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वक़्त की शिला पर वह लिखता एक जुदा इतिहास

समीक्ष्य पुस्तक: शाने तारीख़
लेखक: सुधाकर अदीब
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन
महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद
मूल्य: 300 रु.

भारत का इतिहास जितना विशद और घटनापूर्ण है उतना शायद ही किसी देश का हो। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे उपन्यासों को लेकर उतना समृद्ध नहीं है जितना उसे होना चाहिए। उसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे उत्कृष्ट उपन्यास के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसी क्रम में काफी अर्से बाद उसे एक उत्कृष्ट उपन्यास "शाने तारीख़" मिला। जो मध्यकालीन भारत के एक ऐसे शख़्स पर केंद्रित है जिसने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, असाधारण प्रतिभा के बूते पर एक छोटी-सी जागीर से आगे बढ़ कर भारत में विशाल साम्राज्य कायम किया। मुग़लों का शक्तिशाली राज्य उखाड़ फेंका। हुमायूं को हिंदोस्तान छोड़ कर भागना पड़ा। उसकी सैन्य प्रतिभा, युद्ध कौशल के समक्ष विपक्षी हतप्रभ रह जाते थे। उस पर चाणक्य की नीतियों का बड़ा प्रभाव था, उन्हें अमल में भी लाता था। शासन-प्रशासन, जनहित में किए गए उसके कार्य उसके बाद आने वाले शासकों के लिए पथ-प्रदर्शक साबित हुए। यह सब उसने उस स्थिति में कर दिखाया जब कि वक्त ने उसे शहंशाह के रूप में केवल पाँच वर्ष का समय दिया। ऐसे प्रतिभा संपन्न शख़्स शेरशाह सूरी को ध्यान में रखकर वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुधाकर अदीब ने "शाने तारीख़" उपन्यास लिखा। उसे इतिहास गौरव कहा। जिसके लिए प्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ कहते हैं "यदि शेरशाह बचा रहता, तो इतिहास के रंगमंच पर महान मुग़ल न आए होते।" यह तथ्य स्मिथ की बात की पुष्टि करता है कि जब तक शेरशाह सूरी जीवित रहा हुमायूं लाख कोशिशों के बावजूद भारत में अपना राज्य वापस न पा सका। जब कि यहाँ उसके कई मददगार थे, जो उसे बार-बार बुला रहे थे।

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी शेरशाह सूरी के व्यक्तित्व के हर पक्ष को लेखक ने उपन्यास में बहुत ही प्रभावशाली ढंग से पेश किया है। उसके बचपन से लेकर जीवन के अंत तक का वर्णन 12 उपशीर्षकों में है। जिससे पाठकों को बड़ी सहजता के साथ शेरशाह की मानसिक स्थिति, उसकी अध्ययनशीलता, परिस्थितियों का सटीक आकलन कर त्वरित निर्णय लेने की क्षमता, धर्म के प्रति उसकी सोच, युद्ध के मैदान में उसका युद्ध कौशल, शासन व्यवस्था, न्याय को लेकर उसका नज़रिया अपने अफगानियों और फिर हिंदुस्तानियों के प्रति आदि, के बारे में आसानी से परत दर परत मालूम होता चलता है। साथ ही पाठकों को तत्कालीन भारत की समग्र तस्वीर के हर हिस्से भी नज़र आते जाते हैं।

शेरशाह जिसका नाम फ़रीद था बचपन से ही बेहद कुशाग्र बुद्धि और हिम्मती व्यक्ति था। उसके असाधारण होने के संकेत बचपन से ही मिलने लगे थे। पूत के पाँव पालने में ही नज़र आने की कहावत को चरितार्थ करते हुए उसने अपने सख़्त मिज़ाज पिता से खेलने-कूदने की उम्र में कहा मुझे काम करना है आप मुझे अपने हाकिम के पास ले चलें। पिता ने उसकी बात को बाल-सुलभ ज़िद समझ तवज्जोह नहीं दी। लेकिन उसकी ज़िद इस हद तक गई कि पिता उसे ले गए अपने हाकिम के पास जहाँ उसके आत्मविश्वास, दृढ़ता, समझ-बूझकर दिए गए जवाब से उसे नौकरी मिल गई। लेकिन फ़रीद की किस्मत में तो कुछ और ही लिखा था और फ़ितरत भी उसकी कुछ और थी। उस पर सौतेली माँ के दुर्व्यवहार ने उसे झकझोर दिया और फिर वह सहसराम (सासाराम) से जौनपुर भाग आया। वहाँ के हाकिम की मदद से तब के आला दर्जे के शैक्षिक संस्थान मदर्सतुल उलूम में शिक्षा ग्रहण की। यहाँ मिली शिक्षा से उसका व्यक्तित्व कुंदन सा निखर उठा।

