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कौन है सब्बू का शत्रु

जून का तीसरा सप्ताह चल रहा था। तापमान खूब कुलाँचें भर रहा था। चालीस-ब्यालीस डिग्री को पार कर रहा था। जीवन को महँगाई, गुंडई की तरह त्रस्त किए हुए था। शहर में सड़कों पर सन्नाटा छाया रहता था। लगता जैसे कर्फ़्यू लगा हुआ है। मगर कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो इन सब को पीछे छोड़कर आगे निकलने के लिए विवश कर देती हैं। इसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी यह भी सोचने का अवसर नहीं देतीं। कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते मैं क़रीब तीन बजे झुलसा देने वाली चिलचिलाती धूप में ऑफ़िस से घर के लिए निकला। अपने रिक्शे वाले को फोन करके बुला लिया था। वह कई सालों से मुझे अपनी सेवा दे रहा है। किसी और के पास समय से पहुँचे या ना पहुँचे, ईमानदारी बरते या ना बरते, लेकिन मेरे साथ हमेशा टाइम का पंक्चुअल और ईमानदार रहता है। बीच-बीच में पैसे माँगता रहता है, इसके चलते डेढ़-दो महीने का एडवांस उस पर मेरा हमेशा बना रहता है।

मैं इसी रिक्शे वाले के साथ अपनी परेशानियों से धींगा-मस्ती करता चला जा रहा था, अंबेडकर पार्क, गोमतीनगर, लखनऊ की बगल वाली सड़क से। सैकड़ों एकड़ में बलुआ पत्थर से बना यह स्मारक लखनऊ में नए आकर्षण केंद्रों में एक बन चुका है। इसी स्मारक की बाऊँड्री से सट कर दूर तक चली जा रही सड़क पर मुझे थोड़ा आगे एक आदमी बैठा दिखाई दिया। मन में उत्सुकता हुई कि इतनी प्रचंड गर्मी में, सुलगती सड़क पर यह क्यों बैठा हुआ है? वह एक हाथ इस तरह से आगे फैलाए हुए था कि उसके पास से निकलने वाला व्यक्ति उसे कुछ देता जाए। इतना ही नहीं उसने एक पैर भी अजीब ढंग से आगे बढ़ाया हुआ था। पैर घुटने से आठ-नौ इंच के बाद आगे कटा हुआ था। नीचे बँधी सफ़ेद पट्टी दूर से ही चमक रही थी। रिक्शा जैसे-जैसे क़रीब पहुँच रहा था, तस्वीर और साफ़ होती जा रही थी।

कुछ और क़रीब पहुँचने पर उसके बगल में ही मुझे एल्यूमिनियम की दो बैसाखियाँ भी रखी दिखाई दीं। उसकी ऐसी हालत पर मुझे बड़ी दया आयी कि, बेचारा कितनी तकलीफ़ में है। उस पर बालिश्त भर की भी छाया नहीं है। उस समय मैं कंक्रीट के घने जंगल में छाया की बात सोचने की नादानी कर रहा था। जैसे ही रिक्शा उसके सामने पहुँचा, मैंने उसे रुकवा लिया। देखा वह क़रीब पैंतीस-चालीस बरस का आदमी था। धूप ने उसे और काला बना दिया था। दुबला पतला शरीर, आँखें अपेक्षाकृत कुछ नहीं, बहुत ही ज़्यादा बड़ी थीं। नाक बहुत ही भद्दे ढंग से एक तरफ़ मुड़ी हुई थी। उसने बड़ी दयनीय सी एक फ़ुल बाँह की शर्ट पहनी हुई थी। जिसकी बाँहें ऊपर की तरफ़ मुड़ी हुईं थीं। उसकी मटमैले सफ़ेद रंग की लुंगी भी शर्ट की ही तरह दयनीय थी।

मुझे देखते ही वह हाथ ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा। मैंने उससे पूछा, "इतनी तेज़ गर्मी में जलती सड़क पर क्यों बैठे हो? कहीं छाया में क्यों नहीं बैठते? ऐसे तो तुम्हारी तबीयत ख़राब हो जाएगी।" 

मेरी बात का जवाब देने के बजाय वह हाथ हिलाता रहा। मुझे लगा शायद गूँगा-बहरा भी है। अपनी शंका दूर करने के लिए मैंने अपनी बात तेज़ आवाज़ में दोहरा दी। तब वह बोला, "छाया में बैठूँगा तो कोई रुकेगा ही नहीं। छाया में होता तो तुम रुकते क्या?" मुझे उससे ऐसे तीखे जवाब की आशा बिल्कुल नहीं थी। मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह थोड़ा नम्र लहजे में आगे बोला, "बहुत मुश्किल में हूँ बाबूजी, खाने और दवाई का पैसा नहीं है, अपाहिज हूँ, कुछ कर नहीं सकता।" उसकी आवाज़ से मुझे जो दर्द महसूस हुआ, उसने मुझे झकझोर कर रख दिया।

मैं एकटक उसे देखता रह गया। उस पर बड़ी दया आ रही थी। मेरा हाथ स्वतः ही जेब में चला गया। मेरे पास उस समय कुल दो नोट थे। एक पचास का और एक सौ का। मैंने पचास की नोट हाथ बढ़ाकर उसके फैले हुए हाथ पर रख दिया। उसने थरथराते हुए हाथों से जल्दी से नोट लेकर अपने माथे पर लगाया और तुरंत बोला, "बाबूजी दवाई के लिए कुछ पैसा दे दो, भगवान आपका भला करेगा।" उसकी आवाज़ में करुणा और प्रगाढ़ हो चुकी थी। सौ के नोट के साथ मेरा हाथ फिर उसके हाथ की तरफ़ बढ़ गया। उसने तुरंत नोट लपक लिया। मुझे एक साँस में न जाने कितनी शुभकामनाएँ दे डालीं। भगवान यह करे, भगवान वह करे। मैं उसे सुनता रहा, देखता रहा, कुछ बोल नहीं पा रहा था। बड़ी तेज़ी से यही सोच रहा था कि कम से कम इसकी दवा की तो व्यवस्था कर ही दूँ। उसके पैर में बँधी पट्टी निचले हिस्से में ख़ून से सनी थी। ख़ून सूख कर काला पड़ चुका था। उसने बताया घाव सही नहीं हो रहा है।

मैंने पूछा इलाज कहाँ से करवा रहे हो, तो उसने एक सरकारी हॉस्पिटल का नाम बता दिया। लगे हाथ यह भी कि हॉस्पिटल से सारी दवाएँ नहीं मिलतीं। मैं बड़ी उलझन में पड़ गया कि क्या करूँ? रिक्शे का हुड उठा हुआ था, लेकिन फिर भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मेरा सिर ही चटक जाएगा। गर्म हवा बिल्कुल झुलसाए डालने पर ही तुली हुई थी। रिक्शे वाले का चेहरा बता रहा था कि वह धूप ही नहीं, मुझ पर भी ग़ुस्से से खौल रहा है कि, एक तो इतनी धूप में बुला लिया, ऊपर से पुण्य करने की नौटंकी में इतनी देर से धूप में उसे बेवज़ह सेंक रहे हैं।

मुझे लगा कि उसके साथ अन्याय हो रहा है। यह सोच कर मैंने भिखारी से कहा, "सुनो अब तुम्हें पैसे मिल गए हैं। तुम्हें जहाँ जाना हो वहाँ चले जाओ। धूप में तुम्हारी हालत बिगड़ जाएगी। या तुम्हें कहाँ जाना है वह बताओ, मैं तुम्हें वहाँ छोड़ दूँ।" 

उसका कोई उत्तर आता कि उसके पहले ही रिक्शे वाला झल्ला कर बोला, "अरे बाबूजी, आप कहाँ इस के चक्कर में पड़े हैं। आप कुछ भी कर देंगे यह आपको हमेशा ऐसे ही मिलेगा। आप चलिए ना, आपको धूप बहुत तेज़ लग रही है।" रिक्शे वाले की बातों से मुझे उसकी वास्तविक मनसा समझते देर नहीं लगी कि वह क्या चाहता है।

वह किसी सूरत में यह नहीं चाहता था कि मैं एक सेकेण्ड भी वहाँ पर रुकूँ और सुलगती सड़क पर बैठे उस आदमी को रिक्शे पर बैठा कर ले चलूँ। अपनी बात पूरी करने से पहले ही उसने रिक्शे का हैंडल सीधा किया और पैडल पर दबाव बनाने लगा। मैं समझ गया कि अब यह रुकने वाला नहीं। यह सही भी था कि अब रुका भी नहीं जाना चाहिए था। एक के लिए दूसरे को कष्ट देना किसी दृष्टि से न्याय संगत नहीं था। हमें इसकी मदद करनी है तो मुझे चाहिए कि मैं रुक जाऊँ। यह जाना चाहता है तो इसे जाने दूँ। लेकिन जल्दी मुझे भी थी और धूप में मेरी ख़ुद की हालत भी ख़राब हो रही थी, तीसरे वह सड़क पर से उठकर छाया में चलने को उत्सुक भी नहीं दिख रहा था, तो मैं चल दिया।

चलते-चलते मैं भिखारी से स्वयं को यह कहने से रोक नहीं सका कि, "तुम छाया में चले जाओ, जो मिलना होगा, वहाँ भी मिल जाएगा।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शा वाला आगे बढ़ चुका था। मेरी जेब में अब एक पैसा नहीं था। रिक्शे वाले को पैसा महीना पूरा होने पर देना होता है, इसलिए उसे पैसे देने की चिंता नहीं थी। लेकिन जो सामान लेकर घर जाना था उसे ख़रीदने के लिए मेरे पास कानी कौड़ी भी नहीं थी और सामान लेना बेहद ज़रूरी था। मैं बड़ा परेशान हो गया कि अब घर से पैसा लेकर फिर चार-पाँच किलोमीटर दूर वापस आना पड़ेगा। इस धूप में दोबारा ख़ुद को झुलसाने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है।

मैं यह सोच ही रहा था कि तभी रिक्शे वाला भुनभुनाया, "साहब आपने इसे बेवज़ह इतना पैसा दे दिया। इसका तो रोज़ का ही यही धंधा है। यह आपको कल भी ऐसे ही दिखेगा। रोज़ नई-नई पट्टी बाँधकर ऐसे ही सीधे-साधे लोगों को यह ठगता रहता है।" मैंने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कि यह अपनी खुन्नस निकाल रहा है क्योंकि इसे धूप में रुकना पड़ा। कितना पत्थर हृदय है। उस बेचारे की तकलीफ़ पर इसका दिल ज़रा भी नहीं पसीजा।

अच्छा हुआ मैंने उसे रुपये दे दिए। इसका वश चलता तो यह देने ही नहीं देता। अभी यह और आँखें निकालेगा जब घर से पैसा लेकर वापस आऊँगा सामान लेने। मेरे चुप रहने पर वह फिर बोला, "साहब आप चाहें तो कल इसकी पट्टी खुलवा कर देख लीजिएगा, कहीं कोई घाव-वाव नहीं है।" 

इस बार मैं अपने ग़ुस्से को रोक नहीं पाया। मैंने कहा, "होगा भाई, मान लो उसके पैर में कोई घाव नहीं है, वह धोखा दे रहा है। लेकिन यह तो सच है ना कि उसका पैर कटा हुआ है। बिना बैसाखी के तो वह चल नहीं सकता ना। तो वह काम क्या करेगा? डेढ़ सौ रुपए में एकाध दिन तो उसके खाने-पीने की व्यवस्था हो ही जाएगी।" 

"साहब खाना-पीना नहीं, यह इन पैसों से गांजा, स्मैक पिएगा। ये बहुत बड़ा खिलाड़ी है। इसको हम लोग दिनभर यहाँ से लेकर बादशाह नगर, मुंशी पुलिया, टेढ़ी पुलिया तक देखते रहते हैं। पुलिस वालों का पक्का जासूस है। आपने ध्यान नहीं दिया वह अभी भी गांजा पिए हुए है।"

मुझे लगा कि यह कुछ ज़्यादा ही बकवास कर रहा है। कल कुछ पैसे माँग रहा था, तंगी के चलते नहीं दिया और करुणावश इस भिखारी को दे दिया तो उसके लिए इतना ज़हर बोल रहा है। मैंने ग़ुस्सा होकर कहा, "तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे सारे समय इसी के साथ रहते हो। सब देखते हो, तुम्हें इससे इतनी ज़्यादा घृणा क्यों हो गई है?" 

इस बार मेरा लहजा थोड़ा सख़्त था तो वह तुरंत ही नम्र होता हुआ बोला, "नहीं, नहीं साहब, ऐसी बात नहीं है। आप ग़ुस्सा ना हों। हमारी बात पर यक़ीन करें। कल मैं आपको ख़ुद ही ले चलूँगा, देख लीजिएगा हमारी बात सच ना निकले तो कहिएगा।"

 इस बार मैंने कुछ संयम से बोलते हुए कहा, "मुझे कुछ नहीं देखना। वह सच्चा, झूठा, मक्कार जो भी है मुझे इसकी परवाह नहीं। मुझे जो करना था वह मैंने कर दिया, बस।" असल में अब मुझे उसकी बातों पर यक़ीन होना शुरू हो गया था। मैंने सोचा, जो भी हो कल अगर मिल गया तो सच ज़रूर मालूम करूँगा।

रिक्शे वाला ऐसा न महसूस करे कि उसके साथ अन्याय हुआ, धूप में कड़ी मेहनत की तकलीफ़ उसे ज़्यादा प्रगाढ़ ना लगे। इसलिए जब दोबारा सामान लेकर घर पहुँचा, तो उसे पचास रुपये दे दिए। हालाँकि मुझे लगा कि धूप में उसने जितना रिक्शा चलाया उस हिसाब से उसे कम से कम सौ रुपये देना ही ठीक होता। लेकिन उस समय मेरी जो स्थिति थी उस हिसाब से तो दोनों ही को मेरा एक पैसा भी देना मूर्खता थी, जो मैंने की। एक रुपया नहीं पूरे दो सौ रुपये दिये। रात में सोते वक़्त भी मेरे दिमाग़ में यह बात बनी रही कि कल सच ज़रूर जानूँगा। लेकिन अगले दिन वह नहीं मिला। मुझे बड़ी कोफ़्त हुई। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं ठगा गया या फिर मानवीय पक्ष की मुझे ठीक-ठीक समझ ही नहीं है, इसलिए मानव धर्म को ठीक से निभा नहीं पाया। क्या रिक्शे वाले की बात सही है कि मैं ठगा गया।

ऑफ़िस जाते-आते रोज़ मेरी आँखें उसे ढूँढ़तीं, ख़ासतौर से अंबेडकर पार्क के पास। हफ़्ता भर निकल गया तो मैंने एक दिन रिक्शे वाले से पूछ लिया कि, "वह बैसाखी वाला कहीं दिखा था क्या?" 

मेरे पूछते ही वह एकदम से चालू हो गया, जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि मैं पूछूँ। उसने बताया, "बाबू जी वह अपने ठिकाने बदलता रहता है। आजकल बादशाह नगर, रेलवे स्टेशन के पास अड्डा बनाए हुए है। वह ऐसे ही अपना ठगी का धंधा चलाता है।" रिक्शे वाले ने इसके साथ ही ऐसी तमाम बातें बताईं कि मैं भौचक्का रह गया कि एक अपाहिज आदमी इतना कुकर्मी हो सकता है। इतना गिरा हुआ हो सकता है। उसने जिस तरह से सब कुछ बताया, उससे मैं उसकी बातों पर पहले की तरह शक करने की स्थिति में नहीं था। उसकी बातें मुझे सही लगने लगीं। यह बात भी कि उसने मुझे बड़ी ख़ूबसूरती से ठग लिया। मुझे बड़ी ग़ुस्सा आया।

मैंने उसी दिन शाम को रिक्शे वाले से उसी के पास चलने को कहा। इस पर वह भुनभुनाया, "साहब आप तो बेवज़ह उसके लिए परेशान हो रहे हैं। उसके पास चलेंगे तो वह कोई ना कोई नई नौटंकी बताकर आपसे फिर रुपए ठग लेगा। आख़िर आप चलकर क्या कर लेंगे?" 

मैंने झल्ला कर कहा, "मैं कुछ करने-वरने नहीं जा रहा हूँ। यह देखने-समझने के लिए चलना चाहता हूँ कि वह इस हालत में इतने कुकर्म कैसे कर लेता है। क्या वह इतना भी नहीं समझता कि इन घिनौनें गंदे कामों के कारण उसकी जान भी जा सकती है। वह आज नहीं तो कल पुलिस के हत्थे ज़रूर चढ़ेगा। तब पुलिस उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ देगी।"

रिक्शे वाला बोला, "साहब, मैंने पहले ही बताया था कि वो पुलिस का दलाल है। पुलिस का उसे कोई डर नहीं है। पुलिस सब जानती है। वह ख़ुद उससे मिली हुई है, तभी तो वह चार-पाँच साल से सब कुछ कर रहा है, लेकिन आज तक कहीं उसकी धरपकड़ नहीं हुई है। ज़्यादातर समय तो वह पुलिस चौकी के सामने ही थोड़ी दूर पर रहता है। इसलिए उसका कुछ भी नहीं होने वाला। आप उसके चक्कर में अपना पैसा और समय बर्बाद कर रहे हैं बस।" उसकी बातों से मैं खीझ उठा। हमारी बहस चलती रही और हम उस एरिया में उसे ढूँढ़ते हुए थक कर अपने घर पहुँच गए। रिक्शे वाले को सौ रुपये अलग से देने पड़े। भिखारी के ना मिलने से मैं बड़ा खिन्न हो रहा था। लेकिन मैंने ज़िद कर ली कि अब जो भी हो जाए मैं उसको ढूँढ़ कर रहूँगा। यह जान कर रहूँगा कि आख़िर उसमें ऐसी कौन सी ताक़त है कि वह पौने दो टाँग का होकर भी यह सब कर लेता है। यहाँ ज़रा सी धूप सहन नहीं होती और वह इतनी जलती-पिघलती सड़क पर नंगे पैर घूमता है। ऐसे-ऐसे काम करता है कि सुनकर सिर चकरा उठता है। जो भी हो जाए अब मुझे उससे मिले बिना चैन नहीं मिलेगा।

उसे ढूँढ़ते हुए एक और हफ़्ता निकल गया लेकिन वह कहीं नहीं मिला। रिक्शे वाले के किराए के साथ-साथ मेरी उलझन, मेरा ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। उसे भुला दूँ मैं यह भी नहीं सोच पा रहा था। अंबेडकर पार्क के पास पहुँचता नहीं कि उसकी याद आ ही जाती। मुझे लगता जैसे हाथ हिलाता वहीं बैठा वो मुझे ही देख रहा है।

यह संयोग ही था कि पंद्रहवें-सोलहवें दिन ऑफ़िस से फिर मुझे दोपहर तीन बजे ही चिलचिलाती धूप में निकलना पड़ा। काम बड़ा ज़रूरी था। मैं अंबेडकर पार्क के दूसरी तरफ़ सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल वाली रोड पर चला जा रहा था। जिस पर बाईं तरफ़ क़रीब एक दर्जन हट या प्रसाधन बने हुए हैं। बीच में एक फ़िश पार्लर भी है। मेंटीनेंस के अभाव में उनकी टूट-फूट देखता आगे बढ़ रहा था कि तभी वह बाएँ तरफ़ मुझे एक हट की चौखट पर छाए में बैठा हुआ दिख गया। उसे देखते ही मैंने रिक्शा तुरंत रुकवा लिया। सब ऐसे हुआ जैसे मेरा मुझ पर कंट्रोल ही नहीं था। मैं लपक कर उसके सामने खड़ा हो गया। मैंने सोचा कि वह मुझे ऐसे देख कर भौंचक्का हो जाएगा। डरेगा। लेकिन उल्टा हुआ। भौंचक्का मैं रह गया। वह बड़ी दिलेरी के साथ मुझे मेरी आँखों में आँखें डाले देखता रहा।

मुझे लगा कि वह हल्के-हल्के मुस्कुरा भी रहा है। कुछ देर अपने को जज़्ब करने, कई बातें सोचने के बाद मैंने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?" नाम बताने के बजाय वह कुछ अजीब सा मुँह बना कर बैठा रहा। मैं ना जाने किस भावना में बहकर उसी की बगल में थोड़ा फ़ासला लेकर ज़मीन पर ही बैठ गया। रिक्शे वाला हट में एकदम पीछे चला गया। मैंने दोबारा नाम पूछा तो वह कुछ देर बाद नाम बताने के साथ ही बोला, "भूख लगी है साहब।" 

मैंने कहा, "यहाँ तो कोई दुकान है नहीं। यहाँ तो कुछ नहीं मिल पाएगा?" 

यह सुनते ही वह तपाक से बोला, "साहब, फोन करके मँगा लो। यहीं पर लेकर आ जाएगा।" 

यह सुनते ही मैं दंग रह गया। वह सीधे-सीधे ऑनलाइन खाना मँगाने के लिए कह रहा था। मैंने ना कभी सुना था, ना कभी सोचा था कि कोई भिखारी इस तरह बे-खौफ़ ऑनलाइन खाना ऑर्डर करने के लिए कहेगा और ऑनलाइन सिस्टम को भी अच्छी तरह से जानता होगा।

मुझे रिक्शे वाले की सारी बातें एकदम सच लगने लगीं। यह भिखारी नहीं, भिखारी के भेष में जरायम की दुनिया का खिलाड़ी है, और यही समझ रहा है कि मैं अपनी किसी ज़रूरत की वज़ह से इसके पीछे पड़ा हूँ। मेरी उसी ज़रूरत को यह कैश कराने की सोच रहा है। मैंने कहा, "इतनी गर्मी में कोई ऑर्डर लेकर यहाँ क्यों आएगा?" 

"करो तो साहब। सब आ जाएँगे। हम तो रोज़ ही देखते रहते हैं लोगों को ऐसे ही मँगाते हुए।" उसकी हालत से मुझे लगा कि यह भूख से कुछ ज़्यादा ही परेशान है। मैं पीछे रिक्शे वाले की ओर मुड़ा कि देखें यह क्या कहता है, लेकिन वह सिर के नीचे अपना अंगौछा रख कर जमीन पर ही सो रहा था। मैंने सोचा कमाल का आदमी है, इतनी गर्मी है और ये दो मिनट में ही सो गया। जो भी हो आदमी साफ़ दिल का लगता है।

तभी भिखारी फिर बोला, "साहब मँगा दो ना। फोन करो, सब थोड़ी ही देर में आ जाएगा।" 

मैंने जब देखा कि वह खाए बिना एक बात नहीं करेगा तो उससे कहा, "देखो तुम जो खाना कहोगे, वह सब मैं मँगा दूँगा। लेकिन मैं जो-जो पूछूँगा तुम मुझे वह सब सच-सच बताओगे।" 

दो बार कहने पर उसने हामी भरी तो मैंने ऑर्डर कर दिया। एक कंपनी तो वहाँ पर ऑर्डर डिलीवर करने को तैयार नहीं हुई। दूसरी सात सौ रुपये से ऊपर का ही ऑर्डर डिलीवर करती थी। अब क्योंकि मुझे हर हाल में बात करनी ही करनी थी तो ऑर्डर कर दिया। मैं यह भी सोचता जा रहा था कि जो भी मेरी इस हरकत को सुनेगा, मुझे मूर्ख नहीं बल्कि पागल भी कहेगा।

मैंने तीन लंच ऑर्डर किए थे। अपने और रिक्शे वाले के लिए भी। यह करके मैंने उससे फिर कहा, "तुमने जो कहा वह खाना मैंने ऑर्डर कर दिया है। अब मैं जो भी पूछूँगा वह सब तुम सच-सच बताओगे।" 

उसने सहमति में सिर हिलाया तो मैंने पूछा, "अपना पूरा नाम बताओ।" 

"सब्बू"।

"यह भीख कब से माँग रहे हो?" 

"जब से पैर कट गया, तभी से।" 

"अच्छा-अच्छा। यह पैर कटा कैसे?" 

"ट्रेन से।" 

मेरी बातों का वह बड़ी चालाकी से सूक्ष्मतम जवाब दे रहा था। उसकी बातों से मैं समझ गया कि वह हद दर्जे का चालाक आदमी है। पढ़ा-लिखा नाम-मात्र का है लेकिन कढ़ा बहुत ज़्यादा है। मैं उससे आत्मीयता के साथ बातचीत जारी रखे हुए था। धीरे-धीरे वह खुलता चला गया। बताता गया कि कैसे एक खाते-पीते घर का, अपने माँ-बाप का दुलारा बेटा यहाँ इस हाल में पहुँच गया।

उसके मन में माँ-बाप के लिए कठोरतम ग़ुस्सा भरा हुआ था। उसने जो बताया, उसके साथ जो बीता वह दर्दनाक, हृदयविदारक था। बचपन की बात शुरू करने से पहले उसने लुंगी के फेंटे से एक सिगरेट निकाल कर जलाई। बड़े अंदाज़ से कई बड़े-बड़े कश लेकर गाढ़ा धुआँ उगला। उसकी गंध साफ़ बता रही थी कि उसमें गांजा भरा हुआ है। जब वह धुआँ उगलता तो मैं अपना मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता। मैं उन लोगों में से हूँ जो सुबह फ्रेश होने से पहले तंबाकू, चाय, सिगरेट आदि का सेवन करते हैं। मैं कम से कम दो कप चाय, दो सिगरेट ज़रूर पीता हूँ। इसके बावजूद तब मेरा सिर चकरा रहा था। मगर मैं उसे मना करने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था कि कहीं यह बातें बताने से मुकर ना जाए। हो सकता है कि यह बात कहने के लिए मूड बना रहा हो। उसने सिगरेट ख़त्म करके बताया कि उसके माँ-बाप दोनों ही नौकरी पेशा थे। उसे दिन भर डे-बोर्डिंग स्कूल में रहना पड़ता था। पाँच-छः साल तक उसे ख़ूब लाड़-प्यार ऐशो आराम मिला।

मगर इसके बाद जल्दी ही माँ-बाप के बीच रोज़ झगड़े होने लगे। इसके साइड इफ़ेक्ट के रूप में उसकी उपेक्षा शुरू हो गई। साथ ही साथ मार भी पड़ने लगी। जल्दी ही अब्बू ने अम्मी को तलाक़ दे दिया। दोनों जिसे-जिसे चाहते थे, उसके साथ चल दिए। शादी कर ली। उसको अब्बू ने अम्मी के पास ही छोड़ दिया था। नए सौतेले बाप ने उससे पहले दिन से ही प्यार से बात की। अम्मी जैसे पहले उसे "मेरा शाहज़ादा" कहती थीं, प्यार से उसकी देखभाल करती थीं, उसकी देखभाल को अपनी ख़ुशी मानती थीं, सुबह से लेकर रात सोने जाने तक उसे दर्जनों बार प्यार करती थीं, चुंबन लेती थीं, वैसे ही करती रहीं। वह अच्छे कॉन्वेंट स्कूल में ही पढ़ता रहा। लेकिन सौतेले भाई के जन्म के कई महीने पहले ही से स्थितियाँ तेज़ी से बदलती चली गईं। और जब भाई बाबुल का जन्म हो गया तो सब एकदम से बदल गया।

बाप का व्यवहार कठोर हो गया। उसे बेवज़ह मारना-पीटना, गंदी-गंदी गाली देना उनका रूटीन वर्क हो गया। अब मज़दूर के बच्चे और उसमें कोई फ़र्क नहीं रह गया। अम्मी भी उन्हीं की तरह हो गईं। उसे कॉन्वेंट से निकाल कर म्यूनिस्पल स्कूल में डाल दिया। बाबुल सात-आठ महीने का था तभी घूमने के लिए सभी लोग ट्रेन से चले। उसको याद नहीं कि कोलकाता से कहाँ के लिए निकले। उसे यह भी याद नहीं कि वापसी में उसे उसकी अम्मी और सौतेले बाप ने किस रेलवे स्टेशन पर छोड़ा था। बस इतना याद है कि स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर वह अम्मी के साथ था। अपने भाई बाबुल के साथ खेल रहा था। जिसे वह बहुत प्यार करता था। तभी सौतेले पिता उसे लेकर स्टेशन से बाहर निकल गए।

वहाँ उसके लिए खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदीं। फिर एक जगह उसे बैठाकर कहा, "तुम यहाँ बैठो। मैं बाबुल और तुम्हारी माँ के लिए भी चीज़ें लेकर आता हूँ।" वह गए तो फिर वापस लौटे ही नहीं। कुछ देर बाद वह उन्हें ढूँढ़ने लगा। नहीं मिले तो रोने लगा। लोग आ गए। फिर कहाँ-कहाँ होते, कैसे-कैसे वह चाइल्ड लाईन पहुँच गया। उसके बाद उसने अपने माँ-बाप, सौतेले भाई किसी को कभी नहीं देखा। इन सब के लिए उसके मन में ग़ुस्सा, घृणा कूट-कूट कर भर गई, इतनी कि, "वे मिल जाएँ तो...।" वह इतना कह कर दाँत किटकिटा कर हल्के से चीख़ा। वह काँपने लगा तो मैंने उसे शांत किया।

उसने फिर एक सिगरेट पी डाली। उसकी आँखें सुर्ख़ लाल हो रही थीं। पसीने से भीग रहा था। रिक्शे वाला अब भी सो रहा था। मेरे आग्रह पर उसने बात आगे बढ़ाई, बताया कि अनाथालय में खाना-पीना, कपड़ा सब, बस किसी तरह ज़िंदा रहने भर का मिलता था। स्टॉफ़ आए दिन चप्पल-जूतों, डंडों से मारता था। साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-पोंछा सब बच्चों से ही कराया जाता था। दिन हो या रात कई लोग बच्चों का यौन शोषण करते रहते थे। अक्सर स्टॉफ़ के बाहर के लोग भी आते थे।

उसकी नाक भी वहीं यौन शोषण के दौरान लगी गंभीर चोट के कारण हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई। ऐसे ही भूख-प्यास, मारपीट, यौन शोषण के बीच वह चौदह-पन्द्रह साल का हो गया। और फिर चार लड़कों के साथ वहाँ से भाग निकला। एक रात जब स्टॉफ़ कुछ लड़कियों का यौन शोषण करने के बाद नशे में धुत्त होकर सो गया, तो यह सब चाबी चोरी करके, मेन गेट खोल कर भाग निकले। स्टॉफ़ के लोगों के कपड़ों में जितने पैसे थे, वह भी चोरी कर लिए। फिर कई शहरों में इधर-उधर भटकते रहे। अंततः एक रेलवे स्टेशन पर ही उन पाँचों ने अपना ठिकाना बना लिया।

प्लेटफ़ॉर्म के अलग-अलग होटलों में काम करते, वहीं खाते-पीते और सोते। नशे, सेक्स से उनका परिचय तो अनाथालय से ही था। वह भी नशे के आदी होते चले गए। महिलाओं का भी जुगाड़ कर लेते थे। ऐसे ही कई वर्ष बीत गए। एक दिन यार्ड में खड़ी एक बोगी में अपनी ही तरह क़िस्मत की मारी एक महिला का शोषण कर रहे थे, सभी नशे में थे। आवेश में किससे क्या हुआ कि महिला की मौत हो गई। फिर पूरा का पूरा गुट वहाँ से भाग निकला। इस भागम-भाग में सभी बिछड़ गए। सब्बू भी अकेले भागता-भटकता एक महानगर के बड़े से रेलवे स्टेशन की भीड़ में घुस गया। फिर वहीं एक होटल में काम-धाम करने लगा। जल्दी ही यहाँ भी उसका चार-पाँच लोगों का नया गुट बन गया। नशा-पत्ती, सब उसकी चल निकली, औरत-बाज़ी भी।

एक दिन अपनी ही जैसी एक लड़की के साथ वह यार्ड में खड़ी एक बोगी में था, कि तभी जीआरपी वालों की नज़र में आ गया। भागा। बचने, भागने के चक्कर में एक ट्रेन की चपेट में आकर घायल हो गया। किसी तरह जान तो बच गई, लेकिन पैर गँवा बैठा। ठीक हुआ तो खाने-पीने के लाले पड़ गए। काम नहीं मिल रहा था। अंततः भीख माँगने को विवश हो गया। इसी बीच में ड्रग माफ़ियाओं ने उससे स्मैक, चरस आदि बिकवानी शुरू कर दी, क्योंकि उन्हें लगा कि कोई उस पर जल्दी शक नहीं करेगा। जल्दी ही उसने अपनी जैसी कई महिलाओं और लड़कियों को भी फँसाया। उन्हें भी ड्रग्स का आदी बना लिया। जब वे ड्रग्स की आदी बन गईं तो उन्हें पैसा देने पर भी ड्रग्स नहीं देता। पैसा, शोषण दोनों मिलने पर ही देता। उसकी ड्रग्स गाथा सुनकर ही मैं समझ पाया कि वह उस समय भी गांजा सहित किसी अन्य ड्रग्स के नशे में भी है।

मैंने पूछा तुम्हारे गैंग में कितनी लड़कियाँ हैं? तो उसने बड़ी शान से बताया, "नौ हैं।" 

मैंने कहा, "तुम चल नहीं पाते हो, तो इतनी लड़कियों को कैसे बाँधे रहते हो? वह भाग भी तो सकती हैं।" 

तो वह फिर बड़ी शान, अकड़ के साथ बोला, "जब तलब लगती है तो ढूँढ़ती हुई आती हैं।" एक जगह का नाम बताते हुए कहा कि, "सब शाम को वहीं पर दौड़ी आती हैं। वहीं पर इकट्ठा होती हैं।" उसकी बात सुनते-सुनते मेरा ध्यान बार-बार उसके पैर में बँधी पट्टी पर जा रहा था, जिस पर अच्छा-ख़ासा सूखा ख़ून दिख रहा था। मैंने सोचा कि जब इसका पैर कई साल पहले कटा था, तो घाव कब का ठीक हो गया होगा। अब यह कैसा ख़ून? पूछा तो वह बड़ी ही अजीब तरह से खीं-खीं करके हँस पड़ा। कुछ देर हँसने के बाद बोला, "लड़कियाँ देती हैं, लड़कियाँ।" मैं बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि लड़कियाँ ख़ून देती हैं तो वह फिर से पहले की तरह हँसकर बोला, "इतनी लड़कियाँ हैं, रोज़ एक को ब्लेड से चीरा लगाता हूँ, उसी से काम भर का ख़ून लेकर अपनी दवाई भिगो लेता हूँ। बाकी इस पट्टी को चटा देता हूँ।" इतना कहते-कहते फिर बड़ी घिनौनी हँसी हँसा। यह सुनकर मेरा ख़ून खौल उठा।

मैंने तेज़, घृणापूर्ण आवाज़ में कहा, "तुम बहुत ही क्रूर, घिनौने, नारकीय इंसान हो। तुम्हारे तो दोनों हाथ-पैर कट जाने चाहिए थे।" मेरी बात पर वह अप्रत्याशित रूप से ग़ुस्से से तमतमा उठा। मैंने भी उसी क्षण तय किया कि किसी भी तरह से इससे बाक़ी बातें जान लूँ, तो पुलिस को कॉल करके ऐसे दरिंदे को जेल भिजवा दूँ। जो साक्षात राक्षसों की तरह इतनी मासूम लड़कियों, औरतों का ख़ून पी रहा है। इसने तो युगांडा के ईदी अमीन को भी पीछे छोड़ दिया है।

वह तमतमाए चेहरे के साथ फिर सिगरेट पीने लगा। मैंने उससे अगली बात पूछने वाला ही था कि तभी वह बोला, "हम क्रूर, घिनौने राक्षस हैं, तो बताओ ज़रा, जिन लोगों ने हमें स्टेशन के बाहर छोड़ा, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रख कर काम करवाया, नोचा-खसोटा वह सब क्या हैं? सुनो, सब राक्षस हैं, राक्षस। अकेले हमें ना कहो, समझे, और चाहो तो जो पैसा उस दिन दिए थे वह भी ले लो।" वह बड़ी दबंगई से बोल रहा था। मुझे भी बड़ी ग़ुस्सा आ रहा था। मगर मैं सब जानना चाहता था। साथ ही उसके साथ उसके माँ-बाप, अनाथालय वालों ने जो अत्याचार किए, उसे जानकर उसके प्रति दया भी उभर रही थी।

तभी खाने वाले का फोन आया। उसे लोकेशन समझाई तो वह पाँच मिनट के बाद आ गया। मैंने एक डिब्बा खाना उसके सामने रखते हुए कहा, "खाओ, तुम्हें भूख लगी हैं ना।" वह मुझे डिलीवरी मैन से खाना लेकर उसको पैसे देने तक एकटक देखता रहा था। उसके जाते ही बोला, "कोई पाँच रुपया भी नहीं देता। तुम इतना किए जा रहे हो। कोई मामला है क्या?" 

मैंने कहा, "पहले खाना खाओ। मामला सिर्फ़ इतना है कि मुझे तुम्हारे ऊपर बहुत दया आ रही है कि तुम्हारे साथ इतना अत्याचार हुआ। तुम्हारी हालत देखकर मैं इतना ही सोच रहा हूँ कि तुम्हारा जीवन अच्छा हो जाए। तुम्हारी तकलीफ़ दूर हो जाए।"

मैंने रिक्शे वाले को भी उठा कर खाना दिया तो वह बोला, "अरे साहब आप क्या कर रहे हैं? यह खाना कैसे आ गया? मैं तो सवेरे ही खा कर चलता हूँ।" 

मैंने कहा, "कोई बात नहीं। सवेरा हुए बहुत समय हो गया है। लो खा लो।" 

मैंने देखा सब्बू आराम से निश्चिंत होकर खाना खा रहा था और बीच-बीच में मुझे देखे भी जा रहा था। 

मैंने पूछा, "यह बताओ जिन लड़कियों का तुम यौन शोषण करते हो, उनका शरीर काट कर उनके ख़ून से वह सब करते हो, कभी ये झगड़ा नहीं करतीं। तुम्हें डर नहीं लगता कि वह सब एक साथ मिलकर तुम्हें मार सकती हैं।" 

यह सुनते ही वह मुँह में खाना भरे-भरे हूँ-हूँ करके हँसा। फिर बोला, "उनकी हिम्मत नहीं है।" बैसाखी की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, "इसी से चमड़ी उधेड़ कर रख देता हूँ। ज़्यादा बोलीं तो पुलिस की लाठी से तुड़वा देता हूँ।"

मैंने उसकी हिम्मत देखकर सोचा, ऐसे बोल रहा है जैसे कि पुलिस को ख़रीद रखा है। पुलिस इसकी नौकर है। वह खाना खा चुका तो मैंने कहा, "मान लो इन लड़कियों ने पुलिस में तुम्हारी सारी बातें बता दीं तो तुम्हें पुलिस पकड़ लेगी। जेल में डाल देगी। डर नहीं लगता तुम्हें।" 

"कैसी बात करते हो? इनमें कौन सी लड़की है जिसे पुलिस वाले...।" उसने बड़ी भद्दी सी बात कही। जिसे सुनकर मैं हक्का-बक्का रह गया। वह बड़े ताव में बोला, "लड़कियाँ क्या, तुम भी चले जाओ पुलिस में तो भी कुछ नहीं होगा। अगर पुलिस ने कुछ देर को धर भी लिया, गिरफ़्तार भी कर लिया तो पुड़िया वाले छुड़ा लेंगे।"

पुड़िया वाले का ख़ुलासा करते हुए बताया कि ड्रग्स सप्लायर की पूरी नज़र रहती है उस पर। मुझे उसकी बात पर पूरा यक़ीन नहीं हो रहा था। मैंने सोचा इसकी मानें तो पूरा का पूरा पुलिस विभाग ही इसके साथ है। मैंने कहा, "ऐसा नहीं है, मालूम होने पर पुलिस चुप नहीं बैठेगी। फिर जो भी हो अब तुम यह सब छोड़कर कुछ काम-धाम क्यों नहीं करते। हाथ-पैर से परेशान बहुत से लोग, कुछ ना कुछ काम तो कर ही रहे हैं। अपना जीवन, अपने परिवार को चला ही रहे हैं।"

मेरी इस बात पर उसने जो जवाब दिया उससे मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। घृणा बढ़ गई। वह बड़ी ऐंठ के साथ बोला, "तो हम भी तो काम कर रहे हैं। अपना जीवन चला रहे हैं। इसमें तो और भी ज़्यादा मेहनत लगती है।" 

मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह रिक्शे वाला बोला, "साहब, हम पहले दिन से ही आपसे बता रहे हैं, अपना पैसा, समय आप बर्बाद कर रहे हैं। ये ऐसे ही रहेगा। रात में चलने वाले ऑटो, टेंपो वालों को भी फँसाए हुए है। उन्हें भी लड़कियों को देता रहता है। पुलिस सब कुछ जानती है। कुछ नहीं होने वाला। आप बेवज़ह इतनी गर्मी में परेशान हो रहे हैं।" रिक्शे वाले की बात मुझे सही लगी।

मैंने अपना वाला खाने का डिब्बा भी उसे ही दे दिया। कहा, "लो यह भी तुम्हारे काम आएगा।" 

मैंने अपना डिब्बा खोला भी नहीं था। रिक्शे पर बैठते-बैठते मैंने कहा, "एक बार बिना सिगरेट पिए मेरी बात पर सोचना, समझना, समझ में आ जाए तो अपना काम बदलना, आते-जाते कहीं मिल जाओ तो बताना।"

 तो उसने तपाक से कहा, "अपना मोबाइल नंबर दिए जाओ।" 

उसके इस जवाब ने मुझे फिर सोच में डाल दिया। मैंने कहा, "नंबर कहाँ लिखोगे। कागज-पेन रखे हो?" अगले ही पल उसने हाथ पीछे कर लुंगी में खोंसा एक एंड्रॉएड मोबाइल निकालकर कहा, "बताओ नंबर।"

उसे मैं कुछ देर देखता रहा। मेरे दिमाग़ में बात आई कि दुनिया भर के क्राइम कर रहा है। ड्रग माफ़िया के संपर्क में है। आज नहीं तो कल पकड़ा जाएगा। तब इसके मोबाइल में मेरा नंबर मुझे भी पकड़वा देगा। मैंने उसे नंबर नहीं बताया और कहा, "जब मिलना हो तो वहीं अंबेडकर पार्क के पास आ जाना। वहीं मिलेंगे, सुबह नौ से दस बजे के बीच और शाम को..." मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शे वाला चल दिया। मैं जिस काम के लिए निकला था उसके लिए बड़ी देर हो गई थी तो मैंने उससे घर चलने के लिए कह दिया। मन बड़ा खिन्न हो रहा था कि कैसे-कैसे लोग हैं दुनिया में। रिक्शे वाला उसके लिए बहुत कुछ कहे जा रहा था लेकिन मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया तो वह चुप हो गया। इस बीच मैं यह सोचता रहा कि जब यह ड्रग्स बेचता है तो तमाम पैसे कमाता होगा। फिर इसे भीख माँगने की ज़रूरत क्यों? कहीं यह इस धूर्त की कोई छद्म चाल ही तो नहीं है।

अगले दिन सवेरे पेपर के लोकल पेज पर उसकी फोटो देखकर मैं सशंकित हुआ कि इसके साथ कोई कांड हो गया क्या? ख़बर पढ़ी तो मालूम हुआ कि उसने किसी धारदार हथियार से एक पन्द्रह-सोलह वर्षीय लड़की को मारने की कोशिश की। जिससे वह लहूलुहान हो गई और मरणासन्न है। उसने बादशाह नगर रेलवे स्टेशन पर यह कांड किया था। जीआरपी ने उसे पूरे गिरोह सहित पकड़ लिया था। लड़कियों ने जीआरपी वालों को सारा क़िस्सा बताकर उसका भांडा फोड़ दिया था। सारी बातें वही लिखीं थीं जो उसने बताई थीं। वह सब फिर पढ़कर मन उसके प्रति घृणा से भर गया। साथ ही भगवान को धन्यवाद कहा कि अच्छा हुआ ऐन टाइम पर उसे अपना मोबाइल नंबर बताने से मना कर दिया था।
 

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