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रैशनेलिटि स्वाहा

जिस तरह घोर आदर्श से आदर्श प्रेमी प्रेम में और तो सब कुछ होता है, पर क़तई भी रैशनेल नहीं होता, जिस तरह आदर्श पति पत्नी धर्म में और तो सब कुछ होता है,  पर माशा भर भी रैशनेल नहीं होता, उसी तरह मैं भी ज़िंदगी में धर्म कर्म को लेकर सब कुछ हुआ, पर नेट तो छोड़िए, ग्रॉस रैशनेल तक न हुआ। 

असल में मेरे साथ ये त्रासदी इसलिए भी हुई कि मैंने धर्म-कर्म के फ़ोर-लेन पर चलने वाले, भगवान से क़दम-क़दम पर बीसियों बार डरने वाले रैशनेलिटि के बड़े-बड़े हॉर्न बजाते लास्ट में राशनल ही होते देखे। इसलिए मैंने ज़रा सा सोचा कि सोच पर भी मास्क लगाकर क्यों जीना? चेहरे पर तो हम मास्क सोए-सोए भी लगाए रहते हैं ताकि सपने तक में हमें हमारा असली चेहरा न दिखे। अपने को अपना असली चेहरा दिखाना मैंने उसी रोज़ बंद कर दिया था जिस रोज़ मैं इस धरती पर असली चेहरे के साथ अवतरित हुआ था। जो अपने को ग़लती से भी अपना असली चेहरा दिख जाए तो मत पूछो भाईसाहब! दिमाग़ लुहार की भट्ठी की तरह आग बबूला हो उठता है। उसे नोचने को नहीं, उसकी बोटी-बोटी करने को मन पागल कुत्ता हो उठता है। 

जब तक पेट मेरे लिए प्राइमरी रहा, धर्म तब तक मेरे लिए कंपलीटिली राशनल रहा। जब मैं पेट से तनिक ऊपर उठा तो धर्म मेरे लिए इमोशनल हो गया। फिर जब गले तक धर्म हुआ तो मुझे कुछ-कुछ बीच-बीच में धार्मिक रैशनेलिटि का दौरा सा पड़ने लगा। पर जल्दी ही इस बात का इल्म हो गया कि आदमी की कोई सबसे बड़े दुश्मन है तो ये रैशनेलिटि ही है। रैशनेलिटि आदमी तो आदमी,  गधे तक के दिमाग़ में छाले ला देती है। छालों का नासूर बना देती है। 

.... और कल शाम ज्यों ही वे अचानक पता नहीं क्यों, किसके बहकावे में आकर धर्म को लेकर रैशनेल हुए तो उनके ख़िलाफ़ उनके समाज ने तत्काल तपाक से सहर्ष घोषणा कर दी कि कि जब वे मरेंगे, तो वे उनकी अर्थी को पूरा कंधा तो छोड़िए, एक इंच तक कंधा न देंगे। देखते हैं, फिर धर्म के बारे में रैशनेल होकर सोचने वाले किसके कंधों पर चौड़े होकर श्मशानघाट जाते हैं? देखते हैं वे एक साथ दो-दो काम कैसे करते हैं? मतलब, पहले मरो, फिर अपने ही कंधों पर अपनी अर्थी को उठाए श्मशानघाट तक ले जाओ। ज्यों ही वे धर्म को लेकर रैशनेल हुए,  त्यों ही उनके घरवालों ने तो कहा ही, पर उनके दोस्तों तक ने भी साफ़-साफ़ कह दिया कि जब वे मरेंगे तो पोंगे से पोंगा पंडित तक उनका पिंडदान नहीं करेगा। जो करेगा, वे उसका भी बहिष्कार करेंगे। उनकी अस्थियाँ हरकी पौड़ी पर तो छोड़िए, देश के किसी गटर तक में प्रवाहित नहीं होने देंगे। देखते हैं, फिर मरने के बाद वे अपनी अस्थियाँ कहाँ प्रवाहित करते हैं? या कि अपने साथ ऊपर कैसे ले जाते हैं? वे उनके मरने के बाद पंडितों को हलुआ पूड़ी तो छोड़िए, बासी चपाती तक न खिलाएँगे। पर उनके मरने पर उनके मरने की ख़ुशी में पेट भर-भर हलुआ पूड़ी उनकी मृत देह के पास जश्न मनाते यह गाते खाएँगे कि हे ख़ुदा! तूने धर्म के बारे में सोचने वाला गधा रैशनेलिया उठा लिया। तेरे घर देर है, पर अँधेर नहीं।  अगर ये और ज़िंदा रहता, तो न जाने धर्म को कितना और डेंट पा जाता।  

