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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–26

 

अतीत से जो नज़रें मिलाईं, तो मुस्कुराहट भी मुस्कुराने लगी है। चलो जानेमन अतीत! कुछ घड़ियाँ तुम्हारे साए में बिताते हैं। होता तो यही है कि नासमझ से हम जीवन की डगर पर जिए चले जाते हैं। क्या मालूम कब कौन सा मोड़ हमें अदृश्य होनी के हाथों जीवन की किस राह पर ले जाए। और उस पर सारी कायनात हमें उसे पूरा करने में साथ देने की ज़िद ही कर ले! अपना क़िस्सा कुछ ऐसा ही है . . . 

हुआ यूँ कि दिल्ली से हमारे फ़ैमिली फ़्रेंड्स की बेटी शोभा की टेलीग्राम आई। “send Veena, Kashmir trip arranged.” 1961 जून का महीना था। मैं हॉस्टल से घर आई हुई थी। पापा ने मुझे किसी के साथ दिल्ली भेज दिया उनके पास। शोभा रेलवेज़ में काम करती थी और गर्ल्स का ट्रिप कश्मीर ले जा रही थी, मैं भी उसी में शामिल कर ली गई। 

पठानकोट तक ट्रेन में और उसके बाद बसों में बैठकर ख़ूब मस्ती करते, गाते-बजाते हम लोग कभी शैतानी नाला तो कभी ख़ूनी नाला के पास से निकले। सारे रास्ते ही एक ओर गर्वीली सिर उठाए पर्वत श्रेणियाँ तो दूसरी ओर खाई। खाई में से एड़ी उठाए उचक-उचक कर राहगीरों को तकते चीड़ और देवदार के वृक्ष। मानो हमारे स्वागत में क़तार बाँधे खड़े हों। ‘पतनीटॉप’ पहुँच कर देखा कि वहाँ पेड़ों को लताओं ने आलिंगन पाश में बाँध रखा है। अनोखी हरीतिमा ओढ़े ऐसी दृश्यावली और उस पर कर्णप्रिय झींगुरों की आवाज़ें—यह सब देख मैं तो भाव विभोर हो निःशब्द हो गई और सृष्टिकर्ता को नमन कर उठी। 

ठंडी हवा के झोंकों ने वैसे भी ग्रीष्म का ताप ख़त्म कर दिया था अब, आगे खाई की जगह ‘चिनाब’ दरिया ने ले ली थी। चिनाब को देखकर ‘सोनी-महिवाल’ के इश्क़ का क़िस्सा दिमाग़ में घूमता रहा। ‘रामबन’ में चिनाब को पाकिस्तान की तरफ़ मोड़ कर हम ‘बनिहाल’ की चढ़ाई चढ़कर टनल में जा रहे थे। जो जवाहर टनल के नाम से जानी जाती है। पहाड़ के भीतर से दो सुरंगें बिल्कुल सीधी बनाई गई हैं। एक आने के लिए और एक जाने के लिए। एकदम मध्य में पहुँचकर पीछे और आगे दोनों गेट दिखाई देते हैं। उस ज़माने में यह एशिया की सबसे बड़ी सुरंग थी। 

सुरंग से बाहर निकलते ही मानो आप स्वर्ग में पहुँच जाते हैं। बर्फ़ीली पहाड़ियों के मध्य में वादी अपनी हरियाली लिए मान से पसरी हुई लगती है। इतनी ख़ूबसूरती देखकर ज़हन में ढेरों ख़्वाब अँगड़ाइयाँ लेने लगते हैं। चढ़ाई उतरकर हम ‘वेरीनाग’ में एक बाग़ में जाकर रुके जोकि झेलम दरिया का उद्गम स्थान था। जहाँ ज़मीन के अंदर से एक झरने के रूप में झेलम दरिया बाहर निकल रहा था और श्रीनगर पहुँचने तक उसने एक वृहद्‌ रूप धर लिया था। 

आगे, अनंतनाग से एक रास्ता श्रीनगर को और दूसरा रास्ता पहलगाम को जाता था। हम श्रीनगर वाले रास्ते पर बढ़ गए। सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफ़ेदे के पेड़ एक प्रवेश द्वार की शक्ल में हमारा श्रीनगर में स्वागत कर रहे थे। वहाँ टूरिस्ट सेंटर में काफ़ी टेंट लगे थे, उसी कैम्प में हमारे ठहरने का प्रबंध था। ठंडा-ठंडा मौसम, स्वैटरें तिस पर एक दूसरे के हाथों से गरमाइश ली जा रही थी। अनाउंसमेंट हुई कि कल सुबह सब नाश्ता करके बाग़ों में घूमने चलेंगे, तैयार रहें। सुबह-सुबह सबसे पहले डल झील में ढेरों हाउसबोट्स और रंगदार शिकारे देखकर लगा, आसमां से स्वर्ग उतरकर धरती पर आ गया है। बेहद आकर्षक और मनभावन नज़ारा था। 

