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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–009

एक-एक कर सब साथ चलते गए और कारवां बनता गया। यह भाइयों-बहनों और उनके बच्चों का जमघट जब कटनी के स्टेशन पर पहुँचा तो सब विस्फारित नेत्रों से वहाँ की बेरौनक़ी देख रहे थे कि किस उजाड़ में आ पहुँचे हैं। स्टेशन पर एक-दो औरतें दिखीं जिन्होंने बदन पर केवल एक ओढ़नी सी लपेटी हुईं थीं। न ब्लाऊज़ न पेटीकोट। हाँ आधे घूँघट में अवश्य थीं। मर्दों ने कमर में धोती को लँगोट जैसे पहना हुआ था। पंजाबियों के लिए यह अजूबा था। (ये ही वहाँ के गाँवों में मूल निवासियों का पहनावा है।) 

ख़ैर, जीवन, ड्राइवर, स्टेशन-वैगन लेकर स्टेशन पर पहुँचा हुआ था। क्योंकि दिल्ली से तार भेज दी गई थी आने की। सामान तो किसी के पास कुछ ख़ास था नहीं, फिर भी था। इसलिए गाड़ी में समान के साथ कुछ बुज़ुर्ग और बच्चे भी बैठ गए थे। बाक़ी, अठारह-बीस लोगों का कारवां पैदल मार्च करता कमानिया-गेट से निकल कर सीधा चलता सिल्वर टॉकीज़ के पास जाकर रुका (तब सिल्वर टॉकीज़ नहीं बनी थी)। 

इतने ढेर लोगों के रहने का इंतज़ाम, खाना-पीना सभी खड़े पैर किया गया। ऊपर के भी चारों फ़्लैट ले लिए गए थे पहले ही। पापा ने लकड़ी की खाटें और बिस्तर मँगवाए, बाज़ार से। तब केवल चूल्हे पर खाना पकाया जाता था। कुछ महीनों तक एक ही रसोई में सारा-सारा दिन खाना ही बनता रहता था। बड़े-बड़े बर्तनों में सालण (रसे वाली सब्ज़ी) बनतीं थीं। 

मुझे पता ही नहीं चलता था कि किसकी मम्मी और पापा कौन है? तब सात-आठ बच्चों का होना आम चलन था। ताया जी की दो पोतियाँ जवान थीं। 14-12 वर्ष की रही होंगी तोषी-घेलो और ताई जी चार फुट की गुड़िया लगती थीं। गोरा-चिट्टा रंग और सन से सफ़ेद घुँघराले बाल। सिर पर पल्ला ओढ़े चूल्हे के सामने बैठीं रोटियाँ सेंकतीं रहतीं थीं। घर में सात-आठ औरतें और आ गईं थीं। काम भी करतीं और हँसी-ठिठोली भी ख़ूब करतीं थीं आपस में। 

सूरज ढलने से पूर्व साढ़े चार बजे “पछईं  होती थी। यानी कि सब औरतों के हाथ में “छाबी” (टोकरी) से निकली दोपहर की बनी एक रोटी होती थी और उस पर सिंधी हलवाई की दुकान के पकौड़े और समोसे-चटनी रखकर गोलाई में बैठकर सब खातीं थीं। शाम को चाय पीने का तब रिवाज़ ही नहीं था। इस सारी प्रक्रिया की ‘हैड’ तोषी और घेलो बहनजी होतीं थीं। बड़ी बुआ की पोती “इंदर” और मैं वहाँ सबसे छोटी थीं। पर हमें उनमें मज़ा बहुत आता था चाहे हम आधा ही खा पातीं थीं। मुझे सामूहिक परिवार में जीना बहुत भा रहा था। मम्मी भी बेहद ख़ुश थीं। मेरा जन्मदिन था, तब ढेर सारा हलुआ बनाया गया था और मिठाइयाँ मँगवाईं गईं थीं। तब केक का और हैप्पी बर्थडे गाने का कोई चलन नहीं था। 

मेरी माँ भी अब सिर पर पल्लू करतीं थीं। सब भाभियाँ घर में आदमियों के आते ही सिर ढक लेती थीं। मम्मी दाहिने तरफ़ के घूँघट का पल्लू ज़रा सा दाँतों में दबा लेती थीं, क्या स्टाइलिश लगतीं थी! सब से हटकर। 

आर्मी कैंटीन में इंग्लैंड से बहुत माल आता था। पापा ही इंचार्ज थे, सो चीज़, प्रॉन्ज़, ओट्स आदि के टिन की घर में भरमार रहती थी। हमारे इम्पोर्टेड हेयर क्लिप्स की काँच की बरनी भरी रहती थी। उन्हीं दिनों बापू गाँधी की हत्या हो गई। उनकी क्रिया के दिन 12 फरवरी को हमारी एक और बहन का जन्म हुआ। वह अच्छी मोटी थी। पापा कटनी में नहीं थे। जब वे लौटे तो दादी उसे लिए बैठक में बैठीं थीं। उन्होंने आते ही पूछा, 
 “कौन आया है? बहुत प्यारी बेबी है।”

इस बात पर दादी ने कहा, “आप ले लो। आप की ही है।” इस पर वे बोले कि वो तो सिर्फ़ पूछ रहे थे। बस फिर क्या था, पापा से मज़ाक होने लगा। सब छेड़ रहे थे, पर वे उसे गोद में लेकर ख़ुश थे। मैं भी मम्मी के पास छोटा बेबी देखकर ख़ुश पर हैरत में थी। “भगवान जी ने दिया है बेबी”। यह बात हम मान लेते थे। लल्लू थे हम लोग!! आज की जेनरेशन (पीढ़ी) से ऐसे बोल कर देखो, वो आपको पाठ पढ़ा देंगे:)! 

परिवार बढ़ गया था, चाचा जी आर्मी में थे, वो छुट्टी लेकर चाची व बेटे सुभाष के साथ आ रहे थे। सो हम उस रौनक़ से दूर नई बस्ती में बड़े घर में चले गए थे। लेकिन उधर हर रोज़ जाते थे रौनक़ में खेलने। 

छोटी बुआ ”बीना” में रहतीं थीं। फूफा थानेदार थे वहाँ के। तार आई कि डाका पड़ गया है। पापा पहुँचे तो देखा कि डाकू सारा घर ख़ाली कर गए थे। वे पहली गाड़ी से उनको साथ लेकर कटनी आ गए थे। उन्होंने बताया कि गर्मियों में सब बाहर मंजे (खाट) बिछाए सो रहे थे, डाकुओं ने सब को कुछ सुंघाकर बेहोश कर दिया। फिर ट्रकों में सामान भर कर ले गए। यहाँ तक कि पानी पीने के लिए एक गिलास तक नहीं छोड़ गए थे। उनके लिए भी पापा ने घर किराए पर लिया और कपड़ा-लत्ता, बर्तन, घर का सामान मुहैया कराया। अब सब के लिए कोई न कोई काम ढूँढ़ना था! दुकानें पता कर रहे थे। अचानक ताया जी की मृत्यु हो गई। मुझे याद है मैं बहुत डर गई थी देखकर कि औरतें गोल घेरे में खड़े होकर, मुँह पर पूरा लम्बा घूँघट डालकर छाती पीट-पीट कर ज़ोर-ज़ोर से रो रहीं थीं। इसे ही “स्यापा” डालना कहते हैं। (जो चुटकुलों में भी हम सुनते हैं।) दो-तीन औरतें “वैन” डालतीं थीं। यानी कि मरने वाले के बारे में कुछ न कुछ बोलकर और रुलातीं थीं। (रूदाली टाईप) पापा का बहुत रुवाब था। उनको भी यह सब पसंद नहीं आया तो उन्होंने डाँट कर सब को बैठा दिया था। 

“तबूला-रासा” पर उकरी ये छुट-पुट घटनाएँ आज भी मेरे ज़हन में कल जैसे बीते अफ़साने हैं। जिन अपनों के लिए पापा दिन-रात लगे रहते थे, उन्हीं अपनों ने क्या सिला दिया वक़्त-वक़्त पर – यह फिर! 

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