जीवन की त्रिवेणी–मन, हृदय और बुद्धि का सामंजस्य
आलेख | चिन्तन अमरेश सिंह भदौरिया15 Sep 2025 (अंक: 284, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
मानव जीवन को यदि केवल साँसों के आने-जाने तक सीमित कर दिया जाए, तो यह एक नीरस और अधूरी परिभाषा होगी। वास्तव में जीवन वह प्रक्रिया है, जिसमें हमारे विचार, हमारी भावनाएँ और हमारा विवेक एक साथ प्रवाहित होते हैं। यह प्रवाह किसी साधारण नदी की तरह नहीं, बल्कि तीन धाराओं का संगम है–मन, हृदय और बुद्धि। जब ये तीनों धाराएँ संतुलित होकर चलती हैं, तभी जीवन में गहराई, गति और गरिमा का अनुभव होता है।
आज का समय तेज़ी से बदल रहा है। सूचना, तकनीक और प्रतिस्पर्धा की दौड़ ने हमें इतना व्यस्त कर दिया है कि हम अपने भीतर के इस संतुलन को भूलने लगे हैं। कभी हम केवल विचारों में खो जाते हैं और व्यावहारिकता से दूर हो जाते हैं; कभी भावनाओं के बहाव में विवेक को अनदेखा कर देते हैं; और कभी केवल तर्क और विश्लेषण में इतना उलझ जाते हैं कि संवेदनाओं के महत्त्व को नकार देते हैं। यही असंतुलन तनाव, चिंता और अशांति का कारण बनता है।
मनुष्य का मन वास्तव में उसके व्यक्तित्व की सबसे सक्रिय और प्रभावशाली शक्ति है। यह एक ऐसा पंख है जो हमें कल्पनाओं की असीमित ऊँचाइयों तक ले जा सकता है। यहीं से हमारी इच्छाएँ जन्म लेती हैं, यहीं से आकांक्षाएँ आकार लेती हैं और यहीं संकल्पों की नींव पड़ती है। मन की यही ऊर्जा, जब सही दिशा में संयमित और नियंत्रित होती है, तो अद्भुत रचनाएँ और महान कार्यों को जन्म देती है। इतिहास के प्रत्येक महान आविष्कार, प्रत्येक गहन विचार और प्रत्येक प्रेरणादायक रचना के पीछे किसी न किसी का संयमित और एकाग्र मन ही रहा है।
लेकिन यही मन जब चंचल होकर इधर-उधर भटकता है, तो व्यक्ति भ्रमित हो जाता है। यह बेचैनी और व्याकुलता का कारण बनता है। इच्छाएँ अनियंत्रित होकर मोह और आसक्ति का रूप ले लेती हैं, और व्यक्ति अपने लक्ष्य से भटक जाता है। यही कारण है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों ने मन को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है—“मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः”, अर्थात् मन ही मनुष्य को बँधन में डालने वाला है और वही मुक्ति का मार्ग भी दिखाता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि यदि हम अपने मन को नियंत्रित कर सकारात्मक दिशा में लगा लें, तो वही हमें जीवन की ऊँचाइयों तक पहुँचा सकता है।
मनुष्य के भीतर का सबसे मधुर और सबसे कोमल स्थान उसका हृदय है। यही वह स्रोत है, जहाँ से प्रेम, करुणा, दया और सहानुभूति जैसी भावनाएँ जन्म लेती हैं। यही भावनाएँ हमें दूसरों से जोड़ती हैं और वास्तव में हमें “मानव” बनाती हैं। यदि मन हमारे विचारों और निर्णयों को दिशा देता है, तो हृदय उन विचारों में संवेदनशीलता, उष्मा और माधुर्य भरता है।
हृदय के बिना जीवन केवल सूखे तर्क और गणनाओं का संग्रह रह जाता है। सोचिए, यदि दुनिया में केवल नियम, योजनाएँ और लक्ष्य हों, लेकिन उनमें भावनाओं की गर्माहट न हो, तो जीवन कितना नीरस और निष्ठुर लगने लगेगा। यही कारण है कि हृदय की भूमिका अनमोल है। मदर टेरेसा का जीवन इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। उनका हृदय करुणा और सेवा से भरा हुआ था। उनके स्पर्श, उनके शब्द और उनकी सेवा से अनगिनत लोगों को राहत और आशा मिली। यही करुणा से परिपूर्ण हृदय की शक्ति है—जो न केवल अपने लिए जीता है, बल्कि दूसरों के दर्द को महसूस करके उसे कम करने का प्रयास करता है।
मन और हृदय हमारे भीतर के दो महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं—एक हमें विचार और इच्छाएँ देता है, दूसरा उन विचारों को भावनाओं की गर्माहट से भरता है। लेकिन इन दोनों के बीच एक तीसरी शक्ति है, जो इन्हें संतुलन और दिशा देती है—वह है बुद्धि। बुद्धि वह दृष्टि है, जो बताती है कि जो हम सोच रहे हैं या महसूस कर रहे हैं, उसे कैसे सही तरीक़े से पूरा किया जाए। मन हमें “क्या करना है” बताता है, हृदय “क्यों करना है” का कारण देता है, लेकिन बुद्धि ही वह साधन है जो इन दोनों को संयोजित कर सही मार्ग पर चलने की क्षमता प्रदान करती है। यही कारण है कि बुद्धि को अक्सर जीवन की “नौका का पतवार” कहा जाता है।
बुद्धि के बिना ज्ञान मात्र जानकारी बनकर रह जाता है। यदि हमारे पास विचार और भावनाएँ हों, परन्तु बुद्धि न हो, तो हम उनका सही उपयोग नहीं कर पाएँगे। बुद्धि ही हमें सही और ग़लत का भेद सिखाती है। जब जीवन कठिन मोड़ों पर खड़ा होता है, जब भावनाएँ हमें बहा ले जाने की कोशिश करती हैं या जब इच्छाएँ हमें लालच की ओर खींचती हैं, तब बुद्धि ही वह शक्ति है जो हमें थामे रखती है।
आज का समय सचमुच विरोधाभासों से भरा हुआ है। हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जहाँ शिक्षा, तकनीक और प्रतिस्पर्धा ने हमारी बुद्धि को तेज़ और सक्षम तो बना दिया है, लेकिन इसके साथ-साथ हमारे मन और हृदय की ज़रूरतें कहीं पीछे छूटती जा रही हैं। समाज में सफलता का पैमाना अक्सर ज्ञान, कौशल और उपलब्धियों तक सीमित कर दिया गया है, जबकि संवेदनशीलता और भावनात्मक संतुलन को महत्त्व देने का समय घटता जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि हम तकनीकी रूप से दक्ष तो हैं, लेकिन अपने ही रिश्तों में खोखलापन महसूस करते हैं। हमारी बातचीत में शब्द हैं, पर संवेदना कम है।
इसी असंतुलन की वजह से आज तनाव, चिंता, अवसाद और असुरक्षा जैसी स्थितियाँ आम हो गई हैं। हम बाहरी दुनिया में जीत रहे हैं, पर भीतर हार रहे हैं। यही वह संकेत है, जो हमें याद दिलाता है कि केवल बुद्धि ही नहीं, बल्कि मन और हृदय को भी उतनी ही प्राथमिकता देनी होगी। विचारों, भावनाओं और विवेक का सामंजस्य ही हमें स्थिर, संतुलित और वास्तव में सुखी बना सकता है।
जीवन में सफलता और संतोष का असली रहस्य इन तीनों धाराओं–मन, हृदय और बुद्धि–के सामंजस्य में छिपा है। यदि इनमें से कोई एक भी असंतुलित हो जाए, तो जीवन की दिशा डगमगाने लगती है। इसीलिए आवश्यक है कि हम इन तीनों को अलग-अलग समझें और उनका नियमित अभ्यास करें। मन को अनुशासित करने के लिए ध्यान, एकाग्रता और आत्मपरीक्षण बेहद ज़रूरी है। हृदय को संवेदनशील बनाने के लिए करुणा, सेवा और सहानुभूति का अभ्यास करें। बुद्धि को प्रखर रखने के लिए सतत अध्ययन, चिंतन और विवेकशीलता को अपनाना आवश्यक है। महात्मा गाँधी का जीवन इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। उनके भीतर विचारों की स्पष्टता (मन), असीम करुणा (हृदय) तथा दृढ़ राजनीतिक विवेक (बुद्धि) का अद्भुत संगम था। यही कारण है कि उन्होंने न केवल अपने समय को प्रभावित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आदर्श बने।
अतः, जब ये तीनों शक्तियाँ साथ मिलकर काम करती हैं, तभी हम न केवल बेहतर इंसान बनते हैं, बल्कि अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए भी कुछ सार्थक कर पाते हैं। यही सामंजस्य हमें संवेदनशील, विवेकशील और समृद्ध समाज की ओर ले जाता है, और यही वह त्रिवेणी है जो जीवन को एक आनंदमयी और पूर्ण यात्रा बनाती है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
25 वर्ष के अंतराल में एक और परिवर्तन
चिन्तन | मधु शर्मादोस्तो, जो बात मैं यहाँ कहने का प्रयास करने…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अधनंगे चरवाहे
- अधूरा सच
- अनंत पथ
- अनाविर्भूत
- अभिशप्त अहिल्या
- अमरबेल
- अमलतास
- अवसरवादी
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आँगन
- आँगन की तुलसी
- आज की यशोधरा
- आज वाल्मीकि की याद आई
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- उपग्रह
- एकाकी परिवार
- कचनार
- कछुआ धर्म
- कमरबंद
- कुरुक्षेत्र
- कैक्टस
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- गिरगिट
- चित्र बोलते हैं
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चूड़ियाँ
- चैत दुपहरी
- चौथापन
- जब नियति परीक्षा लेती है
- ज्वालामुखी
- ढलती शाम
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- दृष्टिकोण जीवन का अंतिम पाठ
- देह का भूगोल
- देहरी
- दो जून की रोटी
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- नयी पीढ़ी
- नेपथ्य में
- पगडंडी पर कबीर
- परिधि और त्रिभुज
- पहली क्रांति
- पहाड़ बुलाते हैं
- पाखंड
- पारदर्शी सच
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- पुष्प वाटिका
- पूर्वजों की थाती
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- फुहार
- बंजर ज़मीन
- बंजारा
- बबूल
- बवंडर
- बिखरे मोती
- बुनियाद
- भगीरथ संकल्प
- भाग्य रेखा
- भावनाओं का बंजरपन
- भुइयाँ भवानी
- मन मरुस्थल
- मनीप्लांट
- महावर
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- रहट
- रातरानी
- लेबर चौराहा
- शक्ति का जागरण
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- शान्तिदूत
- सँकरी गली
- संयम और साहस का पर्व
- सकठू की दीवाली
- सती अनसूया
- सरिता
- सावन में सूनी साँझ
- हरसिंगार
- हल चलाता बुद्ध
- ज़ख़्म जब राग बनते हैं
सामाजिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक आलेख
- कृतज्ञता का पर्व पितृपक्ष
- कृष्ण का लोकरंजक रूप
- चैत्र नवरात्रि: आत्मशक्ति की साधना और अस्तित्व का नवजागरण
- जगन्नाथ रथ यात्रा: आस्था, एकता और अध्यात्म का महापर्व
- न्याय और अन्याय के बीच
- बलराम जयंती परंपरा के हल और आस्था के बीज
- बुद्ध पूर्णिमा: शून्य और करुणा का संगम
- योगेश्वर श्रीकृष्ण अवतरणाष्टमी
- रामनवमी: मर्यादा, धर्म और आत्मबोध का पर्व
- लोक आस्था का पर्व: वट सावित्री पूजन
- विजयदशमी—राम और रावण का द्वंद्व, भारतीय संस्कृति का संवाद
- विश्व योग दिवस: शरीर, मन और आत्मा का उत्सव
- श्राद्ध . . . कृतज्ञता और आशीर्वाद का सेतु
साहित्यिक आलेख
कहानी
लघुकथा
चिन्तन
सांस्कृतिक कथा
ऐतिहासिक
ललित निबन्ध
शोध निबन्ध
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं