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नक्सली राजा का बाजा - 4

नेताजी एकटक लेखक को देखते हुए बोले, "मैं हमेशा आपकी बातों पर आँख मूँदकर यक़ीन करता रहा हूँ। लेकिन पता नहीं क्यों आज नहीं कर पा रहा हूँ।"

"आपका विश्वास इस प्रकार डोलने की वज़ह मैं जानता हूँ। और यह भी मानता हूँ कि आप की जगह जो भी होगा उसका भी यही हाल होगा।" 

"यह सब छोड़िए, इतिहास दोहराने की ज़रूरत नहीं है। आज अभी की बात करिए। मेरी मुट्ठी में दुनिया कब बंद करेंगे? कैसे करेंगे? यह बताइए।"

नेताजी ने एकदम खीज कर कहा तो लेखक कुछ देर चुप रहे। उन्हें देखते रहे। उन्हें नेताजी की बात बुरी लगी थी लेकिन नाराज़गी के कोई भाव चेहरे पर आने नहीं दिया। जब पूरी तरह जज़्ब कर लिया तब बोले- "नेताजी हर आदमी का काम करने का अपना तरीक़ा होता है। मैं मानता हूँ कि इतिहास की नींव पर ही भविष्य की इमारत बनती है। नहीं तो इमारत सतह पर ही खड़ी रहती है। हल्का सा झटका, आँधी चलते ही धराशायी हो जाती है। ख़ैर आपने कहा इतिहास नहीं तो नहीं। अब बात भोजू की मुट्ठी से दुनिया को मुक्त कराने की। देखिए मैं जो कहने जा रहा हूँ उसे बहुत ध्यान से सुनिएगा और उससे पहले यह दृढ़ निश्चय कर लीजिए कि मैं जो कहूँगा उस पर आप दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ेंगे।"

"बुलाया किसलिए, आप कुछ कहिए, तभी तो यह डिसाइड होगा कि बढ़ा जाए कि नहीं।" 

"देखिए भोजू ने एक संवेदनशील मुद्दा उठाया है। पूजा को ही सीधे पुल बनाकर आगे बढ़ गया। पुल उसका बहुत कारगर निकला। वह सफल है। आपके आलाकमान जैसे बयान दे रहे हैं, उससे यह साफ़ हो गया है कि जैसे पिछले दिनों एक राज्य के चुनाव के समय एक नहीं तीन-तीन यंग्स्टर को आपकी पार्टी ने कैच किया, उन्हें पूरी रणनीति, धनबल, बाहुबल दिया। उनके आंदोलन में दिखने वाली भीड़ भी आपके आलाकमान के निर्देश पर मैनेज की गई। आगजनी हिंसा के लिए ख़ास तौर से पेशेवर बदमाशों की फौज उपलब्ध कराई गई, जिससे ज़बरदस्त हिंसा हुई। 

"परिणाम यह हुआ कि जातीय आग बड़े पैमाने पर भड़की। वोटों का पोलराइज़ेशन हुआ, कई सीटों पर आपकी पार्टी को फ़ायदा हुआ। तीनों आपकी पार्टी के टूल बने। इनमें से दो टूल विधायक बनकर आपकी पार्टी के साथ हो गए। तीसरा भी निश्चित ही विधायक बन जाता। लेकिन तकनीकी कारणों से वह चुनाव नहीं लड़ सका। आज की डेट में यह तीनों आपकी पार्टी के इंपॉर्टेंट टूल हैं। जहाँ भी, जब भी चुनाव होता है, यह टूल स्टार्ट कर दिए जाते हैं। ये उस जगह पहुँच कर माहौल डिस्टर्ब करते हैं। घृणा, वैमनस्यता का ज़हर घोलकर वोटों का ध्रुवीकरण कराते हैं। दंगा बलवा करवाते हैं।" 

"आप कहना क्या चाहते हैं वह कहिए ना, इस कहानी का मैं क्या करूँ? यह सब बातें तो आप से पहले ही हो चुकी हैं। अब दोहराने का क्या मतलब?"