फूलों से भरा चश्मेशाही बाग़ फिर शालीमार बाग़ के फ़व्वारों ने मन मोह लिया था। बाग़ से डल झील में सूर्यास्त देखना बेहद ख़ूबसूरत दृश्य था और जब हम निशात बाग़ पहुँचे तो वहाँ व्ही शांताराम की फ़िल्म “स्त्री” की शूटिंग चल रही थी। ‘हीरोइन संध्या’ का डांस शूट था सहेलियों के साथ। बाग़ की तरफ़ ध्यान कम और शूटिंग की तरफ़ सबका ध्यान बँट गया। उस ज़माने में शूटिंग देखना बहुत बड़ी बात होती थी और ख़ासकर जब कोई हीरोइन दिख जाए। संध्या के साथ फोटोस भी खिंचाई हम सब ने। वापसी में वहाँ लाइट एंड साउंड का प्रोग्राम भी देखा। अदृश्य नूरजहाँ के घुँघरुओं की आवाज़ ने मन मोह लिया था। अनोखा संकल्पना थी। 

कैंप में वापस आकर फूल-बग़ीचे की बात तो किसी ने नहीं की। हाँ, जहाँ देखो अलबत्ता ‘संध्या’ का चर्चा हो रही थी। ख़ैर, अगली सुबह ‘गुलमर्ग’ जाने का प्रोग्राम था। ब्रंच करके हम सब निकल पड़े थे। ‘टनमर्ग’ पहुँचकर पैदल चढ़ाई करने लगे गुलमर्ग तक। गुलमर्ग में दूर-दूर तक घास के मैदान दिखाई दे रहे थे और बीच-बीच में कहीं-कहीं होटलों की बिल्डिंग्स बनी हुई थीं। वहाँ से ‘अल पत्थर’ की चढ़ाई की जहाँ से हिमालय की रेंजेस बहुत पास दिखाई देती हैं। लगा हमने भारत का मुकुट देख लिया है। गर्व हुआ कि हिमालय के दर्शन हो गए। तब रोप-वे नहीं था। इतनी चढ़ाई करके सब थक गए थे। देखा कि वहाँ सुनसान में एक छोटा सा टेंट लगा है। वहाँ हमें चाय मिल गई सो कुछ राहत महसूस हुई। वापसी तो दौड़-दौड़ कर हो रही थी क्योंकि उतराई थी, और जवानी तो वैसे ही दौड़ती है। 

अगले दिन पहलगाम जाते हुए साइट सीइंग करने का प्रोग्राम था और 3-4 दिन पहलगाम में ही ठहरना था। सभी में बहुत एक्साइटमेंट थी पहलगाम के लिए। पहली बार जाना था, मुझे तो कुछ आइडिया नहीं था। अनंतनाग पहुँचते ही लगा हम पाकिस्तान में हैं क्योंकि वहाँ लड़कियाँ बुर्क़ा पहने कॉलेज जा रही थीं या स्कूल जा रही थीं। वैसे आदमी लोग भी सलवार कुर्ता और चोग़ा (फिरन) पहने हुए अजीब लग रहे थे। यहाँ से हल्की-हल्की चढ़ाई शुरू थी और हम दरिया के साथ-साथ चल रहे थे। क़रीब आधे घंटे में हम ‘मटन’ पहुँच गए। वहाँ पानी का झरना पहाड़ी से मंदिर के नीचे होकर आ रहा था। जिसमें काली-काली ढेरों मछलियाँ थीं जिन्हें पकड़ना और मारना मना था। वहाँ उतरकर हम ने दर्शन किया और आगे बढ़ गए ‘ऐश मुकाम’ की ओर। वहाँ से आगे ‘बटकुट’ और फिर दूर चारों तरफ़ से पहाड़ों के दामन में घिरा एक छोटा सा गाँव दिखाई दे रहा था ‘पहलगाम’।

ये समुद्रतल से 8,990 फुट ऊँचाई पर स्थित है, वहाँ बेहद ठंड थी। पहाड़ी दरिया ‘लिदर’ के किनारे टेंटों में हमारा कैंप था। इस नैसर्गिक सौंदर्य को देख मैं अल्हाद से भर उठी थी। लहरें उच्छृंखल हो मस्ती में थीं। उन्हें देख

अज्ञेय की एक पंक्ति

“कहीं बड़े गहरे में, सभी स्वैर हैं नियम . . . “

याद आ गई। लगा कश्मीर आना सार्थक हो गया। अभी एक आकर्षण और भी था। अज्ञेय के उपन्यास “नदी के द्वीप” और “शेखर एक जीवनी” पढ़े थे। ‘तुलियन लेक’ जाने की इच्छा भी हृदय में थी। लेकिन अफ़सोस वह इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकी। ‘शिकारगाह’, जहाँ मामलेश्वर मंदिर में शिवलिंग है उसे देखने हम दूसरे दिन गए। वहाँ भी चढ़ाई थी। ‘आड़ू’ जो पहलगाम से क़रीब10 किलोमीटर ऊपर है, हम वहाँ जा रहे थे तो रास्ते में जेमिनी गणेशन और वैजयंती माला की शूटिंग हो रही थी। लो जी, वह भी देखी। उन दिनों बॉलीवुड की फ़िल्में अधिकतर कश्मीर में ही शूट होती थीं। 

पोनी (घोड़े) पर सवार होकर चंदनवाड़ी बर्फ़ का पुल देखने गए, वहाँ बर्फ़ पर स्लेजिंग की और फिर बायसरन गए जिसे मिनी स्विट्जरलैंड भी कहते हैं। जो तुलियन का आधा रास्ता था। काफ़ी टेढ़ा-मेढ़ा और ख़तरनाक। 

अगले दिन शाम को वहाँ के चीफ़ मिनिस्टर ‘बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद’ हमारे कैंप में तशरीफ़ ला रहे थे, तो हमने उनके आने के उपलक्ष्य में क़व्वाली का प्रोग्राम रखा था। तभी दो हीरो टाइप फोटोग्राफर भी आए थे, जो आर.के. स्टुडियो पहलगाम से थे। दोपहर गए शोभा ने कहा चल हमारे साथ, आर.के. स्टुडियो से फ़ंक्शन की फोटोस ले आएँ। वहाँ पहुँचकर आर के स्टुडियो का बैनर देखा और शॉप ओनर आर.के. की राज कपूर के साथ फोटोस लगी देखीं, काफ़ी इंप्रेस हो गए थे हम। फिर कश्मीरी ड्रेस में हम सभी ने फोटोस खिंचवाईं। फोटोस की डिलीवरी श्रीनगर में अगले दिन होनी थी, क्योंकि अगली सुबह हम श्रीनगर वापस जा रहे थे। 

वापस आकर मैं दरिया के किनारे अपने हर दिन के पसंदीदा एक बड़े से पत्थर पर जाकर लेट गई और उसको सीने से लगा ऐसे अपने दोनों बाज़ुओं से जकड़ लिया, मानो वो मेरे आलिंगन पाश में बँधा साँस ले रहा हो और मैं उसे छोड़कर जाना नहीं चाहती। मेरी रुलाई फूट रही थी। काफ़ी देर बाद शोभा मुझे ढूँढ़ती वहाँ आई और देख कर बोली, “तू यहाँ है! मैं तुझे ढूँढ़े जा रही हूँ। तू रो क्यों रही है?” 

“मैंने नहीं जाना वापस। मैंने यहीं रहना है। लगता है जैसे यही मेरी जगह है,” मैंने कहा। 

“अच्छा बात करते हैं। एक बार भीतर तो चल।” 

कहकर वो मुझे खींच कर दरिया के पानी से भिगोती हुई भीतर ले गई। उस रात मैंने खाना भी नहीं खाया और बिस्तर पर पड़ी सिसकती रही। अदृश्य होनी मुझ पर मँडरा रही थी और मेरी दृढ़ इच्छा को पूरा करने में कायनात भी मेरे साथ थी। बाद में यही महसूस हुआ। जिसे अभी समय ने अपने गर्भ में धारण किया हुआ था। 
अगली सुबह हम बस में वापस जा रहे थे, तो मैं सारे रास्ते निःशब्द प्रकृति को भरी आँखों से निहारे जा रही थी। जैसे मेरा कोई प्रिय पीछे छूट गया हो!!

शाम ढले कैंप में शोर था कि फोटोस आ गई हैं, चलो ले लो। बाक़ी लोग ले रहे थे पर मैंने यह कहकर छोड़ दीं कि मुझे पसंद नहीं आई। बाद में देखा तो मेरा लिफ़ाफ़ा उन्होंने यूँ ही रख दिया था। पता नहीं कब शोभा और उसकी सहेलियाँ हीरा और सुरक्षा ने अपनी कश्मीरी फोटो की बड़ी कॉपियाँ बनाने का ऑर्डर दे दिया था। उर्वरा धरती में होनी का बीज डल गया था। 

होनी अदृश्य भविष्य में क्या खेल रचने जा रही थी— यह हम अगली बार बताते हैं . . . 
 

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