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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–28

 

एक नव ब्याहता प्रेमी-युगल जब बाक़ी दुनिया को पीछे छोड़ गगन-चुम्बी धवल पर्वतों की ऊँचाइयों को छू रहा हो और सामने केवल नील गगन बाँहें पसारे खड़ा मंगल कामना कर रहा हो तो होंठों से इसी गीत के बोल अपने आप निकलेंगे ना!! 

“मिलता है जहाँ धरती से गगन 
आओ वहाँ हम जाएँ ए ए
तू तू न रहे, मैं मैं न रहूँ
इक-दूजे में खो जाएँ-2, जीत ही लेंगे बाज़ी हम-तुम” . . .

हम दोनों शादी के बाद पहली बार 30 अप्रैल1970 को, भोर की पालकी लेकर आते दिशाओं के कहारों के संग-संग कार से अपने ख़्वाबों के शहर पहलगाम के लिए चल पड़े थे। मज़े की बात थी कि हम दोनों के ही फ़ेवरेट गीत राज कपूर और नरगिस की फ़िल्मों के थे और हम वही डुएट सोंग्स रास्ते में गाते रहे और मस्ती में लंबे सफ़र को अनदेखा कर, आगे बढ़ते रहे। जम्मू के बाद जब माँ वैष्णो का भवन दिखाई दिया तो सड़क से ही उन्हें प्रणाम कर हम “कुद” पहुँचे। वहीं से सर्द सिहरन थाप दे रही थी मौसम में। दोपहर को “पीड़ा” में सड़क किनारे के मशहूर ढाबे में राजमा चावल खाए, बहुत ही स्वादिष्ट। अनार दाने की चटनी के साथ, इस पर देसी घी ऊपर से डालकर। 

दोपहर बाद, जब हम बनिहाल की चढ़ाई चढ़ रहे थे तो वहाँ से धरती और आकाश का मिलन देख कर हम दोनों बांवरे से हो गए थे क्योंकि हम भी एक नया संसार बसाने जा रहे थे बादलों के पार . . .! उमंगों की पालकी में बैठकर! कार में भी ठिठुरन बढ़ चली थी—सूर्य की रश्मियाँ ऊँची धवल गिरी शृंखलाओं को छूकर जा रही थीं और धरती पर धूसरता फैल गई थी। हाँ, अँधेरा नहीं हुआ था किन्तु उजियारा सिंदूरी हो चला था। दो घंटे और आगे बढ़े तो सामने पहाड़ की चोटी के ऊपर से चाँद अपनी चाँदनी को लिए हमारे स्वागत में मुस्कुरा रहा था। हमने उसकी मुस्कान को अपनी आँखों में भर लिया, और अपने ख़्वाबों की नगरी में प्रवेश किया। मेन बाज़ार में टिमटिमाते थोड़े बल्ब जल रहे थे। अधिकांश दुकानें अभी बंद थीं। 

रवि जी का नेपाली नौकर श्याम खाना बना, चुपचाप सूने घर में हमारे आने का इंतज़ार कर रहा था। उस सुनसान घर में चहल-पहल के स्वप्न ही तो बुनने थे अब हमने। पहलगाम की पहली सुबह ही मैं दरिया में अपने उस प्यारे पत्थर को मिलने गई, और मैंने उसे बाँहों में भींच लिया था; जिसकी कशिश ने आख़िर मुझे पहलगाम खींच ही लिया था। और होनी हो के रही थी। 

एक तो पहलगाम में बेहद ठंड, दूसरे रवि जी के जिगरी दोस्त बलदेव सिंह और दिलीप सिंह जी के निमंत्रण पर हमने दो-चार दिनों के लिए श्रीनगर जाने का प्रोग्राम बना लिया। उनके परिजनों ने अपने स्नेह से हम दोनों को पलकों पर बिठा लिया था। 

वापस आए तो राजेंद्र कुमार और साधना की फ़िल्म शूट हो रही थी रास्ते में। रवि जी बेहद बेतकल्लुफ़ होकर उन से मिले। जिससे मुझे अच्छा भी लग रहा था और शान भी बढ़ गई लगी। घर वापस आकर रवि जी ने उनसे संबंधित काफ़ी बातें सुनाईं। रात को डिनर करके राजेंद्र कुमार जी भी आर.के. स्टुडियो पर आ जाते थे रवि जी से गपशप मारने, यूनिट के बाक़ी लोगों की तरह। 

उन दिनों दुकानों के ऊपर फ़्लैट बने होते थे उनमें ही रिहाइश होती थी। कुछ ही दिनों में राजकपूर साहब भी “मेरा नाम जोकर” फ़िल्म बना कर पहलगाम अपनी थकावट उतारने आ गए थे। 1961 में आरके स्टुडियो सड़क के दाहिनी तरफ़ होता था। 1970 में सड़क के बाईं ओर बन रहा था। उस समय भी राज कपूर साहब आ गए थे और अब फिर वे पहुँच गए थे। राज कपूर जी सुबह तैयार होकर रवि के पास आ जाते थे और मुझे भी नीचे बुला लेते थे। फिर हम लोग अगली फ़िल्म की लोकेशंस देखने जाते थे। क्योंकि उन दिनों अधिकतर फ़िल्में कश्मीर में ही शूट होती थीं। 

लंच अधिकतर होटल में इकट्ठे ही होता था। वे बेहद उत्साहित थे कि उन्होंने चिंटू यानी कि ऋषि बेटे से अपने बचपन का किरदार करवाया है “मेरा नाम जोकर” फ़िल्म में। उनकी पोटली में ढेरों क़िस्से होते थे सुनाने के लिए और हमें बेहद आनंद आता था। यह तो बड़ी मस्त लाइफ़ थी। जीने का कुछ अलग ही रस आ रहा था। 

