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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–40

 

पता ही नहीं चला जीवन वृत्तांत सुनाते-सुनाते आज 40 एपिसोड पर पहुँच गई हूँ। अभी तो बहुत कुछ है आप सब से साझा करने को! आपकी लत लग गई है मुझे!! ठहरे जल की भाँति मैंने काई नहीं जमाई अपने पर, सब कुछ उड़ेल के रख दिया है आपके समक्ष। निरंतर बह रहा है अब तो यह पानी का चश्मा (झरना)! 

(आज वृत्तांत लंबा है। आधा सुनाऊँगी, तो आपका मज़ा मारा जाएगा। इसलिए पूरा ही सुनिए . . .) 

उग्रवाद (Militancy): 

सितंबर 1989 की बात है, बच्चों की पढ़ाई के कारण मैं जालंधर में थी कि अचानक रवि जी आ गए। पता लगा कि कश्मीर में बलवा हो गया है। कश्मीरी पंडित घाटी से बाहर भाग रहे हैं। 

मस्जिदों में लाउडस्पीकरों पर दिन-रात शोर हो रहा है कि इन पंडितों को पकड़ो, काट दो, लूट लो। कश्मीर हमारा है! और पंडित लोग रातों-रात अपनी बीवी-बच्चों को लेकर कारों, ट्रकों और टैक्सियों में जम्मू की ओर जा रहे हैं। घर बार सब छोड़ दिया है। केवल जान बचाकर भाग रहे हैं। 

यह सब सुनते हुए मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए। बोले, “हालात बेक़ाबू हो गए हैं। कश्मीर जन्नत था इस वक़्त जहन्नुम बन गया है!” जेकेएलएफ ( Jammu Kashmir liberation front) और  हिज्बुल मुजाहिदीन (Hizbul Mujahideen) यह दोनों पार्टियाँ मिलिटेंट्स की बहुत क्रियाशील हो गई थीं। राजनैतिक माहौल तो 1987 में यासीन मलिक की जीत से बिगड़ गया था क्योंकि नेशनल कॉन्फ़्रेंस के फारुख़ अब्दुल्ला इसे अपनी बड़ी हार मान रहे थे। 

पाकिस्तान से ट्रकों में भरकर असला यानी गोला-बारूद और पिस्तौलें ‘एके47’ वादी में आ चुका था और लोगों में छुप-छुप कर बाँटा जा रहा था। कश्मीर यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर को 4 दिनों तक भीषण यातनाएँ देकर चौथे दिन जब गोलियों से उड़ाया गया, तो दहशत का माहौल बनाया गया। 

जिससे नवंबर 1989 से ही लोग वादी से पलायन कर गए थे। बात यहीं पर नहीं रुकी। कश्मीरी मुस्लिमों को भी मुसीबत का सामना करना पड़ा था। उनके जवान बेटों को ज़बरदस्ती उठवा कर उग्रवादी बनाया जा रहा था। बॉर्डर पार से उग्रवाद तेज़ी से कश्मीर में फैल रहा था। पीओके में ट्रेनिंग कैंप चलाए जा रहे थे। 

हमारे एक कश्मीरी मुसलमान दोस्त ने अपना बेटा हमारे पास जालंधर भेज दिया था कि रवि जी इसे बचा लें। हमें तभी इन हक़ीक़तों का ज्ञान हुआ। एक बहुत नामी मुसलमान डॉक्टर हमारे दोस्त थे श्रीनगर में, वे अपनी दोनों बेटियों को लेकर रातों-रात वहाँ से निकलकर दिल्ली चले गए थे कार में क्योंकि जब उनके पड़ोसी की बेटी को उग्रवादी उठाकर ले गए तो उनको भी होश आया। बेशक वह मुसलमान थे लेकिन बेटियाँ तो थीं, जो महफ़ूज़ नहीं थीं। उन पर भी क़हर आया था। बाद में ख़बर मिली कि वह बेटियों को लेकर विदेश चले गए थे। 

वहशीपन का नंगा नाच हो रहा था कश्मीर में और यह सब कुछ लीडरों की रज़ामंदी से हो रहा था। 

फारुख़ अब्दुल्ला तो इंग्लैंड भाग गए थे। कश्मीरी में ये अल्फाज़ कहकर . . . 

“मल्कने मौत हुई पागल गौमुद”

अर्थात्‌ मौत का फ़रिश्ता पागल हो गया है इसलिए मैं भाग रहा हूँ। जबकि सब कुछ उसका अपना ही करा-धरा था। हमने अब कश्मीर वापस क्या जाना था चुपचाप घर में ही बैठ गए। 

उग्रवाद में कश्मीर यात्रा . . . 
 
