लौह संकल्प
कथा साहित्य | कहानी वीणा विज ’उदित’16 Jul 2007
मदनलाल कॉलोनी के पार्क में बैठा अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसके पास कुछ भी नहीं है। उसके हम उम्र मित्र थोड़ी गप शप मार कर अपने अपने घरों को जा चुके थे। किन्तु आज उसके पैर नौ मन के हो रहे थे। उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। संध्या के धुंधलके में उसके समक्ष पिछले तीस वर्ष चलचित्र की भाँति चल पड़े थे।
बैंक की नौकरी फिर सुशील पत्नि का आगमन और तभी बैंक से लोन लेकर घर बनवाना। नए घर में पहले पुत्र का जन्म। लड्डू बाँटते वह थकता नहीं था। पिता बनने का सुख... वह भी पुत्र का पिता। हमारे समाज में गर्व माना जाता है। अभी दो वर्ष भी न बीते थे कि दूसरा पुत्र भी हो गया। गर्व से छाती फूल गई थी मदनलाल की। दो बेटों का बाप...। प्रसन्नता के मारे मदनलाल और उसकी पत्नि के धरती पर कदम नहीं पड़ते थे। दोनो पुत्रों का नामकरण बहुत धूमधाम से किया था। शादी की तरह खर्चा किया था। सुनील और अनिल समय के साथ साथ बढ़े। सुनील इंजीनियर बना लेकिन अनिल ने पढ़ाई में रुचि नहीं दिखाई। केवल बी.ए. करी। सुनील की एक अच्छी नामी कम्पनी में नौकरी लग गई वह हैदराबाद चला गया। उसका विवाह...फिर उसके दो प्यारे से बच्चे हुए। मदनलाल पत्नि के साथ उसके घर तीन चार बार रह आए थे। किन्तु अपना घर अपना शहर अपना पड़ौस अपने दोस्त...इन सबको व्यक्ति घर से दूर रहकर बहुत याद करता है। सो.. वे वहाँ अधिक देर तक नहीं रह पाते थे। अपने घर वापिस आकर ही उन्हें चैन आता था।
अनिल कभी कहता उसे एक वैन दिला दो चलता फिरता फास्ट फूड रेस्टोरेंट खोलना चाहता है वह। तो कभी वह गिफ्ट शॉप खोलने की बात कहता। आखीरकार अपने प्राविडेंट फंड से लोन लेकर मदनलाल ने उसे ऑडियो वीडियो कैसेट की दुकान अपनी कॉलॉनी की ही मार्केट में खुलवा दी। उसीका फैशन था उन दिनों। फिर अनिल का विवाह हो गया। मदनलाल ने सोचा ‘गंगा नहा गए’। सब तरह से जीते जी अपनी जिम्मेदारियाँ नौकरी रहते ही पूरी कर लीं। अनिल की दूकान अच्छी चल पड़ी थी। घर में खुशहाली छा गई थी। मदनलाल ने कभी भी अनिल से पैसों की बावत कोई बात नहीं की और न ही अनिल ने अपने पापा को कभी कुछ बताया। सुनील ने भी कभी माँ बाप को एक पैसा नहीं भेजा। मदनलाल ने एक बार पत्नि से इस विषय पर बात की तो वह झट बोली ‘हमने पैसे क्या करने हैं। हमें क्या कमी है। बच्चों की अपनी जरूरतें ही पूरी हो जाएँ आज की महँगाई के दौर में यही क्या कम है।’ सो बात आई गई हो गई।
अनिल ने अपनी शादी से पहले अपने ममी पापा का बैडरूम लेने की ज़िद की तो मदनलाल को यह बात बेतुकी लगी। किन्तु तब भी अनिल की माँ ने मनवा लिया कि बेटे की खुशी में ही हमारी खुशी है। बच्चों के कोई अरमान अधूरे न रह जाएँ। शादी के साल के भीतर ही अनिल के बेटी हो गई। माँ का सारा समय बहू की सेवा व बच्चे की देखरेख में व्यस्त रहने लगा। बहू घर के काम से जी चुराती थी। ऊपर से काम वाली बाई भी कुछ दिनो के लिए छुट्टी चली गई। माँ दमे की मरीज़ थी। वो बेहद थक जाती कमजोर थी। शीघ्र ही बिस्तर से लग गई। तभी मदनलाल भी रिटायर हो गए। वो पत्नि की दवा दारू आदि देखने लग गए। पर होनी को कौन टाल सकता है। तीन महीनों में ही वह स्वर्ग सिधार गई। बच्चों व बाप के बीच माँ सेतु बनी रहती थी। सो अब मदनलाल एकदम अकेले पड़ गए। सुनील माँ के निधन पर सपरिवार आया बहुत दुखी था। किन्तु वह पापा को साथ चलने के लिए कहने की औपचारिकता भी नहीं निभा सका। मदनलाल तो वैसे भी जाने वाले नहीं थे पर खैर...।
हमारे समाज में पुरूष का विधुर जीवन औरत के विधवा होने की अपेक्षा अधिक करुणामय होता है। पुरूष ने जीवन पर्यन्त स्त्री पर हुक्म चलाया होता है। वह बहू बेटों से समझौता नहीं कर पाता। जबकि विधवा स्त्री घर के काम काज पोते पोतियों के पालन, सत्संग आदि में मन लगा समय काट लेती है। मदनलाल की स्थिती बहुत करुणामय हो गई थी।
अनिल की साली विदेश से दस पंद्रह दिनों के लिए बहन के घर आई। अनिल ने पापा को लॉबी में कुछ दिनों के लिए सोने की प्रार्थना की। वे मान गए। आज घर के मालिक से दोनो बैडरूम छिन गए। वे लॉबी में दीवान पर सोने लग गए। पर..मदनलाल के मन पर गाँठ सी पड़ गई।
बहू की माँ भी आ गई। वह नातिन को लेकर मदनलाल के बैडरूम में सोने लग गई क्योंकि बहू को दूसरा बच्चा होना था। बेटा हुआ..घर खुशियों से भर उठा। बहू के मायके वालों का मेला लगा रहा। उन दिनो लॉबी में भी भीड़ लगी रहती। मदनलाल कभी लॉबी में लेटते...तो कभी बैडरूम में। रात देर तक सब बैठे गप्पें मारते उनकी उम्र या उनके आराम के बारे में कोई भी नहीं सोचता। पत्नि होती तो सोचती। वे उसके बिना असहाय हो गए थे। वह अपने मन की बात किससे कहें..। अनिल अपना खून था....पर कितना बेगाना। दिल की गाँठ पर और गाँठ पड़ रही थी।
उस दिन मदनलाल ने दाँत निकलवाए थे सो उसे छोड़ सब घूमने चले गए। वह पीछे से अखबार पढ़ता रहा। दोपहर ढाई बजे जोरों की भूख लगी फ़्रिज में देखा वहाँ कुछ भी नहीं पका रखा था। हाँ ब्रैड रखी थी दो तीन पीस खा लिए। रात आठ बजे सब की वापसी हुई। किसी को उसकी चिन्ता ही नहीं थी। उनके साथ ढाबे की दाल व तंदूरी रोटी भी थी। अपने दाँतों की दर्द के कारण मदनलाल ने कहा कि उसे मूँग की दाल और नरम सी रोटी बना दो। इतना सुनना था कि बहू ने बर्तन पटकने के साथ साथ चिल्लाना भी शुरू कर दिया। मदनलाल बिना कुछ खाए पीए जाकर चुपचाप लेट गए। अनिल उसका अपना खून...सब कुछ देख सुन रहा था। पापा की हालत भी समझ रहा था। पर...शायद अपनी पत्नि से कुछ कहने का साहस वह नहीं जुटा पा रहा था। मदनलाल के दिल पर फिर एक गाँठ पड़ गई।
उसका दर्द बाँटने वाला कोई नहीं था। वह दिन पर दिन पत्नि की कमी बहुत महसूसने लगा था। सुनील का फोन आए बहुत दिन हो चुके थे। मदनलाल ने उसे फोन किया। औपचारिक हाल चाल के सिवाय और कोई बात नहीं हो सकी। उसने एक बार भी नही कहा कि पापा आप कुछ दिनों के लिए हमारे पास आकर घूम जाओ। मदनलाल सोचता कि सरकार ने रिटायर करके निकम्मा कर दिया। घर वाले उसे घर में देखना नहीं चाहते। सब्जी दूध लाना बाजार का काम करवाते हैं जो काम उसने कभी नहीं किए थे। पर फिर भी.... दुत्कार। तिरस्कार..। आखिर वह कहाँ जाए अपना घर छोडकर..। बहुत बड़ा सवाल था सामने... ।
पिछले ज़ख्म अभी सूखे भी न थे कि अचानक एक दिन सुबह नींद जल्दी न खुलने के कारण मदनलल दूध लेने नहीं जा सका। असल में सारी रात खाँसी ने उसे परेशान किया तो तड़के जाकर कहीं उसकी आँख लगी थी। उस पर बहू ने तो घर को सिर पर उठा लिया। अनिल जाकर पैकेट का दूध ले भी आया परन्तु बहू ने जली कटी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मदनलाल के दिल पर गाँठ पड़ने का सिलसिला इसी तरह चलता रहा। एक दिन बहू टी वी उठाकर अपने कमरे में ले गई। वहाँ ए सी में बैठकर टी वी प्रोग्राम देखने होते थे। वे लोग खाना भी वहीं खाते थे अब। मदनलाल खबरें भी न सुन पाता था अब। अपने लिए उसने एक ब्लैक एण्ड व्हाईट टी वी लाने की सोची। और सोचा कि करने दो बच्चों को अपनी खुशी।
स्कूलों में छुट्टियाँ हो रही हैं। सुनील एक हफ्ते के लिए सपरिवार आ रहा है। मदनलाल को लगा जीवन में बहार कदम रख रही है। परन्तु.. तभी उन पर एक गाज गिरी। उनका बिस्तर लॉबी से उठाकर गराज...जिसमें कार कभी नहीं आ पाई थी.. में लगा दिया गया। वे फटी ऑखों से अनिल का मुँह तकने लगे। सकपकाकर अनिल झटपट बोला, “पापा भैया भाभी व बच्चे आ रहे हैं। बेडरूम में भाभी व भैया और लॉबी में बच्चे सोएँगे। यहाँ शान्ति है..आप चैन से सोना। आपको थोड़ा एडजस्ट तो करना पड़ेगा न।”
रात की गाड़ी से सुनील का परिवार आ पहुँचा। जब औपचारिक हाल चाल पूछना समाप्त हुआ तो मदनलाल सोने गए। पापा को गराज में सोते देखकर सुनील का मन विचलित हो उठा। लेकिन वह किस मुँह से कुछ कहता। वह स्वयं तो पापा को ले जा नहीं सकता था। उसका फ्लैट छोटा था और बीवी बच्चों को अपने आप में रहने की आदत सी हो गई थी। फिर पापा की खाँसी की आवाज में वो सब रात को सोएँगे कैसे। यहाँ अनिल तो सुबह आठ बजे उठता और दस बजे आराम से दुकान पर जाता है। जबकि वह सुबह सात बजे नौकरी पर चला जाता है। सुनील को पापा से प्यार तो बहुत है लेकिन उसकी अलग तरह की मजबूरियाँ हैं। सो वह सब देखकर भी चुप रहा।
दबे होंठों से एक दिन उसने इतना अवश्य कहा कि उसका गुजारा उस छोटे से फ्लैट में मुश्किल से हो रहा है। यदि उसे भी उसके हिस्से के पैसे मिल जाते तो...तो वो भी वहीं पर मकान ले लेता। इतना सुनते ही अनिल व उसकी पत्नि सारा दिन मुँह फुलाए रहे। खैर...वो लोग चले गए बिना किसी फैसले के।
उनके जाने के कोई चार महीने बाद गर्मियों में अनिल सपरिवार अपने किसी मित्र व उसके परिवार के साथ पंद्रह दिनों के लिए शिमला चला गया। एक बार भी उसने पापा को साथ चलने को नहीं कहा। उसका मन रखने को ही कह देता। बल्कि जाते हुए वे दोनो बेडरूम बंद कर गए। गर्मी जोरों पर थी। हमेशा की तरह मदनलाल शाम की सैर के बाद अपने दोस्तों के साथ पार्क में बैठे सब याद कर रहे थे। बढ़ते धुंधलके के साथ साथ धीरे धीरे सभी मित्र अपने घरों को चले गए। इसके विपरीत मदनलाल आज चुप था। उसके भीतर की गाँठें इतनी ज्यादा हो गई थीं कि वो एक नया रूप धारण करना चाह रही थीं।
वह सोचने लगा उसने इतना बड़ा घर अपने लिए बनाया था। अपने परिवर के सुख के लिए। आज उसी घर में उसी के लिए जगह नहीं बची। और न ही परिवार के नाम पर कोई व्यक्ति। तो फिर क्या है यह सब। ढेर सारी गाँठों ने मजबूत होकर एक लौह संकल्प का रूप धारण कर लिया। वह उसी पल वहाँ से एक प्रॉपर्टी डीलर के पास गया। उसे साथ लेजाकर अपना घर दिखाया। अब इस घर की कीमत डेढ़ करोड़ के करीब थी। एक हफ्ते में मदनलाल ने घर बेच दिया और पास ही किराए का एक मकान लेकर उसमें सारा सामान रखवा दिया। उस घर का एक साल का किराया साठ हजार पेशगी दे दिया। उसके बाद दुकान के पुराने नौकर को एक बंद लिफाफा पकड़ा दिया जिसमें नए घर की चाबी किराए की रसीद पाँच लाख रूपये का चैक और एक पत्र था। बड़े बेटे सुनील को भी पाँच लाख रूपये का ड्राफ्ट बनवा कर रजिस्ट्री भेज दी। स्वयं वह किसी को बताए बिना अनजानी मंज़िल की ओर चल पड़ा।
शिमला से वापिस आकर अपने घर के बाहर किसी और के नाम की नेम प्लेट देखकर एकबारगी अनिल व बहू घबरा गए। घंटी बजाने पर सामने नए चेहरे थे। वे बोले..‘यह मकान हमने खरीदा है।’ यह सुनते ही अनिल बदहवास सा दुकान की ओर दौड़ा। वहाँ नौकर ने उसके हाथ में वही लिफाफा पकड़ा दिया। उस में रखे पत्र को वह पढ़ने लगा.......
“प्रिय कहलाने योग्य तुम में से कोई भी नहीं है। सो सुनो मैं अपनी बची हुई ज़िन्दगी अपने पैसों से आराम से अपनी तरह से गुज़ारूँगा। मुझे ढूँढने का यत्न ना करना। तुम लोग करोगे भी नहीं..मैं जानता हूँ। मैंने मकान अपने नाम रखकर बहुत अक्ल का काम किया था। तुम भी अपने बुढ़ापे के लिए कुछ सोच लेना। क्योंकि इतिहास स्वयं को दोहराता है। धन्यवाद...।
तुम लोगों ने ही मुझे स्वार्थ का पाठ पढ़ाया है।”
तुम्हारा पिता
मदनलाल
अनिल धम्म से वहीं बैठ गया। उसकी आँखों की कोरों से आँसू लुढ़क कर धरती पर गिर रहे थे। उसकी करनी का फल उसके सामने था।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
आप-बीती
स्मृति लेख
- छुट-पुट अफसाने . . . एपिसोड–23
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–001
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–002
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–003
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–004
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–005
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–006
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–007
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–008
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–009
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–010
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–011
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–012
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–013
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–014
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–015
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–016
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–017
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–018
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–019
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–020
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–021
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–022
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–24
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–25
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–26
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–27
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–28
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–29
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–30
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–31
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–32
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–33
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–34
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–35
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–36
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–37
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–39
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–40
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–41
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–42
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–43
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–44
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–45
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–46
- छुट-पुटअफसाने . . . 38
यात्रा-संस्मरण
लघुकथा
कविता
व्यक्ति चित्र
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं