अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–32

 

घटनाओं के निरंतर घटने से ही जीवन में गतिशीलता होती है और यही घटनाएँ यादों में जब अपना बसेरा ढूँढ़ने लगती हैं तो ठौर मिलते ही अपना कुनबा रच बैठती हैं। फिर आवाज़ देकर बुलाने से एक-एक कर के बाहर झाँकती हैं और अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। आज तो मैं आपसे रवि जी का एक संस्मरण साझा करूँगी। मेरे पूछने पर उन्होंने मुझसे साझा किया था कि उनकी और राज कपूर जी की दोस्ती कैसे हुई थी? उन्होंने सुनाया—

“ग्रेजुएशन के पश्चात अपने मित्र महेन्दर को साथ लेकर मैं कश्मीर घूमने गया। वहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य के मोहपाश में न चाहते हुए भी मैं बँधा जा रहा था। कि तभी देखता हूँ बादल का एक नन्हा टुकड़ा अभी-अभी पधारे चाँद को चूम रहा है। और चाँद की चमक इस प्यार से दुगुनी हो रही है। मैं हतप्रभ रह गया। अपने कैमरे में यह सब क़ैद करते हुए भी मन भर नहीं रहा था। मन में एक नया विचार जन्म ले रहा था। एक सुन्दर वृक्ष का मानो बीजारोपण हो रहा था। 

“मैंने देखा पहलगाम के हर तरफ़ फोटोग्राफी के दृश्य बिखरे पड़े हैं, पर वहाँ उन्हें कैमरे में क़ैद करने वाला कोई नहीं है। कोई फोटो स्टुडियो नहीं था वहाँ। हम दोनों मित्रों ने गुलमर्ग, मटन, कुकरनाग, श्रीनगर में नगीन लेक, डल लेक सब की सैर की और हर सैलानी की तरह घर को लौट गए। लेकिन मन में बचैनी लिए . . . 

“लगता था मानो कश्मीर बुला रहा हो। सन्‌ 1961 के मार्च महीने में मैं पुनः श्रीनगर गया, वहाँ एक मित्र शर्माजी के घर ठहरा। उनके साथ बैठकर कुछ जुगाड़ लगाया, और पहलगाम में एक दुकान किराए पर ले ली। हालाँकि तब मैं स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया जालंधर में काम करता था। बस यही बना मेरे जीवन का मील पत्थर! 

“अपने स्कूल के दिनों से ही राजकपूर के आर.के. का बैनर मेरे ख़्यालों में रचा-बसा था। मैं हर कॉपी के पिछले पृष्ठों पर उसी की नक़ल बनाता रहता था। सो, अब वो ख़्वाब हक़ीक़त का जामा पहनने जा रहा था। अपने नाम रविंदर कुमार के अनुरूप दुकान का नाम आर.के. स्टूडियो रखना तय था। 1961 मई की तीन तारीख़ को दुकान की शानदार फ़िटिंग करवा के रात के समय हम आर.के. स्टुडियो का बोर्ड लगा रहे थे कि तभी दुकान के सामने पैदल सैर करते राज कपूर जी दुकान पर आ गए और बोले, “ओए! आर.के. स्टुडियो?” उन दिनों फ़िल्मी-सितारे पर्दे की चीज़ थे। उन्हें देख पाना बहुत मुश्किल होता था। राजकपूरजी को देखकर हम हक्के-बक्के थे कि वे बोले, “भई, यह तो मेरा स्टुडियो है–आर.के.” इस पर मैंने अपना नाम बताया। तो आँखों से मुस्कुराते हुए उन्होंने मेरे दोनोंं हाथ थाम लिए। 

“उन दिनों एक दक्षिण भारतीय फ़िल्म की शूटिंग हो रही थी पहलगाम में। जिसमें जेमिनी गणेशन और वैजयंती माला थे। मैं उसी दिन वैजयंती माला की फोटो खींचकर लाया था और उसे फ़्रेम में लगा कर काउंटर पर रखा था। उसे देखते ही वह बोले, “अरे राधा भी यहाँ आई हुई है?” 

“मैंने हैरान हो पूछा, “राधा कौन है?” 

“तो बोले अगली फ़िल्म में—यह राधा है। उन्होंने बताया कि वह फ़िल्म “संगम” की स्टोरी और स्क्रिप्ट लिखने पहलगाम आए हैं। मैंने उनसे अर्ज़ की कि आप कल मेरे स्टुडियो की ओपनिंग अपने हाथ से करें। इस बात पर वह प्रसन्नता से बोले कि अवश्य। मैं सुबह पहुँच जाऊँगा। 

“अगले दिन उनके आने पर उनके हाथ में रिबन वाली कैंची दी, दुकान के सामने हिस्से में रिबन बाँधा था। उनसे रिबन कटवाया। तालियों की गड़गड़ाहट में लडडुओं से सब का मुँह मीठा कराया गया। स्टुडियो के साथ-साथ, एक दोस्ती की नींव भी पड़ी उसी पल। 

“उन्होंने मुझे सलाह दी कि तुम बोर्ड के ऊपर कैमरे के साथ खड़े हो—ऐसा वाला बैनर बना लो और वही बैनर चलता रहा जबकि उनके हाथ में नरगिस और वायलिन थी। 

“राजकपूरजी सरकारी ‘हट ए-4’ में ठहरे थे। जो नटराज होटल के पास थी। साथ में तीन-चार लोग और भी थे। उन्होंने बताया कि वे दो महीनों के लिए कश्मीर में आराम करने आए हैं। विश्व मेहरा—जिन्हें सब मामाजी कहते थे, शायद वे रिश्ते में उनके मामाजी ही थे—हर समय उनके साथ होते थे। वहीं ‘हट’ में बैठे फ़ुर्सत के पलों में अगले दिन राजकपूरजी ने दिल की कुछ बातें साझा कीं यह बताकर कि उन्होंने पाँच वर्ष पहले अपनी फ़िल्म “जिस देश में गंगा बहती है” घोषित की थी। 

“लेकिन उन्हीं दिनों नरगिस के साथ रिश्तों में दरार आने से और साथ ही रिश्ता ख़त्म होने से उसने आर.के. स्टुडियोस बॉम्बे से अपने सारे शेयर वापस ले लिए थे। इस अकस्मात्‌ आए आर्थिक संकट से उबरने के लिए उन्होंने पाँच वर्षों तक कठिन संघर्ष किया और किसी भी बैनर की फ़िल्म को साईन कर उसमें एक्टिंग की। जिससे अपनी आर्थिक कमी को पूरा करने में सक्षम हुए। 

“अब उनका अगला टारगेट था—अपनी अधूरी फ़िल्म को पूरा करना और उसे उन्होंने सन्‌ 1961अप्रैल तक पूरा कर भी लिया। इसका प्रीमियर पहली मई को दिल्ली में करके वे सीधे आराम करने दिल्ली से श्रीनगर आ गए थे। सारा दिन उनके पास आना-जाना लगा रहता था। खाना वग़ैरह भी साथ ही होता था। किन्तु उनको मुझसे एक गिला सदा ही रहा, रवि! यार तू पीता नहीं है। आर.के. स्टुडियो की सीढ़ी पर बैठ जाते थे और बोलते थे कि—यार! कभी मेरे जाम को अपने लबों से लगाकर जूठा ही कर दे। और मैं उनके हाथों से ही उन्हें पुनः प्यार से पिलाता। वे मुझे कंधे के ऊपर से पकड़कर छाती से लगा लेते थे। रात को बारह बजे तक आर.के. स्टुडियो खुला रहता था। जिससे बाज़ार में देर तक रौनक़ लगी रहती थी। लोग भी राजकपूर के साथ फोटो खिंचवाने की ख़ातिर आर.के. स्टुडियो के बाहर मेला लगाए रहते थे। 

“राजकपूर बोले कि वे कुछ दिनों के लिए गुलमर्ग और श्रीनगर होकर वापस फिर पहलगाम आते हैं। वापस आने पर उनके साथ इस बार ‘संगम’ उनकी आने वाली अगली फ़िल्म के कहानी-लेखक ‘इन्दरराज आनन्द’ भी थे। यहीं पहलगाम में उन्हें अपने साथ बैठाकर राजकपूर ने ‘संगम’ की पटकथा पूरी की। इसके पूर्ण होने पर उनका मन हुआ कि इसे शिव-चरणों में चढ़ाया जाए और उनका आशीर्वाद लेने के लिए बर्फानी बाबा अमरनाथजी की यात्रा की जाए। उनके पापा पृथ्वीराज कपूर शिव की पूजा आराधना करके फ़िल्म शुरू करते थे। 

