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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–41

 

जीवन की वाटिका में विचरता मन पखेरू इन दिनों सदा की तरह कश्मीर में अमरनाथ यात्रा की रौनक़ को खोजता फिर रहा है। यह अनहोनी हुई है कि इस वर्ष इस पवित्र धाम की यात्रा की कोई ख़बर नहीं है टीवी पर। 

सुनते हैं कश्मीर में अमरनाथ यात्रा 16 वीं शताब्दी से हो रही है। पुराणों में इसका महत्त्व है कि शिव जी से विवाह करने के लिए पार्वती को बार-बार जन्म लेना पड़ता था तो उन्होंने शिव भोले से अनुनय विनय की कि आप अमर हैं तो मुझे भी अमर कथा सुना दीजिए जिससे मैं भी जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाऊँ। पत्नी का आग्रह मानकर शिवजी, पार्वती माँ को सबसे निर्जन स्थान—हिमालय की इस गुफा में ले आए और अमर कथा श्रवण करवाई। 

पुराणों में कहते हैं—पार्वती जी कथा सुनते हुए बीच में ही सो गई थीं और एक कबूतर का जोड़ा वहाँ रहता था। जो सुनता रहा। वह अमर हो गया। इस तथ्य में कितना सत्य है यह तो ज्ञात नहीं लेकिन यही कहा जाता है। इसके लिए गुफा के भीतर बर्फ़ के शिवलिंग स्वयं प्रकट होते हैं। जिनके दर्शन रक्षाबंधन की पूर्णिमा को करना शुभ माना जाता है। 

श्रीनगर अखाड़े के महंत व उनकी टोली शिवजी का त्रिशूल व चाँदी की मूठ की छड़ी लाकर पहलगाम में बने छड़ी स्थल पर जनता के दर्शन व पूजा अर्चना के लिए रखते हैं। फिर चार दिनों में चंदनवाड़ी, शेषनाग झील व महागुनस टॉप से होते हुए पंचतरणी की गंगा में स्नान कर के चढ़ाई चढ़कर अमरनाथ गुफा में रक्षाबंधन की पूर्णिमा को बर्फ़ानी बाबा के दर्शन करते हैं। 

अमरनाथ गुफा की खोज मलिक परिवार के एक गड़रिये ने की थी। आज भी बाबा बर्फ़ानी के चढ़ावे का कुछ अंश उस परिवार के लोगों को दिया जाता है। 

सन् 1975 में यात्रा शुरू करते हुए हम दोनों और रवि जी के दोस्त पीडब्ल्यूडी सेक्रेटरी सुखदेव सिंह जी और उनकी पत्नी शशि चारों आर के स्टुडियो के सामने से अपने-अपने घोड़े पर बैठे। रवि जी ने छोटे पपलू को अपने सामने बैठा लिया था और हमारे घरेलू हिमाचली नौकर काशी ने डब्लू को पिट्ठू बन कर कंधे पर उठा लिया था। क्योंकि वह भी दर्शन के लिए साथ जाना चाहता था। हल्की बूँदा-बाँदी शुरू हो गई थी, और हम बर्फ़ के पहाड़ों पर जा रहे थे इसलिए हमने गर्म कपड़ों के ऊपर बरसाती ओढ़ ली थीं। 

पहले 16 किलोमीटर पार करते हुए हम चंदनवाड़ी दोपहर तक पहुँचे। वहाँ पहलगाम से 2 किलोमीटर नीचे नुन वन में योगा सिखाने वाले स्वामी विमलानंद जी ने डेरा जमाया हुआ था। हमने खाना उनके लंगर गृह में खाया। वह सबके चहेते स्वामी जी थे। उनके आश्रम में मुस्लिम-हिंदू सिख सभी योगा सीखने जाते थे। वहाँ भीतर जाकर देखा तो पहलगाम होटल के मालिक सरदार नरेंद्र सिंह जी को कंबलों में लपेट कर उन्होंने एक पलंग पर लिटाया हुआ था। और पास में अंगीठी जलाकर उनके शरीर को सेंक दिया जा रहा था। 

हम तो यह दृश्य देखकर अचंभित रह गए। इस पर स्वामी जी ने बताया कि नरेंद्र जी दरिया पर मुँह धोने गए तो इनका पैर फिसल गया था। दरिया के तेज़ बहाव में ये आगे तक बह गए थे। तभी एक कश्मीरी गुज्जर ने दरिया में छलाँग लगा कर इनको पकड़ा। वह बीच दरिया में एक बड़े पत्थर पर इनको लेकर बैठ गया था। फिर रस्सी से बाँधकर हमारे लोगों ने दोनों को बाहर निकाला था। 

पहाड़ी, बर्फ़ीला दरिया पत्थरों से टकराता नीचे की ओर अविरल बहता जाता है। उसके बीच के पत्थरों ‌से इनको काफ़ी चोटें लगी थीं। वह हमारी उम्र के ही थे। मैंने जिज्ञासावश पूछा, “वीर जी अंतिम क्षण समक्ष जानकर आप का अंतिम ध्यान किस और गया था?” तो वह बोले, “मुझे अपनी पत्नी और अपने दोनों बच्चों का ध्यान आया था कि अब उनका क्या होगा?” 

