छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–012
संस्मरण | स्मृति लेख वीणा विज ’उदित’1 Sep 2022 (अंक: 212, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
वक़्त की करवट की रफ़्तार ने जो स्पीड पकड़ी है हर फ़ील्ड में . . . उसकी हमने और आपने कभी कल्पना भी नहीं की थी—यह एक कटु सत्य तो है, भयावह भी है कई अर्थों में।
संस्कारों की बात करें या धर्म की, सामाजिक ढाँचे का स्वरूप देखें या राजनैतिक होड़ में सत्ता की लोलुपता के लिए आस्थाओं की आहुतियाँ डलते देखें। कहीं भी मन को शान्ति नहीं मिलती।
संस्कार तो माता-पिता व परिवार से विरासत में मिलते हैं। माँ या दादी घर में जिस ढंग से पूजा करतीं हैं और रीति-रिवाज़ निभातीं हैं, हम लोगों ने अनजाने में वही सब सीख लिया था। मम्मी जो मंत्रोच्चारण करतीं थीं, हमारे कान उसी के अभ्यस्त हो जाते थे और हवन करते हुए अपने आप हम भी वही बोलने लगते थे। जपुजी साहब का पाठ, शिव-स्त्रोतम्, हनुमान-चालीसा या अमृतवाणी का पाठ सभी कुछ हम कैसे बोलने लगे बिना सीखे पता नहीं चला ना! अब आज की भागम-भाग वाली पीढ़ी के पास न स्वयं के लिए वक़्त है कि वो पूजा-पाठ करें, तो बच्चों को संस्कार कैसे मिलेंगे? परिवार से उनका तात्पर्य होता है—माता-पिता और उनके बच्चे न कि पूरा परिवार। जिसमें दादा–दादी, नाना–नानी, बुआ, चाचा, मासी–मामा के परिवार भी शामिल हों। ‘ओल्ड एज होम्स’ नामक मशरूम जो उग रहे हैं धरती की उपजाऊ मिट्टी में अब। बहुत चलन है आजकल मशरूम का-:)
मम्मी की डिलीवरी होती तो कभी बुआ, तो कभी ताई या जवान भतीजी आ जातीं जच्चा-बच्चा व हमें सँभालने। यही था परिवार का सुख। आमतौर पर संध्या के समय गायत्री मंत्र, प्रार्थना व भजन होते थे घर में, आरती भी गाई जाती थी घरों में। मम्मी ने कटनी में किराए का घर लेकर “आर्य-समाज” की स्थापना की। वहाँ के लिए एक शास्त्री जी भी दिल्ली से बुलवाकर रखे। घर-घर जाकर लोगों को इकट्ठा किया और हर इतवार को वहाँ हवन करने का चलन आरंभ किया। इतवार को स्कूल की छुट्टी होती थी लेकिन हम अनुशासन में बँधे थे। सुबह सवेरे उठकर, सिर धोकर, (हफ़्ते में एक बार सिर धोना होता था) तैयार होकर मम्मी के साथ हवन पर जाना होता था। धीरे-धीरे यह एक उत्सव बनता चला गया क्योंकि अब सभी हवन-प्रेमी बारी-बारी अपने घर में हवन करवाने लगे थे। बाद में ज़ोरदार नाश्ते का प्रबंध भी करते थे। संगत बढ़ने लगी गई थी। बाक़ी शहरों से भी यज्ञ-प्रेमी कभी-कभी आ जाते थे। शास्त्री भी आते थे प्रवचन करने।
एक स्वामी दिव्यानंद सरस्वती आए गुजरात से। वे नमक नहीं खाते थे। देखने में पूज्य स्वामी दयानंद सरस्वती जी जैसे दिखते थे।
बोले, “तुम्हारी माँ, सच्ची आर्या है, मेरी बेटी जैसी है। हम आपके नाना बन गए हैं।” सुनकर हमें हर्ष हुआ। उनके आगमन से मम्मी में जोश आ गया और कटनी शहर में चारों वेदों के यज्ञ-अनुष्ठान का आयोजन किया गया। लोगों ने खुल कर दान दिया व अनुष्ठान में उत्साह-पूर्वक सहयोग देते हुए भाग लिया। अख़बारों की सुर्ख़ियों में यह ख़बरें दूर-दूर तक फैली थीं। स्वामी नाना जी कभी-कभी आते रहते थे।
एक बार उनके आने पर पापा बोले, “स्वामीजी आपने कभी कोई फ़िल्म देखी है?”
बोले, “नहीं कभी नहीं देखी।”
“चलिए मेरे साथ!”
पापा उनको “दीया और तूफ़ान” दिखाने ले गए। उसमें एक साधु मुसीबत के मारे दो बच्चों को पालता है। वह मुर्गियाँ भी पालता है उनके लिए।
वापिस आकर पापा ने पूछा कि आप उनकी जगह होते तो क्या करते?
वो बोले, “मैं भी यही करता। तूफ़ान में घिरे बच्चों की रक्षा करना मेरा पहला कर्त्तव्य होता।”
स्वामीजी का उत्तर उचित लगा पापा को, क्योंकि हमारे घर में भी मुर्गियाँ थीं। स्वामीजी को उनसे कोई एतराज़ नहीं था। वो छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को ईसाई बनने पर पुनः हिन्दू बनाते थे यज्ञ करके। इसी कार्य में वे जीवन पर्यन्त लगे रहे। आज के हिन्दू इस बात से बेपरवाह हैं। अब तो झुग्गी-झोपड़ी वाले पैसों के लालच में झट ईसाई बन जाते हैं। अमेरिका में भी अच्छे घरों के लोग यानी अमेरिकन आपके घर बैल्ल बजाकर अपना धार्मिक लिटरेचर आप को पकड़ा जाते हैं।
जालंधर के बाहरी इलाक़े में “खामड़ा” में, मैं अपनी सहेली के साथ “साईं मंदिर” गई एक वीरवार को, तो स्तब्ध रह गई देखकर कि वहाँ फ़ाईव स्टार होटल की शैली जैसे चर्च की बिल्डिंग तैयार हो रही है। हमारी “भजन संध्या” में तो मुश्किल से पचास लोग थे और इसके विपरीत “यीशु मसीह” के गीत डीजे पर हो रहे थे। वहाँ हज़ारों की संख्या में आसपास के गाँवों से लोग बसों में भरकर पहुँच रहे थे। पैसे के बल पर धर्म फैलाया जा रहा है उनमें, जो जानते ही नहीं कि धर्म का क्या अर्थ है?
ओशो ने अमेरिका में कहा था, “तुम लोग अनपढ़, ग़रीब भारतीयों को ईसाई बना रहे हो, मेरे अनुयाई तो तुम्हारा सबसे पढ़ा-लिखा तबक़ा है। जिनकी जिज्ञासा को मैं शांत कर सका हूँ।” सच ही तो कहा था।
हैरान हूँ, ईश्वर के नाम पर ये सब क्या हो रहा है! आस्था का सम्बन्ध तो विश्वास से है। और मन की शान्ति तो भले कर्मों के करने से ही मिलती है। बस वही खोजें हम और आप . . . आज मन खिन्न है, इस परिवर्तन के तौर-तरीक़ों पर . . .।
वीणा विज ‘उदित’
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