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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–007

कुछ घटनाएँ स्मृतियों में अंकित तो होती हैं। लेकिन वक़्त की ग़र्द पड़ने से ज़हन में ही कहीं दफ़्न पड़ी होती हैं, पर मिटती नहीं हैं। ख़ास कर बचपन की यादें . . . तब “तबूला-रासा” पर नई लिखावट थी शायद, इसीलिए! 

13 अगस्त 1947 को शादी की रौनक़ धीरे-धीरे ख़त्म होने की तैयारी में थी कि अगले दिन 14 अगस्त को रेडियो के आसपास सब भीड़ जमा करके बैठ गए। ख़बरों का बाज़ार गर्म था। लेकिन भारत के मध्य में तो वैसे भी राजनैतिक हलचल ठंडी थी। उत्तर भारत के लोग जिन मुसीबतों से जूझ रहे थे, उनका ब्यौरा ख़बरों में सुनकर लोगों की भृकुटियाँ तन जातीं, जोश आ जाता पर वहीं बैठे-बैठे। दूरियाँ नपुंसकता बन चुकी थीं। ”लाहौर” को पाकिस्तान में रखा गया है . . . यह ख़बर सुनते ही मम्मी धड़ाम से नीचे गिरीं और बेहोश हो गयीं। पापा का चेहरा भी फक्क रह गया। वे शांत प्रस्तर प्रतिमा से बैठे रह गए थे। फिर भी उठकर वो और आंटी लोग मम्मी को सँभालने में लग गए थे। मम्मी-पापा का घर-संसार उजड़ चुका था। बेटा, माँ, भाई-बहन उनके परिवार सब की चिंता भी होने लगी थी। 

सब समझाने-बुझाने लग गए कि ईश्वर का शुक्र करो आप लोग सही-सलामत यहाँ बैठे हो, विभाजन की त्रासदी तो नहीं झेलनी पड़ी आपको। बहुत दम-खम था बात में, लेकिन हाथ-पल्ले चंद गहनों, वो भी शादी में पहनने वाले जड़ाऊ गहने के सिवाय कुछ नहीं था। हाँ, था कुछ तो सच्ची दोस्ती की तसल्ली और आत्म विश्वास! जिसे आज़माने को, वक़्त खड़ा इंतज़ार कर रहा था। फिर भी वो अपनी पत्नी से कह रहे थे मन ही मन में, “मैं हूँ न कमला जी, आपको सब कुछ बना कर दूँगा। आप क्यों घबरा रही हो?” और अपना हाथ उन्होंने कमला के हाथ पर रख दिया–तसल्ली देते हुए। उस स्पर्श की सिहरन ने मानो कमला के उजड़े चमन के घावों पर फाहा रख दिया था। हालाँकि वो समझ रहीं थीं कि लाहौर वाली वो शान-ओ-शौकत अब कहीं नहीं मिलने वाली। 

उधर पापा को उनके दोस्त के बड़े भाई विद्यासागर मल्होत्रा ने परिवार को इकट्ठे बैठा कर कहा कि किशनलाल अब हमारे चौथे भाई हैं। जब तक इनको तसल्लीबख़्श काम नहीं मिलता, ये हमारे साथ ही रहेंगे। यह सुनते ही मम्मी ने उनकी बीवी के पैर छुए और उन्होंने मम्मी को गले से लगा लिया। फ़िलहाल डूबती किश्ती को साहिल मिल गया था। धीरे-धीरे सब मेहमान चले गए थे, रह गए थे सिर्फ़ हम। जिनका घर-बार ही छिन गया था। 

दायीं ओर वीणा विज ’उदित’ छोटी बहन उषा के साथ

ऊपर वाले उसी गोल कमरे में अब रिहाइश हो गई थी हमारी। मैं क़रीब साढ़े तीन-पौने चार वर्ष की थी तब। एक सुबह काके (ऊषा को मैं काके बुलाती थी) ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी। बारिश थोड़ी-थोड़ी हो रही थी। मम्मी उम्मीद से थीं। उन्होंने कहा,"बेबी, मुझ से उठा नहीं जा रहा, तूं नीचे से आधा गिलास दूध आंटी जी से ले आ। मैं काके को रोता देखकर दूध लेने चली गई। आंटी ने इतनी सुबह-सुबह मुझे देख कर पूछा, “द्रौपदी (हमारी आया) अभी आई नहीं?” मैंने ‘न’ में सिर हिलाया और दूध माँगा। उन्होंने दूध देकर कहा, “बब्बे धीरे-धीरे जाना। मुझे बाथरूम जाना है।” 

मेरी यादों की पोटली में बारिश में वह दूध लेकर ऊपर सीढ़ी चढ़ना इतना दुरूह था जितना शायद सिंदबाद ने अपनी समुद्री यात्रा के दौरान दुरुह मुश्किलें झेलीं थीं। 

मैं हर एक सीढ़ी चढ़ती तो देखती गिलास में पानी की कुछ बूँदें मिलती जा रही हैं। मैं दूसरे हाथ से उन्हें परे करने की कोशिश करती, पर वो कहाँ मानती थीं। लेकिन बाल मन में इतनी समझ नहीं थी कि दूसरे हाथ से उसे ढँक लूँ। बारिश ने भी ज़ोर पकड़ लिया था। ख़ूब कस के गिलास पकड़े धीरे-धीरे जब तक मैं ऊपर पहुँची तो वो दूध पौना गिलास हो चुका था। उधर मैं बूँदों से लड़ रही थी, “बिल्कुल कहना नहीं माना तुमने, गंदी बच्ची?” उनके ढीठ बर्ताव पर मैं रो पड़ी थी तब। और जब रोते-रोते मम्मी को गिलास पकड़ाया तो वे बोलीं, “किसी ने डाँटा है क्या, रो क्यों रही है? पूरी भीग गई है। चल पहले तेरे कपड़े बदलूँ। तूं तो मेरी चाँद है। कभी चाँद भी रोता है भला? कितना बड़ा काम किया है मेरी लाडो ने!” 

और मेरी गालों पर से ढुलकते आँसू, मम्मी के दुलार से अभी-अभी होंठों पर आई मुस्कान पर पहुँच, वहीं ठहर गए थे। आज भी वैसी बारिश आती है तो मैं उस नन्ही वीणा के अडिग प्रयास को याद कर ऊर्जा से भर उठती हूँ। 

 बाक़ी, फिर . . .। 
 

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टिप्पणियाँ

Jag Behal 2022/06/21 01:56 PM

Time once passed, cannot be recalled. We live in past to relish those moments.

Usha Oberoi 2022/06/13 06:07 PM

Thanks, very true story. Dee well done. Take care.

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