सरिता
काव्य साहित्य | कविता अमरेश सिंह भदौरिया1 Mar 2019
शिखरों पर बर्फ पिघलती है
तब सरिता नयी निकलती है
1.
पथरीले घाटों से बहकर
तपन मृगशिरा की सहकर
चिन्तनरत देह बनी दुर्बल
छलता निज अंग कहीं मरुथल
होती न किन्तु कर्तव्यविमुख
जीवन सतपथ पर चलती है
तब सरिता नयी निकलती है
2.
आलिंगन बद्ध किनारों से
कहती कुछ मधुर इशारों से
धीरे से हवा छूकर तन को
अहलादित करती है मन को
क्षण-क्षण में धर कर नये रूप
जब उन्मुक्त लहर मचलती है
तब सरिता नयी निकलती है
3.
अधरों पर मधुमास लिये
मन में कुछ गहरी प्यास लिये
महामिलन की आस लिये
धड़कन ज्यों बोझिल साँस लिये
द्रवीभूत होकर पीड़ा
जब संतापों पर ढलती है
तब सरिता नयी निकलती है
4.
अविरलता में विश्राम कहाँ
पथ में सिंदूरी शाम कहाँ
श्रमशील मनन परहित चिंतन
संकल्प साधनामय जीवन
"अमरेश" अँधेरे से लड़कर
जब दीपशिखा ख़ुद जलती है
तब सरिता नयी निकलती है
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सांस्कृतिक आलेख
कविता
- अधनंगे चरवाहे
- अनाविर्भूत
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चैत दुपहरी
- जब नियति परीक्षा लेती है
- तितलियाँ
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- देह का भूगोल
- धरती की पीठ पर
- नदी सदा बहती रही
- पहली क्रांति
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- बंजर ज़मीन
- भगीरथ संकल्प
- भावनाओं का बंजरपन
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- लेबर चौराहा
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- सँकरी गली
- सरिता
चिन्तन
सामाजिक आलेख
शोध निबन्ध
कहानी
ललित कला
साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं