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अधूरा सच

 

वो कहता है—
“मैंने कुछ नहीं छुपाया!”
पर शब्दों से अधिक
उसकी चुप्पी बोलती है। 
आँखें, 
हर बार प्रश्नों से
जैसे बच निकलती हैं, 
जैसे कोई अपराध
अभी भी पलकों में छुपा हो। 
 
दीवार पर टँगी तस्वीर मुस्कुराती है, 
पर उस मुस्कान के पीछे
एक चिट्ठी है—
फटी, पीली, 
जिसे कभी पढ़ा ही नहीं गया। 
 
सच—
सिर्फ़ अदालतों में नहीं पलता, 
वो तो
रसोई के धुएँ में, 
सड़क पर सोते बच्चों की नींद में, 
माँ की ख़ामोश प्रार्थना में
छुपा होता है। 
 
सच कभी पूरा नहीं बोला जाता, 
वो—
कभी अधजले सिन्दूर की राख बनता है, 
कभी किसान के ख़ाली खलिहान में
उगे सपनों की लाश। 
 
कभी–कभी
सच कैमरे से चूक जाता है, 
सुर्ख़ियों से फिसलकर
किसी गुमनाम गली में
दम तोड़ देता है। 
 
तुमने देखा था न—
वो लड़का जो हँस रहा था? 
दरअसल
उसके आँसू
हँसी के पीछे छुपकर
दर्द को चुपचाप पी गए थे। 
 
हम सब—
अधूरे सचों के हिस्सेदार हैं। 
हर मुस्कान में थोड़ा-सा भय है, 
हर चुप्पी में
कोई असहनीय शोर। 
 
और पूरा सच? 
वो शायद कभी कहा ही नहीं गया, 
या कहने की हिम्मत
किसी में बची ही नहीं . . . 

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