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अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 008

कभी प्रेमी जनों से पूछो तुम प्यार का मतलब। 
तो शायद समझ सकोगे इतवार का मतलब॥
कितनी तड़प है दिल में मिलने की मुझे तुमसे, 
और कैसे भला बताऊँ मैं इंतज़ार का मतलब॥
 
सर्दियों में गुनगुनी-सी धूप का अहसास हो तुम। 
दूर रहकर इस तरह से मेरे दिल के पास हो तुम॥
याद जब आती तुम्हारी महकता है तन-मन मेरा, 
और भला कैसे बताऊँ कि कितनी ख़ास हो तुम॥
 
सज धज कर वो रहती है बाज़ार की तरह। 
ख़ुशियाँ है जिसके हिस्से में त्योहार की तरह। 
बेसब्री से जिसका मैं रोज़ करता हूँ इंतज़ार, 
बस आती नज़र वो मुझको रविवार की तरह। 
 
शुष्क अधरों पर जगे कुछ हसीं अहसास फिर! 
प्रेम का प्रतिदान लेकर आ गया मधुमास फिर! 
रुत वासंती ने धरा पर . . . इस क़द्र ढाया क़हर, 
आदमी तो आदमी . . . आम तक बौरा गए!! 
 
भागना लहर के पीछे भला किसको यहाँ भाये। 
बदल तू प्रेम परिपाटी, ज़माना गुण तेरे गाये। 
पैदाकर कशिश इतनी तू अपनी चाहत में, 
समंदर स्वयं चल करके तेरे पास आ जाये॥
 
अहसास के साये तले। 
इक प्यार का दीपक जले। 
मिटे रिश्तों पे छाई तमिस्रा घनी, 
एकदूजे से दोनों को ख़ुशियाँ मिले॥
 
लगे मधुमास मनभावन समझ लेना कि होली है। 
हृदय की हो धरा पावन समझ लेना कि होली है। 
उठे जब पीर-सी दिल में, जले जब याद में तन-मन, 
समझ लेना कि होली है समझ लेना कि होली है॥

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