"यही फ़र्क है आप में और भोजू में।"

यह सुनकर नेताजी भड़क उठे। वह समझ गए थे कि लेखक आगे क्या बोलने वाला है। इसलिए पहले ही उखड़ पड़े। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से लेखक पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वह एक योगी की भाँति उन्हें शांत भाव से देखकर फिर बोले- "मैं यह कहना चाह रहा हूँ, वह शॉर्टकट रास्ता बताना चाह रहा हूँ, जिस पर चल कर आप अपने इस प्यादे भोजू से आगे निकल जाएँ। जो आपसे ज़्यादा तेज़ चल कर राजा बन बैठा है। उसे आप एक झटके में घोड़े की ढाई चाल से शह और मात देकर विजेता बन जाएँ।"

नेताजी लेखक को ग़ौर से देखते रहे। इस बीच उन्होंने लेखक के लिए चाय-नाश्ते के लिए कह दिया था। लेखक चाय-नाश्ते की बात पर पल भर को ठहरे थे। फिर बोले- "नेताजी सच बोलूँ तो भोजू ने संवेदनशील मुद्दा पकड़ा नहीं, बल्कि ख़ुद ही सृजित कर लिया है। वैसे ही क्या आपके दिमाग़ में ऐसा कोई मुद्दा है?" 

नेताजी लेखक की बात कुछ-कुछ समझते हुए बोले- "फिलहाल तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आप ही बताइए, आपको बुलाया किसलिए है?"

"ठीक है सुनिए। भोजू ने जो मुद्दा उठाया है उससे उसने अपने को एक जाति तक सीमित कर लिया है। इससे यदि वह चुनाव लड़ता है तो अपनी ही सीट जीत ले तो बड़ी बात है। क्योंकि अपनी जाति के शत-प्रतिशत वोट पा कर भी वो अपनी सीट निकाल नहीं पाएगा। हाँ मेन खिलाड़ियों का खेल ज़रूर बिगाड़ देगा। संक्षेप में वोट कटवा बन कर रह जाएगा। सपोर्ट मिलने पर ही जीतेगा। यह भी उन्हीं तीन यंग्स की तरह आपकी पार्टी का एक और टूल ही बनेगा। वह एक आंदोलन खड़ा कर नेता बन गया है। उसकी दुकान सज गई है। लेकिन वह हमेशा डिपेंड रहेेगा बड़े खिलाड़ियों पर। यानी कि वोट बैंक के बड़े सौदागर अर्थात् बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ इसे यूज़ करेंगी। इसके पास स्वयं को यूज़ होते रहने देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।" 

बात लंबी खिंचती देख नेताजी ने फिर टोका- "महोदय आपके तरकस में मेरे लिए कौन सा ब्रह्मास्त्र है वह बताइए।"

"धैर्य रखिए वही बताने जा रहा हूँ। मैं जो तीर आपके लिए निकालने जा रहा हूँ वह आपके लिए वाक़ई ब्रह्मास्त्र है। जो आपको देखते-देखते सिर्फ हिंदुस्तान के हिंदुओं का ही हीरो नहीं बना देगा बल्कि पूरी दुनिया में फैले हिंदुओं के आप हीरो बन जाएँगे। आंदोलन चलाने के लिए दुनिया भर से आप पर चंदों की बरसात होने लगेगी। साथ ही आप के इस आंदोलन के तूफान में भोजू तिनके की तरह उड़ जाएगा। उसका कहीं अस्तित्व तक नहीं रह जाएगा। और आप भोजू की तरह किसी पर डिपेंड नहीं रहेंगे, किसी के भी टूल नहीं बनेंगे।"

लेखक की इन बातों से नेताजी के मन में एक साथ बहुत सी फुलझड़ियाँ छूटने लगीं। लेकिन अपने चेहरे पर वह कोई भाव नहीं आने दे रहे थे। लेखक ने आगे बोलना जारी रखा। सीधे-सीधे पत्ता खोलते हुए कहा- "आप इस माँग को लेकर आंदोलन शुरू करिए कि जब किसी और धर्म के पूजा स्थलों में आने वाले चढ़ावे, उसकी आय के स्रोतों पर सरकार का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है तो हिंदुओं के पूजा स्थानों पर क्यों है? हिंदुओं के पूजा स्थानों पर से सारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण तत्काल हटाए जाएँ अन्यथा सारे धर्मों पर एक नियम क़ानून लागू किए जाएँ। क्योंकि यह धर्म के नाम पर एक अमानवीय भेदभावपूर्ण कुकृत्य है, अन्याय है, जो आज़ादी के बाद से ही सरकार द्वारा हिंदुओं के साथ किया जा रहा है। यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। संविधान की इस भावना का घोर उल्लंघन है कि धर्म के आधार पर भी किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जो कि सारे हिंदुओं के मन में है। लेकिन हिंदू क्योंकि धर्म को लेकर कट्टर धर्मांध नहीं है, इसलिए उनके मन की यह बात उनके मन में ही तैर रही है। कोई जरा सा इस मुद्दे को छेड़ेगा तो उसे बड़ा समर्थन मिल जाएगा।"

लेखक की बात को बीच में ही काट कर नेता जी बोले- "आप यह क्या कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। अरे यह बात न जाने लोग कब से जान रहे हैं, समझ रहे हैं, ना जाने कितने कॉलमिस्ट ने लिखा है। लिखते ही आ रहे हैं। तमाम डिबेट में बोला गया है। हिंदुओं में हलचल तो छोड़िए सुगबुगाहट तक नहीं हुई। आपके पास ऐसा कोई अस्त्र-शस्त्र है जो भोजू को फिर से वहीं पहुँचा दे जहाँ वह था। और मेरा कॅरियर उस जगह से भी आगे पहुँच जाए जहाँ तक मैंने सोचा भी नहीं है। दसियों साल का समय, करोड़ों रुपये बर्बाद कर चुका हूँ। बदले में विधायकी का भी टिकट पक्का नहीं। गले पर तलवार लटकती रहती है। आलाकमान का मुँह ताकते बीतता है।"

नेताजी एकदम बिलबिला कर बोले। मारे बेचैनी के उठ कर खड़े हो गए। उनकी इस हालत पर भी लेखक शांति से नाश्ते पर धीरे-धीरे हाथ साफ़ करते रहे। पनीर टिक्का और कॉफ़ी लेते रहे। और फिर पूरी शांति के साथ बोले- "नेताजी मैं बार-बार कह रहा हूँ कि आप धैर्य से सुनिए। जैसे भोजू ने जो मुद्दा, मुद्दा था ही नहीं कभी। कुछ पर्सेंट कायस्थों के मन में वह बात आई-गई जैसी हो गई थी। उसे वह आज की डेट में एक ज्वलंत मुद्दा बना कर एक ऐसी ताक़त बन बैठा है, जिसे सभी पार्टियाँ कैच करना चाहती हैं। वैसे ही जो बात मैंने कही वह भी है। बल्कि सही यह है कि यह हज़ार गुना ज़्यादा आगे है। सही मायने में यह एक मुद्दा पहले से है। बारूद के ढेर जैसा है। जिसमें एक चिंगारी दिखाने भर की देरी है। 

आपको बस यही चिंगारी दिखानी है। चिंगारी कैसे दिखानी है यह मैं आपको बता रहा हूँ। आपने अभी तक दसियों साल, करोड़ों रुपए खर्च किए हैं लेकिन रिज़ल्ट आपके हिसाब से ज़ीरो है। अब आपको बस कुछ रुपये और खर्च करने हैं। चार पाँच-सौ आदमी इकट्ठा करने हैं, धरना प्रदर्शन की प्रशासन से इज़ाज़त लेनी है। मिलती है तो ठीक, नहीं मिलती है तो ठीक। प्रदर्शन होना ही है। बाक़ी काम मीडिया के हवाले कर दीजिए।"

लेखक की बात पर नेताजी बड़ी कड़वाहट भरी हँसी हँसे। फिर बोले- "मैं बहुत गंभीरता से पूछ रहा हूँ कि क्या यह मुद्दा वाक़ई इतना दमदार है कि यह राजनीति की दुनिया में तूफ़ान ला देगा। अगर है तो आप ने पहले क्यों नहीं बताया? मुझे ही क्यों बता रहे हैं? आपके तो बहुत से राजनीतिक मित्र हैं। ज़माने से हैं। कई तो मुझसे भी बड़ी हैसियत रखते हैं। उन्हें बता कर क्यों नहीं उन्हें बड़े से और बड़ा बना दिया?"

नेता जी की बात से लेखक महोदय तिलमिला उठे। नेता जी ने सीधे-सीधे उनका अपमान किया था। उनकी विश्वसनीयता, उनकी क्षमता पर सीधे-सीधे प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। जिससे लेखक ग़ुस्से से भर गए। लेकिन दूर की सोच कर ख़ुद पर नियंत्रण करने का पूरा प्रयास किया। फिर भी कुछ हद तक आगे उनकी बातों पर उसकी झलक दिखती रही। उन्होंने प्लेट में अभी भी पड़े काफी सारे पनीर टिक्कों में से एक छोटा पीस उठा कर मुँह में डाला। मानो उसके सहारे वह अपना ग़ुस्सा पूरा निगल जाना चाह रहे हों। फिर बोले- "मुझे बेहद अफ़सोस है कि आप मुझे आज तक इतना ही नहीं बल्कि यह कहूँगा कि आप बिल्कुल भी नहीं समझ पाए। थोड़ा बहुत भी जाना होता तो निश्चित ही ऐसी बात नहीं करते। आपने मुझ पर बहुत खर्च किया है। कई बड़े-बड़े काम कराए हैं। यह, यह पनीर टिक्का अभी भी खा ही रहा हूँ। यह बड़ी टेस्टी स्ट्रांग कॉफ़ी भी पी रहा हूँ। इसलिए अपना कर्तव्य पूरा किए बिना नहीं रह सकता।"

लेखक की बातों से नेताजी को लगा कि यह बहुत बुरा मान गए हैं। तुरंत ही उनके दिमाग़ में बात आई कि "इस कठिन समय में यह भी साथ छोड़ गए तो मुश्किल बढ़ जाएगी। यह मुझसे रूठा तो निश्चित ही यह भोजुवा के साथ खेलेगा। इसे साथ रखने में ही भलाई है। फ़ायदा है। काम ना आएगा तो कम से कम भोजुवा के साथ मिलकर मेरे लिए एक और मुसीबत तो नहीं बनेगा।" 

नेताजी ने बड़ी तेज़ी से यह कैलकुलेशन किया और तुरंत बोले- "सुनिए-सुनिए, आप मेरी बात समझे नहीं। आप हमेशा मेरे लिए महत्वपूर्ण थे, रहेंगे, और ऐसे ही पारिवारिक मित्र भी। कितनी बड़ी है मेरी समस्या यह आप अच्छी तरह समझ ही रहे हैं। मेरे उतावलेपन का कारण भी। इसलिए आप मुझे वाक़ई समाधान जल्दी बताइए।"

नेताजी का आख़िरी सेंटेंस लेखक को फिर चुभ गया। वह बोले- "देखिए मंदिर वाला जो अंदोलन मैंने बताया है वही करिए। यह आपको नायक बना देगा। नायक।"

"लेकिन इस बात को तो आप मानेंगे ही कि आंदोलन में पाँच-छः हज़ार से ज़्यादा भीड़ नहीं होगी तो फिर सफलता नहीं मिल पाएगी। क्या कहते हैं?" 