मई 1991 मैं रवि जी की पहचान के पहलगाम बाज़ार के मुसलमान दोस्त प्रिंस जरनल स्टोर के मालिक जालंधर हमारे पास आए कि उन्हें जालंधर से मिनी बस बनवानी है क्योंकि जालंधर में बस बनाने का काम होता है। वह हमारे पास एक हफ़्ता रहे और जब मिनी बस पूरी बन गई तो वे अनंतनाग अपने घर जाने के लिए बस लेकर निकलने लगे तो रवि जी ने कहा कि वह भी साथ जाएँगे। 

इस बात पर प्रिंस डर गया कि अभी तो वहाँ बहुत गड़बड़ है ना मालूम आपको देखकर वह मिलिटेंट्स क्या करेंगे। प्रिंस ने कहा, “रवि जी वहाँ तो ऐरे-ग़ैरे के हाथ में एके47 राइफ़ल है। कहीं किसी ने बाहर वाला देख कर चला दी तो . . .? या मुझे भी मुख़बिर समझ के मार दिया तो? तो क्या किया जाए? ‌आप ही बताएँ, मुझे तो बहुत डर लग रहा है।” इतनी बात सुनते ही मैंने कहा कि अकेले नहीं जाएँगे हम दोनों आपके साथ चलेंगे। वह बेचारा चुप कर गया। 

हम दोनों पति पत्नी ने कश्मीरी लोगों की तरह सलवार क़मीज़ पहन लिए और पैरों में रवि जी ने मर्दाना सैंडल पहन ली। मैंने वी शेप चप्पल रबड़ की डाली। क्योंकि मैं कश्मीरी लोगों के बीच में रहती थी तो उनके जैसी गोल बालियाँ कान में डाल लीं। सिर पर दुपट्टा भी कश्मीरी स्टाइल से कर लिया था। 

सुबह सवेरे प्रिंस के साथ हम दोनों निकल पड़े थे अपने अजीबो-ग़रीब सफ़र पर। बार-बार ख़्याल आता था कि यदि हम लौट ना पाए तो . . .? इसलिए बच्चों को आराम से सब समझाया बैंकों के विषय में और शुभचिंतकों के विषय में भी। क्योंकि बच्चों को नहीं पता होता कि कौन अपना है और कौन सिर्फ़ दिखावा है। वैसे तो हर बात अपने अनुभव से ही समझ आती है। बीजी का पूरा ध्यान रखने का कहा। मोहित को कहा कि अब तेरी ज़िम्मेवारी है। रोहित को भी समझाया कि दोनों भाई साथ रहना, जब तक हम लौट कर नहीं आते। वैसे दोनों बेटे समझदार निकले। 

अंतर्मन में संघर्ष और फिर भी मुस्कुराता हुआ चेहरा। जीवन जीने के लिए श्रेष्ठ अभिनय मुखौटों से ही किया जाता है। जो हम कर रहे थे। वैसे रवि जी के भीतर एक कीड़ा है जो कश्मीर जाए बिना मानता ही नहीं। अब जब वहाँ उग्रवाद की आग बरस रही थी, अपनी आहुति डालने निकल पड़े थे हम भरी दुपहरी में। साँझ के धुँधलके में हम जम्मू पहुँचे। 

वहाँ रवि जी के बाल सखा आईजी पुलिस श्री राम प्रकाश व शैलजा के घर। टोबा टेक सिंग में (जो अब पाकिस्तान में है) रवि जी और रामप्रकाश जी एक ही स्कूल में वहाँ थे। राम प्रकाश जी ने विभाजन की त्रासदी झेली थी फिर भी हौसले बुलंद थे। ख़ैर, उनसे ढेर सारी हिदायतों को सुनते हुए . . . रात उनके पास बिता कर अगली सुबह को हमने आगे का सफ़र तय करना था। सोने के दो कंगन मैंने दोनों हाथों में पहने हुए थे। सोचा क्या करना है इन्हें पहनकर सो उन्हें उतार कर एक लिफ़ाफ़े में रखा व साथ में मोहित के नाम एक छोटा सा पत्र लिखकर उस में डाला। फिर शैलजा को समझा कर कहा, “यदि हम ना लौटे तो यह लिफ़ाफ़ा हमारे बड़े बेटे को दे देना।” 

