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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–36

 

आज मैं आपको अपने सीधे-साधे जीवन के एक अजीब मोड़ के बारे में बताती हूँ, जिसकी स्मृति मुझे ऊपर वाले के करिश्मों पर हैरान कर देती है—

बात उन दिनों की है जब मेरे बच्चे अभी प्राइमरी स्कूल में थे। एपीजे स्कूल में मैं कभी-कभी अपने शर्तों पर पढ़ाने जाती थी। एपीजे स्कूल में टीचर्स को कोई ना कोई एक एक्टिविटी भी बच्चों को सिखानी होती थी। मैं भारतनाट्यम नृत्य सिखाने की क्लास लेती थी लास्ट पीरियड में। 

एक दिन मैं स्टेज पर भरतनाट्यम के स्टेप्स करवा रही थी और मेरे सामने हॉल में ढेरों लड़कियाँ थीं। मेरी सरसरी नज़र पड़ी—बाहर बरांडे में कुछ लोग स्कूल विज़िट करने के लिए आए हुए थे। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। मुझे क्या मालूम था मेरे जीवन का एक नवीन अध्याय यहीं से प्रारंभ होने वाला है। पता चला, वे दूरदर्शन वाले थे।

हम बच्चों को लेकर मई में कश्मीर जा चुके थे। पीछे से घर में दो-चार बार फोन आया, “वीना जी हैं? तो बीजी ने मना कर दिया, कि नहीं है। 1983 में रवि जी कश्मीर में थे और मैं वहाँ से बच्चों के साथ जालंधर आ गई थी जुलाई में स्कूल खुलने पर क्योंकि मोहित अब मिडिल स्कूल में आ गया था। काफ़ी पढ़ाई थी। रवि जी भी महीने में एकाध चक्कर जालंधर का लगा ही लेते थे। एक दिन फोन आया, “जी मैं दूरदर्शन केंद्र से बोल रहा हूँ। वीना जी हैं? 

मैंने हैरानी से बोला, “जी हाँ बोलिये मैं वीना बोल रही हूँ।”

“डायरेक्टर सुरेंद्र साहनी जी से बात करिए।” 

सुरेंद्र साहनी जी बोले, “वीना जी हम आपको पिछले 3 महीनों से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं। हम एक विशेष नाटक नटसम्राट के लिए आपको एक किरदार में लेना चाहते है।” सुनकर मुझे हैरानगी हुई कि इनको मेरे बारे में कैसे पता चला। शायद, प्रिंसिपल दुबे ने बात की हो! ख़ैर, पर उस पल ‌मैं क्या जवाब देती? (मुझे एक बार टीवी एनाउंसर के लिए प्रपोज़ल आया था तो बीजी और मेरे देवर ने मना कर दिया था!) सो, 
बोली, “मेरे पति अगले महीने कश्मीर से आएँगे उनसे पूछ कर बताऊँगी! अभी मैं जवाब देने में समर्थ नहीं हूँ। कृपया क्षमा करें।”

“जल्दी करिएगा हम इंतज़ार कर रहे हैं।”

कुछ दिनों बाद रवि जी के आने पर मैंने बात की। इस पर उन्होंने यूँ ही घर में बात छेड़ी तो बीजी ने एकदम मना कर दिया। आधार छोटे बेटे का लिया कि वह भी मना करता था कि टीवी सेंटर में अच्छे घर की बहू-बेटियाँ काम नहीं करती हैं। मैंने रवि जी की ओर हताशा से देखा तो वह बोले, “चलो चलते हैं एक बार देख तो आएँ! माहौल ठीक ना लगा, तो वापस आ जाएँगे।”

वह युग अभी पुरातनता की बंदिशों से मुक्त नहीं हुआ था। उस पर तुर्रा था कि इस क़दम को उठाने से कहीं परिवार में विघटन ना हो जाए। अभी-अभी ऐसे युग का श्रीगणेश हुआ था कि पुरुष सत्ता और उसके वर्चस्व को स्त्री चुनौती दे रही थी। पुरुष को यह पच नहीं रहा था। ऐसे समय में मेरे पतिदेव ने मेरी उम्मीद का दामन थामा तो मेरे आंतरिक संघर्ष को एक उम्मीद की किरण दिखाई दी। और वह कुहासा छँटता दिखा। यह पारिवारिक परंपरा से हटकर सुझाव था। वैसे, समय अवश्य बदल गया था। किन्तु मनुष्य की मानसिकता अभी रूढ़िवादी ही थी। 

मैंने दूरदर्शन केंद्र फोन करके पूछा कि साथ में क्या लेकर आना है तो उन्होंने मुझे ड्रेस कोड दे दिया। हम दोनों अगले दिन दोपहर को वहाँ सुरेंद्र साहनी जी के पास दूरदर्शन केंद्र पहुँच गए। मैं वर्णन नहीं कर सकती कि उस पल मेरे भीतर सागर की तलहटी जैसा कोलाहल था और ऊपर सतह पर गहन गंभीरता थी। मेरे शांत और मुस्कुराते मुख मंडल से उस हलचल को कोई नहीं समझ सकता था। 

