अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मेरा आख़िरी आशियाना - 2

एक ज्योतिषी एवं रत्नों के विशेषज्ञ तारकेश्वर शास्त्री जी का बाबूजी के जमाने से घर पर आना-जाना था। माँ ने उनके ही कहने पर मुझे लहसुनिया नामक रत्न चाँदी की अँगूठी में बनवा कर पहनाया था। बाबूजी के स्वर्गवास के बाद उन्होंने कहा था, "तुम्हारी हस्त रेखाएँ दुर्घटना का योग दिखा रही हैं। तुम्हें गुप्त शत्रुओं से गंभीर हानि पहुँच सकती है। इस रत्न से तुम्हारी रक्षा होगी।" मगर यह रत्न भी घर के ही गुप्त शत्रुओं यानी भाइयों और भाभियों के हमले से मुझे बचा नहीं पाया। हाँ इन्हें यदि प्रत्यक्ष शत्रु मान लें तो शास्त्री जी अपनी जगह सही थे।
इन लोगों ने ऐसी चालें चलीं कि मेरी क्या ज्योतिषी जी की भी पूरे समाज में थू-थू शुरू हो गई। हम लोगों को जब-तक पता चला तब-तक बातें हर तरफ़ फैल चुकी थीं। भाभियों ने हमारे उनके बीच नाजायज़ संबंधों की ऐसी ऐसी कहानियाँ गढ़कर फैलाई थीं कि ज्योतिषी जी, रत्न आचार्य जी, सारे रत्न झोले में सदैव रखकर चलने के बाद भी इतना साहस नहीं कर सके कि हमारे घर, मोहल्ले की तरफ़ रुख़ करते। भाभियाँ इस क़दर पीछे पड़ी थीं कि आए दिन नए-नए क़िस्से मेरे नाम से लोगों का मनोरंजन करने लगे।

हम माँ-बेटी को प्रताड़ित करने, परेशान करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही थी। हम जब बात उठाते तो भाभियाँ एकदम सिर पर सवार हो जातीं। भाइयों का भी यही हाल होता था। हम ज़्यादा बोलें तो मारपीट पर उतारू। रोज़-रोज़ की चिक-चिक से चाचा और उनके परिवार ने भी हाथ खींच लिया। जब चाचा लोगों ने हाथ खींच लिया तो घर के शत्रुओं को और खुली छूट मिल गई।

थोड़ी बहुत जो खेती-बाड़ी थी वह ना जाने किस मूड में आकर बाबूजी ने किसी समय अम्मा जी के नाम कर दी थी। भाई लोग एक दिन आए, बोले, "अम्मा हमें मकान बनवाना है, ज़्यादा पैसा हमारे पास है नहीं। इसलिए हमने खेत बेच देने का निर्णय लिया है। ख़रीददार तैयार है। कल कचहरी में चलकर तुमको साइन करना है।" भाई ने जिस दबंगई के अंज़ज में अपनी बात कही उससे पहले से ग़ुस्सा अम्मा एकदम आग-बबूला हो गईं। एकदम से भड़क उठीं। सीधे कहा, "हम कहीं नहीं जाएँगे। खेत, मकान सब हमारे आदमी का है, हमारे नाम है, हमारा है। हम कुछ नहीं बेचेंगे। एक धूर नहीं बेचेंगे। अरे किस मुँह से आए हो तुम लोग। सगी बहन-महतारी की इज्जत गाँव भर में तार-तार करते शर्म नहीं आई। एक गिलास पानी तो माँ को कभी दिया नहीं, पत्थर लुढ़काया करते हो कि कितनी जल्दी महतारी-बिटिया मरें और तुम सब बेच खाओ खेती-बारी। किस हक से आए हो माँगने।"

अम्मा की तीखी बातों ने भाइयों को कुछ देर के लिए एकदम सन्न कर दिया। गहन सन्नाटा छा गया। मगर बीवियों के इशारे पर चलने वाले भाई उन्हीं के उकसाते ही भड़क उठे। लगे चिंघाड़ने तो अम्मा भी पीछे नहीं हटीं। परिणाम था कि पास-पड़ोस सब इकट्ठा हो गए।

