न्याय और अन्याय के बीच
आलेख | सांस्कृतिक आलेख अमरेश सिंह भदौरिया15 Sep 2025 (अंक: 284, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
द्रौपदी का चीरहरण केवल एक व्यक्तिगत अपमान नहीं था, बल्कि यह उस समय की पूरी सामाजिक और नैतिक संरचना का पतन था। जब एक पत्नी को जुए में दाँव पर लगाया जाता है, तो यह केवल एक राजा की ग़लती नहीं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक समाज की क्रूरता का प्रदर्शन है जहाँ नारी को सम्पत्ति माना जाता था। द्रौपदी की पुकार उन सभी महिलाओं की पुकार है, जो सदियों से शोषण और अन्याय का शिकार रही हैं। उसका आक्रोश उस गहरी पीड़ा से उपजा था, जो उन लोगों की चुप्पी से और बढ़ गई थी, जिन्हें धर्म का संरक्षक माना जाता था। यह प्रश्न सिर्फ़ कृष्ण से नहीं, बल्कि पूरी मानवता से था कि जब समाज की आत्मा ही मर जाए, तो क्या कोई उम्मीद बाक़ी रहती है?
भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य जैसे महापुरुषों का मौन रहना इस घटना का सबसे दुखद पहलू हैं। ये वे लोग थे जो धर्म और न्याय के सबसे बड़े ज्ञाता थे। भीष्म अपनी प्रतिज्ञा में, द्रोण अपने शिष्य-प्रेम में और कृपाचार्य अपनी राजनिष्ठा में बँधे थे। उनकी चुप्पी हमें यह सिखाती है कि जब हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थों, प्रतिज्ञाओं और मोह में फँस जाते हैं, तो हम न्याय और नैतिकता को भूल जाते हैं। उनका मौन यह भी दर्शाता है कि ज्ञान और शक्ति का कोई अर्थ नहीं अगर वह अन्याय के खिलाफ़ न हो। यह एक गहन दार्शनिक प्रश्न है कि क्या कर्त्तव्य और नैतिकता के बीच चुनाव करने पर कर्त्तव्य को हमेशा प्राथमिकता देनी चाहिए, भले ही वह अनैतिक हो?
कृष्ण का आगमन केवल एक मित्र के रूप में नहीं, बल्कि धर्म के संरक्षक के रूप में हुआ। उनका हस्तक्षेप यह साबित करता है कि जब समाज अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ लेता है, तो किसी उच्च शक्ति को हस्तक्षेप करना पड़ता है। कृष्ण का अनंत चीर प्रदान करना कोई जादुई चमत्कार नहीं था, बल्कि यह एक सशक्त प्रतीक था कि स्त्री की गरिमा असीमित है और उसे कोई भी शक्ति नष्ट नहीं कर सकती। उनका यह कार्य समाज को यह याद दिलाने के लिए था कि नारी केवल शरीर नहीं, बल्कि सम्मान और गरिमा का प्रतीक है।
कृष्ण का यह संदेश कि “अन्याय को सहना भी पाप है” इस पूरे प्रसंग का केंद्रीय बिंदु है। यह हमें सिखाता है कि अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ा न होना भी उतना ही बड़ा अपराध है जितना अन्याय करना। कृष्ण ने यह संदेश दिया कि जब समाज के नायक और संरक्षक मौन हो जाते हैं, तो हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वह न्याय के लिए आवाज़ उठाए। यह केवल निष्क्रिय रूप से देखने का समय नहीं है, बल्कि सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने का समय है।
आज भी यह संवाद हमारे समाज में जीवित है। जब कोई महिला यौन उत्पीड़न या घरेलू हिंसा का शिकार होती है और हम चुप रहते हैं, तो हम भी कौरव सभा के मौन दर्शक बन जाते हैं। जब न्याय मिलने में देरी होती है और अपराधी सत्ता के संरक्षण में बच जाते हैं, तो वह दृश्य हमें आज भी महाभारत की याद दिलाता है।
यह लेख हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भी उस सभा के मौन दर्शक तो नहीं बन रहे हैं? यह एक सशक्त आह्वान है कि हमें द्रौपदी की तरह प्रश्न पूछने की हिम्मत करनी चाहिए और कृष्ण की तरह न्याय के लिए हस्तक्षेप करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें यह समझना होगा कि एक बेहतर समाज का निर्माण तभी सम्भव है जब हम अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ और पीड़ितों के साथ खड़े हों।
यह संवाद हमें याद दिलाता है कि धर्म केवल धार्मिक ग्रंथों में नहीं, बल्कि हमारे कर्मों और हमारे नैतिक विकल्पों में निहित है। हमारा सच्चा धर्म तब प्रकट होता है जब हम अन्याय को देखते हैं और उसके ख़िलाफ़ खड़े होते हैं, न कि जब हम चुप रहते हैं। यही इस अमर कथा का सबसे बड़ा और शाश्वत संदेश है।
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