भीतर बहुत आदर सहित उन्होंने हमारा स्वागत किया और मुझे मेकअप के लिए किसी के साथ मेकअप रूम में भेज दिया। मैं पूरी ड्रेस अप होकर जब बाहर आई तो स्टुडियो नंबर एक में मुझे ले जाया गया। एक पेपर पर कुछ डायलॉग्स थे जिन्हें मैंने पढ़ा और पढ़ते ही याद कर लिया। सुरेंद्र साहनी उस के डायरेक्टर थे। उन्होंने मुझे पूरा सीन समझाया और मैंने समझ लिया। 

मेरा किरदार विनोद धीर की पत्नी के रूप में था जो नटसम्राट (हेमराज शर्मा) से बड़ी शान दिखाते तेवर में बातें करती है। सीन पहली टेक में ही ओ.के. हो गया। सुरेंद्र साहनी जी ने तालियाँ बजा दीं। उनके चेहरे पर प्रशंसा का भाव था। उन्होंने मुझसे एक पेपर साइन करवाया और कहा, “वीना जी, आज आपका टीवी ऑडिशन हो गया है।आप आज, नहीं अभी से हमारे दूरदर्शन की कलाकार बन गई हैं बधाई हो।”

मुझे मेरे कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। बचपन से मैं नाटकों में ढेरों किरदार निभा चुकी थी और ढेरों इनाम जीत चुकी थी। लेकिन वह अनुभव आज मुझे इस मुक़ाम तक ले आएगा; यह कभी ख़्वाबो ख़्याल में नहीं था। मुझे पता ही नहीं चला कि मैंने कोई रोल किया है। यह खुली आँखों से देखे ख़्वाब की ताबीर लग रही थी। 

वैसे जालंधर में दूरदर्शन का उद्धघाटन 1979 की बैसाखी पर ही हुआ था। पंजाब में नई चेतना जाग रही थी। उसी की एक मशाल मेरे हाथ में भी थमा दी गई थी। घर में अवरोध के चलते मैंने घर में सब का नज़रिया भी बदल दिया था कि दूर दर्शन पर अच्छे घरों की बहू बेटियाँ काम करती हैं। उनकी बहुत इज़्ज़त होती है सब जगह। अभी नए-नए लड़ीवार नाटक हिंदी व पंजाबी में बन रहे थे। मैं भी उसी शृंखला से जुड़ गई थी। 

इतिहास गवाह है कि समाज में जब भी कोई नया क़दम उठता है तो समाज उसे हिक़ारत की दृष्टि से ही देखता है। तब आवश्यकता होती है कुछ ठोस और दृढ़ इरादे वालों की, जो बढ़कर उस क़दम से क़दम मिलाएँ और यह वही दौर था। मेरे पति का साथ मेरा हौसला था। फिर तो मेरे भीतर का कलाकार जाग उठा। बचपन से कला का कीड़ा मेरे भीतर रेंग रहा था। टीवी के साथ-साथ थिएटर भी किया, फ़िल्में भी, आकाशवाणी पर भी ढेरों नाटक व अपनी लिखी कविताएँ, कहानियाँ, नाटक भी किए। पूरी तरह कला से सराबोर हो गई थी ज़िन्दगी। 

साहित्य लेखन भी संग-संग चलता रहा। 

पंजाब से रूबरू तो मैं अपने टीवी नाटकों के द्वारा ही हुई। पंजाब की संस्कृति को समझ रही थी क्योंकि हम पंजाब के गाँवों में जाकर शूटिंग करते थे। हमारे घर का वातावरण पंजाबी था, लेकिन मैंने पंजाब के गाँव पहले नहीं देखे थे। माझा, मालवा और दोआबा—इनकी भाषाओं में अंतर मैंने नाटकों की स्क्रिप्ट से ही समझा। 

इसके बाद जो यह सिलसिला चला तो 2000 तक इसने थमने का नाम नहीं लिया। क्योंकि इसके बाद टीवी प्रोडक्शन बंद हो गई थीं। मैंने फिर मुड़ कर पीछे नहीं देखा। प्राइवेट प्रोडक्शन में भी काम किया। अगले ही दिन प्रोड्यूसर बलदेव सलहोत्रा का नाटक मेहँदी वाले हाथ पर मैं साइन कर रही थी। बॉलीवुड की एक्ट्रेस उपासना सिंह, प्रमोद माउथो, दीप ढिल्लों जालंधर दूरदर्शन में काम करती थे हमारे साथ। सिने जगत के कई कलाकार जालंधर दूरदर्शन से मुंबई पहुँच गए हैं। लेकिन मेरे समक्ष छोटे-छोटे बच्चों की गृहस्थी सर्वोपरि थी। 

1983 में मैंने स्कूल छोड़ दिया था। अब सम्भव नहीं था स्कूल जाना। दूरदर्शन में भी 4-5 रिहर्सल के बाद फ़ाइनल शूटिंग होती है तो वहाँ भी जाना होता था। जीवन व्यस्त हो गया था। रवि जी ने एक सीख दी थी मुझे जिसे मैंने पल्ले बाँध लिया था। 

“कभी किसी के साथ मोटरसाइकिल या स्कूटर पर बैठकर घर नहीं आना। यदि मैं यहाँ नहीं हूँ तो दूरदर्शन की कार, यूनिट के साथ या रिक्शा में घर आना।” और मैंने सदा इस बात का ध्यान रखा, जिससे सब के स्नेह और आदर की पात्र बनी रही। 

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