दरवाज़े पर भीड़ लग गई। चरित्र-हनन से बुरी तरह आहत अम्मा सबके सामने फूट पड़ीं। भाइयों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। रेशा-रेशा उधेड़ दिया। लोग सब जानते तो थे ही लेकिन अम्मा के मुँह से सुनकर थू-थू करने लगे। भाई पड़ोसियों को भी आँख दिखाने लगे कि हमारे घर के मामले में कोई ना बोले, इतना बोलते ही कई पड़ोसी भी उबाल खा गए। किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। आनन-फानन में पुलिस भी आ गई। लोग भाइयों को बंद कराने के लिए पीछे पड़ गए। लेकिन अम्मा ने आख़िर उन्हें बचा लिया।

भाई फिर भी अपनी-अपनी पैंतरेबाज़ी से बाज़ नहीं आए। आए दिन कुछ न कुछ तमाशा करते रहे। मुकदमेबाज़ी की धमकी मिलने लगी। इधर अम्मा की पेंशन की तरह बाबूजी की जगह मुझे नौकरी मिलने में देर पर देर होती चली जा रही थी। चाचा से हाथ जोड़-जोड़ कर अम्मा ने जल्दी से जल्दी काम कराने के लिए कहा। फिर इंतज़ाम करके रिश्वत के लिए भी पैसे दिए, तब हुआ काम। इसी के साथ-साथ चाचा की सलाह पर हम माँ-बेटी ने मकान के अपने हिस्से में ताला लगाया और चित्रकूट चले गए। हम माँ-बेटी को लगा कि जैसे हमें नर्क से मुक्ति मिल गई। मगर हमने जितना समझा था वह उतना आसान नहीं था।

कुछ ही महीने बाद एक दिन चाचा ने सूचना दी कि भाइयों ने हमारे हिस्से में लगे ताले तोड़कर उन पर कब्ज़ा कर लिया है। इतनी चुपके से यह सब किया कि कुछ दिनों तक किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं हुई। चाचा ने अम्मा को पुलिस में रिपोर्ट करने की सलाह दी। अम्मा से मैंने जल्दबाज़ी ना करने के लिए कहा। मैंने कहा, कह दो सोच कर बताएँगे। अम्मा से इतना सुनने के बाद चाचा ने दोबारा कुछ नहीं कहा।

मैंने बाद में अम्मा को समझाया कि पुलिस के चक्कर में ना पड़ो। जाने दो। अब हम दोनों को किसी और के सहारे की ज़रूरत नहीं है। मुझे सरकारी स्थाई नौकरी मिल गई है। तुम्हें जीवन भर पेंशन मिलेगी। जो भी सामान था उसे उन्हें ले जाने दो। यूज़ करने दो। कमरों को आख़िर लेंगे तो वही लोग। जीते जी लें या मरने के बाद लें। लेकिन मेरे चरित्रहनन से नाराज़ अम्मा बेटों को सबक़ सिखाना चाहती थीं। और मैं माँ-बेटों के बीच पुलिस फाटा किसी सूरत में नहीं चाहती थी। इसलिए उन को समझाने में पूरा ज़ोर लगा दिया।

बहुत समझाने पर अम्मा मानीं। कई दिन लग गए थे उन्हें समझाने-मनाने में। लेकिन ना जाने क्यों इस फ़ैसले से चाचा नाराज़ हो गए। उन्होंने बहुत दिन तक बातचीत बंद कर दी। ना जाने उसमें उनका क्या स्वार्थ था। आगे जब भी अम्मा का मन होता गाँव जाने का तो कहतीं, "बच्ची तुम्हारे कहने पर दो कमरा जो वहाँ जाने, ठहरने का एक ठिकाना था वह भी उन कपूतों को दे दिया।" यह कहकर वह बड़ी दुखी हो जातीं।