....फिर देखते हैं, अपने मरने के बाद जब ये रैशनेलिए नरक यात्रा पर निकलेंगे तो रास्ते में खाएँगे क्या? मरने के बाद दूसरे ही दिन जो भूखों मरने लगेंगे तब पता चलेगा धर्म को लेकर रैशनेल होने का मतलब क्या होता है भैयाजी! ज्यों ही वे धर्म को लेकर रैशनेल हुए तो उनके ख़ास बंदों तक ने साफ़-साफ़ कर दिया है कि वे उनके मरने के बाद तो मरने के बाद, उनके ज़िंदा रहते उन्हें धरा के किसी भी श्मशानघाट पर जलना तो छोड़िए, उनको भूनने तक नहीं देंगे।  देखते हैं,  फिर वे अपने को कहाँ जलाएँगे? जब अपने मरे शरीर को अपने कंधों पर उठाकर अनंत यात्रा पर निकलना पड़ेगा, तब जो सारी रैशनेलिटि की हवा न निकली तो कहना! बंधुओ! अबसे मुझे सच्ची को लगता है कि धर्म की उतनी ज़रूरत जीते जी नहीं होती, जितनी मरने के बाद होती है। या कि धर्म की ज़रूरत मरने के  बाद ही होती है।

इसलिए उनकी धार्मिक रैशनेलिटि के विरोध में उनके समाज के जायज़ नाजायज़ सटीक फ़ैसले को देख पहले जो मैं थोड़ा बहुत बीच-बीच में कभी-कभार मज़े-मज़े के लिए धर्म को लेकर रैशनेल सा कुछ हो जाया करता था, आज से वह न होने का मैंने हमेशा-हमेशा के लिए वित्तमंत्री से भी कठोर निर्णय ले लिया है। यह निर्णय लेते हुए मैं बिल्कुल भी तनाव में नहीं हूँ। तनाव में हो मेरी जूत्ती!  आज से मैं धर्म को लेकर क़तई रैशनेल नहीं, फ़ुली का फ़ुली इमोशनल होकर फ़्यूचर में फ़्यूचरियाऊँगा। मैं जीते जी ही क्या कम परेशान रहा हूँ जो मरने के बाद भी परेशान रहूँ? जब जीते जी बहुत परेशान रह लिया तो मरने के बाद भी आख़िर क्यों परेशान रहा जाए? आदमी मरता किसलिए है, जीते जी वाली परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए ही न! या मरने के बाद और भी परेशान रहने के लिए? 

उनके हादसे से सीख लेते हुए अब मैंने धर्म को लेकर अपने पूरे होशोहवास में संपूर्ण इमोशनल हो सोचना शुरू कर दिया है, पर फिर भी पता नहीं क्यों, बीच बीच में बेकार का सा मुझे लगता है कि जो सच ने धर्म के बारे में कभी ग़लती से भी मुझसे रैशनेल सुचवा दिया और मैं समाज से धर्म के शुभचिंतकों द्वारा नर देह मुझे बहिष्कृत कर दिया तो?? माफ़ करना मेरे ख़ुदा! तेरा चार बजे का भूला बंदा सवा चार बजे घर लौट कर आ गया है। .... मैं झूठ  कहकर अपने को ख़त्म होने दे सकता हूँ, पर धर्म को नहीं। मेरे लिए धर्म सच से बड़ा है। धर्म ज़िंदा तो मैं मरने के बाद भी ज़िंदा। मुझ विवेकशील मूर्ख को और चाहिए भी क्या!

जानता हूँ कि ज़िंदे रहते आदमी के कोई सवाल ज़िंदा हों या न, पर आदमी के मरने के बाद हज़ारों सवाल ज़िंदा हो जाते हैं। ज़िंदा होने के सवालों पर कोई आँख बंद किए भी नहीं देखता, पर किसीके मरने के बाद उसकी ओर हर सीधी आँख भी टेढ़ी होकर सवालिया ढंग से देखने लग जाती है। ख़ुदा न ख़ास्ता! मैं सच्ची को मर गया और मेरे मरने के बाद मेरा क्रियाकर्म न हुआ तो बंदा तो रह गया न मरने के बाद भी परेशान का परेशान ही। मित्रो! ज़िंदा जी क्या कम परेशान रहे जो मरने के बाद भी परेशान रहा जाए! ये बात दूसरी है कि वे ही कहते फिरते हैं कि मरने के बाद सब परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है। पर कई बार तो मुझे लगता है कि मरने के बाद ही धर्म की असली परेशानियों की शुरूआत होती है। 

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