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छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–003

जब भी अतीत की खिड़कियाँ खोलने लगती हूँ तो वहाँ छिपे अफ़साने ऊँचे-ऊँचे रोशनदानों से बाहर भागते से लगते हैं। उन्हें लपक कर पकड़ने का यत्न करती हूँ तो कुछ कड़ियाँ खुलकर सामने बिखर जाती हैं। उन्हीं बिखरी कड़ियों को जोड़-जोड़ कर यह अफ़साना लिख रही हूँ . . . 

मैंने बताया था पिछले एपीसोड में कि पाबो (मम्मी की नानी) ने अपनी बेटी की ज़िंदगी की सलामती के वास्ते उसे भगतराम की तीसरी बीवी बनाया था। किन्तु होनी का लिखा कहाँ टल सकता है। बच्चों को लेकर मम्मी की माँ मायके यानी कि गुजरात गुजरांवाला गई हुई थीं। वहाँ उनके कान में तीव्र पीड़ा होने पर किसी पड़ोसन के कहने पर तेल में लाल मिर्च जला कर वो तेल कानों में डलवाया। उस तेल से उनके दोनों कान के पर्दे फट गए। उसका ज़हर भीतर ऐसा फैला कि वो पाबो के सामने ही चल बसीं! भगतराम का दिल बुरी तरह टूट गया था। उन्होंने थानेदार की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। और बच्चों की देखभाल स्वयं करने लगे, क्योंकि कमला (हमारी माँ) केवल डेढ़ साल की थी तब। साथ ही वे समाज-सेवा मेंं लग गए। 

उन्होंने एक छत के नीचे आर्यसमाज, मंदिर और गुरुद्वारा बनवाया। गुरुद्वारे के ग्रंथी की बीवी ने बच्चों के लालन-पालन में पूरा सहयोग दिया। इसी कारण हमारी माँ को हवन मंत्रों के साथ-साथ जपुजी साहब का पाठ भी प्रतिदिन करने की आदत थी। 

एक दिन झेलम से ख़बर आई कि इन्दर (आई.एस. जौहर) बहुत बीमार है। बच्चों को लेकर भगतराम जी अपने लख़्ते जिगर को मिलने गए। लेकिन वो अपने बेटे को एक बार छाती से लगाकर प्यार नहीं कर सके। क्योंकि वो अपने वचन से बँधे जो थे। अब वो जौहर साब के दामाद थे केवल। हमारी माँ बताती थीं कि उनके इस दर्द को बयाँ करना मुश्किल है। ये दर्द वहीं समझ सकते हैं, जिन्होंने अपनी औलाद किसी को गोद दी हो, और जग-ज़ाहिर की मनाही हो। बम्बई में मम्मी ने जब इंदर भाई से पूछा कि आप कॉमेडी में ही क्यों इंटरेस्टेड हो? और साथ में यह बात सुनाई तो आई.एस. जौहर कॉमेडी किंग भी ग़मगीन हो गए थे। बोले कि दुनिया में बहुत ग़म हैं, तभी तो मैं लोगों को हँसाना चाहता हूँ, सो कॉमेडी फ़िल्में बनाता हूँ। 1971 मेंआई.एस. जौहर को बेस्ट कॉमेडियन का फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड मिला था। 

हाँ, मदनमोहन जी संगीतकार कैसे बने? इसके पीछे भी इसी परिवार से संबंधित एक घटना है। हमारी माँ के बड़े भाई धर्मवीर जो मदनमोहन के जिगरी दोस्त थे, 13-14 वर्ष की उम्र में, उनकी मौत के हादसे ने उन्हें इतना सदमा दिया कि वे उसकी याद में अकेले बैठे गीत गाते रहते थे। दर्द और सोज़ भरे नग़में, फिर सारा झुकाव ही संगीत की ओर हो गया था जिनमें अथाह वेदना और मनस्ताप था। उनके संगीत से सजा लता मंगेश्कर जी का गीत:

“माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की . . . माई री . . . " दर्द भरा अमर-गीत है। 

हाँ तो भगतराम, जो उस ज़माने में भी अपने बच्चों को शिक्षा के आभूषण देना चाहते थे। उन्होंने बेटी (हमारी माँ) को चकवाल के होस्टल में डाल दिया हुआ था। बड़ा बेटा रोशन बनारस यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग कर के घर आ गया था। मदन उनके पास ही पढ़ रहा था। उन्होंने “स्त्री रोगता ” पुस्तक लिखी थी। फिर एक और पुस्तक लिखी, जिस का नाम याद नहीं आ रहा। (मुझे लगता है लेखन के बीज शायद वहीं से मुझ में फलीभूत हुए हैं) सन् 1937 की बात है। जब बेटी आठवीं पढ़ कर घर आई तो वे मृत्यु शैय्या पर थे, और उनकी ज़िंदगी का सफ़र समाप्त हो गया था।

अगले एपिसोड में कहीं और . . .। 

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