हम संसारी जीव हैं। अपने गृहस्थ जीवन से विलग नहीं हो सकते हैं। यही शाश्वत सत्य है। ईश्वर के विषय में सोचने का वक़्त ही कहाँ मिल पाता है अंतिम क्षणों में? आँखों के समक्ष परिवार व ज़िम्मेदारियाँ घूमती हैं। फिर किसने देखा है अगला जन्म? अंतिम पल में भुक्तभोगी के मस्तिष्क में व्याप्त सूक्ष्म तंतु वर्तमान से ही जुड़े होते हैं। बाक़ी सब तो आदर्श बखारे जाते हैं। 

कुछ ही पलों में हम पिस्सू घाटी की चढ़ाई चढ़‌ रहे थे। वहाँ से ऊपर बर्फ़ ढंके पर्वतों के मध्य सुरम्य नीले रंग की! शेषनाग झील! मानो धवल पर्वतों ने अपने मध्य उसे सुरक्षित रखा हुआ है। श्वेत नगों के मध्य फिरोजी नग की अँगूठी के स्वरूप!! वहाँ कुछ जटाधारी साधुओं ने धूनी रमाई हुई थी। पता चला उनकी मान्यता है— शेषनाग स्वयं झील की सतह पर आकर कभी भी दर्शन देते हैं। तो वे उनके दर्शन को वहीं बैठे हैं। श्रद्धा और विश्वास के समक्ष कुछ भी कहना बेकार होता है सो, हमें यह बातें कोरी कल्पना लगीं और हम आगे बढ़ गए। 

5300 फ़ीट की समुद्र तल की ऊँचाई पर अब हमारा क़ाफ़िला महागुणस टॉप पर पहुँचा। यहाँ केवल बर्फ़ थी। ऊपर आकाश, नीचे बर्फ़ और तीसरे हम थे। मुझे डर लग रहा था। मैंने गायत्री मंत्र का जाप शुरू कर दिया। तभी सामने रास्ता ना दिखने पर घोड़े ने 5 फुट नीचे–बर्फ़ के ऊपर छलाँग लगाई और डर के मारे मैं भी नीचे गिर गई थी बर्फ़ पर। मेरा बुरा हाल हो गया था। 

घोड़े वाले ने बोला कि आप फ़िक्र ना करें। घोड़े के चार पैर हैं। एक पैर अगर फिसले या लड़खड़ा जाए तो घोड़ा तीन पैरों से उसे सँभाल लेता है। आप डरें न बिल्कुल। बस लगाम कस के पकड़े रहें। पर मैं तो गिर चुकी थी। 

आगे लंबा रास्ता था! पंचतरणी! पड़ाव तक पहुँचने के लिए। सूर्य की किरणें अब धूमिल हो चली थीं। फिर भी इससे पूर्व कि अंधकार छा जाए, हम वहाँ के डाक बँगले में पहुँच गए थे। जहाँ हमारी बुकिंग थी। वहाँ दवा देकर मुझे सुला दिया गया था। यह स्थान बेहद ठंडा था। पर स्वर्ग जैसा सुंदर था। 
सुबह उठकर देखा—वहाँ स्वच्छ और पारदर्शी पानी की पंचतरणी अर्थात् पाँच धाराएँ थीं। जिसे गंगा मानते हैं। इसमें रंग-बिरंगे पत्थर दिखाई दे रहे थे। वहाँ स्नान करके लोग अमरनाथ जी के दर्शन करते हैं। उस ज़माने में वहाँ कोई और तीर्थ यात्री नहीं था केवल हम ही थे। 

वहाँ के पुजारी हमारे पहलगाम के शिव मंदिर वाले थे। उन्होंने हमसे बहुत अच्छे से मंत्रोच्चारण कर सबसे अलग-अलग पूजा करवाई। हम से बर्फ़ पर नंगे पैर खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, तो उन्होंने रस्सी की बनी जूतियाँ हमारे पैरों में डलवा दी थीं। गुफा के भीतर 12 फुट ऊँचे शिवलिंग थे अति भव्य एवं सुंदर! उनके पैरों के समक्ष छोटे-छोटे आकार के बर्फ़ के ढेरों को कार्तिकेय व गणेश मानते थे। 

हमने गुफा का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण किया यह जानने के लिए कि शिवलिंग वहीं पर प्रतिवर्ष कैसे बन जाता है? किन्तु हमारी शंका का समाधान नहीं हो पाया। श्रद्धा और विश्वास का रूप ही तो ईश्वर है! यही तो “अज” है प्रकृति का जीवंत स्वरूप! 

हमारा वापस जाने का मन नहीं था। हम लोग एक रात और उन बर्फ़ीले पर्वतों के मध्य उसकी सुरम्य छटाओं और नैसर्गिक सौंदर्य को निहारने वहाँ रह गए थे। वहाँ भरपूर शान्ति थी। आज की तरह भंडारे और टेंट नहीं होते थे। सारा सफ़र हमने बादलों की छाँव में ही किया था। धूप ना होने से हम सनबर्न से बच गए थे। बहुत जमकर फोटोग्राफी की थी। अमरनाथ यात्रा की यादें सँजोए, आनंदित होकर हम वापस आ गए थे। 

सैकड़ों वर्षों में सन् 2020 में पहली बार अमरनाथ यात्रा नहीं हो रही है। गोया कि शिव भोले को भी नज़र लग गई है। जिससे बाबा बर्फ़ानी की पूजा-अर्चना नहीं हो पा रही है। वैसे जीवन में एक बार तो ये यात्रा करनी बनती है। 

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