लेखक कुछ देर तक नेताजी को एकटक देखने के बाद बोले- "मैं हर एँगल से सोचने-समझने के बाद ही बोल रहा हूँ। यह अच्छी तरह जानता हूँ कि आप पैसे से तो कमज़ोर नहीं पड़ेंगे, लेकिन सच यह भी है कि हर संभव प्रयास करके भी आप पाँच सौ से ज़्यादा लोग इकट्ठा नहीं कर पाएँगे। और ज़ोरदार शुरुआत करने के लिए हर हालत में कम से कम चार-पाँच हज़ार आदमी तो चाहिए ही चाहिए। बड़ी भीड़ होगी तो मीडिया, पुलिस महकमा भी बड़ी संख्या में इकट्ठा होगा। बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ भी हर हाल में करवानी ही होगी। तभी बड़ी हलचल होगी। इतनी बड़ी की राष्ट्रीय स्तर पर लोग उसे देख पाएँगे। तभी आप अपने उद्देश्य तक पहुँचने में सफल होंगे।

यह भी अच्छी तरह जानता हूँ कि आप जो भीड़ लाएँगे उसमें से बहुत से तो पुलिस का जमावड़ा देखकर ही पीछे से ही इतने पीछे हो जाएँगे कि कहीं दिखाई ही नहीं देंगे। तो ऐसे लोग तोड़फोड़ क्या कर पाएँगे?"

"यही तो मैं कह रहा हूँ कि यह आंदोलन संभव नहीं है, इतना आसान होता तो अब तक न जाने कितने लोग आंदोलन चला चुके होते।"

नेताजी के चेहरे पर निराशा साफ़ झलकने लगी थी। उनको महसूस हुआ कि जैसे उनका दिल बैठा जा रहा है। उन्होंने पानी का गिलास उठाया और पूरा पी गए। लेखक इस बीच उन्हें ध्यान से देखते रहे। नेताजी की दयनीय हालत का अक्षर-अक्षर आसानी से पढ़े जा रहे थे। उनके चेहरे पर कोई बड़ी सफलता पा लेने जैसी ख़ुशी की रेखाएँ उभर रही थीं। जिसे हलकान हुए जा रहे नेताजी देख नहीं पा रहे थे। आख़िर लेखक फिर बोले- "आप नाहक़ परेशान हुए जा रहे हैं। मैंने कहा ना कि मैं हर एँगल से सोच समझकर बोल रहा हूँ। हज़ारों की भीड़ कैसे आएगी यह सब मुझ पर छोड़ दें, मैं ले आऊँगा। आप बस पैसे और जितनी ज़्यादा गाड़ियों का इंतज़ाम कर सकते हों वह करिए। इस मैटर पर भीड़ के सामने और मीडिया के सामने क्या-क्या बोलना है उसकी तैयारी करिए। ना हो सके तो वह भी बताइए, वह भी मैं कर दूँगा। 

"भीड़ के सामने क्या-क्या बोलना है लिखकर दे दूँगा, देख लीजिएगा। मीडिया कैसे-कैसे प्रश्न कर सकती है उनके उत्तर आपको क्या-क्या देने हैं, वह भी लिख कर दे दूँगा। रट लीजिएगा। वैसे भी आपकी पार्टी का युवराज लीडर भी तो यही करता है। चार सेंटेंस कहीं किसी विजिटर रजिस्टर पर भी लिखना होता है तो लिख कर जो दे दिया जाता है वही मोबाइल में देख कर लिखता है। फुली कंफ्यूज़्ड पर्सन है। आप तो ख़ैर विद्वान आदमी हैं। कई बार आपको बोलते देखा है।"

नेताजी लेखक की बातें सुनकर उन्हें आश्चर्य से देखने लगे। उन्हें अपनी तरफ़ ऐसे देखते पाकर वह बोले- "ऐसे आश्चर्य से क्यों देख रहे हैं। मेरी बातों पर यक़ीन नहीं हो रहा है क्या?"