एक दिन उनको मैंने बहुत समझाया। कहा अम्मा काहे इतना ग़ुस्सा होती हो। काहे मकान, खेत को लेकर इतना परेशान रहती हो। क्यों उनमें इतना मन लगाए रहती हो। बाबू जी की यह बात तुम भूल गई क्या कि, "पूत-कपूत तो का धन संचय, पूत-सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत होगा तो जितना भी धन संचोगे वह सारी संपत्ति को बर्बाद कर ही देगा। सपूत होगा तो अपने आप ही बना लेगा। उसके लिए भी कुछ संचय करने की ज़रूरत नहीं है।" मेरी इस बात पर अम्मा नाराज़ हो गईं। बोलीं, "मैं तुम्हें संपत्ति की लालची दिखती हूँ। मैं तो उन कपूतों ने जो किया उसकी सज़ा उन्हें देना चाहती हूँ। और सुनो, मैं भी बहुत ज़िद्दी हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं सब दे दूँगी तब भी यह सब मुझे गाली ही देंगे। नहीं दूँगी तब भी।

“मेरा जिस तरह अपमान किया है, जिस तरह तुम्हारे चरित्र पर कीचड़ उछाला है, वह सही मायने में मेरा अपमान है। मेरे चरित्र पर कीचड़ उछाला है। मैं सब बर्दाश्त कर सकती हूँ, लेकिन चरित्र पर लांछन नहीं। तुम भी सुन लो, मैं खेत बेचूँगी। भले ही सारा पैसा किसी मंदिर के दानपात्र में डाल दूँ। किसी भिखारी को दे दूँ। लेकिन उन कपूतों को एक पैसा कहने को भी नहीं दूँगी।"

अम्मा की इस ज़िद या यह कहें कि ग़ुस्से के आगे मैं हार गई। साल भर भी नहीं बीता होगा की अम्मा ने चाचा के सहयोग से चुपचाप सारे खेत बेच दिए। इस काम में चाचा ने बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा किया। जिस दिन अम्मा को रजिस्ट्री पर साइन करना था, उसके एक दिन पहले वह घर आए, अगले दिन अम्मा को लेकर सीधे कचहरी गए, साइन करा दिया। पैसा सीधे अकाउंट में जमा कराया। और देर रात तक अम्मा को लेकर घर आ गए।

अगले दिन अम्मा ने चाचा को घर वापस जाते समय सोने की चार चूड़ियाँ देते हुए कहा, "भैया बिटिया को यह हमारी तरफ़ से उसे उसकी शादी में दे देना। क्योंकि उस गाँव में अब मैं क्या मेरी छाया भी नहीं पड़ेगी।" चाचा ने कहा, "भाभी इतना ग़ुस्सा ना हो। अपने ही लड़के हैं। थूक दो ग़ुस्सा। फिर शादी में तुम मेरे घर आओगी उन सबके पास तो जाओगी नहीं।" अम्मा ने आशंका ज़ाहिर की, "खेत बेचने से वह सब चिढ़े बैठे हैं। तुम उन सब को भी बुलाओगे ही, अगर नहीं बुलाओगे तो भी वह सब आकर झगड़ा करेंगे।"

चाचा ने उनकी आशंका का जो जवाब दिया वह मुझे पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा, "देखो भाभी उन सबको इसलिए बुलाना पड़ेगा क्योंकि एक तो वो सब कोई दूर के नाते-रिश्तेदार तो हैं नहीं। सगे भतीजे हैं। दूसरे तुम्हारे पक्ष में बोलने, खेत बिकवाने में सहयोग करने के चलते भले ही उन सब ने मुझसे मनमुटाव बना रखा हैै, लेकिन कभी सीधे झगड़ा नहीं किया। अब तुम ही बताओ ऐसे में उन सब को ना बुलाना कहाँ तक उचित होगा, और फिर यह भी तो हो सकता है ना कि जब तुम इतने दिनों बाद पहुँचो तो लड़कों का दिल पसीज जाए। और तुमसे मिलने आएँ। माँ-बेटों का मिलाप हो जाए। भाभी सच कह रहा हूँ, तुम माँ-बेटों में ऐसा हो जाए ना, तो हमें बहुत ख़ुशी होगी। भैया की आत्मा भी बहुत ख़ुश होगी।"

चाचा की बातों ने अम्मा को रुला दिया। वह रोती हुई बोलीं, "भैया कौन महतारी है जो अपनी औलादों से दूर रहना चाहेगी। उन सबका चेहरा कौन सा ऐसा पल होता है जब आँखों के सामने नहीं होता। पोता-पोतियों के लिए आँखें तरसती हैं। उन्हें छूने, देखने, गोद में लेने को हाथ तरसते हैं। मैं कितनी अभागी हूँ कि सब है मेरे पास, लेकिन फिर भी कुछ नहीं है मेरे साथ।" चाचा अम्मा की यह बात सुनते ही तपाक से बोल पड़े, "तो भाभी ग़ुस्सा थूक दो। चलो, कुछ दिन के लिए मेरे साथ घर चलो। मेरे ही घर पर रुकना। अगर बेटे तुम्हें प्यार-सम्मान से लेने आएँ तो जाना उनके पास, नहीं तो नहीं जाना।"

मुझे ऐसा लगा कि चाचा की बातें सुनकर अम्मा की आँखों के आँसू एकदम से सूख गए हैं। वह बिल्कुल शुष्क हो गई हैं। पथरीली हो गई हैं। उसी तरह चेहरा भी। मुझे समझते देर नहीं लगी की अम्मा पर फिर ग़ुस्सा हावी हो गया है। मैं कुछ और सोचती-समझती कि उसके पहले ही वह बोलीं, "देखो भैया वहाँ तो अब मैं क़दम नहीं रख सकती। वह सब मुझ पर हाथ भी उठा देते तो भी मैं माफ कर देती, यह सोचकर कि अपनी औलाद हैं, अपना खून हैं। अपने खून से पाला है। हमारे आदमी का अंश हैं। इसी तरह मेरी बिटिया भी मेरा खून है, मेरे आदमी का अंश है, उसका अपमान मेरे खून, मेरे आदमी का अपमान है। मैं सब सह सकती हूँ लेकिन अपने आदमी का अपमान नहीं। अपने खून का अपमान नहीं, वह भी ऐसा-वैसा अपमान नहीं, सीधे-सीधे चरित्र पर लाँछन लगाया गया। मेरी गंगाजल सी पाक-साफ़ बिटिया के बारे में कितनी नीचतापूर्ण बातें पूरी दुनिया में फैलाई गईं।
मेरी बिटिया को इतना गिरा हुआ बताया गया कि आदमी ने भगा दिया। कोई कमी थी, आवारा थी, तभी तो भगाया गया। अब यहाँ मायके में आकर आवारागर्दी कर रही है, उस ज्योतिषी को बुलाकर अपनी... अरे कमीनों ने क्या-क्या नहीं उड़ाया। नीचों ने अपने स्वार्थ में अंधे होकर बेचारे उस पढ़े-लिखे महात्मा जैसे ज्योतिषी के चरित्र की भी चिंदियाँ उड़ा दीं। उस जैसा चरित्र वाला आदमी मैंने आज की दुनिया में कभी-कभी ही देखा है। बेचारा इतना दुखी हुआ कि हमेशा के लिए कहीं चला गया। कई बार मन में आशंका होती है कि कहीं आत्महत्या तो नहीं कर ली। अब तुम ही बताओ ऐसी औलादों को मैं कैसे अपना लूँ।

“मेरी औलादें हैं, लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की गंदी औलादें हैं, कलंकी औलादें हैं, ऐसी कलंकी औलादों को कैसे अपना लूँ। मैं माँ हूँ, मेरे कलेजे से पूछो कि मैं कैसे तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी बिना बेटों जैसा जीवन बिता रही हूँ।

“यह भी जानती हूँ कि तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी मेरी अर्थी को कंधा देने वाला कोई बेटा नहीं होगा। बाहरी ही देंगे। मैं चाहूँगी भी नहीं कि ऐसी कलंकी औलादें मेरी अर्थी को कंधा तो क्या मुझे छुएँ भी। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं कि औलाद वाली होते हुए भी मैं बे-औलाद जैसी मरूँगी। दुनिया कितनी ही ख़राब हो गई है, मगर मुझे पूरा भरोसा है कि चार कंधे मेरी अर्थी के लिए मिल ही जाएँगे। श्मशान में ना कोई सही, डोम अग्नि देता है तो वही मुखाग्नि भी दे ही देगा।"

यह कहते-कहते अम्मा के फिर आँसू झरने लगे। मैंने देखा चाचा भी बड़े भावुक हो गए हैं। उनकी भी आँखें आँसुओं से भर गईं हैं। अब अम्मा की तकलीफ़ मुझसे देखी नहीं गई। मैं उनके पास जाकर बगल में बैठ गई। उनके आँसुओं को पोंछते हुए कहा, अम्मा चुप हो जाओ। काहे इस तरह की बातें सोच-सोच कर अपने को परेशान करती हो। बाहरी क्यों आएँगे तुम्हारे लिए, मैं नहीं हूँ क्या? तुम ही ने अभी कहा कि मैं भी तुम्हारा ही खून हूँ, अगर भैया लोग नहीं आएँगे तो मैं करूँगी सब कुछ। मैं तुम्हारे लिए चारों कंधा बन जाऊँगी।

“मैं ही तुम्हें अग्नि को समर्पित करूँगी अम्मा। तुम इसे खाली सांत्वना देने वाले शब्द न समझना। किसी बेटी के लिए यह कहना ही नहीं बल्कि सोचना भी असहनीय है। अपनी माँ के लिए यह सोच कर ही दहल उठेगी है। लेकिन मैं कह रही हूँ। क्योंकि मैं जानती हूँ कि यह कटु सत्य है। इसलिए भी कह रही हूँ कि तुम्हें यक़ीन हो जाए कि तुम्हारी बेटी कमज़ोर नहीं है। उसके पास इतनी क्षमता है, इतनी हिम्मत है कि अपनी अम्मा के लिए कुछ भी कर सकती है। उसकी कोई भी इच्छा पूरी कर सकती है। तुम अगर अपनी और इच्छाएँ भी बताओगी तो मैं वह भी पूरी करूँगी। मुझ पर भरोसा रखो। मेरे क़दम डगमगाएँगे नहीं।” मेरी बात सुनकर अम्मा एकदम शांत हो गईं।

अचानक ही उनके चेहरे पर फिर कठोरता छा गई। चाचा की तरफ़ देखते हुए उनका नाम लेकर बोलीं, "आज संयोग से तुम यहाँ हो, तुम्हारे सामने कह रही हूँ कि मेरी अंतिम इच्छा यही है कि मेरी बिटिया मुझे श्मशान तक ले जाएगी, मुखाग्नि भी वही देगी। तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है कि मेरे कपूत मेरी अर्थी को छूने भी ना पाएँ। पहली बात तो उन सबको बताया ही ना जाए। भूले-भटके आ भी जाएँ तब भी तुम्हें यह सब कराना ही है जो मैं कह रही हूँ। मुझे अपनी बिटिया पर पूरा भरोसा है। यह जो कह रही है उसे पूरा भी करेगी। मेरे कपूत रोड़ा ना बनें यह सब तुम्हें देखना है। बोलो तुम मेरी यह इच्छा पूरी करोगे कि नहीं।"

अम्मा का ऐसा रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं अचंभित हो गई। उन्हें एकटक देख रही थी। तभी चाचा बोले, "भाभी काहे इतना ग़ुस्सा करती हो, अरे लड़के नहीं आएँगे तो क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है। मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। तुम्हारा क्या मुझ पर कोई अधिकार नहीं है। मैंने तुम्हें हमेशा भाभी से कहीं ज़्यादा माँ की तरह सम्मान दिया है। देखा है। तुम जब आई तो मैं बहुत छोटा था। अम्मा से ज़्यादा समय तो मेरा तुम्हारे ही पास बीतता था। बाद में तो सब अम्मा से और ख़ुद अम्मा भी कहतीं थीं कि वह हमें जन्म देने भर की दोषी हैं। असली माई तो तुम ही हो। इस नाते तो तुम पूरे अधिकार से मुझसे सब कुछ कह सकती हो, बल्कि कहोगी क्या, मेरा कर्तव्य है। बिटिया को ऐसे असमंजस या ऐसे काम के लिए क्यों कह रही हो।"

यह कहते-कहते चाचा एकदम भावुक हो गए। उनके आँसू निकल पड़े। चाचा के मन में अम्मा के लिए इतना सम्मान होगा यह मैं उसी दिन जान पाई थी। मैं उनके इस रूप को देखकर एकदम अभिभूत हो उठी थी। मेरी भी आँखें भर आई थीं। इस समय असल में हम तीनों की ही आँखें भरी थीं। मेरी चाचा के प्रति श्रद्धा से भरी थीं।

अम्मा चाचा का नाम लेकर बोलीं, "देखो मैं भी तुम्हें देवर से कहीं ऊपर स्थान हमेशा देती रही। अपने बच्चों सा ही हमेशा माना। उसी अधिकार से कह रही हूँ कि मैंने जो कहा उसे जरूर पूरा करना। मेरे कपूतों ने जो किया मैं समझती हूँ कि उन्हें उनके कर्मों की सजा जरूर मिले। लोग जानें। जिससे कोई सपूत कपूत ना बने।"

चाचा अम्मा को बहुत देर तक समझाते रहे कि बेटों के प्रति इतनी कठोर ना बनें, लेकिन वह टस से मस नहीं हुईं। आख़िर हार कर चाचा बोले, "ठीक है भाभी, तुम्हारी जो इच्छा है वही सब होगा। मगर फिर कहूँगा कि एक नहीं ठंडे दिमाग़ से बार-बार सोचना। मैं तुमसे हाथ जोड़कर यही कहूँगा कि जो भी हो तुम इतनी कठोर ना बनो। तुम ऐसा करोगी तो दुनिया यही कहेगी कि अब माँ भी पत्थर दिल होने लगी हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम पर दुनिया कुछ इस तरह का आरोप लगाए। दुनिया को तो तुम मुझसे अच्छा समझती हो। वह तिल का ताड़ बनाने में देर नहीं लगाती। तुम अपनी जगह एकदम सही हो, लेकिन यह दुनिया यह कहने में ज़रा भी देर नहीं लगाएगी कि बड़ी कठोर माँ है। अरे वह पूत कपूत हैं तो यह माता पत्थर हृदय क्यों हो गई। सब यही कहेंगे कि जब माँ इतनी कठोर है तो बेटे तो आगे निकलेंगे ही।"

चाचा आगे कुछ और बोल पाते उसके पहले ही अम्मा ने उन्हें रोकते हुए कहा, "भैया एक बात बताऊँ, हमें दुनिया की परवाह उतनी ही करनी चाहिए जितने से हमारा खुद का गला ना कसने लगे। मुझे परवाह नहीं कि दुनिया माता कहेगी मुझे या कुमाता। दुनिया का काम है कहना, जो भी करो कुछ ना कुछ कहेगी जरूर। अगर सख्ती नहीं करूँगी तो कहेंगे माँ-बाप ही गलत हैं, सही शिक्षा, संस्कार नहीं दिए, तभी बच्चे ऐसे हुए। सख्ती करो तो कहेंगे कसाई हैं। लेकिन भैया एक बात और बता दूँ कि सब एक से नहीं होते। बहुत लोग कसाई कहेंगे, तो कुछ लोग यह भी कहेंगे कि अच्छा किया। ऐसी औलादों के साथ ऐसा ही करना चाहिए। उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए।


“भैया दुनिया की इतनी चिंता ना करो, यह किसी तरह चैन से नहीं रहने देती, ना मरने देती है, न जीने देती है। इसलिए जैसा कहा है वैसा ही करना। और सुनो, बुरा मत मानना, अगर तुम्हें यह सब करने में कोई बाधा महसूस हो रही हो तो निसंकोच ना कह दो। तुम पर कोई दबाव नहीं डाल रही हूँ।" अम्मा की यह बात चाचा को तीर सी चुभ गई। वह एकदम विह्वल होकर बोले, "क्या भाभी, कैसी बात करती हो। तुम्हारी एक-एक बात, एक-एक इच्छा मेरे लिए भगवान का दिया आदेश है। मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करने में अपने जीते जी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ूँगा।"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

बात-चीत

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब2
  2. बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब
  3. बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख़्वाब
  4. मन्नू की वह एक रात