छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–24
संस्मरण | स्मृति लेख वीणा विज ’उदित’1 Mar 2023 (अंक: 224, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
अभी कल की ही बात है तो, कभी बरसों निकल गए। आपकी सोच और मनोवृत्तियाँ आपको दिशाएँ दिखाती रहती हैं। उन की ओर बढ़ने हेतु मन को स्वस्थ तन का भी साथ मिल जाए तो ढलती साँझ में भी ताज़गी बनी रहती है और ढलती उम्र का बोझलपन हल्का हो जाता है। तभी वहाँ पहुँचकर लगता है कि स्मरण से नहा लिए हैं। स्मरण की रफ़्तार चल पड़ती है, यादों को टटोलने . . .
शादी के बाद कटनी यानी कि मायके जाने का अभी कोई दृश्य माहौल में साँस नहीं ले रहा था। पंजाब-दर्शन थोड़ा-बहुत करके हम जालंधर, अपने घर आ गए थे। यहाँ औपचारिक निमंत्रणों का ताँता हमारी बाट जोह रहा था। सर्वप्रथम जालंधर से आधा घंटा दूर पश्चिम में ‘कपूरथला’, रवि जी के ननिहाल जाना तय हुआ। कपूरथला– महाराज फतेह सिंह, जगतजीत सिंह का ऐतिहासिक नगर अपने में राजसी गरिमा समेटे हुए देसी रियासत था। तक़रीबन एक घंटे में हम सीधे “कांजली झील” पर पहुँचे। कपूरथला के पास ख़ूबसूरत पिकनिक स्पॉट था तब, अब सुनते हैं झील खर-पतवार से भर चुकी है। उन दिनों जालंधर के लोग इतवार को वहाँ झील में नौका विहार करने का शौक़ रखते थे। ख़ूब रौनक़ होती थी। “जंगल में मंगल” वाला हाल था वहाँ।
वहाँ कुछ वक़्त गुज़ारने के बाद हम मामा जी श्री बी आर चोपड़ा के घर गए। (फ़िल्म इंडस्ट्री वाले बी. आर. चोपड़ा नहीं, वैसे वो बीजी के चाचा जी का परिवार है) उनका घर जलावखाने की ओर था। जिसे “पुरातन पैलेस” भी कहा जाता था। मेरे लिए सबसे रोचक था वहाँ जलावखाने की तीन फुट चौड़ी टूटी दीवार को देखना। ये पतली ईंट की टाइलों से बनी मिट्टी की चिनाई वाली दीवार थी। ऐसी ही दीवारों में सेंध लगती होगी, मेरे दिमाग़ में यह बात उसी वक़्त कौंधी। बचपन की कहानियों में चोर सेंध लगाते थे, घर में घुसकर चोरी करने के लिए। तभी चोरों को देर लगती थी। ऐसी चौड़ी दीवार देखना अजूबा था मेरे लिए। क्योंकि आजकल सीमेंट की चिनाई से दीवारें पतली होती हुए भी मज़बूत होती हैं। इनमें सेंध नहीं लगती। अब तो कहानियों का स्वरूप ही बदल चुका है ख़ैर, रवि जी ने बताया कि यहाँ “असला” यानी कि अस्त्र-शस्त्र रखे जाते थे राजाओं के!