"आश्चर्य क्या, यह बातें कोई नेता, माफ़िया कहता कि आप पैसों, गाड़ियों का इंतज़ाम करिए मैं हज़ारों लोगों को इकट्ठा कर दूँगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, मामूली बात थी। आप जैसा एक लेखक, एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर व्यक्ति कहे तो मैं क्या कोई भी आदमी आश्चर्य में पड़ जाएगा। आज तक आपका कोई भी ऐसा काम सामने नहीं आया है जिससे यह सोचा भी जा सके कि आप आठ-दस आदमी भी किसी आंदोलन के लिए ला सकेंगे। पिछले साल आपने अपनी किताब के विमोचन के लिए बुलाया तो मुझसे कहा कि ढंग के बीस-पचीस आदमी भेज दीजिए, जो दिखने में लिखने-पढ़ने वाले लगें।

"आपके बार-बार फोन करने पर जब मैं ख़ुद पहुँचा तो मेरे आदमियों के अलावा वहाँ बमुश्किल और दो दर्जन लोग रहे होंगे। ऐसा आदमी किसी और के लिए कहे कि वह पाँच-छ हज़ार आदमी आंदोलन के लिए इकट्ठा कर देगा तो आश्चर्य नहीं तो और क्या होगा? कौन विश्वास करेगा? सबसे बड़ी बात यह कि आज की डेट में जिस आदमी के पास इतनी क्षमता होगी तो वह ख़ुद एक बड़ा नेता बन जाएगा। और आप तो एक बड़े अच्छे वक्ता भी हैं। ज़ोरदार आवाज़ ही नहीं जब बोलना शुरू करते हैं, तथ्य-आँकड़ों की झड़ी जब अपने अकाट्य तर्कों की छौंक के साथ लगाते हैं तो पूरा समूह विस्मित भाव से देखता रह जाता है। मंत्रमुग्ध हो जाता है।

"एक सफल नेता के लिए जो कुछ चाहिए वह सब कुछ आपके पास है, तो आप किसी और को नेता बनाने के लिए क्यों अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। आप सारा खेल छिपकर क्यों खेलना चाह रहे हैं, यह आश्चर्यजनक नहीं है? देखिए मैं इस समय बहुत परेशान हूँ, बहुत बड़ी उलझन में हूँ। मुझे साफ़-साफ़ बताइए। आपकी बातों ने मेरी उलझन और बढ़ा दी है। बुलाया था समाधान के लिए लेकिन आप द्वारा खड़े किए जा रहे प्रश्नों ने उलझन और बढ़ा दी है। इसलिए सच मुझे तुरंत बताइए। और समय नहीं है मेरे पास।"

नेताजी का चेहरा इस बार थोड़ा सख़्त हो चुका था। लेखक समझ गए कि अब सही समय है कि वह अपनी वास्तविक बात कहें। लोहा एकदम गर्म हो चुका है। इतना गर्म कि उस पर हल्की सी चोट भी गहरे निशान छोड़ सकती है। इतना गहरा निशान कि यह तथाकथित नेता उनका एक ज़बरदस्त टूल बन जाएगा। इतना पॉवरफुल टूल कि इसके ज़रिए वह शतरंज की कोई भी बाजी जीत लेंगे। जिस मिशन में वह बरसों से लगे हैं, उसके पूरा होने के और क़रीब पहुँच जाएँगे। यह सोचते ही उन्होंने एकदम से ऐसा ख़ुलासा किया कि उस कमरे में महाविस्फोट सा हो गया।

नेताजी हड़बड़ा कर अपनी जगह उठ कर खड़े हो गए। सेकेंड़ों में वो एसी कमरे में भी पसीने से तरबतर हो गए। जबकि एसी बाइस डिग्री टेंप्रेचर को मेंटेन किए हुए था। इसके बावजूद नेताजी के चेहरे पर पसीना इतना था कि वह नाक पर एक बूँद बनकर बस टपकने ही की स्थिति में आ गया। उनकी आँखों की बरौनी को भी पसीना छूकर नीचे गिर गया। गला उनका ऐसे सूख रहा था कि जैसे उनका ब्लड प्रेशर हाई हो गया हो। 

