अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रंगमंच: समाज की आत्मा और अभिव्यक्ति का मंच

 

रंगमंच केवल मंच पर अभिनय करने की कला नहीं, बल्कि यह मानव समाज का एक सशक्त दर्पण है। यह व्यक्ति के भीतर छुपे भावों, चिंताओं और आकांक्षाओं को न केवल अभिव्यक्ति देता है, बल्कि समाज को सोचने और बदलने के लिए भी प्रेरित करता है। विश्व रंगमंच दिवस (27 मार्च) इसी सृजनात्मकता और सामाजिक प्रभाव को पहचान देने का एक अवसर है। यह दिवस हमें यह याद दिलाता है कि थिएटर महज़ मनोरंजन नहीं, बल्कि विचारों की अभिव्यक्ति और बदलाव का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। 

रंगमंच का इतिहास मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। ग्रीक, रोमन और भारतीय नाट्य परंपराएँ इसकी समृद्ध विरासत को दर्शाती हैं। भारत में भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ ने रंगमंच की नींव रखी। संस्कृत नाटकों में कालिदास, भवभूति, भास और विष्णुदत्त जैसे महान नाटककारों ने अपनी छाप छोड़ी। मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के दौरान रामलीला, कृष्णलीला, नौटंकी और कथकली जैसी लोक नाट्य शैलियाँ लोकप्रिय हुईं। 

आधुनिक युग में भारत में गिरीश कर्नाड, विजय तेंदुलकर, हबीब तनवीर, बादल सरकार और मोहन राकेश जैसे नाटककारों ने थिएटर को नई दिशा दी। ‘अंधा युग’, ‘तुगलक’, ‘आधे-अधूरे’, ‘सखाराम बाइंडर’ जैसे नाटक सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों को केंद्र में रखकर लिखे गए। नुक्कड़ नाटकों ने भी सामाजिक परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सफदर हाशमी का ‘जन नाट्य मंच’ इसका एक उदाहरण है। 

थिएटर समाज के यथार्थ को सामने लाने का सबसे प्रभावी माध्यम है। यह उन मुद्दों पर चर्चा करता है, जिन पर अक्सर पर्दा डाल दिया जाता है–जैसे जातिवाद, ग़रीबी, पितृसत्ता, सामाजिक भेदभाव और भ्रष्टाचार। यह लोगों को सोचने और बदलाव के लिए प्रेरित करता है। 

रंगमंच किसी भी संस्कृति की आत्मा होता है। यह हमारी लोककथाओं, परंपराओं और जीवनशैली को सहेजने और अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य करता है। उदाहरण के लिए, भारत के विभिन्न राज्यों में पाई जाने वाली लोक नाट्य शैलियाँ जैसे कि ‘यक्षगान’ (कर्नाटक), ‘तमाशा’ (महाराष्ट्र), ‘भवाई’ (गुजरात), ‘नौटंकी’ (उत्तर प्रदेश) आदि अपनी सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखती हैं। 

रंगमंच केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि यह एक क्रांतिकारी उपकरण भी है। ‘नुक्कड़ नाटक’ और ‘राजनीतिक थिएटर’ ने जनता को जागरूक करने और सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का काम किया है। सफदर हाशमी की हत्या ने यह सिद्ध किया कि थिएटर केवल एक कला नहीं, बल्कि एक आंदोलन भी हो सकता है। 

रंगमंच न केवल कला प्रेमियों के लिए बल्कि छात्रों और युवाओं के मानसिक विकास के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। यह आत्मविश्वास, संप्रेषण कौशल और नेतृत्व क्षमता को विकसित करता है। थिएटर के माध्यम से व्यक्ति अपनी भावनाओं को बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकता है और दूसरों की संवेदनाओं को समझ सकता है। 

वर्तमान समय में इंटरनेट, वेब सीरीज़ और सिनेमा के बढ़ते प्रभाव ने थिएटर के अस्तित्व को चुनौती दी है। लोग थिएटर देखने कम जाते हैं और ऑनलाइन कंटेंट की ओर आकर्षित होते हैं। डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म पर थिएटर को लाना इस क्षेत्र को बचाने के लिए एक ज़रूरी क़दम है। 

भारत में थिएटर कलाकारों को आर्थिक स्थिरता नहीं मिलती। सरकारी अनुदानों की कमी, प्रायोजकों की उदासीनता और थिएटर के लिए समुचित बुनियादी ढाँचे की अनुपलब्धता, इस क्षेत्र के समक्ष गंभीर चुनौतियाँ हैं। कई युवा कलाकार थिएटर छोड़कर अन्य मीडिया में चले जाते हैं। 

थिएटर को बचाने और आगे बढ़ाने के लिए सरकार, समाज और कलाकारों को मिलकर काम करना होगा। थिएटर को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। नए तकनीकी नवाचारों के साथ थिएटर को आधुनिक रूप देना आवश्यक है। 

आजकल थिएटर को ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लैटफ़ॉर्म्स और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है। वर्चुअल थिएटर और हाइब्रिड मंचन से इसकी लोकप्रियता बढ़ाई जा सकती है। 

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नुक्कड़ नाटक सामाजिक जागरूकता का प्रभावी माध्यम बन सकते हैं। यदि युवा वर्ग इस दिशा में सक्रिय हो, तो थिएटर समाज में पुनः अपनी जगह बना सकता है। 

स्कूल और कॉलेज स्तर पर थिएटर को अनिवार्य विषय के रूप में लागू किया जाए, जिससे नई पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित हो। 

सरकार को थिएटर को बढ़ावा देने के लिए अधिक अनुदान, थिएटर फ़ेस्टिवल और नए थिएटर हॉल बनाने चाहिए। कॉर्पोरेट कंपनियों को थिएटर में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 

रंगमंच केवल एक कला नहीं, बल्कि समाज का दर्पण और विचारों की क्रांति का मंच है। यह हमें हँसाता है, रुलाता है, सोचने पर मजबूर करता है और अंततः समाज में बदलाव लाने का कार्य करता है। विश्व रंगमंच दिवस केवल एक दिन की रस्म नहीं होनी चाहिए, बल्कि हमें इसे अपनी संस्कृति और चेतना का अभिन्न अंग बनाना होगा। 

थिएटर जीवित रहेगा, यदि समाज इसे केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति माने। रंगमंच की शक्ति को पुनः पहचानने और उसे नए युग के अनुरूप विकसित करने की आवश्यकता है। यह केवल एक मंच नहीं, बल्कि एक आंदोलन है–समाज के बदलाव और चेतना के पुनर्जागरण का आंदोलन! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सांस्कृतिक आलेख

ऐतिहासिक

साहित्यिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

ललित निबन्ध

चिन्तन

सामाजिक आलेख

शोध निबन्ध

कहानी

ललित कला

पुस्तक समीक्षा

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं