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कचनार

 

बसंत की आहट से
जब डालियाँ
हल्के गुलाबी सपनों में
भीगने लगती हैं, 
तब कहीं झाँकता है
कचनार। 
 
ना वह गुलाब की तरह
चिल्लाता है, 
ना पलाश की तरह
जंगल जला देता है। 
वो तो चुपचाप
कोमल रंगों में
अपना प्रेम उकेरता है। 
 
हर शाख़ पर
एक अलक्षित मुस्कान। 
जैसे किसी गाँव की
अनजान लड़की
अपने आँगन में
पहली बार खिली हो। 
 
कचनार—
शहर के धुएँ में भी
अपना रंग नहीं खोता। 
वो जानता है
मौसम के बादल
हमेशा नहीं घिरे रहते। 
एक दिन
हर तरफ़ फिर रंग होगा, 
फिर सुरभि होगी। 
 
कचनार का खिलना
सिर्फ़ ऋतु परिवर्तन नहीं, 
एक आश्वस्ति है—
कि समय की रूखी डालियाँ भी
कभी-न-कभी
फिर मुस्कुराएँगी। 
 
और जो
हर वक़्त बसंत खोजते हैं—
उन्हें कचनार सिखाता है
कि कभी-कभी
धूप और छाँव के बीच
ख़ुद ही खिलना पड़ता है। 
 
कचनार, 
एक प्रेमगीत है
जो हवाओं में लिखा जाता है। 
जो हर उस मन का फूल है
जो चीख़ना नहीं चाहता, 
बस अपनी ख़ामोशी में
रंग भरना चाहता है।

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