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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–29

 

कब और किसने यह करवा चौथ का व्रत बनाया पति के प्रति असीम प्यार, विश्वास और पूजित भाव से भर कर कि आजकल की लाड़-प्यार में पलीं इकलौती बेटियाँ भी सुहागनें बनने पर दिन भर भूखी-प्यासी रहकर सोलह शृंगार करके अपने पति की मानिनी बनी, आसमाँ को मुट्ठी में भरकर विस्तृत नभ में उड़ने लगती हैं। 

उन्हीं सुधियों को तराशने लगी, तो लगा सुधाएँ आकर बरसने लग गईं हैं। शादी का पहला करवा चौथ करने मैं कश्मीर से जालंधर घर आ गई थी। रिवाज़ के मुताबिक़ कटनी से पापा “बया” देने आए थे। उस दिन रवि जी और उनकी चारों बहनें भी आ गई थीं। भोर की बेला में सबने मिलकर सरगी खाई। बहुत लाड़-प्यार से करवा चौथ संपन्न हुआ। बेटी को सुखी और वैभव संपन्न देखकर पापा बेहद प्रसन्न थे। और मन में आने वाले मेहमान की ख़ुशियों को, कल्पनाओं में रंग देते वापस चले गए थे। 

दीपावली द्वार पर दस्तक दे रही थी। शादी के बाद पहले त्योहार हवाओं में ख़ुश्बू बिखेर देते हैं। जबलपुर के होम साइंस कॉलेज से मैंने चावल पीसकर फ़र्श पर अल्पना बनानी सीखी थी बंगाली लड़कियों से। तभी से हर दिवाली पर मैं लक्ष्मी माँ के पैरों में अल्पना बनाती थी। जालंधर घर में भी जब मैंने अल्पना बनाई तो सारे परिवार में प्रसन्नता छा गई। सासु माँ ने मुझे बाँहों में भर लिया था। कांता बहन जी सपरिवार आ गई थीं मेरे साथ दिवाली मनाने। वे भी तारीफ़ करने लगीं। कुछ भी कहो, अच्छा तो लगता है‌ जब त्योहार पर सबका मन खिला-खिला हो। 

हवाओं में रोमांच भी था क्योंकि शादी के 8 महीने बाद नवंबर में पहली बार मैं कटनी यानी कि मायके जा रही थी। नवम्बर के मध्य में हम दिल्ली इनके जिगरी दोस्त चावला भाई साहब के घर पहुँचे। शादी पर वे सब आए थे उनसे मुलाक़ात हो चुकी थी। दिल्ली में रवि जी की बहन भी रहती है और मेरी भी। लेकिन कहते हैं ना . . . 

दोस्तों के दिल में रहना आदत है हमारी क्योंकि 
दोस्ती की ज़ंजीर से बँधे रहना फ़ितरत है हमारी . . . 

सो, दोस्त के घर जाना पहला फ़र्ज़ था। सुबह उनसे उनका स्कूटर ले कर, हम बहन जी को मिलने जा रहे थे, तो रास्ते में दाहिने हाथ की तरफ़ से एक ताँगा आ रहा था। (जैसा अपने देश में ट्रैफ़िक होता है सड़कों पर) हमारे पास पहुँचते ही घोड़े को ज़ोर की छींक आई। (अब छींक पर तो किसी का अपना बस है नहीं। ना इंसान को ना जानवर को) सो, उस छींक ने सीधे जाकर रवि जी के सिर पर हमला किया और हम दोनों चलते स्कूटर से नीचे गिर गए बाईं तरफ़। (थैंक गॉड, घोड़े के नीचे नहीं आए) और बच गए। लेकिन मेरी दाहिनी कलाई की हड्डी टूट गई थी। मेरा रोना निकल रहा था तो एक राहगीर ने मेरे दाहिने हाथ से रिस्ट वॉच निकाल कर अपनी पॉकेट मैं डालनी चाही कि तभी रवि जी ने उसका हाथ पकड़ लिया। भीड़ में तरह-तरह की वैरायटी होती है। यह भी एक ख़ास क़िस्म के लोग होते हैं जो दूसरों की मजबूरी का फ़ायदा उठाते हैं। 

लो जी, शिफॉन की साड़ी फाड़कर, धूल में सने गहने और बिखरे मेकअप के साथ हम गंगाराम हॉस्पिटल से तीन हफ़्ते का पलस्तर चढ़वा कर चावला भाई साहब के घर वापस आ गए। दिल्ली घूमना रह गया। दिल्ली तो वैसे भी हम बहुत बार घूम चुके थे। घोड़े की छींक ने हमें वीआई पी बना दिया था और हमें सब वहीं मिलने आ गए थे :)। 

उसके बाद हम कटनी की ओर रवाना हो गए। कटनी स्टेशन पर बड़े तामझाम से पूरा परिवार हमें लेने आया था। मैंने पहले से ही साड़ी के पल्लू से अपनी दाहिनी बाज़ू छुपा ली थी, जिससे सब को एकदम देखते धक्का ना लगे। लेकिन कुछ मिनटों में ही यह राज़ खुल गया। जिसका डर था वही हुआ . . . सबके चेहरों पर खिली ख़ुशी की आभा गुम हो गई। ख़ैर, अगले दिन शाम के लिए पापा ने अपना पूरा परिवार एवम् कुछ दोस्तों के परिवारों को आमंत्रित किया हुआ था। हमारे घर की सफ़ेद दीवार पर रवि जी ने खाने के बाद सब को हमारी शादी की मूवी-फ़िल्म प्रोजेक्टर से दिखाई। प्रोजेक्टर का बैग वे साथ ले आए थे। उन दिनों यह बहुत बड़ी बात होती थी। अगले दिन यह न्यूज़ 'टॉक ऑफ़ द टाउन’ हो गई। क्योंकि अभी उस ज़माने में कलर फोटोग्राफी भी नहीं चली थी फिर यह तो और आगे की टेक्नॉलोजी थी। पंजाब इन बातों में हमेशा अग्रणी ही रहा है। बाद में उसकी वीडियो कैसेट बनी और उसके बाद सी डी में कन्वर्ट कर दी गई। 

रवि जी मुझे कटनी पहुँचा कर वापस चले गए थे। ना जाने कैसे प्रबल इच्छाशक्ति से शायद, मैं बाएँ हाथ से प्रेम पत्र लिखने लग गई थी। प्रेम रस से सराबोर वह बाएँ हाथ की लिखी चिट्ठियाँ अभी भी मेरे पास ख़ूबसूरत हैंकी बॉक्स में रेड रिबन से बँधी पड़ी हैं। छोटी बहनों ने ख़ूब सेवा की थी मेरी। और मम्मी पापा की तो पूछो ही न! मेरी बाँह जो झूले में लटकी थी गर्दन से, जब उसकी आज़ादी का दिन आया तभी रवि जी भी आ गए थे। 

पापा ने प्रोग्राम बना कर रखे थे। सो एक-दो दिनों में खजुराहो जाने का प्रोग्राम था। उस बीच ढेरों निमंत्रण थे जो अब निपटाए जा रहे थे। रवि जी पूर्णतया शाकाहारी और सब व्यसनों से हमेशा परे रहे थे। भास्कर आंटी लोग शाकाहारी हैं। वे उन्हें सुबह नाश्ते के लिए ड्राइवर भेजकर बुला लेती थीं। उनका बहुत आदर सम्मान करती थीं, क्योंकि इसी वर्ष वह लोग कश्मीर आए थे तो हमारा ठाट-बाट वहाँ देख आए थे। हमारे पापा भी तरह-तरह की मिठाइयाँ लेकर आते थे अब। ‌वैसे हमारे घर में माँसाहारी होने के कारण मिठाई का चलन कुछ कम था ‌। लेकिन रवि जी के आने से सब शाकाहारी बन जाते थे और वे जिस किसी के घर भी जाते वहाँ मीठा नाश्ता और सादा खाना बनता था। दूध, दही, पनीर पर ही ज़ोर होता था। अदरक, धनिया, लहसुन के बिना खाना बनाया जाता है उनका। वे‌ सदा से सात्विक भोजन खाते हैं। 

हाँ, तो कटनी से चार घंटे का रास्ता तय करके हम लोग खजुराहो गाँव में पहुँचे। दूर से ही मंदिर के बुर्ज दिखाई दे रहे थे। चंदेल वंश के पराक्रमी राजा यशोवर्मन सम्राट हर्ष का पुत्र था। उसने कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मंदिरों की स्थापना ई। 1025 से लेकर 1050 ईसवी तक की थी! कंदारिया महादेव मंदिर जिसे चतुर्भुज मंदिर भी कहते हैं। ये वास्तुकला के बेजोड़ नमूने हैं। 

वहाँ किवदंती प्रचलित है कि राजा बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का था, लेकिन राज्य को उत्तराधिकारी चाहिए था इसलिए राजा को संन्यास से पुनः गृहस्थ में लाने के लिए ऐसे मंदिरों का निर्माण किया गया था, जिनकी दीवारों पर काम-क्रीड़ा मूर्तियों द्वारा दिखाई गई हैं। इन्हें अश्लील मंदिर भी कहा जाता है। वहाँ हवाई अड्डा भी है जिससे विदेशी सैलानियों का जमावड़ा लगा रहता है। लेकिन हम देशी लोग पति-पत्नी उन मंदिर की दीवारों को इकट्ठे देख सकते हैं किसी और के साथ नहीं। वहाँ कई और मंदिर भी हैं। अब तो वह अच्छा ख़ासा टूरिस्ट प्लेस बन चुका है। मंदिरों के तपते बुर्ज जब अपनी ही परछाईं से विदा लेने लगे थे, तो उस मूर्तिकला पर ढेरों प्रश्न चिह्न मन में लिए हम वापस लौट आए थे। 

क्योंकि अगले दिन हमने कटनी से एक घंटा दूर “मैहर” माँ शारदा के दर्शन के लिए जाना था। अरावली की पर्वत शृंखलाएँ वहाँ दूर तक फैली हैं। वहीं एक पर्वत चोटी पर माँ शारदा का मंदिर है जिसमें 365 सीढ़ियाँ चढ़कर जाना पड़ता है। माँ के दो भक्त “आल्हा और उदल” की कहानियाँ वहाँ बहुत प्रचलित हैं। कहते हैं कि वे दोनों आज भी मंदिर के कपाट खुलने से पूर्व माँ की पूजा करके ताज़े फूल माँ को अर्पण कर जाते हैं। भक्ति और आस्था विश्वास का ही नाम है। इसी विश्वास के चलते वहाँ लोगों की मन्नतें पूरी होती हैं। यहाँ भी अब ‘रोप-वे’ से जाने का चलन हो गया है। 

हमारा अगला पड़ाव “चित्रकूट” था। हमारा सिंधी भाई ज्ञान हमें अपने कार्यक्षेत्र “सतना” घुमाने ले जा रहा था। वहाँ से वे हमें रीवा और पन्ना भी लेकर गए। हम बुंदेलखंड में घूम रहे थे। ”पन्ना” अपनी हीरे की खदानों के लिए प्रसिद्ध था। सुना था, लोग वहाँ ज़मीन का टुकड़ा ख़रीद कर उसमें खुदाई करवाते थे। अगर क़िस्मत अच्छी हो तो हीरा ज़मीन में से फुदक कर ऊपर बाहर आ जाता था। तो यह भी एक जुआ था। उत्सुकता वश हम यही देखने गए थे। वहीं से हम चित्रकूट के लिए रवाना हो गए थे। 

चित्रकूट धाम—ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भव्य और पवित्र स्थल है। चित्रकूट जलप्रपात बस्तर ज़िले में इंद्रावती नदी पर स्थित है। वहीं रामघाट पर एक पीपल का पेड़ है जिसके साथ हनुमानजी और तुलसीदास जी की गाथाएँ जुड़ी हैं। हमने कामदगिरि पर्वत या जिसे पुराणों में फूल पर्वत कहते हैं उसकी परिक्रमा की। क्योंकि सभी तीर्थयात्री वहीं जा रहे थे। वहाँ साधु और महात्माओं का जमघट था। उस ज़माने में अधिक भीड़-भाड़ नहीं होती थी वैसे। 

वहाँ दो पर्वतों के बीच में “गुप्त गोदावरी” नदी थी, जो बाहर से एक पर्वत लगता था। लेकिन क्रिस क्रॉस था भीतर जाने को। जब हम उसके भीतर गए तो हम घुटनों तक पानी के भीतर चल रहे थे। भीतर प्रवेश करते ही बहुत बड़ी गुफा थी; जिसकी छत पर ढेरों चमगादड़ बैठे थे। पहले तो हम डर गए लेकिन वह थोड़ा सा उड़कर फिर वहीं बैठ जाते थे। यह बहुत ही रहस्यमयी गुफा थी। जिसमें चमगादड़ों की गंध फैली हुई थी। धार्मिक स्थलों पर आस्था के वशीभूत हो हम कुछ भी कर सकने में समर्थ होते हैं। हम गीले हो गए थे किन्तु सात्विक विचारों से लैस थे। कुछ स्वर्गिक अनुभूति हो रही थी। “जय राम, श्री राम” का जाप सभी की जिह्वा पर विराजमान था। जिससे वातावरण में पवित्रता छाई हुई थी। 

पढ़ने, सुनने और देखने में बहुत अंतर होता है! उत्साह से भरे हम अब आगे चलने की तैयारी में थे! यानी कि हम कटनी से ही मुंबई जा रहे थे। अगली बार वहीं मिलते हैं . . .। 

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