जबकि लेखक एकदम शांत भाव से उन्हें देखते रहे। उनके अंतर्मन को पढ़ कर समझते रहे। वह खुश हो रहे थे कि जैसा वह चाहते थे हथौड़े ने गर्म लोहे पर बिल्कुल वैसी ही चोट की है। मन चाहा निशान लोहे पर उभर आया है और अब समय है कि गर्म लोहे पर ठंडा पानी डालकर बन चुके निशान को स्थाई बना दिया जाए। वह पानी का गिलास लेकर नेताजी के पास पहुँचे। उन्हें अपने हाथों से पानी पिलाया। फिर से सोफ़े पर बैठा दिया। और बहुत ही शांत भाव से बोले- "आप इतना हैरान-परेशान बिल्कुल ना हों। आप जो चाहते हैं उससे भी कहीं बहुत कुछ ज़्यादा आपको मिलेगा। इसके लिए जो कुछ चाहिए वह सब मेरे पास है। मैंने तो केवल पाँच हज़ार आदमियों की बात की थी, लेकिन अब तो आपको यक़ीन हो गया होगा कि मैं चाहूँगा तो आप के लिए दस हज़ार आदमी भी इसी शहर में इकट्ठा कर दूँगा। अब तो आपको यह आंदोलन शुरू करने में कोई संकोच, कोई शक-शुबहा नहीं रह गया होगा। 

आंदोलन की निश्चित सफलता के लिए शुरू में जो भीड़ चाहिए उससे भी ज़्यादा मैं दूँगा। जब आंदोलन चल पड़ेगा तब आपके साथ बाक़ी लोग भी अपने आप ही गाड़ी, पैसों का इंतज़ाम कर के आएँगे। तब आपको ना गाड़ी का इंतज़ाम करना होगा, ना पैसों का, ना ही मुझे आदमियों का।"

नेताजी अब तक बहुत हद तक सँभल चुके थे। अपना पसीना कई बार पोंछ कर सुखा चुके थे। जग से गिलास में डाल-डाल कर दो गिलास पानी भी पी चुके थे। गला अब पूरी तरह तर था। उन्हें संतुष्टि हो चली थी इस बात की कि लेखक जो कह रहा है, उसके कहे अनुसार चलकर वह आंदोलन इतने बड़े पैमाने पर चला ले जायेंगे कि आलाकमान को वो धो-धो कर मारेंगे। आलाकमान अब उनकी जी हुज़ूरी करता उनके पीछे-पीछे चलेगा। नेता जी बडी़ राहत महसूस करते हुए सोच रहे थे कि "भोजुवा साला मेरी आँधी, तूफ़ान में तिनके की तरह ऐसा उड़ेगा कि उस का नामोनिशान मिट जाएगा। और उसके बाद इस लेखक। छोड़ो इसके बारे में तो बाद में सोचूँगा। यह साला इतना छुपा रुस्तम निकलेगा, इतना पहुँचा हुआ खिलाड़ी होगा सपने में भी सोचा नहीं था। सोचना क्या शक भी नहीं किया जा सकता था। अब जबकि बात खुल गई है, इसका असली चेहरा सामने आ गया है, तो ज़रूरी यह है कि इसकी एक-एक बात की जाँच-पड़ताल कर ली जाए। पूरी तरह ठोक-बजा कर देखना ज़रूरी हो गया है।" नेताजी ने मन ही मन यह जोड़-घटाव करते हुए लेखक से पूछा- "आपके इस तरह के काम-धाम या इस रूप की मैंने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है, मैं अपनी बात दोहराऊँगा कि जब आप इतना कुछ करने में सक्षम हैं, तो ख़ुद आगे बढ़कर क्यों नहीं मोर्चा सँभालते। मुझे क्यों आगे कर रहे हैं? और जब मैं आगे निकल जाऊँगा तो आपको क्या मिलेगा? आपका उद्देश्य क्या है? यह जाने बिना संशय की इतनी मोटी पर्तें हैं कि आगे बढ़ पाना बहुत कठिन लग रहा है।" 
 

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