भीतर ही भीतर मैं टूट रही थी। कुछ तो होना ही है। कारण स्पष्ट था कि राम प्रकाश जी से जो असल हालात पर चर्चा हुई थी। उसी के फलस्वरूप ख़तरा लगा था कि हम भूखे शेर के मुँह में हाथ डालने जा रहे हैं। आख़िर वो उस प्रांत के इंसपेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस थे। राम प्रकाश जी पक्के शिव भक्त हैं। सो, सुबह शिव भोले का प्रसाद खिला कर उन्होंने हमारी विदायगी करी। ख़ाली बस में अब हम तीनों विचारों की भीड़ भीतर सँजोए बढ़े चले जा रहे थे। 

प्रिंस ड्राइविंग कर रहा था और हमारी बोलती बंद थी। मानसिक उधेड़बुन में गुम हम सब चुप बैठे थे। कश्मीर का वही रास्ता था, जहाँ हम गाने गाते हुए सफ़र करते थे। आज यह सब मन को लुभा नहीं रहा था। बाह्य अभिव्यक्ति आतंरिक मन: स्थिति पर निर्भर करती है! ‘पीड़ा’ पहुँच कर राजमा-चावल भी चुपचाप थोड़े से खाए और अगले सफ़र के लिए निकल पड़े थे क्योंकि वैसे तो भविष्य सदा ही अनिश्चित होता है लेकिन यहाँ उसके अंधकारमय होने के अधिक अंदेशे थे। 

सफ़र बेहद लंबा लग रहा था। जवाहर टनल पार करते ही साँझ ढलने को थी। उसके आगे अनंतनाग तक पहुँचते तक रात की काली चादर ने हमें ढँक लिया था फिर भी प्रिंस ने हालात का जायज़ा लेते हुए हमें कहा कि आप लोग लेट जाएँ और हम दोनों एक-एक सीट पर लेट गए। तो वे अपने मोहल्ले में दाख़िल हुआ। 

उसने समझाया कि मैं घर के दरवाज़े पर गाड़ी का दरवाज़ा रोकूँगा। आप बिना दिखे, झुक कर भीतर हो जाना। यह बहुत ही “सीक्रेट मिशन” था। कोई भी हिंदू वहाँ दिख नहीं सकता था। वादी से सारे कश्मीरी पंडित भगा दिए गए थे कुछ ही दिनों में। असल में उनका मानना था कि अब कश्मीर आज़ाद हो जाएगा। 

वह मुश्किल पल आ पहुँचा था। मन ही मन अपने पीर मनाते हुए हम नई बस के दरवाज़े के साथ नीचे की ओर सीढ़ी पर हो गए थे। जैसे ही उसने अपनी नई मिनी बस खड़ी की, मोहल्ले के दो-तीन लड़के आकर उससे बातचीत करने लगे। इसी बीच धीरे से थोड़ा दरवाज़ा खोलकर हम अंदर की ओर रेंग गए थे। कि कहीं पीछे कोई राक्षस हमें ना खींच ले। एक पल को धड़कनें थम गई थीं। 

दीवार के साथ चिपक-चिपक कर हम भीतर की ओर खिसक रहे थे, तो परिवार के लोग हमें और भीतर घर के गर्भ में रसोई में जहाँ लकड़ियों का चूल्हा जल रहा था, वहाँ ले गए। कश्मीर में बिजली का यह हाल है कि वहाँ बल्ब की रोशनी इतनी कम होती है जैसे कि मानो एक दीया जल रहा हो। इसके लिए हम लोगों को स्टेबेलाइज़र यूज़  (stabilizer use) करना पड़ता था लेकिन आज यह रोशनी वरदान लग रही थी। प्रिंस के माँ-बाप और भाई बहन, पत्नी सभी थे वहाँ पर। प्रिंस की माँ ने मुझे बड़े प्यार से जफ्फी डाली। तब जाकर कहीं दिल की धड़कनें कुछ संभलीं। 

रसोई के साथ वाले कमरे से खिड़की के बाहर नज़र गई तो देखा एके47 गन लिए कोई पहरा दे रहा था। कभी इस ओर तो कभी दूसरी ओर वह घूम रहा था। अभी तक तो गन का चर्चा भर सुना था, अब खुली आँखों से उसे देख रहे थे। रात तो आँखों में कटी सुबह के इंतज़ार में! पौ फटते ही हम पुनः वैसे ही लेट कर बस में चढ़े और बस की सीट पर जाकर फिर उसी तरह लेट गए। फटाफट प्रिंस आया और बस लेकर चल पड़ा पहलगाम की ओर बिना रुके। क्योंकि कश्मीर में चलती बस को हाथ देकर रोकने का बहुत रिवाज़ है। 

मिलिटेंसी में पहलगाम
 
ज्यूँ-ज्यूँ हम पहलगाम के नज़दीक पहुँच रहे थे, हमारे दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी। कि ना मालूम वहाँ क्या हो रहा होगा! उग्रवादी कहीं सामने ही ना मिल जाएँ! पहुँच कर देखा प्रिंस जनरल स्टोर बंद था। बल्कि सारा बाज़ार ही बंद था। कहीं कोई खिड़की भी नहीं खुली थी। दुकानों के शटर्स के ऊपर सफ़ेद पैंट से पूरी शटर की लंबाई का V पैंट किया हुआ था। अर्थात्‌ VICTORY!!! 

प्रिंस हमको अपने स्टोर पर ही ले गया। हम जैसे ही बस से उतरे हमें आया देख कर कुछ लोग जो बाज़ार में यूँ ही घूम रहे थे वह हमारे पास आ गए और ख़ुशी ज़ाहिर करने लगे, “रईस साहब आप आ गया!! बहुत अच्छा लग रहा है। (रवि जी को वे लोग रईस ही कहते थे) थोड़ी ही देर में हमारा नौकर बशीरा भागता हुआ आता दिखा जिसके पास चाबी थी हमारी दुकान की। वह आकर रवि जी से लिपट गया। उसके आँसू बह रहे थे। उसने चाबी ला कर दुकान का शटर खोला। 

भीतर जाते हुए मेरे पैर काँप रहे थे। कुछ अधिक ही भावुक हो गई थी मैं क्योंकि इसी भावुकता के आवेग में हमने सारा रास्ता काटा था। नीचे वाली सीढ़ी पर बैठकर ही मैं रोना शुरू हो गई थी। रवि जी एकदम सीढ़ियाँ चढ़ गए थे लेकिन मैं कमज़ोर निकली। मेरी हिचकियाँ बंद नहीं हो रही थीं और सारा शरीर काँप रहा था। मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी। पुरुष और महिला में यही अंतर है शायद!! रवि जी नीचे आए और पकड़कर मुझे ऊपर ले गए। 

पहलगाम में उग्रवादियों से भेंट . . . 

ऊपर पहुँचते ही लेफ़्ट हैंड पर रसोई थी। देखती हूँ कि उसकी दीवार को सेंध, तो क्या लगी है? दीवार ही ग़ायब है और साथ ही नदारद है घर का सारा सामान। केवल फ़र्नीचर रखा था वहीं पर। यानी कि सामने शटर बंद था दुकान का और पीछे से जो जी चाहे ले जाओ। कोई पूछने वाला नहीं था। हम दोनों एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। पर ज़ुबान खोलते हुए डर लग रहा था। क्योंकि ना मालूम वहाँ पर दीवारों के कान हों। तभी नीचे से बशीरा बुलाने आया। ‌ 

फुसफुसा कर बोला, “पापा जी, हिज्बुल मुजाहिदीन पार्टी वाले आए हैं।” मैं डर गई, रवि जी बोले, “फ़िक्र मत कर। मैं अभी आया,”और उनसे मिलने चले गए। मुझे सकते की हालत में छोड़कर। 

ऊपर पहले कमरे में जाकर मैंने बंद खिड़की के शीशे के कोने से नीचे सड़क पर देखा—एक खुली जीप आकर खड़ी थी! जीप में हथियारों से लैस दो ऊँचे क़द के उग्रवादी हाथ में। एके47 राइफ़ल थामे आगे बैठे थे और चार उग्रवादी राइफ़लें थामे पीछे खड़े थे। ड्राइविंग सीट के साथ वाला उठकर रवि जी के पास आया। और बड़े उत्साह से उसने रवि जी से हाथ मिलाया, “साहब कैसा है?” मैंने देखा वह तो हमारा प्लंबर था! अब उसके हाथ में गन थी। वह लीडर बन गया था। 

“साहब डर का कोई बात नहीं। आपका कोई नुक़्सान हुआ है तो हमको बोलना। पूरी लिस्ट बना कर देना। एक-एक सामान वापस आएगा। हम आपका ख़्याल रखेगा। आप आया है। आराम से रहो।”

रवि जी ने मुस्कुराकर कहा, “सब महफ़ूज़ है, कुछ नहीं गया। शुक्रिया बहुत। हम तो बस घूमने आए हैं।” इस पर वे चले गए। 

