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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–006

ज़िन्दगी की ख़ाली स्लेट पर जो इबारत सबसे पहली लिखी गई यानी कि “तबूला रासा” (लेटिन में ख़ाली स्लेट) पर अंकित मेरे इस जीवन की पहली याद जबलपुर से है। 

पापा के लाहौर के जिगरी दोस्त लेखराज मल्होत्रा की बहन “सुरक्षा” की शादी किसी कर्नल ओबेरॉय के साथ जबलपुर म। प्र। में थी। शादी में पहुँचना ज़रूरी था। पापा १९४७ के जुलाई में ही अपनी स्टेशन वैगन में ड्राइवर “जीवन”, मम्मी और हम दो बहनों (ऊषा और मुझे) और हमारी नैनी यानी कि आया “द्रौपदी” को साथ लेकर निकल पड़े थे। पहले अमृतसर रुके कुछ दिन बड़ी बुआ के पास। बोले कि दंगे हो रहे हैं कई जगह! आप लोग अपना ध्यान रखना। हम लोग काफ़ी दूर जा रहे हैं, जब तक वापिस आएँगे सब ठीक होकर माहौल भी शांत हो जाएगा। (क्या मालूम था कि सब ख़त्म हो जाएगा) ख़ैर, बेहद जोश में वे आगे दिल्ली चले गए। 

दिल्ली में तो पंजाबियों का दिल बसता है। मायके और ससुराल के ढेरों रिश्तेदार। उतने ही दोस्त और नातेदार। शादी से पहले कभी कनाटप्लेस के सिंधिया हाउस के बग़ल वाले कॉफ़ी हाउस में उनकी शामें के। एल। सहगल के साथ गाने की मजलिस में बीता करतीं थीं, तो कभी शेर-ओ-शायरी की महफ़िलें दोस्तों के साथ सजतीं थीं। फिर वे लाहौर चले गए थे। अब दिल्ली आकर सब से मिलना-जुलना हो रहा था। तीन हफ़्ते भी कम पड़ रहे थे। दिल्ली में रेडियो पर ख़बरों का ख़ुलासा तो हो रहा था कि विभाजन होगा। लेकिन सब के मन में दृढ़ विश्वास था कि “हिन्दुस्तान का पेरिस” माना जानेवाला “लाहौर” तो हर हाल में हिन्दुस्तान में ही रहेगा। इसी विश्वास के साथ वे आगरा से आगे चम्बल घाटी, जो उस वक़्त डाकुओं का गढ़ थी, उसे भगवान का नाम लेकर–पार करके आगे बढ़ रहे थे। (विनोबा भावे ने म। प्र। को डाकू देवी सिंह, मान सिंह आदि के गिरोहों से पचास के दशक में समर्पण करवा के छुटकारा दिलवाया था) उन डाकुओं की बहुत दहशत थी तब। कारें भी इक्का-दुक्का होतीं थीं, सो दिन के समय ही चम्बल घाटी पार कर ली जाती थी। सड़कें भी ऊबड़-खाबड़ होती थीं—लाहौर के मुक़ाबले में। 

रात “बीना” शहर में रुके। वहाँ हमारे छोटे फूफा थानेदार बन कर आए थे। इस तरह सबको मिलते-मिलाते अगस्त के पहले हफ़्ते हम जबलपुर पहुँचे। 

बस, यहीं मेरे जीवन के “तबूला-रासा” (यह शब्द मेरी पोती “दिया” ने बताया था) की इबारत लिखनी शुरू हुई। और मेरे दिमाग़ के कैमरे में वहाँ की सब घटनाऐं आज भी तरो-ताज़ा है। 

हमारे पहुँचते ही सारा मल्होत्रा परिवार मधुमक्खियों की तरह हमारा स्वागत करने को बढ़ा। मुझे और काके (ऊषा) को सभी प्यार करना चाह रहे थे। पापा को वो अपना चौथा भाई मानते थे। मम्मी को जफ्फी डालकर पहले एक कंधे फिर दूसरे कंधे पर प्यार कर रहीं थीं। 

कोठी आलीशान थी। चारों ओर बड़े-बड़े लॉन थे। सामने वरांडा और दोनों कोनों पर ऊपर और नीचे गोल कमरे थे। सामने बहुत बड़ा हाल कमरा, जिसके एक कोने में काँच के शो केस में दो तूम्बे का सितार खड़ा था। जिसे अगले दिन दुलहन बुआ ने बजाकर सुनाया था। इस दृश्य ने ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि बड़ी होकर मैंने भी सितार सीखा। इम्तिहान देने मैं इलाहाबाद भी गई और पापा ने मुझे कलकत्ता से दो तूम्बे का सितार भी मँगवा दिया। फ़र्स्ट क्लास भी आई। लेकिन कुछ कारणों से मैंने सितार छोड़ दिया। 

हाँ तो, वहाँ हमें ऊपर बाईं तरफ़ का गोल कमरा दे दिया गया, सामान रखने को। उन दिनों शादियों में कोई भी, कहीं भी सो जाता था। दाईं तरफ़ के गोल कमरे में उस घर की बड़ी बहू बीमार पड़ीं थीं। जिन्हें डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। लेकिन अब एक 40 की उम्र के स्वामी जी संगीत से उनका इलाज कर रहे थे। वे भी सितार पर हर वक़्त-वक़्त के राग बजाते थे। मैं उनके संगीत को सुनकर दौड़ती ऊपर पहुँच कर वहीं बैठ जाती थी। वो मुस्कुरा कर मुझे देख लेते थे। वैसे बच्चों को वहाँ जाना मना था। सब बच्चों ने ही मुझे बताया और मना भी किया बाद में पता लगने पर। किन्तु वो स्वामीजी मेरे न पहुँचने पर मुझे हाथ से बुलाते थे। 

इस बार अमेरिका में “ग्लोबल हिन्दी ज्योति” के खुला मंच में एक संगीतज्ञ ने बताया कि वे संगीत थैरेपी से बीमारी ठीक करती है, तो सत्तर वर्ष पूर्व की घटना मेरी आँखों के समक्ष आ गई। वो आंटी भी ठीक हो गईं थीं। उन्होंने घर-परिवार त्याग दिया था, यह कहकर कि आप लोगों के लिए तो मैं मर चुकी हूँ, अब मैं आश्रम की हूँ। स्वामीजी के साथ ही जाऊँगी। और वे किसी आश्रम की “मदर” बन गईं थीं कालांतर में। हालाँकि चर्चा “टाक ऑफ़ द टाउन” थी। 

आज इतना ही . . . इससे जुड़ी कुछ ख़ास बातें अगली बार . . . 

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