमेरिका में रोज़ बात होती थी। तक़रीबन एक हफ़्ते बाद मोहित का फोन आया कि मम्मी क्या कर रही हो? 

मैंने कहा, “नाश्ते के लिए रसोई में दलिया बना रही हूँ।”

“मेरे लिए भी है?” 

मैंने उदासी से कहा, “हाँ, आ जा बच्चे, तू भी खा ले।”

उसी पल सामने आकर बोलता है . . . 

 . . . “यह लो मैं आ गया! खिलाओ दलिया।”

मैं दंग रह गई। ख़ुशी के मारे ज़ोर-ज़ोर से रोने लग गई। उसे प्यार करती जाऊँ ज़ोर से जफ्फी डाल कर। सच में तू मेरे पास है ना डबल? (लाड़ से मैं दोनों बेटों को डबल और पोपली बुलाती हूँ।) उसके पापा भी सामने बैठे फटी आँखों से उसे देखे जा रहे थे, जब तक वो उनके पास नहीं पहुँचा। उन्होंने उसे छुआ नहीं। 

ऐसे सरप्राइज़(surprises) अदम्य ख़ुशियों से भर देते हैं। 

हम हैरान थे वह कैसे आ गया? मोहित के साथ मेरे दामाद अमित थे। मोहित अमेरिका से सीधा दिल्ली ना रुकते हुए अमृतसर पहुँच गया था और उसने केवल अमित को फोन करके बुलाया। अमित को भी सरप्राइज़ दिया। अमित भी चुपचाप उसको यहीं लेकर आ गया। स्वाति को भी नहीं मालूम था। 

उसने बताया कि उसका मन नहीं मान रहा था मम्मी को देखे बिना, तो वह चला आया। अस्पताल जाकर उसने डॉक्टर सग्गर से भी बात कर के तसल्ली की। इस तरह एक हफ़्ता हमारे पास रहकर अपनी पूरी तरह से तसल्ली कर के वह लौट गया था। और ढेर सारी ख़ुशियाँ घर भर में बिखेर गया था। 

हाँ, डॉक्टर ने हिदायत दी थी, “क़ुदरत के करिश्मे से आपका घुटना अभी ठीक तो हो गया है लेकिन आपने ज़रा भी लापरवाही की और कुछ हो गया तो फिर उसका जुड़ना बहुत मुश्किल है। आंटी, मैं आपको हमेशा चलता फिरता और स्वस्थ देखना चाहता हूँ।”

मैं काफ़ी डर गई थी। पंजाब में सर्दियाँ भी दिसंबर-जनवरी में बहुत ज़्यादा थीं। एक हफ़्ते की बेतहाशा तकलीफ़ ने मुझे दिन में चाँद-तारे दिखा दिए थे! 

सब लोग मिलकर प्रार्थना कर रहे थे, हाथ जोड़ रहे थे मेरी तकलीफ़ को देखकर। मेरे आस-पास मेरा “प्रभामण्डल” (Aura) बहुत तेज से भरा है शायद! चारों ओर सकारात्मकता बिखेरता हुआ। 

तभी मुझे सब बहुत प्यार करते हैं। ग़लत सोच वाले लोग मेरे क़रीब शायद आ ही नहीं पाते हैं। आज भी मुझे बहुत एहतियात के साथ उठना, बैठना और चलना होता है। ऐसी सुधियाँ परछाईं की तरह साथ चलती हैं। 

अपनी आस्था और विश्वास को कभी टूटने मत दीजिए। इसी आदिशक्ति के भरोसे ही तो हम सब चल रहे हैं। कोई शक . . .?? 

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