उसकी योग्यता की बातें जब पिता ने सुनीं तो उसे अपने पास बुलाना चाहा। मगर फ़रीद ने अपना मुस्तकबिल अपने हाथों बनाने की ठान ली थी। जल्दी ही उसे एक छोटी सी जागीर मिली। उसने अपनी काबिलियत से वहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार को न सिर्फ़ समाप्त किया बल्कि ऐसा सुप्रबंध किया कि उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। बागी लोगों को उसने सफलतापूर्वक परास्त कर दिया। मगर यह तो शुरूआत थी सो वो और आगे बढ़ा और सुल्तान मोहम्मद शाह के यहाँ नौकरी की। शिकार के दौरान शेर को मारकर उसने सुल्तान की जान बचाई और सुल्तान ने बदले में उसे "शेरख़ान" की उपाधि दी। शेर खां अब और तेज़ी से बढ़ चला। सफल होने के लिए उसने साम, दाम, दंड, भेद हर नीति अपनायी। जल्दी ही वह सूजानगढ़, बंगाल, बिहार के इलाके जीतकर बादशाह बन गया। चुनारगढ़ सहित कई किले तो उसने बिना लड़े ही पा लिए। चुनारगढ़ का महत्वपूर्ण किला पाने में उसने युद्ध का रास्ता अपनाने के बजाय किलेदार ताज खां की विधवा लाड मलिका से निक़ाह कर लिया। जिसके अप्रतिम सौंदर्य की चर्चा दूर-दूर तक थी। विचार और आचरण भी उसके बेहद बिंदास थे। वास्तव में शेर शाह ने निक़ाह को भी सफलता पाने का हथियार बनाया था। इस क्रम में उसने और भी कई निक़ाह किए।

छल छद्म का भी रास्ता अपनाने में शेरशाह को कहीं कोई हिचक नहीं थी। उसने रायसीन के पूरनमल के साथ छल कर उसे खत्म किया। ऐसे ही मारवाड़ के राजपूत राजा मालदेव को छला। इसके बावजूद राजपूतों ने जिस भयंकरता से युद्ध लड़ा उससे शेरशाह का अध्याय समाप्त होते-होते बचा। वह यह कहे बिना न रह सका कि "एक मुठ्ठी भर बाजरे के लिए तकरीबन हिंदुस्तान का तख़्त ही गवां बैठा था।" छल के ही कारण उस पर से लोगों का विश्वास दरक गया था। जो कालिंजर युद्ध में उसकी जान जाने का बुनियादी कारण बना। सुल्तान महमूद और मुगलों के बीच लखनऊ के पास हुए युद्ध में वह युद्ध के निर्णायक क्षण में महमूद को धोखा दे अपनी सेना लेकर चला गया।

बतौर एक फौजी किसी भी तरह दुश्मन को परास्त करना शेरशाह का सिद्धांत था। लेकिन शासन की बात आते ही वह एक कुशल प्रशासक के रूप में सामने आता है।

वह एक प्रशासक के लिए ज़रूरी मानता था कि वह जनहित के कार्यों को पहली प्राथमिकता देते हुए पूरा करे। सड़क निर्माण, कृषि सुधार, संतुलित कर व्यवस्था, न्याय व्यवस्था पर उसका विशेष ध्यान रहता था। वह इन्हें राष्ट्र निर्माण, विकास की कुंजी मानता था। इसी दृष्टि के चलते उसने अच्छी सड़कें बनवाने की पूरी कोशिश की। प्राचीन समय से चली आ रही सड़क उत्तरापथ की मरम्मत करवा कर उसे "शाहराह-ए-आज़म" नाम दिया जो आज भी "ग्रैंड ट्रंक रोड" के नाम से मशहूर है। उसने राहगीरों के लिए सड़क किनारे सराय, कुआं, मस्जिद, डाक-चौकी का निर्माण कराया। साथ ही वृक्षारोपण पर विशेष ध्यान दिया, तालाब के निर्माण, जल संरक्षण पर ख़ास तवज्जोह दी।

कृषिभूमि, लगान आदि व्यवस्था के विशेषज्ञ टोडरमल को कार्य करने का पूरा अवसर दिया। यही टोडरमल आगे चलकर अकबर के नवरत्नों में शामिल हुए और उल्लेखनीय भूमि सुधार किया। शेरशाह जनता पर उतना ही कर लगाने का पक्षधर था जितने से उसका दम न घुटने लगे। ऐसे परिपक्व कुशल सेनानायक का चित्रण उपन्यास में कुशलता के साथ किया गया है । यथार्थ में कल्पना का बेहद खूबसूरत मिश्रण उपन्यास की पठनीयता को और ऊँचाई प्रदान करता हैं। कल्पना का समावेश करने में तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है और बड़े प्रामाणिक ढंग से सारी बातें कही गई हैं। वर्णनात्मक शैली में लेखक ने जिस भी प्रसंग को छुआ है वह पाठक के समक्ष शब्द चित्र सा उकेरते चलते हैं। चाहे वह युद्ध स्थल का प्रसंग हो, या दरबार का या फिर खेत-खलिहान, तालाब आदि का। उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर होने के बावजूद उपन्यास के मापदंड पर खरा है। कहीं से रत्ती भर को भी दस्तावेज़ नहीं लगता। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यासों के साथ दरअसल यह डर बराबर बना रहता है। लेखक ने जिस ढंग से शेरशाह का चित्रण किया है वह बेमिसाल है। वह शेरशाह को महान कहता है। लेकिन यहीं पर इतिहास के जानकार पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इतिहासकारों ने उसे महान क्यों नहीं माना। जबकि उसके असाधारण व्यक्तित्व की तारीफ़ सभी ने की है। उपन्यास में दिए तथ्यों पर ही गहराई से नज़र डालें तो कई ऐसे बिंदु उभर कर सामने आते हैं जो इतिहासकारों को उसे महान कहने से रोकते दिखते हैं। जैसे सेना में भर्ती न होने पर लोगों का बेरहमी से कत्ल करवा देना, अपने को ईमान रखने वाला कहने के बावजूद पूरनमल को छलपूर्वक खत्म कर उसकी लड़की, भाई के तीन बच्चों को गुलाम बना कर बेच देना। ऐसा ही अन्य कई लोगों के बीवी बच्चों के साथ किया जाना। न्याय प्रियता की बात करने के बावजूद हिंदूओं पर से जजिया कर जो धार्मिक भेदभाव का प्रतीक है नहीं हटाना। कई महिलाओं से केवल अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए निक़ाह किया जाना। उनकी भावनाओं की कद्र न किया जाना। छल का अति की सीमा तक प्रयोग किया जाना आदि।

अब इन सबके बावजूद यदि उसे इतिहासकार महान लिखते तो शायद उन्हें शिवाजी को भी महान लिखना पड़ता। वह भी जमीं से उठकर फलक को रोशन करने वाले थे। एक सामंत के पुत्र थे और अपनी असाधारण प्रतिभा के दम पर बड़ा राज्य कायम किया। जब कि उस समय मुग़ल साम्राज्य अपने चरम पर था। उन्होंने औरंगज़ेब जैसे शासक को हिलाकर रख दिया था। शेरशाह जहाँ बाबर के कैंप से निकल भागे थे तो वहीं शिवाजी औरंगज़ेब को उसके ही दरबार में चुनौती देते हैं। बंदीगृह में डाले जाने के बाद अत्यंत कड़े पहरे को भी धता बता कर पुत्र शम्भाजी सहित निकल जाते हैं। पुनः राज्य का विस्तार करते हैं। विवश हो कर औरंगज़ेब को उन्हें राजा स्वीकार करना पड़ता है। शिवाजी भी शासन प्रशासन को बेहतर करते हैं। महिलाओं बच्चों के प्रति हमेशा सहृदयता बरतते हैं और मस्जिदों के निर्माण में सहयोग देते हैं। जो बात इतिहासकार स्मिथ ने शेरशाह के लिए लिखी वैसी ही इतिहासकार डॉ. रमेश चंद्र मजुमदार ने शिवाजी के लिए कही "भारतीय इतिहास के रंगमंच पर शिवाजी का अभिनय केवल एक कुशल सेनानायक एवं विजेता का न था, वह एक उच्च श्रेणी के शासक भी थे।"

ऐसी तमाम बातें हैं जिन्होंने इतिहासकारों को रोका होगा शेरशाह को महान कहने से। मगर उपन्यासकार के अपने तर्क हैं जिनके आधार और अपनी सशक्त लेखनी के बल पर उसे महान कहता है। संभवतः यह इतिहासकारों को भी इस बिंदु पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित कर सकता है। जहाँ मानव वहाँ मानवीय भूल इसी का चित्र खींचती उपन्यास में दो भूलें भी हैं जैसे पृष्ठ 97 पर कबीर को पहले विधवा फिर अगली ही लाइन में कुंवारी स्त्री की संतान कहा गया है। पृष्ठ-288 पर जून 1541 की जगह, जून 1941 लिखा गया है। कुल मिलाकर उपन्यास अवश्य रूप से पठनीय है।

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