“उनके आग्रह पर मैं भी उनके साथ-साथ हो लिया। हमारा क़ाफ़िला पहली जुलाई को पोनीस (खच्चर) पर बैठा। साथ थे—श्री हरीश बिबरा, विश्व मेहरा मामाजी, इन्दरराज आनन्द, के.सी. मेहरा (छबीली फ़िल्म में तनुजा के साथ नए हीरो थे), एक इंसपेक्टर चोपड़ा और मिस्टर एंड मिसेस जैन। मिस्टर जैन अकाउंटेंट जनरल ऑफ़ कश्मीर थे। वे हनीमून पर गुलमर्ग गए हुए थे और राजकपूर को मिलने गए। उनकी वाइफ़ बहुत ख़ूबसूरत थीं। वह लोग भी पहलगाम आ गए थे। चंदनवाणी से बर्फ़ का पुल पार करके, आगे पिस्सू-घाटी की मुश्किल चढ़ाई चढ़कर नीचे शेषनाग झील पर पहुँच, रात को डाक-बँगले पर सबने विश्राम किया। अगले दिन हिम शिलाओं को लाँघते, ऊचे-नीचे दर्रों को ताक पर रखते हुए हम ख़ुशहाली के माहौल में वहाँ बर्फानी बाबा के चरणों में ‘संगम’ की पटकथा को माथा नवाकर व दर्शन करके वापसी में पंचतरणी के डाक बँगले में रहे। तीसरे दिन वापस पहलगाम आ गए थे। 

“पिछले एक हफ़्ते से साथ रहते-रहते हम सब काफ़ी निकट आ गए थे। राजकपूर जी के घोड़े की लगाम पकड़े हुए मेरी एक फोटो 22”/24” की सन्‌ 2005 तक मेरी दुकान की मास्टरपीस फोटो थी। वे जब भी आते उसे देख प्रसन्न हो जाते थे। (एक आग के हादसे में हमें उसे खोना पड़ा! ) 

“दोस्ती प्रगाढ़ हो चली थी। दुकान महेन्दर के भरोसे छोड़, मैं पापाजी के साथ-साथ ही रहा। अगला पड़ाव था श्रीनगर व उसकी झीलें। शहर से दूर एकांत में एक बड़ी सी डीलक्स हाऊसबोट में नगीन-लेक में हम ठहरे। वहाँ शिकारों में दिन-भर सैर करने का अपना ही आनन्द था। शेयरो-शायरी का माहौल बन जाता था। जाम पर जाम खनकते थे वहाँ। खाना भी तरह-तरह का सर्व होता था। अगली सुबह ख़बर मिली कि “जिस देश में गंगा बहती है” की हीरोईन पद्मिनी शादी करके अपने पति के साथ हनीमून पर कश्मीर पहुँची है। लो जी, राजकपूरजी ने रेसीडेंसी रोड—बँड पर स्थित “प्रीमियर होटल” में उनके स्वागत की पार्टी शाम को रख दी। उन्हें सादर निमंत्रित किया गया। पार्टी में आरकेस्ट्रा पर उनकी इसी फ़िल्म “जिस देश में गंगा बहती है” के गीतों की धुनें बजाई गईं। धीरे-धीरे सब थिरकते रहे। रात जवान थी, और पार्टी अपनी जवानी पर। 

“लेकिन, मैंने उनसे विदा ली इस वायदे के साथ कि बम्बई शीघ्र ही आऊँगा। 

“राज कपूर जी के साथ इस टूर की ढेरों फोटोस फ़िल्म मैग्ज़ीन ‘स्क्रीन’ में 27जुलाई, 1961 में छपीं—“Pilgrimage to the Amarnath by RajKapoor” by RK studio Pahalgam. 

“पंजाब में इन फोटोस ने धूम मचा दी थी। सब समझते थे कि रवि फ़िल्मों में जा रहा है। लेकिन मेरी पसंद तो कश्मीर था। इस वाक़ये के बाद ये दोस्ती सारी उम्र चली। उनका आना-जाना लगा ही रहता था कश्मीर में। हमारे सम्बन्ध सदा मधुर बने रहे।”

जी हाँ, तभी तो मैंने पूछा था। और मुझसे कई लोगों ने पूछा था। 
 
विशेष:

आज 2 जून को उनकी बरसी है। उन्हें हमसे जुदा हुए 32 वर्ष हो गए हैं। आज उनकी यादें ताज़ी करके हम उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। 

वीणा विज ‘उदित’
जून/2020

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अति विनम्रता
|

दशकों पुरानी बात है। उन दिनों हम सरोजिनी…

अनचाही बेटी
|

दो वर्ष पूरा होने में अभी तिरपन दिन अथवा…

अनोखा विवाह
|

नीरजा और महेश चंद्र द्विवेदी की सगाई की…

अनोखे और मज़ेदार संस्मरण
|

यदि हम आँख-कान खोल के रखें, तो पायेंगे कि…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

आप-बीती

स्मृति लेख

यात्रा-संस्मरण

लघुकथा

कविता

व्यक्ति चित्र

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. मोह के धागे