“मेरा नाम जोकर” फ़िल्म उनके दिल के क़रीब थी। वे कहा करते थे, “पैसा कमाना हो तो ‘बॉबी’ जैसी कई फ़िल्में बन सकती हैं लेकिन ‘जोकर’ की बात अलग है।” अभी मेरी लिस्ट में हिना, अजंता आर्ट्स, मैं और मेरा दोस्त—यह फ़िल्में बननी हैं।”

उनके कमरे में महफ़िल सजी रहती थी। राजेंद्र कुमार भी वहीं आ जाते थे। कालांतर में तो वे भी काफ़ी क़रीब हो गए थे। राज साहब के जाने के बाद रवि जी मुझे कार से आडू दरिया के किनारे पानी में पड़े अपने फ़ेवरेट एक बड़े पत्थर पर ले जाते थे ज़्यादातर, जहाँ लेट कर हम रोमांटिक गाने गाते। फिर आँखें बंद कर निःशब्द हो, देवदार की गवाही में कल्पनाएँ करके–लहरों की कल-कल के शोर में अपना जीवन अनुभूतियों से सजाते रहते थे। इस तरह घंटा-डेढ़ घंटा यूँ बिता कर हम लौट आते थे। 

एक दिन रवि जी बोले, “मैंने सोच लिया है कि अब मैं स्वयं फोटोग्राफी नहीं करूँगा बहुत हो गया।” उनके पास अब काफ़ी दुकानें हो गई थीं, जिन्हें कर्मचारी देखते थे। सो चिंता की कोई बात नहीं थी। वैसे भी उन दिनों काफ़ी दावतें हो रही थीं हमारे लिए। कभी-कभी हम अपनी मूवी फ़िल्म्स और फोटोस भी खिंचवाते थे। वास्तविक जीवन की शूटिंग भी साथ-साथ चल रही थी। यानी कि लंबा-चौड़ा हनीमून चल रहा था। घर से या दोस्तों में से कोई हमें विज़िट करने भी नहीं आया था उस सीज़न। Lucky we were! (हम सौभाग्यशाली थे)!

जुलाई के महीने में स्कूलों के खुल जाने से टूरिस्ट कम हो जाते थे, तो जो नए ब्याहे हनीमूनर्स आते थे; वे लोग रात के 12–01 बजे तक आर.के. स्टुडियो के सामने कारों में ऊँची आवाज़ में गाने लगा कर नाचते हुए रौनक़ लगाए रखते थे। जिससे ज़्यादातर हम लेट हो जाते थे सोने के लिए। एक रात, अभी नींद लगी ही थी कि थोड़ी देर बाद ही “नेर”, “नेर” अर्थात्‌ आग, आग की आवाज़ सुनाई दी। शोर मच गया था। हमने झट से खिड़की खोल कर बाहर झाँका तो दाहिनी ओर पहलगांव मार्केट के “रॉक्सी होटल” के ऊपरी हिस्से में आग लगी हुई थी! और लोग उस तरफ़ भाग रहे थे। यह देखकर मैं तो बेहद डर गई थी। जब तक फ़ायर ब्रिगेड आया, हमारे देखते-देखते आग काफ़ी फैल गई थी। कितनों की ज़िन्दगी बदल के रख दी थी उस आग ने! पहाड़ों पर सब घर-दुकानें, होटल लकड़ी और मिट्टी के ही बने होते हैं। आग का डर वहाँ बना ही रहता है। 

मेन बाज़ार में होटल ‘वोल्गा’ ले लिया था रवि जी ने सल्लर के ज़ियालदार साहब से! ज़ियालदार साहब रवि जी को अपना बेटा मानते थे। सो अब बिज़नेस बदल रहा था। सितंबर के महीने में पहलगाम होटल के मालिक के बेटे की की शादी थी तो दिल्ली, अमृतसर से उनके रिश्तेदार और लड़की वाले अमृतसर से पहलगाम प्लाज़ा होटल में आकर ठहरे थे। वहाँ ख़ूब रौनक़ लगी रही। गाना बजाना, खाना-पीना, घूमना फिरना, हँसी ठहाका, पिकनिक जाना और ग्रुप में बैठकर पत्ते खेलना—सब चल रहा था। मेरा अभी तक का जीवन पढ़ाई में ही बीता था। अब ज़िन्दगी का पाखी खुली फ़िज़ाओं में पंख फैलाए कुहक रहा था। मेरी दोस्ती बेफ़िक्री, ख़ुशी और खिलखिलाहट से हो रही थी। 

अक्टूबर में मैंने जालंधर वापस आना था क्योंकि करवा चौथ पर मेरे पापा आ रहे थे कटनी से। तब श्रीनगर से अमृतसर की फ़्लाइट चलती थी और टिकट मात्र ₹48 थी। एयरपोर्ट पर विदा होने से पूर्व संस्कारगत् मैंने रवि जी के पैर छुए तो इन के फ़्रेंड्स हैरानी से देखने लगे। लेकिन अपनी संस्कृति निभाते हुए मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। यह तो जीवन पर्यंत चलता रहा। हाँ, उनसे बिछड़ते हुए मन उदास हो गया था। हालाँकि मेरे पहले करवा चौथ के दिन उन्होंने जालंधर पहुँच जाना था। लेकिन वास्तव में हथेली पर सूरज उगा कर मैं उल्लसित थी, क्योंकि मैं अपने साथ उनका जीव-अंश ले के जा रही थी। उनसे अपने जीवन की पहली अमूल्य भेंट!!! 

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–28

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