यहाँ सशस्त्र पहरा होता था। अब वह ख़स्ता हालत में दिखा क्योंकि वहाँ इतवारी-हाट लगा हुआ था।
खाने के बाद हम “जगजीत महल” देखने के लिए निकले! लाल रंग का महल जहाँ कभी रानियों की पाजेब की झंकार से संयत बहती पवन भी झूम उठती होगी। अब वह प्रांगण अपना स्वरूप बदल चुका था वह “सैनिक स्कूल” में तब्दील हो चुका था। इमारत शानदार थी अभी भी। बाद में भी वहाँ जाना हुआ। “खेड मुकदरा दे” फ़िल्म की शूटिंग के समय एक्टर दारा सिंह के साथ मेरे डायलॉग वहीं शूट हुए थे। तभी महल का दरबार हाल देखा था, जिसका शुमार भारत के सबसे शानदार हालों में है। उसकी भीतरी दीवारों में प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियाँ बनी हैं, जिसकी कला फ़्रैंच वास्तुशिल्प दर्शाती है। कहते हैं इन्हें बनाने में 8 वर्ष लग गए थे।
‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’—“शालीमार बाग़”—मामा जी के तीनों बेटे उत्साहित थे कि भाभी पहली बार आई है और हमें कपूरथला दिखाने का मौक़ा मिल रहा है तो वे अपना शालीमार बाग़ भी दिखाना चाह रहे थे। लो जी, हम वहाँ पहुँचे तो क्या देखते हैं वहाँ वृक्षों के अलावा फूल-पौधों की जगह घास पर बैठे बंदे ही बंदे थे। यानी कि चालू आराम स्थल! मेरे साथ मेरे भाव देखकर वह झेंप से गए, लेकिन हमने बातों का रुख़ बदल दिया। पेड़ों की ख़ूबसूरती बयान करने में लग गए और वापसी करी। रास्ते में पता चला कि महाराजा जगजीत सिंह के नाम की शुगर मिल, कॉटन मिल और रिफ़ाइनरी-डिस्टलरी भी हैं; जिन्हें मैंने काफ़ी बाद में देखा। वैसे शुक्रगुज़ार हूँ दूरदर्शन की, जहाँ नाटकों, टेलीफ़िल्म और फ़िल्मों की शूटिंग के दौरान मैंने पंजाब का चप्पा चप्पा देख लिया है।
जालंधर साईं दास स्कूल के साथ रहतीं रवि जी की बुआ की लड़की संतोष बहन जी और गोपाल देव कपूर जीजाजी के बच्चे अभी स्कूल में पढ़ते थे, तो उन्होंने हमें इतवार को अपने घर गोपाल नगर में निमंत्रित किया; जिससे बेटियों से भी आत्मीयता हो सके! जब हम वहाँ पहुँचे तो बच्चों ने चारों ओर से घेर लिया और बहुत शालीनता व स्नेह से आसपास बैठ गए। जीजाजी पलंग पर लेटे हुए थे। लग रहा था, जैसे मैं बहुत बड़ी ऐसी हस्ती से मिल रही हूँ जिसने देश की सेवा के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया था। बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व था उनका। उनसे ही पता चला कि वह जेल में रहकर काफ़ी बीमार रहे जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। उन दिनों वे प्राइमरी स्कूल के लिए हिंदी व्याकरण की किताब लिख रहे थे। उन्होंने हिंदी व्याकरण के सम्बन्ध में मुझसे दो-चार सवाल किए। प्रत्युत्तर में मुझे ढेरों आशीर्वाद मिले जो अमूल्य लगे। उनके दोनों बेटे वीरदेव और आनंददेव उम्र भर जीवन यापन के लिए कई कामों से जूझते रहे जैसे: अटल जी का काव्य संकलन उन्हीं से ख़रीदा था मैंने “मेरी इक्यावन कविताएं।”
उन्हीं दिनों रंगों की चारों दिशाओं से मुझ पर बौछार करता शादी के बाद का पहला त्यौहार “होली” आ गया! होली के दिन सुबह 9:00 बजे बाहर मेन गेट पर एक कार आकर रुकी। सुना, मोगा से रवि जी की सबसे बड़ी बहन राज सपरिवार होली खेलने पहुँच गई हैं। (एक बात बताऊँ . . .? ) इतना सुनते ही पलक झपकते ही रवि जी ने मेरा चेहरा गुलाल से रंग दिया यह कहते हुए कि “पहले मैं तो अपनी सोनी को रंग दूँ।” मेरी समूची देह एक मीठी सिहरन से भर उठी थी। फिर मुझ दुबली-पतली को बाँहों में समेटे हुए सब के बीच ले गए—पानी में घुले रंगों की बौछारों में भिगाने। मेरे होंठों पर एक स्मित मुस्कान की रेखा खिंची रही और मैं पति की मानिनी बनी रही।
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