थोड़ी देर में आर के स्टुडियो का हमारा पुराना एम्पलाई सलामा आया और उसने कहा कि आप लोग रात को यहाँ नहीं ठहरेंगे। आप लोग मेरे घर चलेंगे। अभी आप बैठो। मैं शाम को आऊँगा आपको लेने। मैं अलमारी खोलकर बच्चों का टैंट ढूँढ़ने लगी। क्योंकि चलने से पहले मोहित ने कहा था मामा वो इम्पोर्टेड टैंट ला सको तो ज़रूर ले आना। टैंट छोटे से बैग में वैसे ही पड़ा था लेकिन रवि जी ने कहा कुछ भी मत उठाना। हम जैसे आए थे वैसे ही जाएँगे। मैं मन मसोसकर चुप रह गई। 

तभी नीचे से आवाज़ आई, “ऊपर कौन है?” रवि जी नीचे उतर गए। देखा सामने जीकेएलएफ़ (Jammu Kashmir liberation force) वाले खड़े थे। उनका लीडर बोला, “रईस साहब, आप कैसा है? आप हमारा मेहमान है। कोई परेशानी तो नहीं? आप इधर बैठो हम आपका पूरा ध्यान रखेगा। हम रात को इधर ही बैठेगा। कोई आपको कुछ नहीं ‌कहेगा।”

वे लोग रवि जी से हाथ मिला कर चले गए थे। मैं आधी सीढ़ियों में खड़ी सब सुन रही थी। उनके जाते ही मेरी जान में जान आई। 

शाम को सलामा के साथ हम उसके घर गाँव में चले गए और थोड़ा-सा खाना खा कर, रात को उनके गेस्ट हाउस में सोने के लिए वे हमें ले गए। सारी रात आँखों में ही कटी। लगता था बाहर कोई है। सुबह पता चला कि वे दोनों भाई रात भर बारी-बारी हमारा पहरा देते रहे। हमारा मन उन के प्रति कृतज्ञता से भर उठा था। 

दूसरे दिन तैयार होकर जब हम बाज़ार के लिए निकले तो पहलगाम गाँव से मर्दों का पूरा क़ाफ़िला हमारे पीछे-पीछे चल रहा था पहलगाम बाज़ार के लिए। रास्ते भर लोग रवि जी से बातें करते रहे और अपनापन जताते रहे। 

जब हम घर पहुँचे तो सलामा आया। उसे मैंने कहा कि आज मेरा अपने घर में सोने का मन है। तो उसने हिदायत दी कि आप लोग शाम को लाईट मत जलाना। अपने बेडरूम में कैंडल जलानी हो, तो अंदर जला लेना। जिस से बाहर पता ना लगे कि भीतर कोई है। 

मन में घबराहट तो थी ही। लेकिन ईश्वर पर भरोसा था। नींद आँखों से कोसों दूर थी। रात भर जाग कर हम दोनों धीरे-धीरे बातें करते रहे। सूर्य की रश्मियाँ अभी पर्वतों के पीछे ही थीं कि रवि जी ने अपनी ‘होंडा सिटी’ की चाबियाँ उठाईं और पिछले दरवाज़े से निकल कर पीछे स्थित होटल माउंट व्यू में खड़ी अपनी कार को स्टार्ट किया और हम लोग चुपचाप वहाँ से निकल पड़े वापसी के लिए। 

जून का महीना पहलगाम में पहाड़ों की चोटिया बर्फ़ से ढंकी हुई थीं। ठंड काफ़ी थी लेकिन हमें होश नहीं था। हमें कभी घबराहट के मारे पसीने भी आ रहे थे। जैसी मनःस्थितियाँ होती हैं, शायद मौसम भी वैसा ही लगने लग जाता है। 1991में सैल फोन तो होते नहीं थे। लेकिन दिल चाहता था बच्चों से बात हो जाए। जोकि मुमकिन नहीं लग रहा था। 

हम दोनों शाम को जम्मू पहुँचे। राम प्रकाश भाई साहब और शैलजा हम दोनों को देखकर बहुत ख़ुश हुए और हमारा लिफ़ाफ़ा हमें वापस किया। वहाँ फोन पर बच्चों से बात की जालंधर और रात को हमने घर पहुँच कर डिनर बच्चों के साथ किया। उनकी भी जान सूखी हुई थी। तीनों को साथ लिपटाए मैं बार-बार उनको प्यार कर रही थी। मातृत्व लुटाने का मतलब अब समझ आ रहा था।

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