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बलिदान की अमर गाथा: झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को शत-शत नमन

 

आज 18 जून, 2025 है—वह पवित्र तिथि जब भारतीय इतिहास की सबसे तेजस्वी और प्रेरक नारियों में से एक, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति दी थी। ग्वालियर के पास कोटा की सराय में, 1858 में दिया गया उनका सर्वोच्च बलिदान केवल एक युद्ध की परिणति नहीं, बल्कि भारतीय स्वाभिमान, साहस और स्वतंत्रता की अदम्य भावना का शाश्वत प्रतीक बन गया।

उनका बलिदान-दिवस मात्र एक रस्म नहीं, बल्कि उन मूल्यों और सिद्धांतों को स्मरण करने का अवसर है, जिनके लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।

बाल्यकाल और प्रारंभिक जीवन: एक वीरांगना के बीज

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को वाराणसी के अस्सी घाट पर एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका तांबे था, किंतु उन्हें स्नेहपूर्वक ‘मनु’ कहकर पुकारा जाता था।

उनके पिता मोरोपंत तांबे पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत थे और माता भागीरथीबाई, एक धर्मनिष्ठ व सुशिक्षित महिला थीं। चार वर्ष की आयु में ही माता का निधन हो गया, जिसके बाद उनके पालन-पोषण और शिक्षा की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी पिता ने उठाई।

मोरोपंत ने मनु का लालन-पालन एक पुत्र की भाँति किया। वे उन्हें बिठूर ले गए, जहाँ मनु ने नाना साहेब (धोंडूपंत) और तात्या टोपे के साथ बचपन बिताया। पारंपरिक शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, तीरंदाज़ी और शस्त्र विद्या में दक्षता प्राप्त की।

उस समय की सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध, मनु का इस प्रकार का प्रशिक्षण एक असाधारण घटना थी। बचपन से ही उनमें फुर्ती, साहस और निडरता स्पष्ट दिखाई देती थी। यही गुण भविष्य में उन्हें एक अद्वितीय योद्धा के रूप में परिभाषित करने वाले थे।

झाँसी की रानी: राज्याभिषेक और चुनौतियाँ

वर्ष 1842 में, 14 वर्ष की आयु में, मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ और वे लक्ष्मीबाई बन गईं।

झाँसी उस समय एक समृद्ध रियासत थी जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते वर्चस्व के बीच अपनी राजनैतिक स्वतंत्रता की रक्षा कर रही थी।

1851 में, रानी और महाराजा को एक पुत्र की प्राप्ति हुई—दामोदर राव, किंतु दुर्भाग्यवश वह केवल चार माह ही जीवित रह सका। इस आघात ने महाराजा को तोड़ दिया और उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया।

मृत्यु से पूर्व, 1853 में, महाराजा ने एक बालक आनंदराव को गोद लिया और उसका नाम भी दामोदर राव रख दिया। यह दत्तक प्रक्रिया ब्रिटिश कानून के अनुसार थी, किंतु गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने इसे अस्वीकार करते हुए ‘व्यपगत का सिद्धांत’ लागू किया।

ब्रिटिश सरकार ने झाँसी को अपनी संपत्ति घोषित कर दिया और रानी को 60,000 रुपये वार्षिक पेंशन देकर झाँसी छोड़ने का आदेश दिया। यह अन्याय रानी लक्ष्मीबाई के लिए असहनीय था। उन्होंने कानूनी और राजनयिक प्रयास किए, परंतु सब निष्फल रहे।

यही वह समय था जब उन्होंने ऐतिहासिक घोषणा की—"मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी!" यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि भारतीय अस्मिता की उद्घोषणा थी।

1857 का संग्राम: वीरता का अप्रतिम अध्याय

1857 में जब देशव्यापी विद्रोह भड़का, रानी ने प्रारंभ में झाँसी को दोनों पक्षों—ब्रिटिश व विद्रोही—से सुरक्षित रखने की चेष्टा की। परंतु अंग्रेजों ने झाँसी में हुए हिंसक घटनाक्रम का दोष रानी पर मढ़ा।

जनरल ह्यू रोज़ के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने मार्च 1858 में झाँसी पर चढ़ाई की। रानी ने अद्भुत धैर्य और संगठन-शक्ति के साथ किले की रक्षा की। उनकी सेना में पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियाँ भी लड़ रही थीं।

झाँसी की दीवारें अंग्रेज़ों की तोपों से टूट नहीं रहीं थीं। रानी ने स्वयं युद्ध का नेतृत्व किया और तोपों का संचालन करवाया।

तात्या टोपे की सहायता हेतु भेजी गई सेना मार्ग में ही पराजित हो गई। अंततः, 3 अप्रैल, 1858 को अंग्रेज़ झाँसी के किले में प्रवेश कर गए।

रानी ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँध, तलवार हाथ में ली और अंतिम क्षण तक युद्ध किया।

अंतिम संघर्ष और सर्वोच्च बलिदान

रानी कुछ वफ़ादार सैनिकों के साथ झाँसी छोड़ कालपी पहुँचीं, जहाँ उन्होंने पुनः अंग्रेजों का सामना किया। यद्यपि उन्हें पीछे हटना पड़ा, किंतु शीघ्र ही उन्होंने तात्या टोपे व राव साहब के साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया।

17 जून, 1858 को, अंग्रेजों ने ग्वालियर के निकट कोटा की सराय में विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया। रानी पुरुष-वेश में युद्ध कर रही थीं—सिर पर पगड़ी, हाथ में तलवार और घोड़े "बादल" पर सवार।

अंततः, 18 जून को रानी गंभीर रूप से घायल हो गईं। उनके सैनिक उन्हें समीप के एक मंदिर में ले गए, जहाँ उन्होंने अंतिम इच्छा व्यक्त की कि अंग्रेज उनके शव को न छू सकें।

उन्होंने वहीं प्राण त्याग दिए—केवल 29 वर्ष की आयु में।

बलिदान का महत्व और अमर विरासत

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन और बलिदान भारत के लिए अमिट प्रेरणा-स्रोत है।

जनरल ह्यू रोज़ तक ने कहा: "वह सभी विद्रोहियों में सबसे साहसी और श्रेष्ठ थी।"

यह एक शत्रु का सम्मान था, जो रानी की असाधारण नेतृत्व क्षमता और साहस का प्रमाण है।

रानी लक्ष्मीबाई का नाम शौर्य, नारी-सम्मान और राष्ट्रभक्ति का पर्याय बन चुका है।

आज जब हम उनके बलिदान-दिवस पर उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह केवल एक वीरांगना को श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उस चेतना को पुनर्जीवित करने का संकल्प है, जिसने हमें स्वतंत्रता दिलाई।

उनका नाम इतिहास के स्वर्णाक्षरों में अंकित है—और आगामी पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करता रहेगा।

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